25.11.09

सबको शिक्षा समान शिक्षा अभियान से जुड़ते लोग

शिरीष खरे


मुंबई। चाईल्ड राईटस एण्ड यू द्वारा मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम में संशोधन को लेकर छेड़े गए अभियान को अब महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और बिहार सहित देशभर से जनसमर्थन मिल रहा है। इसके तहत 17 राज्यों से लगभग 200 एनजीओ और 6700 समुदायों के बीच बच्चों के संवैधानिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए मांगपत्र पर नागरिकों से हस्ताक्षर लिए जा रहे हैं। सबको शिक्षा समान शिक्षा नाम के इस अभियान में बच्चों के लिए जनजागरण, कार्यशालाओं और नुक्कड़ नाटकों का सिलसिला भी चल रहा है। इस अभियान से जुड़े कार्यकर्ताओं का कहना है कि देश के हर बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देना सरकार की जवाबदारी है मगर मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के नाम से बनाये गए मौजूदा अधिनियम में बहुत सारी खामियां हैं। इस अभियान का आखरी पड़ाव 11 दिसम्बर है, जब हस्ताक्षरों वाली एक पुस्तिका राष्ट्रपति को सौंपते हुए उनसे 0 से 18 साल तक के बच्चों को मुख्य प्रावधान में लाने, सकल घरेलू उत्पाद का 10 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने और बस्ती से 1 किलोमीटर के भीतर सुविधायुक्त स्कूलों के साथ-साथ योग्य शिक्षकों के लिए भी मांग की जाएगी। क्राई ने इस अभियान से करीब 5 लाख नागरिकों के जुड़ने की संभावना जतायी है।


अभियान से जुड़ते लोग
अकेले मुंबई में 4 दिनों के भीतर 34 जगहों से करीब 20 हजार नागरिकों ने अपने हस्ताक्षर करके इस अभियान को समर्थन दिया है। इसके अलावा राजस्थान के पोकरन में जन मोर्चा राजस्थान और क्राई के संयुक्त तत्वावधान तथा स्थानीय जनसमूहों के सहयोग से शिक्षा के मौलिक अघिकार अधिनियम के भीतर जनपक्षीय बदलाव के लिए राजस्थान भर में अभियान शुरू किया गया है। इस मौके पर पंचायत समिति सांकड़ा के प्रधान अब्दुल रहमान मेहर ने कहा कि शिक्षा में गुणात्मक सुधार हो, हर बच्चे को समान शिक्षा के अवसर मिले तभी प्रतिभाएं निकलकर सामने आएगी और देश आगे बढ़ेगा। जनमोर्चा राजस्थान के कलाकारों सीपी व्यास, पवनकुमार, प्रकाश पन्नु, मुकेश द्विवेदी, जयदीप बीकानेरी, गोविंद, मोइनुद्दीन और उनके बहुत सारे साथियों ने आज की शिक्षा-राजनीति की वास्तविक स्थिति, विद्यालयों में शिक्षकों की कमी, पोषाहार घोटालों पर एक नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत किया।


उत्तरप्रदेश के लखनऊ में 40 करोड़ भारतीय बच्चों में से 20 करोड़ स्कूल नहीं जा पाते हैं- यह बात क्राई के शुभेंदु भट्टाचार्य ने प्रदेश के सभी जिलों में सबको शिक्षा समान शिक्षा अभियान चालाते हुए कही। उन्होंने आगे कहा कि आज से 20 साल पहले भारत सरकार ने देश के बच्चों को एक समान शिक्षा देने की बात कही थी। मगर आज 20 साल बीतने के बाद भो हाल जैसा का तैसा ही है। संसद ने तीन बार 1968, 1982 और 1992 में कामन स्कूल सिस्टम सर्वमान्य पाठशाला व्यवस्था लागू की है। मगर अभी तक बच्चों को समान शिक्षा नहीं मिल पा रही है। बच्चे इससे वंचित हैं। आज सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी है और प्राइवेट स्कूलों की संख्या बढ़ती जा रही, इससे अमीर घर के बच्चे तो वहां पढ़ रहे हैं मगर गरीब घर के बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही पढना पढ़ रहा है। जहां पढ़ाई बस नाम की ही हो रही है। क्राई के मुताबिक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम में संशोधन करके इसे भारत का सबसे महत्वपूर्ण अधिनियम बनाया जा सकता है। इसके पहले शिक्षा समानता पद मार्च में बच्चे 'रोटी खेल पढाई प्यार, हर बच्चे का है अधिकार/जैसा बच्चा हुजूर का, वैसा मजूर का/राष्टपति का बेटा हो या चपरासी की हो संतान, सबको शिक्षा एक समान' जैसे नारे लगाकर लोगों से हस्ताक्षर करने की अपील की।


उत्तराखंड के गोपेश्वर में शिक्षा के अधिकार अधिनियम में संशोधन को लेकर चल रहे अभियान पर क्राई के उत्तराखंड प्रभारी मोहम्मद सलाम खान ने कहा कि स्कूलों में ही प्राइवेट स्कूल जैसी ही पढ़ाई हो और बच्चों को बाहरवीं तक शिक्षा की गारंटी दी जाए। इससे गरीब बच्चे न केवल बेहतर बल्कि आत्मविश्वास और ईज्जतदार तरीके से भी पढ़ सकेंगे। बिहार में भागलपुर के कला केन्द्र में क्राई के पूर्वी क्षेत्र के मैनेजर शरदेंदु बनर्जी ने बताया कि 6 साल से नीचे ही 6 करोड़ 70 लाख बच्चे हैंए जिन्हें 1993 में सर्वोच्च न्यायालय ने मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की गांरटी दी थी। जबकि इस विधेयक में उनका हक़ कट हो गया है। यह तो सभी बच्चों को शिक्षा के हक देने की बजाय पूर्ण शिक्षा की गारंटी में कटौती करने वाला विधेयक है। इस मौके पर परिधि संस्था के निदेशक उदय ने कहा कि या कि बिहार के 25 सौ से ज्यादा गांवों एवं 30 जिलों में हस्ताक्षर अभियान चलाया जाएगा।



चलते-चलते
क्राई के मुताबिक भारत की 53 प्रतिशत बस्तियों में स्कूल न होने के बावजूद इस बार के बजट पर बच्चों की शिक्षा पर कटौती की गई है। वह भी तब जब भारत 2015 तक स्कूली शिक्षा का लक्ष्य पूरा नहीं कर सकता है।

22.11.09

रेल के लिए ज़िंदगी रोक दी

शिरीष खरे



सूरत/ मीराबेन को अब नींद नहीं आती. क्यों? उनके पास इसका सीधा जवाब है, 'अगर आदमी को फांसी पर लटकाना तय हो, पर तारीख तय न हो तो उसे नींद कैसे आएगी?'




मीरा बेन और उनके जैसे सूरत शहर के हजारों लोग इन दिनों परेशान हैं. परेशानी का सबब है उनका आशियाना, जिसे कभी भी, कोई भी सरकारी अमला तोड़ कर चल देता है.

समय के छोटे-छोटे अन्तराल से शहर की बाकी झोपड़ियों की तरह मुंबई-अहमदाबाद मेनलाइन की झोपड़ियों को तोड़कर गिराया जाना आम बात है लेकिन इस बात की जिम्मेदारी कोई नहीं लेना चाहता कि उसने झोपड़ियां तोड़ी हैं. शहर की झोपड़ियों के तोड़े जाने पर पुनर्वास और राहत जैसे मुद्दे जुड़ जाते हैं और इस बार झोपड़ियों को गिरानेवालों ने नया तरीका निकाला. झोपड़ी किसने तोड़ी, इस सवाल का जवाब सब जगह से एक-सा आता है, ‘हमने नहीं उसने’. महापालिका के पास भी यही जवाब है और रेलवे के पास भी.

सवाल सिर्फ एक सूरत का नहीं है, देशभर में रेलवे पट्टियों के दाएं-बाएं बसी असंख्य झोपड़ियों का यही हाल है. इन्हें भी पुनर्वास की वाजिब व्यवस्था चाहिए, जो कि न रेलवे की नीति में दर्ज है और न राष्ट्रीय पुनर्वास की नीति में.

यहां कतारगांव से लगे 18 से ज्यादा झोपड़पट्टियों के 12 हजार से ज्यादा रहवासी जब माटी में मिले झोपड़े का सवाल उठाकर महापालिका और रेलवे के पास पहुंचते हैं तो दोनों पहले तो डेमोलेशन की जानकारी नहीं होने की बात कहते हैं. पर जब मालूम चलता है तो एक-दूसरे को कसूरवार ठहराते हैं. इस तरह, डेमोलेशन के दौरान दोनों आफिस वालों के आपसी कोर्डिनेशन' जैसे अगले सवाल लोगों की जवाब पर ही अटके रह जाते हैं.

जाहिर है, अगर दोनों ने ही डेमोलेशन नहीं किया तो उनमें से एक भी मुआवजा क्यों देगा? और यह कोई प्राकृतिक आपदा भी नहीं कि उम्मीदों को 'सरकारी पंख' ही लग जाए?


सवाल दर सवाल हैं
यहां रेलवे और महापालिका की जमीन के बीच में कम से कम 150 झोपड़ियां ऐसी भी हैं जिन्हें रेलवे का दावा है कि वह महापालिका की जमीन पर हैं, महापालिका का दावा  है कि वह रेलवे की जमीन पर हैं.यानी जब तक साबित नहीं होता तब तक के लिए सारे 'भगवान भरोसे' हैं. और साबित होने की कोई तारीख तय नहीं है.

हालांकि अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए रेलवे और महापालिका दोनों ही इस कोशिश में हैं कि अपने को इससे कितना अधिक दूर रखा जाए. महापालिका का कहना है कि झोपड़पट्टी वाला हिस्सा रेलवे की जमीन पर है इसलिए हम  बिजली और पानी भी नहीं दे सकते. लेकिन थोड़े से फासले पर मफतनगर और संगम टेकरी के लिए महापालिका बिजली-पानी पहुंचाता है. और जब मफतनगर और संगम टेकरी से शौचालय, आंगनबाड़ी, स्कूल के सवाल उठते हैं तो फिर वही जवाब होता है, 'आप रेलवे की जमीन पर हो'.

यह और बात है कि महापालिका के चुनाव में वोट लेने का जब सवाल आता है तो इस तरह के सारे जवाब  गायब हो जाते हैं. दिलचस्प यह भी है कि यहां के ज्यादातर रहवासी बुनियादी सहूलियतों की लालसा में टैक्स देना चाहते हैं लेकिन महापालिका लेना नहीं चाहता. यानी केवल वोट के सवाल पर इन झोपड़पट्टी के लोग ‘महापालिका के लोग’ हैं, अन्यथा ‘रेलवे के लोग’. देखा जाए तो झोपड़ियों तक रोशनी पहुंचाना, कायदे से महापालिका का फर्ज है मगर फायदे के मद्देनजर यह काम प्राइवेट कंपनी संभाले हुए हैं. इसी प्रकार, इन इलाकों में सरकार के बजाय स्वैच्छिक संस्थाएं आंगनबाड़ियां चलाती हैं.

11 फरवरी 2009 को, सरकारी कामकाज के समय यानी सुबह 10 से 1 और दोपहर 2 से 5 तक, रेलवेपट्टी के दोनों तरफ की 400 झोपड़ियां तोड़ी गईं. अंबेडकरनगर के ठाकुरभाई बताते हैं, 'डेमोलेशन दस्ते में 3 बुल्डोजर, 125 के आसपास पुलिस के जवान, 50 के आसपास रेलवे सुरक्षा गार्ड, बहुत सारे रेलवे के अधिकारी, कर्मचारी थे. आगे-आगे डेमोलेशन, उसके पीछे-पीछे महापालिका वाले नल, गटर के पाईप और बिजली के तार काटते जाते थे.'

लोग इस बात को लेकर उत्सुक थे कि अगले दिन झोपड़ियां कहां तोड़ी जाएंगी. लेकिन यह सवाल अनुत्तरित रह गया. अंबेडकरनगर जैसी झोपड़पट्टी के तमाम रहवासियों की तरह अंजू बेन भी इस उम्मीद में थीं कि कोई-न-कोई आएगा, तोड़-फोड़ रोक ही देगा. हर साल वोट लेने वालों से यह उम्मीद तो थी ही. लेकिन अगले दिन की सुबह के साथ तमाम उम्मीदों की भी उम्र टूटी और अंबेडकरनगर का ठिकाना उखाड़ फेका गया. सैकड़ों सिर के ऊपर से दुनिया, दुनिया की चाहरदीवारी में रखी मामूली सुख देने वाली सुविधाएं एक झटके में मिट्टी में मिल गईं.

कोई हमदम ना रहा
अंजू बेन के घर-गृहस्थी के तार तो टूटे ही, घरवाला भी टूट गया. अंजू बेन का पति सूरज यादव अच्छा खासा आटो चालक था, सप्ताह भर पहले ही उसने कोई 1500 रुपये लगाकर आटो की मरम्मत भी करवाई थी. लेकिन उस रोज झोपड़पट्टी तोड़ने वालों ने उसके साथ मारपीट की और आटो भी ले उड़े. सूरज ने अगली सुबह पुलिस की टेबल पर अपने आटो का सवाल रखा, जबाव मिला- अब वह एक सरकारी संपत्ति है. सूरज तब से अब तक लापता है.

मुसलमान परिवार की अंजू बेन ने 20 नंवबर, 1991 को सूरज यादव के साथ नई दुनिया बसायी थी. अंजू बेन 10 की उम्र में भारूच जिले के भाखोदरा से पिता की पान की टपरी के साथ सूरत चली आई थी, 10वीं पढ़ने के बाद वह सेठों के घरों में काम पर लगी. नई दुनिया बसाते ही उसे भाड़े के अलग-अलग मकानों को बदलना पड़ता था. बदलते हुए मकानों के बीच ही काजल हुई, और जब वह बड़ी होने लगी तो 1995 में अंजू बेन ने बराछा-कापुदरा पुलिस-स्टेशन के पीछे 30000 रूपए में झोपड़ा खरीदा. 2001 में उसने वह झोपड़ा डेढ़ लाख में इन उम्मीदों के साथ बेचा कि सस्ता झोपड़ा मिलेगा, बचे हुए पैसे से मजूरी की जगह कोई धंधा-पानी शुरू होगा.

इसी साल आटो तो आया लेकिन बाकी का पैसा चोरी हो गया. हादसे के 4 रोज बाद दिमागी असंतुलन बिगड़ने के चलते अंजू बेन को नवी सिविल अस्पताल लाया गया, सारी दवाईयां सदमे के सामने बेअसर-सी ही रहीं. ऐसी नाजुक घड़ी में अगला ठिकाना कोसाठ के भाड़े का झोपड़ा बना. 2006 की बाढ़ में वह भी साथ छोड़ गया.

दर-दर की ठोकर खाने के बाद आखिरी आशियाना अंबेडकरनगर रहा, यहां कुछेक महीने बीतते ही डेमोलेशन का पहला कहर झेला. लंबी खामोशी के बाद डेमोलेशन का दूसरा कहर अब ऐसा बरपा है कि घरबार तो दूर, घरवाला ही अलग हो चुका है.

इस बच्चे का हत्यारा कौन है ?
11 फरवरी को ही संगम टेकरी की मीरा बेन सहित कुल 168 रहवासियों की झोपड़ियां भी देखते-देखते जमींदोज कर दी गईं. मीरा बेन की झोपड़ी महापालिका की जमीन पर थी और पड़ोस की गोटी बेन की रेलवेकी जमीन पर. अभी भी मीरा बेन-गोटी बेन के सवाल जवाब मांगते हैं कि ‘झोपड़ियां तोड़ी किसने’, ‘मुआवजा देगा कौन’? जबाव में महापालिका ने रेलवे आफिस का पता बताया है, रेलवे के आफीसर ने महापालिका का ठिकाना.

मीरा बेन कहती हैं, 'अगर आदमी को फांसी पर लटकाना तय हो, मगर तारीख तय न हो तो उसे नींद कैसे आएगी? ऐसे ही है हमारी जिंदगी. बार-बार हमें हमारी झोपडियों सहित उजाड़ना है, बार-बार नुकसान सहना है, मगर कब- तारीख कोई नहीं जानता. इसलिए इधर कोई चाहकर भी न तो अपना झोपड़ा सजाता है, न ही झोपड़े का सामान बढ़ाता है. हमारे भीतर से तो बड़ी बिल्डिंग और कारों वाली तस्वीर चिपकाने की चाहत उड़ चुकी है. ‘कल भी आबाद रहेंगे’- इसी चाहत में राहत भरी नींद आ जाए, अब यही बहुत है.'

संगम टेकरी बांस के खूबसूरत फर्नीचर और माटी की मूर्तियां बनाने वाले भील, बसावा और मुसलमानों की बस्ती है. डेमोलेशन की मार से श्रीराम का पक्का मंदिर भी टूट चुका था. यहां के हिन्दू-मुसलमान कलाकारों ने बांस-लकड़ी की शानदार कलाकारी से मंदिर को तो दोबारा खड़ा कर लिया है लेकिन मंजू बेन के 2 दिन के लड़के को कौन लौटाएगा?

वह खाना बनाने-खाने का समय था, अचानक बुल्डोजर चलते ही पूरा समय हर तरफ अफरा-तफरी के माहौल में बदल गया. मंजू बेन को 5 किलो आटा बचाने के लिए 5 मिनट का भी समय नहीं मिला. वह हड़बड़ाहट में उसी खटिया पर गिरीं, जिस पर उनका 2 दिनों का बच्चा सो रहा था. 2 दिन पहले इस दुनिया में आया बच्चा दबा और हमेशा के लिए उसने आंखें मूंद ली. मगर बुल्डोजर न रूका.

बंटे हुए लोग
सामाजिक कार्यकर्ता भरत भाई कंथारिया कहते हैं, 'डेमोलेशन की ज्यादातर कार्यवाहियों मौसम के मिजाज को बिगड़ते हुए देखकर की जाती हैं. सारे झोपड़े एक साथ न तोड़कर, कभी 200 तो कभी 400 की संख्या में तोड़े जाते हैं, जिससे लोग संगठित न हो सकें. ऐसे हमले अचानक और बहुत जल्दी-जल्दी होते हैं.’

ऐसा नहीं है रेलवे पट्टी के लोगों का पुनर्वास महापालिका नहीं कर सकती. मुंबई में जब रेलवे पट्टी के लोगों को हटाया गया तो स्थानीय महापालिका ने बाशी और उससे लगे एक बड़े इलाके में पुनर्वास करवाए. जो बीते 2-3 सालों से लगातार चल भी रहे हैं. लेकिन देश भर की रेलवे पट्टियों के आसपास मौजूद बसाहटों के पुनर्वास की कोई ठोस रूपरेखा नहीं है. इससे जुड़े तमाम तथ्यों, उम्मीदों, संवेदनाओं और हकों से जुड़े सवाल भी फिलहाल रूके हुए हैं.

पचासों सालों से अपनी जगहों पर रूके लोगों के दिलों-दिमाग में ‘अस्थायी’ और ‘पराया’ होने का एहसास बरकरार है. रेलवे पट्टी की जनता कहीं अलग-अलग राज्य, जुबान, तो कहीं अलग-अलग जाति, धर्म, पार्टी जैसे धड़ों में बिखरी है, भटकी है. कुल मिला कर रेलवे पट्टी की बड़ी तादाद एक साथ होकर भी ‘एक’ नहीं है. उनके हिस्से में वोट भी हैं, उलझने भी. उनकी जिंदगी में पुनर्वास और बुनियादी सहूलियतों की उम्मीदें रेलवे की दो पटरियों की तरह हो चुकी हैं. जो सामानांतर चलती तो हैं, लेकिन मिलती कभी नहीं.

19.11.09

आर्थिक विकास के बीच बढ़ती लैंगिक-असमानता

शिरीष खरे


भारत सरकार कहती है कि पहली बार देश में प्रति व्यक्ति आय 3000 रुपए/महीने को पार कर रही है। उधर इस साल विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) के लैंगिक-समानता पर हुए मूल्यांकन में 134 देशों के बीच भारत की 114वीं रैंकिंग रही है। जैसे एक बात (आर्थिक विकास) दूसरी (मानवीय विकास) को काटते हुए जता रही है कि विकास को दर या प्रतिव्यक्ति आय के आंकड़ों से नापना ठीक नहीं है। क्योंकि देश की 80% प्रतिशत पूंजी पर 20% घरानों का कब्जा है। क्योंकि देश का आर्थिक विकास बहुत केन्द्रित है और उसका फायदा भी कुछ घरानों तक ही सीमित है। अगर ऐसा नहीं होता तो लैंगिक-समानता के मद्देनजर दुनिया भर में पुरूष : महिलाओं के बीच संसाधनों और अवसरों के वितरण को लेकर भारत की हालत में कुछ तो सुधार हुआ होता। मगर 2006 को लैंगिक-समानता पर हुए इसी मूल्यांकन में भारत की 98वीं रैकिंग थी, जो अब 16 पायदान नीचे गिरकर 114वीं हो चुकी है।

भारत चाहे तो इस बात पर संतोष जता सकता है कि उसकी कतार में एशिया के कई और देश भी शामिल हैं जैसे कोरिया (115), ईरान (128) और पाकिस्तान (132)। जहां तक लैंगिक-समानता के लिहाज से अव्वल देशों का सवाल है तो आइसलैण्ड पहले स्थान पर है, इसके बाद रैंकिंग में फिनलैण्ड (2), नार्वे (3), स्वीडन (4), न्यूजीलैण्ड (5), साऊथ अफ्रीका (6), डेनमार्क (7), आयरलैण्ड (8), फिलीपिंस (9) और लेसोथो (10) आते हैं। पिछले साल के मुकाबले ब्रिटेन (15) और अमेरिका (31) भी पीछे रहे हैं। भारत आर्थिक विकास के तौर पर जिस चीन का अनुसरण कर रहा है उसकी 60वीं रैंकिंग है, जो पिछले साल के मुकाबले 3 स्थान नीचे है। वहीं रुस की 51वीं और ब्राजील की 82वीं रैंकिंग।

खासतौर से भारत, पाकिस्तान और ईरान में महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक स्थितियां बहुत खराब बतलायी गई हैं। जबकि राजनैतिक जागरूकता के लिहाज से यहां महिलाओं का प्रदर्शन अपेक्षाकृत सुधरा है। कहने को महिलाओं की आबादी में करीब आधी हिस्सेदारी है मगर वह नागरिक समाज के विभिन्न हिस्सों में बराबरी की संख्या और भागीदारी से नहीं जुड़ पा रही हैं। ऐसे में अगर विकास होता भी है तो उसे संतुलित और टिकाऊ विकास नहीं कहा जा सकता।

आयरलैण्ड में सबसे कम मातृ मृत्यु दर है, यहां 100,000 पर 1 की मौत होती है। जबकि चाड में सबसे ज्यादा मातृ मृत्यु दर होती है, यहां 100,000 पर मौतों का आकड़ा 1500 है। 24 देश ऐसे हैं जहां की मातृ मृत्यु दर 100,000 पर 500 से ज्यादा मौतों को छूती हैं। सालाना आधा मिलियन से भी अधिक महिलाएं गर्भावस्था और प्रसव के दौरान मारी जाती हैं। इसी तरह 3.7 मिलियन नवजात शिशु अपने जन्म से 28 दिनों के भीतर मर जाते हैं। हर साल 1 मिलियन से अधिक बच्चे अपनी मांओं के बगैर जीने को मजबूर होते हैं। यह अलग बात है कि गर्भावस्था या प्रसव के दौरान बुनियादी सुविधाएं भर भी मिल जाए तो मातृ मृत्यु को 80% तक रोका जा सकता है। विकासशील देशों में मातृ मृत्यु के 5 सबसे बड़े कारण हैं: रक्तस्त्राव, संक्रमण, उच्च रक्तचाप, असुरक्षित गर्भपात और अत्याधिक श्रम करना। गर्भावस्था या प्रसव के दौरान होने वाली 20% मौतों का कारण मलेरिया और ऐनेमिया जैसी बीमारियां हैं। इसी तरह महिलाओं को जरूरत से कम भोजन मिलना भी एक अति गंभीर समस्या है।

भारतीय स्वास्थ्य सेवा का हाल जानने के लिए मध्यप्रदेश ही काफी है जहां बीते सरकारी संस्थाओं में 10 सालों से 26 हजार बिस्तर ही लगे हैं। प्रसव के आकड़े डेढ़ लाख से बढ़कर साढ़े पंद्रह लाख जा पहुंचे और ढ़ांचागत सुविधाएं हैं कि सुधारने के नाम ही नहीं लेती। मध्यप्रदेश ही नहीं पूरे भारत की यही विडंबना है क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की अनुशंसा है कि प्रति 1000 मरीजों पर कम से कम 3 बिस्तर तो होने ही चाहिए। फिर भी भारत में प्रति 2000 मरीजों के लिए एक बिस्तर भी नहीं है। यहां महिलाओं के लिए बुनियादी सहूलियत की बात तो दूर, महिलाओं की स्वास्थ्य की स्थिति को जांचने और उससे जुड़ी साधारण सूचनाओं का पता लगाने की भी कोई कारगर व्यवस्था नहीं है। यह भी अजब व्यवस्था की गजब कहानी ही है कि कुपोषण जहां महिला बाल विकास के हिस्से में है वही उससे होने वाली मौत स्वास्थ्य विभाग के हिस्से में। याने यहां बाल और महिलाओं संरक्षणों के लिए कोई एकीकृत नीति नहीं है। देश में स्वास्थ्य सहित दूसरी सेवाओं को सीमित करते हुए उन्हें बाजार में घसीटा जा रहा है। अर्जुन सेनगुप्ता की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 82 करोड़ परिवार ऐसे हैं जो रोजाना 20 रूपए भी खर्च नहीं कर सकते। अब अगर स्वास्थ्य जैसे सेवा क्षेत्र भी बाजार के हाथों में जाएगा तो असर तो पड़ेगा ही, खासतौर पर बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य पर। मगर सरकार है कि स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र में भी निजीकरण को बढ़ावा दे रही है।

इसी के साथ यह तथ्य भी गौर करने लायक है कि अमेरिका में 1325 अमेरिकी नागरिकों पर एक भारतीय डाक्टर है। वहीं भारत में 2200 भारतीयों पर एक भारतीय डाक्टर है। आयरलैंड की पूर्व राष्ट्रपति मेरी रोबिन्सन मानती है कि ‘‘अमीर देशों की स्वास्थ्य सेवाएं गरीब राष्ट्रों के संसाधनों पर आधारित हैं। उदारवादी आर्थिक दर्शन स्वास्थ्य को लागत मानता है, न कि आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए अनिवार्यता। सरकारों को चाहिए कि वह इसकी गणना सकल घरेलू उत्पाद के रूप में करे। मगर मातृ-मृत्यु, जो कि मानव अधिकारों का गंभीर उल्लंघन है, उसकी तरफ सरकार का ध्यान ही नहीं जाता। इस संबंध में आप मेरे देश का उदाहरण सामने रखें। आयरलैंड में यदि किसी अस्पताल में बच्चे को जन्म देते समय उसकी मां मर जाती है तो पूरा अस्पताल शोक प्रकट करता है। यह एक वास्तविक त्रासदी है।’’ मेरी रोबिन्सन आगे बताती हैं कि ''संकट बहुत महत्वपूर्ण होता है अतएव उसे बर्बाद नहीं करना चाहिए। मौजूदा परिदृश्य भी यह दर्शाता है कि विशुद्ध बाजार आधारित प्रवृत्ति से समानता और न्यायासंगिता नहीं आएगी, खासकर गरीबों के हित में।''

भारत सरकार की आर्थिक नीति को ध्यान में रखते हुए देखा जाए तो यहां आय भी बढ़ रही है तो नागरिकों के बीच का असंतोष भी। क्योंकि आय के वितरण में व्यक्तिगत और क्षैत्रीय असमानताएं जो बढ़ रही हैं। जिसका नतीजा है कि नागरिकों के बीच बुनियादी सहूलियतों का अंतर तो बढ़ ही रहा है, लैगिंक-असमानताएं भी बढ़ रही हैं। ऐसे हालातों में ‘कुल राष्ट्रीय आय’ को विकास का लक्ष्य मानने की बजाय ‘कुल मानव सुखों’ को विकास के पैमानों से जोड़ने की जरूरत है।

16.11.09

सिर्फ साक्षर बनाने से कुछ नहीं होगा

शिरीष खरे

मुंबई में बाशीनाका के पास रहने वाली 11 साल की चेन्या इसी इलाके के बाकी लोगों की तरह ही एक मजदूर परिवार से है। जहां चेन्या का बड़ा भाई पटेलनगर की एक होटल में काम करने जाता है वहीं चेन्या पढ़ने के लिए अपने घर से 3 किलोमीटर दूर ‘नेशनल केमीकल फरटीलाइजर कालोनी’ के एक निगम स्कूल में जाती है। मगर इसी साल ‘शिक्षा का अधिकार विधेयक’ पारित होने के बाद वह भी प्राइवेट स्कूल जा सकती है। विधेयक में चेन्या जैसी बच्चियों के लिए 25 प्रतिशत कोटा जो तय किया गया है। फिर भी ऐसा क्यों है कि चेन्या के पिता विठ्ठल भाई बहुत खुश नहीं दिखते ?

विठ्ठल भाई 10 साल पहले रोजीरोटी की तलाश में शोलापुर जिले के गुलबरका गांव से मुंबई चले आए थे। विठ्ठल भाई मानते हैं कि अगर चेन्या प्राइवेट स्कूल में जाए भी तो अमीर बच्चों की अमीरी देखकर वहां खुलकर नहीं पढ़ पाएगी। वह चाहते हैं कि निगम के स्कूलों में ही प्राइवेट स्कूल जैसी ही पढ़ाई हो और बच्चों को बाहरवीं तक शिक्षा की गारंटी भी। इससे गरीब बच्चे न केवल बेहतर बल्कि आत्मविश्वास और ईज्जतदार तरीके से भी पढ़ सकेंगे। ऐसी आपत्तियां विठ्ठल भाई जैसे गरीब लोगों की ही नहीं हैं, बच्चों के हकों से जुड़े कई शिक्षाविदों और कार्यकर्ताओं भी यही राय है। यह सभी ‘शिक्षा के अधिकार विधेयक’ को बहुत सारी खामियों से भरा विधेयक मानते हैं।

क्राई याने ‘चाईल्ड राईटस् एण्ड यू’ का मानना है कि 6 साल से नीचे और 15 से 18 साल के बच्चों को छोड़ देने से विधेयक अपना मकसद खो देता है। 6 साल से नीचे ही 6 करोड़ 70 लाख बच्चे हैं, जिन्हें 1993 में सर्वोच्च न्यायालय ने मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की गांरटी दी थी। जबकि इस विधेयक में उनका हक़ कट हो गया है। यह तो सभी बच्चों को शिक्षा के हक देने की बजाय पूर्ण शिक्षा की गारंटी में कटौती करने वाला विधेयक है। आमतौर पर बच्चे 3 साल में स्कूल जाने लगते हैं मगर बड़ी हैरत की बात है की शिक्षा का हक उनके लिए नहीं होगा। दूसरी तरफ यह विधेयक तकनीकी और उच्च शिक्षा लेने की योग्यता और अवसर नहीं देता है। क्योंकि ज्यादातर तकनीकी शिक्षा बारहवीं के बाद ही की जाती है मगर विधेयक उन्हें आठवीं तक ही शिक्षा देने की बात कह रहा है। मौजूदा हालातों के हिसाब से आठवीं तक की पढ़ाई बच्चों के विकास के लिए काफी नहीं मानी जाती। ऐसे में विधेयक को पढ़कर लगता है कि सरकार की दिलचस्पी जैसे शिक्षा की बजाय साक्षरता बढ़ाने तक हैं। इसी तरह सरकार की कई योजनाओं के अर्थ अलग-अलग हैं। जिसमें से भी बहुत सी तो सिर्फ साक्षरता बढ़ाने के लिए ही चल रही हैं।

सरकारी स्कूलों और शिक्षकों की गुणवत्ता में सुधार से लेकर राज्य द्वारा शिक्षा पर मुनासिब खर्च किए जाने जैसी बातों को विधेयक के भीतर नहीं रखा गया है। इसके अलावा शारारिक और मानसिक तौर से विकलांग बच्चों के हकों के लिए लड़ने वाले कई कार्यकर्ता भी इस विधेयक से संतुष्ट नहीं हैं। क्योंकि विधेयक में एक तो ‘चिल्ड्रन विद डिसेबिलिटी’ शब्द में संशोधन नहीं किया गया है और दूसरा ऐसे बच्चों के हक दिलाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी गई है।

इस विधेयक में वित्तीय जवाबदारियों के मद्देनजर केन्द्र और राज्य सरकारों की भूमिकाओं के बारे में साफ-साफ नहीं किया गया हैं। शिक्षा के बुनियादी हक के हनन पर यह विधेयक उल्टा अदालत जाने से रोकता है। क्योंकि इसमें साफ कहा गया है कि अगर कोई शिकायत हो तो ‘नेशनल कमीशन फार दा प्रोटेक्शन आफ चाइल्ड राईटस’ के पास जाए। जबकि इसके पास कोई न्यायिक अधिकार ही नहीं है।

क्राई इन तथ्यों पर रौशनी डाल रहा है कि भारत की 53 प्रतिशत बस्तियों में ही स्कूल हैं। यहां 40 करोड़ बच्चों में से आधे स्कूल नहीं जा पाते हैं। इसके बावजूद पिछले बजट में बच्चों के हकों से जुड़े कई शब्दों से लेकर ‘सर्व शिक्षा अभियान’ और ‘मिड डे मिल’ जैसे योजनाओं को अपेक्षित जगह नहीं दी गई। कुल बजट में 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी तो की गई मगर बच्चों की शिक्षा पर महज 10 प्रतिशत की ही बढ़ोतरी हुई। याने आमतौर पर बढ़ोतरी दर में से बच्चों की शिक्षा में 15 प्रतिशत की कमी हुई। वह भी ऐसे हालातों में जब भारत 2015 तक स्कूली शिक्षा का लक्ष्य पूरा नहीं कर सकता है।

ई का मानना है कि आबादी का इतना बड़ा हिस्सा मतदान में दूर रहने के चलते राजनैतिक तौर से उपेछित रहता है। इसलिए संस्था ने बच्चों के हकों से जुड़े सवालों को राजनैतिक एजेण्डों से जोड़ने के लिए समय-समय पर जन अभियान चलाया है। इस कड़ी में उसने ‘सबको शिक्षा समान शिक्षा’ नाम से एक राष्ट्रव्यापी अभियान छेड़ा दिया है। इसी तरह लोकसभा चुनाव के समय भी क्राई ने बच्चों के हक को मुद्दा बनाया था। इसके लिए चार्टर तैयार करते हुए उम्मीदवारों और जनता से बच्चों की जीत के लिए वोट मांगे थे। इस दौरान संस्था ने 18 साल से नीचे के सभी किशोरों को बच्चा मानकर उन्हें बच्चों के सभी हक दिए जाने की मांग को बुलंद किया था। जिससे बच्चों पर असर डालने वाली सभी नीतियों और कानूनों में मौजूद असंतुलन को दूर किया जा सके। इसी तरह समाज में जो असंतुलन है, वही तो स्कूल की चारदीवारी में हैं। कुल मिलाकर नीति, कानून और समाज से स्कूल में घुसने वाले उन कारणों को तलाशना होगा जो ऊंच-नीच की भावना को बढ़ाते हैं। अगर समाज में समानता लानी ही है तो सबसे अच्छा तो यही रहेगा कि इसकी शुरूआत शिक्षा और बच्चों से ही की जाए।

13.11.09

सबको शिक्षा समान शिक्षा के लिए एक राष्ट्रव्यापी अभियान

शिरीष खरे









मुंबई। बालदिवस के मौके पर क्राई ने एक 'सबको शिक्षा समान शिक्षा' नाम से राष्ट्रव्यापी अभियान छेड़ा है जिसमें सभी लोगों को एक घोषणापत्र में हस्ताक्षर करने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है। इसके बाद घोषणपत्र को सरकार के सामने रखा जाएगा और बच्चों की निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 में 3 संशोधनों के लिए कहा जाएगा।


क्राई की तीन मांगों में से पहली यह है कि 6 साल से नीचे और 15 से 18 साल तक के बच्चों को भी मुख्य प्रावधान में लाया जाए। दूसरी, हर बस्ती से 1 किलोमीटर के भीतर योग्य शिक्षक और सुविधायुक्त स्कूल हों। तीसरी, सकल घरेलू उत्पाद का 10 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जाए।

क्राई के मुताबिक इस अधिनियम में ऐसी बहुत सारी कमियां हैं जो बच्चों को उनके बुनियादी हकों से बेदखल करती हैं और उनके बीच की असमानताएं बढ़ाती हैं। इसलिए संस्था ने तय किया है कि वह शिक्षा अधिनियम में संशोधन के लिए जनता का समर्थन लेगी और इस तरह से सरकार का ध्यान खीचेगी। यह घोषणापत्र राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केन्द्र सरकार के मंत्रियों और सभी राज्यों के महत्वपूर्ण अधिकारियों के सामने पेश किया जाएगा।

क्राई की डायरेक्टर योगिता वर्मा सहगल ने इस अभियान के बारे में बताया है कि ‘‘आगामी शीतकालीन सत्र हमें सरकार से यह कहने का एक मौका देता है कि अधिनियम और उसके प्रावधानों में संशोधन किए बगैर देश के हर बच्चे तक उसके अधिकार नहीं पहुंच सकते हैं। इसे देखते हुए क्राई ने 18 राज्यों के अपने 200 से भी ज्यादा ग्रासरूट एनजीओ को साथ लिया है और 6700 बस्तियों मे यह हस्ताक्षर अभियान शुरू किया है। हम देश के कई हिस्सों में बहुत से कार्यक्रम करेंगे और नागरिकों को इस अधिनियम में मौजूद कमियों के बारे में बताएंगे। हम उनसे कहेंगे कि वह इस अभियान में भाग लेकर बच्चों के अधिकारों के लिए सरकार पर दबाव बनाएं। हमें उम्मीद है कि इस घोषणापत्र पर देश भर से 5 लाख से ज्यादा नागरिक हस्ताक्षर करेंगे।’’

क्राई ने शिक्षा अधिनियम में संशोधन की जरूरत को बतलाने के लिए 500 से ज्यादा गांवों और 22 से ज्यादा शहरों में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करने का फैसला लिया है। उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद और बनारस के कई झुग्गी बस्तियों में बच्चों के ऐसे कार्यक्रम हो भी चुके हैं।

11 दिसम्बर को यह अभियान पूरा होगा। 11 दिसम्बर की तारीख बच्चों के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन की सालगिरह के चलते खास मानी जाती है। देशभर से नागरिकों के हस्ताक्षर करने के बाद इस घोषणापत्र को एक प्रतीकात्मक पुस्तिका के तौर पर राष्ट्रपति के हाथों में सौपा जाएगा।

10.11.09

खेत के मालिक मगर कागज पर भूमिहीन

शिरीष खरे


मुंबई। भिवंडी में  दलित-आदिवासी 60 सालों से 11 हेक्टेयर चारागाह की जमीन पर खेती करने और तमाम सरकारी औपचारिकताएं निपटाने के बावजूद भूमिहीन के भूमिहीन हैं। राजस्व विभाग के अधिकारियों को इनके नाम भूमि दर्ज करने में न जाने क्या परेशानी है ?

अर्जुनली, भिवंडी तालुका के सर्वे नम्बर 44 को देखने पर पता चलता है कि 11 हेक्टर से ज्यादा जमीन चारागाह की है। जहां यंहा के बारक्या मुकणे, कमल्या मुकणे, सजन मुकणे, रामा मुकणे, जाऊ मुकणे, ताराबाई वाघे, बालाराम वाघे, शरद महादू चव्हाण, सुभाष जाधव, आत्माराम चव्हाण, महेन्द्र जाधव, रमेश चव्हाण, राजेन्द्र जाधव, महेन्द जाधव, भीमराव गायकवाड़ और नारायण गायकवाड़ अपने बाप-दादा के जमाने (1949) से फसल उगा रहे हैं। यह तथ्य महाराष्ट्र के `जमीन गायरन कानून´ से मेल खाता है। इस कानून के मुताबिक 14 अप्रैल 1991 के पहले से जो परिवार ऐसी जमीन का इस्तेमाल करते हैं उन्हें वह जमीन दे दी जाए। मगर कानून बनने के एक दशक बाद भी यहां के किसान अपनी जमीन पाने की कोशिशों में उलझे हुए हैं। इन किसानों ने 1958 में जमीन के क्षेत्रफल के हिसाब से राज्य सरकार को दंड भी दिया है।

जमीन के अतिक्रमण की सूचना व मंडल अधिकारी से लेकर तहसीलदार, जिला अधिकारी से लेकर राजस्व विभाग में दर्ज है। विधानसभा चुनाव के पहले तब के राजस्व मंत्री डॉ. पतंगराव कदम और सामाजिक न्याय मंत्री चंद्रकांत हंडोरे ने जिला अधिकारी को कार्रवाई करने का आदेश भी दिया था। इसके बाद जिला अधिकारी ने भिवंडी के तहसीलदार को यह जमीन दलित-आदिवासियों के नाम करने का आदेश दिया। मगर अभी तक इन किसानों के नाम सात बारह तक नहीं पहुंचे हैं। इस तरह यह अभी तक भूमिहीन के भूमिहीन ही हैं। राजस्व विभाग के अधिकारियों की अनदेखी को देखते हुए यह कह पाना मुश्किल है कि यह दलित-आदिवासी किसान न जाने कब तक भूमिहीन के भूमिहीन ही रहेंगे ?

दूसरी तरफ महाराष्ट्र के बीड़ जिले में दलितों ने जानवर चराने वाली पहाड़ियों पर ज्वार पैदा करके सामाजिक ताना-बाना ही बदल दिया। इन दिनों वहां के दलित 69 गांवों की करीब 2000 एकड़ पहाड़ियों पर बीज उगाते हैं। इस संघर्ष में औरतों ने भी बराबरी से हिस्सेदारी निभायी थी। इसलिए उन्हें जमीन का आधा हिस्सा मिला। इस तरह खेतीहीन से किसान हुए कुल 1420 नामों में से 710 औरत हैं। मगर इतने सालों की लड़ाई के बाद भी इनके हक की जमीन इनके नाम नहीं हो सकी हैं।

9.11.09

माननीय प्रधानमंत्री के नाम पत्र

शिरीष खरे

सरकार ने इस साल शिक्षा के अधिकार के लिए एक अहम एक्ट मंजूर किया है। मगर यह एक्ट 6 से 14 साल तक के बच्चों के लिए ही है। फिर भी इसे सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने के नजरिए से एक जरूरी कानूनी कदम ठहराया जा रहा है। जबकि भारत में 6 से 18 साल तक के 40 करोड़ बच्चों में से आधे बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं। ऐसे में आपको नहीं लगता कि इस एक्ट का असर सीमित रहेगा ?


''चाइल्ड राईट्स एंड यू" के मुताबिक एक तो इस एक्ट को जिस रुप में मंजूर किया गया है उसमें सभी बच्चों के हक शामिल नहीं हुए हैं। दूसरा, शिक्षा पर उम्मीद से बहुत कम पैसा रखा गया है। इसमें बच्चों के स्कूल नहीं जाने के मुख्य कारणों जैसे कि शिक्षण की खराब गुणवत्ता या घर से स्कूल की दूरी आदि के बारे में रखे गए प्रावधान भी काफी सीमित हैं। इसलिए संस्था ने 18 राज्य के 6700 समुदाय के साथ मिलकर ‘राईट आफ चिल्ड्रन टू फ्री एण्ड कम्पलसरी एजुकेशन एक्ट, 2009’ को असरदार बनाने के लिए एक मुहिम छेड़ने का फैसला लिया है।


आदरणीय प्रधानमंत्री
क्योंकि मानवीय हक हर इंसान के बुनियादी हक हैं इसलिए नागरिकों को जो निःशुल्क सुविधाएं मिलने का हक है, आप उसे खरीदने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। आपसे गुजारिश है कि ‘राईट आफ चिल्ड्रन टू फ्री एण्ड कम्पलसरी एजुकेशन एक्ट, 2009’ को असरदार बनाने के लिए उसमें कुछ फेरबदल किया जाए। एक समान, मुफ्त और बेहतर शिक्षा देने के मद्देनजर आपके सामने 3 मागें हैं :


1 ) 6 साल से नीचे और 15 से 18 साल तक के बच्चों को भी एक्ट के मुख्य प्रावधान में लाएं। 8वीं कक्षा पास करने वाले बच्चे इतने योग्य नहीं माने जाते कि वह आगे जाकर रोजगार या जिंदगी की मुश्किलों को सुलझा सकें। इसी के साथ, आंगनबाड़ी शिक्षा की नींव मानी जाती है। एक तरफ 6 साल से छोटे बच्चों की पढ़ाई और देखभाल छूटने, दूसरी तरफ 15 से 18 साल के बच्चों की भी पढ़ाई छूटने से बहुत सारे बच्चों के शिक्षा के हक सीमित हो जाते हैं। बच्चों की बड़ी संख्या में स्कूल छोड़ने की समस्या भारतीय शिक्षण व्यवस्था के सामने बहुत बड़ी चुनौती है। लिहाजा कानून में ऐसा प्रावधान जरूरी है जिससे बच्चे, खास तौर पर लड़कियां स्कूल से न छूट जाएं।

2) हर बस्ती से 1 किलोमीटर के भीतर योग्य शिक्षक और सुविधायुक्त स्कूल हो। इस एक्ट में कोई न्यूनतम मापदण्ड नहीं बतलाये गए हैं, न तो शिक्षकों के बारे में और न ही बुनियादी सुविधाओं जैसे पीने के पानी, शौचालय, कक्षा के कमरे, शिक्षक-छात्रों के अनुपात इत्यादि को लेकर। जबकि यह साबित हो चुका है कि बच्चा घर में बोली जाने वाली भाषा में सबसे जल्दी सीखता है मगर एक्ट में मातृभाषा में शिक्षा देने या अन्य भाषा को भी रखने के बारे में साफ नहीं किया गया है। साथ ही इस अहम तर्क हो भी अनदेखा किया गया है कि स्कूली पाठयक्रम बच्चों की पहचान और उनकी रहने की जगह के हिसाब से होना जरूरी है।

शिक्षक, बच्चे को सीखाने में खास भूमिका निभाते हैं। इसलिए उनकी योग्यता और क्षमताओं को इस तरह से सुधारा जाए कि वो सभी बच्चों के सामने बराबरी से पेश आएं। शिक्षक का समुदाय से अटूट रिश्ता होता है इसलिए सम्मान के लिहाज से उन्हें कम समयावधि या अनुबंध के तौर पर रखना सही नहीं है।

3) सकल घरेलू उत्पाद का 10 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च हो। फिलहाल 38 प्रतिशत भारतीय गरीबी रेखा के नीचे है। जब तक सरकार शिक्षा में और अधिक आर्थिक निवेश नहीं करेगी तब तक गरीबी ज्यों की त्यों बनी रहेगी। दुनिया का कोई भी देश स्कूलों को सरकारी मदद दिये बगैर सार्वभौमिक शिक्षा के लक्ष्य तक नहीं पहुंच सका है। मगर अपने यहां 40 करोड़ बच्चों की शिक्षा पर सरकारी खर्च पिछले साल से घटा है। केन्द्रीय बजट 2008-09 में यह खर्च 3.84 प्रतिशत था, जो 2009-10 में घटकर 3.03 हो गया। देश की 40 प्रतिशत आबादी को देखते हुए एक्ट में सकल घरेलू उत्पाद के मुकाबले शिक्षा पर खर्च होने वाला पैसा बहुत कम है। जब तक सरकार शिक्षा पर उचित खर्च नहीं करेगी तब तक एक्ट कागजी शेर ही बना रहेगा।


''चाइल्ड राईट्स एंड यू" का मानना है कि शिक्षा का हक मानव विकास की बुनियाद है। यह व्यक्ति को चुनने, सोचने, सवाल करने और फैसला लेने के योग्य बनाता है। यह आत्मविश्वास और आत्मसम्मान पाने के रास्ते में पहला कदम है। अगर शिक्षा का हक हो तो दूसरे हक भी मिलने में आसानी रहती है। बच्चों और समाज के विकास पर शिक्षा के हक का गहरा असर होता है। मगर आजाद भारत के सबसे अहम कहे जाने वाले इस एक्ट में से आधे बच्चे अपने बुनियादी हकों से दूर हैं।

चलते-चलते :
18 साल से नीचे के हर इंसान को कुछ बुनियादी हक हैं। यह बाल हक सबके लिए हैं, चाहे वह किसी भी लिंग, वर्ग, जाति या वंश के हों। यह हक हैं - 1 जीने : जीवन, स्वास्थ्य, पोषण, नाम और राष्ट्रीयता से जुड़े हुए हक। 2 विकास : शिक्षा, देखभाल, अवकाश और मंनोरंजन से जुड़े हुए हक। 3 संरक्षण : शोषण, अनुचित व्यवहार या अनदेखा करने से जुड़े हुए हक। 4 सहभागिता : बोलने, सोचने, जानकारी, उपेक्षा और धर्म की आजादी से जुड़े हुए हक।

6.11.09

बात 1993 के जाड़े की है

रहमत भाई


जनसंगठनों की क्षति और जन सरोकारी पत्रकारिता में निर्वात।

वरिष्‍ट पत्रकार श्री प्रभाष जोशी का निधन न सिर्फ पत्रकारिता बल्कि देश के जनसंगठनों के लिए भी अपूरणीय क्षति है। ऊनके निधन से दोनों ही स्‍थानों पर निर्वात महसूस किया जा रहा है।

श्री जोशी देशभर के सामाजिक समूहों से न सिर्फ जुड़े रहे हैं बल्कि उन्‍होंने ऐसे समूहों में सक्रिय भागीदारी भी की है। ऊन्‍होंने देश के किसानों, दलितों, आदिवासियों, अल्‍पसंख्‍यकों और वंचित वर्गों के मुद्दे न सिर्फ अपनी लेखनी के माध्‍यम से उठाये बल्कि वे उनसे करीब से जुड़े भी रहें हैं। ऐसे ही समूहों में नर्मदा बचाओ आंदोलन भी शामिल है।

बात 1994 के जाड़े की है। झाबुआ (मध्‍यप्रदेश) जिला प्रशासन ने सरदार सरोवर बाँध प्रभावित आदिवासियों को नीति अनुसार जमीन दिए बगैर उन्‍हें उनके गॉंवों से खदेड़ने हेतु दमनचक्र चलाया था। झाबुआ जिले के तत्‍कालीन कुख्‍यात कलेक्‍टर श्री राधेश्‍याम जुलानिया के नेतृत्‍व में जिला प्रशासन लोगों को उनकी इच्‍छा के विरुध्‍द गॉंव से हटने के लिए के लिए मजबूर कर रहा था। उन पर फर्जी मुकद्दमें दायर कर लोगों की हिम्‍मत तोड़ने का षड़यंत्र जारी था। स्‍थानीय मीडिया भी इस मामले को अपेक्षित कवरेज नहीं दे रहा था उन दिनों श्री जोशी डूब प्रभावित गॉंव आंजणवारा गॉंव तक पैदल चल कर गए तथा लोगों को हिम्‍मत दी। याद रहे आंजणवारा झाबुआ जिले के उन पहुँचविहीन गॉंवों में से एक है जहाँ आजादी के 60 वर्ष बाद भी आज तक विधानसभा अथवा लोकसभा चुनाव का प्रचार करने किसी भी राष्‍ट्रीय राजनैतिक दल का कोई कार्यकर्ता नहीं पहुँचा है। यह गॉंव सरदार सरोवर बॉंध की डूब से 1994 से ही प्रभावित है लेकिन यहॉं के बाशिंदे आज भी गॉंव में ही डटे रह कर विनाशकारी विकास नीति को चुनौती दे रहे हैं।

अप्रैल 2002 में जब सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने सरदार सरोवर बाँध प्रभावितों के समर्थन में लेखन के लिए बुकर पुरस्‍कार से सम्‍मानित सुश्री अरुंधती रॉय पर न्‍यायालय की अवमानना हेतु सजा सुनाई। सजा पूरी कर जेल से छूटने पर गॉंधी शांति प्रतिष्‍ठान (नई दिल्‍ली) में आयोजित एक पत्रकार वार्ता में उन्‍होंने दबंगता से कहा था - "यदि बॉंध प्रभावितों के अधिकारों की बात करना सर्वोच्‍च न्‍यायालय का अपमान है तो यह अपमान मैं बार-बार करुँगा। सुप्रीम कोर्ट चाहे तो मुझे भी जेल में डाल दें।"

जून 2002 में मध्‍यप्रदेश के धार जिले में स्थित मान परियोजना प्रभावित आदिवासी परिवारों को जब सरकार द्वारा पुनर्वास लाभ दिए बगैर उजाड़ दिया गया तो आंदोलन ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया। प्रभावितों को जून की तन झुलसाती तपन के बीच राजधानी भोपाल में 35 दिनों तक धरना एवं 29 दिनों तक अनशन को बाध्‍य होना पड़ा। इस दौरान राजनैतिक-प्रशासनिक असंवेदनशीलता के कारण लोगों की पीड़ा को नजरअंदाज कर प्रभावितों को उनके अधिकारों से वंचित करने का प्रयास किया जा रहा था, तब श्री जोशी ने आदिवासियों को उनके हक दिलवाने हेतु काफी महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई। सरकार के साथ मध्‍यस्‍थता भी की। अनशन समाप्ति के बाद जुलाई 2002 में वे पूर्व अनुसूचित जाति-जनजाति आयुक्त श्री बी डी शर्मा के साथ परियोजना प्रभावित क्षेत्र जीराबाद (धार) में एक सप्‍ताह से अधिक तक रहे तथा परियोजना प्रभावितों को लाभ दिलवाने हेतु उनकी पात्रता निर्धारण में सहयोग दिया। उनके प्रयास से अनेक प्रभावितों को पुनर्वास लाभ मिलना सुनिश्चित हुआ।

श्री जोशी सच्‍चे अर्थों में देश के जनसंगठनों के सच्‍चे मित्र थे। यह उनके व्यक्तित्व की खासियत रही कि न तो वे कभी सत्ता के चाटुकार बने और न ही उन्‍होंने अपनी लेखनी को भी कभी सत्ता के गलियारों की चेरी बनने दिया। उनका निधन न सिर्फ जनसरोकारी पत्रकारिता के लिए क्षति है बल्कि देश के जनसंगठन भी अपने एक सच्‍चे दोस्‍त की कमी को हमेशा महसूस करते रहेंगें।

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रहमत भाई "नर्मदा बचाओ आन्दोलन" में सालों से जुड़े रहे कार्यकर्ता हैं. फिलहाल "मंथन अध्ययन केंद्र, बडवानी" के साथ जुड़कर पानी के निजीकरण पर शोध और लेखन कर रहे हैं।

5.11.09

कंपनियों को खजाना और जनता को मौत बांटती सरकार



लेखक : अरुंधती रॉय

मूलत : आउटलुक अंग्रेज़ी से

अनुवाद :  समरेंद्र सिंह

हिन्दी प्रकाशन : जनतंत्र.कॉम से
   



दक्षिणी उड़ीसा की हल्की ऊंची और सपाट चोटी वाली पहाड़ियां डोंगरिया कोंध आदिवासियों के घर हैं। तब से जब उड़ीसा नाम के किसी राज्य और भारत नाम के किसी देश का अस्तित्व भी नहीं था। उन पहाड़ियों ने कोंधों का खयाल रखा। कोंधों ने उन पहाड़ियों को सहेजे रखा। उनकी पूजा की। एक जीवित भगवान की तरह। लेकिन अब बॉक्साइट के कारण उन पहाड़ियों को बेच दिया गया है। कोंध आदिवासियों को लगता है कि उनका भगवान बेच दिया गया है। वो पूछ रहे हैं कि अगर उनके देवता की जगह राम, अल्ला या ईसा मसीह होते तो क्या उन्हें बेचा जाता?

शायद, कोंधों से अहसानमंद रहने की उम्मीद की जाती है। इसलिए कि नियामगीरी पहाड़ी जो कि उनके देवता नियाम राजा (यूनिवर्सल लॉ के भगवान) का घर है, एक ऐसी कंपनी को बेची गई है जिसका नाम है वेदांता। वेदांता मतलब हिंदू दर्शनशास्त्र की वो शाखा जो ज्ञान की सर्वोच्च प्रवृति सिखाती है। वेदांता दुनिया की सर्वाधिक बड़ी खनन कंपनियों में से एक है और इसके मालिक हैं अनिल अग्रवाल। भारतीय मूल के अरबपति जो लंदन के एक महल में रहते हैं। वह महल एक जमाने में ईरान के शाह का हुआ करता था। वेदांता उन ढेरों बहुराष्ट्रीय कंपनियों में से महज एक नाम है, जिन्होंने उड़ीसा की तरफ़ रुख किया है।

अगर सपाट चोटी वाली पहाड़ियां नष्ट हुईं तो उन्हें ढकने वाले जंगल नष्ट हो जाएंगे। उनके साथ ही वहां से निकलने वाली धाराएं और नदियां सूख जाएंगी। मैदानी इलाकों को यही नदियां पानी पहुंचाती हैं। सींचती हैं। उनके सूखने से डोंगरियां कोंध बर्बाद हो जाएंगे। जंगलों में रहने वाले हज़ारों हज़ार आदिवासी ऐसे ही संकट में हैं। उनके वतन पर हमला हुआ है।

धूल और धुएं से भरे सघन आबादी वाले शहरों के कुछ वाशिंदे कहते हैं “तो क्या हुआ? विकास की कीमत किसी को तो चुकानी ही होगी।“ कुछ यह भी कहते हैं कि “इस सच का सामना करो। इन लोगों का वक़्त पूरा हो गया है। किसी भी विकसित देश, यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया को देखो – उन सभी का एक अतीत था। यकीनन था। तो हम भी अपने अतीत को दफ़्न क्यों नहीं कर दें?”

इसी विचार को केंद्र में रखते हुए सरकार ने ऑपरेशन ग्रीन हंट का एलान किया है। यह मध्य भारत के जंगलों में छिपे माओवादी विद्रोहियों के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा है। यकीनन, सिर्फ़ और सिर्फ़ माओवादी ही बग़ावत नहीं कर रहे। देशभर में कई स्तरों पर संघर्ष हो रहा है। भूमिहीन, दलित, बेघर, मज़दूर, किसान और बुनकर – आंदोलन कर रहे हैं। वो सभी निरंतर हो रहे अन्याय और तानाशाही से दुखी हैं। वो उन नीतियों से आहत हैं जो कंपनियों को उनकी ज़मीन पर कब्जा करने का हक़ देती हैं। फिर भी सरकार ने सबसे बड़े ख़तरे के तौर पर माओवादियों की ही निशानदेही की है। दो साल पहले प्रधानमंत्री ने माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताया। तब हालात इतने बदतर नहीं थे, जितने आज हैं। मनमोहन सिंह ने शायद सबसे अधिक बार यही बात कही है।

18 जून 2009 को मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार की वास्तविक चिंता जाहिर की। संसद में उन्होंने कहा कि “अगर वामपंथी चरमपंथियों को देश के उन हिस्सों में फलने-फूलने दिया गया, जिनमें खनीज पदार्थ और दूसरी प्राकृतिक संपदाएं हैं तो निवेश का माहौल यकीनन बिगड़ेगा।”

माओवादी कौन हैं? वो प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) – सीपीआई (माओवादी) के सदस्य हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) – सीपीआई (एमएल) की कई संतानों में से एक। जिन्होंने 1969 में नक्सलबाड़ी विद्रोह का नेतृत्व किया और बाद में भारतीय सरकार ने जिन्हें ख़त्म कर दिया। माओवादी मानते हैं कि भारतीय समाज में अंतरनीहित संरचनात्मक खामियों को हिंसक विद्रोह के जरिए सरकार को बेदखल करके ही दूर किया जा सकता है। बिहार और झारखंड में माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) और आंध्र प्रदेश में पीपुल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) के रूप में माओवादियों ने जनसमर्थन हासिल किया। 2004 में जब आंध्र प्रदेश में कुछ समय के लिए उन पर से प्रतिबंध हटाया गया तो वारंगल में हुई उनकी रैली में पांच लाख लोगों ने हिस्सा लिया था। लेकिन आंध्र प्रदेश में समझौते की कोशिश बहुत बुरे मोड़ पर ख़त्म हुई। उसके बाद जो हिंसा का ख़ौफ़नाक दौर शुरू हुआ उसने उनके कई घोर समर्थकों को भी विरोधी बना दिया। आंध्र प्रदेश पुलिस और माओवादियों के बीच हुए ख़ूनी संघर्ष में पीडब्ल्यूजी का लगभग सफाया हो गया। जो बच गए वो पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में दाखिल हो गए। घने जंगलों के बीच वो उन साथी माओवादियों से जा मिले जो उन इलाकों में कई दशकों से सक्रिय थे।

जंगल में चल रहे माओवादी आंदोलन से बाहरी दुनिया के चंद लोगों का ही सीधा परिचय हुआ होगा। हाल ही में ओपन पत्रिका में छपे उनके उनके शीर्ष नेताओं में से एक कॉमरेड गणपति के इंटरव्यू से भी उन लोगों की सोच में कोई बदलाव नहीं आया है जो माओवादियों को तानाशाही सोच रखने वाले दल के तौर पर देखते हैं। एक ऐसा दल जिसे असहमति बर्दाश्त नहीं।

कॉमरेड गणपति ने भी ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे यह भरोसा जगे कि अगर कभी वो सत्ता में आए तो जातियों में बंटे भारतीय समाज की उन्मादी अनेकता को संबोधित… सही तरीके से करेंगे। श्रीलंका में चले लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम को अनौपचारिक समर्थन से उनसे घोर सहानुभूति रखने वाले भी कांप उठे होंगे। न केवल इसलिए कि एलटीटीई ने अपनी लड़ाई में क्रूरतम हथकंडों का इस्तेमाल किया बल्कि इसलिए भी कि जिन तमिलों के प्रतिनिधित्व का एलटीटीई दावा करती थी, उन तमिलों पर एलटीटीई की वजह से जो विपदा पड़ी है उसे उसकी कुछ तो जिम्मेदारी लेनी ही होगी।

इस वक़्त मध्य भारत में, माओवादियों के छापामार दस्ते में ऐसे जरूरतमंद गरीब आदिवासी शामिल हैं जो ऐसी भूखमरी के कगार पर थे, जिसका जिक्र हम अफ्रीकी देशों के संदर्भ में करते हैं। ये सभी वो लोग हैं जिन्हें साठ साल की आज़ादी के बाद भी शिक्षा, स्वास्थ्य और न्यायिक जरूरतों से दूर रखा गया। ये वो लोग हैं जिनका बेरहमी से शोषण किया गया। छोटे कारोबारियों और सूदखोरों के द्वारा दोहन किया गया। पुलिस और वन विभाग के कर्मचारियों ने महिलाओं से ऐसे बलात्कार किया जैसे यह कुकर्म उनका अधिकार हो।

अगर आदिवासियों ने हथियार उठाया है तो सिर्फ़ इसलिए कि सरकार ने उन्हें हिंसा और उपेक्षा से अधिक कुछ नहीं दिया है। और अब वही सरकार उनसे उनका आखिरी सहारा – उनकी ज़मीन भी छीन लेना चाहती है। साफ़ है कि आदिवासी सरकार के इस कथन पर भरोसा नहीं करते कि वो उनका विकास करना चाहती है। उन्हें इस पर भी भरोसा नहीं कि दंतेवाड़ा में राष्ट्रीय खनीज विकास कॉरपोरेशन (NMDC) ने जंगलों में हवाईपट्टियों जितनी चौड़ी-चौड़ी सड़कें इसलिए बनाई हैं कि उनके बच्चे स्कूल जा सकें। वो मानते हैं कि अगर उन्होंने अपनी भूमि के लिए संघर्ष नहीं किया तो वो ख़त्म हो जाएंगे। यही वजह है कि आज उनके हाथों में हथियार है।

माओवादी आंदोलन के अगुवा भले ही सरकार को सत्ता के बेदखल करने के लिए लड़ रहे हैं। लेकिन उन्हें अहसास है कि उनकी भूखी और कुपोषित सेना – जिनके ज़्यादातर सदस्यों ने कभी ट्रेन, बस और शहरी ज़िंदगी को क़रीब से नहीं देखा है – के लिए यह केवल अस्तित्व की लड़ाई है।

2008 में योजना आयोग की तरफ़ से नियुक्त विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंपी। उस रिपोर्ट का नाम है – “उग्रवाद प्रभावित इलाकों में विकास की चुनौतियां”। इसमें लिखा है कि – नक्सली आंदोलन को भूमिहीन गरीब किसानों और आदिवासियों के बीच जनाधार वाले एक राजनीतिक आंदोलन के तौर पर मान्यता देनी होगी। स्थानीय लोगों के अनुभवों और सामाजिक हालात के संदर्भों में नक्सली आंदोलन के उत्थान और विस्तार को समझने की ज़रूरत है। राज्य की नीतियों और उन नीतियों पर अमल में मौजूद ग़हरी खाई उन्हीं हालत में से एक है। यह सही है कि इसकी विचारधारा… ताक़त के बल पर सत्ता हासिल करना है, लेकिन रोज़मर्रा के क्रिया कलापों में इसे सामाजिक न्याय, समानता, रक्षा, सुरक्षा और स्थानीय विकास के लिए चल रहे संघर्ष के तौर पर देखना होगा।” यह “आंतरिक सुरक्षा के सबसे बड़े ख़तरे” के सिद्धांत से काफी अलग है।

माओवादी विद्रोही इन दिनों चर्चा का विषय हैं। चमकते हुए अमीर से लेकर सबसे अधिक बिकने वाले अख़बार के सनकी संपादक तक – हर कोई अचानक यह मानने को तैयार हो गया है कि दशकों से हो रहा अन्याय ही इस समस्या की जड़ है। लेकिन उस समस्या को समझने की जगह, जिसका मतलब होगा 21वीं सदी की इस सुनहरी दौड़ का थम जाना, वो इस बहस को एक नया मोड़ देने में जुटे हैं। माओवादी “आतंकवाद” के ख़िलाफ़ भावनात्मक गुस्से का इज़हार करते हुए … चीखते-चिल्लाते हुए। लेकिन वो सिर्फ़ अपने आप से बातें कर रहे हैं।

जनता जिसने हथियार उठा रखा है, वह टेलिविजन देखने और अख़बार पढ़ने में अपना वक़्त खर्च नहीं करती। “हिंसा सही है या ग़लत? अपने जवाब …. पर एसएमएस करें” – जैसे नैतिक सवालों पर वो अपना दिमाग नहीं खपाती है। वो अपने इलाकों में … अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं। वो मानते हैं कि अपने घर, अपनी ज़मीन को बचाने की लड़ाई लड़ने का उन्हें पूरा अधिकार है। उनका विश्वास है कि उन्हें न्याय मिलना ही चाहिए।

अपने खुशहाल नागरिकों को इन ख़तरनाक लोगों (आदिवासियों) से सुरक्षित रखने के लिए सरकार ने इनके ख़िलाफ़ युद्ध का एलान कर दिया है। सरकारी बताती है इस युद्ध को जीतने में तीन से पांच साल लग सकते हैं। यह कितना अजीब लगता है कि मुंबई हमले के बाद भी भारत सरकार पाकिस्तान से बात करने के लिए तैयार है? चीन से बात करने के लिए तैयार है, लेकिन अपने ही देश की सर्वाधिक ग़रीब जनता के ख़िलाफ़ युद्ध के बारे में उसका रवैया सख़्त है।

आदिवासी इलाकों में ग्रेहाउंड्स (कुत्ते की एक खूंखार प्रजाति), कोबरा (सांप की सबसे विषैली प्रजातियों में से एक) और स्कॉर्पियन (बिच्छू) जैसे डरावने नामों वाले स्पेशल पुलिस के दस्तों को नरसंहार का लाइसेंस दिया जा चुका है, लेकिन लगता है यह काफी नहीं है। केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ), सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और कुख्यात नगा बैटेलियन ने जंगलों में बसे गांवों में पहले से क़हर बरपा रखा है, लेकिन यह भी काफी नहीं। आदिवासियों को हथियार थमा कर सलवा जुडुम का निर्माण करना भी काफी नहीं। वो सलवा जुडुम जिसने हत्या, बलात्कार और आगजनी के बल पर दंतेवाड़ा के जंगलों में तीन लाख से भी ज़्यादा लोगों को या तो बेघर कर दिया है या फिर भागने पर मजबूर। लेकिन यह सब काफी नहीं।

शायद तभी सरकार ने आईटीबीपी और दूसरे अर्धसैनिक बलों के हज़ारों जवानों को तैनात करने का फैसला लिया है। बिलासपुर में नौ गांवों को विस्थापित करके सरकार एक ब्रिगेड मुख्यालय बनाना चाहती है। और राजनांदगांव में सात गांवों को विस्थापित करके एक एयरबेस बनाने की योजना है। जाहिर है यह फ़ैसले काफी पहले लिए गए होंगे। सर्वे किया गया होगा। जगह का चयन हुआ होगा। लेकिन युद्ध की चर्चा हाल-फिलहाल शुरू की गई है। और अब भारतीय एयरफोर्स के हेलीकॉप्टरों को आत्मसुरक्षा के नाम पर हमले का अधिकार दे दिया गया है। देश की सर्वाधिक ग़रीब जनता यही आत्मसुरक्षा का अधिकार मांग रही है लेकिन सरकार उसे यह अधिकार नहीं देना चाहती।

गोलीबारी किस पर? कोई यह बताएगा कि सुरक्षाबल… आतंकित हो कर भाग रहे आदिवासियों और माओवादियों में फर्क कैसे करेंगे? सदियों से आदिवासी तीर-कमान के साथ जंगलों में घूमते आए हैं – क्या अब उन्हीं तीर कमान के कारण उन्हें माओवादी घोषित कर दिया जाएगा?

क्या माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले अहिंसक लोग भी निशाने पर होंगे? जब मैं दंतेवाड़ा में थी, पुलिस अधीक्षक ने ऐसे 19 माओवादियों की तस्वीरें दिखाईं, जिन्हें उनके जवानों ने ढेर कर दिया था। मैंने उनसे पूछा कि मैं किस आधार पर कहूं कि ये माओवादी हैं? – उन्होंने जवाब दिया – देखिए मैडम उनके पास मेलेरिया की दवाएं और डिटॉल की बोतलें मिली हैं – ये वो सामान हैं जो यहां बाहर से आते हैं।

ऑपरेशन ग्रीन हंट आखिर किस तरह का युद्ध होगा? क्या हम कभी जान सकेंगे? पहले से ही जंगलों के भीतर से बहुत कम ख़बरें आती हैं। पश्चिम बंगाल में लालगढ़ को सेना ने घेर लिया था। जो भी वहां जाना चाहता उसे गिरफ़्तार कर लिया जाता और उसकी पिटाई की जाती। माओवादी बता कर। दंतेवाड़ा में वनवासी चेतना आश्रम, एक गांधीवादी आश्रम था। उसे हिमांशु कुमार चलाते थे। कुछ ही घंटों में उस आश्रम को मिट्टी में मिला दिया गया। युद्ध क्षेत्र से ठीक पहले यह एक ऐसी जगह थी जहां पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, शोधार्थी और जांच टीमें ठहरा करती थीं।

इसी बीच भारत सरकार ने अपने सर्वाधिक घातक हथियार का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। रातों रात, हमारी इब्बेडिड मीडिया ने “इस्लामी आतंकवाद” के बारे में प्लांटेड, तथ्यहीन, तर्कहीन और पागलपन से भरी ख़बरों की जगह “लाल आतंकवाद” के बारे में प्लांडेट, तथ्यहीन, तर्कहीन और पागलपन भरी खबरें दिखाना शुरू कर दिया। इस रैकेट के बीच, युद्ध मैदान में घोषित और दमघोंटू चुप्पी छाई हुई है। सुरक्षाबलों का घेरा कस दिया गया है। श्रीलंका की तर्ज पर समस्या को हल करने की नीति पर अमल हो रहा है। यह अकारण नहीं है कि तमिल टाइगर्स के ख़िलाफ़ श्रीलंका के युद्ध अपराधों की जांच की मांग से जुड़े यूरोपीय प्रस्ताव का संयुक्त राष्ट्र में भारत ने विरोध किया।

इस दिशा में पहला कदम वह प्रचार है जिसके सहारे देश में चल रहे अनगिनत आंदोलनों को एक ही नाल में ठोंक देना है। ठीक अमेरिकी के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के सिद्धांत के तहत कि “अगर तुम हमारे साथ नहीं” तो तुम “माओवादी” हो। सोची-समझी रणनीति के तहत माओवादी ख़तरे को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने से सरकार को सैन्यीकरण में मदद मिलती है। (इससे माओवादियों को भी कोई नुकसान नहीं है। आखिर कौन सी राजनीतिक पार्टी ऐसी होगी जो इतनी तवज्जो मिलने पर दुखी हो?)

आतंक के ख़िलाफ़ इस नए युद्ध से राज्य को अपने ख़िलाफ़ सिर उठा रहे सैकड़ों आंदोलनों को एक साथ ख़त्म करने का मौका मिल जाएगा। इस सैन्य अभियान में माओवादियों के शुभचिंतक बता कर सभी आंदोलनकारी साफ़ कर दिए जाएंगे। मैंने भविष्यकाल (फ्यूचर टेंस) का इस्तेमाल किया है, लेकिन यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। पश्चिम बंगाल सरकार ने नंदीग्राम और सिंगूर में यही किया। उसे मुंह की खानी पड़ी। लालगढ़ में पुलिस संत्राश बिरोधी जनसाधारणेर कमेटी (पुलिस उत्पीड़न के ख़िलाफ़ जनसाधारण समिति) – जो कि एक जन आंदोलन है, माओवादी आंदोलन नहीं – को बार-बार सीपीआई (माओवादी) का धड़ा बता दिया जाता है। उसके नेता छत्रधर महतो को गिरफ़्तार किया जा चुका है और माओवादी बता कर ज़मानत नहीं लेने दिया जा रहा।

हम सब पेशे से चिकित्सक और मानवाधिकार कार्यकार्ता डॉक्टर बिनायक सेन की दास्तान जानते हैं। उन्हें दो साल तक माओवादियों को मदद पहुंचाने के झूठे आरोप में दो साल कैद में रखा गया। जब सभी का ध्यान ऑपरेशन ग्रीन हंट पर होगा तब इस युद्ध क्षेत्र से अलग भारत के दूसरे हिस्सों में देश की बेहतरी के नाम पर गरीबों की जमीन के अधिग्रहण कार्रवाई तेज़ हो जाएगी। उनकी पीड़ा बढ़ती जाएगी और उनकी चीखों को सुनने वाला कोई नहीं होगा।

युद्ध शुरू हुआ तो तमाम युद्धों की तरह इसकी अपनी गति, तर्क और अर्थशास्त्र विकसित हो जाएगी। यह ज़िंदगी की ऐसी धारा बन जाएगी, जिसका रुख मोड़ना लगभग नामुमकिन होगा। पुलिस से सेना यानी हत्या की एक क्रूर मशीन की तरह बर्ताव करने की उम्मीद होगी। अर्धसैनिक बल पुलिस की तरह भ्रष्ट और सड़ चुके सुरक्षा बल की तरह बर्ताव करेंगे। नगालैंड, मणिपुर और जम्मू-कश्मीर में हमने यह सब देखा है।

इस मध्य भारत में एक फर्क यही रहेगा कि चीजे बहुत जल्द साफ़ हो जाएंगे। सुरक्षाबलों को भी यह अहसास हो जाएगा कि उनमें और जिन लोगों के ख़िलाफ़ वो लड़ रहे हैं कोई ख़ास अंतर नहीं है। वक़्त के साथ जनता और कानून लागू करने वालों के बीच खाई गहराती जाएगी। हथियार और गोलाबारूद खरीदे और बेचे जाएंगे। वास्तव में यह अब भी हो रहा है। चाहे वो सुरक्षाबल हों या फिर माओवादी या फिर अहिंसक नागरिक… सबसे गरीब जनता… अमीरों की इस जंग में मारी जा रही है। फिर भी अगर कोई यह मान रहा है कि इस युद्ध से उसकी सेहत पर असर नहीं पड़ेगा तो उसे दोबारा सोचना चाहिए। इस युद्ध में जो भी साधन खर्च होंगे उनका असर देश की अर्थव्यवस्था पर ज़रूर पड़ेगा।

पिछले हफ़्ते, नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों ने दिल्ली में कई बैठकें की। मुद्दा था कि युद्ध को टालने और तनाव दूर करने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है। नागरिक अधिकारों के सबसे अधिक सक्रिय कार्यकर्ता डॉ बालगोपाल की कमी बहुत खली। आंध्र प्रदेश के डॉ बालगोपाल की दो हफ़्ते पहले मृत्यु हो गई। वो हमारे दौर के सबसे साहसिक और सुलझे हुए राजनीतिक विचारक रहे हैं और उन्होंने हमारा साथ ऐसे दौर में छोड़ा है जब उनकी सबसे अधिक ज़रूरत है। फिर भी, मुझे यकीन है कि अगर वो इन बैठकों में होते और वक्ताओं की समझ, गहराई, अनुभव, ज्ञान, राजनीतिक तीक्ष्णता और मानवीय चेहरे को देखते तो उन्हें संतोष हुआ होता। भारत में नागरिक अधिकारों की हिमायत करने वाले संगठनों में शिक्षक, वकील, जज समेत विविध क्षेत्रों के लोग शामिल हैं। राजधानी में उनकी मौजूदगी से जाहिर हुआ कि हमारे टेलीविजन स्टूडियो की चमक और मीडिया के पागलपन भरे शोर के बीच भी भारतीय मध्य वर्ग का मानवीय दिल धड़कता है। अगर मैं ग़लत नहीं तो, यही वो लोग हैं जिन पर केंद्रीय गृह मंत्री ने आतंकवाद को जायज ठहराने वाला बौद्धिक माहौल तैयार करने का आरोप लगाया था। अगर वह आरोप लोगों को डराने के लिए था तो उसका असर उल्टा हुआ है।

वक्ताओं ने ढेरों मत दिए। उदारवादी से लेकर घोर वामपंथी विचार सामने आए। हालांकि वहां मौजूद किसी भी शख़्स ने खुद को माओवादी नहीं बताया, कुछ तो सैद्धांतिक तौर पर उस विचार के भी ख़िलाफ़ थे कि लोगों को राज्य की हिंसा का प्रतिरोध करने का अधिकार होना चाहिए। बहुत से लोग माओवादियों की हिंसा से असहज नज़र आए, “जनता की अदालत” जैसे सिद्धांत उन्हें हजम नहीं हुए। वो ऐसी तानाशाही के भी ख़िलाफ़ दिखे जो हिंसक विद्रोह की तरफ़ ढकेल दे और उन लोगों को हाशिए पर ठेल दे जिनके पास हथियार नहीं हैं। भले ही उन सभी ने माओवादी हिंसा को लेकर अपनी असहजता जाहिर की, लेकिन सभी इस बात पर सहमत थे कि “जनता की अदालतें” अस्तित्व में इसलिए आईं क्योंकि हमारी अदालतें आम आदमी की पहुंच से बाहर थीं। और मध्य भारत में शुरू हुआ हिंसक विद्रोह कोई पहला विकल्प नहीं है बल्कि आदिवासियों के सामने यह आखिरी विकल्प बचा था, जिनके अस्तित्व को ख़तरे में डाल दिया गया है।

वक्ताओं को यह अहसास था कि युद्ध जैसे बनते हालात में हिंसा के इक्का-दुक्का घृणित वाकयों के आधार पर नैतिकता का सवाल उठाने के अपने ख़तरे हैं। हर कोई सत्ता की तरफ़ से होने वाली संस्थागत हिंसा और हथियारबंद प्रतिरोध की हिंसा का मतलब समझता है। सेवानिवृत जस्टिस पी बी सावंत ने तो जनता के साथ हो रहे घोर अन्याय की तरफ़ सत्ता का ध्यान खींचने के लिए माओवादियों का शुक्रिया अदा किया।

आंध्र प्रदेश के हरगोपाल ने नागरिक अधिकारों के कार्यकर्ता की हैसियत से राज्य में माओवादी गतिविधियों के दौर में मिला अनुभव साझा किया। उन्होंने बताया कि 2002 के गुजरात दंगों में बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद की उग्र भीड़ ने जितने लोगों की हत्या कि माओवादियों ने कभी उतने लोगों की हत्या नहीं की – आंध्र प्रदेश के ख़ूनी दौर में भी नहीं।

लालगढ़, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के युद्ध क्षेत्र से पहुंचे लोगों ने अपनी बात रखी। उन्होंने पुलिसिया क़हर, गिरफ़्तारी, हत्या, जुल्म और भ्रष्टाचार के किस्से बयां किए। उड़ीसा जैसी जगहों पर तो पुलिस खनन कंपनियों के अधिकारियों के इशारे पर कार्रवाई करती है। उन्होंने कुछ स्वंयसेवी संस्थाओं के दोहरे चरित्र को भी सामने रखा। बताया कि कैसे वो कंपनियों के हितों को पोषित करने की भूमिका निभाते हैं। उन्होंने बताया कि कैसे झारखंड और छत्तीसगढ़ में जो भी इस रैकेट के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है उसे माओवादी बता कर जेल में ठूंस दिया जा रहा है। उन्होंने बताया कि सत्ता की यह दमनात्मक कार्रवाई लोगों को हथियार उठाने के लिए सबसे अधिक उकसा रही है।

उन्होंने सवाल उठाया कि जो सरकार विस्थापित हुए पांच करोड़ नागरिकों के एक छोटे से हिस्से को भी पुनर्वासित करने में नाकाम रही है उसने कैसे 300 स्पेशल इकोनोमिक जोन के नाम पर कंपनियों को देने के लिए 1.4 लाख हेक्टेयर जमीन तुरंत चिन्हित कर ली?

उन्होंने पूछा कि यह जानते हुए भी कि सरकार निजी कंपनियों को देने के लिए जनता को जमीन से बेदखल कर रही है, भूमि अधिग्रहण कानून में मौजूद जनहित की परिभाषा की समीक्षा से इनकार करके सुप्रीम कोर्ट ने न्याय की किस अवराधारणा पर अमल किया?

उन्होंने पूछा कि सरकार जब कहती है कि “राज्य आज्ञा का पालन होना चाहिए” तो उसका मतलब यही होता है कि पुलिस स्टेशन खड़े कर दिए जाए। राज्य आज्ञा का मतलब स्कूल और क्लिनिक बनवाना क्यों नहीं है? मकान या फिर साफ पानी मुहैया कराना क्यों नहीं है? जंगल के उत्पादों के लिए उचित कीमत देना क्यों नहीं है? लोगों को पुलिस के भय से मुक्त कराना और उन्हें अकेला छोड़ देना क्यों नहीं होता है – कोई भी ऐसा कदम जिससे लोगों की ज़िंदगी थोड़ी आसान हो। उन्होंने पूछा कि आखिर राज्य आज्ञा का मतलब न्याय क्यों नहीं है?

करीब दस साल पुरानी बात है। ऐसी ही बैठकों में नई आर्थिक नीति से उत्साहित लोग विकास के मॉडल पर बहस किया करते थे। अब उन्होंने नई आर्थिक नीति का विकास मॉडल खारिज कर दिया है। पूर्णत: खारिज। गांधीवादियों से लेकर माओवादियों हर कोई इस पर सहमत है। सब एक ही सवाल से जूझ रहे हैं कि आखिर विकास के इस क्रूर तिलिस्म को तोड़ा कैसे जाए?

एक दोस्त का पुराना कॉलेज मित्र इस अनजान दुनिया के बारे में जानने की उत्सुकता के साथ ऐसी ही एक बैठक में पहुंचा। वो इन दिनों कॉरपोरेट दुनिया का बड़ा नाम है। हालांकि उसने अपनी असलियत फैबइंडिया के कुर्ते में छिपाने की कोशिश की, लेकिन खुद को अमीर दिखने (और महकने) से नहीं रोक सका। एक मौके पर वह मेरी ओर झुका और कहा “कोई इन्हें समझाए कि ये परेशान नहीं हों। यह नहीं जानते कि इनकी लड़ाई किनसे है। कंपनियां मंत्रियों, मीडिया मालिकों और नीतियां बनाने वालों को खरीद सकती हैं। अपना एनजीओ चला सकती हैं। जरूरत पड़ने पर अपनी सेना खड़ी कर सकती हैं.. ये पूरी सरकार खरीद सकती हैं। वो माओवादियों को भी खरीद लेंगे। यहां मौजूद भले लोगों को चाहिए कि वो थोड़ा सुसता कर कुछ बेहतर करने के बारे में सोचें”।

जब लोग क़त्ल किए जा रहे हों तो लड़ने से “बेहतर” क्या कुछ हो सकता है? उनके पास कोई विकल्प बचा ही नहीं है, सिवाए आत्महत्या के। ठीक वैसे ही जैसे देश के 1,80,000 किसानों ने कर्ज में डूबने के बाद अपनी जान दी। ((क्या मैं अकेली हूं जिसे यह महसूस होता है कि अपने हक़ की लड़ाई लड़ने की तुलना में भारतीय व्यवस्था और मीडिया में उसके प्रतिनिधि हताशा और निराशा के माहौल में किसानों की खुदकुशी को लेकर ज़्यादा सहज हैं?))

कई साल तक छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और पश्चिम बंगाल में लोग – उनमें से कुछ माओवादी – बड़ी कंपनियों को अपने से दूर रखने में कामयाब रहे हैं। अब सवाल उठता है कि ऑपरेशन ग्रीन हंट से उनके संघर्ष के तरीके पर क्या असर पड़ेगा?

यह सही है कि स्थानीय लोगों से युद्ध में खनन कंपनियों की हमेशा जीत हुई है। यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि हथियार बनाने वाली कंपनियों को छोड़ दें तो तमाम कंपनियों की तुलना में खनन कंपनियों का इतिहास सबसे अधिक हिंसक और क्रूर है। वो सनकी और युद्ध उन्मादी होती हैं। जब लोग कहते हैं कि “जान देंगे पर ज़मीन नहीं देंगे” तो वो उछल पड़ती हैं। हज़ारों अलग-अलग भाषाओं और सैकड़ों देशों में इन कंपनियों ने यही बात सुनी होगी।

भारत में, उनमें से कई अब भी फर्स्ट क्लास यात्री लॉन्ज में हैं। कॉकटेल का आदेश करते हुए, सुस्त शिकारी की तरह पलकें झपकाते हुए और उस वक़्त का इंतज़ार करते हुए जब समझौतों – जिनमें से कुछ 2005 में किए गए थे – से कमाई होने लगेगी। फर्स्ट क्लास लॉन्ज में ही क्यों न हो – चार साल का इंतज़ार किसी की भी सब्र की परीक्षा लेने के लिए काफी है। वह इतना स्पेस ही देने को तैयार थे ताकि लोकतंत्रिक अनुष्ठान के सभी खोखले रीति रिवाज – (फर्जी) जन सुनवाई, (फर्जी) पर्यावरण छति मूल्यांकन, विभिन्न मंत्रालयों से (खरीदी हुई) स्विकृतियां, लंबे चले अदालती मुक़दमे – पूरे किए जा सकें। लोकतंत्र चाहे छद्म क्यों न हो उसमें वक़्त लगता है और उद्योगपतियों के लिए वक़्त का मतलब पैसा है।

आखिर हम किस तरह के पैसे की बात कर रहे हैं? अपने मौलिक और जल्द प्रकाशित होने वाली पुस्तक – आउट ऑप दिस अर्थ: ईस्ट इंडिया आदिवासीज एंड द अल्युमीनियम कार्टेल – में समरेंद्र दास और फेलिक्स पाडेल ने बताया है कि उड़ीसा में मौजूद बॉक्साइट की क़ीमत 2270 अरब डॉलर है। यह रकम भारत के सकल घरेलु उत्पाद से दोगुनी है। यह आंकड़े 2004 की क़ीमत पर आधारित हैं। वर्तमान में उसकी क़ीमत 4000 अरब डॉलर के करीब होगी।

इसमें से आधिकारिक तौर पर सरकार को सात फ़ीसदी से भी कम रॉयल्टी मिलेगी। अक्सर, खनन कंपनी जब चर्चित और मान्यता प्राप्त होती है तो भविष्य के बाज़ार को ध्यान में रखते हुए खनीज पदार्थ को निकाले बगैर पहाड़ियों का सौदा हो जाता है। वो पहाड़ियां तब भी आदिवासियों के लिए जीवन और आस्था के स्रोत और जीवित देवताओं के समान हो सकती हैं, इलाके में पर्यावरण संतुलन बनाए रखने की धूरी हो सकती हैं, लेकिन इन कंपनियों के लिए उनकी हैसियत सस्ते भंडारगृह से अधिक कुछ नहीं। कंपनियों के हिसाब से तो उन पहाड़ियों से बॉक्साइट को हर हाल में निकालना होगा। यह काम शांतिपूर्ण तरीके से नहीं हुआ तो इसे हिंसक तरीके से करना होगा। यही मुक्त बाज़ार की अनिवार्य शर्त है।

यह उड़ीसा में केवल बॉक्साइट की कहानी है। इन 4000 अरब डॉलर में छत्तीसगढ़ और झारखंड से निकलने वाले उच्च कोटि के लौह अयस्क की क़ीमत जोड़ लीजिए। और यूरेनियम, लाइमस्टोन, डोलोमाइट, कोयला, टीन, ग्रैनाइट, संगमरमर, कॉपर, हीरा, सोना, क्वार्टजाइट, कोरंडम, बेरील, अकेक्सेन्ड्राइट, सिलिका, फ्लोराइट और गार्नेट समेत 28 अन्य खनीज स्रोतों की कीमत को भी जोड़िए। इस लिस्ट में पॉवर प्लांट, बड़े-बड़े बांध, हाईवे, स्टील और सीमेंट फैक्टरिया, अल्युमीनियम ढालने वाली फैक्टरियां और आधारभूत ढांचे से जुड़ी तमाम अन्य परियोजनाओं जो कि सैकड़ों समझौतों का हिस्सा हैं उनकी लागत भी जोड़िए (अकेले झारखंड में ऐसी 90 परियोजनाओं को मंजूरी दी जा चुकी है)। इससे हमें और आपको वहां होने वाले ऑपरेशन और उससे जुड़ी कंपनियों की बेचैनी का मोटा-मोटी अंदाजा मिल जाएगा।

पश्चिम बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के हिस्सों में फैले जंगल – जिसे दंडकारण्य कहा जाता रहा है – में करोड़ों आदिवासी रहते हैं। मीडिया ने इसे लाल कॉरिडोर या फिर माओइस्ट (Maoist – माओवादी) कॉरिडोर कहना शुरू कर दिया है। कायदे से इसे एमओयूइस्ट (MoUist – MoU का मतलब मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग होता है) कॉरिडोर कहना चाहिए। यह संविधान के पांचवे सिड्यूल में आदिवासियों को दी गई सुरक्षा के एकदम विपरीत है – जिसके तहत उन्हें उनकी ज़मीन से बेदखल नहीं किया जा सकता। ऐसा लगता है कि यह क्लॉज संविधान की सुंदरता के लिए जोड़ा गया है। हल्की सी सजावट। हल्का सा मेकअप। आदिवासियों के घरों पर कब्जा करने के लिए बहुतेरी कंपनी – छोटी से लेकर दुनिया की सबसे बड़ी खनन कंपनियां – कतार में लगी हुई हैं। मित्तल, जिंदल, टाटा, एस्सार, पॉस्को, रियो टिंटो, बीएसपी बिलिटॉन और वेदांता – यह फेहरिस्त काफी लंबी है।

यहां हर पर्वत, नदी और जंगल के लिए एक करार किया गया है। हम ऐसी सामाजिक और पर्यावरण इंजीनियरिंग की बात कर रहे हैं जो हमारी कल्पनाओं से परे है। और इसमें से अधिकतर गुप्त भी, जिनके बारे में किसी को कोई भनक नहीं।

किसी भी प्रकार से, मैं यह नहीं सोच रही कि दुनिया के प्राचीनतम जंगलों में एक जंगल और उसमें पलने वाले इकोसिस्टम और रहने वाले लाखों इंसानों को धीरे-धीरे नष्ट करने की इस साज़िश के बारे में कोपेनहेगन की क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस में कोई चर्चा होगी। हमारे 24 घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनल भी माओवादी हिंसा के बेतुके किस्सों को गढ़ने में और ख़बरों का अकाल पड़ने पर उन्हें चलाने में लगातार व्यस्त रहते हैं। लेकिन इस हिंसा के दूसरे पहलू को लेकर उनका रवैया हमेशा उदासीन बना रहता है। मैं चकित हूं कि ऐसा क्यों है?

शायद इसलिए कि वो विकास की वकालत करने वालों के दास बन गए हैं और विकास की दलील देने वाली यह लॉबी कहती है कि खनन उद्योग से सकल घरेलु उत्पाद की विकास दर में तेज बढ़ोतरी होगी और इससे विस्थापितों को रोजगार मिलेगा। उन्हें पर्यावरण को होने वाली भयावह छति नज़र नहीं आती है। अगर इस छति को रहने दें तो भी उनकी संकीर्ण दलीलों में कोई दम नहीं है। अधिकतर पैसा कंपनियों के मालिकों की तिजोरी में चला जाएगा। सरकार के हिस्से में दस फ़ीसदी से भी कम आएगा। विस्थापितों की तुलना में बहुत कम लोगों को रोजगार मिलेगा। और जिन्हें रोजगार मिलेगा वो बंधुआ मज़दूरी पर कमरतोड़ मेहनत करने के लिए मजबूर रहेंगे। अपने लालच की अंतहीन गुफा खोदते हुए हम अपने पर्यावरण की कीमत पर दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था चमका रहे हैं।

जब इस खेल में लगा पैसा इतना अधिक हो तो स्टेकहोल्डर्स (लाभार्थियों) की शिनाख्त हर समय आसान नहीं होती। निजी विमानों में घूमने वाले सीईओ से लेकर सलवा जुडुम जैसी जन सेना में शामिल आदिवासी तक – जो चंद हज़ार रुपयों के लिए अपने ही लोगों की हत्या और बलात्कार करते हैं और उनके घरों को जला देते हैं ताकि खनन का काम शुरू हो सके – लाभार्थियों का जाल फैला हुआ है। इन्हें अपना हित जाहिर करने की कोई जरूरत नहीं। इन्हें अपनी जगह लेने की छूट दी जा चुकी है।

क्या कभी हम यह जान पाएंगे कि इस लूट में किस राजनीतिक दल, मंत्री, सांसद, नेता, जज, एनजीओ, विशेषज्ञ और अधिकारी का प्रत्यक्ष या फिर परोक्ष रूप से कितना हित जुटा है?

क्या हम जान सकेंगे कि माओवादी हिंसा के ताज़ा वाकये के बारे में ग्राउंड जीरो (युद्ध क्षेत्र) से सीधी रिपोर्टिंग करने वाले – या साफ़ शब्दों में कहें तो ग्राउंड जीरो से रिपोर्टिंग का पाखंड करने वाले – या और अधिक साफ शब्दों में कहें तो ग्राउंड जीरो से झूठ बोलने वाले किस अख़बार और न्यूज़ चैनल का इस लूट में क्या हिस्सा है?

आखिर कैसे और कहां से भारत के चंद नागरिकों ने चोरी छिपे खरबों डॉलर स्विस बैंक में जमा कराए हैं (यह रकम भारतीय जीडीपी से कई गुना है)?

बीते आम चुनाव में खर्च हुए दो अरब डॉलर आखिर कहां से आए? चुनावी पौकेज के नाम पर सियासी दलों और नेताओं ने मीडिया को जो अरबों रुपये बांटे हैं वो कहां से आए? (अगली बार अगर आप किसी टीवी एंकर को एक स्तब्ध स्टूडियो गेस्ट से जबरन, चीखते हुए अंदाज में सवाल करते सुने कि “आखिर माओवादी चुनाव क्यों नहीं लड़ते हैं? मुख्यधारा में क्यों नहीं आते हैं?” तो यह एसएमएस जरूर कीजिएगा – “क्योंकि तुम्हारे दाम (रेट) उनकी (माओवादियों की) पहुंच से बाहर हैं।))

इस तथ्य से हम क्या समझें कि ऑपरेशन ग्रीन हंट के सीईओ और देश के केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कॉरपोरेट वकील के तौर पर अपने करियर में कई खनन कंपनियों की नुमाइंदगी की है?

इस तथ्य का हम क्या अर्थ निकालें कि चिदंबरम वेदांता के गैर कार्यकारी निदेशक थे और उन्होंने 2004 में उस पद से इस्तीफा ठीक उसी दिन दिया जिस दिन देश के वित्त मंत्री के तौर पर शपथ ली?

इस सत्य से हम क्या समझें कि वित्त मंत्री बनने के बाद चिदंबरम ने सबसे पहले विदेशी निवेश के जिन प्रस्तावों को मंजूरी दी उनमें से एक प्रस्ताव मॉरिशस की कंपनी ट्विस्टार होल्डिंग्स का था जिसने वेदांता ग्रुप की कंपनी स्टरलाइट के शेयर खरीदे?

यह जान कर भी हम करें कि जब उड़ीसा के एक कार्यकर्ता ने वेदांता पर सरकारी नियमों को तोड़ने का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर किया और बताया कि कैसे यह कंपनी मानवाधिकारों का हनन और पर्यावरण से खिलवाड़ कर रही है और उसकी करतूतों के कारण नॉर्वेजियन पेंशन फंड ने निवेश वापस ले लिया, तो जस्टिस कपाडिया ने यह सलाह दी कि वेदांता की जगह यह प्रोजेक्ट उसकी सिस्टर कंपनी स्टरलाइट को दे दी जाए? जस्टिस कपाडिया ने बेपरवाह अंदाज में भरी अदालत में कहा कि उनके पास भी स्टरलाइट कंपनी के शेयर्स हैं। यही नहीं उन्होंने स्टरलाइट कंपनी को जंगल में खनन की इजाजत दे दी – यह जानते हुए भी कि सुप्रीम कोर्ट की विशेषज्ञ समिति ने यह कहते हुए खनन की छूट नहीं देने की सलाह दी थी कि उससे जंगल तबाह हो जाएंगे। पानी के स्रोत सूख जाएंगे और पर्यावरण को नुकसान पहुंचने से वहां का पूरा जनजीवन संकट में पड़ जाएगा। जस्टिस कपाडिया ने यह मंजूरी सुप्रीम कोर्ट की ही समिति की रिपोर्ट को खारिज करते हुए दी।

हम इस सत्य से क्या समझें कि ज़मीन खाली कराने के लिए सलवा जुडुम जैसे हिंसक ऑपरेशन की औपचारिक शुरूआत 2005 में हुई, टाटा के साथ हुए करार के चंद दिनों बाद? और बस्तर में जंगल वेलफेयर ट्रेनिंग स्कूल की स्थापना भी तभी की गई?

हम इस सत्य से भी क्या समझें कि अब से दो हफ़्ते पहले, 12 अक्टूबर को लोहनडिगुडा, दंतेवाड़ा में टाटा स्टील के दस हज़ार करोड़ रुपये की परियोजना की मंजूरी के लिए जरूरी जन सुनवाई कलेक्टर के दफ़्तर में हुई। बस्तर से भाड़े पर पचास लोग लाए गए। इलाके को सील कर दिया गया और उसके बाद कलेक्टर ने जन सुनवाई को कामयाब बता दिया और बस्तर की जनता को इस सहयोग के लिए धन्यवाद दिया?

हम यह तथ्य जानकार क्या मतलब निकालें कि जब प्रधानमंत्री ने माओवादियों को सबसे बड़ा आंतरिक ख़तरा बताया तब उस इलाके से जुड़ी कई कंपनियों के शेयरों के भाव अचानक तेजी से चढ़ गए?

खनन कंपनियां हर हाल में यह युद्ध चाहती हैं। यह एक पुराना हथियार है। उन्हें उम्मीद है कि हिंसा का असर इतना व्यापक होगा कि जिन लोगों ने उन्हें इस इलाके में दाखिल होने से रोक रखा है वो अपने घर छोड़ कर जाने को मजबूर हो जाएंगे। वास्तव में यह होगा या इससे माओवादियों की ताक़त बढ़ जाएगी यह भविष्य में पता चलेगा।

इस तर्क को पलटते हुए पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री डॉ अशोक मित्रा ने एक लेख लिखा है – द फेंटम एनिमी। उसमें डॉ मित्रा ने कहा है कि माओवादी जिन ख़ौफनाक़ सीरीयल हत्याओं को अंजाम दे रहे हैं वो छापामार युद्ध की किताबों से सीखे गए पुराने हथकंडे हैं। उन्होंने बताया है कि माओवादियों ने अपनी गुरिल्ला सेना का गठन कर लिया है जो भारतीय राज्य से लोहा लेने के लिए तैयार है। माओवादी जो उपद्रव फैला रहे हैं यह राज्य को उकसाने की एक चाल है ताकि गुस्से में सरकार कुछ ऐसे क्रूर कदम उठाए जिससे आदिवासियों का गुस्सा और भड़के। डॉ मित्रा के मुताबिक माओवादी को उम्मीद है कि आदिवासियों का यह गुस्सा एक विद्रोह की शक्ल अख्तियार करेगा। यकीनन यह “दुस्साहसी” बताने का वही घिसापिटा आरोप है जो वामपंथी विचारधारा के कई धड़े पहले से माओवादियों पर मढ़ते रहे हैं।

अशोक मित्रा एक पुराने कम्युनिस्ट हैं। पश्चिम बंगाल में साठ और सत्तर के दशक में नक्सली आंदोलन में उनकी अग्रणी भूमिका रही है। उनके मत को सीधे खारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिए कि आदिवासियों के संघर्षों का इतिहास माओवाद के जन्म से बहुत पुराना है। इसलिए उन्हें चंद माओवादी विचारकों की कठपुतली करार देना उन्हें नुकसान पहुंचाने के बराबर है।

अगर हम मान लें कि डॉ मित्रा लालगढ़ लालगढ़ के हालात पर चर्चा कर रहे हैं, अभी तक, उसके खनीज संपदा पर चर्चा नहीं हुई है। ((हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लालगढ़ में हिंसा तब भड़की जब राज्य के मुख्यमंत्री जिंदल स्टील प्लांट की फैक्टरी का उद्घाटन करने पहुंचे। और जहां स्टील की फैक्टरी लगाई जा रही हो क्या लौह अयस्क उससे बहुत दूर होगा?)) लोगों के गुस्से का रिश्ता वहां मौजूद भीषण गरीबी और दशकों से पुलिस और सीपीएम के हथियारबंद गिरोहों की दमनात्मक कार्रवाई से है। पश्चिम बंगाल में तीस साल से अधिक समय से सीपीएम की सरकार है।

तब भी, सिर्फ तार्किक नज़रिए से हम यह सवाल नहीं पूछें कि हजारों हजार की संख्या में पुलिस और अर्धसैनिक बल लालगढ़ में क्या कर रहे हैं और यह मान लें कि माओवादी दुस्साहसी हैं – तो भी यह पूरी तस्वीर का एक छोटा सा हिस्सा होगा।

वास्तविक समस्या यह है कि भारत का चमत्कारिक विकास उड़ान अब धरती पर आ गिरा है। इस उड़ान के लिए हमने पर्यावरण और सामाजिक लिहाज से बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। और अब, नदियां सूख रही हैं, जंगल ख़त्म हो रहे हैं, भू जल स्तर गिर रहा है और लोगों को यह अहसास होने लगा है कि उन्होंने प्रकृति के साथ जो किया है अब वही उनके साथ होगा। पूरे देश में उथल-पुथल है। सरकार के दावों पर लोगों को यकीन नहीं। अचानक ऐसा लगने लगा है कि दस फीसदी की विकास दर और लोकतंत्र दोनों एक साथ नहीं चल सकते।

पहाड़ियों से बॉक्साइट हासिल करने के लिए, जंगल से लौह अयस्क निकालने के लिए, भारत के 85 फीसदी आबादी को गांव से बाहर निकाल कर शहरों में ठूंसने के लिए (चिदंबरम ने कहा है कि यह उनका सपना है कि देश की 85 फीसदी आबादी शहरों में रहे)) भारत को एक पुलिस स्टेट बनना होगा। सरकार को सैन्यीकरण करना होगा। सैन्यीकरण को जायज ठहराने के लिए उसे एक दुश्मन की ज़रूरत है। माओवादी वही दुश्मन हैं। हिंदू कट्टरपंथियों के लिए मुसलमान जो हैसियत रखते हैं, कॉरपोरेट कंट्टरपंथियों के लिए माओवादियों की हैसियत वही है? (अगर कंट्टरपंथियों की कोई जमात होती है तो… शायद यही वजह है कि आरएसएस इन दिनों पी चिदंबरम के गुणगान में जुटा है?)


अगर कोई यह सोच रहा है कि राजनांदगांव एयरफोर्स बेस का निर्माण, बिलासपुर में ब्रिगेड हेडक्वार्टर, गैरकानूनी गतिविधि विरोधी कानून, छत्तीसगढ़ स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट और ऑपरेशन ग्रीन हंट जंगलों से कुछ हज़ार माओवादियों को बाहर निकालने के लिए हैं तो वह बहुत बड़ी ग़लती कर रहा है। ऑपरेशन ग्रीन हंट से जुड़ी हर बहस में मुझे आपातकाल की आहट नज़र आती है। (यहां बड़ा सवाल यह है कि – अगर कश्मीर की छोटी सी घाटी को कब्जे में रखने के लिए 6 लाख सैनिकों की ज़रूरत पड़ रही है तो दंडकारण्य के विस्तृत पहाड़ी और जंगली इलाकों में कितने सैनिकों की ज़रूरत होगी?))

इसलिए हाल ही में गिरफ़्तार किए गए माओवादी नेता कोबाड गांधी का नार्को टेस्ट कराने की जगह बेहतर होगा कि उनसे बात की जाए।

इस बीच, इस साल के आखिर में कोपेनहेगन में होने वाले क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने जा रहे लोगों में से क्या कोई यह सवाल उठाएगा कि – क्या हम बॉक्साइट को उन्हीं पहाड़ियों में नहीं छोड़ सकते हैं?

4.11.09

शिव के राज में विस्थापितों पर गिरी गाज

शिरीष खरे

खण्डवा। नर्मदा बचाओ आंदोलन के गैरकानूनी दमन के विरोध में अनिश्चितकालीन धरना और क्रमिक अनशन को देशव्यापी समर्थन मिलते देख पुलिस ने अचानक भारतीय दण्ड विधान की धारा 333 के तहत एक और केस दर्ज किया है। इसके बाद आंदोलन की तरफ से जारी प्रेस रिलीज में कहा गया है कि न्यायालय के आदेशों का पालन करने की मांग करने वालों के साथ-साथ संघर्षरत किसान-आदिवासियों पर प्रशासनिक कहर दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। पुलिस नए-नए केसों में उन्हें इस तरह से उलझा रही है कि न्यायालय के आदेशों की मांग करने वाले घबराकर दब जाएं। पुलिस और प्रशासन का यह कृत्य कानून का शासन स्थापित करने में बाधक है। इससे न केवल लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है बल्कि लोकत्रांतिक मूल्यों में आम जनता की आस्था को भी क्षरित करने का दुष्प्रयास किया जा रहा है। प्रशासन की इस मनोवृति के खिलाफ आंदोलन अपना झण्डा बुलंद करेगा।


दूसरी तरफ प्रशासन के इस गैरकानूनी रवैए के विरोध में कई और जगहों से लगातार प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं। जनपहल की तरफ से भोपाल में कई कार्यकर्ताओं ने ‘राज्य मानवाधिकार आयोग’ से दोबारा मुलाकात की और प्रशासन के गैरकानूनी दमन से जुड़े ताजा सबूत पेश किए। आयोग ने इसे गंभीर मानते हुए कहा है कि जिला प्रशासन बुधवार को दी जाने वाली रिपोर्ट में अपनी स्थिति साफ करने वाला है, इसके बाद ही कार्यवाही तय की जाएगी। इंदौर में 50 से अधिक आंदोलन सर्मथकों के एक प्रतिनिधिमण्डल ने कमिशनर से मिलकर खण्डवा जिला प्रशासन की इस दमनकारी नीति का विरोध किया है। प्रतिनिधिमण्डल में वरिष्ठ शिक्षाविद प्रोफेसर आर डी प्रसाद, साहित्यकार सरोज कुमार, संस्कृतिकर्मी चिन्मय मिश्र, शिल्पी केन्द्र के अमूल्य निधि, झुग्गी बस्ती संघर्ष मोर्चा के राकेश चांदोरे ने इस घटना को प्रभावितों के नीतिगत अधिकारों का हनन बताया है। उधर छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने दुर्ग में मशाल रैली करने का फैसला लिया है।


हरदा में नारायण टाकीज चौक पर समाजवादी जन परिषद और क्रांति हम्माल जन यूनियन ने आंदोलन के समर्थन में धरनाप्रदर्शन किया। इस दौरान सजप के महामंत्री सुनील ने उच्च न्यायालय के आदेशों के पालन की मांग करने वाले आंदोलनकारियों को हिरासत में लिए जाने को न्यायालय की अवमानना बताया है। बड़वानी में जागृत दलित आदिवासी संगठन ने जिला कलेक्टर को मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन देकर आंदोलन का समर्थन किया। इधर खण्डवा में धरनास्थल पर मेधा पाटकर सहित आंदोलन के हजारों कार्यकर्ताओं और समर्थकों की मौजूदगी में कार्यक्रम जारी हैं।

2.11.09

सरकार जो गैरकानूनी हथकण्डे अपना रही है

शिरीष खरे

खण्डवा। यहां से दो खबरें हैं, पहली वो जो यहां की नहीं है और यहां सबको पता है कि सरकार ने हिंसक-गैरकानूनी हथकण्डे अपनाने वाली माओवादी ताकतों को कुचलने की ठानी है। दूसरी खबर वो जो यहां की है और यहां से बाहर अभी बहुत कम लोगों को पता है कि सरकार खुद हिंसक-गैरकानूनी हथकण्डे अपना रही है, इस तरह वह शांतिपूर्ण तरीके से विरोध जताने वाले नर्मदा घाटी के डूब प्रभावितों के विरोध को दबा देना चाहती है। यह और बात है कि पुलिस द्वारा नर्मदा बचाओ आंदोलन कार्यालय पर गैरकानूनी कब्जा किये जाने और दर्जनों बड़े कार्यकताओं को बगैर वारंट हिरासत में लिए जाने के बाद उठे विरोध को अब देश भर से समर्थन मिलने लगा है।

एक नजर में :

  • पिछली 30 अक्टूबर को पुलिस ने नर्मदा बचाओ आंदोलन, खण्डवा कार्यालय पर गैरकानूनी तरीके से कब्जा किया और आलोक अग्रवाल सहित कई बड़े कार्यकर्ताओं को बगैर वारण्ट हिरासत में लिया।


  • अगले रोज विद्युत विभाग की जांच के नाम पर आंदोलन के कार्यालय को फिर से निशाना बनाया गया। विद्युत विभाग के कर्मचारियों की बजाय पुलिस वाले बिल लेकर पहुंचे।


  • चित्तरुपा पालित और रामकुंवर ने कार्यालय पर गैरकानूनी कब्जे के खिलाफ जेल के भीतर अनिश्चितकालीन अनशन शुरू कर दिया। इसके समर्थन में महेश्वर, अपरवेदा और ओंकारेश्वर बांध के हजारों प्रभावितों का भी अनिश्चितकालीन धरना और क्रमिक अनशन शुरू हो गया।


  • बरगी बांध से प्रभावित धरने में शामिल हुए। इसके अलावा बड़वानी, हरदा, भोपाल, इंदौर, जबलपुर आदि जगहों पर आंदोलन के समर्थन में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए।


  • मेधा पाटकर के नेतृव्य में एक प्रतिनिधि मण्डल कलेक्टर से मिला। उन्होंने आंदोलनकारियों में लगाये गए झूठे मामलों को तुरंत वापिस लेने की मांग की।


  • राज्य मानवाधिकार आयोग ने जिला कलेक्ट्रर और पुलिस अधीक्षक को नोटिस भेजकर 3 दिनों में घटना की रिपोर्ट मांगी।

मामला यही थमता नजर नहीं आ रहा है बल्कि आंदोलन के समर्थन में अब शहर से लेकर देशभर के कई जन संगठन और नागरिक समूह भी सामने आ रहे हैं। रिटायर कर्नल वोम्बेटकेरे ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर पुलिस की असंवैधानिक कार्यवाही के बारे में बताया है। दूसरी जगहों से कई समुदायों ने सरकार से उच्च न्यायालय के आदेशों के तहत विस्थापितों को खेती की जमीन और अन्य पुनर्वास लाभ दिए जाने की वकालत की है।

इस सबंध में वरिष्ठ गांधीवादी विचारक सुश्री राधा भट्ट और उत्तराखण्ड नदी बचाओ अभियान के बसंत पाण्डे ने भी मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर कार्यकताओं की रिहाई के लिए मांग की है। पीपुल्स यूनियन आफ डेमोक्रेटिक राईटस ने अपनी प्रेस रिलीज में आंदोलन के प्रति एकजुटता जाहिर की है। साथ ही एक आनलाइन पेटिशन में दुनियाभर से अबतक 500 से ज्यादा लोगों और समूहों ने दस्तखत करके बांध प्रभावितों के दमन पर आपत्ति दर्ज की है। वहीं एशियन मानवाधिकार आयोग ने भी घटना की निंदा करते हुए एक्शन एलर्ट जारी किया है।

खंडवा में धरनास्थल पर बैठे कई आंदोलनकारी यह मानते हैं कि सरकारी मशीनरी अभी भी अपनी सारी ताकत उच्च न्यायालय के आदेशों को मानने की बजाय विस्थापितों के संघर्ष को दबाने में खर्च कर रही है। आंदोलन कार्यालय को निशाना बनाया जाना प्रशासन का एक नया और गैरकानूनी हथकण्डा है। इसी के चलते पुलिस ने आंदोलन कार्यालय को गैरकानूनी ढ़ंग से अपने नियंत्रण में लिया और वरिष्ठ कार्यकर्ता आलोक अग्रवाल को बगैर वारण्ट गिरफ्तार भी किया। पुलिस ने आलोक अग्रवाल की गिरफ्तार को लेकर गुमराह भी किया। एक तरफ लोगों को बताया गया कि उन्हें पूछताछ के लिए लाया गया है दूसरी तरफ वकील से कहा गया कि उन्हें पुराने मामले में गिरफ्तार किया गया है।
जिला प्रशासन के इशारे पर विद्युत विभाग ने जिस तरीके से कार्यालय की जांच की उसे लेकर भी आंदोलनकारी गुस्से में हैं। जांच के बाद विद्युत विभाग ने आंदोलन कार्यालय को व्यवसायिक स्थल बताते हुए 15149 रुपए का अतिरिक्त बिल जारी कर दिया। बिल पहुंचाने विद्युत विभाग के कर्मचारियों की बजाय पुलिसकर्मी आए। आंदोलनकारी बताते हैं कि कार्यालय में बांध प्रभावितों के संवैधानिक अधिकार, कानूनी और लोकत्रांतिक तरीकों के संरक्षण से जुड़ा दस्तावेजीकरण होता है। यह तो किसी तरह की व्यवसायिक गतिविधि नहीं है। विद्युत विभाग तो पहले भी परेशान करता रहा है। वह तो कई बार ताला लगा होने की झूठी बात लिखकर ज्यादा बिल वसूलता रहा है जबकि विद्युत मीटर तो खुले वराण्डे में ही लगा हुआ है। आंदोलन अब इसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की भी सोच रहा है।
विस्थापितों के साथ धोखे पर धोखा

नर्मदा घाटी में बन रहे इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर बांध के हज़ारों विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन, वयस्क पुत्रों को जमीन और सभी को पुनर्वास की अन्य सुविधाएं देकर बसाना था। मगर इस नीति का खुला उल्लंघन करते हुए विस्थापितों को धोखे एवं दमन के आधार पर ही उज़ाडा गया है। इतना ही नहीं विस्थापितों के हक में दिये गये सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के फैसलों पर भी अमल नही किया जा रहा है। प्रदेश और देश के विकास के नाम पर त्याग करने वाले लाखों विस्थापित आज दर दर की ठोकरें खाने पर मजबूर है जबकि दूसरी तरफ बांध बनाने वाली कम्पनी एनएचडीसी ने बीते 4 सालों में 1200 करोड़ रूपए से ज्यादा शुद्ध मुनाफा कमाया है।

इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर बांध के हजारों विस्थापितों की माँग हैं कि :

इंदिरा सागर परियोजना में :

1. मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा दायर याचिका में पहले 8 सितम्बर 2006 और फिर 2 सितम्बर 2009 को यह आदेश दिया है कि किसानों के सभी वयस्क पुत्र और अविवाहित पुत्रियों को 5.5 एकड़ कृषि जमीन दी जाए। इसका पालन किया जाए।

2. विस्थापित मज़दूर परिवारों को डूब से खुलने वाली जमीन बांटी जाए और उन्हें सिंचाई की सुविधा दी जाए। जिससे वह पानी खुलने पर हर साल गेहूं और गर्मी की फसल ले सकें। इस तरह विस्थापित मजदूर परिवार भी इज्जत से रोजगार पा सकें।

3. इंदिरा सागर डूब क्षेत्र में विस्थापित मछुआरों के साथ गुंडागर्दी एवं मारपीट की जा रही हैं। इसे तत्काल रोका जाए और इंदिरा सागर में मछली मारने का अधिकार ठेकेदार को नहीं, विस्थापित को दिया जाए।

4. खेतीयोग्य जमीनों पर एनएचडीसी ने मामूली मुआवजा देकर कब्जा कर लिया है। इससे प्रभावित किसान दोबारा जमीन नहीं खरीद सके हैं। इसलिए जमीन के लिए दी जाने वाले विशेष पुनर्वास अनुदान (बढ़त राशि) को हरदा कमाण्ड के अच्छी दर 1.5 से 2 लाख रूपए एकड़ के हिसाब से दिया जाए।

5. अभी भी डूब क्षेत्र में छूटे हुए हजारों घर, जो मुआवजे से छूटे हैं, उनका भू-अर्जन करके मुआवजा दिया जाए।

6. जहां जमीन डूब चुकी है और अब जीने का कोई जरिया बचा ही नही है, उन गांवों के सभी घरों का भू-अर्जन करके विस्थापितों को मुआवजा और पुनर्वास दिया जाए।

7. इंदिरा सागर डूब क्षेत्र खासकर हरदा जिले में भयावह भ्रष्टाचार फैला है। प्रभावितों के अनुदान दलालों द्वारा अधिकारियों की मिलीभगत से निकाले जा रहे हैं। इस पर रोक लगाई जाए और स्वतंत्र जांच कर दोषियो को दण्डित किया जाए।

8. सभी पुनर्वास स्थलों पर विस्थापितों के लिए पूर्ण रोज़गार दिया जाए। उनके लिए बीपीएल राशन कार्ड बनाए जाएं और पुनर्वास स्थल पर स्कूल, अस्पताल, पेयजल आदि सभी सुविधाएं दी जाएं।

9. बहुत से गांवों में अभी तक परिवार सूची ही नही बनी है और वह पुनर्वास के समस्त लाभों से वंचित हैं, उन गांवों की परिवार सूचियां बनाकर, सभी विस्थापितों को पुनर्वास के लाभ दिये जाएं।

10. इंदिरा सागर के डूब में आने वाले छूटे हुए गांव का सर्वे करके परिवारों को मुआवजा और पुनर्वास दिया जाए।

11. 25 प्रातिशत से कम बची जमीन के भू-अर्जन के साथ परिसम्पत्तियों का भी अर्जन किया जाए।

12. जहां घर डूब हैं और जमीने बची हैं वहां 1 किलोमीटर के अंदर पुनर्वास स्थल का निमार्ण किया जाएं।

13. इंदिरा सागर बांध स्थल पर जल स्तर सूचित करने वाला स्केल मिटा दिया गया है, जो कि अत्यंत गंभीर है। बांध का जल स्तर बताने वाला सार्वजनिक स्केल फिर से लिखा जाए।

ओंकारेश्वर परियोजना में :

1. उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के अनुसार विस्थापितों को सिंचित एवं उपजाऊ जमीन देकर बसाया जाए।

2. विस्थापितों को जमीन आवंटन के लिये अतिक्रमित जमीनों को न दिया जाए, जिससे अन्य गरीब परिवारों की रोटी न छिने और विस्थापित की सुरक्षित बसाहट हो सके।

3. उच्च न्यायालय की तारीख 23 सितम्बर 2009 और अन्य सभी आदेशों का तत्काल पालन किया जाए।

4. न्यायालयीन आदेश तथा पुनर्वास नीति के अनुसार कमाण्ड एरिया में विस्थापितों की इच्छा अनुसार घर प्लाट दिये जाएं।

5. छूटे हुए मकानों का भू-अर्जन किया जाए।

6. किसानों को अपर्याप्त मुट्ठी भर मुआवजा दिया गया है। कृषि जमीन का विशेष पुनर्वास अनुदान (बढ़त राशि) कम से कम 1.5 से 2 लाख रूपए एकड़ दिया जाए।

7. तालाब में मछली ठेकेदार को नहीं दी जाए। मछली मारने का सम्पूर्ण अधिकार विस्थापित को दिया जाए।

8. पुनर्वास के लाभों से वंचित सभी परिवारों को घर प्लाॅट, अनुदान व समस्त लाभ दिया जाए।

9. सन् 2004 में धाराजी प्रकरण में सैकड़ो लोगों को एनएचडीसी द्वारा पानी छोड़ने से बह जाना तथा पिछले महीने ग्राम कामनखेड़ा में नन्ही हरिजन बालिका का एनएचडीसी द्वारा पानी बढ़ाने से मौत के लिए जिम्मेदार एनएचडीसी को दण्डित किया जाए।