27.9.10

बेटियों को बेटों से कमतर न आंका जाए : क्राई

मुंबई/ बाल अधिकार पर काम करने वाला संस्था चाइल्ड राइट्स एडं यू 'क्राई' ने देश में लड़कियों के साथ होने वाले भेदभाव को दूर करने की अपील करते हुये बेटियों को बेटों के बराबर की दर्जा देने की वकालत की है.



देश में मनाये जा रहे बालिका दिवस के मद्देनजर ग्रीटिंग कार्ड बनाने वाली कंपनी आर्चीज ने लड़कियों के साथ होने वाले भेदभाव को दूर करने वाले संदेश वाले कार्ड के जरिये लोगों में जागरूकता लाने के उद्देश्य से क्राई के साथ भागीदारी की है. इस भागीदारी के मौके पर क्राई की मुख्य कार्यकारी अधिकारी पूजा मारवाह ने कहा कि "देश में बेटियों को लेकर दिल और दिमाग दोनों स्तर पर बदलाव लाने की जरुरत है. बेटियों को बेटे की तरह शिक्षा के साथ ही बराबरी का अधिकार दिये जाने की जरुरत है.

उन्होंने कहा कि "समाज में जागरूकता आने के बावजूद अब भी लोग बेटी नहीं बेटे चाहते हैं जबकि क्राई के अध्ययनों में यह साफ् हुआ है कि लडकियां व्यक्तिगत और सामूहिक रूप में समाज की पुरानी परंपराओं को तोड़कर आगे बढ़ रही हैं और भेदभाव को स्वीकार नहीं कर रही हैं. वे मंजिल हासिल करने की दिशा में बढ़ने लगी हैं.

इस मौके पर आर्चीज के प्रबंध निदेशक अनिल मूलचंदानी ने कहा कि "लड़कियों की स्थिति के मद्देनजर बालिका दिवस पर उनके प्रति प्रेम एवं सद्भाव जताने की जरुरत है." उन्होंने बताया कि" उनके साथियों ने ऐसे ग्रीटिंग कार्ड बनाये हैं जिनके जरिए कार्ड भेजने वाले और पाने वाले दोनों देश में लड़कियों की वास्तविक स्थिति को समझ सकेंगें."

पूजा मारवाह ने बताया कि "उनकी संस्था देश के 13 हजार गांवों में लड़कियों को लड़कों के बराबर अधिकार देने का अभियान शुरू किया है. इसके तहत कन्या भ्रूण हत्या, बाल श्रम, बाल दुर्व्यवहार और बाल विवाह के प्रति लोगों में जागरूकता लायी जा रही है." क्राई मानता है कि इस अभियान को सफल बनाने के लिए नीतिनिर्धारकों और नीतियों को लागू करने वाली एजेंसियों को भी इस भेदभाव को दूर करने के प्रति कटिबद्धता जतानी होगी.

23.9.10

अपनी थाली कित्ती खाली

शिरीष खरे

भारत की भूख अब विकराल रुप ले चुकी है. यहाँ सामान्य (प्रोटीन ऊर्जा) कुपोषण की स्थिति अब गरीब अफ्रीकी देशों से भी बदतर हो चुकी है. आधिकारिक आकड़ों के हवाले से स्कूल जाने वाला देश का हर दूसरा बच्चा सामान्य या फिर अति कुपोषण का शिकार बन रहा है. देश की 44 प्रतिशत जनता अंतर्राष्ट्रीय मानक (1 डालर प्रतिदिन) से कम कमा पाती है. 70 प्रतिशत ग्रामीण आबादी में कुपोषण और भूख की मात्रा बहुत ज्यादा है. खासकर पिछड़ी अनुसूचित जातियों, जनजातियों, औरतों और 5 साल तक के बच्चों में. कुपोषण और भूख के चलते देश का आने वाला कल कहे जाने वाले 47 प्रतिशत बच्चों का अपनी उम्र के अनुपात में लंबाई और वजन नहीं बढ़ पाता है. कुपोषण के चलते ही 20 से 49 साल की 50 प्रतिशत औरतों में खून की कमी हो जाती है. अगर 200 लाख टन खाद्यान्न गोदामों में हो तो कहते हैं खाद्य की स्थिति काबू में रहती हैं. जबकि गोदामों में 608.79 टन खाद्यान्न है. इसके बावजूद 23 करोड़ यानी 21 प्रतिशत से कही ज्यादा भारतीय भूखे और कुपोषित हैं. मगर खाद्यान्न गोदामों से गरीबों की थाली तक नहीं पहुँच पा रहा है और सालाना प्रति व्यव्क्ति भोजन की उपलब्धता एक सौ पैंतालीस किलोग्राम से भी लगातार घटती जा रही है.

संयुक्त राष्ट्र की 'विश्व खाद्य कार्यक्रम' द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के ग्रामीण इलाकों में आहार-असुरक्षा की स्थिति अत्यंत गंभीर है. झारखंड के उदाहरण से अगर ग्रामीण इलाकों में आहार-असुरक्षा की स्थिति का जायजा लें तो 'न्यूट्रीशनल इनटेक इन इंडिया' के मुताबिक झारखंड के ग्रामीण इलाकों के 75 प्रतिशत आबादी को कैलोरी उपभोग का 75 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ अनाज से हासिल होता है. इस राज्य के संथाल परगना में आदिवासी समूहों को साल में कई बार भूख सताती है. ‘राष्ट्रीय प्रतिदर्श संस्थान’ के अनुमानों के मुताबिक यहाँ 10.4 प्रतिशत परिवारों को मौसमी भूख तथा 25 प्रतिशत परिवारों को लगातार भूख का सामना करना पड़ता हैं. पूरी खाद्य सुरक्षा 3 से 4 महीने तक ही रहती है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 के आकलन से पता चलता है कि उम्र के लिहाज से औसत लंबाई मगर कम वजन के बच्चों (तीन साल तक की उम्र वाले) की तादाद झारखण्ड में 31.1 प्रतिशत है. यहाँ भुखमरी के कारणों में वर्षा की अनिश्चितता, एक फसलीय खेती, सिंचाई की अल्प सुविधा, घटते हुए वन, बढ़ती आबादी और भूमि की कम उत्पादकता का जिक्र किया जाता है.

आमतौर पर सरकार भूख से होने वाली मौतों के मामलों को छिपाती है. जैसे कि मुझे याद है कि सितम्बर 2004 को मोहनपुर प्रखंड के विभिन्न गांवों में 7 दिनों के अंदर भूख से 3 लोगों की मौतें हुईं थीं. बतरूवाहीड गाँव वालों का कहना था कि मृतक चमरू सिंह चारवाहे का काम करता था. खेती लायक थोड़ी जमीन भी थी जो उसने अपनी बेटी की शादी के चलते गिरवी रख दी. उसके घर में दो जवान बेटिया और हैं. उन्हीं की शादी की चिंता में वह कमजोर होता गया. घरवालों ने बताया कि मरने के पहले तक वह ‘भूख-भूख’ कह कर तड़प रहा था. उस समय घर में खाने के लिए एक दाना तक नहीं था. वहीं चरकी पहड़ी में 60 साल की वंशी मांझी ने भूख से लड़ते हुए दम तोड़ दिया. वह नि-संतान था. घर में कमाने वाला कोई नहीं था. तीसरी मौत जगरनाथी गाँव में हुई थी. वहाँ जागेश्वर महतो पानी भरने का काम करता था. घटना के दिन वह चावल लाने गया था. बहुत भूख था इसलिए रास्ते में ही बेहोश होकर गिर गया. बाद में उसकी मौत हो गई. इन मौतों की खबर सुनते ही कई राजनैतिक दलों के नेता आए. सबने प्रशासन की लापरवाही बताया. उसी साल संताल परगना में 10 लोगों की मौतें हुईं थीं. मगर वह चुनावी साल नहीं था इसलिए मामला ठण्डे बस्ते में रहा.

झारखंड सहित पूरे भारत में भूख का हाल इसलिए और विरोधाभाषी नजर आता है क्योंकि हर राज्य में अनाज के सरकारी गोदाम भरे हुए है मगर प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में कमी आ रही है. इससे संकेत मिलते हैं कि ग्रामीण भारत के लोगों के पास खरीददारी की ताकत कम होती जा रही है और जिसके चलते न खरीदा हुआ अनाज गोदामों में पड़ा हुआ है. इससे एक तरफ ग्रामीण भारत में खेतिहर संकट गहराया और दूसरी तरफ अनाज के सरकारी गोदामों में अनाज सड़ता रहा है. वहीं राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा प्रस्तुत 61वें दौर के आकलन के अनुसार 81 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों और 67 प्रतिशत शहरी परिवारों के पास ही राशन कार्ड है. बीपीएल कार्ड 26.5 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों और 10.5 प्रतिशत शहरी परिवारों को प्राप्त हैं. अंत्योदय योजना के अंतर्गत दिया जाने वाला कार्ड 1 प्रतिशत से भी कम ग्रामीण और शहरी परिवारों को प्राप्त हैं. ग्रामीण इलाके में अनुसूचित जनजाति के 5 प्रतिशत और अनुसूचित जाति के 4.5 प्रतिशत परिवारों के पास अंत्योदय कार्ड हैं. जबकि ग्रामीण इलाकों में अनुसूचित जाति के 40 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के 35 प्रतिशत परिवारों के पास बीपीएल कार्ड हैं. इसी तरह ग्रामीण इलाकों में 57 प्रतिशत खेतिहर-मजदूर परिवारों के पास बीपीएल कार्ड नहीं हैं. जबकि खेती से अलग मजदूरी करने वाले 65 प्रतिशत परिवारों के पास बीपीएल कार्ड नहीं है. 22.7 प्रतिशत उचित मूल्य की दुकानें कुल लागत पूंजी पर 12 प्रतिशत लौटा पाने में सफल हो पा रही हैं. सरकार द्वारा बीपीएल परिवारों को मिलने 35 किलो अनाज में से कटौती करते हुए प्रति 20 परिवार किलो अनाज वितरित किया जा रहा है. जबकि गरीब परिवारों की पहचान ठीक तरह से न हो पाने के चलते बड़ी संख्या में गरीब परिवारों को टीडीपीएस यानी टारगेटेड पब्लिक डिस्ट्रब्यूशन से बाहर हो जाना पड़ा है. आकलन के मुताबिक सिर्फ 57 प्रतिशत गरीब परिवारों को टीडीपीएस की सुरक्षा हासिल हो पायी है. 2003-04 में टीडीपीएस के तहत 7258 करोड़ रुपए का अनुदान दिया गया. मगर सिर्फ 4123 करोड़ रुपए का ही अनुदान बीपीएल परिवारों के हाथ आया. बाकी का अनुदान ग्राहक तक न पहुँचते हुए आपूर्ति-तंत्र से जुड़ी कई एजेंसियों के बीच पहुँच गया.

इसी तरह झारखंड सहित पूरे भारत में भूख जुड़ी शब्दावली को लेकर कोई तर्कसंगत परिभाषाएं नहीं बनी हैं. यहाँ भूख से मौतों के वैज्ञानिक मापदंड खोजने और उन्हें तय करने की कोशिश भी नहीं हुई हैं. आज भुखमरी एक तकनीकि सवाल बन चुका है. मगर यह सामाजिक और आर्थिक असमानता से भी गहराई से जुड़ा हुआ है. जिसे समझने की जरूरत है. असल में आर्थिक विकास का संतुलित ढ़ांचा और उचित वितरण का तरीका ही भूख की समस्या को सुलझा सकता है. रोजगार के अवसरों, आर्थिक साधनों की प्राप्ति और भोजन की सामग्री पर रियायत बरतना जरूरी हो गया है. गरीबों को लक्ष्य बनाकर उनको फायदा पहुँचाने के लिए खाद्यान्न के वितरण के खास तरीकों को अपनाने की जरुरत है. 

21.9.10

बाल-अधिकारों का उल्लघंन : आयोजन समिति को नोटिस

शिरीष खरे

दिल्ली बाल संरक्षण आयोग राष्ट्रमंडल खेलों के निर्माण स्थलों पर काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के बच्चों के बचाव में आया है. इसके लिए आयोग ने बाल अधिकारों के घोर उल्लंघन को देखते हुए खेल आयोजन समिति सहित विभिन्न सरकारी एजेंसियों को नोटिस भेजा है. पिछले दिनों क्राई द्वारा जारी रिपोर्ट पर गंभीर चिंता जताते हुए आयोग ने भी यह माना है कि प्रवासी मजदूरों के बच्चों के अधिकारों का घोर उल्लंघन किया जा रहा है.

क्राई द्वारा जारी रिपोर्ट में निर्माण स्थलों पर रहने वाले बच्चों के कई बुनियादी अधिकारों जैसे आवास, स्वच्छता, गुणवत्तापूर्ण भोजन, स्वच्छ पानी, स्वास्थ्य और स्कूली शिक्षा से बेदखल किए जाने से जुड़े पहलुओं को उजागर किया गया था. इस रिपोर्ट में श्रम कानूनों और संविदा श्रम अधिनियम के प्रावधानों सहित विभिन्न नियमों की खुलेआम अवमानना के साथ-साथ दिल्ली श्रम कल्याण बोर्ड की कई परियोजनाओं के निर्माण स्थलों में बच्चों के शोषण को नजरअंदाज बनाए जाने का भी खुलासा किया गया था.

दिल्ली बाल संरक्षण आयोग ने विभिन्न सरकारी एजेंसियों को जांच रिपोर्ट भेजते हुए प्रभावित बच्चों के उचित पुनर्वास और शिक्षा सहित सभी बुनियादी अधिकारों को जल्द से जल्द बहाल करने पर जोर दिया है.

क्राई का यह अवलोकन अध्ययन ध्यानचंद्र नेशनल स्टेडियम, आरके खन्ना स्टेडियम, तालकटोरा स्टेडियम, निजामुद्दीन नाला, नेहरू रोड, जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम के दौरों और सिरी फोर्ट निर्माण स्थल से जताए गए आंकड़ों पर आधारित था. क्राई की डायरेक्टर योगिता वर्मा के मुताबिक ‘‘हमने पाया कि इन कंस्ट्रक्शन साइट्स के बच्चे अस्थाई कैम्पों में रहते हैं. इन्हें स्तरीय भोजन, साफ पानी, स्वच्छता, शिक्षा और यहां तक कि किसी प्रकार का अच्छा माहौल नहीं मिल रहा है. कुल मिलाकर इन बच्चों के बाल अधिकारों का हनन हो रहा है.’’ योगिता वर्मा मानती है ‘‘गरीबी की वजह से कंस्ट्रक्शन साइट्स पर मजदूरों का माइग्रेशन हो रहा है और बच्चे स्कूल छोड़ रहे हैं. स्टडी में पाया गया कि कंस्ट्रक्शन साइट पर मौजूद कोई भी बच्चा स्कूल नहीं जाता है.’’

हाइकोर्ट में दायर एक जनहित याचिका के अनुसार राष्ट्रमंडल खेलों के अलग-अलग निर्माण स्थलों में लगभग 4.15 लाख दिहाड़ी मजदूर काम कर रहे हैं. यहां मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी दी जा रही है. कुलमिलाकर ऐसी तमाम गंभीर स्थितियों का सबसे ज्यादा खामियाजा मजदूरों के बच्चों को भुगतना पड़ रहा है.

यह सब तब हो रहा है जबकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने मई में ही कहा था कि आयोजन स्थलों पर काम करने वाले दैनिक मजदूरों को ‘दिल्ली बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स बोर्ड' (डीबीसीडब्ल्यूडब्ल्यूबी) के अंतर्गत पंजीकृत किया जाए ताकि उनके अधिकारों की रक्षा हो सके.

न्यायालय के आदेश को नई दिल्ली नगर निगम (एनडीएमसी), दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) एवं भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) के पास भेज दिया गया था.

क्राई के मुताबिक निर्माण स्थलों पर बच्चों के लिए स्वच्छता की कोई व्यवस्था नहीं है. कहीं-कहीं चलित शौचालय हैं लेकिन उनकी ठीक से सफाई नहीं होती. बच्चों का ध्यान रखने के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई है. इसके लिए निर्माण स्थलों के करीब कोई आंगनबाड़ी भी नहीं है. उनके रहने के स्थानों की हालत दयनीय है. उन्हें प्लास्टिक शीट से बनी झोपड़ियों में रखा गया है.

योगिता वर्मा के मुताबिक ‘‘बच्चों की तरफ हमारे कई संवैधानिक दायित्व हैं, कामनवेल्थ गेम्स को विश्वस्तरीय बनाने की कोशिश में इन संवैधानिक दायित्वों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है.’’ संस्था के मुताबिक दिल्ली में जो कामनवेल्थ गेम्स की तैयारी चल रही है, उसमें भारत सरकार अपने देश के बच्चों के लिए संवैधानिक दायित्व और अंतराष्ट्रीय मानवीय अधिकार वचनबद्धताओं को सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रावधान बनाए. इसी तरह निर्माण कार्यो से जुड़े मजदूरों और उनके बच्चों के लिए आवास, स्वच्छता, गुणवत्तापूर्ण भोजन, स्वच्छ पानी, स्वास्थ्य और स्कूली शिक्षा जैसे बुनियादी अधिकार बहाल किये जाएं. शिक्षा के अधिकार कानून को लागू करने को लेकर सरकार अगर वाकई गंभीर है तो उसे स्कूल से होने वाली ड्राप-आउट की इस समस्या को रोकने की पहल करनी होगी. आंगनबाड़ी और मिड-डे मिल जैसी योजनाओं को तत्काल प्रभाव में लाया जाए. दिल्ली हाइकोर्ट के आदेश (11 फरवरी, 2010) अनुसार सभी परिवारों का पुनर्वास नागरिक सुविधाओं के साथ किया जाए.

15.9.10

गर्त में गये गांव

शिरीष खरे





गांवों की कहानी आकड़ों की जुबानी : 2021 तक भारत में महानगरों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा होगी और हर महानगर में 1 करोड़ से ज्यादा लोग रह रहे होंगे. अमेरिकन इंडिया फाऊंडेशन ऐसा मानता है और वहीं भारत सरकार की जनगणना के मुताबिक भी बीते एक दशक में गांवों से तकरीबन 10 करोड़ लोगों ने पलायन किया है. जबकि निवास स्थान छोड़ने के आधार पर 30 करोड़ 90 हजार लोगों ने अपना निवास स्थान छोड़ा है. योजना आयोग के मुताबिक 1999-2000 में अप्रवासी मजदूरों की कुल संख्या 10 करोड़ 27 हजार थी. जबकि मौसमी पलायन करने वालों की संख्या 2 करोड़ से ज्यादा अनुमानित की गई. कई जानकारों की राय में असली संख्या सरकारी आंकड़े से 10 गुना ज्यादा भी हो सकती है.

2000 की राष्ट्रीय कृषि नीति में कहा गया था कि कृषि अपेक्षाकृत लाभ का पेशा नहीं रह गया है. योजना आयोग के मुताबिक 1990 के दशक के मध्यवर्ती सालों में कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों की बढ़ोत्तरी घटती चली गई है. सिंचाई के साधन वाले भूमि क्षेत्र और सिंचाई के लिए बारिश के पानी पर निर्भर भूमि क्षेत्र के बीच आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है. विश्व-बाजार में मूल्यों का तेज उतार-चढ़ाव से नकदी फसलों का उत्पादन करने वाले क्षेत्रों को घाटा उठाना पड़ रहा है. इसके चलते बड़ी संख्या में किसानों द्वारा खेती का काम छोड़कर शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं. बीते लंबे अरसे से कृषि में लाभ की स्थितियों के मुकाबले लागत और जोखिम लगातार बढ़ रहे हैं और सरकारी सहायता लगातार कम होती जा रही है. 1960 में प्रति किसान भूस्वामित्व की ईकाई का आकार 2.6 हेक्टेयर था जो 2000 में घटकर 1.4 हेक्टेयर रह गया. कुलमिलाकर बीते चार दशकों में भूस्वामित्व की ईकाई का आकार 60% घटा है. भारत के किसानों को मिलने वाली सब्सिडी(66 डॉलर) विकसित देशों जैसे अमेरिका के किसानों को मिलने वाली सब्सिडी(21 हजार डॉलर) के मुकाबले न के बराबर है. 1995 में कुल आबादी का 54.6% हिस्सा खेतिहर आबादी का था जो 2005 में घटकर 49.9% रह गया.

योजना आयोग के मुताबिक 1983 से 1994 के बीच रोजगार में बढ़ोत्तरी की दर 2.03 % थी जो साल 1994 से 2005 के बीच घटकर 1.85% हो गई. 2005 में असंगठित क्षेत्र में खेतिहर मजदूरों की संख्या 98% थी. तकरीबन खेतिहर मजदूरों में 64% का अपना रोजगार है जबकि 36% दिहाड़ी मजदूर हैं. 1983 से 1994 के बीच रोजगार की दर 1.04% थी जो 1994 से 2005 के बीच घटकर 0.08% हो गई. 1994 से 2005 के बीच बेरोजगारी की दर में 1% की बढ़ोतरी हुई. इसी तरह, 1983 से 1994 के बीच रोजगार की बढ़ोतरी की दर 2.03% थी जो 1994 से 2005 के बीच घटकर 1.85% हो गई. योजना आयोग के अनुसार एक किसान परिवार का औसत मासिक खर्च 2770 रुपये है जबकि खेती के अलावा दिहाड़ी मजदूरी सहित अन्य स्रोतों से उसकी औसत मासिक आमदनी 2115 रुपये होती है. जाहिर है एक किसान परिवार का औसत मासिक खर्च उसकी मासिक आमदनी से तकरीबन 25% ज्यादा है. इसीलिये भारतीय किसानों को कर्ज लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है.

बीते 12 सालों में 2 लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हैं. इनमें से अधिकतर किसान कपास और सूरजमुखी जैसी नकदी फसल की खेती करने वाले रहे हैं. उत्पादन की लागत बढ़ने के चलते ऐसे किसानों को साहूकारों से ऊंचे ब्याज दर पर कर्ज लेना पड़ा है. कीटनाशक और उर्वरक बेचने वाली कंपनियों ने महाराष्ट्र और कर्नाटक में किसानों को कर्ज देना शुरु किया, जिससे किसानों के पर कर्ज का बोझ और बढ़ गया. एक तो गरीब किसानों की आमदनी बहुत कम है और कर्ज लेने के कारण (शादी ब्याह वगैरह) कहीं ज्यादा होने से वह भंवरजाल से निकल नहीं पा रहे हैं.

योजना आयोग द्वारा प्रस्तुत ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक ग्रामीण गरीबों की कुल संख्या का 41% हिस्सा खेतिहर-मजदूर वर्ग से है. जबकि ग्रामीण गरीबों की कुल संख्या का 80% हिस्सा अनसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग से हैं. खाद्य व कृषि संगठन द्वारा विश्व में आहार-असुरक्षा की स्थिति पर जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में तकरीबन 23 करोड़ यानी 21% लोगों को रोजाना भर पेट भोजन नहीं मिलता है. 1983 में ग्रामीण भारत के हर आदमी को रोजाना औसतन 2309 किलो कैलोरी का आहार हासिल था जो साल 1998 में घटकर 2011 किलो कैलोरी रह गया. 1990 के दशक में मजदूरों और किसानों की खरीददारी की क्षमता में काफी कमी आई. इससे जहां ग्रामीण भारत में खेतिहर संकट गहराया तो वहीं अनाज के सरकारी गोदामों में अनाज सड़ता रहा. न्यूट्रिशनल इंटेक इन इंडिया के मुताबिक 1993-94 में प्रतिव्यक्ति रोजाना औसत कैलोरी उपभोग की मात्रा 2153 किलो कैलोरी थी जो साल 2004-05 में घटकर 2047 किलो कैलोरी हो गई. इस तरह कुल 106 किलो कैलोरी की कमी आई. ग्रामीण इलाकों में तकरीबन 66% आबादी रोजाना 2700 किलो कैलोरी से कम का उपभोग करती है. विश्वबैंक के अनुसार औसत से कम वजन के सबसे ज्यादा बच्चे भारत में ही हैं. भारत में 5 राज्यों और 50% गांवों में कुल कुपोषितों की तादाद का 80% हिस्सा रहता है. 5 साल से कम उम्र के 75% बच्चों में आयरन की कमी है और 57% बच्चों में विटामिन ए की कमी से पैदा होने वाले रोग के लक्षण हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के दौरान औसत से कम वजन के बच्चों की संख्या शहरों के(38%) मुकाबले गांवों में(50%) ज्यादा पाई गई. जबकि औसत से कम वजन के बच्चों की संख्या में लड़कों(45%) की तुलना में लड़कियों(53.2%) ज्यादा पाई गईं. अगर जातिगत आधार पर देखा जाए तो अनुसूचित जाति के बच्चों में 53% और अनुसूचित जनजाति के बच्चों में 56% बच्चे औसत से कम वजन के पाये गए. जबकि बाकी जातियों में उनकी संख्या 44% है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण भारत में 18.7% परिवारों के पास सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत जारी किया जाने वाला कोई भी कार्ड नहीं है.

एनुअल स्टेटस् ऑव एजुकेशन रिपोर्ट( असर) 2008 के मुताबिक ग्रामीण इलाकों के अनुसूचित जनजाति के तबके में साक्षरता दर सबसे कम(42%) पायी गई है. जबकि अनुसूचित जाति के के तबके में साक्षरता दर(47%) है. सबसे कम भूमि पर अधिकार रखने वाले वर्ग में साक्षरता दर 52% है. जबकि सबसे बड़े आकार की ज्यादा भूमि पर अधिकार रखने वाले वर्ग में साक्षरता दर 64% है. शिक्षा के हर पैमाने पर पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की मौजूदगी कम है. ग्रामीण इलाके की महिलाओं और पुरुषों के बीच साक्षरता दर क्रमशः 51.1% और 68.4%,पायी गई. 2009 में 5 साल की उम्र वाले 50% बच्चे ही स्कूलों में नामांकित पाये गए.

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के मुताबिक तकरीबन 25% भारतीय सिर्फ अस्पताली खर्चे के कारण गरीबी रेखा से नीचे हैं. महज 10% भारतीयों के पास कोई न कोई स्वास्थ्य बीमा है और ये बीमा भी उनकी जरुरतों के मुताबिक नहीं है. वॉलेंटेरी हैल्थ एसोशिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक डॉक्टरों की संख्या कम होना भी एक बड़ी समस्या है. देश में एक हजार की आबादी पर महज 0.6 एमबीबीएस डॉक्टर ही हैं. इसी तरह दवाइयों के दामों में तेज गति से बढ़ोतरी हुई है. मरीज को उपचार के लिए अपने खर्च का औसतन 75% हिस्सा दवाइयों पर न्यौछावर करना पड़ता है. दवाइयां मंहगी होने की मुख्य वजहों में नये पेटेंट कानून, दवा निर्माताओं के ऊपर कानूनों का उचित तरीके से लागू न होना और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक दवाओं का बाजार में प्रचलित होना है. यह भी दक्षिण के राज्यों या धनी राज्यों में ज्यादा हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 के अनुसार गांवों में 43% महिलाओं को प्रसव से पहले कम से कम तीन बार अनिवार्य रूप से चिकित्सा की सुविधा मिल पाती है. शिशु-मृत्यु दर के मामले में प्रति हजार नवजात शिशुओं में से औसतन 60 काल के गाल में समा जाते हैं. 12-13 महीने के नवजात शिशुओं में से महज 44% को ही सभी प्रकार के रोग-प्रतिरोधी टीके लग पाते हैं.

भारत का मानव विकास सूचकांक 0.619 है. यह कुल 177 देशों के बीच 128 वां स्थान दर्शाता है. भारत का मानव-निर्धनता सूचकांक 31.3 है, जो 108 देशों के बीच 67वां स्थान स्थान दर्शाता है. मानवीय विकास का यह आकलन उजागर कर देता है कि कि भारत के नागरिक स्वस्थ और दीर्घायु जीवन जीने में कहां तक समर्थ हैं. इससे यह भी उजागर होता है कि भारत के नागरिक कहां तक शिक्षित हैं और मानव विकास के सूचकांक पर उनका जीवन स्तर कैसा है. 

14.9.10

बालिका दिवस इसलिए मनाया जाए


26 सितंबर का दिन बेटियों के लिए खास है. इस बार 26 सितंबर को बालिका दिवस है. कुछ साल पहले तक मां, पिता और बेटे से लेकर दोस्त तक सभी के नाम पर साल में कोई न कोई एक दिन जरूर तय रहता था. मगर बेटियों के नाम पर कोई दिन नहीं होता था. इसी कमी को देखते हुए बेटियों के लिए भी एक दिन चुना गया, जिसे अब बालिका दिवस के रूप में मनाया जा रहा है. बालिका दिवस हर सितंबर के चौथे रविवार को मनाया जाता है. इस लिहाज से इस बार बालिका दिवस 26 सितंबर को है.

क्राई और यूनिसेफ ने पहली बार यह सितंबर के चौथे रविवार यानी 23 सितंबर 2007 को मनाया था. इस तरह बालिका दिवस की शुरुआत 2007 से हुई. यह दिन उन सभी लोगों के लिए खास दिन है, जिन्हें बेटियों से प्यार हैं. आज भी हमारे समाज में बेटियों के जन्म लेने पर खुशियां नहीं मनाई जाती हैं और बेटों मुकाबले उन्हें अच्छी परवरिश भी नहीं दी जाती है. इसी भेदभाव को दूर करने के लिए क्राई, यूनिसेफ और आर्चीज ने मिलकर बालिका दिवस की शुरुआत की थी. अब बालिका दिवस न सिर्फ भारत में बल्कि कई ऐसे देशों में मनाया जा रहा है, जहां बेटियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है. इस दिन को परिवार में बेटी के संबंधों को समर्पित किया गया है.

आज हजारों लड़कियों को जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है, या जन्म लेते ही लावारिस छोड़ दिया जाता है. आज भी समाज में कई घर ऐसे हैं जहां बेटियों को बेटे के मुकाबले अच्छा खाना और अच्छी पढ़ाई नहीं दी जा रही हैं. भारत में 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 44.5% (करीब आधी) औरतें ऐसी हैं जिनकी शादियां 18 साल के पहले हुईं हैं. इन 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 22% (करीब एक चौथाई) औरतें ऐसी हैं जो 18 साल के पहले मां बनीं हैं. इन कम उम्र की लड़कियों से 73% (सबसे ज्यादा) बच्चे पैदा हुए हैं. फिलहाल इन बच्चों में 67% (आधे से बहुत ज्यादा) कुपोषण के शिकार हैं.

1991 की जनगणना से 2001 की जनगणना तक, हिन्दु और मुसलमानों- दोनों की ही जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट आई है. मगर 2001 की जनगणना का यह तथ्य सबसे ज्यादा चौंकता है कि 0 से 6 साल के बच्चों के लिंग अनुपात में भी भारी गिरावट आई है. देश में बच्चों का लिंग अनुपात- 976:1000 है, जो कुल लिंग अनुपात- 992:1000 के मुकाबले बहुत कम है. यहां कुल लिंग अनुपात में 8 के अंतर के मुकाबले बच्चों के लिंग अनुपात में अब 24 का अंतर दर्ज है. यह उनके स्वास्थ्य और जीवन-स्तर में गिरावट का अनुपात भी है. यह अंतर भयावह भविष्य की सीधी गिनती भी दर्शाता है.

6 से 14 साल की कुल लड़कियों में से 50% लड़कियां तो स्कूल से ड्राप-आऊट हो जाती हैं. एशिया महाद्वीप में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है. गौरतलब है कि ‘नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रनस् राईटस्’ यानी एनसीपीसीआर की एक रिपोर्ट में बताया था कि भारत में 6 से 14 साल तक की ज्यादातर लड़कियों को हर दिन औसतन 8 घंटे से भी ज्यादा समय केवल अपने घर के छोटे बच्चों को संभालने में बीताना पड़ता है. इसी तरह, सरकारी आकड़ों में दर्शाया गया है कि 6 से 10 साल की जहां 25% लड़कियों को स्कूल से ड्राप-आऊट होना पड़ता है, वहीं 10 से 13 साल की 50% (ठीक दोगुनी) से भी ज्यादा लड़कियों को स्कूल से ड्राप-आऊट हो जाना पड़ता है. 2008 को एक सरकारी सर्वेक्षण में 42% लड़कियों ने यह बताया कि वह स्कूल इसलिए छोड़ देती हैं, क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें घर संभालने और अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने को कहते हैं.


इस गैरबराबरी को बच्चियों की कमी नही बल्कि उनके खिलाफ मौजदू स्थितियों के तौर पर देखा जाना चाहिए. अगर लडक़ी है तो उसे ऐसा ही होने चाहिए, इस प्रकार की बातें उसके सुधार की राह में बाधाएं बनती हैं. इन्हीं सब स्थितियों और भेदभावों को मिटाने के मकसद से बालिका दिवस मनाने पर जोर दिया जा रहा है, जिसे बच्चियों की अपनी पहचान न उभर पाने के पीछे छिपे असली कारणों को सामने लाने के रूप में मनाने की जरुरत है. जो कि सामाजिक धारणा को समझने के साथ-साथ बच्चियों को बहन, बेटी, पत्नी या मां के दायरों से बाहर निकालने और उन्हें सामाजिक भागीदारिता के लिए प्रोत्साहित करने में मदद के तौर पर जाना जाए.

13.9.10

बाल अधिकारों के बीस साल बाद

शिरीष खरे


आज से बीस साल पहले 1989 को सयुंक्त राष्ट्र द्वारा पारित बाल-अधिकारों के कन्वेंशन के जरिए बच्चों के लिए एक बेहतर, स्वस्थ्य और सुरक्षित दुनिया का लक्ष्य रखा गया था. मगर समय के दप दशक गुजर जाने के बाद आज बच्चों की यह दुनिया कहीं बदतर, असुरक्षित और बीमार दिखाई देती है. हालांकि इस दुनिया में उप-सहारीय अफ्रीका और दक्षिण-एशिया के देशों की हालत बहुत पतली है. मगर इन देशों के बीच भारत की हालत और भी खराब दिखाई देती है. मामले चाहे भूख, गरीबी, शोषण, रोग तथा बच्चों के साथ बरते जाने वाले दुर्व्यवहार से जुड़े हों या प्राथमिक स्वास्थ्य और शिक्षण सुविधाओं से ताल्लुक रखने वाले आकड़ों और तथ्यों से हों, कुलमिलाकर भारत की हालत अत्यंत दयनीय बन पड़ी है.

युनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि 5 साल तक की उम्र के बच्चों की मौतों के क्रम में भारत बहुत आगे खड़ा मिलता है. यह रिपोर्ट 5 साल तक की उम्र के बच्चों की मौतों को समग्र विकास का एक निर्णायक पैमाना मानते हुए जाहिर करती है कि इस पैमाने पर भारत का स्थान 49वां है. यह स्थान पड़ौसी देश बांग्लादेश(58वां स्थान) और नेपाल(60वां स्थान) से थोड़ा सा ही अच्छा है. जबकि दक्षिण एशिया में बाल-मृत्यु के पैमाने पर सबसे अच्छी स्थिति श्रीलंका (15वां स्थान) की है.

'द स्टेट ऑव द वर्ल्डस् चिल्ड्रेन' के नाम से जारी होने वाली युनिसेफ की इस रिपोर्ट का मकसद बाल-अधिकारों से जुड़े वैश्विक कंवेंशन का विकास, विस्तार, उपलब्धियों और चुनौतियों को जांचना होता है. इस रिपोर्ट में एक सकारात्मक तथ्य यह है कि साल 1990 के बाद से 5 साल तक की उम्र के बच्चों के बीच औसत से कम वजन वाले बच्चों की संख्या दुनियाभर में कम हुई है. यह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है खासकर से तब जबकि 5 साल तक की उम्र के बच्चों के बीच मृत्यु-दर अब भी काफी ऊंची बनी हुई है. उप-सहारीय अफ्रीका तथा दक्षिण-एशिया बाल-विवाह और बाल-मजदूरी के मामले काफी गंभीर और बहुतायत में पाए जाते हैं. रिपोर्ट आगाह करती है कि अगर हम वाकई बाल-अधिकारों से जुड़ी हुईं समस्याओं का समाधान करना चाहते हैं तो इसके लिए हमें नए सिरे से सोचते हुए पुराने तौर-तरीकों को बदलने की जरुरत होगी. संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के मुताबिक बाल-अधिकारों का दायरा भी बढ़ाये जाने की जरुरत है.

भारत में सरकारी आकड़ों के हवाले से देश की 37.2% आबादी गरीबी रेखा के नीचे है. यह दर्शाती है कि देश में गरीबी बहुत तेजी से बढ़ रही है. यही वजह है कि अर्थव्यवस्था से जुड़े तमाम बड़े दावों के बावजूद देश में 5 साल से कम उम्र के 48% बच्चे सामान्य से कमजोर जीवन जीने को मजबूर हो रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में से 49% भारत में पाये गए हैं. कमरतोड़ मंहगाई के साथ-साथ यहां एक सेकेण्ड के भीतर 5 साल के नीचे का एक बच्चा कुपोषण की चपेट में आ जाता है. भारत में 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 44.5% (करीब आधी) औरतें ऐसी हैं जिनकी शादियां 18 साल के पहले हुईं हैं. इन 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 22% (करीब एक चौथाई) औरतें ऐसी हैं जो 18 साल के पहले मां बनीं हैं. इन कम उम्र की लड़कियों से 73% (सबसे ज्यादा) बच्चे पैदा हुए हैं. फिलहाल इन बच्चों में 67% (आधे से बहुत ज्यादा) कुपोषण के शिकार हैं. देश की 40% बस्तियों में तो स्कूल ही नहीं हैं. 48% बच्चे प्राथमिक स्कूलों से दूर हैं. 6 से 14 साल की कुल लड़कियों में से 50% लड़कियां तो स्कूल से ड्राप-आऊट हो जाती हैं. लड़कियों के लिए सरकार भले ही `सशक्तिकरण के लिए शिक्षा´ जैसे नारे देती रहे मगर नारे देना जितने आसान हैं, लक्ष्य तक पहुंचना उतना ही मुश्किल हो रहा है. क्योंकि आखिरी जनगणना के मुताबिक भी देश की 49.46 करोड़ महिलाओं में से सिर्फ 53.67% साक्षर हैं. मतलब 22.91 करोड़ महिलाएं निरक्षर हैं. एशिया महाद्वीप में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है. क्राई के मुताबिक भारत में 5 से 9 साल की 53 फीसदी लड़कियां पढ़ना नहीं जानती. इनमें से ज्यादातर रोटी के चक्कर में घर या बाहर काम करती हैं. इसी तरह जहां पूरी दुनिया में 24.6 करोड़ बाल मजदूर हैं, वहीं केंद्र सरकार के अनुसार अकेले अपने देश में 1.7 करोड़ बाल मजदूर हैं और जिनमें से भी 12 लाख खतरनाक उद्योगों में काम कर रहे हैं.

8.9.10

भूख की पेट में गए मध्य प्रदेश के 28 आदिवासी बच्चे

शिरीष खरे

एएचआरसी यानी एशियन ह्यूमन राइटस् कमीशन के अनुसार मध्यप्रदेश में 28 बच्चों ने कुपोषण के चलते दम तोड़ दिया है. पीडित बच्चों के परिवार सरकारी योजनाओं के तहत भोजन और स्वास्थ्य के मद में दी जाने वाली सहायता से भी दूर हैं.

एएचआरसी ने अपनी सूचना का आधार मध्यप्रदेश की एक संस्था लोक 'संघर्षमंच' और प्रदेश में चलाये जा रहे 'भोजन के अधिकार अभियान' की एक मौका मुआयना पर आधारित रिपोर्ट को बनाया है. इस रिपोर्ट के आधार पर एएचआरसी ने आशंका जतायी है कि आने वाले दिनों में मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों के कई और बच्चे भुखमरी के शिकार हो सकते हैं.

एएचआरसी ने भुखमरी की चपेट में आएं बच्चों की स्थिति को बयान करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश, संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा भोजन के अधिकार के संदर्भ में नियुक्त विशेष प्रतिनिधि और बाल अधिकारों की समिति को पत्र लिखा है और उनसे तुरंत हस्तक्षेप की मांग की है.

ज्यादातर मामलों के विवरणों से पता चला है कि बच्चे कुपोषण और चिकित्सीय देखरेख के अभाव में उन बीमारियों की चपेट में आएं हैं जिनका इलाज बहुत आसानी से हो सकता था. गौरतलब है कि प्रदेश में बीते दो महीने से कुपोषण से ज्यादातर आदिवासी बच्चों की मौतें हुई हैं. कुपोषण के शिकार ज्यादातर बच्चे आदिवासी बहुल जिले झाबुआ के मेघनगर प्रखंड से पाएं गए हैं.

प्रशासनिक असंवेदनशीलता की हद यह है कि पीड़ित बच्चों के परिवारों को बीपीएल कार्ड तक हासिल नहीं हो पाएं हैं. जबकि यह सारे परिवार सीमांत किसान हैं और उन्हें खेती के लिए सिंचाई की सुविधा या कोई अन्य राजकीय मदद भी नहीं मिल रही है. इस इलाके में जिस परिवार के पास थोड़ी सी भी जमीन है उसे बीपीएल से ऊपर दिखाया गया है, भले ही वह जमीन कितनी भी कम और बंजर ही क्यों न हो. जाहिर है ऐसा परिवार अब भी भोजन और स्वास्थ्य सुविधा के मामले में सरकारी मदद का हकदार नहीं बन सका है.

एएचआरसी के अनुसार पीड़ित बच्चों के परिवार वालों को काम के अभाव में गांव से पलायन करना पड़ा है और उन्हें मनरेगा के अधिकार से दूर रखा गया है. मनरेगा के तहत दिये जाने वाले जॉबकार्ड के हर धारक को गुजरे साल जहां बामुश्किल 15 दिनों का काम ही दिया गया है, वहीं ऐसे लोगों को अब भी उनकी मजदूरी नहीं मिली है. जबकि गांवों में सामाजिक अंकेक्षण की प्रकिया भी पूरी कर ली गई है. अजब है कि एक तरफ गांवों में बच्चों की कुपोषण से हो रही मौतें रुकती नहीं हैं और दूसरी तरफ मनरेगा के सामाजिक अंकेक्षण में एक भी कमी दिखाई नहीं देती है.

3.9.10

महिलाओं में सुधार की गति दावों के मुकाबले बहुत धीमी

शिरीष खरे

महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार देने के तमाम सरकार दावों के बावजूद देश में महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं है. देश में महिलाओं की स्थितियों में सुधार की गति दावों के मुकाबले बहुत धीमी है और हकीकत आज भी इन दावों को कोसो दूर है. हकीकत पर रौशनी डालती क्राई की यह रिपोर्ट.

क्राई की रिपोर्ट कहती है कि ग्रामीण इलाकों में 15% लड़कियों की शादी 13 साल की उम्र में ही कर दी जाती है. इनमें से लगभग 52% लड़कियां 15 से 19 साल की उम्र में गर्भवती हो जाती है. रिपोर्ट में बताया गया है कि 73% लड़कियों में खून की कमी है. वहीं डायरिया हो जाने की स्थिति में 28 % को कोई दवा तक नहीं मिलती है. कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथाएं आज भी समाज में अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं. हर दिन सात हजार लड़कियों को पेट में ही मौत की नींद सुला दिया जाता है.

जयपुर में 51.50% और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले 67% पिताओं का कहना है कि अगर आर्थिक तंगी आती है वह अपनी बच्ची का स्कूल जाना बंद करवा देंगे. वहीं संविधान द्वारा 14 साल तक के बच्चों को दिए जाने वाले शिक्षा के अधिकार से भी यह बच्चियां वंचित हो रही है. इसके चलते 9 साल तक की उम्र तक पहुंचने के बाद भी 53% लड़कियां स्कूल नहीं जा पा रही है. 24% लड़कियों को शिक्षा से वंचित रहना पड़ रहा है. जो पढ़ना शुरू कर भी देती है उनमें से 60% सेकेंड्री स्कूल तक भी नहीं पहुंच पाती है.

पिछले बालिका दिवस पर क्राई द्वारा राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, महिला व बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ सहित अन्य को अपनी मांगों का एक चार्टर सौंपा जा चुका है. क्राई यह मानता है कि जब तक सरकार और जनता बड़े स्तर पर लड़कियों के एक समान विकास पर ध्यान नहीं देंगे तब तक इन परिस्थितियों को बदल पाने की संभावना कम है. 

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2.9.10

अब परदेश नहीं जाना

अपने ही देश में कुछ कर गुजरने के जज्बे ने लोहरदगा की मनोरमा एक्का को दोबारा उनकी जमीन से जोड़ दिया है. झारखण्ड की यह लड़की अपने गांवों की लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए अमेरिका में अच्छी खासी नौकरी छोड़ कर स्वदेश लौट आई है. जो इनदिनों बाल मजदूरों और ग्रामीण महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए व्यवस्था से लड़ाई लड़ रही है.



इसे मनोरमा की मेहनत का ही नतीजा कहेंगे कि बदला नवाटोली की फूलमनी और शोभा ही नहीं दर्जनों ऐसी महिलाएं हैं जो आज आत्मनिर्भर बनी हैं और दूसरे को आत्मनिर्भर बनाने में भी जुटी हैं. ये वही महिलाएं हैं जो दो जून की रोटी के लिए दूसरे राज्यों में जाती थीं और ढ़ेर सारी परेशानियां सिर पर झेलती थीं. अब यही महिलाएं गांव में स्वयं सहायता समूह से जुड़ स्वावलंबी बनी हुई हैं. मनोरमा ने 12 गांवों में जागरूकता अभियान चलाकर लगभग डेढ़ सौ बच्चों को स्कूल से जोड़ने का काम किया है. यह बच्चे कभी बाल मजदूर थे.

मनोरमा रांची से पीजी डिप्लोमा इन रूरल डेवलपमेंट की शिक्षा ग्रहण कर अमेरिका चली गई. अमेरिका में उन्होंने जनवरी 2001 तक पढ़ाई के साथ-साथ प्री स्कूल में नौकरी भी की. 2001 के अंतिम महीने में वह अमेरिका से भारत लौट आई. इसके बाद यह फिर से 2005 में सोशल व‌र्क्स की शिक्षा के लिए अमेरिका चली गई. मगर अमेरिका की चमक-दमक भी उसे ज्यादा  देर नहीं रोक सकी और 2007 में वह वापस भारत आकर उरांव आदिवासी महिला के नेतृत्व पर शोध करने लगी. इसी दौरान जब मनोरमा ने महिलाओं और बच्चों की स्थितियों को करीब से देखा तो यही रहकर महिलाओं और बच्चों को अधिकार दिलाने का निर्णय लिया.

जब मनोरमा ने लोहरदगा में महिला और बाल अधिकार को लेकर व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई शुरू की तो पहली बार उसका हकीकत से वास्ता पड़ा. बहुत से राजनैतिक और सामाजिक पेचेदियां सामने आईं मगर वह उन्हें अपने अभ्यास का एक हिस्सा मानती रहीं. यहां तक कि जब यह बाल अधिकार से जुड़े मामलों को लेकर गांव में जाती थी तो गाँव वाले इसे कोई साजिश के तौर पर देखते-समझते थे. इस तरह अपने पहले पड़ाव में मनोरमा को आदिवासी समुदाय का ही पूरा समर्थन नहीं मिल पाया था. मगर अब धीरे-धीरे स्थितियां बहुत हद तक बदल चुकी हैं. बदल रही हैं.

बाल अधिकार पर कार्य करने वाली संस्था क्राई के सहयोग ने मनोरमा के हौसले को बुलंद किया है. मनोरमा ने होप संस्था की स्थापना कर महिला व अधिकार को अपना उद्देश्य बनाया है.

मनोरमा कहती है कि उसने अपनी जिंदगी को समाज में फैली गैर बराबरी मिटाने के नाम कर दी है. वह अपनी भूमिका को बच्चों और महिलाओं तक उनके अधिकार बताने और बेहतर समाज बनाने के रूप में देख रही है.

हिंसा की आग में धधकता मणिपुरी बच्चों का कल

शिरीष खरे


मणिपुर में उग्रवाद और उग्रवाद के विरोध में जारी हिंसक गतिविधियों के चलते बीते कई दशकों से बच्चे हिंसा की कीमत चुके रहे हैं. यह सीधे तौर से हिंसक गतिविधियों तो कहीं-कहीं गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण की तरफ धकेले जा रहे हैं. राज्य में स्थितियां तनावपूर्ण होते हुए भी कई बार नियंत्रण में तो बनी रह जाती हैं, मगर स्कूल और स्वस्थ्य सेवाओं जैसे बुनियादी ढ़ांचे कुछ इस तरह से चरमराए हुए हैं कि लोगों का विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है.

बच्चों के हकों के लिए काम करने वाली संस्था क्राई हिंसा से सबसे ज्य़ादा प्रभावित तीन जिलों चन्देल, थौंबल और चुराचांदपुर में सक्रिय है. इसके द्वारा जगह-जगह बच्चों के सुरक्षा समूह बनाये जा रहे हैं. यहां की आदिवासी दुनिया के भीतर मौजूद अलग-अलग समुदायों में आपसी तनाव बहुत ज्यादा हैं, ऐसे बहु जातीय समूहों में रहने वाले बच्चों के बीच से डर और भेदभाव दूर करने और उनमें आत्मविश्वास जगाने के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा है. क्राई से असीम घोष ने बताया कि ‘‘यहां के बच्चे डर, अनहोनी, अनिश्चिता और हिंसा के साए में लगातार जी रहे हैं, यहां जो माहौल है उसमें बच्चे अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं. इसलिए कार्यशालाओं के पहले स्तर में हमारी कोशिश बच्चों के लिए सुरक्षित महौल बनाने की रहती है, जहां वह बेझिझक होकर अपनी बात कह सकें और दूसरे आदिवासी समुदायों के बच्चों के साथ घुल-मिल पाएं. इन कार्यशालाओं को पूरे प्रदेश भर में फैले हिंसा और उसके चलते होने वाले तनावों से उभरने के लिए एक शांतिपूर्ण प्रक्रिया के रुप में भी देखा जा सकता है.’’

मणिपुर में बच्चों के हिंसा के प्रभाव से बचाने के लिए नागरिक समूहों के आगे आने की संभावनाएं प्रबल हो रही है. इन दबाव समूहों ने बीते लंबे अरसे से राष्ट्रीय स्तर पर जैसे कि बच्चों के अधिकारों के सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग और संबंधित मंत्रालयों पर इस बात के लिए दबाव बढ़ाया है कि वह मणिपुर में हिंसा से प्रभावित बच्चों की समस्याओं और जरूरतों को वरीयता दें. अहम मांगों में यह भी शामिल है कि अतिरिक्त न्यायिक शक्ति प्राप्त सेना यह सुनिश्चित करे कि हिंसा और आघातों के बीच किसी भी कीमत पर बच्चों को निशाना नहीं बनाया जाएगा. इसी के साथ राज्य में किशोर अधिनियम से प्रावधानों (Juvenile Justice Care and Protection Act, 2000 and its amendments enacted in 2006) के अनुसार किशोर न्याय प्रणाली को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू किया जाएगा. इसके अलावा यहां राज्य के अधिकारियों पर सार्वजनिक सुविधाओं पर निवेश बढ़ाने, योजनाओं के क्रियान्वयन को सुदृढ़ बनाने और अधिकारों से संबंधित सेवाओं जैसे प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं, बच्चों के लिए ART यानी एंटी रेट्रोविरल थेरेपी और स्कूल की व्यवस्थाओं को दुरुस्त बनाने के लिए भी दबाव बढ़ाया जा रहा है. असल में यहां प्राथमिकता के स्तर पर अधिकारों से संबंधित सेवाओं को दुरुस्त बनाने के दृष्टिकोण को सैन्य आधारित दृष्टिकोण से ऊपर रखे जाने की जरूरत है.

मणिपुर में आंतकवाद से संबंधित घातक परिणामों के चलते 1992-2006 तक 4383 लोग भेट चढ़ गए हैं. जम्मू-काश्मीर और असम के बाद मणिपुर देश के सबसे हिंसक संघर्ष का इलाका बन चुका है. अन्तर जातीय संघर्ष और विद्रोह की वजह से 1950 को भारत सरकार ने इस राज्य में (Armed Forces Special Power Act) यानी सशक्त्र बलों के विशेष शक्ति अधिनियम लागू किया. इस अधिनियम ने विशेष बलों को पहली बार नागरिकों पर सीधे-सीधे हमले की शक्ति दी गई, जो कि सुरक्षा बलों के लिए प्रभावी ढंग से व्यापक शक्तियों में रूपान्तरित हो गईं. यहां जो सामाजिक सेवाएं हैं, वह भी फिलहाल अपनी बहाली के इन्तजार में हैं, जहां स्कूल और आंगनबाड़ियां सही ढ़ंग से काम नहीं कर पा रही हैं, वहीं जो थोड़े बहुत स्वास्थ्य केन्द्र हैं वह भी संसाधनों से विहीन हैं. प्रसव के दौरान चिकित्सा व्यवस्था का अकाल पड़ा रहता है. न जन्म पंजीकरण हो रहा है और न जन्म प्रमाण पत्र बन रहा है. अनाथ बच्चों की संख्या में बेहताशा बढ़ोतरी हो रही है, बाल श्रम और तस्करी को नए पंख लग गए हैं और बर्बादी की कगार तक पहुंच गए परिवारों के बच्चे वर्तमान हिंसक संघर्षों का हिस्सा बन रहे हैं. जबकि बच्चों के लिए खेलने और सार्वजनिक तौर पर आपस में मिलने के सुरक्षित स्थानों का पता तो बहुत पहले ही खो चुका था.

गैर सरकारी संगठनों के अनुमान के मुताबिक मणिपुर में व्याप्त हिंसा के चलते 5000 से ज्यादा महिलाएं विधवा हुई हैं, और 10000 से ज्यादा बच्चे अनाथ हुए हैं. अकेले जनवरी- दिसम्बर 2009 के आकड़े देखें जाए तो सुरक्षा बलों द्वारा 305 लोगों को कथित तौर पर मुठभेड़ में मार गिराए जाने का रिकार्ड दर्ज है. बंदूकी मगर गैर राजकीय हिंसक गतिविधि में 139 लोगों के मारे जाने का रिकार्ड मिलता है. विभिन्न हथियारबन्द वारदातों के दौरान 444 लोगों के मारे जाने का रिकार्ड मिलता है. जबकि नवम्बर 2009 तक कुल 3348 मामले दर्ज किए गए हैं. लड़कियों के खिलाफ अपराध के मामले देखें तो 2007 से 2009 तक कुल 635 मामले दर्ज किए गए हैं, जिसमें 24 हत्याओं और 86 बलात्कार के मामले हैं. बाल तस्करी का हाल यह है कि जनवरी 2007 से जनवरी 2009 तक अखबारों में प्रकाशित रिपोर्ट आधार पर 198 बच्चे तस्करी का शिकार हुए हैं. बाल श्रम के आकड़ों पर नज़र डाले तो 2007 को श्रम विभाग, मणिपुर द्वारा कराये गए सर्वे में 10329 बाल श्रमिक पाए गए हैं. जहां तक स्कूली शिक्षा की बात है तो सितम्बर 2009 से जनवरी 2010 तक 4 लाख से ज्यादा बच्चे स्कूलों में हाजिर नहीं हो सके हैं. दरअसल लंबे अरसे से यहां हिंसा को रोकने और राजकीय सेवाओं के दोबारा बहाल किये जाने के लिए सरकार पर गैर सैन्य उपायों पर सोचने के लिए दबाब बनाया जा रहा है.

मणिपुर सेना से मुक्त कब होगा इस बारे में अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता है मगर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में राज्य में तैनात सेना को स्कूल खाली करने का आदेश जरूर दिया है. गौर करने लायक बात यह है कि मणिपुर के असंख्य स्कूलों का उपयोग सेना द्वारा सराय के रुप में किया जा रहा है. अगर सेना सुप्रीम कोर्ट के दिये गए आदेश को ही माने तो भी यहां के बहुत सारे बच्चों के लिए कम से कम पढ़ने-लिखने की जगह तो खाली होगी.
 
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