21.11.10

दूरियां कब बनेंगी नजदीकियां



चेन्नई। शिक्षा के अधिकार व अनिवार्य शिक्षा जैसे नारों के पीछे की असलियत यही है कि आज भी कई बच्चे शिक्षा के मौलिक हक से वंचित हैं. विद्यालय और घर के बीच की दूरी इनकी शिक्षा के आड़े आ रही है.

बाल दिवस के मौके पर प्रेस क्लब में कृष्णगिरि जिले के तेनकनीकोट्टै आरक्षित वन्य क्षेत्र के निकट के गुलाटी गांव से आए बी. नागराज (12) और पी. मुनिराज (11) काफी उत्साहित दिखे इसकी वजह उनके परिवार के वे पहले दो बाशिंदे थे जिन्हें उनके घर से आगे कहीं सफर करने का अवसर नसीब हुआ था. उनका कहना था कि उनके दादा-दादी व मां-बाप ने कभी स्कूल नहीं देखा. उनकी गांव में स्कूल न होने के बाद भी पांच साल पहले वे पड़ोसी गांव की स्कूल में नौ वर्ष की आयु में पहली कक्षा में भर्ती हुए. स्कूल में शिक्षा का माध्यम तेलुगू था और अध्यापकों की डयूटी 11 से 2 तक रहती.

क्राई ने इस अवसर को चुनते हुए रविवार को राज्य के पांच अलग-अलग इलाकों से आए बच्चों को मीडिया से मुखातिब कराया जो शिक्षार्जन को लालायित थे. ये बच्चे बेबाक अंदाज में अपनी समस्याओं पर बोले. क्राई ने इस आयोजन के जरिए बताया कि राज्य के कई हिस्सों में स्कूलों की दूरी रिहायशी इलाकों से 10 किमी है जबकि आरटीई के तहत हर 1 किमी पर स्कूल होनी चाहिए.

वे जो भी पढ़ाते भाषाई समस्या के चलते उनकी समझ के परे था. इसी वजह से उनके घर वालों ने पढ़ाई छोड़कर काम में हाथ बंटाने को कहा और वही चीज वे आज कर रहे हैं. इसी तरह रामनाथपुरम के तोवकाडु गांव के एन. नागविजय व मंडवैकुप्पम के एम. पांडियन को स्कूल तक पहुंचने के लिए रोजाना क्रमश: 6 व 8 किमी का फासला तय करना पड़ता था. नागविजय ने इसी वजह से पिछले साल पढ़ाई छोड़ दी थी लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता ने उसे पुन: स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित किया.

छात्रों ने बड़े ही करूणाई अंदाज में कहा कि गर्मी और बारिश के दिनों में छह किमी का सफर पीठ पर बस्ता लेकर तय करना काफी मुश्किल होता है. अपने अभिभावकों के चलते वह स्कूल जा रहा है और उसका लक्ष्य अच्छा पढ़कर जीवन में सफल होना है. इसी तरह दिण्डीगुल जिले के कोडैकेनाल के काड़मनरवु गांव की वी. पी. चित्रा (15) जो छठी में पढ़ती है रोजाना 35 किमी का सफर तय करती है.

क्राई के उप महाप्रबंधक (विकास-समर्थन) पी. कृष्णमूर्ति का कहना है कि वे इस बात से वाकिफ है सरकार देश में शिक्षा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन लाने के प्रयास में हैं लेकिन इस कोशिश विच्छिन्नता है. हम चाहते हैं कि राज्य में बदलाव लाने के लिए सरकार आदेश जारी करे. आरटीई के तहत अनिवार्य की गई स्कूल प्रबंधन समितियां इन समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकती है.

11.11.10

आरटीई के बावजूद शिक्षा हासिल करना एक चुनौती

शिरीष खरे

‘‘हमारे समूह ने अपने गांव में एचआईवी के साथ जीने वाले एक बच्चे के साथ बरते जाने वाले भेदभाव के खिलाफ कदम उठाया.’’ उत्तर-प्रदेश की एक बाल पंचायत से किशन कुमार कहते हैं कि ‘‘हमने उसके साथ खेला, उसके साथ खाया और वह हमारा दोस्त बन गया. इससे हमसे उम्र में बहुत बड़े लोग शर्मिदा हुए और उन्हें एचआईवी के बारे में फैली अज्ञानता का एहसास हुआ.’’ इसक बाद बाल पंचायत ने उनके दोस्त पर से हर तरह की पाबंदी हटाने के लिए प्रस्ताव पारित किया.

उत्तरप्रदेश की एक बाल-पंचायत से चंदा कहती हैं कि ‘‘जब में चौदह की हुई तो मेरी मां ने मेंरी शादी करने चाही. मगर तब तक मैं यह जान चुकी थी कि कम उम्र में शादी करने वाली लड़कियों को बहुत नुकसान उठाना पड़ता है. आखिर मैं अपनी मां को शादी रोक देने की बात पर समझाने में कामयाब रही.’’ चंदा लड़कियों के विकास की सभी संभावनाओं और उनके शिक्षण के लिए जागरूकता फैलाने का काम कर रही हैं. इसके साथ-साथ वह बाल-विवाह, शीघ्र मातृव्य, नन्हें बच्चों और गर्भवती मांओं के पेट में पलने वाले कुपोषण के दुष्चक्र को तोड़ने का प्रयास भी कर रही हैं.

वही दूसरी तरफ स्थानीय बच्चों के समूह की अध्यक्षा तेरह साल की बानो खान कहती हैं कि ‘‘मेरे जैसे बहुत सारे बच्चे हैं जो गरीब परिवारों से होने की वजह से काम पर जाते हैं, क्योंकि उनके घर के आसपास कोई अच्छे स्कूल नहीं होते हैं.’’ मेरे घर से सबसे पास का स्कूल 2.5 किलोमीटर दूर है, और मेरे घरवाले हर महीने 200 रूप्ए बस किराया नहीं दे सकते हैं.’’ बानो खान का परिवार बदली इंडस्ट्रीय एरिया में सड़क किनारे एक चाय की दुकान चलाता है. बच्चों के लिए मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 में तीन किलोमीटर के भीतर एक उच्च प्राथमिक स्कूल खोले जाने का प्रावधान है.

बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था क्राई द्वारा राजधानी दिल्ली में आयोजित एक सम्मेलन में राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्यों से आए छह बच्चों ने मुफ़्त शिक्षा के अधिकार का समर्थन करते हुए शिक्षा के उपयोग पर अपने विचार और तजुर्बे बांटे. उन्होंने बताया कि उन्हें रोज-रोज स्कूल जाते समय किस-किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. सामूहिक तौर से काम करते हुए इन बच्चों और उनके दोस्तों ने अपनी-अपनी जगहों के स्कूलों में ड्राप-आउट, भेदभाव और अपने समुदायों के बीच से बाल-विवाह जैसी समस्याओं को रोका है.

मध्यप्रदेश के 12 वर्षीय छात्र सुनील चंदेलकर ने बताया कि उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती उसके स्कूल की दूरी है. चंदेलकर ने कहा, "शिक्षा का अधिकार कानून छह से 14 वर्ष आयु वर्ग का मतलब आठवीं कक्षा तक के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा की बात कहता है लेकिन गांवों के स्कूलों में केवल पांचवी कक्षा तक ही स्कूल हैं. इसके बाद हमें आगे की शिक्षा के लिए तीन किलोमीटर दूर दूसरे गांव के उच्च प्राथमिक स्कूल में जाना पड़ता है."

उन्होंने बताया कि निजी स्कूल बसें उन्हें ले जाने से इंकार कर देती हैं क्योंकि उनके पास उनका भारी शुल्क देने के लिए पैसा नहीं होता. चंदेलकर ने कहा, "हमने इस संबंध में राज्य के शिक्षा मंत्री को लिखा. फिर हमने निजी बस मालिकों के साथ एक बैठक की और अब मामला सुलझ गया है."

क्राई की जनरल मेनेजर अनीता बाला शरद कहती है कि ‘‘घरों के आसपास सरकारी स्कूलों को गुणवत्तापूर्ण तरीके से सक्रिय बनाकर भारत की शिक्षा समस्या का स्थायी समाधान किया जा सकता है. क्राई ने बच्चों के समूहों के साथ काम करते हुए यह दर्शाया है कि बच्चे खुद अपने अधिकारों को कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं.’’ क्राई की जनरल मेनेजर शुभेन्दु भट्टाचार्य बताते हैं कि ‘‘यह सच है कि सभी बच्चों की आवाजें अनुसनी ही रही हैं, चाहे बात आर्थिक पृष्ठभूमि की हो, चाहे गांवों या शहरों में रहने की हो, चाहे व्यस्को द्वारा उनके लिए जवाबदेही की मांग से जुड़े हों और मुफ्त-गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अधिकार को संवैधानिक रुप से सुरक्षा देने की हो. हमें बच्चों को परिवर्तन निर्माताओं के तौर पर सामूहिक शक्तियां देनी होंगी. उनके विचारों और जरूरतों को शिक्षा के अधिकार कानून में शामिल किये जाने की जरूरत है.’’

प्रख्यात वकील और कानूनी कार्यकर्ता अशोक अग्रवाल कहते हैं कि ‘‘अगर हम हर बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना चाहते हैं तो रोजाना की हकीकतों और अड़चनों का सामना करने वाले बच्चों को शिक्षा देने के लिए भारत सरकार को चाहिए कि वह उन्हें अपने क्रियान्वयन नीति का एक हिस्सा बनाए. अधिनियम को एक समान रुप से निजी स्कूलों में भी लागू करने की आवश्यकता है. मुफ्त शिक्षा पाना हर बच्चे का अधिकार है, यह अधिकार देने से निजी स्कूल बच नहीं सकते हैं. यह अधिनियम निजीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा देने की एक शानदार संरचना जान पड़ती है, जो भारत सरकार के कोठारी आयोग द्वारा प्रस्तुत एक समान शिक्षण व्यवस्था के पूरी तरह से विरूद्ध है.

वर्ष 2009 की एक रिपोर्ट के मुताबिक 17,782 ऐसे आवासीय क्षेत्र हैं जहां स्कूल होना चाहिए लेकिन वहां एक किलोमीटर के क्षेत्र में एक भी प्राथमिक स्कूल नहीं है। उत्तर प्रदेश में ऐसी जगहों की संख्या सबसे ज्यादा 7,568 है. क्राई के मुताबिक देश में छह से 14 आयु वर्ग के 80 लाख से ज्यादा बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं.

जाहिर है शिक्षा का अधिकार कानून के बावजूद कई भारतीय बच्चों के लिए शिक्षा हासिल करना एक रोजमर्रा का संघर्ष बन चुका है क्योंकि उन्हें स्कूलों के उनकी पहुंच में न होने या शिक्षकों के उपलब्ध न होने जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है.

9.11.10

बच्चों का जितना पलायन उतना उत्पीड़न

शिरीष खरे

इन दिनों बच्चों का पलायन तेजी से बढ़ रहा है और उसी अनुपात में उनके साथ उत्पीड़न की घटनाएं और आकड़े भी. खास तौर से मजदूरी के लिए बच्चों को एक राज्य से दूसरे राज्य में आदान-प्रदान किए जाने का सिलसिला जोर पकड़ता जा रहा है. विभिन्न शोध-सर्वेक्षणों और रपटों से यह जाहिर भी हो रहा है कि मुख्य तौर पर बिहार, पूर्वी उत्तर-प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश से महाराष्ट्र और गुजरात सहित पूरे देश भर में मजदूरी के लिए बच्चों की पूर्ति की जा रही है. इन बच्चों में ज्यादातर की उम्र 10 से 16 के बीच है. इनमें भी ज्यादातर लड़के ही हैं. कई सर्वेक्षणों और तजुर्बे यह भी बता रहे हैं कि मजदूरी में लगे ज्यादातर बच्चे स्कूल जरूर गए हैं, मगर वह नियमित नहीं हो सके हैं. बच्चों के बारम्बार पलायन होने के पीछे की मुख्य वजहों में बच्चों ने अपने घर की गरीबी, मारपीट, डर और दबाव को जिम्मेदार ठहराया है तो कभी मुंबई और सूरत जैसे बड़े शहरों की तड़क-भड़क को देखने की दबी चाहत को भी बाहर निकला है. इस दिशा में जो सर्वेक्षणों के आधार पर बच्चों की सुरक्षा को लेकर कई कदम उठाए जाने की बात कही जाती रही है, मगर अभी तक इन मामलों के न रुकने से यथार्थ की गंभीरता को भलीभांति समझा जा सकता है.

दूसरी तरफ बालगृहों से लगातार बच्चों के भागने की घटनाएं बयान करती हैं कि मुंबई सहित देश भर के सरकारी बालगृहों में बच्चों की सही देखभाल की असलियत क्या है. बीते समय मुंबई के एक बालगृह से कुछ बच्चों के भागने और उनमें से एक के हादसे में मारे जाने घटना उजागर हुई थी. आम तौर पर देखा गया है कि ज्यादातर बालगृहों द्वारा भागने वाले बच्चों के बारे में पता लगाने जरुरत भी महसूस नहीं की जाती हैं. ऐसे बच्चों को ढूंढने की भी तमाम कोशिशें तो दूर महज एक रिपोर्ट तक नहीं लिखवाई जाती है. तजुर्बों से यह जाहिर हुआ है कि हफ्तों-हफ्तों बच्चों के गायब रहने के बावजूद बालगृहों की तरफ से चुप्पी साध ली जाती है. जबकि नियमानुसार इस तरह की घटनाओं की जानकारी फौरन थाने में और उच्च अधिकारियों को देना जरूरी है. यहां तक कि महिला और बाल कल्याण विभाग को भी इस तरह की ज्यादातर घटनाओं की प्राथमिक सूचना किसी अखबार या गैर-सरकारी संस्था के जरिए ही मिलती है. भागने वाले कुछ बच्चों के बारे में जब हमने खैर-खबर जाननी चाही तो पता लगा कि सामान्यत: बालगृहों की तरफ से इन बच्चों की गुमशुदगी के बारे में न तो पुलिस को ही सूचना दी जाती है और न ही विभाग को इस बारे में बताया जाता है. कई बार तो बच्चों के साथ होने वाली दुर्घटनाएं और अपराधिक मामले प्रकाश में आने के बाद ही बच्चों के भागने की रिपोर्ट दर्ज की जाती है. बच्चों के इस तरह से गायब होने की तुरंत रिपोर्ट न लिखवाना महज एक लापरवाही ही नहीं बड़ा अपराध भी है. मुंबई के सरकारी बालगृहों से बीते 6 सालों में तकरीबन तीन सौ से ज्यादा बच्चे भागे हैं, मगर इतना होने के बावजूद लापरवाही का आलम ज्यों का त्यों है. समाज कल्याण विभाग से मिली गैर-औपचारिक जानकारियों के मुताबिक बालगृहों में कर्मचारियों की कमी है. एक कर्मचारी पर सैकड़ों बच्चों को संभालने की जवाबदारी होती है. काम के दबाव में कई बार कर्मचारियों द्वारा जब बच्चों के साथ बुरा बर्ताव किया जाता है तो बच्चे भाग जाते हैं. उन्हें ठीक-ठाक खाना तक नहीं मिलता है. इस तरह से सरकार द्वारा ऐसे बच्चों के देखभाल उचित के लिए संचालित बालगृह बुरे बर्ताव और उत्पीड़न का केंद्र बन जाते हैं.

हर साल मुंबई जैसे महानगर पहुंचने वाले हजारों बच्चे काम की तलाश में या काम की जगहों से भीख मंगवाने वाले नेटवर्क के हत्थे भी चढ़ जाते हैं. खास तौर से रेल्वे स्टेशनों के प्लेटफार्म और चौराहों पर ऐसे नेटवर्क से जुड़े दलालों की सरगर्मियों को समझा जा सकता है. यही बहुत सारे बच्चे बहुत ही गंदे माहौल में महज खाने-पीने के लिए जद्दोजहद करते रहते हैं. इसके अलावा बहुत से बच्चे नशे के आदी हो जाते हैं तो बहुत से जुर्म की दुनिया में भी दाखिल हो जाते हैं.

भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है, जो हर लिहाज से बाल- शोषण और उत्पीड़न को रोकने में मददगार हो. दूसरी तरफ कुछ जानकारों की राय में समस्या को दूर करने के लिए उसकी जड़ में पहुंचकर कानून के समानांतर गरीबी, विस्थापन, पलायन और विघटन से निपटने के प्रयास किए जाने की जरुरत है. साथ की जो प्रावधान लागू हैं उन्हें क्रियान्वित करने वाली एजेंसियों के सक्रिय और धनराशि के सही इस्तेमाल करने की जरुरत है और इसी के साथ बच्चों के यौन-उत्पीड़न सहित सभी तरह के उत्पीड़नों को ठीक से परिभाषित किए जाने की भी जरुरत है. दूसरी तरफ राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो में बच्चों के उत्पीड़न से जुड़े केवल ऐसे मामले शामिल रहते हैं, जिनकी रिपोर्ट पुलिस में दर्ज मिलती है. मगर असलियत जगजाहिर है कि ज्यादातर मामले तो पुलिस तक पहुंचते ही नहीं हैं. हालांकि सरकार की तरफ से 'बाल अपराध निरोधक बिल' संसद में लाने की बात की जाती रही है. बच्चों की सुरक्षा पर कुल बजट में से 0.03% की बढ़ोत्तरी और महिला व बाल विकास मंत्रालय द्वारा एकीकृत बाल सुरक्षा योजना शुरू करने जैसी घोषणाएं की भी की जाती रही हैं. इन सबके बावजूद इस तरह की नीतियां बनाने और इन नीतियों पर विमर्श का दौर तो खूब चलता है. नहीं चलता है तो उन्हें गर्म जोशी से लागू किए जाने की कोशिशों का दौर.

8.11.10

प्राइवेट स्कूलों का कारोबार 5000 करोड़ रुपये के पार



प्राथमिक शिक्षा पर करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद मुंबई और उपनगरीय इलाकों में बच्चे बीएमसी स्कूलों से मुंह मोड़कर निजी स्कूलों की तरफ जा रहे हैं.

बीएमसी स्कूल में जहां मुफ्त में शिक्षा दी जाती है वहीं निजी स्कूलों में औसतन साल भर में एक बच्चे पर तकरीबन 25-30 हजार रुपये खर्च आता हैं. लाख कोशिशों के बावजूद निजी स्कूलों में डोनेशन प्रथा खत्म होने के बजाए और मजबूत होती जा रही है.

बच्चे को स्कूल में प्रवेश दिलाने के लिए औसतन 25 हजार रुपये बतौर डोनेशन देने पड़ते हैं. समाज सेवा के नाम पर चलाए जा रहे निजी स्कूलों का कारोबार हर साल करीबन 20 फीसदी की दर से बढ़ रहा है. आज शिक्षा कारोबार सालाना लगभग 5000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा का हो चुका है जिसकी सही-सही जानकारी किसी के पास नहीं है.

सरकार साल दर साल बीएमसी स्कूलों में बच्चों को अच्छी शिक्षा और सुविधा देने के लिए बजट बढ़ाती जा रही है, लेकिन बच्चों की संख्या हर साल कम होती जा रही है. बीएमसी ने स्कूल शिक्षा को मजबूत बनाने के लिए 2007-08 में 1,051 करोड़ रुपये और 2008-09 में 1,350 करोड़ रुपये का प्रवाधान किया था, जबकि इस साल (2009-10) बीएमसी शिक्षा पर 1,651 करोड़ रुपये खर्च करेगी.

बीएमसी के अलावा केन्द्र और राज्य सरकार भी स्कूली शिक्षा में भारी भरकम रकम खर्च करती है. बीएमसी स्कूलों में शिक्षा पूरी तरह से मुफ्त दी जाती है. बच्चों की फीस, कॉपी-किताबें, स्कूल यूनिफॉर्म के साथ मिड-डे मिल के तहत खिचड़ी और दोपहर में दूध भी बच्चों को मुफ्त में मिलता है. इसके बावजूद हर साल तकरीबन 30 हजार बच्चे बीएमसी स्कूलों से तौबा कर रहे हैं.

इन स्कूलों में बच्चों का आंकड़ा वर्ष 1999 में 7.5 लाख था, जबकि बीते शिक्षण सत्र में बीएमसी के कुल 1,144 स्कूल में 4.50 लाख ही बच्चों ने दाखिला लिया. इस सप्ताह से शुरू हो रहे नए शिक्षण सत्र में यह संख्या और कम होने की आशंका जताई जा रही है.

बृहन्मुंबई महानगरपालिका शिक्षक सभा के महासचिव एवं ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ टीचर्स ऑर्गनाइजेशन के निदेशक रमेश जोशी का का कहना है, 'बीएमसी स्कूलों में साल दर साल बच्चों की कम होती संख्या की मुख्य वजह लोगों की बदलती सोच है.'

उनके मुताबिक आज लोग सोचते हैं कि सिर्फ अंग्रेजी माध्यम में उनका बच्चा जाएगा तो ही उसका भविष्य संवर सकेगा. बीएमसी स्कूल तो गरीबों का स्कूल है, वहां बच्चा जाएगा तो समाज के लोग क्या कहेंगे? जबकि हमारे सरकारी स्कूलों में जो शिक्षक है वह निजी स्कूल के शिक्षकों के मुकाबले अधिक शिक्षित और प्रशिक्षित हैं.

मुंबई और आसपास के इलाकों में करीबन 2,000 निजी स्कूल हैं. जिनमें करीब-करीब 20 लाख बच्चे पढ़ते हैं और यह आंकड़ा सालाना करीबन 15 फीसदी की रफ्तार से बढ़ता जा रहा है. स्कूली शिक्षा आज सबसे सफल कारोबार बन गया है। निजी स्कूलों में फीस और दूसरे खर्च तय नहीं है.

सभी निजी स्कूलों की दरें अलग-अलग हैं. प्रवेश के समय इमारत या स्कूल के विकास के नाम पर लिये जाने वाली डोनेशन फीस इन स्कूल की आय का एकमुश्त सबसे बड़ा साधन है. तीन-चार साल के बच्चे के एडमिशन के लिए स्कूल प्रबंधन की ओर से मुंबई में 5 हजार रुपये से एक लाख रुपये तक बतौर डोनेशन फीस वसूली जाती है, जिसकी कोई लिखित जानकारी नहीं दी जाती है.

इसके अलावा प्रवेश शुल्क, साल में होने वाली दो परीक्षाओं के अलावा हर महीने टेस्ट फीस, टर्म फीस (पिकनिक और कल्चरल्स प्रोग्राम) को मिलाकर सालभर में एक छात्र से औसतन सालभर में 30 हजार रुपये तक ले लिये जाते हैं. ड्रेस और किताबें स्कूल की बताई हुई दुकानों से ही लेनी पड़ती हैं जो अपेक्षाकृत 20 फीसदी तक महंगी ही होती हैं.

मंहगी होती शिक्षा के बावजूद निजी स्कूलों की तरफ बढ़ते रुझान पर राहुल ग्रुप ऐंड स्कूल कॉलेज के चेयरमैन लल्लन तिवारी कहते हैं, 'लोग अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहते हैं इसीलिए वह अच्छे स्कूल में बच्चे को भेजना चाहते हैं, जिसके लिए पैसा मायने नहीं रखता है.'

महंगे से महंगे स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे को भी कोचिंग का सहारा लेना पड़ रहा है. इस पर महेश टयूटोरियल कोचिंग के प्रबंध निदेशक महेश शेट्टी कहते हैं कि स्कूल में क्या पढ़ाया जाता है, हमे इससे कोई मतलब नहीं है। हमारा लक्ष्य होता है कि बच्चे परीक्षा में अधिक से अधिक नंबर ला पाए.

इसके लिए कोचिंग में नई तकनीक और रिसर्च के आधार पर बच्चों को शिक्षा दी जाती है. यही वजह है कि हर साल बच्चों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है, जबकि मंदी के बावजूद कोचिंग फीस में करीबन 15-20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है.

लगातार हो रहे शिक्षा के निजीकरण को लेकर बच्चों की शिक्षा पर काम करने वाले स्वयंसेवी संस्था क्राई की निदेशक योगिता वर्मा का कहना है, 'संविधान में शिक्षा को मूलभूत आवश्यकता बताया गया है. इसलिए सबको शिक्षा देना सरकार का कर्तव्य बनता है. शिक्षा के निजीकरण को बंद करना चाहिए. अमेरिका और इंगलैड में सरकारी शिक्षा ही सही मानी जाती है.'

क्राई का मानना है कि सबको मुफ्त और एक जैसी शिक्षा दी जानी चाहिए. वैसे भी सरकारी स्कूलों के अध्यापक निजी स्कूल के अध्यापकों के मुकाबले ज्यादा योग्य होते हैं.

4.11.10

बारूद पर ढ़ेर है भारत का भविष्य

शिरीष खरे

एक बच्चा पटाखा बनाए और दूसरा उसे जलाकर दीपावली मनाए. ऎसी विडम्बना तमिलनाडु के शिवकाशी में आसानी से देखी जा सकती है. जहां एक ओर देश के हरेक कोने का बचपन रोशनी के पर्व को मनाने के अपने तरीके व योजना बना रहा है, वहीं शिवकाशी जो आतिशबाजी उद्योग के लिए प्रसिद्ध है, जहां करीबन 40 हजार बाल मजदूर उनकी खुशियों में चार चांद लगाने के लिए पटाखे बनाने में सक्रिय हैं.

शिवकाशी वह क्षेत्र है जिसे देश की आतिशबाजी राजधानी के रूप में जाना जाता है. यहां लगभग एक हजार छोटी-बड़ी इकाइयां बारूद व माचिस बनाने में बनाने में जुटी हैं जिनका सालाना कारोबार 1000 करोड़ रूपए है. इस उद्योग के चलते एक लाख लोगों की रोजी चलती हैं जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं व बच्चे भी शामिल हैं.

बाल श्रम नाम के अभिशाप की जहां बात चल ही गई है तो यह स्पष्ट कर दें कि शिवकाशी में इसका प्रमाण आसानी से देखा जा सकता है. मसलन, पंद्रह वर्षीय पोन्नुसामी जो यहां एक पटाखा निर्माणी इकाई में कार्यरत है, पांच साल पटाखे बना रहा है. जब उसने यह पेशा चुना तो उसकी समझ का स्तर क्या रहा होगा यह विचारणीय मसला है. उसके अनुसार वह छठी कक्षा का छात्र था जब उसे जबरन इस काम में उतार दिया गया. काम कराने की मंशा भी उनके माता-पिता की ही थी.प्रतिदिन नौ घंटे की कड़ी मेहनत के बाद वह 60 रूपए पाता है. यह बेगारी उसे वयस्क श्रमिकों को मिलने वाली मजदूरी का केवल चालीस फीसदी है. ऎसे कई उदाहरण हैं जिनसे यह स्पष्ट है कि शिवकाशी इलाके के किशोर-किशोरियों की पढ़ाई-लिखाई में गाज गिरने की आशंका रहती है. छोटी उम्र में ही ऎसे खतरनाक काम में झोंकने के मां-बाप के फैसले के पीछे उनकी गरीबी ही मूल कारण है.

कारखानों में हादसे सामान्यत: होते रहते हैं. ऎसे में मासूमों को घातक काम पर लगाने का सवाल जब उठता है तो श्रमिक संगठनों का जवाब होता है कि मृतकों में कोई भी किशोर नहीं है,जबकि दास्तां कुछ अलग ही है. जुलाई 2009 में हुई एक दुर्घटना में तीन बच्चे मर गए.

अगस्त 2010 में तो सरकारी अधिकारियों पर ही गाज गिरी जो अनाधिकृत पटाखा इकाइयों की जांच पर गए थे. बताया गया है कि 8 राजस्व और पुलिस अधिकारियों को इस तहकीकात के दौरान जान से हाथ धोना पड़ा. जब पोन्नुसामी से काम के जानलेवा होने के बारे में पूछा गया तो उसका जवाब यही था कि अगर मैं भाग्यशाली हूं तो कभी हादसा नहीं होगा.

बच्चों के अधिकारों के क्षेत्र में काम करने वाली गैर सरकारी संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) के अधिकारी जॉन आर की मानें तो शिवकाशी में करीबन 1050 कारखाने हैं जिनमें से 500 बिना किसी लाइसेंस के चल रहे हैं. पटाखों के अलावा 3989 कारखानों में दियासलाई बनती है. वे मानते हैं देश-विदेश में हो रहे प्रयासों के नतीजतन बाल श्रम पर कुछ अंकुश लगा है. हादसों में इजाफा और बच्चों के काम पर लगाने की नौबत गैर लाइसेंसशुदा कारखानों की वजह से आती है जिनका संचालन घरों की असुरक्षित चारदीवारी में होता है.

इन लोगों को लाइसेंस वाली कंपनियां पटाखे बनाने का आदेश दे देती है. अधिक फायदे के लालच व शिक्षा के अभाव में ये लोग आसानी से कानून की दहलीज को लांघ जाते हैं. नाम न छापने की शर्त पर शिवकाशी की ही एक एनजीओ के कार्यकर्ता के अनुसार इस समस्या के बारे में समझ अभी अधूरी है. हम अभिभावकों को जाग्रत करने का प्रयास कर रहे हैं. उन्हें यह समझाया जा रहा है कि वे सीमित आमदनी में गुजर-बसर करते हुए बच्चों के स्वास्थ्य व शिक्षा पर ध्यान दें.

कहावत है कि ताली एक हाथ से नहीं बजती और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. इसी तर्ज पर सरकार, प्रशासन व एनजीओ का प्रयास भी तब तक सफल नहीं हो जाता जब तक कि अन्य पक्षकार जिनमें आतिशबाजी निर्माण इकाइयों के मालिक व अभिभावक शामिल हैं, स्वेच्छा से पहल न करें. अन्यथा उनकी दीपावली कभी भी प्रकाशमान नहीं हो पाएगी. 

सड़ता अनाज सड़ता तंत्र

शिरीष खरे

सरकार चंद पूंजीपतियों के लिए रियायतों का अंबार लगा रही है और करोड़ों लोगों की खाद्य सुरक्षा के लिए उसके पास न अनाज है और न पैसे का कोई बंदोबस्त. इंडिया शाइनिंग के इस दौर में सरकार को 50,000 करोड़ से अधिक का अनाज सड़ा देना मंजूर है. नहीं मंजूर है तो 8 करोड़ से ज्यादा लोगों की भूख को मिटाने के वास्ते उस सड़ते हुए अनाज में से गरीबों के लिए थोड़ा-सा हिस्सा बांटना. अकाल और कुपोषण के बीच पिसते किसी देश की जनता के लिए क्या उसकी सरकार इस तरह से भी अमानवीय हो सकती है ?



एक तरफ सरकार पूंजीपतियों के लिए 5 लाख करोड़ रूपए की रियायत देती है और दूसरी तरफ भूखे लोगों के लिए कोई इंतजाम नहीं करती है. उलटा भूखे देश की भूख पर परदे डालने के लिए उदाहरण के लिए मुंबई में 19 रूपए से ज्यादा रूपए कमाने वाले को गरीब नहीं मानती है. हकीकत यह है कि आजादी के 63 सालों में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता बढ़नी चाहिए थी जो लगातार घटती ही जाती है. आजादी के समय से अबतक प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता 440 ग्राम से 436 ग्राम पर आ गई है और इसी तरह दाल की उपलब्धता भी आधी यानी 70 ग्राम से 35 ग्राम ही रह गई है.

दूसरी तरफ असुरक्षित परिस्थितियों में रखे अनाज के त्वरित वितरण से लाखों लोगों को राहत पहुंचाई जा सकती है. जबकि मौजूदा स्थिति यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के 35 किलो अनाज वितरित करने के आदेश को भी एक तरफ रखते हुए फिलहाल देश के कई इलाकों में अधिकतम 20 से 25 किलो अनाज ही वितरित किया जा रहा है. सर्वोच्च न्यायालय के एक और आदेश की अनदेखी करते हुए कई इलाकों में जनवितरण प्रणाली की दुकानें महीने-महीने भर नहीं खुलतीं हैं. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हर राज्य में एक बड़े गोदाम और जिले में पृथक गोदाम बनाने के लिए भी कहा जा चुका है. मगर खाद्य भंडारणों की क्षमता को बढ़ाने और गोदामों की मरम्मत को लेकर सरकार कभी गंभीर नजर नहीं आई है. लिहाजा देश के कई इलाकों में अनाज के भंडारण की समस्या उपजती जा रही है.

जिस देश में सालाना 6 करोड़ टन गेंहूं और चावल की खरीददारी होती है और जिसकी सयुंक्त भंडारण क्षमता 4 करोड़ 80 लाख टन है, उस देश में 6 साल के भीतर गोदामों में 10 लाख 37 हजार 738 टन अनाज सड़ चुका है. 190 लाख टन अनाज प्लास्टिक सीटों के नीचे रामभरोसे पड़ा हुआ है. हर साल गोदामों की सफाई पर करोड़ों रूपए खर्च करने पर भी 2 लाख टन अनाज सड़ जाता है और जब देश का सर्वोच्च न्यायालय अनाज के एक दाने के बर्बाद होने को अपराध मानते हुए अनाज के सड़ने से पहले उसे निशुल्क बांटने का आदेश देता है तो हमारे केंद्र के कृषि मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक 6,000 टन से भी ज्यादा अनाज के खराब होने के अपराध को नजरअंदाज बनाते हुए उल्टा सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की गलत व्याख्या करते हैं और उसकी मर्यादाओं पर ही सवाल खड़े करते हैं.

1947 के बाद से अब तक अगर हम किसानों की अथक मेहनत से उपजे अनाज का सही इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं और हर साल भारतीय खाद्य निगम की गोदामों में रखीं लाखों अनाज की बोरियां खुले में रखे जाने या बाढ़ आ जाने के चलते खराब हो रही हैं तो क्या सरकार को नहीं लगता कि भोजन से जुड़ी नीति, प्रबंधन और वितरण की व्यवस्थाओं पर नए सिरे से सोचे जाने की जरुरत है ?

देखा जाए तो खाद्य सुरक्षा दूसरा सवाल है. पहला सवाल पूंजीपतियों के लिए देश की आम जनता से उनके संसाधनों को छीने जाने से जुड़ा है. अगर संसाधनों को लगातार यूं ही छीना जाता रहा तो खाद्य के असुरक्षा की स्थितियां सुधरने की बजाय तेजी से बिगड़ती ही जाएंगी. जहां आदिवासियों को उनके जल, जंगल, जमीन से अलग करके उन्हें भूख और बेकारी की ओर ले जाया जा रहा है, वही सेज के नाम पर खुली लूट की जैसे छूट ही दे दी जा रही है. कहने का मतलब है नीतिगत और कानूनी तौर पर सभी लोगों को आजीविका की सुरक्षा को दिये बगैर भोजन के अधिकार की बात बेमतलब ही रहेगी. भोजन केअधिकार से जुड़े कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं कि 5 सदस्यों के एक परिवार के लिए 50 किलो अनाज, 5.25 किलो दाल और 2.8 खाद्य तेल दिया जाए. बीपीएल और एपीएल को पात्रता का आधार नहीं बनाया जाए. सार्वजनिक वितरण की व्यवस्था के साथ-साथ सरकारी खरीदी और वितरण की विकेन्द्रीकृत व्यवस्था हो. व्यक्ति/एकल परिवार को इकाई माना जाए और राशन कार्ड महिलाओं के नाम पर हो. जल स्त्रोत पर पहला अधिकार खेती का हो. इसके साथ ही यह भी नहीं भुलाया जा सकता कि आजादी की बाद से अबतक विकास की विभिन्न परियोजनाओं और कारणों के चलते 6 करोड़ बच्चों का भी पलायन हुआ है. मगर बच्चों के मुद्दे अनदेखे ही रहे हैं और उनके लिए खाद्य सुरक्षा की गारंटी दिये बगैर विकास के तमाम दावे बेबुनियाद ही रहेंगे. इसे भी असंवेदनशीलता का चरम ही कहेंगे कि एक सेकेण्ड के भीतर 5 साल के नीचे का एक बच्चा कुपोषण की चपेट में आ जाने के बावजूद कोई नीतिगत फैसला लेने की बात तो दूर ठोस कार्यवाही की रूपरेखा तक नहीं बन पा रही है. अगर कुपोषण और भूख के चलते देश का आने वाला कल कहे जाने वाले 47 प्रतिशत बच्चों का अपनी उम्र के अनुपात में लंबाई और वजन नहीं बढ़ पाता है तो इसे किस विकास का सूचक समझा जाए ?

अंतत: अनाज का साद जाना एक अमानवीय और आपराधिक प्रवृति है और देश में अनाज भंडारण की उचित व्यवस्था और बेहतर विकल्प तलाशने लिए एक ऐसे संवेदनशील और पारदर्शी तंत्र विकसित करने की भी जरुरत है जो भूख से जुड़े विभिन्न पहलूओं पर कारगार ढ़ंग से शिनाख्त और कार्यवाही करने में सक्षम हो. अन्यथा हर साल लाखों टन अनाज खराब होने, अनाज की कीमत आसमान छूने, खेती के संकट, सूखे की मार और गरीबों के पेट खाली होने से जुड़े समाचारों पर परदे डालने के लिए हमारे पास आर्थिक शक्तियों का दिखावा करने वाली राष्ट्रमंडल खेलों की सुर्ख़ियों के अलावा कुछ नहीं होगा ?