30.1.10

नाबालिग लड़कियों के बच्चों में कुपोषण सबसे ज्यादा

शिरीष खरे


18 साल से कम उम्र में मां बनने वाली लड़कियों से पैदा होने वाले बच्चों पर कुपोषण का खतरा सबसे ज्यादा मंडराता है। बीएमजे यानि बिट्रिश मेडीकल जनरल ने हाल में प्रकाशित अपने शोध अध्ययन से ऐसा जाहिर किया है।


बीते दशक की महत्वपूर्ण आर्थिक वृद्धि के इर्दगिर्द, सबसे ज्यादा होने वाली मौतों के हिसाब से दुनिया के 5 देशों में भारत भी शामिल है। भारत में 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 44.5% (करीब आधी) औरतें ऐसी हैं- जिनकी शादियां 18 साल के पहले हुईं हैं। इन 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 22% (करीब एक चौथाई) औरतें ऐसी हैं- जो 18 साल के पहले मां बनीं हैं। इन कम उम्र की लड़कियों से 73% (सबसे ज्यादा) बच्चे पैदा हुए हैं। फिलहाल इन बच्चों में 67% (आधे से बहुत ज्यादा) कुपोषण के शिकार हैं।


बोस्टन यूनिवर्सिटी के पब्लिक हेल्थ डिपार्टमेन्ट की एसोशियट प्रोफेसर अनीता राज और उनके सहयोगियों का यह शोध अध्ययन मूलतः भारत में कम उम्र के शादीशुदा संबंधों, शिशु और बाल मृत्यु-दर से जुड़ा है। यह अध्ययन 15 से 49 साल की तकरीबन 1,25,000 भारतीय औरतों के प्रतिनिधि नमूने पर आधारित है। शोध के लिए एकत्रित जानकारियों को नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे (2005-06) से लिया गया है।


यह शोध बताता है कि कम उम्र में शादी करने, दो बच्चों के बीच अंतर न रखने, गर्भावस्था के समय पर्याप्त भोजन न मिलने, प्रसव के समय थोड़ा-सा भी आराम न मिलने और इसी दौरान चिकित्सा की सुविधाओं के अभाव में कुपोषण किस तरह से लहलहा उठता है। यह शोध ‘कम उम्र की किशोरियों और बच्चों’ को केन्द्र में रखकर भारत के कुपोषण की व्याख्या करता है। शोध यह भी मानता है कि कम उम्र में शादी करने वाली औरतों को अगर उनके पतियों या ससुराल वालों द्वारा दरकिनार किया जाता है तो ऐसी औरतों को अपने और अपने बच्चों के लिए भोजन जुटा पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। इसमें भारत की भुखमरी को पारिवारिक व्यवस्था से लेकर सामाजिक तंत्र, राजनीति से लेकर विचारधारा और व्यवहारिकता तक में मौजूद लैंगिक भेदभाव से जोड़कर देखा गया है।


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27.1.10

सूरत में जीरो स्लम आपदा

शिरीष खरे/सूरत से




एक जमाने में विकास के लिए ‘गरीबी हटाओ’ एक घोषित नारा था। मगर आज आलम यह है कि विकास के रास्ते से ‘गरीबों को हटाना’ एक अघोषित एंजेडा बन चुका है। बतौर एक शहर, सूरत के उदाहरणों से यह समझा जा सकता है कि ‘गरीबी की बजाय गरीबों को हटाने’ का यह व्यंग्यात्मक मुहावरा किस तरह से गंभीर हकीकत में तब्दील हुआ है।






सैकड़ों झोपड़ियों की तरह, झोपड़पट्टी तोड़ने वाले जब जलाराम नगर के 40 वर्षीय लक्ष्मण चंद्राकार उर्फ संतोष की झोपड़ी को तोड़ने लगे तो उसने केरोसिन डालकर अपनेआप को मौत के हवाले करना चाहा। इसके बाद उसे एक एम्बुलेंस से न्यू सिविल हास्पिटल भेजा गया। वहां पहुंचते-पहुंचते उसके शरीर का 75 प्रतिशत हिस्सा जल गया। उधर डाक्टरों ने संतोष की हालत को बेहद गंभीर बताया। इधर सूरत महानगर पालिका ने शाम होते-होते ताप्ती नदी के किनारे से तीन बस्तियों के कई बच्चे, बूढ़े और औरतों को खुली सड़क पर ला खड़ा किया। यह एक नजारा अब का है जब सूरत के गरीबों को न तो साम्प्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ रहा है, न ही बाढ़ या भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं को ही सहना पड़ रहा है। इतना सब तो उन्हें सूरत को 0 स्लम बनाने वाली आपदा के चलते झेलना पड़ रहा है।

2 दिसम्बर, 2009 को सूरत महानगर पालिका ने सुबह 10 से शाम के 6 तक : सूरत को 0 स्लम बनाने के लक्ष्य का पीछा करते हुए जेपी नगर, जलाराम नगर और इकबाल नगर से कुल 502 झोपड़ियों को तोड़ने का रिकार्ड दर्ज किया। दोपहर होते-होते अगर स्थिति तनावपूर्ण न हो जाती तो महानगर पालिका के कुल स्कोर में और अधिक बढ़ोतरी हो जाती। वैसे पुलिस के भारी बंदोबस्त के बीचोंबीच, तनावपूर्ण स्थिति को नियंत्रण में बनाए रखते हुए- 4000 से अधिक रहवासियों से उनका पता ठिकाना छीन लिया गया। कुल मिलाकर ताप्ती नदी के आजू-बाजू कई दशक पुरानी इन तीन बस्तियों से 1700 से अधिक झोपड़ियों को साफ किया जाना है। अर्थात्- 14000 से अधिक रहवासियों से उनका पता ठिकाना छीना जाना है। जैसा कि महानगर पालिका के बस्ती उन्नयन विभाग से सी वाय भट्ट कहते भी हैं कि ‘‘नदी और खाड़ी के इर्द-गिर्द जमा झोपड़ियों को साफ करने के लिए डेमोलेशन की कार्रवाई जारी रहेगी।’’ डेमोलेशन की यह कार्रवाई अगले रोज भी जारी रही। मगर सूरत के बाकी इलाकों को तोड़े जाने के अगले चरणों और उनकी तारीखों के सवालों पर खामोशी का आलम है।


सुबह-सुबह, कोई सूचना दिए बगैर, एकाएक और अपने पूरे दल-बल के साथ झुग्गी बस्तियों को नेस्तानाबूत करने की प्रशासनिक रणनीति को सूरतवासी अब बाखूबी जानते हैं। रविवार की ठण्डी सुबह में भी प्रशासन की तरफ से इसी रणनीति को दोहराया जाने लगा। पुलिस ने शनिवार रात को ही उन सामाजिक कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं को हिरासत में ले लिया था जो महानगर पालिका की गरीबों को शहर से हटाए जाने वाली मुहिम के विरोधी हैं। इधर जेपी नगर, जलाराम नगर और इकबाल नगर के रहवासी यह कहने लगे कि घर के बदले घर दिए बगैर हमारे घरों को कैसे उजाड़ा जा रहा है ? उधर प्रशासन के लिए यह कोई नया सवाल नहीं था। उनका ध्यान तो झोपड़पट्टी तोड़ने के दौरान ‘अधिकतम नुकसान पहुंचाने’ के सिद्धांत पर टिका था। अंधियारा छाने के बहुत पहले ही बस्ती वालों के असंतोष ने आग पकड़ ली। देखते ही देखते एक भारी भीड़ पथराव करते हुए आगे बढ़ने लगी। हर एक के हाथों में उनके दुख, दर्द, उनकी आशंकाओं और हताशाओं से भरी भावनाओं में डूबे जनसैलाब के सिवाय कुछ न था। इसके बाद मुस्तैद पुलिस वाले आगे आएं और उन्होंने बस्तियों की तरह उनके जनसैलाब को भी लाठीचार्ज के जरिए कुचल डाला। उसके ऊपर आंसू गैस के दो गोले भी छोड़े गए।

सूरत में कुल 1 लाख से अधिक झोपड़ियों को तोड़ा जाना है। सरकारी कागजों पर पुनर्वास के लिए केवल 42 हजार घर बनाए जाने की बात है। जाहिर है करीब 56 हजार झोपड़ों का सवाल हवा में झूल रहा है। एक तरफ झोपड़ियों को तोड़े जाने का सिलसिला थम नहीं रहा है और दूसरी तरफ इतना भी सुनिश्चित नहीं हो पा रहा है कि घर मिलेंगे भी तो किन्हें, कैसे और कब तक। जबकि 2009 के पहले-पहले सूरत के सभी झोपड़पट्टी के परिवारों को नए घरों में स्थानांतरित करने का लक्ष्य रखा गया था। जबकि समय के छोटे-छोटे अन्तराल से शहर की बाकी झोपड़ियों की तरह रेलवे मेनलाइन की झोपड़ियों को तोड़कर गिराया जा रहा है और इस बात की जिम्मेवारी कोई नहीं ले रहा है कि किसने झोपड़ियां तोड़ी हैं ? इस सवाल का जवाब सब जगह से एक-सा आता है- ‘हमने नहीं उसने’. महापालिका के पास भी यही जवाब है और रेलवे के पास भी। जबकि आमतौर पर ऐसी बस्तियों के लोग नहीं जानते कि एक दिन उनके घर टूटेंगे। एक दिन उनसे यहां रहने के सबूत मांगे जाएंगे। इसलिए वह कागजों को इकट्ठा नहीं कर पाते। ऐसी बस्तियों के लोग किस कागज के टुकड़े का क्या मतलब है, यह भी नहीं जानते। सभी बस्तियों में रहने वाले लोगों का भी यही हाल है। अफसरों को जो कागज चाहिए उनमें से कुछ कागज यहां के ज्यादातर रहवासियों के पास नहीं हैं। यह रहवासी अफसरों को अपनी झुग्गी दिखाना चाहते हैं। लेकिन अफसरों को तो झुग्गी में रहने का कागज ही देखना है। फिलहाल लोगों के घर का हक सरकारी फाइलों से काफी दूर है। इस तरह पूरी कार्यप्रणाली आफिस-आफिस के खेल में उलझ चुकी है। जबकि सरकार लोगों से तो शहर में रहने के सबूत मांग रही है और खुद डेमोलेशन के लिए गैरकानूनी तरीके अपना रही है। जैसे कि डेमोलेशन के दौरान यूनाईटेड नेशन’ की गाईडलाईन निभानी जरूरी थी। जिन्हें उखाड़ना था, उनके साथ बैठकर पुनर्वास और राहत की बातें की जानी थी। गाईडलाईन कहती है कि विकलांग, बुजुर्ग और एसटी-एससी को उनके रोजगार के मुताबिक और पुराने झोपड़े के पास ही बसाया जाए। पीड़ित आदमी को पहले पुनर्वास वाली जगह दिखाई जाए, इसके बाद अगर वह मांग करता है तो उसे कोर्ट में जाने का हक भी है। इसके लिए कम से कम 90 दिनों का समय भी दिया जाए। लेकिन महानगर पालिका ने तो एक भी कायदा नहीं निभाया। जबकि महानगर पालिका के भीतर अनियमितताओं की कई हैरतंगेज कहानियां हैं। जैसे कि 1992 को टीना बेन 14 साल की थी, तब उन्हें घर के सामने खड़ा करके एक स्लेट पर उनका नाम, एनके परिवार वालों का नाम लिखवाकर फोटो ले लिया गया। 2005 को याने ठीक 12 साल बाद जब वह दो बच्चों की मां बनी तो भी उन्हें 1992 की फोटो के हिसाब से घर का मुआवजा मिला। समय के इतने बड़े अंतराल में घर तो क्या बस्ती की पूरी दुनिया ही बदल जाती है, लेकिन नहीं बदलती है तो मगनगर पालिका की मानसिकता।

माटी में मिली बस्तियों से जो ज्वंलत सवाल उठे हैं वो ‘रहने’ के अलावा ‘रोजीरोटी’ और ‘बुनियादी जरूरतों’ से भी जुड़े हैं। जैसे कि अगर यहां के कुछ विस्थापितों का पुनर्वास हुआ भी तो वह कोसाठ जैसी जगह में होगा, जो विस्थापितों की जगह से ‘12-15 किलोमीटर दूर’ और शहर की हदों को छूता ‘बाढ़ प्रभावित इलाका’ है। ऐसे में जो विस्थापित कोसाठ जैसी जगहों पर आएंगे भी है तो अपने साथ बेकारी भी लाएंगे। क्योंकि उन्हें शहर के भीतर 150 रूपए दिन की दिहाड़ी मजदूरी मिलती रही है। मगर शहर के बाहर तो कोई काम नहीं मिलेगा और काम ढ़ूढ़ने के लिए उन्हें रोजाना 40 रूपए तक खर्च करके शहर जाना पड़ेगा। इसके साथ-साथ जो औरतें चाय की दुकानें चलाती हैं या फिर घरेलू काम के लिए आसपास की सोसाइटी में जाती हैं, उन्हें कोसाठ जैसी जगहों में आकर हाथ पर हाथ रखे बैठना होगा। इन सबसे ऊपर यह सवाल भी है कि शहर के बाहर का यह हिस्सा जब बरसात के मौसम में बाढ़ के पानी से भरेगा तो यहां के रहवासी कहां जाएंगे ?

17.1.10

यह हमारा पता है

शिरीष खरे


बीड़/कभी एक्सट्रा आर्टिस्ट के तौर पर काम करने वाला अक्षय कुमार आज बालीवुड का सुपर स्टार कहलाता है। मगर सैय्यद मदारी नाम की जमात से एक भी स्टार नहीं उभरता, ऐसा क्यों ?

हो सकता है कि आपको मालूम हो कि आजादी के तीन दशक बीत जाने के बाद हिन्दी फिल्मों में जब जन आक्रोश को एक्शन का रंग-रूप दिया जाने लगा तो हीरो के ज्यादातर स्टण्ट सैय्यद मदारी ही किया करते। यह और बात है कि मायानगरी में 30 साल से ज्यादा बीताने पर भी इन्हें न शोहरत मिली, न दौलत। कुछ सैय्यद मदारी इसे अपनी बदकिस्मती मानते हैं तो बहुत से पहुंच न होने पर अफसोस जताते हैं।

बहरहाल अब्दुल, सैय्यद मदारी जमात का सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा नौजवान है। सैय्यद अब्दुल 10 वीं पार कर चुका है। वैसे तो देश के असंख्य बच्चे 10वीं पार कर चुके हैं। फिर भी अब्दुल की बात खास इसलिए है क्योंकि इससे पहले तक तो सैय्यद मदारियों ने काले अक्षर पढ़ने की सोची भी न थी। पर आज की पीढ़ी पढ़ना चाहती है। वह क,ख,ग की रस्सियों पर चलकर बदलाव के नए खेल दिखाना चाहती है। सैय्यद अब्दुल से आगे अब कई नाम जुड़ने को बेकरार हैं; मसलन- सैय्यद फातिमा, सैय्यद सिंकदर, सैय्यद फारूख, सैय्यद कंकर, सैय्यद शेख तय्यब, सैय्यद वंशी, सैय्यद वशीर........

सैय्यद मदारी एक बंजारा जमात है। गली-मोहल्लों में हैरतअंगेज खेल दिखाना इनका खानदानी पेशा रहा है। मगर सबसे हैरतअंगेज खेल जो हुआ वो यह कि ‘जाति शोध केन्द्र’ और ‘जाति आयोग’ की सूचियों में ‘सैय्यद मदारी’ जमात का जिक्र तक नहीं मिलता है। इसलिए महाराष्ट्र में इनकी कुल संख्या का आकड़ा भी लापता है। अनुमान है कि महाराष्ट्र में महज 700 सैय्यद मदारी परिवार होंगे। थोड़े-थोड़े अंतराल से यह अपने ठिकाने बदलते चलते हैं। याने यह अपने बुनियादी हकों से दूर होते चलते हैं। ऐसे में जिला बीड़ से 80 किलोमीटर दूर सैय्यद खेड़करी बस्ती में आने के बाद मेरे जैसे कईयों की धारणा टूट जाती है।

यहां सैय्यद मदारी के 52 छोटे-छोटे और सुंदर झोपड़ों में 354 लोग रहते हैं। सैय्यद रफाकत से पता चला कि यह जमीन पहले दरगाह की थी, जिसे 1998 को 99 साल के लिए लीज पर लिया गया। तब पहली मर्तबा इन्हें चिट्ठी मंगवाने का पता नसीब हुआ। आज हर घर में पीने का पानी और बिजली की रौशनी भी है।

1998 को ही बच्चों की बेहतर पढ़ाई के लिए ‘गैर-औपचारिक केन्द्र’ खुला था। उस समय पढ़ाई-लिखाई की स्थिति 0 थी। लेकिन इन दिनों 1 से 11 क्लास तक कुल 20 बच्चे पढ़ते हैं। यह बच्चे बचपन (स्कूल) से जवानी (कालेज) की सीढ़ी पर चढ़ने को हैं। और अब्दुल, इन्हीं में से एक है।

ऐसा संभव हुआ- ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ और ‘राजार्षि शाहु ग्रामीण विकास’ संस्थाओं की मिलीजुली कोशिशों से। सामाजिक कार्यकर्ता बाल्मीक निकालजे ने कहा- ‘‘जो काम हम करते थे, अब वही अब्दुल को करते हुए देखने से खुशी मिलती है। 11 साल पहले यहां के लोग शिक्षा के नाम पर 5 मिनिट भी नहीं बैठ पाते थे। इसलिए पढ़ाई-लिखाई को दिलचस्प बनाने और उसकी जरूरत का एहसास दिलाने में सालों खर्च हो गए। जब कुछ को शिक्षा की अच्छाईयां दिखने लगी तो वह अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगे। आज इन बच्चों की समझ बड़ी है, जमात में पूछ-परख भी।’’


बिन कागज सब सून
जैसा की ऊपर कहा जा चुका है कि 'जाति शोध केन्द्र’ और ‘जाति आयोग’ की सूचियों में ‘सैय्यद मदारी’ जमात का जिक्र तक नहीं मिला, जिसके चलते अब्दुल जैसे बच्चे आगे नहीं बढ़ सकते थे। जाति प्रमाण-पत्र के बगैर सैय्यद मदारियों के यह बच्चे दूसरी जाति के बच्चों की तरह अधिकार और सुविधाएं नहीं पा सकते थे। इसलिए दोनों संस्थाओं ने सैय्यद मदारियों के साथ मिलकर जाति प्रमाण-पत्र के लिए लड़ाई लड़ी। सामाजिक कार्यकर्ता सतीश गायकबाड़ ने कहा- ‘‘हमने अपनी पहचान के कागज मांगने के लिए बहुत कोशिश की। यहां से 80 किलोमीटर दूर बीड़ जाकर कलेक्टर साहब को अपना हाल सुनाया। उन्हें तो जाति का सबूत ही चाहिए था। जिले के ज्यादातर अफसर सैय्यद मदारियों को नाम से जानने के बावजूद कुछ नहीं कर सके। वो हर बार कानून में बंधे होने का हवाला देते और हम बार-बार खाली हाथ लौटकर आते।’’ यहां से सवाल उठा कि जो सैय्यद मदारी सरकार के काम-काज से जुड़े ही नहीं, वो अपने लिए जाति का कागज लाएं भी तो कहां से ?

इसके बाद जाति प्रमाण-पत्र की यह लड़ाई प्रदेश के ‘सामाजिक कल्याण व न्याय विभाग’ तक पहुंची। इस विभाग के बड़े अफसरों ने संस्थाओं के तर्क को जायज माना। आखिरकार महाराष्ट्र सरकार ने बीते साल (2009) एक ऐसी व्यवस्था बनाने का फैसला लिया है जो सैय्यद मदारियों को जाति का प्रमाण-पत्र हासिल करने में मदद करेगी। फिलहाल यह व्यवस्था दस्तावेजों में दर्ज है, बस अब इसके प्रकाशन का इंतजार है।

इस खुशखबरी ने सैय्यद खेड़करी बस्ती में ईद जैसी खुशियां बिखेर दीं। इससे उन 60 बच्चों को भी स्कूल से जोड़ने में मदद मिलेगी जो मदारी का खेल दिखाने के लिए बाहर जाते हैं। ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ से अनिल जेम्स ने कहा- ‘‘यहां खेल में भी बेजोड़ प्रतिभाएं हैं। खासकर जिमनेस्टिक और एथलेटिक्स में। इन्हें सिर्फ सही मौका चाहिए है। अगर यह राष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाओं तक पहुंचे तो यकीन मानिए कमाल दिखाएंगे। इस तरह भी तो उनकी पहचान बदल सकती है।’’

सैय्यद अब्दुल ने बताया- ‘‘मेरा कोई दोस्त पांचवी में छूटा, कोई आठवीं में। इस तरह कई दोस्त स्कूल से बाहर हो गए। वो कहते कि पढ़ने-लिखने से दाल-रोटी नहीं चलती। उनके अब्बा-अम्मी भी यही कहते कि अगर जाति का प्रमाण-पत्र नहीं मिला तो नौकरी नहीं मिलने वाली।’’ सैय्यद अब्दुल के पड़ोस से फातिमा चाची ने बताया- ‘‘तब लगा था कि अगर किताबों में फंसकर बच्चे अपने खेल भूल गए तो वो न इत के रहेंगे न उत के, बेकाम हो जाएंगे।’’ मगर जाति प्रमाण-पत्र नहीं होने के बावजूद कुछ बच्चे पढ़ते रहे। इन्हें अपना घर और उसका पता तो मिल गया था, जाति की पहचान का हक नहीं मिला था। और अब इसके मिलते ही पढ़ाई-लिखाई की राह का सबसे बड़ा रोड़ा भी हट जाएगा।


यही वो फोटो है
सैय्यद सिंकदर जैसे कई बच्चों के पास बालीबुड के स्टार और बड़े नेताओं के दर्जनों एल्बम हैं। हमने एक के बाद एक फोटो को पलटा तो जाना कि जो हम सोच नहीं पाते, सैय्यद मदारी कर दिखाते हैं। मसलन- आग के गोले से पार होना, आंख की पलक से 10 किलो का पत्थर उठाना, साइकिल को बालों से बांधकर घुमाना, ट्रक या टेम्पों को चोटी से बांधकर सरकाना, हाथ से पत्थर फोड़ना, सिर से नारियल फोड़ना, दांत से कांच चटकाना आदि-आदि इत्यादि। जब तक खेल चलता है, सैय्यद मदारी का पेट भरता है। एक बार बुढ़ापा हावी हुआ या चूके तो समझो गए काम से। जाहिर है सबसे बड़ी चुनौती है उम्र और जिन्दगी की सुरक्षा। इनकी जिन्दगी की शब्दावली में 'हेल्थ आफ केयर ' या 'इन्शोरेंस' जैसे शब्द नहीं हैं। हर रोज खेल-खेल में मरने का डर है। कुछ मरते भी हैं, मगर बाकी लोगों की जिंदगी नहीं रूकती है। वह भीड़ के बीचोबीच, नए-नए खेल लेकर आती है। सैय्यद सिंकदर की सुने तो- "दो हाथ से मोटर साइकिल खींचने वाले दारासिंह को बच्चा बच्चा जानता है। पर एक हाथ से दो मोटर साइकिल रोकने वाले सैय्यद मदारियों को कोई नहीं जानता।"

इस बीच कुछ धुंधले पड़ गए एल्बमों में इनके पिता अपनी ब्लेक-एण्ड-व्हाइड इमेज लिए अमिताभ, विनोद खन्ना, जितेन्द्र और धमेन्द्र के साथ खड़े दिखे। अबके लड़के रंगीन कपड़ों में शाहरूख, सलमान, गोविन्दा, संजय दत्त से बतियाते हैं। हीरोइनों की फोटो कम ही हैं। जो हैं उनमें पुराने जमाने की रेखा, हेमामालिनी, जीनत अमान, नीतू सिंह दिखती हैं। एक फोटो ऐसा भी है जिसमें शो खत्म होने पर प्रियंका और राहुल गांधी हाथ मिलाते हैं। दूसरी फोटो में खुद सोनिया गांधी पीठ ठोंकती हैं। हर फोटो के पीछे एक कहानी है, जिसे सुनाना यह नहीं भूलते। ऐसे सारे फोटो जोड़ो तो हजारों कहानियों जुड़ जाए।

आखरी में सैय्यद फातिमा ने संस्था के कार्यकर्ताओं के साथ खिंचवाई एक फोटो निकाली और सबको बताते हुए कहा- ‘‘यही एक फोटो (कहानी) है, जो हमारे बदलाव से जुड़ी है।’’


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13.1.10

विधायक की 1 चिट्ठी ने 11 साल से गैंगरेप केस को दबाए रखा है

शिरीष खरे


बड़ोदरा/ इन दिनों रूचिका गिरहोत्रा की दुखद दास्तान से पूरे देश के लोग सकते में हैं और सरकार के कान कुछ खड़े हुए हैं; ऐसे में आइए एक दशक पुरानी उस दास्तान से भी धूल की परतें हटा लेते हैं जिसमें धूलेटी त्यौहार की रात को 13 साल की दलित लड़की के साथ, स्थानीय विधायक के रिश्तेदार और उसके साथी ने बलात्कार किया था।

11 सालों बाद, आज भी यह केस जहां से शुरू हुआ था वहीं अटका पड़ा है- यानि जब वह लड़की नाबालिग थी तो दबंगों ने अपना दम भरते हुए धरदबोचा था। तथ्यों के हिसाब से साफ होता है कि पुलिस ने किस तरह से पूरे मामले को अनदेखा किया था। हालांकि मामला अदालत भी पहुंचा, जो दशक भर से अपनी स्थिर अवस्था में विद्यमान है। अवस्था की स्थिरता को जानने के लिए यही तथ्य काफी है कि 4000 दिनों के गुजरने के बावजूद गवाहों को सम्मन भेजे जाने अभी बाकी हैं। जबकि अदालती लड़ाई में लड़की के दादा अपने हिस्से की ज्यादातर जमीन बेच चुके हैं। जबकि लड़की अब 24 साल की हो चुकी है और उसकी शादी के बाद दो बच्चे भी हैं।

11 साल पहले, विधायक खुमानसिंह चौहान ने कथित तौर पर उस रिश्तेदार को बचाने के लिए पुलिस सब-इंस्पेक्टर को अपने अधिकारिक लेटरहेड पर हाथ से लिखी हुई एक चिट्ठी भेजी थी। खुमानसिंह चौहान सावली विधानसभा क्षेत्र से लगातार कांग्रेस के विधायक रहे हैं।

13 मार्च, 1998 को रमेश बारिया और उसके साथी ने कथित तौर पर मोक्षी गांव की दलित लड़की को उसके घर से अगवा किया और फिर बारी-बारी से बलात्कार किया। अगली सुबह यह दोनों खून से लथपथ उस लड़की को पोण्ड गांव में ही छोड़कर भाग निकल थे। यह लड़की अपने मां-बाप के अलग-अलग हो जाने के बाद से दादा वशराम वंकर के साथ रहती थी। वारदात वाले दिन दादा के बाहर जाने की वजह से यह लड़की घर में अकेली थी।

लड़की के दादा वशराम वंकर ने बताया कि ‘‘जैसे ही मालूम चला, हम उसे पास की पुलिस चौकी ले गए। वहां के पुलिस वालों ने हमसे कहा कि उसे भदरवा पुलिस स्टेशन ले जाओ। जब हम भदरवा पुलिस स्टेशन ले गए तो वहां केस दर्ज करने से मना कर दिया गया। कहा गया कि उसे मेडीकल जांच के वास्ते अस्पताल ले जाओ।’’

एसएसजी अस्पताल के डाक्टर पहले तो यह सोचने लगे कि गहरे सदमे में डूबी यह कौन लड़की है, यहां से उसे मानसिक उपचार के लिए वडोदरा अस्पताल में रेफर किया गया। मगर जब वडोदरा अस्पताल के डाक्टरों को लगा कि इस लड़की के साथ बलात्कार हुआ है तो उसे वापस भेज दिया गया। इसके बाद मेडीकल जांच पड़ताल में उसके साथ बलात्कार होने की पुष्टि हुई। इसकी शिकायत चार दिनों बाद पुलिस स्टेशन में दर्ज हो सकी। वशराम वंकर ने बताया कि ‘‘जब पुलिस वाले लीपापोथी करने लगे तो हम वड़ोदरा जाकर पुलिस अधीक्षक साब से भी मिले, पर साब ने उल्टा यह ईल्जाम लगा दिया कि हम पैसा वसूलने के लिए ऐसा रहे हैं।’’

वशराम वंकर की लड़ाई को गैर सरकारी संस्था ‘कांउसिल फार सोशल जस्टिस’ की तरफ से गुजरात हाई कोर्ट तक ले जाया गया। इसके पहले तक पुलिस वालों का रूख बहुत सख्त और गैर जिम्मेदाराना ही रहा। लड़की के परिवार वालों का मानना है कि 14 मार्च, 1998 को विधायक के लेटरहेड पर हाथ से लिखी गई उस चिट्ठी का यह असर हुआ कि बदरवा पुलिस स्टेशन में बलात्कार का मामला दर्ज नहीं किया गया।

देखा जाए तो उस लेटरहेड पर विधायक खुमानसिंह चौहान के दस्तखत भी हैं। वैसे खुद चौहान का यह दावा है कि उनके लेटरहेड का किसी ने ‘गलत इस्तेमाल’ किया है और वह किसी रमेश बरिया नाम के आदमी के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। खुमानसिंह चौहान के मुताबिक ‘‘मैं नियमित रुप से कई सिफारिश पत्रों को लिखता रहता हूं, मगर ऐसे किसी सिफारिश पत्र के बारे में मुझे तो याद नहीं आ रहा है।’’ उन्होंने आगे कहा कि ‘‘ऐसा मैं कभी नहीं कर सकता, बलात्कार जैसे गंभीर मुद्दे पर तो बिल्कुल भी नहीं।’’ दूसरी तरफ ‘कांउसिल फार सोशल जस्टिस’ के सचिव वालजी भाई पटेल के मुताबिक ‘‘चौहान साब सच नहीं कह रहे हैं, रमेश बरिया उनके खास रिश्तेदार हैं, उनके मां के पक्ष से।’’ इस केस के संबंध में वालजी भाई पटेल ‘सोऊ मोटू कांग्निसेंस (स्वतः संज्ञान)’ लिए जाने के पक्ष में हैं। जिससे मामले को और लंबा खींचने की बजाय तुरंत न्याय मिल सके।

पड़ताल से जान पड़ता है कि इस केस में पुलिस ही पहली बाधा बनी। उसने हर स्तर पर लापरवाही और उदासीनता बरती थी :

> पुलिस ने एक महीने की देरी से 25 अप्रेल, 1998 को सेशन कोर्ट के सामने चार्टशीट दाखिल की। इसमें रमेश बरिया और उसके साथी को आरोपी बनाया गया था।

> एक साल बाद, 14 अप्रेल, 1999 को एडिशनल सेशन जज ने कहा कि यह केस सेशन कोर्ट की बजाय लोक अदालत में जाना चाहिए। यह नाबालिग लड़की से सामूहिक बलात्कार का मामला है और इसमें दोनों पक्षों के बीच ‘समझौता’ होने की गुजांइश भी है। मगर लड़की के परिवार वालों ने समझौता करने से साफ मना कर दिया।

> आठ साल गुजरने के बाद, 30 मई, 2007 को, मुकदमा खत्म होने से पहले, कोर्ट को यह एहसास हुआ कि इस केस की सुनवाई के दौरान अपनाई गयी कार्यप्रणाली सही नहीं थी। इसमें पुलिस ने सीधे सेशन जज को ही चाटशीट दे दी थी। कायदे से उसे यह चार्टशीट ज्यूडीशियल फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट को सौंपनी चाहिए थी। इस केस के सारे दस्तावेज इंवेस्टीगेटिंग आफीसर को वापिस दिये गए। उससे कहा गया कि यह सारे दस्तावेज ज्यूडीशियल फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट तक पहुंचाए जाए।

> पुलिस ने 5 महीने का वक्त गुजारने के बाद, 9 अक्टूबर, 2007 को यह केस मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया।

> अब जो स्थिति है उसके मद्देनजर सेशन कोर्ट को और सुनवाई करनी पड़ेगी। इस केस की सुनवाई की अगली तारीख 23 जनवरी, 2010 है।

गुजरात हाई कोर्ट के भूतपूर्व जज जस्टिस एस एम सोनी के मुताबिक ‘‘यह एक बहुत गंभीर मामला है जिसे लोक अदालत में नहीं भेजा जाना चाहिए। यह सेशन कोर्ट कि गलती है कि उसने इस मामले को लोक अदालत में भेजे जाने की बात कही थी। साथ ही इस मामले से जुड़े सारे दस्तावेजों को इंवेस्टीगेटिंग आफीसर को नहीं लौटाए जाने चाहिए थे।’’

‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ के ‘विकास सहयोग’ विभाग की गुजरात टीम में मैनेजर प्रवीण सिंह के मुताबिक ‘‘यह तो प्रकाश में आने वाला एक मामला है। बहुत सारे मामले तो प्रकाश में ही नहीं आते। इसलिए हम वालजी भाई पटेल जैसे सामाजिक कार्यकताओं के अलावा बहुत सी संस्थाओं के साथ मिलकर ऐसी वारदातों के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। हम चाहते हैं कि न केवल दोषियों बल्कि ऐसे मामलों में लापरवाही करने वाले सभी अधिकारियों जैसे इंवेस्टीगेटिंग आफीसर, कोर्ट रजिस्टार्ड, चीफ पब्लिक प्रोस्टिक्यूटर और स्पेशल ट्रायल जज के खिलाफ भी कार्रवाई की जाए। जिससे ऐसे मामले हतोत्साहित हों।’’

लड़की के दादा वशराम वंकर की उम्र अब 70 को पार का चुकी है; उनके साथ इस अदालती लड़ाई में लड़की के मामा सुरेश वंकर भी भागीदार हैं। सुरेश वंकर कहते हैं ‘‘अभियुक्त के रिश्तेदारों ने हमें 50,000 रूपए देने की पेशकश की थी..... जिसे हमने ठुकरा दिया है।’....‘‘काश कोई हमारे दर्द को समझ सकता।’’ दादा वंशराम वंकर एक बात और जोड़ते हुए कहते हैं ‘‘हमारे हिस्से में इतनी राहत तो है कि बच्ची को बहुत प्यार देने वाला पति और ससुराल मिला है। ससुराल वालों को बच्ची के बार-बार अदालत आने-जाने पर भी कोई एतराज नहीं है।’’

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10.1.10

लड़कियां कहां गायब हो रही हैं ?

शिरीष खरे

2001 की जनगणना में हर समुदाय से जुड़ी हजारों संख्याओं का गुणा-भाग मौजूद है। नहीं मौजूद है तो इस सवाल का जवाब कि ऐसी संख्याओं के बीच से एक बड़ी संख्या में लड़कियां कहां गायब हो रही हैं ?

1991 की जनगणना से 2001 की जनगणना तक, हिन्दु और मुसलमानों- दोनों की ही जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट आई है। मगर 2001 की जनगणना का यह तथ्य सबसे ज्यादा चैंकाता है कि 0 से 6 साल के बच्चों के लिंग अनुपात में भी भारी गिरावट आई है। देश में बच्चों का लिंग अनुपात- 976:1000 है, जो कुल लिंग अनुपात- 992:1000 के मुकाबले बहुत कम है। यहां कुल लिंग अनुपात में 8 के अंतर के मुकाबले बच्चों के लिंग अनुपात में अब 24 का अंतर दर्ज है। असल में यह अंतर भयावह भविष्य की सीधी गिनती है।

सिख और जैन- देश के दो बहुत समृद्धशाली समुदाय हैं। मगर लिंग अनुपात के हिसाब से दोनों समुदाय सबसे पीछे खड़े मिलते हैं। सिख समुदाय में कुल लिंग अनुपात 893:1000 है और जैन समुदाय में कुल लिंग अनुपात 940:1000। 0 से 6 साल के बच्चों के लिंग अनुपात के मामले में तो दोनों की हालत और पतली नजर आती है- सिख समुदाय में 1000 लड़कों पर सिर्फ 786 लड़कियां हैं; मतलब 214 का अंतर। वहीं जैन समुदाय में 1000 लड़कों पर सिर्फ 870 लड़कियां हैं; 130 का अंतर। अगर महिला साक्षरता दर को देखें तो बाकी समुदायों के मुकाबले सिख और जैन समुदायों के आकड़े सबसे अच्छे हैं। इसके बावजूद दोनों समुदाय के बच्चों के बीच सबसे खराब लिंग अनुपात का होना एक विरोधाभाषी स्थिति पैदा करता है। एक ओर जैन समुदाय में महिला साक्षर की दर सबसे अच्छी है- 90.6%। दूसरी तरफ इसी समुदाय में महिलाओं के काम की भागीदारी सबसे कम है- 9.2%।

देखा जाए तो बौद्ध समुदाय में महिला साक्षरता दर 61.7% है, जो सिख समुदाय की महिला साक्षरता दर 63.1% से कम है। मगर बौद्ध समुदाय में बच्चों का लिंग अनुपात है- 942:1000, जो सिख और जैन समुदाय से बेहतर है। इसी तरह बौद्ध समुदाय में महिलाओं के काम की भागीदारी-31.7% है, जो न केवल जैन बल्कि सिख समुदाय में महिलाओं के काम की भागीदारी- 20.2% से काफी अच्छी है।

इसी तरह मुसलमान समुदाय में कुल लिंग अनुपात- 950:1000 और बच्चों का लिंग अनुपात- 936:1000 है, जो हिन्दू समुदाय के लिंग अनुपात- 925:1000 और बच्चों का लिंग अनुपात- 933:1000 से बेहतर है। जहां तक ईसाई समुदाय का सवाल है तो यह समुदाय कुल लिंग अनुपात- 1009:1000 और बच्चों का लिंग अनुपात- 964:1000 के लिहाज से देश में अव्वल है।

ऐसे ही देश के समृद्धशाली राज्यों जैसे गुजरात और पंजाब के कुछ आकड़े भी हैरत में डालते हैं। गुजरात के मद्देनजर यह बात थोड़ी अजीब लग सकती है कि यहां के मुसलमान कई मामलों में हिन्दुओं से बेहतर स्थिति में हैं। यहां मुसलमान समुदाय में महिला साक्षर की दर है- 63.5%, जो हिन्दू समुदाय की महिला साक्षरता दर- 56.7% से बहुत अच्छी है। अगर कुल साक्षरता दर के आकड़े की भी बात करें तो मुसलमान समुदाय में यह है- 73.5%, जो हिन्दू समुदाय की कुल साक्षरता दर- 68.3% से अच्छी है। इसी तरह गुजरात में मुसलमान समुदाय में बच्चों का लिंग अनुपात- 913:1000 है और यह भी हिन्दू समुदाय में बच्चों के लिंग अनुपात- 880:1000 से बहुत बेहतर है। मगर बच्चों के लिंग अनुपात के हिसाब से पंजाब देश का सबसे पिसड्डी राज्य है। यहां बच्चों में 900:1000 का लिंग अनुपात है।

आम धारणा यह है कि साक्षरता की दर आबादी पर सीधा असर डालती है, साक्षरता को बढ़ाकर आबादी पर लगाम कसी जा सकती है, पढ़े-लिखे लोगों में लड़कियों के प्रति पूर्वाग्रह कम होता है। देखा जाए तो कुछ मामलों में यह धारणा सही भी हो सकती है; जैसे कि मुसलमान समुदाय में साक्षरता की दर (59.1) सबसे कम है, इसलिए जनसंख्या की दर सबसे अधिक है। मगर यही धारणा कुछ मामलों में गलत भी हो सकती है; जैसे कि जैन समुदाय में साक्षरता की दर सबसे अधिक है, फिर भी बच्चों का लिंग-अनुपात बहुत कम है। कुलमिलाकर हैरानी और बैचैनी पैदा करने वाले आंकड़ों का यह ऐसा गणित है जिसके हर एक अंक के साथ मिथकों की अंर्तगाथा भी जुड़ी है। इसलिए अंको को हल करने से पहले अंको की इन अंर्तगाथाओं को समझना जरूरी है।

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5.1.10

लोक सूचना अधिकारियों पर दस हजार रूपए का जुर्माना

शिरीष खरे

महाराष्ट्र सूचना आयोग ने एक मामले की सुनवाई के बाद नंदुरबार जिला प्रशासन के दो लोक सूचना अधिकारियों पर 9,750 रूपए का जुर्माना लगाया है। मामला कुछ ऐसा है कि सरदार सरोवर बांध से प्रभावित आदिवासी सियाराम सिंगा ने जिला प्रशासन से सूचनाएं मांगने के लिए जो आवेदन दिया था उसे लोक सूचना अधिकारियों ने गंभीरता से नहीं लिया और सूचना देने में बेवजह देरी बरती। इसके बाद नर्मदा बचाओं आंदोलन की अगुवाई में प्रशासन की इस कार्यप्रणाली के खिलाफ राज्य सूचना आयोग का दरवाजा घटघटाया गया। आयोग ने दोनों पक्षों के साथ बैठकर सुनवाई की और अपने आदेश में लोक सूचना अधिकारियों को दोषी ठहराते हुए उन्हें आर्थिक दण्ड दिया।

यह किस्सा नंदुरबार जिले में अक्कालकुंआ तहसील के डेनेल गांव का है, जहां नरेगा के तहत कुदावीडुंगर से हिरापाड़ा तक एक सड़क बनायी जा रही है। सियाराम सिंगा ने अपने आवेदन में इस सड़क योजना की मंजूरी,उदघाटन, प्रकाशन पटल, मजदूरों की संख्या, हाजिरी रजिस्टर और नामांकन रजिस्टर से जुड़ी सूचनाएं मांगी थीं। उन्होंने 11 मई, 2009 को अपना आवेदन लोक सूचना अधिकारी, लोक निर्माण विभाग, मोलगी को दिया था। 15 मई, 2009 को पहला जवाब आया जो बहुत ही सीमित, अधूरा और भ्रामक था। इसके बाद जुलाई, 2009 की 6, 14 और 27 तारीखों में विभागीय अपील प्राधिकारी के साथ कागजी सिलसिला तो चला मगर सूचनाओं के पते-ठिकाने का कोई ओर-छोर नहीं मिला। इसे देखते हुए 22 अगस्त, 2009 को राज्य सूचना अधिकारी के नाम से दूसरी अपील दाखिल की गई। हालांकि 5 सितम्बर, 2009 को कुछ सूचनाएं दी भी गईं जो एक बार फिर से अधूरी, झूठी और गुमराह करने वाली ही थीं। दिलचस्प यह है कि सूचना देने वालों कागजातों में बाकायदा यह लिखा हुआ था कि मस्टर रोल नहीं दिया जाएगा क्योंकि वह बेवसाइट पर उपलब्ध है। यह कथन अपनेआप में दिलचस्प इसलिए है क्योंकि यहां के ग्रामीण और आदिवासी इलाके का लोक सूचना अधिकारी पहले से ही यह मान बैठा है कि हर एक आवेदक के पास कम्प्यूटर होगा ही और उसे कम्प्यूटर के साथ-साथ बखूबी इंटरनेट चलाना भी आता होगा!!

इस मामले में 8 दिसम्बर, 2009 वह तारीख थी जिसमें आयोग के सामने सुनवाई शुरू हुई। इस दौरान महाराष्ट्र के मुख्य सूचना आयुक्त सुरेश जोशी के सामने आवेदक और लोक सूचना अधिकारी हाजिर हुए। तब आवेदक के पक्ष में नर्मदा बचाओ आंदोलन की कार्यकर्ता एडवोकेट योगनी कानोलकर ने बतलाया कि सूचना देने की यह पूरी प्रक्रिया किस तरह से गैरकानूनी और जानबूझकर उलझाने वाली है। दोनों पक्षों की सुनवाई के बाद आयोग ने पाया कि लोक सूचना अधिकारियों की ओर से सूचना देने में कुल 39 दिनों की देरी हुई है। इसलिए 24 दिसम्बर, 2009 को आयोग ने अपने आदेश में दोनों अधिकारियों पर 250 रूपए प्रतिदिन के हिसाब से कुल 9,750 (250x39) रूपए का जुर्माना लगाया। मतलब अब दोनों को अपनी-अपनी जेब से 4,895-4,895 (आधे-आधे) रूपए देने पड़ेंगे। आदेश में आगे कहा गया है कि यह रकम दोनों लोक सूचना अधिकारियों को जनवरी, 2010 में मिलने वाली सेलरी से बसूल की जाए और इसी के साथ 15 फरवरी, 2010 तक राज्य सूचना आयोग के समक्ष जुर्माना भरे जाने की पुष्टि भी की जाए।

नर्मदा बचाओ आंदोलन ने आयोग के इस आदेश का स्वागत किया है। आंदोलन का मानना है कि नंदुरबार जैसे जिलों में, जहां लोक निर्माण कार्यों में होने वाली घूसखोरी पर नियंत्रण नहीं है, वहां अधिकारियों पर इस तरह की कार्रवाई से आमजनता में अच्छा संदेश पहुंचेगा। वैसे भी नरेगा जैसी परियोजना में बड़े पैमाने पर जो घूसखोरी व्याप्त है वो जगजाहिर है, लिहाजा आयोग द्वारा सुनाई गई यह सजा अपनेआप में खास महत्व रखती है।

इस मामले की अगर थोड़ी और पड़ताल की जाए तो महाराष्ट्र सूचना आयोग के आदेश पर थोड़ा और सोचा-विचारा जा सकता है। पहले विचार के मुताबिक, सूचना आयुक्त कानून में मौजूद अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए उचित मुआवजे के निर्देश भी दे सकते थे। ऐसा इसलिए भी क्योंकि आवेदक सियाराम सिंगा गरीबी रेखा के नीचे आने वाले उस आदिवासी परिवार से है जिसे बेवजह ही शारारिक और मानसिक परेशानियों से गुजरना पड़ा है। दूसरे विचार के मुताबिक, मई से लेकर अबतक मतलब कई महीनों के बीत जाने तक आवेदक को सूचनाएं देने के मामले में गुमराह किया जाता रहा है, इस हिसाब से लोक सूचना अधिकारियों पर 9,750 रूपए का जुर्माना तो बेहद मामूली है। कायदे से यह जुर्माना 25,000 रूपए के आसपास होना चाहिए था। तीसरे विचार के मुताबिक, आदेश में गुमराह करने वाले ऐसे अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनिक कार्रवाई भी जरूरी थी। इससे सभी लोक सूचना अधिकारियों को यह सबक तो मिलता कि उन्हें आवेदकों तक बगैर किसी देरी के सही, सटीक और पर्याप्त सूचनाएं पहुंचानी है।

चलते चलते
महाराष्ट्र सूचना आयोग के आडिट यह दर्शाता है कि 6 सूचना आयुक्त हर रोज करीब 5 सुनवाइयों का निपटारा करते हैं। इस तरह से एक आयुक्त हर महीने करीब 150 मामलों का निपटारा करता है। 2008 में नागपुर के सूचना आयुक्त विलास पाटिल ने सबसे ज्यादा 2003 मामलों को निपटारा किया था। इसके बाद मुंबई के सूचना आयुक्त सुरेश जोशी 1983 मामलों को निपटाया था। मगर नवी मुंबई के सूचना आयुक्त नवीन कुमार सबसे कम 1298 मामलों को ही निपटा सके थे। अनुमान है कि एक सूचना आयुक्त हर महीने कम से कम 300 मामलों को तो निपटा ही सकता है। इस आधार पर अगर दिसंबर, 2008 के आकड़े पर नजर डाले तो महाराष्ट्र सूचना आयोग में सुनवाई के लिए 15026 मामले लंबित थे। इससे पूरे राज्य में सूचना आयुक्तों द्वारा मामलों को निपटाने की गति का पता चलता है।


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