19.3.10

भूख की पेट में भारत के बच्चे

शिरीष खरे


यह बीते साल नंबवर के आखिरी हफ्ते की बात है जब ग्राम-अगासिया, विकासखण्ड-मेघनगर, जिला-झाबुआ, मध्यप्रदेश के अर्जुन ने एक सर्द रात में कुपोषण के सामने दम तोड़ दिया था। उस सर्द समय में इसी आदिवासी इलाके के दर्जनों बच्चे भी मारे गए थे। अर्जुन सबसे कम उम्र के उन बच्चों में से एक ऐसा नाम था जो अपने हमउम्र साथियों के साथ फाइल की सूची में क्रमानुसार दर्ज हो चुका था। इस तरह एक और नाम भूखे भारत की सांख्यिकी में एक बड़े गुणनफल के बीचोंबीच कहीं दूर गुम हो चुका था।

यकीनन वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी ने अपना तीर चिड़िया की उस आंख पर ही साधा हुआ है जिसके निशाने पर पड़ते ही सकल घरेलू उत्पाद की दर 9% तक सरक सकती है। मगर कुपोषण और भूख का विकराल रुप देश के एक बड़े हिस्से को जिस ढंग से खा अरह है उससे भी आंख नहीं चुराई जा सकती है।

अक्टूबर 2009 से दिसम्बर 2009 के बीच, मध्यप्रदेश के इसी हिस्से के 4 गांवों से- भूख की चपेट में 70 आदमी मारे गए थे जिसमें 43 बच्चे थे। बीते दो सालों में अखबारों की कतरनों को ही जोड़ों तो मध्यप्रदेश के खण्डवा, सतना, रीवा, झाबुआ, शियोपुरी और सीधी जैसे जिलों से 456 आदमियों की मौतों का पता चलता है। मध्यप्रदेश में 5 साल के नीचे वाले बच्चों का मृत्यु-दर 1000/70 तक पहुंच गया है।

ऐसा ही हाल उड़ीसा और उत्तरप्रदेश का भी है। यहां से भी बाल-मृत्यु दर के अनुमान चौंकाते हैं। 5 साल के नीचे मरने वाले प्रति हजार बच्चों के मद्देनज़र उड़ीसा की हालत भी बहुत नाजुक है। इस तटीय प्रदेश के 29 जिलों में बाल-मृत्यु की दर कम से कम 1000/66 है। कंधमाल जिले की बाल-मृत्यु दर 1000/136 है जबकि मलकानगिरि और गजपति जिलों की बाल-मृत्यु दर 1000/127 है। उत्तरप्रदेश में बाल-मृत्यु दर है 1000/58। यहां के कौशांबी, भदौही, प्रतापगढ़, जौनपुर, इलाहाबाद और बनारस सबसे बुरी तरह से प्रभावित जिलों के तौर पर पहचाने गए हैं। आकड़े बताते है कि मध्यप्रदेश में 5 साल के नीचे के 60% बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इसके बाद उड़ीसा में 5 साल के नीचे के 50: बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। कुल मिलाकर कुपोषण के मामले में भारत के मध्यप्रदेश और उड़ीसा सबसे बुरी तरह से प्रभावित प्रदेशों के तौर पर पहचाने गए हैं। मगर कर्नाटक (44%), गुजरात (47%) और महाराष्ट्र (51%) भी बहुत ज्यादा पीछे नज़र नहीं आते।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 (एनएफएचएस-3) बताता है कि देशभर में 6 साल से नीचे के 8 करोड़ बच्चे कुपोषण की स्थिति (फूले पेट, अविकसित कदकाठी, झरते बाल और फीके रंग) में जी रहे हैं। 1 साल के बच्चे का वजन औसतन 10 किलोग्राम होता है और उसके वजन में सलाना 2 किलोग्राम के हिसाब से बढ़ोतरी होना जरूरी है। मगर जब बच्चे का वजन सामान्य से कम होने लगता है तो यह कुपोषण की स्थिति में आ जाता है। तब उसमें बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। ऐसे बच्चों को अधिक से अधिक प्रोट्रीन, कार्बोहाइड्रेड, आइरन, विटामिन बी, कैल्शियम आदि मिलना चाहिए। यहां गरीब तबके के नवजात शिशुओं में उचित पालन-पोषण का अभाव और उनके लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की गिरती स्थितियों को कुपोषण के पीछे के प्रमुख कारणों में गिना जा रहा है। उनके आसपास के माहौल में साफ-सफाई और पीने का स्वच्छ पानी न होने से यह संकट और अधिक गहराता जा रहा है।

यह एक कटु सत्य है कि देश में एक सेकेण्ड के भीतर 5 साल के नीचे का एक बच्चा कुपोषण के कब्जे में आ जाता है। मगर इतना सबकुछ होने के बावजूद सरकारी तन्त्र बच्चों के लिए एक जवाबदेह स्वास्थ्य नीति और योजना बनाने के बारे में सोच तक नहीं रहा है।

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16.3.10

पुष्पा के साथ स्कूल जा रहे हैं

शिरीष खरे

``मैं रात को ये सोचके जल्दी सो जाती हूं कि सुबह जल्दी उठूंगी, और एक और दिन स्कूल जाने को मिलेगा।´´- ऐसा कहना है पुष्पा का, 10 साल की पुष्पा उड़ीसा के कुमियापल्ली गांव से है। हम पुष्पा के साथ स्कूल जा रहे हैं और वह बता रही है- ``हमारी मेडम हमें ऐसी ऐसी बातें बताती हैं, जो हमें पता तक नहीं होती हैं। वो हर रोज नई खिड़की खोलती है, और उसमें से बाहर देखने को बोलती है। हम रात को जो बातें सोचके सोते हैं, दिन को वो पूरा-पूरा बता देती है। हम सोचते है कि यह तो इतना आसान है तो..... ´´

कुछ महीने पहले तक, पुष्पा इतनी खुशी-खुशी स्कूल नहीं जाती थी, न तो उसके दिन इतने महकते थे, न ही रात इतनी चमकती थी। अपने गांव की बहुत सारी लड़कियों की तरह वह तो घर के ढ़ेर सारे कामों से बंधी थी। मां के साथ हाथ बंटाने से लेकर छोटी बहन को सम्भालने तक, कई बड़े सवालों को अपने नन्हे कंधों पर लदे फिरती थी। जहां तक उसके स्कूल का सवाल है तो वहां का हाल यह था कि भवन तो अपनी जगह सही सलामत था, मगर कक्षा में न तो बच्चे हाजिर रहते थे और न ही टीचर। इसलिए हर साल 50 में से 15-20 बच्चे स्कूल छोड़ देते थे। पुष्पा बता रही है- ``मुझे तो इतना तक समझ नहीं आता था कि वहां पढ़ाया क्या जा रहा है, तभी तो मैंने स्कूल जाना छोड़ दिया था।´´ दोपहर के भोजन की बात सुनते ही उसने कहा `बहुत गन्दा था`।

और आज न केवल पुष्पा हमारे साथ स्कूल जा रही है, बल्कि उसके कुछ अरमान भी हैं जैसे आगे बहुत पढ़ना, लिखना, सीखना, समझना, कुछ कर गुजरना इत्यादि। जो उसे पहली बार देखता है वो उसके भीतर आए बदलाव को नहीं जान पाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि वो उसे पहली बार जो देख रहा होता है, जबकि उसे क्या पता कि इससे पहले तक यह लड़की क्या थी, उसे तो यह लड़की भी कक्षा की दूसरी लड़कियों जैसी ही हिन्दी-अंग्रेजी पढ़ती नज़र आती है। पर जो उसे शुरू से जानता है वो पुष्पा की वैसी से ऐसी दुनिया में आए अन्तर को भी जानता है। वो जानता है कि पुष्पा आर्थिक-सामाजिक तौर पर कभी न टूटने वाले बंधनों को कैसे तोड़कर आई है। तभी तो पुष्पा की यह कहानी मानो तो एक बड़े अन्तर की कहानी लगती भी है, और न मानों तो नहीं भी लगती है।

पुष्पा को शुरू से जानने वालों के नज़रिए से उसके घर से स्कूल के बीच का अन्तर अब कुछ भी नहीं बचा है और ऐसा `क्राई´ के सहयोग से काम करने वाली संस्था `आधार´ की हौंसलाअफ्जाई से सम्भव हुआ है। गांव के स्कूल की पढ़ाई-लिखाई दुरूस्त हो- गांव का हर आदमी यही तो चाहता था। फिर भी सबकी अपनी-अपनी और रोज-रोज जीने की जद्दोजहद ने इस ओर कुछ करने से रोके रखा था। `आधार´ के कार्यकर्ताओं ने पूरे गांव भर को इस ओर एक तारीख और एक चौपाल पर लाकर मिला भर दिया था। जहां पूरा गांव इस बिन्दु पर एकमत हुआ था कि जब तक स्कूल में कोई टीचर नहीं आएगा तब तक बच्चों की पढ़ाई-लिखाई सुधरने वाली नहीं है। सभी ने फैसला लिया कि जिले के अधिकारियों के सामने जाकर नए टीचरों के लिए मांग की जाएगी। उन्होंने ऐसा किया भी, जिसके चलते गांव के स्कूल में एक पढ़ी-लिखी लड़की मेडम(टीचर) बनकर आई। यहीं से गांव की शिक्षा व्यवस्था के रात-दिन दुरूस्त होने लगे। `आधार´ द्वारा मेडम के जरिए बच्चों के लिए सहभागिता पर आधारित शिक्षण की कई विधियां प्रयोग में लायी गईं। इसके सामानान्तर ज्यादातर परिवारों को शिक्षा के मायने बताने और उनके बच्चों से मित्रता की गांठे पिरोने का क्रम भी चलता रहा। नतीजा यह रहा कि यहां से पढ़ने-पढ़ाने के ऐसे पाठ शुरू हुए कि कुमियापल्ली के इतिहास में अब एक `आदर्श स्कूल´ का अध्याय जुड़ चुका है।

आज पुष्पा के स्कूल में दो टीचर हैं। इसलिए आज पुष्पा की सभी सहेलियां भी स्कूल जा रही है, इसी साल 85 बच्चों को भी स्कूल में दाखिल किया गया है। देश में 14 साल तक के बच्चों के लिए पढ़ने का कानून बन चुका है और कुमियापल्ली गांव में 14 साल तक का एक भी बच्ची-बच्चा ऐसा नहीं है जो स्कूल के रास्ते पर न चलता हो। उन सबके लिए ये रास्ते ये पल इतने हसीन हैं कि उनमें पूरी एक सदी और जिन्दगी की नरम उम्मीदें छिपी हैं। उसके ऊपर ताजा खबर यह है कि अगले साल उसके स्कूल की दो नई कक्षाओं को बनाये जाने और सामुदायिक टीचर चुने जाने को मंजूरी मिल चुकी है।

पुष्पा रोजाना स्कूल जाने वाली उन लड़कियों में से एक है जो अपनी कक्षा में बढ़चढ़कर हिस्सा लेती हैं। जो अपने पाठ्यक्रम की किताबों से जहां बहुत प्यार करती है वहीं खेलकूद में भी गहरी दिलचस्पी रखती है। तभी तो उसने सरकार द्वारा आयोजित कई क्षेत्रीय खेल प्रतियोगिताओं में बहुत से पुरस्कार जीते हैं। हमेशा पढ़ते रहने की बात पर वह कहती है- ``मैं पढ़ते-पढ़ते जब बड़ी हो जाऊंगी तो मेडम जैसे ही छोटे बच्चों को पढ़ाऊंगी।´´ तो सुना आपने चौथी में पढ़ने वाली यह बच्ची बड़े गर्व से मेडम (टीचर) बनने का ऐलान कर रही है।
भले ही पुष्पा इतनी ऊंचाई पर नहीं पहुंची हो कि स्कूल की दीवारे उसे नज़रें उठाके देखें। मगर उसके समय से रात के अंधेरे ढ़ल चुके हैं और उसके परिवार ने भी यह जान लिया है कि स्कूल की दुनिया बहुत प्यारी और खुशियों से भरी होती है। इसीलिए तो इस रफ़्तार से पुष्पा स्कूल जा रही है कि उसके परिवार की आर्थिक तंगी में उसे रोक नहीं पा रही है। कुमियापल्ली गांव में बहुत सारे समूह हैं जो समुदाय में लिंग, जाति और वर्ग से जुड़ी बाधाओं को दूर करने के लिए सक्रिय हैं। जो पुष्पा जैसी बच्चियों के परिवार वालों की आर्थिक तंगी दूर करने के लिए उन्हें मनरेगा और पंचायत की दूसरी योजनाओं से जोड़ रहे हैं। तो कुछ इस तरह से यहां के समूह कुमियापल्ली के सभी बच्चों के लिए समान अवसर जुटाने में तत्पर नज़र आ रहे हैं।

सवाल यह नहीं है कि कुमियापल्ली गांव उड़ीसा के किस जिले के किस प्रखण्ड में है, यह तो भारत के अनगिनत गांवों की तरह अंधेरे में डूबा एक ऐसा गांव है जहां सूरज के गर्म होते ही कुछ खाने के लिए कुछ करने का सवाल गर्म होने लगता है। यहां से सबक यह भर है कि कुमियापल्ली गांव में जिस तरीके से समुदाय के नजरिए और विचारों को बदलकर पुष्पा जैसी लड़कियों को स्कूल भेजा जा रहा है, तो उसी तरह के तरीकों से देश की बाकी लड़कियों को भी स्कूल भेजा जा सकता है।

चलते-चलते
पुष्पा के साथ स्कूल जाने वाली कहानियां हमारी आंखों में उम्मीद के दीये जलाती हैं, मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके पड़ोस के गांव सहित देश की 50% से भी अधिक स्कूल पुष्पाओं के नाम तक स्कूलों में दर्ज नहीं हो सके हैं। इनमें से कइयों को 12 साल की उम्र तक आते-आते स्कूल से ड्रापआऊट हो जाना पड़ता है। 2001 की जनगणना के मुताबिक 49.46 करोड़ महिलाओं में से 22.91 करोड़ महिलाएं (53.67%) अनपढ़ हैं। एशिया में अपने देश की महिला साक्षरता दर सबसे कम है। असल बात तो यह है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था में `लड़कियों की शिक्षा´ को खास स्थान दिए बगैर उनकी स्थितियों में सामान्य बदलाव लाना तक मुमकिन नहीं होगा।

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12.3.10

अंधेरी गलियों के रौशन सितारे

शिरीष खरे

शहरी झोपड़पट्टियों में रहने वाले बच्चों की जिंदगी को बोझिल, बेबस और हताश जानकर अक्सर उनसे मुंह फेर लिया जाता है. मगर एक सूझबूझ भरे प्रयास के चलते उसी दुनिया की कुछ लड़कियां आज न केवल सामाजिक अनदेखियों और तमाम बाधाओं से आगे निकल रही हैं, बल्कि खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने के रास्तों से उजाला भी दिखा रही हैं. चेन्नई से शक्ति और दिल्ली से अस्मिना वंचित समुदाय की ऐसी ही लड़कियां हैं जो इस बदलाव को सिर्फ महसूस ही नहीं कर रही हैं बल्कि दूसरों के लिए प्रेरणा भी बन रही हैं.



शक्ति बदलाव की

दक्षिण भारत के सबसे तेज बढ़ते शहर चेन्नई का एक चेहरा यहां की अनगिनत झोपड़पट्टियां भी हैं, जिन्हें बदनुमा दाग समझा जाता है. मगर तमाम बाधाओं के बीच यहां सपने देखने का हौसला भी है और उसे हकीकत में बदलने का जज्बा भी. शहर के उत्तरी हिस्से की ऐसी ही एक गुमनाम-सी झोपड़पट्टी में शक्ति नाम की लड़की इसी बदलाव की इबारत लिख रही है.

उसकी हमउम्र दूसरी लड़कियां जहां तीन साल की उम्र में नर्सरी स्कूल जाने लगी थीं, वहीं 6 साल की उम्र में शक्ति मछली बेचने की एक दुकान पर काम करने लगी थी. मछलियां छांटते और नंगे हाथों से बर्फ फोड़ते हुए उसने जाना कि उसके लिए तमाम खेल सपने की तरह हैं फिर वह फुटबाल ही क्यों न हो जो कि उसे बेहद पसंद था.


छह घंटे के काम के बदले उसे रोजाना महज 15 रु. मिलते थे. काम से छुट्टी मिलते ही वह घर की तरफ दौड़ पड़ती और स्कूल जाने को मचल पड़ती. इसकी एक वजह यह भी थी कि उसे वहां के मैदान पर फुटबाल खेलने को जो मिलता था. वैसे तो उसके जैसी कुछ और लड़कियां भी फुटबाल खेलती थीं, मगर गरीबी उसे स्कूल की दूसरी लड़कियों से अलग कर देती थी. इसी गरीबी के चलते एक रोज उसे पढ़ाई, फुटबाल और दोस्तों को छोड़ना पड़ा था. इसके बाद वह 12 घंटे काम करके रोजाना 30 रू. कमाने लगी. शक्ति के पिता को रोज-रोज काम नहीं मिलता था, लिहाजा घर चलाने के लिए उसकी मां को दूसरों के घरों में काम करना पड़ता था.


बदली ज़िंदगी
शक्ति से फुटबाल का खेल क्या छूटा उसकी जिंदगी से खुशियां ही गायब हो गईं. मानो उसका बचपन ही उजड़ गया. मगर उसके चेहरे पर खुशियां तब लौट आई जब वह एससीएसटीईडीएस यानी `स्लम चिल्ड्रन स्पोर्ट्स टेलेंट एजुकेशन डेवल्पमेंट सोसाइटी´ से जुड़ गई.

एससीएसटीईडीएस एक सामुदायिक संस्था है जो वहां की झोपड़पट्टियों के बच्चों को इकट्ठा करती है और नगर-निगम के मैदान पर फुटबाल खेलने के लिए प्रेरित करती है. दरअसल यह बच्चों के व्यवहार को जानने का पहला कदम होता है. यहीं से स्कूल छोड़ने वाले बच्चों के बारे में भी पता चलता है और उन्हें स्कूल से जोड़ा जाता है. शक्ति भी कुछ इसी तरीके से जुड़ी और यहां से उसे एक स्टॉर फुटबाल खिलाड़ी के तौर पर जाने जाना लगा.

एससीएसटीईडीएस के थंगराज कहते हैं "जब शक्ति स्कूल जाती थी तो उसके टीचर उसे मछुआरा समुदाय की होने की वजह से अक्सर अपमानित करते थे." संस्था ने उसे हौसला दिया और शक्ति के माता-पिता को इस बात के लिए राजी किया कि वह अपनी बेटी को एक बार फिर से नगर-निगम के स्कूल में भेजे.

थंगराज याद करते हैं, "इस बार शक्ति के माता-पिता ने उसकी पढ़ाई की कमियों को देखा और उसके आने वाले कल में संभावनाएं तलाशी. अब वह अपनी बेटी की पढ़ाई फिर से शुरू करवाने को उत्सुक थे." इसी विश्वास के साथ शक्ति के बड़े और छोटे भाईयों को भी स्कूल में भर्ती कराया गया. उनके भीतर पढ़ाई से लेकर खेल जैसी तमाम प्रतिभाओं का मूल्यांकन किया गया और उसके मुताबिक सबको मौका दिया गया.


शानदार गोल
एससीएसटीईडीएस ने शक्ति की मजबूरियों और जरूरतों को ध्यान में रखकर कदम बढ़ाया. मसलन, स्कूल जाने के लिए बस का किराया, यूनीफार्म, दिन का खाना और फुटबाल खेलने से जुड़ी जरूरतें. शक्ति की खेल प्रतिभा को देखकर एससीएसटीईडीएस ने उसके नियमित तौर पर फुटबाल के अभ्यास की व्यवस्था की. धीरे-धीरे उसके भीतर छिपी खेल प्रतिभा उभरकर सामने आने लगी और उसके भीतर से स्कूल को लेकर पैदा हुए सारे डर भी दूर हो गए. कुछ टीचर तो शक्ति के प्रशंसक और सहयोगी तक बन गए.

उसे नियमित प्रशिक्षण मिला जिसके चलते शक्ति ने अंडर-14 की राज्य स्तरीय फुटबाल टीम में अपनी जगह बनाई. बीते 4 सालों में उसने जिला और राज्य स्तर के कई मैच खेले हैं.

अब वह 18 साल की हो चुकी है. पांच साल पहले कालेज जाना उसके लिए सपना ही था जो अब हकीकत में बदल रहा है. उसका बड़ा भाई अब नौकरी करता है और उसने अपनी छोटी बहन को कालेज भेजने का फैसला लिया है. शक्ति अब भारत की महिला फुटबाल टीम में शामिल होकर अंतरराष्ट्रीय स्तर के मैच खेलना चाहती है. वाकई उसने अपनी जिदंगी में मिले मौकों को शानदार गोल में बदला है.
 
 
 
अस्मिना ने ऐसा सोचा न था
 
दो साल की छोटी-सी उम्र में अस्मिना को अपने माता-पिता के साथ बिहार के पूर्णिया जिले से पलायन करना पड़ा था. उसका परिवार काम की तलाश में दिल्ली आया और यहां-वहां की जद्दोजहद के बाद रंगपुरी कबाड़ी बस्ती में बस गया. यह जगह कूड़ा बीनने वाले बच्चों की झोपड़पट्टी के तौर पर जानी जाती है. अस्मिना भी अपने पिता के साथ इसी धंधे में हाथ बटाते हुए बड़ी होने लगी. पता ही नहीं चला कि कैसे उसके दिन गलियों और नुक्कड़ों पर पड़े घूरे के ढ़ेरों को साफ करते हुए बीत रहे हैं. इन ढेरों से वह प्लास्टिक और रद्दी की ऐसी चीजें बीनती जिन्हें फिर से तैयार किया जा सके.


गरीबी की वजह से अस्मिना सहित उसके पांचों भाई-बहन कूड़ा बीनने का काम करने को मजबूर थे. हर सुबह काम पर जाते वक्त वह देखती कि उसकी उम्र के दूसरे बच्चे उजले कपड़े पहनकर स्कूल जाते हैं. उसके लिए स्कूल की बात मानो किसी और दुनिया की बात थी, एक ऐसी दुनिया जो कचरे से भरी उसकी मलिन दुनिया से बिल्कुल जुदा थी. उसकी दुनिया में स्लेट पेंसिल की जगह कांच के टुकड़े और जंग लगी धातु जैसी चीजें थीं जिससे वह कभी-कभी जख्मी भी हो जाती थी. अस्मिना जैसे बहुत से बच्चे ऐसे ही कूड़ों की वजह से त्वचा और आंख से जुड़ी कई गंभीर संक्रमित बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं. उनके आसपास अपनी सुरक्षा के मुनासिब बंदोबस्त की बात तो छोड़िए उनके पैरों में जूते तक नहीं होते.

एक सामुदायिक संस्था बाल विकास धारा ने जब अस्मिना और उसके दोस्तों के लिए काम शुरू किया तो सबसे पहले यहां गैर औपचारिक केंद्र खोला. यह ऐसे बच्चों को स्कूल से जोड़ने वाला पुल साबित हुआ जो गरीबी और मजबूरी के चलते स्कूल नहीं जा पाते. इससे जुड़ने वाले बच्चों को पहली बार कहने-सुनने-समझने और सीखने को मिला. अस्मिना को यहां एक सुरक्षित और सुविधायुक्त दुनिया नजर आई.

इतना-सा ख्वाब है
दरअसल पढ़ाई की दुनिया से जुड़ने के बाद अब उसके पास आगे बढ़ने के लिए खुद को समर्थ बनाने का रास्ता था. उसकी छोटी बहन भी उसके साथ पढ़ने आने लगी. संस्था के सभी साथियों की मदद से अस्मिना और उसके बहुत सारे दोस्तों को स्थानीय नगर-निगम के स्कूल में भर्ती करवाया गया. गौर करने वाली बात यह है कि उसकी उम्र और लगन को देखते हुए उसे दूसरी कक्षा में दाखिला दिलवाया गया.

अस्मिना जैसी बहुत-सी लड़कियों में पढ़ने-लिखने की चाहत को लगातार बढ़ावा देने के लिए बाल विकास धारा ने भरपूर साथ दिया है. यहां पर बच्चों में बदलाव लाने के लिए उनकी पसंद- नापसंद, ताकत-कमजोरियों और सहूलियतों के बारे में जानकारियां जुटाई जाती हैं. बच्चे, उनके माता-पिता और टीचर आपस में बैठकर उनकी उलझनों को सुलझाते हैं और फिर बच्चों को नगर-निगम के स्कूल में भर्ती करवाने की मुहिम छेड़ी जाती है.

आज अस्मिना पांचवी कक्षा में है और पढ़ने में उसकी खासी दिलचस्पी है. बदलाव का पहाड़ा पढ़ते-पढ़ते अब वह मोटी-मोटी किताबों तक आ पहुंची है. उसका परिवार यह देखकर बहुत खुश होता है कि वह कूड़ा बीनने के बजाय स्कूल में पढ़ने जाती है. अस्मिना अब कहती है "मैं जो कुछ पढ़ रही हूं वह दूसरों को भी पढ़ाऊंगी." उसकी ऐसी बातों से परिवार वालों को लगता है कि वह टीचर बनना चाहती है. वाकई वह जो भी बनना चाहती हो मगर इतना तो तय है कि अस्मिना अब एक ऐसी दुनिया में दाखिल है, जहां सपने देखना मुमकिन हो गया है.


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8.3.10

उनकी आधुनिकता को मैं धिक्कारती हूं

तसलीमा नसरीन

पश्चिमी नारीवाद तो क्या प्राच्य के नारीवाद की भी मेरी खास समझ नहीं थी, लेकिन फिर भी बचपन से ही परिवार और समाज के अनेक उपदेशों और बंधनों को मैंने मानने से इनकार कर दिया या उन पर सवाल किए। मुझे जब बाहर मैदान में खेलने नहीं दिया जाता और मेरे भाइयों को खेलने दिया जाता था। ऋतुधर्म के समय मुझे जब अपवित्र बोला जाता। मुझसे कहा जाता कि मैं बड़ी हो गई हूं और बाहर निकलते समय काले रंग का बुरका पहन कर निकलूं। ऐसे हर मौके पर मैंने प्रश्न किए हैं।

रास्तों पर चलते समय अनजान लड़के जब मुङो अपशब्द कहते, दुपट्टे को खींच लेते या छेड़खानी की कोशिश करते तो मैंने प्रतिवाद किया है। जब मैंने देखा कि घर-घर में पति अपनी पत्नियों को पीट रहे हैं, पुत्री के जन्म के बाद स्त्री आशंकित हो रही है, मुझसे यह सब बर्दाश्त नहीं होता था। बलात्कार पीड़ित लड़कियों के लज्जित मुख को देख कर मैं वेदना कातर हुई हूं। वेश्या बनाने के लिए लड़कियों को एक शहर से दूसरे शहर, एक देश से दूसरे देश में बेचने की खबर सुनकर रोई हूं मैं। सिर्फ दो वक्त की रोटी के लिए वेश्यालयों में लड़कियों को यौन-उत्पीड़न सहने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

पुरुष चार-चार लड़कियों से विवाह कर उसे घर की नौकर बना रहे हैं। लड़की के रूप में जन्म लेने के कारण उत्तराधिकार के अधिकार से उसे वंचित किया जाता रहा है। मैं इसे नहीं मान सकी हूं। जब मैं देखती कि घर से निकलते ही लड़कियों को घर में घुसने की हिदायत दी जाती, पर पुरुष से प्रेम करने के अपराध में उसे जला कर मार दिया जाता, घर के आंगन में गड्ढा खोदकर उसे उस गड्ढे में डाल दिया जाता और उस पर पत्थर मारा जाता, तब मैं चीखती-चिल्लाती थी। किसी भी तर्क से, किसी भी बुद्धि से लड़कियों के ऊपर पुरुषों, परिवारों, समाज और राष्ट्र के अत्याचारों को मैं नहीं मान सकी हूं। उस समय मेरी इस वेदना, रुलाई, अस्वीकार, न मानना, स्तब्ध होना, न सोना और करुण चीत्कार को किसी ने नहीं देखा। देखा तब, जब मैंने लिखना शुरू किया।

मैं जिस समाज में बड़ी हुई हूं, वहां अनेक लोगों के मन में यह प्रश्न उठता था पर वे पुरुषवादियों के आगे नतमस्तक थे, परंतु मैं बाध्य नहीं हुई। मुझे किसी ने अबाध्य होना नहीं सिखाया। नारी अधिकारों की मांग के लिए बेटी फ्रिडान या रबीन मरम्यान पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती है। अपनी चेतना ही काफी होती है। पूर्व की नारियों ने बंद दरवाजों को खोलकर जब भी बाहर निकलने की कोशिश की है तब पूर्व के पुरुषवादी विचारवालों ने उन्हें दोषी ठहराया है और कहा है कि वे पश्चिम के नारीवाद का अनुकरण कर रही हैं।

नारीवाद पश्चिम की संपत्ति नहीं है। अत्याचारित, असम्मानित, अवहेलित नारियों के संगठित होकर नारी के अधिकारों के लिए जीवन की बाजी लगाकर अदम्य संग्राम करने का नाम नारीवाद है। पश्चिमी लड़कियों के जीवन के बारे में जानने पर यह पता चला कि उन्हें जीवन में कम यातना नहीं सहनी पड़ी। पूर्व की लड़कियों की तरह पश्चिम की लड़कियां भी शताब्दियों तक पुरुष, धर्म, नारी विरोधी संस्कारों की शिकार हुई हैं। धर्मान्ध लोगों ने उन्हें जीवित जला कर मार डाला। नारी विरोधी संस्कारों ने उनके शरीर को दासता की जंजीरों में जकड़ दिया, उनको यौन वासना की कृतदासी बनाकर रख दिया।

लड़की होने का अपराध सभी लड़कियों को एक समान ही ङोलना पड़ता है, चाहे वह पूर्व की हो पश्चिम की, उत्तर की या दक्षिण की हो। पश्चिम की लड़कियों ने एकजुट होकर अपने अधिकारों के लिए आंदोलन शुरू किया था, उन्हें उस आंदोलन को एक लम्बे समय तक जारी रखना पड़ा था। वोट देने के अधिकार की मांग करने पर उन्हें अपमानित होना पड़ा है। पुरुषों ने उन पर थूका है, गाली दी है, तब उन्होंने बार-बार एक ही बात दोहराई है कि ‘इस वैषम्य को दूर कर जैसे भी हो, हमें हमारा अधिकार देना होगा’, लेकिन आंदोलन के बाद जो कुछ उन्हें मिला है वह पर्याप्त नहीं है।

गर्भपात के अधिकार के लिए लड़कियां आज भी लड़ रही हैं, बलात्कार के विरुद्ध वे आज भी प्रतिवाद कर रही हैं, समान मजदूरी की मांग कर रही हैं, और संसद में महिलाओं की संख्या बढ़ाने को लेकर आज भी आंदोलनरत हैं। आश्रय केन्द्रों में आज भी उत्पीड़ित लड़कियों की भीड़ लगी है। हां पश्चिम की गोरी और सुनहरे बालों वाली लड़कियों को भी प्रताड़ित होना पड़ता है और आज भी अभाव के कारण उन्हें देह बेचने के लिए रास्ते पर आना पड़ता है। समान अधिकार या मानवाधिकार का कोई पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण नहीं होता। लड़कियां सब देशों में, सब काल में उत्पीड़ित हुई हैं।

यह बात प्राय: उठती है कि मैंने धार्मिक संकीर्णता पर चोट की है। धर्म के साथ नारीवाद का विरोध बहुत पुराना है, नारी के अधिकार के संबंध में जिसको थोड़ी जानकारी है, वह भी यह जानता है कि धर्म मूल रूप से पुरुषवादी है। धर्म में वर्ण का उपयोग करके पुरुषसत्ता को बचाए रखने का षड्यंत्र बहुत पुराना है। बर्बरता के विरोध में हमेशा सभी सांस्कृतिक लोगों ने प्रतिवाद किया है। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर और राम मोहन राय को भी हिन्दू धर्म की अनुभूति पर आक्रमण करना पड़ा था।

कुछ कूपमंडूक लोगों का कहना है कि मैंने मुस्लिम धर्म को आघात पहुंचाया है। वे कहते हैं मेरा बयान पश्चिम का बयान है और पश्चिम की आंखों से प्राच्य को देखने का बयान है। सहिष्णुता के नाम पर मुस्लिम मौलवियों को इस अर्थहीन, तर्कहीन दावे को तथाकथित भारतीय संदर्भ में ‘सेकुलर’ नामधारी प्राय: उच्चारण करते हैं। उन लड़कियों की बातों को ‘पाश्चात्य का बयान’ कह कर जिन लोगों ने नीचा दिखाया है, उनकी आधुनिकता को मैं धिक्कारती हूं।

मैंने क्रिश्चियन, यहूदी धर्म तथा अन्य और भी नारी विरोधी धर्मो की निन्दा की है, लेकिन उसके बाद भी किसी ने इसे लेकर मेरे ऊपर किसी प्रकार का आरोप नहीं लगाया। गैर मुस्लिम धार्मिक अनुभूति पर आक्रमण करने के बावजूद किसी ने मेरी मृत्यु का फतवा जारी नहीं किया। मैंने मानवतावाद को अपने विश्वास के ऊपर चुन लिया है। हमें इस्लाम धर्म के सुधारवादी के रूप में देखा जाता है, लेकिन ऐसी भूल करना उचित नहीं है। मैं रिफार्मर नहीं हूं । मैं किसी समुदाय की नहीं हूं। मेरा समुदाय धर्ममुक्त मानवतावाद का है।

(लेखिका मशहूर कथाकार हैं। लेख में व्यक्त विचार लेखिका के निजी विचार हैं।)

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हिंदुस्तान से साभार।
http://epaper.hindustandainik.com/ArticleImage.aspx?article=08_03_2010_010_015&mode=1

6.3.10

सरकारी कागजों में स्लम का अकाल

शिरीष खरे, मुंबई से

अगर कोई पूछे कि मुंबई महानगर में झोपड़ बस्तियों को हटाने की दिशा में जो काम हो रहा है, उसका क्या असर पड़ा है तो इस सवाल का एक जवाब ये भी हो सकता है- आने वाले दिनों में झोपड़ बस्तियों की संख्या बढ़ सकती है.

मुंबई महानगर का कानून है कि जो बस्ती लोगों के रहने लायक नहीं है, उसे स्लम घोषित किया जाए और वहां बस्ती सुधार की योजनाओं को अपनाया जाए. मगर प्रशासन द्वारा बस्तियों को तोड़ने और हटाने का काम तो जोर-शोर से किया जा रहा है लेकिन इस कार्रवाई से पहले महानगर की हज़ारों बस्तियों को स्लम घोषित करने से सरकार लगातार बच रही है. ज़ाहिर है, ऐसे में सरकार बड़ी आराम से सुधार कार्रवाई से बच जा रही है. लेकिन बुनियादी सहूलियतों के अभाव में जीने वाली बस्तियों की हालत और बिगड़ती जा रही है और प्रशासन की यह अनदेखी जहां कई नई बस्तियों को स्लम बनाने की तरफ ढ़केल रही है, वहीं कुछ नए सवाल भी पैदा कर रही है.

महाराष्ट्र स्लम एरिया एक्ट, 1971 के कलम 4 के आधार पर मुंबई महानगर की बस्तियों को स्लम घोषित किया जाता रहा है. स्लम घोषित किए जाने के मापदण्ड बस्ती में रहने लायक हालतों पर निर्भर करते हैं. जैसे, घरों की सघनता, पानी, बिजली, रास्ता, नालियों और खुली आवोहवा का हाल कैसा है. लेकिन ये सारे मापदंड किनारे करके बस्तियों को तो़ड़ने की कार्रवाई जारी है.

यहां के मंडाला, मानखुर्द, गोवाण्डी, चेम्बूर, घाटकोपर, मुलुंद, विक्रोली, कुर्ला, मालवानी और अंबुजवाड़ी जैसे इलाकों की तकरीबन 3,000 स्लम बस्तियों की आबादी बेहाल है. लेकिन बस्ती वालों की लगातार मांग के बावजूद उन्हें स्लम घोषित नहीं किया जा रहा है.


कांक्रीट के जंगल में जंगल राज
महाराष्ट्र स्लम एरिया एक्ट, 1971 के कलम 5 ए के आधार पर जिन बस्तियों को स्लम घोषित किया जा चुका है, उनमें पीने का पानी, बिजली, गटर, शौचालय, स्कूल, अस्पताल, समाज कल्याण केन्द्र और अच्छे रास्तों की व्यवस्था होना अनिवार्य है. यहां गौर करने लायक एक बात यह भी है कि कानून में बुनियादी सहूलियतों को मुहैया कराने के लिए कोई कट-आफ-डेट का जिक्र नहीं मिलता है. मगर इन दिनों प्रशासन के बड़े अधिकरियों तक की जुबानों पर कट-आफ-डेट की ही चर्चा चलती है. जबकि यह अमानवीय भी है और गैरकानूनी भी.

इसके अलावा इसी कानून में यह भी दर्ज है कि बस्ती सुधार योजनाओं को रहवासियों की सहभागिता से लागू किया जाए. मगर ग्रेटर मुंबई, भिवण्डी, उल्लासनगर, विरार और कुलगांव-बदलापुर जैसे इलाकों की तकरीबन 15,00 स्लम घोषित बस्तियों के लाखों रहवासियों को ऐसी योजनाओं से बेदखल रखा जा रहा है.

‘घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन’ के सिम्प्रीत सिंह कहते हैं कि ‘‘खानापूर्ति के लिए हर साल केवल 15-20 बस्तियों को स्लम घोषित कर दिया जाता है. जो यहां के झोपड़पट्टी परिदृश्य को देखते हुए न के बराबर है.’’

प्रशासन ऐसा क्यों कर रही है, के सवाल पर सिम्प्रीत सिंह कहते हैं ‘‘एक तो विस्थापन की हालत में पुनर्वास से बचने के लिए. दूसरा इसलिए क्योंकि अगर बड़ी तादाद में बस्तियों को स्लम घोषित किया जाता है, तो कानूनों में मौजूद बुनियादी सहूलियतों को भी तो उसी अनुपात में देना पड़ेगा. यहां के भारी-भरकम मंत्रालय, उनके विभाग, उनके बड़े-बड़े अधिकारी इतनी जिम्मेदारी लेना नहीं चाहते. फिर यह भी है कि प्रशासन अगर बस्तियों को स्लम घोषित करते हुए, जहां-तहां बस्ती सुधारों के कामों को शुरू करती भी है, तो बस्तियों में बुनियादी सहूलियतों को पहुंचाने वाले बिल्डरों का धंधा चौपट हो जाएगा. इसलिए यहां से बिल्डरों और भष्ट्र अधिकारियों के बीच गठजोड़ की आशंकाएं भी पनपती हैं.’’

2001 के आंकड़ों के मुताबिक मुंबई महानगर की कुल आबादी 1 करोड़ 78 लाख है, जिसके 20 इलाकों की झोपड़पट्टियों में 67 लाख 21 हजार से भी ज्यादा लोग रहते हैं, जो कुल आबादी का 37.96% हिस्सा है. इसी तरह यहां घरेलू मजदूरों की तादाद 66 लाख 16 हजार हैं, जो कुल आबादी का 37.07% हिस्सा है. कुल घरेलू मजदूरों में से यहां 3 लाख 76 हजार सीमान्त मजदूर हैं. इन तथ्यों की बुनियाद पर कहा जा सकता है कि मुंबई महानगर की इतनी बड़ी आबादी (37.96%) और इतने सारे घरेलू मजदूरों (37.07%) को आवास देने के लिए कम से कम 25% जगह का हक तो होना ही चाहिए.

यह गौरतलब है कि मुंबई जैसे महानगर का वजूद उन मजदूरों के कंधों पर है जिनके चलते राज्य सरकार को हर साल 40,000 करोड़ रूपए का टेक्स मिलता है. इसके बदले लाखों मजदूरों के पास घर, घर के लिए थोड़ी-सी जमीन, थोड़ा-सा दानापानी, थोड़ी-सी रौशनी भी नहीं है. जिनके पास है, उनसे भी इस हक़ से वंचित किया जा रहा है.

 
कानून दर कानून बस कानून
महाराष्ट्र लेण्ड रेवेन्यू कोड, 1966 के कलम 51 के आधार पर अतिक्रमण को नियमित किए जाने का प्रावधान है. एक तरफ इंदिरा नगर, जनता नगर, अन्नाभाऊ साठे नगर और रफीकनगर जैसी बहुत सी पुरानी बस्तियां हैं, जहां के रहवासियों ने यह इच्छा जाहिर की है कि उनके घर और बस्तियों को नियमित किया जाए. इसे लेकर जो भी मूल्यांकन तय किया जाएगा, बस्ती वाले उसे चुकाने को भी तैयार है. इसके बावजूद प्रशासन द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है. मगर कई रसूख और पैसे वालों की ईमारतों के अतिक्रमण को नियमित किया गया है और कल तक सरकारी नोटिसों के निशाने पर रही ये ईमारतें अब वैध हैं.

2007 को ‘घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन’ के बैनर तले, मंडाला के रहवासियों ने जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन के तहत बस्ती विकास का प्रस्ताव महाराष्ट्र प्रशासन को सौंपा था. इसे लेकर म्हाडा(महाराष्ट्र हाऊसिंग एण्ड एरिया डेव्लपमेंट एथोरिटी), मंत्रालय और बृहन्मुंबई महानगर पालिका के बड़े अधिकारियों से कई बार बातचीत भी हुई है. मगर आज तक इस प्रस्ताव को न तो मंजूरी मिली है और न ही प्रशासनिक रवैया ही साफ हो पाया है.

इसी साल‘घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन’ के बैनर तले, बांद्रा कलेक्टर के कमरे में कलेक्टर के साथ बैठक की गई थी. इसमें कलेक्ट्रर विश्वास पाटिल ने यह आदेश दिया था कि अंबुजवाड़ी के जो रहवासी 1 जनवरी, 2000 से पहले रहते हैं, उन्हें घर प्लाट देने के लिए उनकी पहचान की जांच जल्दी ही पूरी की जाएगी, जो अभी तक पूरी नहीं हो सकी है. दूसरी तरफ नई बसाहट के रहवासी आज भी पानी, शौचालय और बिजली के लिए तरस रहे हैं. विरोध करने पर उन्हे मालवणी पुलिस स्टेशन द्वारा जेल में डाल दिया जाता है.

2009 को ‘घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन’ के बैनर तले, महाराष्ट्र लेण्ड रेवेन्यू कोड, 1966 के कलम 29 के आधार पर, जय अम्बेनगर जैसी कई बस्तियों में पारधी जमात के रहवासियों ने बांद्रा कलेक्टर को एक पत्र भेजा, जिसमें उन्होंने जमीन के प्रावधान की मांग की और यह भी गुहार लगाई कि जब तक ऐसा नहीं होता तब तक उनकी बस्तियों को न तोड़ा जाए. दरअसल, इस बंजारा जमात को अलग-अलग जगह से बार-बार बेदखल किया जाता रहा है और अब वे इस तरह की जहालत से बचना चाहते हैं.

भ्रष्टन की जय हो
फिलहाल झुग्गी बस्ती पुनर्वास प्राधिकरण में ‘पात्र’ को ‘अपात्र’ और ‘अपात्र’ को ‘पात्र’ ठहरा कर भष्ट्राचार का खुला खेल चल रहा है. ऐसा बहुत सारे मामलों से उजागर हुआ है कि ‘पात्र’ की सहमति लिए बगैर झूठे सहमति पत्र भरे गए हैं. चेंबूर की अमीर बाग, अंधेरी की विठ्ठलवाड़ी और गोलीबार तो ऐसे भ्रष्टाचार के मामलों से भरे पड़े हैं. कई मामलों में तो अधिकारियों, राजनेताओं की दिलचस्पी और हस्तक्षेप भी जांच के विषय हो सकते हैं.

महानगर में पुनर्वास दिए बगैर कोई भी विस्थापित नहीं हो सकता- ऐसा महाराष्ट्र स्लम एरिया एक्ट, 1971 से लेकर राष्ट्रीय आवास नीति और महाराष्ट्र आवास नीति, 2007 तक में कहा गया है. इसके बावजूद जहां नेताजी नगर, म्हात्रे नगर और जय अम्बे नगर जैसी बस्तियों को तोड़ा गया है, वहीं अन्नाभाऊ साठे नगर को तोड़े जाने का नोटिस जारी हुआ है. उधर अंबुजवाड़ी बस्ती के रहवासियों को नोटिस दिए बगैर ही सब कुछ ध्वस्त कर दिये जाने का डर दिखाया गया है.


सपनों के शहर में घर के सपने
मुंबई में गरीबों के लिए आवास उनकी हैसियत से बहुत दूर हो चुके हैं. मुंबई में किराए के घरों की मांग और पूर्ति का अंतर ही इतना चौड़ा होता जा रहा है कि हर साल 84,000 अतिरिक्त घरों की मांग होती हैं, जिसकी पूर्ति के लिए खासतौर से बिल्डरों की फौज तैनात है, जो जैसे-तैसे हर साल केवल 55,000 घरों की व्यवस्था ही कर पाते हैं. इसके चलते यहां जमीनों और जमीनों से आसमान छूते आशियानों की कीमतों को छूना मुश्किल होता जा रहा है.

बांद्रा, जुहू, बर्ली, सांताक्रूज, खार जैसे इलाकों का हाल यह है कि एक फ्लेट कम से कम 4-10 वर्ग प्रति फीट प्रति महीने के भाड़े पर मिलता है, जो उच्च-मध्यम वर्ग के लिए भी किसी सपने से कम नही है. मगर बिल्डरों ने उच्च-मध्यम वर्ग के सपनों का पूरा ख्याल रखा है, उनके लिए नवी मुंबई, खाण्डेश्वर, कोपोली, पनवेल और मीरा रोड़ जैसे इलाकों में 25 से 45 लाख तक के घरों की व्यवस्था की है, जिनकी कीमत कमरों की संख्या और सहूलियतों पर निर्भर है.

नियमानुसार रोज नई-नई बसने वाली बिल्डिंगों और ईमारतों के आसपास गरीबों के लिए आवास की जगह नहीं छोड़ी जा रही है. बिल्डरों द्वारा महानगर की शेष जगहों को भी मौटे तौर पर दो तरीके से हथियाया जा रहा है, एक तो अनगिनत विशालकाय अपार्टमेंट खड़े करके, दूसरा इनके आसपास कई सहूलियतों को उपलब्ध कराने का कारोबार करके, जैसे: बच्चों के लिए भव्य गार्डन, मंनोरंजन पार्क, कार पार्किंग, प्रभावशाली द्वार, बहुखण्डीय सिनेमाहाल इत्यादि. इन सबसे यहां की कुल जगह पर जहां एक मामूली सी आबादी के लिए एशोआराम का पूरा बंदोबस्त हो रहा है, वहीं बड़ी आबादी के बीच रहने की जगह का घनघोर संकट भी गहराता जा रहा है.

अब उस पर आफत ये है कि जो पहले से बसे हुए हैं, उन्हें भी हटाया जा रहा है. महानगर के कारोबारी हितों के लिए और ज्यादा जगह हथियाने के चक्कर में गरीबों के इलाकों को बार-बार तोड़ा जा रहा है. फिल्म और गानों तक को लेकर पूरे महाराष्ट्र को सर पर उठा लेने वाले राजनीतिज्ञों की लिस्ट में गरीबों के बेघर होने का मामला दूर-दूर तक नहीं है. हां, इन गरीबों के बल पर राजनीति की रोटी सेंकने वाले कानून की दुहाई देते ज़रुर नज़र आते हैं. ये और बात है कि इस क़ानून की परवाह किसी को नहीं है. न प्रशासन को और न ही सरकार को.

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3.3.10

बजट-2010 : प्राथमिक शिक्षा पर अपेक्षा से बहुत कम आवंटन

शिरीष खरे

बजट-2010 में प्राथमिक शिक्षा पर अपेक्षा से बहुत कम आंवटित हुआ है। अपेक्षा यह की जा रही थी कि इस बार कम से कम 71,000 करोड़ रूपए आंवटित होंगे, मगर प्राथमिक शिक्षा में 26,800 करोड़ रूपए से 31,300 करोड़ रूपए की ही बढ़ोतरी हुई है। चाईल्ड राईटस एण्ड यू द्वारा देश के सभी बच्चों के लिए निशुल्क और बेहतर गुणवत्ता वाली शिक्षा की मांग की जाती रही है, संस्था यह मानती है कि अभी तक बच्चों के लिए जो धन खर्च किया जाता रहा है वह जरूरत के हिसाब से बहुत कम है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि संस्था का 6700 समुदायों में काम करने का तर्जुबा यह कहता है कि देश में गरीबी का आंकलन वास्तविकता से बहुत कम हुआ है। बहुत से बच्चे ऐसे हैं जो गरीबी रेखा के ऊपर होते हुए भी हाशिए पर हैं। यानि एक तो हम गरीबी को वास्तविकता से बहुत कम आंक रहे हैं और उसके ऊपर आंकी गई गरीबी के हिसाब से भी धन खर्च नहीं कर रहे हैं, ऐसे में स्थितियां सुधरने की बजाय बिगड़ेगी ही।

हालांकि चाईल्ड राईटस एण्ड यू ने बजट 2010 में महिला और बाल विकास की योजनाओं के आंवटन में बढ़ोतरी करने और 1,000 करोड़ रूपए के राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा कोष बनाए जाने का स्वागत किया है। मगर संस्था के मुताबिक सरकार को बच्चों की गरीबी दूर करने के लिए और अधिक निवेश करने की जरूरत थी। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकारी आकड़ों के लिहाज से देश की 37.2% आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। जो दर्शाती है कि देश में गरीबी बहुत तेजी से बढ़ रही है। यानि जितना हम सोचते हैं उससे कहीं ज्यादा बच्चे गरीबी में जीने को मजबूर हैं। चाईल्ड राईटस एण्ड यू की सीईओ पूजा मारवाह यह मानती है कि ``बच्चों की गरीबी उनका आज ही खराब नहीं करती है बल्कि ऐसे बच्चे बड़े होकर भी वंचित के वंचित रह जाते हैं।´´ इसलिए सरकार को अपने बजट में बच्चों की बढ़ती संख्या को ध्यान में रखते हुए उनके खर्च में उचित बढ़ोतरी करनी चाहिए थी। मगर भारत सरकार जीडीपी का तकरीबन 3% शिक्षा और तकरीबन 1% स्वास्थ्य पर खर्च करती है, जबकि विकसित देश जैसे अमेरिका, बिट्रेन और फ्रांस अपने राष्ट्रीय बजट का 6-7% सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं।

हमारे देश में शिक्षा के अधिकार का कानून है जो देश के सारे बच्चों को निशुल्क और बेहतर गुणवत्ता वाली शिक्षा पहुंचाने के मकसद से तैयार हुआ है। मगर सार्वजतिक शिक्षा की बिगड़ती स्थितियों को देखते हुए, बहुत से गरीब बच्चे स्कूल से दूर हैं। ऐसे में अगर बजट में शिक्षा पर अपेक्षा से बहुत कम खर्च किया जाएगा तो शिक्षा के अधिकार का कानून बेअसर ही रहेगा। आज देश के बच्चों ही हालत यह है कि लगभग 40% बस्तियों में प्राथमिक स्कूल नहीं हैं। 48% बच्चे प्राथमिक स्कूलों से दूर हैं। 1.7 करोड़ बाल मजदूर हैं। 5 साल से कम उम्र के आधे बच्चे सामान्य से कमजोर हैं। 77% लोग एक दिन में 20 रूपए भी नहीं कमा पाते हैं। ऐसे में अगर सरकार बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा पर उचित खर्च नहीं करेगी तो एक शिक्षित और स्वस्थ्य भारत के भविष्य से जुड़ी उम्मीदों पर पानी फिर जाएगा।

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