22.7.10

पारधी गुनहगार क्यों ?

शिरीष खरे


एक बार बीड़ जिले के पाथरड़ी तहसील में कहीं चोरी हुई. कई महीने बीते, मगर चोर का अतापता न चला. आष्टी तहसील से थोड़ी दूरी पर चीखली गाँव हैं. इसी गाँव के पास घूमते-फ़िरते रहवसिया नाम का पारधी परिवार आ ठहरा. बस फिर क्या था, पुलिस ने उसे ही इतनी दूर की वारदात में अंदर डाल दिया. जहाँ रहवसिया दो महीनों तक जेल में रहा, वहीं गाँव में ऊँची जाति वाले उसके परिवार को आकर धमकाते और बोलते कि ज़ल्द से ज़ल्द यहाँ की ज़गह ख़ाली कर दो. जब वह जेल से छूटकर अपने ठिकाने पर आया तो ऊंची ज़ाति वालों ने उसे रस्सियों से बांध दिया. उससे कहा गया कि तुम लोग चोर और गांव के लिए अपशगुन होते हो.

एक बार राजन गांव में वास्तुक काले की पत्नी विमल ख़ेत में काम कर रही थी. पास के थाने के इंस्पेक्टर ने आकर बताया कि उसने सोने की पट्टी चुराई है. थाने चलना पड़ेगा. विमल के विरोध करने पर इंस्पेक्टर बोला- यह औरत कुछ तेज मालूम देती है और सोने की पट्टी हो न हो उसकी साड़ी के पल्लू में है. आज के दुःशासन बने इंस्पेक्टर ने दोपद्री का पल्लू खींच डाला.


एक बार धिरणी के पारधी नौज़वान गोकुल को चोरी के शक में धर दबोचा गया. गोकुल समझ नहीं पाया कि आखिर उसे क्यों पकड़ा गया था. वह जिस सुबह छूटा, उसी शाम फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. इसे पारधी आदमी की मानसिक स्थिति के तौर पर देखा जा सकता है.



पारधी यानी गुनहगार
कभी पारधी यानी पारध का अर्थ शिकार करने वाला था. मगर अब पारधी का मतलब गुनहगार हो गया है. पारधी एक ज़माने में राजा के यहां शिकार के जानकार के तौर पर जाने जानी वाली ज़मात थी. लेकिन देखते ही देखते इसे इतिहास, मिट्टी, मिथकों, क़ायदे क़ानूनों और अख़बारों में एक ‘गुनहगार’ ज़मात में बदल दिया गया.

दरअसल, अंग्रेज जब यहाँ से गए तो बहुत कुछ छोड़कर गए और पारधियों से जुड़ा यह लेबल भी उन्हीं में से एक है. इतिहास के ज़ानकार बताते हैं कि पारधियों ने तो बाहरियों को सबसे पहली और सबसे कड़ी, सबसे बड़ी चुनौतियाँ दी थीं. मराठवाड़ा के राजा पहले निज़ाम से हारे और उसके बाद अंग्रेजों से हारे थे. मगर उन राजाओं के लिए लड़ने वाले पारधियों ने कभी हार नहीं मानी थी. क्रांतिगाथा की पंक्तियाँ बताती हैं कि यह जंगलों में इधर-उधर हो गए और इन्होंने एक नहीं, कई-कई छापामार लड़ाईयाँ लड़ीं और जीतीं थीं. इसलिए मराठवाड़ा के जनमानस में अब भी कहीं-कहीं पारधियों की वीरता से जुड़े कुछ-कुछ क़िस्से बिखरे पड़े हैं.

अंग्रेज जब पारधियों की छापामार लड़ाइयों से हैरान-परेशान हो गए तो उन्होंने ‘गुनहगार जनजाति अधिनियम’ के तहत पारधियों को भी ‘गुनहगार’ ज़मात की सूची में डाल दिया. अंग्रेज गये और देश में आज़ादी आई मगर आज़ादी के बाद भी कानून खास कर पुलिस का नज़रिया नहीं बदला.

नाकाम सरकार
1924 में अंग्रेज हुकूमत द्वारा कथित तौर से ऐसे गुनहगारों के लिए देशभर में 52 बसाहट बनी थीं. सबसे बड़ी गुनहगार बसाहट शोलापुर में थी. मगर 1949 में यानी आज़ाद हिन्दुस्तान में सबसे पहले बालसाहेब खेर ने शोलापुर सेंटलमेंट का तार तोड़ा. 1952 में बाबासाहेब अंबेडकर ने गुनहगार बताने वाले अंग्रेजों के कानून को रद्द किया. 1960 में खुद जवाहरलाल नेहरू शोलापुर आए और गुनहगार घोषित ज़मातों से जुड़े मिथकों को तोड़ने के मद्देनज़र काफ़ी-कुछ साफ़-साफ़ किया.

मगर उसके बावजूद पारधी से जुड़े मिथकों को तोड़ने के के नज़रिए से राज्य सरकार अब तक नाकाम ही रही है, और आज भी मराठवाड़ा के किसी गाँव में ज्यों ही कोई चोरी होती है, पुलिस वाले सबसे पहले पारधियों की ख़ोज शुरु कर देते हैं. पारधियों को हिरासत में लेने वाली पुलिस इतने गैरकानूनी तरीके अपनाती है कि जो पुलिस को खुद अपराधी की श्रेणी में खड़ा कर दे लेकिन आखिर पुलिस के आगे किसकी चले?

आम धारणा यही है कि पारधी तो बस 'चोर' ही होते हैं. अगर थोड़ी देर के लिए ऐसा मान भी लिया जाए तो भी क्या उन्हें चोरी के दलदल से निकालना व्यवस्था का काम नहीं होना चाहिए. इस काम में जनता के साथ-साथ पुलिस का ख़ास रोल हो सकता है. मगर यह दोनों तो पारधियों को 'चोर' से ऊपर देखना भी नहीं चाहते. यही नज़रिया अपराधीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा देता है, जो किसी भी सरल और ईमानदार आदमी को चोर' चोर' कहकर अपराधी ठहरा, बना सकता है. यह नज़रिया साफ़ किए बगैर अपराध के वर्चस्व का ख़ात्मा करना मुश्किल होगा.



इतिहास बस पन्नों में
हम थोड़ा सा फिर इतिहास में झाँके और सोचे कि अगर पारधी रखवाली के काम के नहीं होते तो राजा उन्हें अपना सुरक्षा सलाहकार क्यों बनाते ? जैसे राजा कहता कि मुझे शेर पर सव़ार होना है तो पारधी शेर को पकड़ते और उसे पालतू बनाते. एक तो शेर को ज़िंदा पकड़ना ही बहुत मुश्किल, ऊपर से उसे पालतू बनाना तो और भी मुश्किल था. मगर वक़्त का तकाज़ा देखिए, आज के पारधी शासन की दहशत से परेशान हैं. यह जंगल की तरफ़ आती गाड़ियों को देखकर भागते हैं. इन्हें लगता है कि आसपास कोई वारदात हुई होगी जो पुलिस पकड़ने आ रही है.

कथाओं से भरे इस विशाल देश में भले ही पारधी ज़मात का इतिहास गौरवगाथा का रहा हो, मगर फ़िलहाल तो उनकी पीड़ाओं का ऐसा ग्रन्थ लिखा जा सकता है जिसकी जवाबदारी कोई नहीं लेना चाहता और जिसमें संकट को हरने की खोज भी भविष्य में दूर-दूर तक कुछ नहीं दिखलाई देती है.

सबसे बुरा तो पारधी बच्चों का स्कूल से बाहर रहना है, जिसके चलते अगली पीढ़ी का आने वाला कल भी काले अंधियारे में डूबा हुआ लगता है. ऐसे में इन बच्चों को यह सपना दे पाना कैसे संभव है कि देखो- पुलिस और लोग तुम्हारे पीछे नहीं पड़े हैं, वह तो तुम्हारे साथ खड़े हैं, और यह देखो- वह तुमसे हाथ मिलाना चाहते हैं ?

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20.7.10

तिरूमली का पता ठिकाना कहां है ?

शिरीष खरे, मुंबई से



"क्या कह रहे हो, घर, बिजली, पानी के बारे में कभी सोचा है...अरे सोचने से सब मिल थोड़ी जाता है।" - ऊँची आवाज़ में सुनने वाली गुरिया गायकबाड़ ने ऐसा कहा था। तिरूमली ज़मात की यह बुजुर्ग औरत बीते साल सर्दी के मौसम की ज़ल्दी ढ़लती शाम को उस्मानाबाद के कलंब तहसील में टकराई थीं।






महाराष्ट्र के गाँवों और शहरों के रास्तों के बीच भटक रही तिरूमली ज़मात के पास अपना कोई पता ठिकाना नहीं होता है। यह अपने आराध्य देव यानी नंदी बैल के सिर पर महादेव-बाबा की मूर्ति, गले में घण्टी और कमर में रंग-बिरंगा कपड़ा बाँधने के बावजूद मटमैली ज़िन्दगी जी रहे हैं। विभागीय कार्यालयों और उसके भीतर बैठे कर्मचारियों के सामने हमेशा से अदृश्य रहने वाली ऐसी ज़मात वालों के नाम कभी मतदाता सूची में नहीं चढ़ पाते हैं...

हक से बेखबर
एक तरफ़ जहाँ मतदाता कार्ड, बीपीएल कार्ड और राशन कार्ड के अभाव में यह देश के नागरिक नहीं कहलाये जा सकते हैं तो दूसरी तरफ़, गाँव वाले इन्हें एक जगह पर चार दिनों से ज्य़ादा न तो ठहरते देखते हैं, और न ही ठहरने देते हैं। इसलिए अपनी आबादी का पूरा पता न तो तिरूमलियों को पता रहता है, और न ही राज्य-सरकार को ही इसका थोड़ा-बहुत अंदाज़ा रहता है। कुल-मिलाकर इनके हिस्से के किस्से, तर्क, आकड़े भी किसी एक ठिकाने पर न मिलकर बिखरे-बिखरे पड़े रहते हैं।

तिरुमली ज़मात के आसपास बुने जिस पूर्वाग्रहों ने उन्हें परदेशी बनाया हुआ है, ज़रूरी है कि सबसे पहले उन पूर्वाग्रहों को तोड़कर देखा जाए- अव्वल तो एक आम आदमी की तरह देखा जाए और उसके बाद एक आम हिन्दुस्तानी की तरह देखा जाए। इन पूर्वाग्रहों में सबसे पहला सवाल देश की राजनीति में उनकी हिस्सेदारी का सवाल है।

कहते हैं कि देश चुनाव से बनता है, और जनता अपने मत से अपनी तक़दीर ख़ुद बना सकती है। मगर जब ज़्यादातर तिरूमली ज़मात वालों के नाम ही मतदाता सूची से लापता हैं तो यह अपनी तक़दीर बदले भी कैसे बदले, और बहुमत आधारित व्यवस्था की कोई भी पार्टी वाला इनके क़रीब आए भी तो क्यों आए, और इनके लिए न्याय के दरवाज़े तक पहुँचे भी तो क्यों पहुँचे ?

यह सीधा-सा साधा-सा सच है कि चुनाव के बाद भी तो बहुत सारे मुद्दे भुला दिए जाते हैं, और चुनाव का दायरा सिकुड़ कर रह गया है। मगर तिरूमली ज़मात वालों के मुद्दे तो चुनाव के वक़्त भी शामिल नहीं हो पाते हैं। जबकि शहर के मुकाबले गाँव में मतदान ज्य़ादा हो रहा है और हाशिए पर लेटा एक आम आदमी भी अपने मत का वजन जान रहा है, तो यहाँ पहला सवाल यही है कि अगर तिरुमली लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से ही बाहर बैठे रहेंगे, तो कौन से धरातल पर लोकतांत्रिक हकों को पाने की उम्मीद में खड़े हो सकेंगे ?

और ऐसे हर सवालिया निशान या धोखे के आगे का हाल यह है कि यहाँ तिरूमली ज़मात वालों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है/इनके बच्चे पढ़-लिख नहीं सकते हैं/इनके हाथों में राशनकार्ड नहीं रहते हैं/ इनके नाम गरीबी रेखा के नीचे से कोरे रहते हैं/सरकारी अस्पताल में अपनी बीमारियों का इलाज या सहकारी बैंक से लोन लेने का सवाल दरअसल मीलों दूर का सवाल लगता है/ईज्जत, आत्मनिर्भर या बराबरी की दुनिया में जीने जैसी बातें कल्पना की ऊँची छलांगें मारने जैसी लगती हैं/और इनकी रज़ामंदी से ग्रामसभा का चलना तो किसी अतिशोयक्ति अंलकार से कम नहीं लगता है। सवाल-दर-सवाल लगता है जैसे इन्हें परदेशी समझना कोई सामाजिक मान्यता सी बन गई हो।

लालटेन की मद्धिम रोशनी में फ़टे-पुराने कपड़ों से लिपटी गृहस्थी लटकाने, गाना-बज़ाने के बीचोंबीच तिरुमली जितनी जगह/सहूलियतें अपने और अपने बच्चों और बूढों को देते हैं, उतनी ही जगह/सहूलियतें अपने साथ चलने वाले अपने गाय, बछड़े, कुत्ते, बकरियों को भी देते हैं। हमेशा साथ रहने वाली सादगी लिए, यह बहुत सारे झुण्डों के साथ, महाजीवन की छोटी-छोटी खुशियाँ लिए, बहुत पास-पास और पंक्तिनुमा तरीके से चलते हैं, और रोटीनुमा आटा-नमक तक को साझा करते हैं, यह तो इनकी आपसी जुड़ावों और हिलीमिली जीवनशैली से ओतप्रोत संस्कृति की तरफ़ एक इशारा भर है...

सफर के सन्नाटे में
मगर सच्चाई यह भी है कि आमतौर पर लोग दर-दर रोटी मांगकर पेट भरने को ही इनका काम समझ लेते हैं। जबकि दान देने-लेने के रिवाज़ को कमज़ोर किए बगैर तिरूमली तो क्या किसी ज़मात की तस्व़ीर नहीं बदली जा सकती है। इन भटके हुए लोगों को संवैधानिक रास्ते पर लाना और इन्हें इनका मुनासिब हक़ देना तो सरकार का काम है। मगर यह कोई हैरत की बात नहीं लगती कि मत-संतुलन की सांख्यिकी के सामने सरकार अपना फ़र्ज पूरा भी करे तो क्यों करे और किस तरह से करे ?

सच्चाई यह भी है कि नंदी बैल का खेल देखने वाले इनकी ज़िन्दगी को तमाशे से ज़्यादा कुछ नहीं समझते हैं। इसके बावजू़द आम तौर पर दुबले-पतले शरीर और हमेशा मुस्कुराते रहने वाले तिरुमलियों में एक संभावना दिखती है, वह यह है कि यह कहीं भी जाए- घूम फ़िरकर कुछ ज़गहों पर बार-बार और लगातार ज़रूर बने रहते हैं। इसकी वज़ह यह है कि यह गाय-भैंसों को ख़रीदने-बेचने का धंधा जो करते हैं। जब कोई गाय या भैंस पेट से होती तो यह उसे 15 हजार रूपए तक में खरीदते हैं और बड़े बाजार में 25, 30 हजार रूपए तक में बेच देते हैं। मगर बेचने से पहले यह उसे कुछ ज़गहों पर चराते रहते हैं। इन्हीं ज़गहों से चारे का धंधा भी करते हैं। इस काम के लिए इनके परिवार का कोई-न-कोई सदस्य ऐसी ज़गहों पर जरूर बना रहता है। यानी कि ऐसी ज़गहों से उनका रिश्ता लगातार बना रहता है। यही रिश्ता/संदर्भ इन्हें ‘महाराष्ट्र के गायरन जमीन कानून’ से जोड़ता है, जो कहता है कि 14 अप्रैल, 1991 के पहले तक जो लोग जिन ज़मीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें आजीविका के लिए उन ज़मीनों का पट्टा दे दिया जाए। दरअसल, इस कानून को अपनेआप में एक बड़ी संभावना के तौर पर देखा जा सकता है, जिसमें तिरूमली ज़मात वाले पथरीली ज़मीनों को खे़तों में बदल सकते हैं, और अगर वह ऐसा कर सकते हैं तो यह अपने बदलाव का एक कारगर रास्ता ख़ुद तैयार कर सकते हैं।

देखा जाए तो तिरुमली कोई ज़मीन से उजाड़े गए लोग नहीं हैं, बल्कि कल भी इनके नीचे से ज़मीन नदारद थी और आज भी इनके नीचे से ज़मीन नदारद ही है। मगर यह एक रास्ता उन्हें ज़मीन से छोड़कर, समाज और ख़ासतौर से ऊँची जाति वालों की ज़्यादतियों के खि़लाफ लड़ने और अपनी बात को दिल्ली-मुंबई तक बोलने वाला बना सकता है। दूसरा, यह रास्ता आजीविका का स्थायी और सुरक्षित साधन देकर उन्हें ईज्जत, आत्मनिर्भर या बराबरी की दुनिया में जीने के साथ-साथ पंचायत में उनका मुकाम़ भी दिलवा सकता है।

बिस्मिल्लाह खां ने जिस ‘सवई’ को बज़ाकर देश-विदेश में अपना नाम कमाया है, तिरूमली ज़मात वाले उस ‘सवई’ को कई पीढ़ियों से बज़ाते आ रहे हैं, मगर इन्हें कुछ नहीं मिला है।

इनके सामने तो यह सवाल भी है कि अपने घर में अपना चूल्हा जलाना और ख़ुद अपने बर्तनों में अपना ख़ाना पकाना- एक छाते से कहीं बढकर एक छट का होना, उसमें सबके साथ एकसाथ बैठना और हर एक फैसले में साझेदार हो जाना- सरपंच से लेकर बस कंडेक्टर, लाईनमेन, बैंक मैनेजर, नाकेदार, थानेदार, तहसीलदार, नेता से बतिया भर पाना क्या किसी के लिए इतना बड़ा सवाल भी हो सकता है ?

मगर यह तो हर सुबह कम से कम 20 से 40 किलोमीटर चलने का सवाल लिए उठते हैं। संघर्ष इन्हें दिनभर आटे जैसा तब तक गूँथता रहता है, जब तक की यह रोटी बनाने लायक न हो जाएं। कभी कमर तो कभी कंधों या सिरों पर 10 से 15 बच्चों को लटकाए इनका परिवार मधुमक्खी के छत्ते में लगी मधुमक्खियों सा भरा-पूरा दिखता है। और हमारे सामने नौ फीसदी की वृध्दि दर से चौतरफ़ा विकास की रेलगाड़ी बताने वाला जो समय चल है, क्या उसी समय की तरह सदा दौड़ते रहने वाले इनके नंगे पैरों के आगे, एकाध अल्पविराम का पहिया भी लगेगा ?

मगर सन्नाटा है कि अपने सवालिया निशान की बजाय पूर्ण विराम चाहता है।

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11.7.10

अपनी जाति खोजते सैय्यद मदारी

शिरीष खरे

"यह देखिए फोटो में सोनिया गांधी पीठ ठोंक रही हैं. और इसके पहले वाली फोटो में अब्बा लोग अमिताभ, जितेन्द्र और धर्मेन्द्र के साथ खड़े हैं..."

बीड़ जिले की खेड़करी बस्ती में, बीते साल गर्मियों की कोई ठहरी हुई दोपहर को कुछ धुंधले से पड़ गए एल्बमों के साथ सैय्यद मदारियों के यह बच्चे फोटो के पीछे छिपे और अपने अब्बा लोगों से सुने किस्से हमें सुनाते रहे.

बच्चा-बच्चा जानता है कि भारत गाँवों में बसता है, जो इनदिनों अदृश्य हो गए हैं. फ़िलहाल इन गाँवों से भी अदृश्य रहने और गली-मोहल्लों में हैरतअंगेज़ खेल दिखने वाले सैय्यद मदारियों के कई ख़ानदानी खेल भी तो अदृश्य हो गए हैं.

मगर क्या आप जानते हैं कि सबसे हैरतअंगेज़ खेल जो हुआ है, वह यह है कि ‘जाति शोध केन्द्र’ और ‘जाति आयोग’ की सूचियों में ‘सैय्यद मदारी’ ज़मात का ज़िक्र तक नहीं मिलता है. मगर वहाँ जाने से पहले मैं भी कहाँ जान पाया था कि इसीलिए महाराष्ट्र में इनकी कुल तादाद का आकड़ा भी कहीं नहीं मिलता है. ऐसे में केवल अनुमान लगाया जाता है कि शहरों की चकाचौंध, झुग्गी-बस्तियों और गाँव-देहातों की सरहदों के आरपार अपनी जिंदगियों की दुःख-तकलीफें लिए, महाराष्ट्र में यही कोई 700 सैय्यद मदारी परिवार होंगे.

प्रमाण लाओ कि...

जिनका आज नहीं उनका कल क्या..क्योंकि ‘जाति शोध केन्द्र’ और ‘जाति आयोग’ की सूचियों में ‘सैय्यद मदारी’ ज़मात का ज़िक्र तक नहीं मिलता हैं, सो जाति प्रमाण-पत्र के बगैर सैय्यद मदारियों के बहुत सारे बच्चे दूसरी जाति के बच्चों की तरह अधिकार और सुविधाएँ नहीं पा सकते हैं. यह बड़ी अज़ीब सी बात है कि एक तरफ़ सैय्यद मदारियों को अपनी जाति की पहचान का कागज़ चाहिए है, मगर दूसरी तरफ़ कलेक्टर साहब को पहले उनकी जाति का सबूत बताने वाला कागज़ चाहिए. अब दिक्कत तो यही है सैय्यद मदारी कौन से सरकारी कागज़ से और कैसे यह साबित करें कि वह भी इस देश के वासी हैं.

यहाँ के ज़्यादातर अफ़सर अगर सैय्यद मदारियों को नाम से जाने तो भी कुछ नहीं कर सकते हैं, वह नियमों से जो बॅंधे हैं, जो ऊपर से ही चला करते हैं. मगर इस सवाल का जवाब कोई नहीं देता है कि जो सैय्यद मदारी सरकार के काम-काज से कभी जुड़े ही नहीं हैं, वह सैय्यद मदारी अपने लिए जाति का कागज़ लाए भी तो कहाँ से लाएं ?

सोचिए, जहाँ ऊपर की दो ज़मातों के सिर पर घर के पते और बुनियादी सहूलियतों का सवाल ख़ुले आसमान सा पसरा हुआ है, वहीं सैय्यद मदारियों के सामने तो आज भी अपनी पहचान और उपस्थिति का सवाल ही पहला सवाल बनाकर हुआ तना है.

यहाँ जाति प्रमाण-पत्र एक ऐसा पतला-सा कागज़ है, जो मिल जाए तो संभावना है और न मिल पाए तो अंधियारा है. यह मामला महाराष्ट्र सरकार और सामाजिक कल्याण व न्याय विभाग जब तक नहीं सुलझाया जाएगा, तब तक सैय्यद मदारी बच्चों को स्कूल से जोड़ने का तार भी उलझा ही रहेगा.

एक मौका

देखा जाए तो यहाँ के बच्चों के बीच खेलों में बेजोड़ प्रतिभाएं मौजूद हैं. ख़ास तौर से जिमनेस्टिक और एथलेटिक्स में. अगर यह राष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाओं तक पहुँचे तो जरूर ही क़माल दिखा सकते हैं. इस तरह से भी तो इनकी पहचान बदल सकती है. इन्हें केवल एक मौका और सही दिशा ही तो चाहिए. मगर सब जानते हैं, जिस सफ़र में यह हैं, उसमे पड़ाव भर हैं, उसकी न तो कोई दिशा है, और न ही मंज़िल का कोई ठिकाना है. बिस्तरे पर थकान की सलवटें हमेशा ही रहती हैं, और ख़ुले आसमान के नीचे देश के नौनिहाल किसी तरह पलते-बढ़ते तो हैं, मगर पढ़ते नहीं हैं.

दिलचस्प है कि दिनों और महीनों के नामों से बेखबर यह सैय्यद मदारी बालीवुड में 30 से ज़्यादा साल बीताने के बाद भी न शोहरत पा सके हैं, न ही दौलत. कुछ सैय्यद मदारी इसे अपनी बदकिस्मती मानते हैं, वहीं बहुत से अपनी पहुँच न होने पर अफ़सोस जताते हैं. दरअसल, 70 के दशक में जब जन-आक्रोश को एक्शन का रंग रुप दिया जाने लगा तो स्टार या सुपरस्टार के ज्यादातर स्टंट सैय्यद मदारी ही करते थे. कभी एक्सट्रा आर्टिस्ट के तौर पर काम करने वाला अक्षय कुमार आज का सुपरस्टार कहलाता है, उसके संघर्ष की मनोरम कहानियाँ भी सबके सामने हैं, मगर न जाने क्यों सैय्यद मदारी नाम की ज़मात से एक भी स्टार नहीं चमकता है, और न जाने क्यों इनकी गढ़ी-गढ़ाई तस्वीरों, कहानियों के बीच छिपा पहचान का बड़ा सवाल पहचान में क्यों नहीं आता है ?

बंजारा जनजातियों की पहचान के लिए केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय विमुक्त घुमंतू एवं अर्धघुमंतू जनजाति आयोग बनाया है, जिसका मानना है कि देश भर में कोई 500 बंजारा जनजातियां हैं, जिनकी आबादी 10 करोड़ के आसपास है. लेकिन इन बंजारों को बुनियादी सुविधाओं से जोड़ने की कोई ईमानदार कोशिश अब तक नहीं हुई है.

कहने को पारधी, तिरुमली और सैय्यद मदारी अलग-अलग जमातें हैं, जिनकी अलग-अलग जुबानें हैं, मगर फिर भी सभी के दुःख-दर्दों में कोई ज्यादा भेद नहीं है. जाहिर है, सिद्धांत और व्यवहार के बीच इनके प्रति सरकार और जनता की स्वीकार्यता भी अब तक गहरे धुंध में है. एक ऐसी धुंध, जो आज़ादी के 63 साल बाद भी छंटने का नाम नहीं लेती.
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