22.4.10

विश्व बैंक को इधर से देखिए

शिरीष खरे

विश्व बैंक की शर्तो के तहत गरीबी हटाने के नाम पर किए गए ढांचागत समायोजन कार्यक्रमों के परिणाम अब सर्वत्र दिखाई देने लगे हैं। भारत विश्व बैंक के 4 सर्वाधिक बड़े कर्जदारों में शामिल है। नव-उपनिवेशवादी नीतियों के कारण देश की 65 प्रतिशत आबादी का भरण-पोषण करने वाला कृषि क्षेत्र आज दयनीय हालत में है। हरित क्रांति की आत्ममुग्धता के बावजूद खाद्यान्न आत्मनिर्भरता लगातार कम हो रही है। विदेशी मुद्रा भण्डार का बड़ी मात्रा में उपयोग अनाज, दलहन और खाद्य तेलों के आयात में हो रहा है। निजी कंपनियों को खुली छूट देने से किसानों के लिए कृषि क्षेत्र घाटे का सौदा बनता जा रहा है। फुटकर बाजार में निजी क्षेत्र के प्रवेश ने छोटे-मोटे धंधों से रोजी कमाने वालों को बेकार कर दिया है। रियल एस्टेट में पैदा की गई बूम से आम आदमी के सिर पर छत भी सपना बन कर रह गई है। कुल मिलाकर, बड़े पैमाने पर लोगों को जमीन और रोजगार से बेदखल किया जा रहा है। एक लाख से अधिक अरबपतियों वाले देश में 30 करोड़ लोग दिन में 20 रूपये भी नहीं कमा पाते हैं।

वैसे तो विश्व बैंक का घोषित लक्ष्य दूसरे विश्व युद्ध से जर्जर देशों में ढांचागत सुविधाएं उपलब्ध करवाकर वहां का जीवन स्तर सुधारना था, लेकिन अब यह अपने बड़े निवेशक देशों जैसे अमेरिका, इंग्लैंड, जापान, जर्मनी और फ्रांस की निजी कंपनियों का हितसाधक बन गया है। ढांचागत समायोजन कार्यक्रम ने विश्व बैंक का काम बढ़ा दिया है। इसलिए उसने तीसरी दुनिया के देशों को अपने बाहुपाश में जकड़ने के लिए अंतर्राष्ट्रीय विकास संगठन, अंतर्राष्ट्रीय वित्त निगमक, बहुपक्षीय निवेश गारंटी एजेंसी जैसी संस्थाएं गठित कर ली है। केवल इतना ही नहीं, उसने `अंतर्राष्ट्रीय निवेश विवाद निराकरण' नाम से अपना अलग न्यायालय भी बना लिया है, जहां देशों और कंपनियों के मध्य गुप्त् रूप से विवाद सुलझाए जाते हैं। जानकारी के मुताबिक, इन दिनों विश्व बैंक लगभग 90 देशों की अर्थव्यवस्थाओं को वहां के राजनीतिक और व्यावसायिक संपन्न वर्ग के सहयोग से काबू में करने में जुटा हुआ है।

अनुभव बताते हैं कि एक बार कोई गरीब देश विश्व बैंक समूह के जाल में फंस जाता है तो उसकी हालत बद से बदतर होती जाती है। मेक्सिको, अर्जेटाईना जैसे लातिनी अमेरिकी देश इसके उदाहरण है, जो अब इससे छुटकारा पाने के लिए कोशिशें कर रहे हैं । विश्व बैंक देश की नीति निर्धारण प्रक्रिया में अंदर तक घुस चुका है। भारत और विश्व बैंक के अधिकारियों की आपस में अदलाबदली आम है। वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के अनुसार, विश्व बैंक में नौकरी कर चुके लोगों को देश में अत्यंत संवेदनशील और उच्च् पदों पर बैठाया जाता रहा है। पिछले वर्ष तो योजना आयोग में भी विदेशी फर्मो को अधिकृत रूप से सलाहकार बना दिया गया था। कहने के लिए तो विश्व बैंक खुलेपन का हिमायती है लेकिन व्यवहार में उसका चेहरा ऐसा नहीं है। सारे देश में लागू `सूचना का अधिकार कानून' भी विश्व बैंक की मजबूत चारदिवारी के सामने बेदम है। सामाजिक सरोकारों से उसका कोई इत्तेफाक नहीं रहा है। अपनी नीतियों के नकारात्मक परिणामों पर वह जनमत की उपेक्षा करता है। सन् 2002 में प्रकाशित `विश्व बांध आयोग' की रिपोर्ट को खारिज करते हुए उसने बड़े बांधो के लिए कर्ज देना जारी रखा है। भारत में निर्माणाधीन और प्रस्तावित कुछ बांधों में तो विश्व बैंक का वित्तपोषण है। लेकिन उसने आगे भी समर्थन का संकेत दिया है।

विश्व बैंक जिस तरह से देश की नीतियों को प्रभावित कर रहा है उससे आम आदमी का जीवन कष्टमय होता जा रहा है। विश्व बैंक की नीतियों से पीड़ित समाज के विभिन्न वर्गो ने विश्व बैंक को उसकी जनविरोधी नीतियों के प्रति खबरदार किया है। सितंबर 2007 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में विश्व बैंक के कामकाज को लेकर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण (आईपीटी) की सुनवाई हुई थी। इसमें देश के विभिन्न स्थानों से आये प्रभावित समुदायों, लोक संगठनों के प्रतिनिधियों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों आदि ने हिस्सा लिया। इस दौरान विश्व बैंक की कार्यशैली पर प्रकाश डालते हुए 100 से अधिक वक्ताओं ने इसका इतिहास, मान्यता, एजेन्डा, भूमिका, अर्थव्यवस्था और राष्ट्र की संप्रभुता में हस्तक्षेप आदि के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, ऊर्जा, कृषि, वन, खनन, पर्यावरण, आवास, खाद्य-सुरक्षा, गरीबी और मानवाधिकार जैसे मुद्दों पर अपने विश्लेषण प्रस्तुत किए। इस स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण का आयोजन विश्व बैंक समूह द्वारा वित्तपोषित परियोजनाओं पर निगरानी रखने के लिए किया गया था। इसे विश्व बैंक की नीतियों के प्रति बढ़ने प्रतिरोध के रूप में देखा जाना चाहिए। विश्व बैंक द्वारा न्यायाधिकरण के निष्कर्मो पर जवाब देना यह सिद्ध करता है कि जनआक्रोश की अवहेलना अब उसके लिए आसान नहीं है। उम्मीद करते हैं कि अब देश के प्रभावित समुदाय और बुद्धिजीवी विश्व बैंक की नीतियों पर लगाम लगाने की दिशा में लगातार प्रयासरत रहेंगे।

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19.4.10

अपने से यूं भी खड़े हो सकते हैं विकलांग साथी

शिरीष खरे

भूख से मौत और रोजीरोटी के लिए पलायन। ऐसा तब होता है जब लोगों के पास कोई काम नहीं होता। यकीनन गरीबी का यह सबसे भयानक रुप है। इससे निपटने के लिए भारत सरकार के पास ‘‘हर हाथ को काम और काम का पूरा दाम’’ देने वाली ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना’ है। यह योजना लोगों को उनके गांवों में ही काम देने की गांरटी भी देती है। योजना में श्रम पर आधारित कई तरह के कामों का ब्यौरा दिया गया है। इन्हीं में से बहुत सारे कामों से विकलांग साथियों को जोड़ा जा सकता है और उन्हें विकास के रास्ते पर साथ लाया जा सकता है। कैसे, नरेगा का यह तजुर्बा सामने है :

एक आदमी गरीब है, आदिवासी समुदाय से है, और विकलांग है तो उसका हाल आप समझ सकते हैं। उसे उसके हाल से उभारने के लिए आजीविका का कोई मुनासिब जरिया होना जरूरी है। इसलिए दिल्ली में जब गरीबी दूर करने के लिए नरेगा (अब मनरेगा) की बात उठी थी तो मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले बड़वानी के ‘आशा ग्राम ट्रस्ट’ ने विकलांग साथियों का ध्यान रखा था और उन्हे रोजगार की गांरटी योजना से जोड़ने की पहल की थी। जहां तय हुआ था कि नरेगा में विकलांग साथियों को उनकी क्षमता और कार्यकुशलता के हिसाब से किस तरह के कामों में और किस तरीके से शामिल जा सकता है।

इसके लिए ब्लाक-स्तर पर एक चरणबद्ध योजना बनायी गई थी। योजना में विकलांग साथियों को न केवल भागीदार बनाया गया था बल्कि उन्हें निर्णायक मंडल में भी रखा गया। उन्होंने एक कार्यशाला के जरिए सबसे पहले वो सूची तैयार की जो बताती थी कि विकलांग साथी कौन-कौन से कामों को कर सकते हैं और कैसे-कैसे। इस सूची में कुल 25 प्रकार के कामों और उनके तरीकों को सुझाया गया था। बाद में सभी 25 प्रकार के कामों को वगीकृत किया गया और सूची को 'वगीकृत कार्यों वाली सूची' कहा गया। अब इस सूची की कई फोटोकापियों को ग्राम-स्तर पर संगठित विकलांग साथी समूहों तक पहुंचाया गया। इसके बाद विकलांग साथियों के लिए ‘जाब-कार्ड बनाओ आवेदन करो’ अभियान छेड़ा गया। दूसरी तरफ, इस अभियान में जन-प्रतिनिधियों की सहभागिता बढ़ाने के लिए ‘गांव-गांव की बैठक’ का सिलसिला भी चलाया गया। इसी दौरान विकलांग साथियों ने अपने जैसे कई और साथियों की पहचान करने के लिए एक सर्वे कार्यक्रम भी चलाया था। इससे जहां बड़ी तादाद में विकलांग साथियों की संख्या ज्ञात हो सकी, वहीं उन्हें जाब-कार्ड बनाने और आवेदन भरने के लिए प्रोत्साहित भी किया जा सका। नतीजन, अकेले बड़वानी ब्लाक के 30 गांवों में 100 से ज्यादा विकलांग साथियों को नरेगा से जोड़ा जा सका। तब यहां के विकलांग कार्यकर्ताओं ने कार्य-स्थलों पर घूम घूमके नरेगा की गतिविधियों का मूल्यांकन भी किया था। आज इन्हीं कार्यकर्ताओं द्वारा जिलेभर के हजारों विकलांग साथियों को नरेगा से जोड़ने का काम प्रगति पर है।

रोजगार के लिए विकलांग कार्यकर्ताओं के सामने बाधाएं तो आज भी आती हैं। मगर ऐसी तमाम बाधाओं से पार पाने के लिए इनके पास जो रणनीति है, उसके खास बिन्दु इस तरह से हैं: (1) रोजगार गारंटी योजना के जरिए ज्यादा से ज्यादा विकलांग साथियों को काम दिलाना। (2) पंचायत स्तर पर सरपंच और सचिवों को संवेदनशील बनाना। (3) जन जागरण कार्यक्रमों को बढावा देना। (4) निगरानी तंत्र को त्रि-स्तरीय याने जिला, ब्लाक और पंचायत स्तर पर मजबूत बनाना। (5) लोक-शिकायत की प्रक्रिया को पारदर्शी और त्वरित कार्यवाही के लिए प्रोत्साहित करना। यह तर्जुबा बताता है कि जब एक छोटे से इलाके के विकलांग साथी नरेगा के रास्ते अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं, तो प्रदेश या देश भर के विकलांग साथी भी यही क्रम दोहरा सकते हैं।

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14.4.10

सुभागलाल का सपना सच हो गया

शिरीष खरे


वैसे तो देश के असंख्य सुभागलालों का सपना सच नहीं होता है। मगर घोरवाल के सुभागलाल का सपना सच हो गया। उसके गांव के सारे बच्चे अब स्कूल जाते हैं। जब वह छोटा था तब ऐसा कतई नहीं था।

ग्राम घोरवाल, उत्तरप्रदेश के सोनभद्र जिले में हैं, जहां बेहतरीन कलीनों को बनाने का काम चलता है। यहां के सुभागलाल जब बच्चे थे तो अपने जैसे बहुत सारे आदिवासी बच्चों की तरह बुनाई के फंदो में उलझे थे। उन दिनों सुभागलाल अपने बचपन को बहुत सस्ते दामों में बेचते थे। गरीबी के चलते, उनके जैसे बहुत सारे बच्चे मानो अपने पिताओं का कर्ज चुकाने के लिए पैदा हुए हो। कारखानों में स्थाई भाव से काम करते रहना मानो उनकी नियति में हो। बकौल सुभागलाल तब से अब में अंतर है, अब इसी घोरवाल में पहली से पांचवीं तक के 98 बच्चे हैं, सारे के सारे स्कूल जाते हैं। यही बच्चे आसपास के 12 गांवों के प्राथमिक स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था को भी तंदुरूस्त बनाए रखना चाहते हैं।

सुभागलाल ग्रेजुएट हैं और घोरवाल गांव के प्रधान भी चुने गए हैं। इलाके में पहली बार ऐसा हुआ है कि जो कभी बंधुआ मजदूर था, वो आज ग्रामप्रधान है। यकीकन बंधुआ मजदूर से (वाया ग्रेजुएशन) ग्रामप्रधान बनने तक की उनकी यह कहानी अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। मगर उससे भी महत्वपूर्ण उनका वह सपना है, जो सच में बदल गया है।

सुभागलाल ने आज अपने आसपास के 12 गांवों के बच्चों को इकट्ठा करके इतना ताकतवर बना दिया है कि यहां के बच्चे जब-तब अपने हकों के लिए इकट्ठा होते हैं, आपस में बतियाते हैं और कई सवाल खड़े किया करते हैं। यह स्लेट, कापी, पेन, पट्टी, ब्लेकबोर्ड, साईकिल, होमवर्क से लेकर मास्टर साहब की छोटी-बड़ी बातों का पूरा ख्याल रखते हैं। यह हिन्दी और अंग्रेजी भी पढ़ते हैं और अपने-अपने, अलग-अलग सपनों का पीछा भी किया करते हैं।

जैसे कि यहां की उर्मिला कुमारी जब आठवीं की ओपेन स्कूल परीक्षा में बैठी तो उसकी बड़ी उम्र उसके सामने बड़ी बाधा थी। उसके लिए पास होना एक चमत्कार जैसा था। मगर उर्मिला ने यह चमत्कार कर दिखाया है। ग्यारह साल पहले, उर्मिला भी और लड़कियों के तरह कालीन कारखाने को जाती थी। तब उसकी बंधी बंधाई जिंदगी के आगे भी अगर आशा की जरा सी भी लौ बची थी तो वह उसकी पढ़ाई में ही थी। आज यह अपनी भलाई के बहुत सारे अध्याय खुलके पढ़ती है। एक गरीब घर की बेटी अपने खुले-खुले से दिनों के पीछे अपनी, माता-पिता और बाल कल्याण समिति की मेहनत को खास बताती है। असल में यह खासियत सालों की लगन, धीरज, दिलचस्पी और जूनून का मिलाजुला असर है।

बाल कल्याण समिति, क्राई के सहयोग से स्थानीय स्तर पर संचालित एक गैर-सरकारी संस्था है। यह संस्था कालीन कारखानों में काम करने वाले बच्चों की पहचान करती है, उनकी मजदूरी के पीछे छिपी मजबूरी को समझती है, फिर उनकी मजदूरी को दूर करने के हरसंभव उपाय ढ़ूढ़ती है। इस तरह से यह संस्था कालीन कारखानों के बाल-मजदूरों को शिक्षा के रास्ते पर ले जाने का काम करती है। जब यह संस्था नहीं थी तब यहां स्कूल का भवन तो था, नहीं था तो बच्चों में स्कूल जाने का जज्बा।

यह बच्चे भी अपने माता-पिताओं की तरह बंधुआ मजदूर जो थे। बंधुआ इसलिए क्योंकि खेती के लिए उनके पास खुद के खेत नहीं थे और न रोजगार के कोई स्थायी साधन ही। तभी तो उनके घर की गृहस्थी चलाने के लिए उनके बच्चे कारखानों की ओर जाया करते थे।

ऐसे में उन्हें स्कूल की ओर मोड़ना चुनौतियों से भरा काम था। इसलिए सबसे पहले तो यहां सुभागलाल जैसे कामकाजी बच्चों के लिए अनौपरिक शिक्षण केन्द्र खोले गए। इसकी कक्षाओं को कामकाजी बच्चों के समय और सहूलियतों के मुताबिक लगाया जाता। इससे यहां के बच्चों को पहली बार पढ़ाई-लिखाई से जुड़ने का मौका मिला। पहले-पहल बच्चे ऊंघते रहते। मगर धीरे-धीरे जब उनका रूझान पढ़ाई की तरफ बढ़ा तो इधर-उधर भागने की बजाय कई-कई घण्टे पढ़ते-पढ़ाते, हँसते और खेलते।

इसी के सामानांतर, कामकाजी बच्चों के माता-पिताओं की आमदनी में बढ़ोतरी के लिए कई स्तरों पर प्रयास शुरू किये गए। पहला तो यह कि, इसके लिए गांव के आसपास की सार्वजनिक जमीनों पर स्थानीय लोगों के कब्जों को पहचाना गया और फिर इन कब्जों को हटाने की मुहिम चालू हुई। जहां-जहां से कब्जे हटाये गए, वहां-वहां की जमीनों पर सामूहिक खेती को बढ़ावा दिया गया। हालांकि इन बंजर जमीनों से अनाज उगाना कोई आसान काम नहीं था। मगर सबके अपने-अपने समय, धन, ज्ञान और मेहनत के बराबर लगने से जो बड़ी कठिनाई थी वो भी कई हिस्सों में टूटकर हल हो गई। इसके बाद खेतों में जो पैदावार लहलहाई उसे भी सामूहिक तौर से बाजारों में लाया गया और बेचा गया। आखिरी में जो नफा हुआ वो बराबर हिस्सों में बट गया। इस तरह आजीविका का स्थाई हल मिलने से उनकी आमदनी में पहले से सुधार आया। दूसरा यह कि, यहां के ऐसे परिवारों को नरेगा जैसे योजनाओं का फायदा पहुंचाने के लिए जागरूकता अभियान चलाया गया। तीसरा यह कि, उनकी रोजमर्रा की बुनियादी जरूरतों का ख्याल रखते हुए उन्हें ग्राम-सभा और पंचायत की गतिविधियों में हिस्सेदार बनाया गया। चौथा यह कि, उनके बीच पहले तो महिलाओं के स्वयं-सहायता समूह बनाए गए और उसके बाद लघु ऋण समितियां गठित हुईं। इन सबसे यहां की आर्थिक-सामाजिक स्थितियां जैसे-जैसे पलटने लगीं, वैसे-वैसे उनके बच्चों के कंधों से काम के बोझ भी हटने लगे। इसीलिए तो जिस पुरानी पीढ़ी ने पढ़ने-लिखने की कभी नहीं सोची थी, वो आज की पीढ़ी को पढ़ाने-लिखाने के बारे में सोचती है। आलम यह है कि बच्चे तो बच्चे बड़े-बुर्जग भी वर्णमाला के आकार, प्रकार और मायने बाखूबी जान रहे हैं। बड़े गर्व की बात है कि यह अपने बच्चों की अच्छी शिक्षा से ही अपनी बेहाली को काट देना चाहते हैं। जहां यह कहते हैं कि काफी कुछ बदला है, वहीं सुभागलाल कहते हैं ‘‘अभी काफी कुछ बदलना बाकी है। शिक्षा का स्तर अपने लड़कपन में है, जिसे अपने समय पर जवान भी तो होना है।’’


चलते-चलते

इसी तरह से क्राई देश के 6,700 गांवों और मलिन बस्तियों के साथ मिलकर काम कर रहा है। क्राई मानता है कि हर समुदाय के बच्चों को जो अधिकार देने जरूरी हैं, उनमें खास हैं - जीने के अधिकार, विकास के अधिकार, विभिन्न शोषणों के खिलाफ सुरक्षा के अधिकार और उनके भविष्य को प्रभावित करने वाली गतिविधियों में भागीदारी होने और फैसले लेने के अधिकार।


क्राई का असर (2008-09)


  • 1,376 सरकारी प्राथमिक स्कूलों को दोबारा चालू किया जा सका है।

  • 38,169 वंचित समुदाय के बच्चों को सरकारी प्राथमिक स्कूलों में दाखिल किया जा सका है।

  • 558 सरकारी प्राथमिक स्कूलों में छात्र उपस्थिति को शत-प्रतिशत तक बनाया जा सका है।

  • 80 पंचायतों की ग्राम शिक्षण समितियों को सक्रिय बनाया जा सका है।

  • 762 पंचायतों की ग्राम स्वास्थ्य समितियों को सक्रिय बनाया जा सका है।

  • 481 गांवों में एक भी बाल मजदूर नहीं है।

  • 1,641 बाल समूह बनाये गए हैं।

  • 76,1167 भारतीय बच्चे विभिन्न गतिविधियों के भागीदार बने हैं।

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12.4.10

समुदाय से दूर होता सामुदायिक रेडियो

शिरीष खरे


1991 के बाद जैसे ही उदारीकरण के नाम पर बाजार खुला वैसे ही मीडिया भी एक बड़े बाजार में बदला। पिछले एक दशक से अब तक के बदलते परिदृश्यों पर गौर किया जाए तो इसमें एक ‘विरोधाभाषी पहलू’ नजर आता है। एक तरफ मीडिया का बाजार बढ़ने की बातें चलती हैं और दूसरी तरफ गाँव में प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया की पहुँच सीमित बनी हुई है। प्रिंट मीडिया के नजरिए से इसका खास कारण अशिक्षा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिहाज से बिजली और संचार की खराब व्यवस्था। फिर ऐसे इलाकों में कुशल संवाददाता और पत्रकारों की तादाद भी कम ही रहती है। शहर में केरियर की नई संभावनाएं होने से योग्य मीडियाकर्मी गाँव में काम नही करना चाहते हैं। ग्रामीण पत्रकारिता में विशेषज्ञों की कमी बरकरार है। इन सुदूर इलाकों से मिलने वाली ज्यादातर सूचनाएं स्ट्रिंगरों द्वारा भेजी जाती हैं। यह अलग-अलग समाचार माध्यमों के लिए अस्थायी और आंशिक तौर पर तैनात होते हैं। आमतौर पर उनसे बेहतरीन रिपोर्टिंग की उम्मीद नहीं की जाती है।

इसी तरह कई लम्बी लड़ाईयों के बाद सूचना का जो हक हासिल हुआ है, ज्यादातर ग्रामीण अज भी उसका उपयोग नहीं जान पाए हैं। बहुत कम जानकार अपने धैर्य और विवेक की परीक्षा देकर इस कानून का फायदा उठा पाते हैं। कुछेक खास और गुप्त सूचनाएँ मीडिया से ही मिलती हैं। इसलिए इन ग्रामीण इलाकों के लिए मीडिया से दूरी का अर्थ है- जनहित की सूचनाओं से बेदखली।

प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और सूचना का हक जैसे माध्यम गाँव तक बेअसर हो रहे हैं। इन्हें असरदार बनाने के उपायों पर सोचा जा रहा है। साथ ही बाजार के सामानान्तर दूसरे माध्यमों को भी खड़ा किया जा रहा हैं। इनमें रेडियो की भूमिका सशक्त बतलाते हुए सामुदायिक रेडियो पर जोर दिया गया है। इसके कई कारण भी हैं जैसे-बिजली की समस्या से निजात मिलना और रेडियो का हल्का, गतिशील, सस्ता तथा सरल उपकरण होना। फिर रेडियो कई दशकों से भारतीय जनता के दिल से जुड़ा रहा है। इसमें दोतरफा संवादों की पंरपरा भी बढ़ गई है। रेडिया पर फोन कर या स्टेशन पर खत भेजकर गाँव के लोग अपनी बात विशेषज्ञ, अधिकारी, नेता, मंत्री आदि किसी से भी कहते-सुनते रहे हैं।

समुदाय के इन्हीं हितों को ध्यान में रखकर सामुदायिक रेडियो की अवधारणा और योजना बनायी गई। सरकार या प्रशासन की मुख्य समस्या गाँव-गाँव जुड़ने की है और इस दिशा में सामुदायिक रेडियो योगदान दे सकता है। इसके लिए उसके पास स्थानीय बोली, साधन, लोग और समर्थन भी है। ऐसा कहा जाता है कि सामुदायिक रेडियो का मकसद ग्रामीण जनता की आवश्यकता, प्राथमिकता, समस्या, सुझाव और समाधान से होना चाहिए। लेकिन आज उसे केवल मंनोरजंन तक सीमित बनाया जा रहा है। ताज्जुब कि बात है कि सामुदायिक रेडियो के नाम पर ऐसी कई गतिविधियाँ बगैर समुदायिक सहयोग से चल रही हैं। मीडिया के दूसरे रुपों की तरह इसमें भी विकृfतयाँ दिखाई देने लगी हैं। सामुदायिक रेडियो में समुदाय की भागीदारी को नजरअंदाज बनाना सबसे खतरनाक है।

मीडिया के नए बाजार में सेटेलाईट और दृश्य रेडियो के साथ-साथ अब सामुदायिक रेडियो भी शामिल हो चुका है। इन दिनों रेडियो बाजार पर बड़े-बड़े व्यापारियों की नजर लगी हुई है। इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश के लिए मीडिया घरानों आगे आ रहे हैं। ऐसे में सामुदायिक रेडियो के नाम पर एफएम को प्रोत्साहित किया जा रहा है।

शुरूआती रूझानों से मालूम होता है कि एफएम रेडियो के ज्यादातर लाइसेंस प्राइवेट सेक्टर के चंद मीडिया घरानों को ही दिये गए हैं। बीते साल तक, सरकार ने एफएम चैनल चलाने के लिए अलग-अलग राज्यों के लगभग 100 शहरों में कंपनियों को 350 के आसपास लाइसेंस बांटे हैं। पिछले कुछेक सालों में ही (तथाकथित) सामुदायिक रेडियो की संभावनाएं बढ़ी हैं और उसी अनुपात में संख्या भी। जहाँ तक सामुदायिक रेडियो की बात है उसके लाइसेंस कुछेक बड़े संस्थानों की झोली में गए हैं और सामुदायिक रेडियो के संचालन में छोटे समूहों की प्रभावपूर्ण हिस्सेदारी नहीं बन पा रही है।

रेडिया के इस कारोबार में विशालकाय विदेशी कंपनियाँ अपना अधिकार स्थापित करने के लिए उतावली हैं। उदारीकरण की नीति के मुताबिक यह बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए सरकार पर दवाब बना सकती हैं। इसके लिए पहले स्तर का दवाब इस क्षेत्र से संबंधित नीति, योजना और कानूनों पर होगा। अगर यह दवाब असर करता है तो रेडियो का बाजार ज्यों-ज्यों बढ़ेगा, त्यों-त्यों विशाल कंपनियों की हिस्सेदारी भी बढ़ती जाएगी।

रेडियो का नया बाजार और उस पर पश्चिमी व्यावसायिकता की पहचान होने लगी है। आजकल भारतीय श्रोता अनेक विदेशी प्रसारण एंजेसियों से निकटता भी रख रहे हैं, जैसे-बीबीसी, वायस आफ अमेरिका, रेडियो जर्मन वगैरह। देश की जनता केवल आकाशवाणी तक सीमित नही रही। रेडियो में भी कार्यक्रमों की संख्या और प्रतिस्पर्धा बढ़ने से यहाँ ‘सबसे पहले’ या ‘सबसे तेज’ की दौड़ नजर आने लगी है। कई कंपनियाँ रेडियो आवार्ड कार्यक्रम को लोकप्रिय बनाने में लग गए हैं। आज भारत में विज्ञापन पर होने वाले कुल खर्च का 2% सिर्फ रेडियो में दिए जाने वाले विज्ञापन का हिस्सा है। कल रेडियो विज्ञापन का नया और सशक्त उपकरण बन जाएगा। मगर सामुदायिक रेडियो को शुरू करने की मूलभूत जरूरत और अवधारणा का हमेशा के लिए अंत हो जाएगा।

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11.4.10

भारत की भूख के अर्थ

शिरीष खरे

आज के भारत में सबसे तेजी से बढ़ता सेक्टर कौन सा है- आईटी, मोबाइल टेलेफोनी, आटोमोबाइल, इन्फ्रास्ट्रक्चर, आईपीएल। जहां तक मेरा ख्याल है तो भूख की रफ़्तार के आगे ये सारे सेक्टर बहुत पीछे हैं। आजादी के 62+ सालों के बाद, भारत के पास दुनिया की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का दावा है। मगर अमेरिका की कुल आबादी से कहीं अधिक भूख और कुपोषण से घिरे पीड़ितों का आकड़ा भी यहीं पर है। अब चमचमाती अर्थव्यवस्था पर लगा यह काला दाग भला छिपाया जाए भी तो कैसे ?

वैसे भी अपनी सरकार मंहगाई को कम नहीं करने की बात जब खुलेआम कह रही है तो उसके मंशूबों से ताल्लुक रखने वाली चुप्पियों के भेद भी खुल्लमखुल्ला हो ही जाए। ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ के होहल्ला से पहले, सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को याद कीजिए, जो गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को 2 रूपए किलो की रियायती दर से 35 किलो खाद्यान्न दिये जाने की बात कहता है। इसके बाद केन्द्र की यूपीए सरकार के ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ का मसौदा देखिए, जो गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को रियायती दर से महज 25 किलो खाद्यान्न की गारंटी ही देता है। मामला साफ है, मौजूदा खाद्य सुरक्षा का मसौदा तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ही कतरने (गरीबों के लिए रियायती दर से 10 किलो खाद्यान्न में कमी) वाला है।

अहम सवाल यह भी है कि मौजूदा मसौदा अपने भीतर कितने लोगों को शामिल करेगा ? इसके जवाब में जो भी आकड़े हैं, वो आपस में मिलकर भ्रम फैला रहे हैं। अगर वर्ल्ड-बैंक की गरीबी का बेंचमार्क देखा जाए तो जो परिवार रोजाना 1 यूएस डालर (मौजूदा विनियम दर के हिसाब से 45 रूपए) से कम कमाता है, वो गरीब है। भारत में कितने गरीब हैं, इसका पता लगाने के लिए जहां पीएमओ इकोनोमिकल एडवाईजरी कौंसिल की रिपोर्ट ने गरीबों की संख्या 370 मिलियन के आसपास बतलाई है, वहीं घरेलू आमदनी के आधार पर, सभी राज्य सरकारों के दावों का राष्ट्रीय योग किया जाए तो गरीब रेखा के नीचे 420 मिलियन लोगों की संख्या दिखाई देती है। यानि गरीबों को लेकर केन्द्र और राज्य सरकारों के अपने-अपने और अलग-अलग आकड़े हैं। इसके बावजूद गरीबों की संख्या का सही आंकलन करने की बजाय केन्द्र सरकार का यह मसौदा, केवल केन्द्र सरकार द्वारा बतलाये गए गरीबों को ही शामिल करेगा।

यहां अगर आप वर्ल्ड-बैंक की गरीबी का बेंचमार्क रोजाना 1 यूएस डालर से 2 यूएस डालर (45 रूपए से 90 रूपए) बढ़ाकर देंखे तो देश में गरीबों का आकड़ा 80 मिलियन तक पहुंच जाता है। यह आकड़ा यहां की कुल आबादी का तकरीबन 80% हिस्सा है। अब थोड़ा देशी संदर्भ में सोचिए, महज 1 यूएस डालर का फर्क है, जिसके कम पड़ जाने भर से आबादी के इतना भारी हिस्सा वोट देने भर का अधिकार तो पाता रहेगा, नहीं पा सकेगा तो भोजन का अधिकार।

केन्द्र सरकार ने 2010-11 में, भूख से मुकाबला करने के लिए 1.18 लाख करोड़ रूपए खर्च करने का वादा किया है। अगर यूपीए सरकार गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को रियायती तौर से 35 किलो खाद्यान्न दिये जाने पर विचार करती है तो उसे अपने बिल में अतिरिक्त 82,100 करोड़ रूपए का जोड़ लगाना होगा।

जब कभी देश को युद्ध या प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है तो हमारे देश के हुक्मरानों का दिल अचानक पसीज जाता है। उस दौरान के बुरे हालातों से निपटने के लिए बहुत सारा धन और राहत सुविधाओं को मुहैया कराया जाता है। मगर भूख की विपदा तो देश के कई बड़े इलाकों को खाती जा रही है। वैसे भी युद्ध और प्राकृतिक आपदाएं तो थोड़े समय के लिए आती हैं और जाती हैं, मगर भूख तो हमेशा तबाही मचाने वाली परेशानी है। इसलिए यह ज्यादा खतरनाक है। मगर सरकार है कि इतने बड़े खतरे के खिलाफ पर्याप्त मदद मुहैया कराने में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है।

भूख का यह अर्थशास्त्र न केवल हमारे सामाजिक ढ़ाचे के सामने एक बड़ी चुनौती है, बल्कि मानवता के लिए भी एक गंभीर खतरा है। जो मानवता को नए सिरे से समझने और उसे फिर से परिभाषित करने की ओर ले जा रहा है। उदाहरण के लिए, आज अगर भूखे माता-पिता भोजन की जुगाड़ में अपने बच्चों को बेच रहे हैं तो यह बड़ी अप्राकृतिक स्थिति है, जिसमें मानव अपनी मानवीयता में ही कटौती करके जीने को मजबूर हुआ है। यह दर्शाती है कि बुनियादी तौर पर भूख किस तरह से मानवीयता से जुड़ी हुई है। इसलिए क्यों न भूख को मिटाने के लिए यहां बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) की बजाय बीएचएल (मानवीय रेखा से नीचे) शब्द को उपयोग में लाया जाए ?

एक तरफ भूखा तो दूसरी तरफ पेटू वर्ग तो हर समाज में होता है। मगर भारत में इन दोनों वर्गों के बीच का अंतर दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। एक ही अखबार के एक साईड में कुपोषण से बच्चों की मौत की काली हेडलाईन हैं तो उसी के दूसरी साईड में मोटापन कम करने वाले क्लिनिक और जिमखानों के रंगीन विज्ञापन होते हैं। भारत भी बड़ा अजीब देश है, जहां आबादी के एक बड़े भाग को भूखा रहना पड़ता है, वहीं डायबटीज, कोरोनरी और इसी तरह की अन्य बीमारियों के मरीज भी सबसे अधिक यही पर हैं, जिनकी बीमारियां सीधे-सीधे ज्यादा खाने-पीने से जुड़ी हुई हैं।

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7.4.10

मीडिया का यह कैसा फैलाव है ?

शिरीष खरे

आज से करीब 15 साल पहले, जब मीडिया की पहुंच महज महानगरों तक सीमित थी तब इसके विस्तार पर जोर दिया जाता था। अब हमारे देश में अनेक क्षेत्रीय समाचार माध्यमों के कारण खबरों की संख्या और पहुंच, दोनों ही तेजी से बढ़ी हैं जिससे स्थानीय खबरों को महत्व मिला। इसके साथ ही मीडिया के स्वरुप में विकृतियां भी आयी, जैसे-किसी छोटी घटना को बढ़ा-चढ़ाकर बताकर पेश करना, सनसनीखेज या मसाला शैली में बढ़ोत्तरी और खबरों में भाषाई हमला का तेज होना वगैरह। कई बार संवेदनशीलता की ऐसी अधिकता त्रासदी को कमजोर बना देती है। जब मीडिया सीमित था तब उस पर आम आदमी का भरोसा ज्यादा था। आज खबरों में अंतरविरोध बढ़ने के साथ ही मीडिया की विश्वसनीयता भी घटने लगी है। इसे एक ही खबर को जांचने के लिए लोगों द्वारा अलग-अलग माध्यम या चैनल बदलने के तौर पर देखा जा सकता है। इन दिनों खबरों के चुनाव और प्रस्तुतीकरण में अहम बातें या तो उजागर नही होती, अगर होती भी हैं तो अमर्यादित भाषाई हमला विकृति पैदा करता है। दूसरी तरफ, समाचारपत्रों में ‘संस्करणों’ का प्रचलन बढ़ने से अधिकतर खबरों का अपनी क्षेत्रीयता में सिमट जाना एक दुखद स्थिति है। इस प्रकार, एक क्षेत्र की खबर दूसरे क्षेत्र के लोगों तक नहीं पहुंच पा रही हैं और आसपास की जनता में खबरों का आपसी संबंध रूक सा रहा है। यही कारण मीडिया के वास्तविक विस्तार पर प्रश्नचिन्ह भी लगाता है।

मीडिया के भीतर भी मुख्यतः मीडिया की व्यावसायिकता को लेकर ही चर्चाएं हो रही हैं। एक वर्ग व्यवसायिकरण से परहेज नहीं करता। इसके पीछे उनके अपने तर्क हैं, जैसे-‘उदारीकरण के कारण जब पूरा परिदृश्य ही बदल रहा हो तब मीडिया में परिवर्तन आना स्वभाविक ही है’, ‘सभी क्षेत्रों की तरह अब मीडिया को भी कमाने दिया जाए’, ‘जहां तक नैतिकता का सवाल है तो इसमें भी केवल मीडिया से ही उम्मीद नहीं करनी चाहिए’ वगैरह। दरअसल, मीडिया के व्यवसायीकरण ने उसका फैलाव किया और इसी फैलाव ने मीडिया को नियंत्रण से बाहर कर दिया। सिक्के का दूसरा पक्ष आदर्शवाद पर टिका है। प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है इसलिए उसकी अपनी जिम्मदारियां भी हैं। लोकत्रंत के पहले तीन स्तम्भों में से एक भी बाजार से सीधा नहीं जुड़ा है। व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका को बाजार से दूर रखने का जो भी कारण हो वहीं कारण मीडिया पर भी लागू होना चाहिए। अब विकास, विज्ञान, पर्यावरण और लोगों के अधिकारों से जुड़े मुद्दों पर समाचार और कार्यक्रम गायब होने लगे है। इसके बचाव में अक्सर कहा जाता है कि जो देखा, सुना या पढ़ा जा रहा है दर्शक, पाठक या श्रोता वही तो चाहता है। लेकिन अभी तक लोगों की रूचियों को जानने का न तो कोई पुख्ता अध्ययन हुआ है और न ही सर्वेक्षण, फिर भी इस कथन को सच मान लिया गया है।

आजादी के बाद समाचार पत्रों में पूंजी का उपयोग बढ़ा और पत्रों की संख्या भी। पहले मात्र समाचारपत्रों को बेचकर उनका प्रकाशन कराते रहना मुश्किल था इसलिए विज्ञापनों का प्रयोग प्रचलन में आया। बाद में प्रेस कमीशन ने भी समाचार और विज्ञापनों का अनुपात 60/40 रख दिया। तब विज्ञापन लागतों की वापसी और आय का मुख्य साधन बन गए। धीरे-धीरे समाचार पत्रों में पूंजी की अधिकता बढ़ने से व्यवसायिकों का प्रवेश बढ़ने लगा। पहले यह उनका सहायक व्यवसाय था, जो बाद में मुख्य व्यवसाय बन गया। अब समाचार पत्र, समाचार के अलावा उत्पाद बेचने का सशक्त माध्यम भी बने। आपातकाल की समाप्ति के बाद प्रेस व्यवसायिकों को लगा कि अगर सरकार की मामूली आपत्ति पत्रकारों पर दबाव बना सकती है तो उनके हाथों में तो और बड़ा हथियार अर्थात रोजगार है। उन्होंने अपनी हितो को ध्यान में रखकर समाचारों को प्रकाश में लाने और छिपाने के निर्देश देने शुरू कर दिए। हालांकि आज भी इलेक्ट्रानिक मीडिया की तुलना में समाचार-पत्र सामग्री की गुणवत्ता और जनता के प्रति अपनी जवाबदारी को लेकर बेहतर स्थिति में बताया जाता है।

प्रिंट की तुलना में इलेक्ट्रानिक मीडिया नया है और इसकी कोई सामाजिक पृष्ठभूमि नहीं रही। आकाशवाणी के बाद क्रमशः दूरदर्शन, केबल, चौबीस घण्टों के न्यूज चैनल और इंटनरेट वगैरह आए। दूरदर्शन का सरकार के अधीन होने से उसकी अपनी सीमाएं थीं, अक्सर इन सीमाओं में बंधे रहने के कारण उसकी आलोचनाएं होतीं। जब-जब दूरदर्शन पर विरोध के स्वर को दबाने के आरोप लगता तब-तब इसे एक स्वायत्त संस्था बनाने पर विमर्श होता। मगर दूरदर्शन के कार्यक्रमों का स्तर था और विज्ञापनों की सीमा भी। इस बीच सूचना क्रांति का जो युग आया उसने मीडिया को बाजार का महज उपकरण बना दिया। आजकल इन्हीं विचारशून्य सूचनाओं पर समाज को दिग्भम्रित करने का आरोप लगाया जा रहा है।

समाज और बाजार के बीच मीडिया एक माध्यम होता है। मीडिया से ही बाजार और समाज आपस में एक-दूसरे से बंधे हैं। मीडिया में प्रसारित किसी उत्पाद का विज्ञापन दिखाने से उसकी विश्वसनीयता बढ़ती है। इसीलिए मीडिया की जिम्मेदारी दोहरी हो जाना चाहिए लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा होता नहीं दिखता। दरअसल, पश्चिमी देशों से मुकाबला और उसके असर के कारण भारत में स्थितियां तेजी से बदली हैं। अब हर वस्तु का बाजार है। बाजार में उपभोक्तावादी संस्कृति का मानवीय संवेदनाओं से मेल बैठना मुश्किल है। बाजारों को तैयार करने में पश्चिम से प्रभावित मीडिया ने आवश्यक उपकरण का काम किया। इस मीडिया का मकसद सारी दुनिया को ‘एक बाजार के लिए एक सभ्यता’ को प्रोत्साहित करना रहा ताकि उत्पादित माल को बेचना आसान हो सके। इस आधार पर आधुनिक मीडिया का विस्तार भी होना ही था। मीडिया के विकृति से चिंतित कुछ जन नए विकल्पों की बात करते हैं। मगर विकल्प कोई भी हो, बाजार के प्रभाव से बचना मुश्किल होगा। कुछ का मत है कि आधुनिक मीडिया ने पारंपरिक और लोक माध्यमों को कमजोर बनाया है जबकि आज का बाजार इन्हीं माध्यमों से अपनी उत्पादनों को बेचने की क्षमता भी रखता है। बात चाहे सामुदायिक रेडियो की हो या वेब दुनिया जैसे नए विकल्पों की, सभी इन दिनों मनोरंजन द्वारा और मंनोरंजन के लिए हाजिर हैं।

इन दिनों विभिन्न सामाजिक संस्थाओं द्वारा समाचार माध्यमों पर सेक्स, अपराध, अंधविश्वास आदि नकारात्मक प्रवृतियों को रोकने के लिए सरकार से कारगर राष्ट्रीय मीडिया नीति बनाने की मांग की जा रही है। ऐसी संस्थाओं का मानना है कि आजकल मीडिया में सामग्री का चयन सामाजिक सरोकारों के आधार पर नहीं बल्कि बाजार की विशुद्ध शक्तियों द्वारा निर्धारित होता हैं। लेकिन मीडिया की आलोचना का मतलब मीडिया के विरोध से नहीं बल्कि मीडिया में सुधार संबंधी चिंतन से होना चाहिए। आज हर समाचार माध्यम अपने लक्ष्य समूह तक अधिक से अधिक पहुंचना चाहता है तो यह ठीक भी है। लेकिन अगर उस लक्ष्य समूह की प्राथमिक समस्याओं को ध्यान में रखने की जरूरत महसूस हो रही है तो इस पर भी विचार करना चाहिए। बाजार से मीडिया को पूर्णतः अलग-थलग करने की बजाय इसे बाजार के दुष्प्रभावों से बचाना आसान होगा। इसीलिए मीडिया की एक सार्थक नीति बनाने की बात में संभावना दिखती है। हालांकि यह बहुत संवेदनशील मांग है क्योंकि प्रेस की अभिव्यक्ति पर रोक लगाने की लम्बी कहानियां भी हैं। इस नीति का लक्ष्य मीडिया पर प्रतिबंधों से नही बल्कि सामाजिक जिम्मेदारियों के संदर्भ में उसकी कारगर रणनीति से होना चाहिए। इसलिए मीडिया की नीति को मीडिया के लोगों द्वारा बनाने से इसकी लोकतांत्रिक संरचना ही मजबूत होगी। आज भी मीडिया में असंख्य लोग पूरी निष्ठा और ईमानदारी से कार्य करना चाहते हैं लेकिन जवाबदेही की कोई स्पष्ट रुपरेखा न होने से वह अपनी भूमिका का निर्वाहन नहीं कर पाते।

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6.4.10

पानी की कालाबाजारी में अतराई मुम्बई

शिरीष खरे

मुंबई/ मुम्बईकरों को पानी की परेशानी के बीच सूचना के अधिकार से एक हैरतअंगेज सूचना निकली है कि बृहन्मुम्बई महानगर पालिका द्वारा कम से कम 18 पानी कंपनियों को उनकी मुनाफाखोरी के लिए लाखों लीटर पानी दिया जा रहा है। एक तरफ जहां शहर के रहवासियों के सामने पानी का घनघोर संकट छाया हुआ है वहीं दूसरी तरफ इन 18 कंपनियों को हर रोज 8,10,000 लीटर पानी दिया जा रहा है और बदले में उनसे पूरे साल भर के लिए सिर्फ 1 करोड़ 55 लाख रूपए लिए जा रहे हैं। जबकि इतने पानी में करीब 8,000 से ज्यादा रहवासियों की पानी की जरूरत पूरी की जा सकती है। मगर ऐसा न करते हुए पानी कंपनियों को 1,000 लीटर पानी सिर्फ 40 रूपए के हिसाब से दिया जा रहा है। इसके बाद यह कंपनियां 1 लीटर पानी को 40 रूपए तक बेचकर भारी मुनाफा कमा रही हैं।

'घर बचाओ घर बनाओ आन्दोलन ' ने सूचना के अधिकार के मार्फत जो दूसरी सूचना निकाली है वह यह कि मुंबई में ऐसे कई पानी उपभोक्ता है जो पानी का इस्तेमाल तो कर रहे हैं मगर बिल जमा नहीं कर रहे हैं। ऐसे पेण्डिंग बिल का जोड़ 700 करोड़ रूपए से ज्यादा बन रहा है।

'घर बचाओ घर बनाओ आन्दोलन ' के सिम्प्रीत सिंह ने बताया है कि "बीएमसी कानून 1988 की कलम 61बी के मुताबिक सभी नागरिकों के लिए पानी का इन्तजाम करना महापालिका की जिम्मेदारी है मगर यह बड़े खेद ही बात है कि वह खुद ही हजारों नागरिकों को पीने का पानी देने की बजाय कंपनियों को मुनाफाखोरी के लिए पानी सप्लाई करता है।" बातचीत के दौरान सिम्प्रीत सिंह ने बताया कि "इस देश का संविधान और सुप्रीम कोर्ट तक यह कह रहा है कि हर नागरिक को जीने के अधिकार के भीतर स्वच्छ पानी का अधिकार भी दिया गया है। इसके बावजूद बीएमसी ने 01.01.1995 की कट आफ डेट लगाते हुए कई नागरिकों को पानी से वंचित रखा है। भला अमीर और गरीब के बीच ऐसे दोहरे मापदण्ड क्यों अपनाए जा रहे हैं ?"

देखा जाए तो खासतौर से मुम्बई की झोपड़ियों में रहने वाली महिलाओं को पानी हासिल करना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। यह महिलाएं पानी के लिए हर रोज 2 से 3 घण्टे बिताती हैं और कई बार तो वह 2 से 3 किलोमीटर पैदल भी चलती हैं। फिर भी बीएमसी द्वारा एक तो कंपनियों के फायदे के लिए पानी देना और दूसरा करोड़ों रूपए बकाया होते हुए भी पानी की सप्लाई बन्द न करना बताता है मुंबई का पानी कालाबाजार में किस हद तक डूबा है।

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5.4.10

सरदार सरोवर का सबक

शिरीष खरे

यह सच है कि सरदार सरोवर दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बांध है, जो 800 मीटर नदी में बनी अहम परियोजना है। सरकार कहती है कि वह इससे पर्याप्त पानी और बिजली मुहैया कराएगी। मगर सवाल है कि भारी समय और धन की बर्बादी के बाद वह अब तक कुल कितना पानी और कितनी बिजली पैदा कर सकी है और क्या जिन शर्तों के आधार पर बांध को मंजूरी दी गई थी वह शर्तें भी अब तक पूरी हो सकी हैं ?

साल 2000 और 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में साफ कहा है कि सरदार सरोवर की ऊंचाई बढ़ाने के छह महीने पहले सभी प्रभावित परिवारों को ठीक जगह और ठीक सुविधाओं के साथ बसाया जाए। मगर 8 मार्च, 2006 को ही बांध की ऊंचाई 110 मीटर से बढ़ाकर 121 मीटर के फैसले के साथ प्रभावित परिवारों की ठीक व्यवस्था की कोई सुध नही ली गई। हांलाकि 1993 में, जब इसकी ऊंचाई 40 मीटर ही थी तभी बडे पैमाने पर बहुत सारे गांव डूबना शुरू हो गए थे। फिर यह ऊंचाई 40 मीटर से 110 मीटर की गई और प्रभावित परिवारों को ठीक से बसाया नहीं गया।

तत्कालीन मध्य प्रदेश सरकार ने भी स्वीकारा था कि वह इतने बड़े पैमाने पर लोगों का पुनर्वास नहीं कर सकती। इसीलिए 1994 को राज्य सरकार ने एक सर्वदलीय बैठक में बांध की ऊंचाई कम करने की मांग की थी ताकि होने वाले आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक और पर्यावरणीय नुकसान को कम किया जा सके। 1993 को विश्व बैंक भी इस परियोजना से हट गया था। इसी साल केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय के विशेषज्ञ दल ने अपनी रिपोर्ट में कार्य के दौरान पर्यावरण की भारी अनदेखी पर सभी का ध्यान खींचा था। इन सबके बावजूद बांध का काम जारी रहा और जो कुल 245 गांव, कम से कम 45 हजार परिवार, लगभग 2 लाख 50 हजार लोगों को विस्थापित करेगा। अब तक 12 हजार से ज्यादा परिवारों के घर और खेत डूब चुके हैं। बांध में 13,700 हेक्टेयर जंगल डूबना है और करीब इतनी ही उपजाऊ खेती की जमीन भी। मुख्य नहर के कारण गुजरात के एक लाख 57 हजार किसान अपनी जमीन खो देंगे।

अगर सरदार सरोवर परियोजना में लाभ और लागत का आंकलन किया जाए तो बीते 20 सालों में यह परियोजना 42000 करोड़ रूपए से बढ़कर 45000 करोड़ रूपए हो चुकी है। इसमें से अब तक 2500 करोड़ रूपए खर्च भी हो चुके हैं। अनुमान है कि आने वाले समय में यह लागत 70000 करोड़ रूपए पहुंचेगी। गौर करने वाली बात है कि साल 2010-11 के आम बजट में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने सरदार सरोवर परियोजना के लिए 3000 करोड़ रूपए से ज्यादा की रकम आंवटित करने की घोषणा की है। इसके अलावा सरकार के मुताबिक परियोजना की पूरी लागत गुजरात के सिंचाई बजट का 80% हिस्सा है। इसके बावजूद अकेले गुजरात में ही पानी का लाभ 10% से भी कम हासिल हुआ है। जबकि मध्यप्रदेश को भी अनुमान से कम बिजली मिलने वाली है। ऐसे में पूरी परियोजना की समीक्षा होना जरूरी है।

पर्याप्त मुआवजा न मिलना, मकानों व जमीनों का सर्वे नहीं होना, या तो केवल मकानों को मुआवजा देना या फिर केवल खेती लायक जमीन को ही मुआवजा देना, पुनर्वास स्थलों पर बुनियादी सुविधाओं का अभाव, कई प्रभावित परिवार को पुनर्वास स्थल पर भूखण्ड न देने आदि के चलते हजारों डूब प्रभावित अपना गांव छोड़ने को तैयार नहीं हैं। जहां-जहां गांव का पुर्नवास स्थल बनाया गया है वहां-वहां पूरे गांव के प्रभावित परिवारों को एक साथ बसाने की व्यवस्था भी नहीं है। गांव में लोगों की खेती की सिंचित जमीन के बदले सिंचित जमीन कहां देंगे, यह उचित तौर पर बताया नहीं जा रहा है।

कुछेक लोगों को बंजर जमीन दी गई है और कुछेक को गुजरात में उनकी इच्छा के विरूद्ध प्लॉट दिये गए। गुजरात में जहां कुछ परिवारों को बसाने का दावा किया गया है वहां भी स्थिति डूब से अलग नहीं है। करनेट, थुवावी, बरोली आदि पुनर्वास स्थल जलमग्न हो जाते हैं, उनके पहुंच के रास्ते बंद हो जाते हैं। यदि किसी व्यक्ति की जीविका का आधार यानी उसकी खेती लायक जमीन बांध से प्रभावित है और उसका घर पास के गांव में है तो उसे बाहरी बताकर पुनर्वास लाभ से वंचित किया जा रहा है।

डूब प्रभावितों के अनुसार आवल्दा, भादल, तुअरखेड़ा, घोघला आदि गांवों के तो पुर्नवास ही नहीं बनाये गए हैं। गांव भीलखेड़ा साल 1967 और 1970 में दो बार नर्मदा नदी में आई भारी बाढ़ से उजड़कर बसा है। बांध की ऊंचाई बढ़ाने से यह तीसरी बार उजड़ने की कगार पर है। भादल का राहत केम्प 7 किमी दूर ग्राम सेमलेट में बनाया गया है। भादल से सेमलेट सिर्फ पहाड़ी रास्तों से पैदल ही पहुंचा जा सकता है। एकलरा के प्राथमिक स्कूल को गांव से करीब ढ़ाई किलोमीटर दूर पुनर्वास करने से 53 में से केवल 8-10 बच्चे ही पहुंच पा रहे हैं। शिक्षकों को रिकॉर्ड रखने में परेशानी हो रही है और मध्यान्ह भोजन योजना का उचित संचालन नहीं हो पा रहा है।

यह तो महज एक सरदार सरोवर परियोजना के चलते इतने बड़े पैमाने पर चल रहे विनाशलीला का हाल है। मगर 1200 किलोमीटर लंबी नर्मदा नदी पर छोटे, मझोले और बड़े करीब 3200 बांध बनाना तय हुआ है। यहां से आप सोचिए कि नर्मदा नदी को छोटे-छोटे तालाबों में बांटकर किस तरह से पूरी घाटी को असंतुलित विकास, विस्थापन और अनियमितताओं की तरफ धकेला जा रहा है।

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3.4.10

विकलांगता : एक स्थिति बनाम सामाजिक चश्मा

शिरीष खरे


हमारे अतीत के हिस्से में ऐसे बहुत सारे बच्चे हैं जिनका नाम उनकी विकलांगता के आधार पर दर्ज हैं। अब नाम भले दूसरे बच्चों की तरह रखे जाने लगे हो मगर समाज की जुबान से ऐसे अपशब्द पूरे तरह से गए भी नहीं हैं। आज भी कई जगहों पर ऐसे अपशब्द ही उनकी पहचान बने हुए हैं। आज भी समाज की नजर में विकलांगता जैविक या जन्मजात विकृति से ज्यादा कुछ भी नहीं। महज एक रोग, एक अभिशाप है। जबकि यह रोग या अभिशाप नहीं बल्कि एक स्थिति है जो कि सामाजिक पूर्वाग्रह और तरह-तरह की बाधाओं के कारण और जटिल बन चुकी है। जवाबदेही के नाम पर इससे जुड़े हर सवाल को मेडीकल से जोड़कर देख लिया जाता है। फिर मेडीकल में ही पुर्नवास करने-कराने की दलीलें दे दी जाती हैं। विकलांग लोगों के संपूर्ण पुर्नवास पर आवाज लगाने वालों की तादाद देश में अब भी गिनी-चुनी और अनसुनी है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि वह आर्थिक और राजनैतिक स्तर पर कम भी हैं और कमजोर भी। दरअसल विकलांगता को उसकी व्यापकता और वास्तविकता में समझने के लिए एक जमीन चाहिए। एक ऐसी जमीन जिस पर विकलांगता के कारण और उसकी स्थितियों पर प्रकाश डाला जा सके। तो आइए बड़वानी चलते हैं :

बड़वानी- मध्य-प्रदेश का एक गरीब, आदिवासी और विकास के मामले में बहुत पिछड़ा जिला है। जल, जंगल, जमीन के बावजूद दाने-दाने को मोहताज। जो बिखरा-बिखरा, असंगठित, उबड-खाबड़ पहाड़ी, जंगली और नदी-नालों से भरा है। जहां प्रशासन की सुविधाएं भी बहुत दूर-दूर हैं। अंधविश्वास की भावनाएं विकलांगता की स्थिति को कितना बिगाड़ देती हैं, आइए आप ही देख लीजिए :

(एक) प्रदेश में विकलांग समुदाय की कुल आबादी है : 14,77,708। जिसमें 11,08281 ग्रामीणजन हैं। यह कुल आबादी का 75 % भाग है। बड़वानी में कुल 17,782 जन विकलांग हैं, जिसमें 15,427 ग्रामीण अंचल से ताल्लुक रखते हैं।

(दो) प्रदेश में कुल 11,65,703 विकलांग जन गरीबी रेखा से नीचे हैं। बड़वानी का जिक्र किया जाए तो यहां 14,679 विकलांग जन इस अभावग्रस्त रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं, जिसमें 13,052 ग्रामीण हैं। प्रतिशत में यह 89 % है।

(तीन) प्रदेश में कुल विकलांग आबादी में 51,5929 लोग आजीविका या रोजगार से दूर हैं। मतलब, प्रतिशतता के आधार पर 34.91%। तुलना के लिहाज से बड़वानी में कुल 12,828 में से 3,561 विकलांग जन तो पूरी तरह बेकार है। मतलब, 28 % लोग काम की तलाश में यहां से वहां भटकते हैं।

(चार) प्रदेश में साक्षरता के मद्देनजर विकलांग जन की गणना की जाए तो 87,8310 निरक्षर हैं जो कि 59.44 % बोलता है। इसी तरह बड़वानी में कुल 12,064 निरक्षर हैं, मतलब 68 %। मतलब कुल संख्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा 'क' 'ख' 'ग' 'घ' से परिचित नहीं है। इस पर भी 10989 ग्रामीण हैं। यहाँ की प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर हालत को नाजुक ही बताया जाएगा क्योंकि इस तरह के तुलना 1,874 लोग ही कक्षा 5 तक शिक्षा पा सके हैं। देखा आपने यह सफेद कागज पर विकलांग साथियों के खिलाफ जाता कैसा गणित है ?

यह महज संख्याएं नहीं हैं, इनसे बहुर सारी कहानियां भी जुडी हैं। इन कहानियों का सार गरीबी है। गरीबी के खिलाफ पहली लड़ाई भोजन को पाने से है। भोजन की कमी और कठोर मेहनत की वजह से अनगिनित माओं के पेट में पल रहा विकास यहां भी प्रभावित है। यहां आने वाली तकदीर को कुपोषित, मंदबुध्दि और विकलांग बनाने का क्रम जारी है। यहां भी भोजन की कमी को कम करने के लिए अकसर जहरीला या गंदा खाना खाया जाता है। जिससे शरीर असक्ष्म और मरने की स्थिति तक पहुंच जाता है। या कई तरह की बीमारियों से घिर जाता है। अफसोस, विकलांगता को भी इन्ही बीमारियों में से एक मान लिया जाता है। बाकी का कुकर्म जानकारी और सुविधाओं के अ-भाव के माथे चढ़ता है।


ठीकरी ब्लाक के सुराना गांव की सरिता की बात ही ले। यह बच्ची बचपन से ही मंदबुध्दि है। वह जैसे-जैसे बड़ी हुई घरवालों को उसमें असमानता और कमियां दिखाई देने लगीं। जैसा कि होता है, परिवार वालों का व्यवहार भी बदल गया। सरिता, क्योंकि कम दिमाग की बच्ची है इसलिए वह कुछ समझ न पायी। उल्टा इस बदले व्यवहार ने उसके लिए बहुत-सी समस्यां पैदा कर दी। अब परिवार वाले उसकी जिद और तरह-तरह की हरकतों से और ज्यादा नाराज रहने लगे। हालात यह हो गई कि उन्होंने उसे एक कोने में बांधकर रख दिया।

अनिल अभी 12 साल का है। जिला मुख्यालय से 4 किलोमीटर दूर उसका घर बिलावा गांव में है। उसके दोनों पैरों में जन्मजात विकृति है। समय रहते सुधार की गुजांइश थी लेकिन परिवार की आर्थिक हालात बहुत ही खराब थी। मां-बाप खेतों में काम कर किसी तरह दो वक्त की रोटी का बंदोबस्त कर लेते हैं। सही वक्त पर उचित परामर्श और चिकित्सा न मिलने से अनिल के जीवन की चाल रुक सी गई है।

राम जिला मुख्यालय से सटा गांव कसरावद का है। 7 साल का राम एक भील परिवार का बच्चा है। बचपन में ही वह अपनी मां से बिछड़ गया। वह जन्मजात विकलांगता से ग्रसित है और थोड़ा बड़ा होते ही परिवार वाले भी उसकी इस कमजोरी को समझ गए। उसके पिता ने कई बार डाक्टरों दिखाया। हासिल कुछ भी न हो सका। पिता ने दूसरी शादी कर ली। उनकी दूसरी पत्नी से पहली संतान हुई। सबका ध्यान उसी की ओर हो गया। अब उसकी बूढ़ी दादी ही उसका एकमात्र सहारा है। पैर पर पैर रखकर वह घसीट-घसीटकर चलता है। नतीजन, उसकी रीढ़ के निचले हिस्से में घाव हो गया है।

जब तक बच्चा गोदी में है अच्छा लगता है। गोदी के बाहर अनगिनत बाधाएं हैं। ऐसे बच्चे पर समुदाय ध्यान नहीं देता। उसे बोझ तथा पूर्व जन्मों के पाप समझकर परजीवी बना दिया जाता है। दूसरी तरफ कुछ परिवार ऐसे भी होते हैं जो कि अपने लाड़ले की विकलांगता को दूर करने के लिए बहुत पैसा और समय खर्च करते हैं। इसके बावजूद जब उसकी स्थिति में खास सुधार नही होता तो बर्बादी की सारी जिम्मेदारी घर के ऐसे ही सदस्य के सिर फोड़ी जाती है। इस तरह एक ही परिवार के दूसरे लोग जो किसी वजह से अपने जीवन मे नाकामयाब होते हैं, वह भी अपनी कमियों को छिपाने के लिए इसी भाई या बहन को जिम्मेदार ठहराते है।

निर्मला बरेला, 14 साल की ऐसी बच्ची है जिसने कक्षा तीन तक पढ़ने के बाद कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा। वह तकरीबन 15 किलोमीटर दूर सिलावद (नदी पार) की है। एक पैर से विकलांग होने के कारण अक्सर बीमार रहती है। वह पंजे के बल एड़ी को उठाकर, लचकती-सी चलती है तो कई बार गिर भी जाती है। जब पहली बार उसको देखने यहां की महिला कार्यकर्ता पहुंची तो वह भाग गई। धीरे-धीरे इस कार्यकर्ता ने उसे स्कूल में लाने कोशिश की। अब वह बच्ची कार्यकर्ता के पास तो आने लगी, मगर माता-पिता के कहने पर। और एक दिन जब बच्ची के घर पर कोई नहीं था तो खुद बच्ची ने महिला कार्यकर्ता को बहुत भला बुरा कहा।

दरअसल एक खास बाधा स्कूल का गेट या उसकी सीढ़ी से जुड़ा है। कहने की जरूरत नहीं कि जिन्दगी के 1,2,3 और 4,5 जाने बगैर सुंदर भविष्य की कल्पना बेमानी है। मगर पढ़ाई लिखाई में भी विकलांग बच्चों को लगातार उपेक्षित किया जाता है। राम के साथ भी ऐसा ही हुआ। जब एक गैर सरकारी संस्था के स्थानीय-कार्यकर्ता ने उसे स्कूल भेजने का जिम्मा लिया तो इसके लिए उसकी प्यारी दादी से बात हुई। दादी किसी तरह मान भी मगर शिक्षक ने एडमीशन देने को मना कर दिया। कार्यकर्ता ने बात को यही समाप्त करने की बजाय पंचायत में बात की। अभी वह पहली में पढ़ने के लिए किसी तरह स्कूल जा जरूर रहा है। मगर अधिकतर ऐसे बच्चे तरह-तरह की समस्याओं के कारण 'मेरे दोस्त को स्कूल भेजो' नहीं कहते। बल्कि वह खुद ही बीच में पढ़ाई छोड़ देते हैं। यहां शिक्षकों की संवेदनशीलता और अध्ययन के तरीकों पर बात उठनी लाजमी है। ज्यादातर शिक्षक इसके पीछे काम काज में अतिरिक्त भार को कारण बताते हैं। सहपाठियों का अ-संवेदनशील रवैया और हतोत्साहन भी विकलांग बच्चों को स्कूल से बाहर का दरवाजा दिखाता है। स्कूल में संदवेनशील और एक समान व्यवहार का माहौल तैयार करना शिक्षक का काम होता है। वह विद्यार्थियों में सहयोगात्मक भावना जगा सकता है। ऐसे विद्यार्थियों को स्कूल जाने मे जिन बाधाओं का सामना करना पड़ता है उन पर विचार करना चाहिए। जैसे : कक्षा तक जाने के लिए सीढ़िया, मैदान, बैठक व्यवस्था, ब्लैक-बोर्ड, उस पर लेखन प्रणाली, शिक्षक की आवाज, रौशनी, पेयजल और शौचालय तक पहुंचने का मार्ग आदि।

विकलांग बच्चियों के साथ तो स्थिति और खराब हो जाती है। बच्ची होने से उसे घर की चारदीवारी में कैद हो जाना पड़ता है और विकलांगता के चलते उसे शर्मिंदा होना पढता है। जब वह ही अपनी विकलांगता को छिपाना चाहेगी तो फिर वह अपने अगले कदम मतलब अधिकार की बात कैसे करेगी ?

जिला मुख्यालय से तकरीबन 20 किलोमीटर दूर गाँव तलवाड़ा बुर्जग में दाएं पैर से विकलांग लक्ष्मण सिंह चलते समय लकड़ी का सहारा लेता है। पांचवी फेल यह 27 साल का अविवाहित युवक है। लक्ष्मण निराश्रित पेंशन-योजना के तहत 150 रूपए प्रतिमाह पाता है। आजीविका के लिए वह अपनी सिलाई मशीन से थोड़ा-बहुत पैसा कमाता रहा था, मगर अब यह मशीन खराब पड़ी है, जिसे सुधरवाने में 300 रूपए का खर्च आएगा। एक गरीबी-रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वाले व्यक्ति के लिए यह एक भारी रकम है। रकम की व्यवस्था न हो पाने के कारण लम्बे समय से उसका काम ठप्प है। बेकारी ने उसकी मुश्किलों को और बढ़ा दिया है। अपनी छोटी सी झुग्गी में मटमैले कपड़े, बिखरे बाल और चहरे पर जमा गंदगी के साथ जैसे उसकी जिन्दगी में निराशाओं ने भी जड़े जमा ली हैं।

समाज का नकारात्मक सोच और खुद का कोई काम कर पाने को लेकर गिरा भरोसा बेकारी से निकलने नहीं देता। जब वह किसी और के भरोसे हो जाता है तो उसकी भावना, इच्छा और फैसलों को कोई महत्त्व नहीं रह जाता है। यह तो एक लक्ष्मण की बात है। बाकी के न जाने कितने लक्ष्मण भीख मागने को अपना एकमात्र उपाय समझ लेते है। हमारा समाज भी धार्मिक या सामाजिक तौर पर दान देने की गलत पंरपरा को निभाता है। इस तरह समुदाय की एक खासी तादाद अर्थव्यवस्था में अपनी भागीदारी नहीं निभा पाता है। जो लोग ऐसा नहीं कर पाते वह फैसले की प्रक्रिया में भी कही कोई स्थान नहीं पाते हैं।

गरीब आदमी हमेशा मानसिक तनाव में रहता है। मानसिक तनाव मानसिक रोग में बदल जाता है। गरीबी के कारण ही उचित उपचार नहीं हो पाता है। लेखराम 17 किलोमीटर दूर ओसाड़ा गांव का निवासी है। उसे पिता की बीमारी और मौत ने मानसिक रूप से परेशान कर दिया। अंतिम-संस्कार के समय ढ़ोल-बाजे सुनकर वह कांप उठा था। फिर सीटी बजाना, घर से भागना, पत्थरों को फेंकना,गाली-गलौच करना, बड़बड़ना और ताली बजा-बजाकर हंसना उसकी फितरत बन गई।

इसी तरह अगर विकलांग समुदाय की मानवीय स्वभाव से जुड़ी अन्य जरूरतों पर बात की जाए तो सेक्स को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मगर इस बीच आने वाली विकलांगतारूपी पीड़ाएं बाधा बनती हैं। जब उनकी इस प्रकार की जरूरतें पूरी नहीं हो पाती तो मानसिक संतुलन की स्थिति बिगड़ जाती है। पुरूष तो किसी तरह अपने हिस्से की जिन्दगी जी लेते हैं मगर महिलाओं के लिए जिंदगी बद से बदतर बन जाती है। क्योंकि उसके लिए तो बंधन हैं, मर्यादाओं की एक दहलीज है। दहलीज के बाहर निकलने में ऐतराज है, दहलीज के भीतर रहने में समस्याएं हैं। फिर गरीबों का रेनबसेरा बहुत छोटा होता है। जिसमें एकाध कमरा और तंग दीवारें होती हैं। इन तंग दीवारों में परिवार के दूसरे सदस्यों की सेक्स गतिविधियां उनकी भावनाओं को भड़काती हैं। अगर वह अपनी भावनाओं को दबाएं भी तो इससे मानसिक हालत बिगड़ने का खतरा रहता है। कई बार समाज के दबंग मर्द विकलांग और कमजोर महिला को यौन शोषण का शिकार बनाने से नही चूकते। ऐसे में उनके द्वारा किए गए अत्याचार से जो गर्भ ठहरता है उसके लिए वहीं जिम्मेदार ठहराई जाती है। उल्टा उसे ही असामाजिक घोषित कर नर्क के द्वार खोल दिए जाते हैं। कुछ परिवार यह सोचकर कि इनमें सेक्स संबंधी भावनाएं होती ही नही हैं, उनकी तरफ ध्यान नहीं देते। यही सोच उनके शोषण की एक मुख्य वजह भी बनता है।

आज के व्यक्तिवादी समाज में बूढ़ों की हालत वैसे ही कमजोर हो गई है। ऐसे में विकलांग समुदाय के बूढ़ों की बात करें तो स्थिति ज्यादा नाजुक बन जाती है। देखा जाए तो इस उम्र तक आते-आते विकलांग व्यक्ति या तो जी ही नही पाते या आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते हैं। और जो दोनो स्थितियो से बच निकलते हैं वह अकेलापन लिए होते हैं। अभावग्रस्त जीवन को ढ़ोने और केवल दुख को महसूस करने के लिए जिंदा रहते हैं। सखाराम 65 साल के आदिवासी बुजुर्ग और अपने दोनों पैरों से लाचार है। गांव राजघाट में उनका घर एक छोटी-सी बेड़ी पर पड़ता है। अन्दर को नालियों से जाता गंदा पानी और कीचड़ से लथ-पथ गलियों से गुजरता हुआ उनका जीवन असंमजस में अटका पड़ा है।

असल में सामाजिक स्तर पर विकलांगता के शिकार व्यक्ति विकलांगता से ज्यादा समाज में फैले भ्रम और अनदेखियों से जूझते हैं। एक तरफ सरकार समाज से कहती है कि विकास में सबका साथ चाहिए। मगर इस तबके को जब तक मौका नहीं मिलेगा तब तक यह समाज में अपनी रचनात्मक भागीदारी नहीं निभा सकता। यह तो हताशा से घिरा ऐसा तबका है जो अपने भीतर भरोसा कायम नहीं कर पा रहा है।

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संपर्क : shirish2410@gmail.com

1.4.10

मीडिया के मानक और लोग

पशुपति शर्मा

आम तौर पर यह कह दिया जाता है कि मीडिया के अब कोई मानक नहीं बचे तो इन पर बहस की गुंजाइश ही कहां बचती है। कुछ हद तक ये बात सही है, लेकिन क्या इसके उलट ऐसा नहीं लगता कि अब मानकों पर और ज्यादा गंभीरता से सोचने और विचारने की जरूरत आन पड़ी है। आप और हम सबसे ज्यादा मीडिया के बदलते मानकों से ही प्रभावित हो रहे हैं।

मीडिया के सैद्धांतिक मानकों और व्यावहारिक मानकों में काफी अंतर आ गया है। व्यावहारिक मानकों के कर्ता-धर्ता कामयाबी के शिखर पर खड़े हो जनता का मुंह चिढ़ा रहे हैं तो सैद्धांतिक मानकों के पक्षधर पाताल की खाइयों में खड़े जनता के हितों की दुहाई दे रहे हैं। इन दोनों के बीच अटका है 'लोग'। लोग, जो हर मानक के प्रयोग का आधार है। लोग, जो मानकों के नतीजों को प्रभावित करता है। लोग, जो चैनलों की टीआरपी तय करता है। लोग, जो अखबारों की प्रसार संख्या घटाने-बढ़ाने की शक्ति रखता है, लेकिन अफसोस उस लोग की भूमिका मीडिया के मानक तय करते वक्त कम से कमतर होती जा रही है।

बहरहाल, बात मीडिया की मानकों की करें तो सबसे बड़ा बदलाव तो ये है कि मानक-लोग, लोकहित से शिफ्ट कर गए हैं, अब बाजार और उपभोक्ता नए मानक बन गए हैं। नई परिभाषा-जो बाजार को भाए वही खबर है। जो मुनाफा दे, वही खबर है। जो विज्ञापनदाताओं के हितों का पोषण करे, वही खबर है। ऐसे में खबरों के मानक तय करने की शक्ति संपादकों के हाथ से फिसलकर मार्केटिंग डिवीजन के हाथ में जा रही है तो कैसा अचरज?

अब बात एक दो उदाहरणों से की जाए तो शायद परिदृश्य और स्पष्ट हो। विकास संवाद के मीडिया सम्मेलन के लिए इंदौर आ रहा था कि रास्ते में नई दुनिया का अखबार खरीदा। 12 मार्च 2010 की नई दुनिया की लीड खबर- अखबारों में छपने से कुछ नहीं होता। मध्यप्रदेश के आदिम जाति व अनुसूचित जाति कल्याण मंत्री विजय शाह से जुड़ी खबर लीड बनी थी। मुद्दा बस इतना था कि मलगांव मेले में बेले डांस को लेकर मीडिया ने उन पर चौतरफा हमला किया तो वो भी मीडिया की औकात बनाने पर उतारू हो गये। मीडिया और मंत्रीजी की टशन में लीड खबर बन गई। यहां मानक न तो लोग था, न लोक हित। यहां दो सत्ता प्रतिष्ठानों के ईगो की लड़ाई थी। मीडिया की सत्ता को
मंत्री ने चुनौती दी तो लीड खबर बन गई।

इसी क्रम में एक खबर मुझे पिछले दिनों बिहार के सीवान जिले (जीरादेई) के विधायक के ठुमके वाली ध्यान में आ रही है। इसे चैनल वालों ने बार-बार दिखाया। बार बालाओं के साथ ठुमके लगाते विधायक श्याम बहादुर सिंह के विजुअल में बड़ा दम था, बिकाउ था सो खूब चला। अगले दिन विधायक जी ने माफी मांगी- फिर वही डांस के विजुअल चले। तीसरे दिन श्याम बहादुर सिंह ने कहा- नाच कर मैंने कोई गलती नहीं की, मैं फिर ठुमके लगाऊंगा। खबर तीसरी बार भी चली- क्योंकि खबर से ज्यादा दम और रस बार बालाओं के ठुमकों में था। मीडिया में ऐसे में कई बार विधायक या मंत्रीजी के हाथ का एक खिलौना बस नजर आता है। वो जब चाहें खबर चलवा लें। आप ऊपर के दो उदाहरणों में खुद ही तय करें कि खबर के मानक क्या हैं?

तमिलनाडु पत्रकार यूनियन ने पेड न्यूज को लेकर एक सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण के मुताबिक लोकसभा चुनावों के दौरान तमिलनाडु के अखबारों ने पेड न्यूज के नाम पर 350 करोड़ रुपयों का वारा-न्यारा किया। लोक सभा चुनावों में राजनेताओं और राजनीतिक दलों से मार्केटिंड डिवीजन ने डील की और खबरें धड़ल्ले से छपती रहीं। कभी-कभी तो एक ही संस्करण में एक ही क्षेत्र के दो प्रतिद्वंद्वियों को एक साथ कागज में जिता दिया गया। लोगों और लोक हित के लिहाज से उम्मीदवारों का विश्लेषण नहीं हुआ, पैसों के लिहाज से हार-जीत तय हो गई।

मार्च महीने (2010) में कुछ संगठनों ने प्रेस क्लब में एक प्रेस वार्ता रखी। इस प्रेस वार्ता में जस्टिस राजेंद्र सच्चर, अरुंधति राय समेत कई लोगों ने अपनी बात रखी। अरुंधति राय ने इस बात पर हैरानी जाहिर की कि मीडिया नक्सलवाद के मामले में सरकारी वर्जन को ही अंतिम मानकर खबरों का प्रसारण कर रहा है। इतना ही नहीं, दूर-दराज के इलाकों के उन सभी जन संगठनों को नक्सलवादियों की कतार में खड़ा कर दिया गया है जो जनता के हितों की बात करते हैं। जहां मीडिया को ज्यादा जिम्मेदार भूमिका निभानी चाहिए वहां वो अगर सरकार के हाथ की कठपुतली बन जाए तो फिर कहना ही क्या?

ऐसे में मानकों का सवाल बार-बार उठता है और जरूरी भी है, लेकिन सवाल है कि क्या इन मानकों को कोई मानेगा? जिन लोगों ने मीडिया के मानकों को दफन कर दिया है क्या वो फिर से मानकों की रूह को कब्र से बाहर आने देंगे?

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पशुपति शर्मा संवेदनशील मीडियाकर्मी है.