30.7.09

मुंबई मेट्रो क्या करेगा ?

शिरीष खरे, मुंबई से
“हमारे शहर रहने लायक होने चाहिए, जहाँ आम आदमी गुज़र-बसर कर सके." ये शब्द प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के थे.
21 जून 2006 को मुंबई मेट्रो रेल का शिलान्यास करते हुए जब मनमोहन सिंह ने ये बातें कही थीं तो लगा था कि मुंबई में मेट्रो रेल सच में मुंबई की नई जीवन-रेखा होगी. लेकिन यह सिक्के का एक पहलू था. आज तीन साल बाद भी इसका दूसरा पहलू सवाल बन कर खड़ा है कि आखिर मेट्रो से किन ताकतों का कैसा हित जुड़ा है ? इस मेट्रो रेल से तरक्की के मुकाबले कितनी तबाही होगी ? आखिर मेट्रो से शहर की यातायात व्यवस्था किस हद तक बेहतर होगी ? और ये भी कि मुंबई मेट्रो क्या करेगा ?
सवाल यूं ही नहीं हैं. हर सवाल के साथ कई तरह की आशंकाएं और उलझनें जुड़ी हुई हैं और इन सब से बढ़ कर भ्रष्टाचार के नमूने, जिसने मेट्रो रेलवे को संदिग्ध बना दिया है.
प्रोजेक्ट के नोटिफिकेशन को ही देखें तो इसमें डेवेलपर्स को यह छूट दी गई है कि वह “कंस्ट्रक्शन खत्म होने के बाद बची हुई जमीनों को अपने मुनाफे के लिए बेच ” सकते हैं. इसके अलावा उन्हें “सेंट्रल लाइन के दोनो तरफ आरक्षित 50 मीटर जमीनों को दोबारा विकसित” करने की भी छूट मिलेगी. इससे कारर्पोरेट ताकतों को शहर की “सबसे कीमती जमीनों को हथियाने और यहां से व्यापारिक गतिविधियां चलाने” की छूट खुद-ब-खुद मिल जाएगी.
पैसा-पैसा और पैसा
मुंबई मेट्रो पूरी तरह से सरकारी प्रोजेक्ट नहीं है. इसमें प्राइवेट कंपनी सबसे ज्यादा निवेश करेगी. जाहिर है सबसे ज्यादा मुनाफा भी कंपनी ही कमाएगी, न कि सरकार. दूसरा, नोटिफिकेशन के हिसाब से शहर का खास भू-भाग कंपनी की पकड़ में आ जाएगा. यहां से उसे अपना कारोबारी एजेण्डा पूरा करने में सहूलियत होगी. याने मेट्रो से मुनाफा भी कमाओ, मेट्रो से निकलने वाली जमीन से कारोबार भी फैलाओ. इसे कहते है एक तीर से दो शिकार!!
इन दिनों कई कंपनियां रियल इस्टेट, आईटी और रेल के विकास के नाम पर शहर की जमीनों को हथियाना चाहती हैं. हाल ही में बदनाम हुई 'सत्यम' और उसकी सहयोगी कंपनी 'मेटास' ने हैदराबाद के आसपास की हजारों एकड़ जमीन हथिया ली थी.
‘मेटास’ तो 1,200 करोड़ रूपए की हैदराबाद मेट्रो रेल में भी शामिल थी. लेकिन ‘सत्यम’ में 7,800 करोड़ रूपए के घोटाले के बाद ‘मेटास’ को जांच एजेंसियों के हवाले कर दिया गया. ‘मेटास’ के आऊट होने के बाद अनिल अंबानी की ‘रिलायंस- इंफ्रास्ट्रक्चर' अब हैदराबाद मेट्रो में भी बोली लगाने को बेताब है. वैसे भी ‘रिलायंस- इंफ्रास्ट्रक्चर' मुंबई के साथ-साथ दिल्ली मेट्रो का काम तो कर ही रही है.
अगर दाल में कुछ भी काला नहीं है तो सरकार मेट्रो से जुड़े अहम तथ्यों से पर्दा हटाए। लेकिन धरातल पर ऐसा करना शायद सरकार के लिए मुश्किल पैदा कर सकता है. यही कारण है कि “सूचना के अधिकार” के तहत कुछ सामान्य-सी सूचनाएं मांगने पर उसने तुरूप का इक्का फेंका- “इस किस्म की सूचनाएं साझा करने से राष्ट्र को खतरा हो सकता है.”
कगार की आग
पिछले महीने 11 मई को शहर की झोपड़ियों से हजारों लोग निकले और यशवंत राव चौहान सेंटर पहुंचे. यहां ‘शहरी विकास विभाग’ ने मेट्रो फेस-2 के लिए दो दिनों की जनसुनवाई रखी थी. लोगों की भारी संख्या को देखकर बड़े अधिकारी चौंक खड़े हुए. न केवल संख्या बल्कि लोगों के कई सवालों ने भी उन्हें घेर लिया. जनसुनवाई में 19 बातों का पालन करना होता है, लेकिन प्रशासन ने चुप्पी साधी, फिर थोड़ी-सी जगह निकाली और निकल भागा.
इसी तरह नवंबर, 2008 में भी प्रदेश सरकार ने प्रोजेक्ट से जुड़ी आपत्तियां मांगी थीं. इसके बाद उसे आपत्तियों से भरे 15,000 पत्र मिले. 8,000 लोग मेट्रो के विरोध में सड़क पर उतरे. तब भी सरकार ने लोगों के विरोध को नजरअंदाज कर दिया था. ऐसे में शहर के बीचों बीच विरोध का एक नारा सुनाई देने लगा- “मेट्रो रेल क्या करेगा, सबका सत्यानाश करेगा !!”
आंकड़ों की मानें तो मेट्रो से 15,000 से ज्यादा परिवार उजड़ेंगे. इससे लाखों लोग बेकार हो जाएंगे. अकेले ‘कार सेड डिपो’ बनाने में ही 140 एकड़ से भी ज्यादा जमीन जाएगी. इससे जनता कालोनी, संजय नगर, एकता नगर, आजाद कम्पाउण्ड, गांधी नगर, केडी कम्पाउण्ड और लालजीपाड़ा जैसी बस्तियों के नाम नए नक्शे से मिट जाएंगे. तब यहां के हर मोड़ से गुजरने वाले सुस्त कदम रस्ते और तेज कदम राहें हमेशा के लिए रुक जाएंगे.
आज इन इलाकों से हजारों हाथों को काम मिलता है. कल इन हाथों के थम जाने से रोजगार का संकट गहरा जाएगा. कई रहवासी तो 40-45 साल से यही रहते आ रहे हैं. इन्होंने रोजमर्रा के मामूली धंधों से एक बड़ा बाजार तैयार किया है. उत्पादन के नजरिए से देखा जाए तो धारावी के मुकाबले यहां का बाजार काफी बड़ा है. इस बाजार से 10,000 लोगों की घर-गृहस्थियां आबाद हैं. यह इलाका कई सुंदर आभूषण और सजावटी चीजों को बनाने के लिए मशहूर है. यहां से कई चीजों को दुनिया भर में भेजा जाता है. इन चीजों को बनाने और भेजने में 15,000 महिलाएं शामिल हैं.
इस इलाके में बड़ी संख्या में लोग बेकरी और फुटकर सामान बेचने से भी जुड़े हैं. कुल मिलाकर शहर का यह हिस्सा सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों का मजबूत ताना-बाना है. अगर यह टूटा तो रहने और जीने के कई तार टूट जाएंगे. शहर की रफ्तार बढ़ाने वाले बहुत सारे पंख बिखर जाएंगे.
‘कार सेड डिपो’ बनने से पोईसर नदी भी अपना वजूद खो देगी. साथ ही इससे लगा नेशनल पार्क प्रभावित होगा. अभी तक “पर्यावरण पर होने वाले असर का मूल्यांकन ” भी नहीं हो सका है. ‘पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986’ के तहत ऐसा होना जरूरी है. यह कब होगा, तारीख कोई नहीं जानता.
ऐसी है योजना
मुंबई में मेट्रो रेल का पहला चरण 62.68 किलोमीटर का है जिसमें वरसोवा-अंधेरी-घाटकोपर, कोलाबा-बांद्रा-चारकोप और भांडुप-कुर्ला-मानखुर्द को जोड़ा जाएगा. इसके लिए 2011 की समय सीमा तय की गई है. दूसरे चरण को 2011-2016 के बीच खत्म करने का लक्ष्य रख कर 19.5 किलोमीटर तक मेट्रो की रेलवे पटरियों और अन्य सुविधाओं का विस्तार किया जाएगा. तीसरे चरण में 40 किलोमीटर तक निर्माण लक्ष्य रखा गया है, जिसे 2016 से 2021 के बीच पूरा करना है.
शहर का ट्रांसपोर्ट सिस्टम
कुछ ऐसी रिपोर्ट जारी हुई हैं, जो ट्रांसपोर्ट के नजरिए से मेट्रो को ठीक नहीं मानतीं. आईआईटी, दिल्ली के ट्रांसपोर्ट जानकारों ने एक अध्ययन में पाया कि मुंबई में 47 प्रतिशत रहवासी या तो पैदल चलते हैं, या साइकिल से.
इसी तरह 11 प्रतिशत रहवासी कार या मोटर साइकिल चलाते हैं. इसके बाद बस और रिक्शा से चलने वाले लोगों का प्रतिशत घटा दें तो ट्रेन से चलने वाले कुल 21 प्रतिशत ही बचते हैं. लेकिन ट्रांसपोर्ट के बजट का आधे से ज्यादा हिस्सा मेट्रो के लिए खर्च किया जा रहा है. जहां तक लंबी दूरी की बात है तो मेट्रो बेहद मंहगा प्रोजेक्ट हैं. इसमें घनी आबादी वाली बस्तियों के विस्थापन से होने वाले नुकसान को भी जोड़ दिया जाए तो पूरा प्रोजेक्ट बेहद खर्चीला हो जाता है.
ट्रांसपोर्ट के जानकार सुधीर बदानी के मुताबिक-“ मुंबई में ट्रेन के पुराने सिस्टम को दुरूस्त बनाने और बस-ट्रांसपोर्ट को विकसित करने से राहत मिलेगी. जहां मेट्रो के पूरे प्रोजेक्ट में 65,000 करोड़ रूपए खर्च होंगे, वहीं 2,00 किलोमीटर बस-ट्रांसपोर्ट तैयार करने में सिर्फ 3,000 करोड़. इसलिए बस का रास्ता सस्ता, बेहतर और व्यवहारिक है. यह पर्यावरण और रहवासियों के अनुकूल भी है.”
स्लमडाग मिलेनियेर को ‘गोल्डन ग्लोब’ और ‘आस्कर’ आवार्ड मिलने के बाद मुंबई को तीसरी दुनिया के सबसे दिलचस्प शहरों में से एक कहा जा रहा है. यहां एक तरफ ‘अंधेरी’ की उमंग में डूबी रातें हैं तो दूसरी तरफ 'धारावी' जैसा कस्बाई इलाका है. एक तरफ बेहतरीन रेस्टोरेंट, बार और नाइट-क्लब हैं तो दूसरी तरफ खुली झोपड़ियां, कच्ची-पक्की गलियां और टूटी-फूटी नालियां हैं.
इतनी विविधता वाले शहर की योजनाएं जितनी ज्यादा असंतुलित होगी, नुकसान भी उसी अनुपात में होगा. मुंबई मेट्रो में एक हिस्से को फायदा पहुंचाने के लिए दूसरे हिस्से से कीमत वसूली जाएगी. इस मेट्रो से कुछ लोगों के लिए सफर आसान हो जाएगा लेकिन यह कोई नहीं कहना चाहता कि इसी मेट्रो के कारण हज़ारों परिवार की घर-गृहस्थी की गाड़ी रुक जाएगी.

9.7.09

आम आदमी के बजट से बच्चे गायब

क्राई के मुताबिक 40 करोड़ बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा को अनदेखा किया गया।

मुंबई: 10 जुलाई, 2009। ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ ने केन्द्रीय-बजट 2009-10 को बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिहाज से असंतोषजनक बताया है। उसके मुताबिक आम आदमी के लिए खास बताए जाने वाले इस बजट में बच्चों की तीन बातों को दरकिनार किया गया है :

 हर साल स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या को देखते हुए स्कूली शिक्षा पर उम्मीद से बेहद कम खर्च हुआ है।

 प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम को ध्यान में रखते हुए अलग से पैसा नहीं रखा गया है। इस तरह बच्चों के लिए भोजन की सुरक्षा की गारंटी को अनसुना किया गया है।

 लंबे समय से आईसीडीएस को ‘सर्वभौमिक’ याने सभी जगह लागू करना का वादा, वादा बनकर ही रह गया है। आईसीडीएस के लिए जो 6,705 करोड़ रूपए बढ़ाये भी गए हैं वह उसके स्वरूप के मुकाबले कम है।
देखा जाए तो बच्चों पर खर्च के लिए कुल 5,100 करोड़ रूपए बढ़ाये गए हैं। यह बढ़ोत्तरी, हर साल बच्चों की बढ़ती संख्या के हिसाब से कम है। जहां स्कूली शिक्षा पर होने वाले खर्च को पिछली साल की तरह ही रखा गया है, वहीं स्वास्थ्य और भोजन की सुरक्षा पर होने वाले खर्च को भी बढा़या नहीं गया है। जैसे कि केन्द्रीय बजट में ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के लिए 13,100 करोड़ रूपए और मिड-डे-मिल के लिए 8,000 करोड़ रूपए रखे गए हैं।
जैसे कि अमेरिका, इंग्लैण्ड और फ्रांस में कुल बजट का 6-7 प्रतिशत हिस्सा सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है। लेकिन भारत में कुल बजट का सिर्फ 3 प्रतिशत हिस्सा शिक्षा पर और सिर्फ 1 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है। वैसे तो हम दुनिया के बड़े देशों की अर्थव्यवस्थाओं से मुकाबले की बातें करते हैं, लेकिन देश के 70 प्रतिशत गरीबों को नजरअंदाज करके आर्थिक दर बढ़ाने की बातों का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।’’ बातचीत के दौरान उन्होंने यह भी बताया कि- ‘‘एक तरफ प्रगति पर बढ़ते भारत को दर्शाया जा रहा है, दूसरी तरफ 1999-2000 से शिक्षा और स्वास्थ्य में होने वाले खर्च पर लगातार कटौती हो रही है, जो कि देश की विरोधाभाषी स्थिति को बयान करती है।’’

‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ के नजरिए से भारत जैसे देश में ‘सकल घरेलू उत्पाद’ याने जीडीपी का कम-से-कम 10 प्रतिशत हिस्सा स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च किया जाना जरूरी है। सार्वजनिक खर्च के रुप में बुनियादी हकों पर सार्वजनिक खर्चो में कटौतियां करना कोई अच्छी नीति नही है, यह अर्थव्यवस्था के लिए भी नुकसानदायक है। शिक्षित और स्वास्थ्य भारत के बिना एक मजबूत अर्थव्यवस्था का सपना देखना बेकार है।

दीपांकर मजूमदार के मुताबिक- ‘‘यूपीए जिस बजट को जनता के अनुकूल बता रहा है, उसमें ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी’ से जुड़े कई बड़े सवालों को उपेक्षित रखा गया है। इसी तरह देश की कुल आबादी में से बच्चों की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत है, लेकिन केन्द्र सरकार ने अपने बजट का सिर्फ 5.09 प्रतिशत ही बच्चों पर खर्च किया है। जो उनकी संख्या और जरूरतों के लिहाज से प्र्याप्त नहीं है।’’

अगर यह आम आदमी का बजट है तो आम आदमी की जरूरतों के हिसाब से उसे खर्च का हिस्सा क्यों नहीं मिला ? ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ यह भी कहता है कि :

 ‘नियंत्रक व महालेख परीक्षक’ याने सीएजी के मुताबिक सरकार ने 2009 के पहले तक ‘सर्व शिक्षा अभियान’ में होने वाले खर्च को सही तरीके से इस्तेमाल नहीं किया। अगर खर्च को सही तरीके से इस्तेमाल किया जाता तो सरकार के कुछ वादे और नारे पूरे हो जाते।

 सिर्फ नई आंगनबाड़ियां खोलना काफी नहीं है। पिछले कई सालों से आंगनबाड़ियों के बेहतर संचालन के लिए न तो कोई कारगर व्यवस्था बनी और न ही प्रशिक्षित कर्मचारियों पर ध्यान दिया गया है। यहां तक कि विकसित कहे जाने वाले राज्यों जैसे गुजरात और महाराष्ट्र में भी जिन आंगनबाड़ियों को मंजूरी मिली है वह ठीक तरह से काम नहीं कर पा रही हैं।

सूरत जाकर देखें, 50,000 बच्चे काम पर है....

शिरीष खरे, सूरत से लौटकर

सूरत। यह सच है, लेकिन अधूरा कि देश की टेक्स्टाइल इंडस्ट्री में सूरत ‘रीढ़ की हड्डी’ है। यह सच इस तथ्य के साथ पूरा होगा कि देश के अलग-अलग कोनों से आये ‘बाल-मज़दूरों की बदौलत’ टेक्स्टाइल इंडस्ट्री में सूरत ‘रीढ़ की हड्डी’ है। इसमें गुजरात के ही एक-चौथाई से ज्यादा बाल-मज़दूर काम करते हैं। सरकारी आंकडों के हिसाब से सूरत में 5,000 बाल-मजदूर हैं, जबकि गैर-सरकारी आंकडों को देखे तो यह संख्या 50,000 से भी ऊपर है। इसमें 15 से 18 साल के 68 प्रतिशत बाल-मजदूर हैं। ‘राष्ट्रीय बाल-अधिकार संरक्षण आयोग’ भी यह मानता है कि गुजरात के सूरत, भावनगर और बनासकंथा जिलों में बाल मज़दूरी के मामले सबसे ज्यादा उजागर हुए हैं। इन जिलों के कुल मजदूरों में से 28.51 प्रतिशत बच्चे हैं। इसे देखते हुए 2010 तक गुजरात को बाल-मजदूरी से मुक्त करने का ‘राज्य-सरकारी संकल्प’ एक ‘मजाक’ नहीं तो और क्या है ?

सूरत के साउथ-ईस्ट जोन से बिजली की मशीनों वाली ‘खट-खट’ भरी आवाजे यूं ही नहीं आती हैं। 2001 की जनगणना के आकड़े बताते हैं कि यहां 4 लाख 50 हजार से ज्यादा पावरलूम हैं। 1951 के जमाने की रिपोर्ट में यह संख्या सिर्फ 2 हजार 2 सौ 82 ही थी। 1970 की रिपोर्ट में भी 19 हजार 25 की संख्या कोई खास नजर नहीं आती। लेकिन 1980 से 90 के बीच ऐसा क्या हुआ कि पावरलूम की संख्या 2 लाख के ऊपर पहुंच गयी और बीते एक दशक में तो यह संख्या दोगुनी से भी ज्यादा!! असल में बात यह है कि 70 के दशक से 1998 आते-आते यहां की 5 बड़ी टेक्स्टाइल मिलों में ‘एक के बाद एक’ ताला लगता गया, उनकी जगह पावरलूम की कई छोटी-छोटी इकाईयों ने ले ली। बड़ी-बड़ी मिलों के मजदूर-यूनियन एक तो मजबूत और संगठित होते थे, दूसरा उन्हें मोबीलाइजेशन में भी कोई परेशानी नहीं थी। लेकिन बड़ी मिलों में ताला लगने के हादसों ने मजदूरों की ऐसी कमर तोड़ी कि वह अपने-अपने यूनियनों के साथ दोबारा खड़े नहीं हो सके। वैसे तो सूरत में आज भी 1,60 यूनियन हैं, लेकिन कहने भर को। गली-गली में बिखरी पावरलूम फेक्ट्रियों के लगने से मजदूर एकता भी बिखर गई, उनसे उनके कानूनी हक और सुविधाएं छीन लिए गए, दिन-ब-दिन मजदूरों के शोषण में भी इजाफा हुआ। मालिकों ने मुनाफे के चक्कर में सस्ते और अकुशल मजदूरों के रूप में बच्चों की बड़ी तादाद को काम पर लगवाया। वह मजबूत यूनियनों की गैर मौजूदगी का फायदा उठाते हुए बाल-मजदूरी को लगातार पनाह देते गए। इन दिनों पावरलूम फेक्ट्रियों के मालिक पतले-पतले हजारों हाथों की मदद से 5 करोड़/रोज का टर्नओवर करते हैं, वह हर रोज 35 हजार से 1 लाख तक साड़िया बनवाते हैं। यह है एक खुशहाल उद्योग की खुशहाल कहानी, जो बदहाल बाल-मजदूरों की बदहाल तस्वीरों के बगैर पूरी नहीं होगी।
सूरत की टेक्स्टाइल इण्डस्ट्री के बाल-मजदूर 3 सेक्टर में बंटे हुए हैं। पहला, पावरलूम फेक्ट्री जहां कच्चा कपड़ा बनाया जाता है। यह कतारगाम, लिम्बायत, पाण्डेयसराय, उदना, फालसाबाड़ी, मफतनगर के आसपास के इलाके में ज्यादा हैं। पावरलूम फेक्ट्री के बच्चे मशीन में तेल डालने के अलावा मशीन ओपरेटर के हेल्पर बनते हैं। दूसरा सेक्टर है डाईंग फेक्ट्री। यहां कच्चे कपड़े को कलर किया जाता है। इसे खतरनाक इण्डस्ट्री इसलिए कहते है, क्योंकि इसमें नुकसानदायक केमीकल होते हैं, स्टीम के इस्तेमाल की वजह से आग लगने का डर रहता है और इसी से सूरत की ताप्ती नदी मटमैली हुई है। ताप्ती के किनारे-किनारे और पाण्डेयसराय के एक बड़े इलाके में 5,00 से ज्यादा डाईंग फेक्ट्री लगी हैं। डाईंग फेक्ट्री के बच्चे कपड़ा रंगने के बाद पक्के कहे जाने वाले कपड़े के भारी बण्डलों को उठाते हैं। डाईंग फेक्ट्री में किसी नए आदमी को घुसने नहीं दिया जाता। तीसरा सेक्टर है टेक्स्टाइल मार्केट। सूरत में टेक्स्टाइल मार्केट की 60 हजार से भी ज्यादा दुकाने हैं। यहां से देश-विदेश में कपड़ा बेचा जाता है। टेक्स्टाइल की ज्यादातर दुकाने बाम्बे मार्केट और न्यू बाम्बे मार्केट में हैं। इस मार्केट के बच्चे साड़ियों की कटिंग, धागों की बुनावट, पेकिंग, बोझा उठाना, उसे दो मंजिल ऊपर तक लाने-ले जाने के काम में लगे रहते हैं।
31 प्रतिशत बच्चे अकेले टेक्स्टाइल मार्केट में हैं, क्योंकि यहां उसे रोजाना 50 से 80 रूपए तक मिलते हैं जो पावरलूम फेक्ट्री के 20 से 25 रूपए से कहीं ज्यादा हैं। टेक्स्टाइल मार्केट में महीने के पूरे 30 दिन काम मिलता हैं और शिफ्ट बदलने की झंझट भी नहीं। दूसरी तरफ पावरलूम फेक्ट्री में कुशलता वाले मजदूर ही चाहिए, ऐसे में सस्ते हेल्पर बनकर रह जाने का डर हैं। टेक्स्टाइल मार्केट वाली पट्टी सूरत के रिंग-रोड़ के साथ-साथ बढ़ती चलती है, इधर काम करने वाले बच्चे 2 से 5 किलोमीटर दूर के इलाकों जैसे लिम्बायत, मीठी खाड़ी, संगम टेकरी, मफत-नगर और अंबेडकर-नगर से आते हैं। ऐसे बच्चे 2-3 किलोमीटर तक तो पैदल चलते हैं लेकिन 5 किलोमीटर के लिए रिक्शा शेयर करते हैं। ये बच्चे यहां सुबह 9 से रात को 10 तक काम करते हैं। टेक्स्टाइल मार्केट में राजस्थानी मारवाड़ियों का दबदबा है जो राजस्थान के गरीब परिवारों से कान्ट्रेक्ट करके उनके बच्चों को यहां ले आते हैं। ऐसे बच्चे बस्ती में नहीं, दुकान के आसपास ही ठिकाना बनाकर रहते हैं। इसलिए उन्हें काम के घण्टों का कोई अता-पता नहीं रहता।
टेक्सटाइल मार्केट के कामों से कई बच्चियां भी जुड़ी हुई हैं। उन्हें एक साड़ी में स्टोन लगाने और धागा काटने के बदले सिर्फ 50 पैसे मिलते हैं। अगर 4-5 बच्चियां मिलकर पूरा दिन भी काम करें तो भी हरेक के हिस्से में 10-12 रूपए ही आते हैं। इस किस्म के काम में ज्यादातर हरपति जनजाति की लड़कियां लगी हुई हैं।
कतारगाम की कई पावरलूम फेक्ट्रियों में देखा गया कि वहां बुनियादी सहूलियतों जैसे टायलेट, पानी की टंकी, वेंटीलेशन और पंखे नहीं हैं। फेक्ट्री में दाखिल होते ही चारों तरफ हल्का अंधियारा और फर्श पर तेल की मोटी परते दिखाई देती हैं। फेक्ट्री के बाहर कुछ मजदूरों से बातचीत में मालूम हुआ कि यहां जरूरत से ज्यादा काम और कम पैसे को लेकर चुप्पी साध ली जाती है। कई फेक्ट्रियों के मालिक रजिस्ट्रेशन नहीं करवाते, इससे उन्हे टेक्स से बचने का मौका तो मिलता ही है, मजदूरों को सुविधाएं देने से भी बच जाते हैं। रजिस्ट्रेशन न होने से फेक्ट्रियों की सही संख्या और काम करने वाले कुल मजदूरों का पता तक नहीं चलता। मजदूरों को न पहचान-पत्र मिलता है, न पीएफ, न ईएसआई। यहां तक कि किसी मजदूर की दुघर्टना होने पर उसे मुआवजा देने का सवाल भी नहीं उठता। यहां एक मजदूर पुरानी मशीनों से काम तो चलाता ही है, वह 4 से 6 मशीनों पर एक साथ काम भी करता है। यहां ज्यादातर मजदूरों की मांग है कि कपड़े के हर मीटर पर 1.25 रूपए मिले जबकि उन्हें हर मीटर पर मिलता है 1 रूपए। उन्हें मासिक वेतन की बजाय पीस रेट के हिसाब से मेहनताना दिया जाता है। यह बड़े मजदूरों का हाल है, बच्चों की हालत तो बदत्तर है।
लिम्बायत और मीठी खाड़ी के कई घरों में उत्तर-प्रदेश और बिहार के मुस्लिम बच्चे साड़ी पर जरी का काम करते हैं। ये बच्चे मुंबई के गोवण्डी से यहां लाये गए हैं। उधर लेवर कमीश्नर का जब दबाव बढ़ जाता है तो ऐसे बच्चों को इधर भेज दिया जाता है। जरी के काम में कई छोटे-छोटे बच्चे, खासकर बच्चियों को 1 खटिया के इर्द-गिर्द बैठाते हैं। 1 हाल में 10-15 बच्चे या बच्चियों के लिए ज्यादा से ज्यादा 4-5 खटियां लगाते हैं। यहां काम करने वाले सारे बच्चे 25 रूपए में 8 से 10 घण्टे तक एक ही जगह बैठे, आंखे गड़ाए और हाथ चलाते नजर आते हैं। यह काम घर पर ही होता है इसलिए बगैर सांस लिए रात और दिन चलता रहता है।
सूरत टेक्स्टाइल इण्डस्ट्री को कभी रीढ़ की हड्डी’ तो कभी ‘लम्बी मीनार’ की तरह देखा जाता है। हमेशा ऊपर देखने वालों को ध्यान उस नींव की तरफ नहीं जाता जिसमें अब तक असंख्य ‘नन्हे भविष्य’ दफन हो चुके हैं। यही वजह है कि यहां टेक्स्टाइल इण्डस्ट्री से जुड़े हर आकड़े का हिसाब-किताब और उसका पूरा ब्यौरा तो मिलता है, नहीं मिलता है तो बच्चों को प्यार भरे सपने देखने, चांद छूने जैसी ख्वाहिशे पालने, चार किताबे पढ़ने और हम जैसे बनने से रोके जाने का आकड़ा।

2.7.09

सरकारी स्कूलों की वकालत जरूरी है

'चाईल्ड राईट्स एण्ड यू’ में ‘विकास सहयोग’ विभाग के महाप्रबंधक कुमार नीलेन्दु से शिरीष खरे की बातचीत।

इस बार भी बोर्ड के नतीजे सबके सामने हैं। इस बार भी प्राइवेट स्कूलों के बच्चे आगे रहे। फिर भी ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ जैसी संस्थाए सरकारी स्कूलों की वकालत करती हैं। क्यों ?
प्राइवेट स्कूलों के लिए बोर्ड के नतीजे बढ़िया रहे क्योंकि वहाँ बच्चों को एडमिशन देने के पहले चुना जाता है। अब कठिन परीक्षाओं को पास करके आने वाले बच्चे तो बढ़िया नतीजे ही देंगे। फिर प्राइवेट स्कूल में अमीर बच्चों को ही लिया जाता है। उनके माँ-बाप को जरूरी लगा तो ट्यूशन भी लगवा लेते हैं। अगर इन सारी चीजों को हटा लिया जाए तो प्राइवेट स्कूलों के नतीजे भी दूसरे स्कूलों जैसे रहेंगे। एक बात यह भी है कि स्कूल की गुणवत्ता का मतलब महंगी बिल्डिंग, अंगेजी माध्यम और पढ़ाई के लिए काम आने वाली चीजों से लगाया जाता है। लेकिन बहुत कम सरकारी स्कूलों में ऐसी व्यवस्थाएँ मौजूद हैं। इसलिए प्राइवेट स्कूलों से मुकाबले की बातों का कोई मतलब नही।
सरकारी शिक्षक सही ढ़ंग से अपनी डयूटी निभा पाते तो नजीते इतने बुरे नहीं आते।
उनके हिस्से में बच्चों को पढ़ाने के अलावा भी बहुत-सी ‘नेशनल डयूटी’ हैं। प्राइवेट के शिक्षक चुनाव, जनगणना, पशुओं की गणना या ऐसे ही दूसरे कामों से बचे रहते हैं। यह कहने में कैसी झिझक कि एक सरकारी शिक्षक के ऊपर काम का बोझ बढ़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि स्कूल की पढ़ाई के दिनों में सरकारी शिक्षकों को चुनाव की डयूटी में न लगाया जाए। लेकिन अभी भी उन्हें लगाया जाता है। बुरे नतीजों के पीछे सरकारी शिक्षक और बच्चों के बीच का असंतुलित अनुपात भी जिम्मेदार है। आप सरकारी स्कूलों में बच्चों की भारी संख्या को देखिए, उसके मुकाबले आपको शिक्षकों की संख्या कुछ भी नहीं लगेगी।
एक ऐसा परिवार जो अपने बच्चों की मंहगी पढ़ाई का बोझ उठा सकता है, उसके सामने ‘सबकी शिक्षा एक समान’ जैसी बातों का क्या मतलब ? उसे तो ऐसी बातें स्कूल चुनने की आजादी को रोकने जैसी लगेगी ?
यही सवाल थोड़ा यूं भी तो देखिए कि अमीर को स्कूल चुनने की आजादी है, गरीब को नहीं। आजादी का अर्थ तो गरीब से गरीब को शिक्षा पाने का हक देता है। एक गरीब का बच्चा अपनी गरीबी की वजह से बराबरी और बेहतर शिक्षा से बेदखल क्यों रहे ? खासतौर पर प्राइमरी स्कूल से। अब तो प्राइमरी तक की पढ़ाई को मौलिक हक के रुप में अपना लिया गया है। फिर भी देश के 100 में से 60 बच्चे प्राइमरी स्कूल नहीं जाते। सीधी बात है, शिक्षा में असमानताएँ हैं। एक तरफ शिक्षा में असमानताएँ हैं, दूसरी तरफ निजीकरण की रफ़्तार के साथ सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दूरियां बढ़ रही हैं। ऐसे में अलग-अलग तबको के बच्चों के हितों को देखना होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो प्राइवेट सेक्टर का कारोबार तो फलेगा-फूलेगा लेकिन सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक असमानताएँ दिन-ब-दिन बढ़ती जाएगी।
जब सभी बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे तो उनके बीच की असमानताओं के चलते दिक्कते नहीं आएँगी ?
यह बात लोकतंत्र के नजरिए से फिट नहीं बैठती। अब तो दुनिया भर की किताबों में समाज और स्कूल की विविधताओं को न केवल स्वीकार किया जा रहा है, उनका सम्मान भी किया जा रहा है। कई देशों जैसे अमेरिका या इंग्लैण्ड में अलग-अलग तबको से आने वाले बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। वहाँ अलग-अलग योग्यता रखने वाले बच्चे एक साथ बैठते-उठते हैं, सभी बराबरी के साथ बेहतर मौके तलाशते हैं। वहाँ की शिक्षा पब्लिक के हाथों में है। वहाँ के स्कूलों से ऊंच-नीच की सारी असमानताओं को हटा दिया गया है। वहाँ के स्कूलों में प्रवेश के पहले चुना जाना जरूरी नहीं है।
...और भारत में ?
यहाँ प्राइवेट स्कूलों पर ज्यादा भरोसा किया जाता है। इससे प्राइवेट सेक्टर से जुड़े लोगों को मनमाने तरीके से मुनाफा कमाने का मौका मिलता है। दूसरी तरफ कहने को सरकार की कई योजनाएँ हैं। लेकिन सबके अर्थ अलग-अलग हैं। जैसे कुछ योजनाएँ शिक्षा के लिए तो कुछ महज साक्षरता को बढ़ाने के लिए चल रही हैं। इसकी जगह सरकार को एक ऐसे स्कूल की योजना बनानी चाहिए जो सारे अंतरों का लिहाज किए बगैर सारे बच्चों के लिए खुली हो।
इसी तरह सरकारी स्कूलों में भी तो असमानताएँ हैं ?
बिल्कुल, जैसे केन्द्रीय कर्मचारियों के बच्चों के लिए केन्द्रीय स्कूल, सैनिकों के बच्चों के लिए सैनिक स्कूल, मेरिट लिस्ट के बच्चों के लिए नवोदय स्कूल। बात साफ है कि सभी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ताएँ अलग-अलग हैं। इसी तरह शिक्षक को चुने जाने के लिए भी अलग-अलग स्कूलों में योग्यता के अलग-अलग पैमाने रखे गए हैं।
लेकिन समाज की असमानता का क्या किया जाए ?
समाज में जो भेदभाव है, वही तो स्कूल की चारदीवारी में हैं। इसलिए समाज से स्कूल में घुसने वाले उन कारणों को तलाशना होगा जो ऊंच-नीच की भावना बढ़ाते हैं। अगर समाज में समानता लानी ही है तो सबसे अच्छा तो यही रहेगा कि इसकी शुरूआत शिक्षा और बच्चों से ही की जाए।
सबके लिए एक समान स्कूल की बात इतनी सीधी है ?
जब पानी से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य तक की चीजों को बाजार में घसीटा जा रहा हो तो यह बात बेतुकी लग सकती है। लेकिन शिक्षा की जर्जर हालत को देखते हुए तो यह बात बड़े तुक की लगती है। कोठारी आयोग (1964-66) ऐसा पहला आयोग था जिसने सामाजिक बदलावों के लिए बहुत अच्छे सुझाव दिए। उसने देश भर के लिए एक ऐसी व्यवस्था बनाने की बात कही जिसमें हर तबके के बच्चे एक साथ पढ़े-बढ़े। उसने यह भी कहा था कि सबके लिए एक समान शिक्षा नहीं रही तो समाज के ताकतवर लोग सरकारी स्कूलों को छोड देंगे और प्राइवेट की शरण में जाएँगे। इसके बाद हम देखते हैं कि 1970 के बाद से सरकारी स्कूलों की हालात बद से बदत्तर होतक चले गए। सरकार का ध्यान इस तरफ कभी नहीं गया ? वह 1968, 1986 और 1992 की शिक्षा नीतियों में समान स्कूल व्यवस्था की बात तो करती है लेकिन उसे लागू नहीं करती। 2001 में संसद ने शिक्षा का मौलिक हक तो दिया लेकिन देश में शिक्षा की दोहरी नीति को भी जारी रखा।
विकलांग बच्चों के एडमिशन को लेकर प्राइवेट स्कूल कानून से बंधे नहीं होते। जबकि पीडब्ल्यूडी एक्ट के तहत सरकारी स्कूलों में ऐसे बच्चों को लेना जरूरी है। यह भी तो शिक्षा की दोहरी नीति ही है।
हाँ, वैसे इस किस्म के सभी बच्चों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समावेशी शिक्षा आंदोलन चल रहा है। यह शिक्षा या स्कूलों में फैली छोटी-बड़ी गड़बड़ियों को ढ़ूढ़ने और उनसे निजात पाने का शुरूआती कदम है। दूसरा, यह आंदोलन हमारे आसपास की ऐसी कई विविधताओं का पता लगा रहा है जो असमानताएँ फैलाती है। यहाँ समावेशी शिक्षा का मतलब केवल विकलांग बच्चों की शिक्षा से ही नहीं है। इसका मतलब तो सभी किस्म की विविधताओं को सभी पहलुओं से देखने, समझने और उसे शामिल करना भी है।