19.11.09

आर्थिक विकास के बीच बढ़ती लैंगिक-असमानता

शिरीष खरे


भारत सरकार कहती है कि पहली बार देश में प्रति व्यक्ति आय 3000 रुपए/महीने को पार कर रही है। उधर इस साल विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) के लैंगिक-समानता पर हुए मूल्यांकन में 134 देशों के बीच भारत की 114वीं रैंकिंग रही है। जैसे एक बात (आर्थिक विकास) दूसरी (मानवीय विकास) को काटते हुए जता रही है कि विकास को दर या प्रतिव्यक्ति आय के आंकड़ों से नापना ठीक नहीं है। क्योंकि देश की 80% प्रतिशत पूंजी पर 20% घरानों का कब्जा है। क्योंकि देश का आर्थिक विकास बहुत केन्द्रित है और उसका फायदा भी कुछ घरानों तक ही सीमित है। अगर ऐसा नहीं होता तो लैंगिक-समानता के मद्देनजर दुनिया भर में पुरूष : महिलाओं के बीच संसाधनों और अवसरों के वितरण को लेकर भारत की हालत में कुछ तो सुधार हुआ होता। मगर 2006 को लैंगिक-समानता पर हुए इसी मूल्यांकन में भारत की 98वीं रैकिंग थी, जो अब 16 पायदान नीचे गिरकर 114वीं हो चुकी है।

भारत चाहे तो इस बात पर संतोष जता सकता है कि उसकी कतार में एशिया के कई और देश भी शामिल हैं जैसे कोरिया (115), ईरान (128) और पाकिस्तान (132)। जहां तक लैंगिक-समानता के लिहाज से अव्वल देशों का सवाल है तो आइसलैण्ड पहले स्थान पर है, इसके बाद रैंकिंग में फिनलैण्ड (2), नार्वे (3), स्वीडन (4), न्यूजीलैण्ड (5), साऊथ अफ्रीका (6), डेनमार्क (7), आयरलैण्ड (8), फिलीपिंस (9) और लेसोथो (10) आते हैं। पिछले साल के मुकाबले ब्रिटेन (15) और अमेरिका (31) भी पीछे रहे हैं। भारत आर्थिक विकास के तौर पर जिस चीन का अनुसरण कर रहा है उसकी 60वीं रैंकिंग है, जो पिछले साल के मुकाबले 3 स्थान नीचे है। वहीं रुस की 51वीं और ब्राजील की 82वीं रैंकिंग।

खासतौर से भारत, पाकिस्तान और ईरान में महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक स्थितियां बहुत खराब बतलायी गई हैं। जबकि राजनैतिक जागरूकता के लिहाज से यहां महिलाओं का प्रदर्शन अपेक्षाकृत सुधरा है। कहने को महिलाओं की आबादी में करीब आधी हिस्सेदारी है मगर वह नागरिक समाज के विभिन्न हिस्सों में बराबरी की संख्या और भागीदारी से नहीं जुड़ पा रही हैं। ऐसे में अगर विकास होता भी है तो उसे संतुलित और टिकाऊ विकास नहीं कहा जा सकता।

आयरलैण्ड में सबसे कम मातृ मृत्यु दर है, यहां 100,000 पर 1 की मौत होती है। जबकि चाड में सबसे ज्यादा मातृ मृत्यु दर होती है, यहां 100,000 पर मौतों का आकड़ा 1500 है। 24 देश ऐसे हैं जहां की मातृ मृत्यु दर 100,000 पर 500 से ज्यादा मौतों को छूती हैं। सालाना आधा मिलियन से भी अधिक महिलाएं गर्भावस्था और प्रसव के दौरान मारी जाती हैं। इसी तरह 3.7 मिलियन नवजात शिशु अपने जन्म से 28 दिनों के भीतर मर जाते हैं। हर साल 1 मिलियन से अधिक बच्चे अपनी मांओं के बगैर जीने को मजबूर होते हैं। यह अलग बात है कि गर्भावस्था या प्रसव के दौरान बुनियादी सुविधाएं भर भी मिल जाए तो मातृ मृत्यु को 80% तक रोका जा सकता है। विकासशील देशों में मातृ मृत्यु के 5 सबसे बड़े कारण हैं: रक्तस्त्राव, संक्रमण, उच्च रक्तचाप, असुरक्षित गर्भपात और अत्याधिक श्रम करना। गर्भावस्था या प्रसव के दौरान होने वाली 20% मौतों का कारण मलेरिया और ऐनेमिया जैसी बीमारियां हैं। इसी तरह महिलाओं को जरूरत से कम भोजन मिलना भी एक अति गंभीर समस्या है।

भारतीय स्वास्थ्य सेवा का हाल जानने के लिए मध्यप्रदेश ही काफी है जहां बीते सरकारी संस्थाओं में 10 सालों से 26 हजार बिस्तर ही लगे हैं। प्रसव के आकड़े डेढ़ लाख से बढ़कर साढ़े पंद्रह लाख जा पहुंचे और ढ़ांचागत सुविधाएं हैं कि सुधारने के नाम ही नहीं लेती। मध्यप्रदेश ही नहीं पूरे भारत की यही विडंबना है क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की अनुशंसा है कि प्रति 1000 मरीजों पर कम से कम 3 बिस्तर तो होने ही चाहिए। फिर भी भारत में प्रति 2000 मरीजों के लिए एक बिस्तर भी नहीं है। यहां महिलाओं के लिए बुनियादी सहूलियत की बात तो दूर, महिलाओं की स्वास्थ्य की स्थिति को जांचने और उससे जुड़ी साधारण सूचनाओं का पता लगाने की भी कोई कारगर व्यवस्था नहीं है। यह भी अजब व्यवस्था की गजब कहानी ही है कि कुपोषण जहां महिला बाल विकास के हिस्से में है वही उससे होने वाली मौत स्वास्थ्य विभाग के हिस्से में। याने यहां बाल और महिलाओं संरक्षणों के लिए कोई एकीकृत नीति नहीं है। देश में स्वास्थ्य सहित दूसरी सेवाओं को सीमित करते हुए उन्हें बाजार में घसीटा जा रहा है। अर्जुन सेनगुप्ता की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 82 करोड़ परिवार ऐसे हैं जो रोजाना 20 रूपए भी खर्च नहीं कर सकते। अब अगर स्वास्थ्य जैसे सेवा क्षेत्र भी बाजार के हाथों में जाएगा तो असर तो पड़ेगा ही, खासतौर पर बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य पर। मगर सरकार है कि स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र में भी निजीकरण को बढ़ावा दे रही है।

इसी के साथ यह तथ्य भी गौर करने लायक है कि अमेरिका में 1325 अमेरिकी नागरिकों पर एक भारतीय डाक्टर है। वहीं भारत में 2200 भारतीयों पर एक भारतीय डाक्टर है। आयरलैंड की पूर्व राष्ट्रपति मेरी रोबिन्सन मानती है कि ‘‘अमीर देशों की स्वास्थ्य सेवाएं गरीब राष्ट्रों के संसाधनों पर आधारित हैं। उदारवादी आर्थिक दर्शन स्वास्थ्य को लागत मानता है, न कि आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए अनिवार्यता। सरकारों को चाहिए कि वह इसकी गणना सकल घरेलू उत्पाद के रूप में करे। मगर मातृ-मृत्यु, जो कि मानव अधिकारों का गंभीर उल्लंघन है, उसकी तरफ सरकार का ध्यान ही नहीं जाता। इस संबंध में आप मेरे देश का उदाहरण सामने रखें। आयरलैंड में यदि किसी अस्पताल में बच्चे को जन्म देते समय उसकी मां मर जाती है तो पूरा अस्पताल शोक प्रकट करता है। यह एक वास्तविक त्रासदी है।’’ मेरी रोबिन्सन आगे बताती हैं कि ''संकट बहुत महत्वपूर्ण होता है अतएव उसे बर्बाद नहीं करना चाहिए। मौजूदा परिदृश्य भी यह दर्शाता है कि विशुद्ध बाजार आधारित प्रवृत्ति से समानता और न्यायासंगिता नहीं आएगी, खासकर गरीबों के हित में।''

भारत सरकार की आर्थिक नीति को ध्यान में रखते हुए देखा जाए तो यहां आय भी बढ़ रही है तो नागरिकों के बीच का असंतोष भी। क्योंकि आय के वितरण में व्यक्तिगत और क्षैत्रीय असमानताएं जो बढ़ रही हैं। जिसका नतीजा है कि नागरिकों के बीच बुनियादी सहूलियतों का अंतर तो बढ़ ही रहा है, लैगिंक-असमानताएं भी बढ़ रही हैं। ऐसे हालातों में ‘कुल राष्ट्रीय आय’ को विकास का लक्ष्य मानने की बजाय ‘कुल मानव सुखों’ को विकास के पैमानों से जोड़ने की जरूरत है।

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