28.10.09

जाति की जड़ों को काटतीं औरतें

शिरीष खरे


उस्मानाबाद | देश में कुल आबादी का एक-चौथाई हिस्सा दलितों और आदिवासियों का है। मगर उनके पास खेतीलायक जमीन का महज 17.9 प्रतिशत हिस्सा है। इसी तरह कुल आबादी में करीब आधी हिस्सेदारी औरतों की है। जो कुल मेहनत में बड़ी हिस्सेदारी निभाती हैं और उन्हें कुल आमदनी का 10 वां हिस्सा मिलता है। ऐसे में दलित और उस पर भी एक औरत होने की स्थिति को आसानी से जाना जा सकता है। मगर मराठवाड़ा की दलित औरतें धीरे-धीरे जाति की जड़ों को काटकर और पथरीली जमीनों से फसल उगाकर अपना दर्जा खुद तय कर रही है।


उस्मानाबाद जिले में अनुसूचित जाति की आबादी 15 प्रतिशत से भी ज्यादा हैं। मगर 85 प्रतिशत से भी ज्यादा परिवार अपनी रोजीरोटी के लिए यह या तो सवर्णों के खेतों में काम करते हैं या फिर चीनी कारखानों के वास्ते गन्ने काटने के लिए पलायन करते हैं। स्थायी आजीविका न होने से उनके सामने जीने के कई सवाल खड़े रहते हैं। मराठवाड़ा में ‘कुल कितनी जमीनों में से कितना अन्न उगाया है’ के हिसाब से किसी आदमी की सामाजिक-आर्थिक स्थितियां बनती-बिगड़ती हैं। तारामती अपने तजुर्बे से ऐसी बातें अब खूब जानती है।


‘‘लड़कियों का बेहिसाब घूमना या किसी गैर से खुलके बतियाना, यह कोई अच्छे रंग-ढंग तो नहीं- बचपन से हमें यही तो सुनाया जाता है।’’ पर तारामती कस्बे अब वैसी नहीं रही, जैसे वह पहले थी। नहीं तो बहुत पहले, किसी अजनबी आदमी को देखा नहीं कि जा छिपती थी रिवाजों की ओट में। इस तरह यहां बाहरी मर्द से बतियाने के सवाल का कोई सवाल ही नहीं उठता था। दलित परिवार की तारामती के सामने ऐसे कई सवाल कभी नहीं उठे थे। उसे तो अपने पति को पिटते हुए देखकर भी चुप रहना था। गांव के दबंग जात वालों से पूरी मजूरी मांगने की हिम्मत न उसमें थी, न उसके पति में। ऐसा सलूक तो शुरू से ही होता रहा है, सो यह कोई बड़ी बात भी नहीं लगती थी। इसके बावजूद अगर कोई विरोध होता भी था तो मजाल है कि चारदीवारी से बाहर निकल सके। उस पर भी एक औरत की क्या बिसात कि वह ऐसी बातों पर खुसुर-फुसुर भी कर सके ?


‘‘6 साल पहले, यहां की औरतों को हमने ऐसी ही हालत में देखा पाया था।’’ ‘लोकहित समाज विकास संस्थान’ के बजरंग टाटे आगे बताते हैं ‘‘काम शुरू करने के बाद, हम हर रोज यहां आते-जाते, मगर जो भी बातें निकलकर आतीं वो सिर्फ मर्दों की होतीं। हम औरतों में सोचने की आदत के बारे में भी जानना चाहते थे। तब ‘स्वयं सहायता समूह’ ने औरतों के विचारों को आपस में जोड़ के लिए एक कड़ी का काम किया। इस समूह के जरिए धीरे-धीरे पता चला कि औरतों के भीतर गुस्सा फूट-फूटकर भरा है, वह बहुत कुछ बदल देना चाहती हैं, उन्हें अगर खुलेआम बोलने का मौका भी मिला तो काफी कुछ बदल जाएगा।’’ ग्राम धोकी, जिला उस्मानाबाद से तारामती जैसी दर्जनों औरतें धीरे-धीरे ही सही मगर अपने जैसे सबके भीतर भरे गुस्से से एक होती चली गईं।


लंबा वक्त गुजरा, एक रोज धोकी की औरतों ने चर्चा में पाया कि जब-तक जमीनों से फसल नहीं लेंगे तब-तक रोज-रोज की मजूरी के भरोसे ही बैठे रहेंगे। अगले रोज सबके भरोसे में उन्होंने अपना-अपना भरोसा जताया और गांव से बाहर बंजर पड़ी अपनी जमीनों पर खेती करने की हिम्मत जुटायी। जैसे कि आशंका थी, गांव में दबंग जात वालों के अत्याचार बढ़ गए ‘‘उन्होंने सोचा कि जो कल तक हमारे गुलाम थे, वो अगर मालिक बने तो उनके खेत कौन जोतेगा ?’’ हीरा बारेक उन दिनों को याद करती हैं ‘‘पंचायत चलाने वाले ऐसे बड़े लोगों ने मेरे परिवार को खूब धमकियां दीं। मगर अब हम अकेले नहीं थे, संगठन के बहुत सारे लोग भी तो हमारे साथ थे। इसलिए सबके साथ मैंने आगे आकर ललकारा कि अगर तुम अपनी ताकत अजमाओगे, मेरे पति को मारोगे, तो हम भी दिखा देंगे कि हम क्या कर सकते हैं ?’’


एक बार दबंग जात वालों ने कुछ दलित औरतों को जमीनों पर काम करते देखा तो उनके पतियों को बुलवाया। गांव से बंद करने जैसी धमकियां भी दीं। अगली सुबह तारामती और उनकी सहेलियों ने अपने-अपने घरों से निकलते हुए कहा कि ‘मर्द लोगों को डर लगता है तो रहो इधर ही, हम तो काम पर जाते हैं।’ थोड़ी देर बाद, बहुत सारे दलित मर्द जमीनों पर आए। कुल जमा 50 जनों ने वहीं बैठकर फैसला लिया कि वो ‘गांव में भी समूह बनाकर रहेंगे और खेतों में भी’। और इसी के बाद ‘स्वयं सहायता समूह’ की बैठक में औरतों के साथ पहली बार मर्द भी बैठे। इसके पहले तक तो औरतों का समूह अपनी रोजमर्रा की बातों पर ही बतियाता था। मगर अबकि यह समूह गांव के नल से पानी भरने जैसी बातों पर भी गंभीर हो गया। यहां की औरतों ने पानी में अपनी हिस्सेदारी के लिए लड़ने का मन बना लिया। खुद को ऊंची जात का कहने वालों ने सार्वजनिक उपयोगों की जिन बातों पर रोक लगाई थी, वो एक-एक करके टूटने लगी थीं।


यह सच था कि तारामती के समूह से जुड़ी औरतों के मुकाबले दूसरी जात की औरतों में भिन्न्नताएं साफ-साफ दिखती थीं। फिर भी एक बात सारी औरतों को एक साथ जोड़ती थी कि पंरपराओं के लिहाज से सबको मानमर्यादा का ख्याल रखना ही हैं। ऐसे में तारामती और उसके समूह के गांव से बाहर आने-जाने, बार-बार संगठन के दूसरे साथियों से मिलने-जुलने के ऐसे मतलब निकाले गए जो उनके चरित्र पर हमला करते थे। तारामती नहीं रूकी, वह तो एक कदम आगे जाकर उप-सरपंच का चुनाव भी लड़ी। यह अलग बात है कि वह चुनाव हारी। मगर जहां किसी दलित के चुनाव लड़ने को सामान्य खबर न माना जाए, वहां एक दलित औरत के मैदान में कूदने की चर्चा तो गर्म होनी ही थी। तारामती, हीरा बारेक, संगीता कस्बे को तो और आगे जाना था, इसलिए यहां पहली बार मर्दो के बराबर मजूरी की मांग उठी। इसके पहले इन्हें रोजाना 40 रूपए मजूरी मिलती थी, जो मर्दो के मुकाबले आधी थी। विरोध के बाद उन्हें रोजाना 65 रूपए मजूरी मिलने लगी, जो मर्दो से थोड़ी ही कम थी।


तारामती के समूह की औरतें पंचायत में जगह से लेकर जायज मजूरी पाने की जद्दोजहद इसलिए कर सकी, क्योंकि आजीविका के लिहाज से उन्हें अपने खेतों से फसल मिलने लगी थी। संगीता कस्बे बताती हैं ‘‘इससे पहले, वो (सवर्ण) हमें नाम की बजाय जात से बुलाते थे। जात न हो जैसे गाली हो। ‘क्या रे ऐ मान’, ‘क्यों रे महार’- ऐसे बोलते थे। अब वो ईज्जत से बुलाते हैं, बतियाते हैं। ‘आज तुम काम पर आ सकते हो या नहीं ?’- पूछते हैं। सबसे बढ़कर तो यह हुआ कि पंचायत से हमारे काम होने लगे। हम जानने लगे कि सही क्या है, हक क्या हैं। हर चीज केवल उनके हिसाब से तो नहीं चल सकती है ना।’’ हम जब तारामती के समूह से बतिया रहे थे तो दूर के डोराला गांव से कुछ औरतें भी पहुंचीं। वह भी अपने यहां ‘स्वयं सहायता समूह’ बनाना चाहती थीं। उसी समय जाना कि औरतों का समूह जरूरत पड़े तो मर्दो को भी कर्ज देता है। इस समूह में बच्चों की पढ़ाई और किसी अनहोनी से निपटने को वरीयता दी जाती है। पांडुरंग निवरूति ने बताया कि ‘‘आसपास ऐसे 16 महिला घट बनाये गए हैं। हर घट में कम से कम 10 औरतें तो रहती ही हैं।’’


तारामती कहती हैं ‘अगर हम ऐसे ही बैठे रहते तो जो थोड़ा बहुत पाया है, वो भी हाथ नहीं लगता। ऐसा भी नहीं है कि हमारी हालत बहुत सुधर गई है, अभी भी काफी कुछ करना है।’’ यह सच है कि यहां काफी कुछ नहीं बदला है फिर भी कम से कम इन औरतों की दुनिया बेबसी के परंपरागत चंगुलों और उनके बीच उलझी निर्भरताओं से किनारा पा चुकी है। यह अब अपने बच्चें को स्कूल भेजकर बेहतर सपना देख रही हैं.

25.10.09

मीडिया में मुस्लिम औरतें दिखती भी हैं मगर इस तरह

शिरीष खरे


कहते हैं कि "मीडिया में जो सच नहीं होता, कई बार वह सच से भी बड़ा सच लगने लगता है।" कहते हैं ऐसे हालत से बचने के लिए "जो दिख रहा है वो क्यों दिख रहा है को लेकर चलो" तो कुछ ज्यादा पता चलता है। ऐसे ख्यालों से बेदखल दिलोदिमाग के बीच मेरी नजर यूट्यूब में कुछ और सर्च करते-करते कहीं और जा अटकी। मैंने देखा मुस्लिम औरत को इस्लाम की कट्टरता से जोड़ने वाला यह कोई अकेला वीडियो नहीं था, मीडिया के कई सारे किस्सों से भी जान पड़ता है कि मुस्लिम औरतों के हक किस कदर ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘लोकत्रांतिकता’ की बजाय ‘साम्प्रदायिकता’ और ‘राष्ट्रीयता’ के बीचोबीच झूल रहे हैं।

बीते दिनों बिट्रेन के मशहूर अखबार ‘द गार्जियन’ ने मोबाइल से दो मिनिट का ऐसा वीडियो बनाया जिसमें पाकिस्तान की स्वात घाटी के कट्टरपंथियों ने 17 साल की लड़की पर 34 कोड़े बरसाए थे। इसी तरह के अन्य वीडियो के साथ अब यह भी यूटयूब में अपलोड है, जो संदेश देता है कि वहां कोई लड़की अगर पति को छोड़ दूसरे लड़के के साथ भागती है तो उसका अंजाम आप खुद देख लीजिए। वैसे तो अपने देश के विभिन्न समुदायों में भी ऐसी घटनाएं कम नहीं है मगर इधर की मीडिया ने उधर की घटना को कुछ ज्यादा ही जोर-शोर के साथ जगह दी। यह अलग बात है कि उन्हीं दिनों के आसपास, उत्तरप्रदेश के अमरोड़ा जिले से खुशबू मिर्जा चंद्रयान मिशन का हिस्सा बनी तो ज्यादातर मीडिया वालों को इसमें कोई खासियत दिखाई नहीं दी। देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने इस स्टोरी को हाईलाईट किया भी तो ऐसी भूमिका बांधते हुए कि ‘उसने मुस्लिम महिलाओं की सभी नकारात्मक छवियों को तोड़ा है।’ अब नकारात्मक छवियां को लेकर कई सवाल हो सकते हैं मगर उन सबसे ऊपर यह सवाल है कि क्या एक औरत की छवि को, उसके मजहब की छवियों से अलग करके भी देखा जा सकता है या नहीं ? आमतौर से जब ‘मुस्लिम औरतों’ के बारे में कुछ कहने को कहा जाता है तो जवाबों के साथ ‘इस्लाम’, ‘आतंकवाद’, ‘जेहाद’ और ‘तालीबानी’ जैसे शब्दों के अर्थ जैसे खुद-ब-खुद चले आते हैं। पूछे जाने पर ज्यादातर अपनी जानकारी का स्त्रोत अखबार, पत्रिका या चैनल बताते हैं। उन्हें लगता है कि मीडिया जो कहता है वो सच है। इस तरह मुस्लिम औरतों के मुद्दे पर ‘धर्मनिरपेक्ष’ चर्चा की बजाय ‘राष्ट्रवाद’ के क्रूर चहेरे उभर आते हैं।

यह सच है कि दूसरे समुदायों जैसे ही मुस्लिम समुदाय के भीतर का एक हिस्सा भी दकियानूसी रिवाजों के हवाले से प्रगतिशील विचारों को रोकता रहा है। इसके लिए वह ‘आज्ञाकारी औरत’ की छवि को ‘पाक साफ औरत’ का नाम देकर अपना राजनैतिक मतलब साधता रहा है। दूसरी तरफ, यह भी कहा जाता है कि पश्चिम की साम्राज्यवादी ताकतें दूसरे समुदाय की नकारात्मक छवियों को अपने फायदे के लिए प्रचारित करती रही हैं। ऐसे में इस्लाम की दुनिया में औरत की काली छाया वाली तस्वीरों का बारम्बार इस्तेमाल किया जाना जैसे किसी छुपे हुए एजेंडे की तरफ इशारा करता है। जहां तक भारतीय मीडिया की बात है, तो ऐसा नहीं है कि वह पश्चिप के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर-तरीकों से प्रभावित न रहा हो।

अन्यथा भारतीय मीडिया भी मुस्लिम औरतों से जुड़ी उलझनों को सिर्फ मुस्लिम दुनिया के भीतर का किस्सा बनाकर नहीं छोड़ता रहता। ज्यादातर मुस्लिम औरतें मीडिया में तभी आती हैं जब उनसे जुड़ी उलझनें तथाकथित कायदे कानूनों से आ टकराती हैं। मीडिया में ऐसी सुर्खियों की शुरूआत से लेकर उसके खात्मे तक की कहानी, मुसलमानों की कट्टर पहचान को जायज ठहराने से आगे बढ़ती नहीं देखी जाती। इस दौरान देखा गया है कि कई मजहबी नेताओं या मर्दों की रायशुमारियां खास बन जाती हैं। मगर औरतों के हक के सवालों पर औरतों के ही विचार अनदेखे रह जाते हैं। जैसे एक मुस्लिम औरत को मजहबी विरोधाभास से बाहर देखा ही नही जा सकता हो। जैसे भारतीय समाज के सारे रिश्तों से उसका कोई लेना-देना ही न हो। विभिन्न आयामों वाले विषय मजहबी रंगों में डूब जाते हैं। इसी के सामानान्तर मीडिया का दूसरा तबका ऐसा भी होता है जो प्रगतिशील कहे जाने वाली मुस्लिम संस्थानों के ख्यालातों को पेश करता है और अन्तत : मुस्लिम औरतों से हमदर्दी जताना भी नहीं भूलता।

मीडिया के सिद्धांत के मुताबिक मीडिया से प्रसारित धारणाएं उसके लक्षित वर्ग पर आसानी से न मिटने वाला असर छोड़ती हैं। खास तौर पर बाबरी मस्जिद विवाद के समय से भारतीय समाज के धर्मनिरपेक्ष तेवर अपेक्षाकृत तेजी से बदले और उसी हिसाब से मीडिया के तेवर भी। नतीजन, खबरों में चाहे तेहरा तलाक आए या बुर्का पहनने की जबर्दस्ती, उन्हें धार्मिक-राजनैतिक चश्मे से बाहर देखना नहीं हो पाया। यकीनन जबर्दस्ती बुर्का पहनाना, एक औरत से उसकी आजादी छिनने से जुड़ा हुआ मामला है, उसका विरोध अपनी जगह ठीक भी है। मगर दो कदम बढ़कर, उसे तालीबानी नाम देने से तो बुनियादी मुद्दा गुमराह हो जाता है। यह समझने की जरूरत है कि मुस्लिम औरतों के हकों से बेदखली के लिए पूरा इस्लाम जिम्मेदार नहीं है, वैसे ही जैसे कि गुजरात नरसंहार का जिम्मेदार पूरा हिन्दू समुदाय नहीं है। मगर अपने यहां इस्लाम ऐसा तवा है जो चुनाव के आसपास चढ़ता है, जिसमें मुस्लिम औरतों के मामले भी केवल गर्म करने के लिए होते हैं।

मामले चाहे मुस्लिम औरतों के घर से हो या उनके समुदाय से, भारतीय मीडिया खबरों से रू-ब-रू कराता रहा है। मुस्लिम औरतों के हकों के मद्देनजर ऐसा जरूरी भी है, मगर इस बीच जो सवाल पैदा होता है वह यह कि खबरों का असली मकसद क्या है, क्या उसकी कीमत सनसनीखेज या बिकने वाली खबर बनाने से ज्यादा भी है या नहीं ?? मामला चाहे शाहबानो का रहा हो या सानिया मिर्जा का, औरतों से जुड़ी घटनाओं के बहस में उनके हकों को वरीयता दी जानी चाहिए थी। मगर ऐसे मौकों पर मीडिया कभी शरीयत तो कभी मुस्लिम पासर्नल ला के आसपास ही घूमता रहा है। इसके पक्ष-विपक्ष से जुड़े तर्क-वितर्क भाषा की गर्म लपटों के बीच फौरन हवा होते रहे। नई सुर्खियां आते ही पुरानी चर्चाएं बीच में ही छूट जाती हैं, मामले ज्यादा जटिल बन जाते हैं और धारणाओं की नई परतें अंधेरा गहराने रह जाती हैं।

अक्सर मुस्लिम औरतों की हैसियत को उनके व्यक्तिगत कानूनों के दायरों से बाहर आकर नहीं देखा जाता रहा। इसलिए बहस के केन्द्र में ‘औरत’ की जगह कभी ‘रिवाज’ तो कभी ‘मौलवी’ हावी हो जाते रहे। इसी तरह नौकरियों के मामले में, मुस्लिम औरतों के पिछड़ेपन को लेकर कभी ‘धार्मिक’ तो कभी ‘सांस्कृतिक’ जड़ों में जाया जाता रहा, जबकि मुनासिब मौकों या सहूलियतों की बातें जाने कहां गुम होती रहीं। असल में मुस्लिम औरतों के मामलों की पड़ताल के समय, उसके भीतरी और बाहरी समुदायों के अंतर्दन्द और अंतर्सबन्धों को समझने की जरूरत है। जाने-अनजाने ही सही मीडिया में मुस्लिम औरतों की पहचान जैसे उसके मजहब के नीचे दब सी जाती है।

जिस तरह डाक्टर के यहां आने वाला बीमार किसी भी मजहब से हो उसकी बीमारी या इलाज कर तरीका नहीं बदलता- इसी तरह मीडिया भी तो मुस्लिम औरतों को मजहब की दीवारों से बाहर निकालकर, उन्हें बाकी औरतों के साथ एक पंक्ति में ला खड़ा कर सकता है। जहां डाक्टर के सामने इलाज के मद्देनजर सारी दीवारें टूट जाती हैं, सिर्फ बीमारी और इलाज का ही रिश्ता बनता है जो प्यार, राहत और भरोसे की बुनियाद पर टिका होता है- ऐसे ही मीडिया भी तो तमाम जगहों पर अलग-थलग बिखरीं मुस्लिम औरतों की उलझनों को एक जगह जमा कर सकता है।

मुस्लिम महिलाओं के कानूनों में सुधार की बातें, औरतों के हक और इस्लाम पर विमर्श से जुड़ी हैं। इसलिए मीडिया ऐसी बहसों में मुस्लिम औरतों को हिस्सेदार बना सकता है। वह ऐसा माहौल बनाने में भी मददगार हो सकता है जिसमें मुस्लिम औरतें देश के प्रगतिशील समूहों से जुड़ सकें और मुनासिब मौकों या सहूलियतों को फायदा उठा सकें। कुल मिलाकर मीडिया चाहे तो मजहब के रंगों में छिपी मुस्लिम औरतों की पहचान को रौशन कर सकता है।

18.10.09

पांच पंच मिल कीजै काज


शिरीष खरे

बाड़मेर। राजौ और पूसाराम, एक ही दुनिया के दो किस्से हैं, दो किरदार हैं। इधर है अपनी अस्मत गंवा चुकी राजौ, जो गांव के विरोध पर भी अपनी अर्जी अदालत तक दे तो आती है, मगर लौटकर गांव से छूट जाती है। उधर है कमजोर दलित होने का दर्द झेलने वाला पूसाराम, जो डर के मारे अपनी गुहार अदालत से वापिस ले आता है, और गांव से जुड़ जाता है। यह दोनों ही मानते हैं कि थाने के रास्ते अदालत आना-जाना और इंसाफ की लड़ाई लड़ना तो फिर भी आसान है, मगर समाज के बगैर रह पाना बहुत मुश्किल है।



एक ने अदालत जाना मंजूर किया, दूसरे ने गांव में रहना। दोनों का हाल आपके सामने है, मगर कौन ज्यादा अंधेरे में है, कौन कम उजाले में- चलिए आप ही तय कीजिए- गांव....थाने....अदालत....समाज के बीच मौजूद इनके फासलों, अंधेरों से होकर :


राजौ के यहां जाने से पहले, उस रोज का अखबार भरतपुर जिले के गढ़ीपट्टी में ‘बंदूक की नोंक पर पांच लोगों के दलित औरत से बलात्कार’ की खबर देता था। राजौ का गांव सावऊ, बाड़मेर जिले के गोड़ा थाने से 12 किलोमीटर दूर बतलाया गया। वहां तक पहुंचने में 30 मिनिट भी नहीं लगे, मगर राजौ के भीतर की झिझक ने उसे 45 मिनिट तक बाहर आने से रोके रखा। राजौ के साथ जो हुआ वो घटना के चार रोज बाद याने 9 जून, 2003 की एफआईआर में दर्ज था : ‘‘श्रीमान थाणेदार जी, एक अर्ज है कि मैं कुमारी राजौ पिता देदाराम, उम्र 15 साल, जब गोड़ा आने वाली बस से शहरफाटा पर उतरकर घर जा रही थी, तब रास्ते में टीकूराम पिता हीराराम जाट ने पटककर नीचे गिराया, दांतों से काटा, फिर.......और उसने जबरन खोटा काम किया। इसके बाद वह वहां से भाग निकला। मैंने यह बात सबसे पहले अपनी मां को बतलाई। मेरे पिता 120 दूर मजूरी पर गए थे, पता चलते ही अगली सुबह लौट आए। जब गांव वालों से न्याय नहीं मिला तो आज अपने भाई जोगेन्दर सिंह के साथ रिपोर्ट लिखवाने आई हूं। साबजी से अर्ज है कि जल्द से जल्द सख्त कार्यवाही करें।’’


राजौ अब 20 साल की हो चुकी है। उसकी मां से मालूम चला कि बचपन में उसकी सगाई अपने ही गांव में पाबूराम के लड़के हुकुमराम से हो चुकी है। मगर वह परिवार अब न तो राजौ को ले जाता है, न ही दूसरी शादी की बात कहता है। गांव वालों से मदद की तो कोई गुंजाइश भी नहीं है। कहने को 2 किलोमीटर दूर पुनियो के तला गांव में ताऊ है, 60 किलोमीटर दूर बनियाना में चाचा है, 80 किलोमीटर दूर सोनवा में ननिहाल है, मगर कोई खबर नहीं लेता। यह झोपड़ा भी गांव से 2 किलोमीटर दूर यहां आ गया है, गृहस्थी का हाल पहले से ज्यादा खराब है। पंचों में चाहे खेताराम जाट हो या रुपाराम, खियाराम हो या अमराराम, सारे यही कहते हैं कि चिड़िया जब पूरा खेत चुग जाए, इसके बाद पछताओ भी तो क्या फायदा ?


राजौ के पिता देदाराम यह खोटी खबर लेकर सबसे पहले गांव के पंच खियाराम जाट के पास पहुंचे थे। उन्होंने इसे अंधेर और जमाने को घोर कलयुगी बतलाया, फिर देदाराम से पूछे बगैर दोषी टीकूराम के यहां यह संदेशा भी भिजवा दिया कि 20,000 रूपए देकर मामला निपटा लेने में ही भलाई है। मगर टीकूराम के पिता हीराराम जाट ने साफ कह दिया कि वह न तो एक फूटी कोड़ी देने वाला है, न निपटारे के लिए कहीं आने-जाने वाला है। फिर मजिस्ट्रेट की दूसरी पेशी पर बाड़मेर कोर्ट के सामने दोषी समेत गांव के सारे पंच-प्रधान जमा हुए। उन्होंने समझाया कि केस वापिस ले लो, कोर्ट-कचहरी का खर्चापानी भी दे देंगे। पर टीकूराम को साथ देखकर राजौ बिफर पड़ी, उसने राजीनामा के तौर पर लाये गए 50,000 रूपए जमीन पर फेंक दिए और ऐसी खरी-खोटी सुनाई कि वहां एक न ठहरा। इसके बाद जिस चाचा ने राजौ का नाता जोड़ा था, उसी के जरिए पंचों ने बातें भेजीं कि- ‘‘राजीनामा कर लो तो हम साथ रहकर गौना भी करवा दें, और छोटे भाई की शादी भी। नहीं तो सब धरा रह जाएगा। कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ने से अच्छा है आपस में निपटना। वो तो लड़का है, उसका क्या है, जितना तुम्हें पैसा देगा, उतना कचहरी में लुटाकर छूट जाएगा, तुम लड़की हो, उम्र भी क्या है, बाद में कोई साथ नहीं देता बेटी। फिर बदनामी बढ़ाने में अपना ही नुकसान है।’’ जब ऐसी बातों का असर भी नहीं हुआ तो कभी राजौ की जान की फ़िक्र की गई, कभी उसके छोटे भाई के जान की।


राजौ आज तक केस लड़ रही है। यह अलग बात है कि टीकूराम को जमानत पर रिहाई मिल गई, और उसके बाद उसकी शादी भी हुई। राजौ को कोर्ट में लड़ने का फैसला गलत नहीं लगता है, उसे वहां के फैसले का अब भी इंतजार है। राजौ को गांव में आने-जाने के लिए सीधे तो कोई भी नहीं रोकता, मगर पीठ पीछे......तरह-तरह की बातें तो होती ही हैं। वैसे पंचों को छोड़कर गांव के बाकी लोगों के साथ उसके रिश्ते धीरे-धीरे सुधर रहे हैं। राजौ के यहां से उठते वक्त उससे जब कहा गया कि रिपोर्ट में उसका नाम और फोटो छिपा ली जाएगी तो उसने बेझिझक कहा ‘‘मेरा असली नाम और फोटो ही देना। जिनके सामने लाज शरम से रहना था, उनके सामने ही ईज्जत उतर गई तो....तो दुनिया में जिन्हें हम जानते तक नहीं, उनसे बदनामी का कैसा डर ?’’


यह सवाल लेकर वहां से निकले और पूसाराम भील के गांव बाण्डी धारा की तरफ बढ़े। यहां तक पहुंचने के लिए कच्चे, टेढ़े-मेढ़े रास्ते के बीच इतने हिचकोले खाए कि मिनिटों का समय घण्टे में बदला। पूसाराम भी दो साल पहले अपने पर बीती बातों को घण्टों तक बतलाता रहा कि तब रामसिंह राजपूत और उसके साथ के सात और आदमियों ने दारू पीकर यहां बुरी-बुरी गालियां दीं। फिर उसे डराकर उसका एक बकरा खरीदने और पैसा बाद में देने की बात करने लगे। जब पूसाराम ने न की तो उसे बुरी तरह पीटा। खेत में काम कर रही उसकी घरवाली मीरा ने जब ये चीखें सुनीं तो दोड़ी-दौड़ी आई। आते ही देखा कि रामसिंह उसके बकरे को ले जा रहा है तो उसे छुड़ाने की कोशिश में बेरहम मार भी खाई। इत्तेफाक से वह 26 जनवरी की सुबह थी, इसलिए सारे गांव वाले स्कूल में थे। पूसाराम फौरन वहां भागा और सबके सामने सारी बात सुना डाली। तब गांव वालों ने रामसिंह को बुलवाया, मगर वह नहीं आया। अगले रोज पूसाराम अपनी घरवाली के साथ थाने जाकर रिपोर्ट लिखवा आया। उस तारीख से दो महीने तक उसका केस कचहरी में रहा, मगर इधर गांव वालों के बढ़ते जोर के आगे एक रोज वह ऐसा टूटा कि राजीनामा के लिए हां बोल बैठा। उसे मारपीट का भंयकर दर्द हमेशा के लिए भूल जाना पड़ा। खींचतान से बुरी तरह घायल होकर 5 रोज में मरे बकरे की मौत और उसकी कीमत भी भूल जानी पड़ी। गांव वालों ने सिर्फ अस्पताल में लगे खर्चापानी दिलवाने की गांरटी भर दी। उन्होंने यह भी भरोसा दिलाया कि अब आगे से ऐसा नहीं होगा। दोषी रामसिंह राजपूत ने माफी भी मांगी, यह अलग बात है कि केवल ऊंची जाति वालों के सामने। पूसाराम से माफी मांगने के सवाल पर उसके भीतर जाति का अहम अड़ गया था। तब गांव वालों ने ही पूसाराम से माफी मांग ली और केस को निपटा दिया।


‘तो राजीनामा से खुश हो’- ऐसा सुनकर पूसाराम ने सिर से मनाही करते हुए जैसे सख्त ऐतराज जताया। उसने बताया कि ‘‘यह राजीनामा उसकी खुशी से नहीं, गांव वालों की खुशी से हुआ है। जिसकी बड़ी लड़की के ही 3 लड़कियां हो, उसे बेहिसाब पीटने का कोई तुक नहीं बनता। घरवाली की पीठ, पसलियों से उठने वाले दर्द ने महीनों तक तकलीफ दी थी।’’ ‘अगर ऐसा ही था तो राजीनामा किया ही क्यों’- जबाव में पूसाराम बोला ‘‘कुछ लोग बोले देख कितने बड़े लोग तेरे सामने हाथ जोड़ रहे हैं, तू उनकी बातें ठुकरा नहीं सकता, आखिर हम सब को रहना तो गांव में ही है ना। मुझे भी लगा कि वह सही है। खेत के पानी से लेकर आंगन का गोबर, चूल्हे की लकड़ियां, कर्ज के पैसे, आटे की चक्की, मजूरी, सब तो उन्हीं के भरोसे पर है। मेरा जोर चलता तो आगे भी लड़ता, मगर कुछ रोज में गांव छोडना पड़ जाता। यहां झोपड़ी हैं, यहीं जमीन हैं। बीबी, बच्चों, बकरियों को लेकर कहां जाता ?’’


कहते हैं ‘‘पांच पंच मिल कीजै काज। हारे जीते होय न लाज।।’’ मगर जहां के पंच अपनी ताकत से जीत को अपने खाते में रखते हो, वहां के कमजारों के पास हार और लाज ही बची रह जाती है। ऐसे में कोई कमजोर जीतने की उम्मीद से कचहरी के रास्ते जाए भी तो उसे जाती हुई राजौ और लौटता हुआ पूसाराम खड़ा मिलता है। तब यह सवाल इतना सीधा नहीं रह जाता है कि वह किसके साथ चले, किसके साथ लौटे ?

14.10.09

सूखे की स्थाई परियोजना की अकाल मौत



शिरीष खरे


बाड़मेर। ‘‘यह बारिश नहीं बरसेगी। कहीं और जाकर बरसेगी। शायद बाड़मेर, शायद जोधपुर, जयपुर, या उससे भी आगे दिल्ली। बारिश, फिर दगा दे गई।’’

बायतु गांव में, उस रात भंवरलाल की छत पर हनुमान, ठकराराम, करणराम, मुरली चौधरी के साथ बैठे बैठे बादलों की नौटंकी देर तक देखते रहे। कड़कड़ाती और चमकदार बिजलियों के बीच, काले बदलों में भरी उन संभावनाओं पर बतियाते रहे, जो हवा के साथ कबके छूमंतर हो चुके थे। इसी बीच कुंभाराम ने आकर बेवफा बारिश के हवाले से जैसे सबको बुरी तरह टोक डाला। जाते जाते वह ऐसी भविष्यवाणी भी करता गया, जो सबको मालूम थी- ‘‘अब फिर से सूखा होगा, भंयकर अकाल पड़ेगा।’’

यहां जब बादल नहीं होते तो उसके किस्से होते हैं: निराशाओं, सामूहिक हताशाओं से भरे हुए। मगर मुरली चौधरी ने सूखे की हालत पर एक खुशनुमा लोकगीत शुरू कर दिया। जिसका मतलब है- ‘‘सूखा तो यहां के पैर में है, नाक में है, गर्दन में है। कभी-कभार इधर-उधर हो आता हैं, मगर उसका असली मुकाम यहीं है। जैसा भी है, है तो अपना दोस्त।’’

अब वह एक नया लोकगीत रचने के लिए मचल पड़ा है। जिसके बोल जुड़े हैं ‘अकाल को जड़ सहित उखाड़ने’ के नाम पर बनी- इंदिरा गांधी नहर परियोजना से। जो खाका बना है, उसमें ‘‘सूखे ने सत्ता की दुष्ट शक्तियों के साथ हाथ मिलाया है, वह राक्षस का रुप धारण करके लोभ और भष्ट्राचार के फेरे में पड़ गया है, वह सबकुछ निगल जाने को बैठा है। सुनो रे परदेसी, यह आज का नहीं, बहुत पहले का किस्सा है’’ :

1947 से अबतक, ऐसा नहीं है कि यहां सूखे के स्थायी निपटारे के बारे में कभी सोचा नहीं गया। राजीव गांधी के समय, एक बार सोचा गया था। उस समय, पंजाब के हरिकेन बांध से इंदिरा-गांधी नहर गडरा (बाड़मेर) तक आनी थी, वह चली भी मगर दिल्ली की सत्ता में बैठी ताकतों ने उसका रूख अपनी तरफ करवा लिया। नहर को गंगानगर, बीकानेर, जैसलमेर से होकर यहीं कोई 800 किलोमीटर का सफर निभाना था। इधर यह 300 किलोमीटर दूर बीकानेर जिले में पहुंची, उधर राजीव गांधी के बेहद नजदीकी और तबके केन्द्रीय कपड़ामंत्री (अबके मुख्यमंत्री) अशोक गहलोत की सक्रियता बढ़ी। आखिरकार नहर की पाइपलाइनों को जोधपुर की कायलाना झील की ओर मोड़ दिया गया।

इससे पहला फायदा जोधपुर के महाराजा कहे जाने वाले गजोसिंह को हुआ। कायलाना झील का पट्टा, आज तक उन्हीं के नाम जो चढ़ा हुआ है। यहां तक पानी पहुंचते ही उनका पर्यटन का धंधा लहलहा उठा। होटल तो था ही, महाराजा साहब ने ‘वाटर रिसोर्स सेंटर’ के नाम पर महल भी खड़ा करवा दिया। अशोक गहलोत, माली जाति और जोधपुर इलाके से रहे हैं, उन पर ‘माली लॉबी’ के फायदे के लिए अपने असर के गलत इस्तेमाल का आरोप लगा। पाइपलाइन मोड़ने का दूसरा फायदा अशोक गहलोत और माली जाति के कुओं को रिचार्ज करने में हुआ। इसलिए सूखे के घेरे के असली पीड़ितों की आंखे बेवफा बादलों तक सिमटी रही।


1990 में यहां परियोजना का सरकारी प्रचार प्रसार हुआ। जनता से पैसा बटोरने के लिए एक तस्वीर दिखाई- ’’हरे-भरे खेतों से कलकल बहती नहर और खुशहाल किसान परिवार।’’ अपने परिवार को भी हराभरा बनाने के लिए जनता ने वहीं किया जो सरकार ने चाहा। उसने ऊंची बोली लगाकर नहर के आसपास की जमीनों को खरीदा। पनावड़ा, मनावड़ी, भियाड़, भीमड़ा के गांव वाले कहते हैं ‘‘जिनके पास पैसा नहीं था, उन्होंने घर की औरतों के गहने तक बेचे।’’ उन्होंने पांच एकड़ के मरूस्थल को 1 से 5 लाख रूपए तक में खरीदा। उन्होंने अपनी जगहों से जंगली झाड़-पेड़ उखाड़े, पहले मैदानों में और फिर खेतों में बदला। मगर इसे क्या कहेंगे कि उस समय भी उन जमीनों की कीमत न के बराबर थी, आज भी न के बराबर है। यहां रेतीले तूफानों से महज रेतीली नहरें अब भी बनती हैं, तब भी बिगड़ती थीं।

बीकानेर से दूरदराज का अंदरूनी, इंदिरा गांधी नहर के नीले नक्शे का यह रेतीला हिस्सा है। सुबह से ही रेत पर गुफानुमा परतों में सूखा ठहरा है। ऊपर, काले बादलों के रंग-ढंग से उभरते हुए अकाल का पता चलता है। मुख्य नहर पार करके कोलायत तहसील की कुछ अस्त-व्यस्त बसाहटों में पहुंचते हैं, साथ लाए पानी का बड़ा आसरा है, यहां की गरीबी मटमैली रंग सी साफ झलकती है। नहर के रास्ते ऐसे हैं, जैसे कभी थे ही नहीं। बहुत सूखे, बहुत प्यासे और कंठ तक रेत से भरे भरे। अब तो विशाल भूगोल के टप्पे टप्पे से हरे भरे बनने के सपने भी झर गए हैं। भीमसेन अपने इधर का हाल सुनाते हैं ‘‘यह पट्टी, जानवरों को सैकड़ो क्विंटल चारा चराने वाली जीवनरेखा है। मगर कोई लकड़ी नहीं बची, नहर के नाम से सिर्फ पेड़ों को उखाड़ा है। हमारे देखते देखते बहुत सारी झाड़ियां भी गायब हो गई हैं।’’

बाड़मेर जिले के गांव भी इसी नजारे से तरबतर हैं। इन दिनों थोड़ी (बहुत) नाटकीयता लिए हुई है। कई कई जगहों में तो मर्द, औरते, बच्चे बादलों को बुलाने की विद्या में जुटे हैं। हरेक जी भरकर सफेद बादलों के गुच्छों को तांकते हैं, जो रेत के समुद्र के सामानान्तर फैले आकाश में तैर रहे हैं। उधर सूरज ठंडा नहीं होता, इधर रेत धधकती है। कभी कभार बादलों के गुच्छे एक जगह जमा होकर, भूरे रंगों में आकार लेते हुए होश उड़ा देते हैं। शाम के वक्त, बेहया धूप ढ़लती रोशनी के नीचे सुस्ताने लगती है। यहां थार के ताजा चेहरे पर ‘बरसात की अनिश्चितता’ साफ साफ लिखी है। दोपहर तक सूरज की तेज रोशनी, रेत के रूखे रंगों से भी नमी चुराना चाहती है। प्यासे पौधे जीने की जद्दोजहद में हैं, तालाब भी खेत की तरह रीते पड़े हैं, जैसे यह सारे यहां से अब दुख की सर्द रातों की तरफ में दाखिल हो जाएंगे। मगर इन सब से बेफिक्र उस रात थोड़ी देर तक हम सुनते रहे ‘‘कतरा-कतरा पिघलता रहा आसमान। इन वादियों में न जाने कहां। एक ‘नहर’ दिलरूबा गीत गाती रही कि- आप यूं फासलों से गुजरते रहे.....’’


चलते चलते :
बाड़मेर जिले के 100 सालों में 80 सूखे के रहे। बाकी 20 सालों में 10 सुकाल के, 10 साल ऐसे ही रहे। फसल उत्पादन के हिसाब से 100 में से 30 साल 0 (शून्य) प्रतिशत, 20 साल 10-20 प्रतिशत (बेहद मामूली) उत्पादन रहा। बाकी बचे 50 में से 20 साल 20-30 प्रतिशत, 10 साल 30-40 प्रतिशत, 10 साल 50-60 प्रतिशत और 10 साल 70 प्रतिशत उत्पादन हुआ। पानी की मांग के लिहाज से कुल जरूरत का 10 प्रतिशत भी पूरा नहीं हो पाता। बाकी 90 प्रतिशत को पूरा करने के लिए निजी टांके से 40 प्रतिशत, सरकारी टैंकरों से 10 प्रतिशत और खारे पानी से 20 प्रतिशत तक की भरपाई होती है। कम से कम 30 प्रतिशत का भारी अंतर बना रहता है।