27.5.09

पीछे छूट गए स्कूल

शिरीष खरे
उस्मानाबाद। हर साल हजारों मजदूर सीमावर्ती इलाकों में गन्ना काटने के लिए जाते हैं। नंवबर से जून के बीच बच्चे भी बड़ों के साथ पलायन करते हैं। यही समय स्कूल की पढ़ाई के लिए खास होता है। लेकिन इसी समय गांव के गांव खाली हो जाने से स्कूल भी खाली पड़ जाते हैं। ऐसे में चीनी पट्टी के नाम से मशहूर मराठवाड़ा के कई बच्चे आगे नहीं पढ़ पाते हैं।
चाईल्ड राईट्स एण्ड यू’ और ‘लोकहित सामाजिक विकास संस्था’ ने कलंब तहसील के 19 गांवों में सर्वे किया और पाया कि 6-14 साल के कुल 1,555 बच्चों में से 342 स्कूल नहीं जाते। इसमें 193 लड़कियां हैं। इसके अलावा ड्रापआउट बच्चों की संख्या 213 है। इसमें से भी 89 लड़कियां हैं। यहां एक साल में 19 बाल-विवाह के मामले भी उजागर हुए हैं। इन संस्थाओं ने 19 गांवों के बच्चों को पढ़ाई से जोड़ने की रुपरेखा तैयार की है। इससे एक छोटे से हिस्से में बदलाव की आशा बंधी है। लेकिन पलायन के इस संकट ने पूरे मराठवाड़ा को घेर रखा है।
‘लोकहित सामाजिक विकास संस्था’ के बजरंग टाटे ने बताया- ‘‘पलायन करने वाले मजदूरों में ज्यादातर दलित और बंजारा जनजाति से होते हैं। इनके पास रोजगार के स्थायी साधन नहीं होते। इसलिए जब यह लोग बाहर निकलते हैं तो पंचायत की कई योजनाओं से छूट जाते हैं। सबसे ज्यादा नुकसान तो स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों का होता है। खेतों में जाने वाले इन बच्चों का खूब शोषण होता है।’’
महादेव बस्ती की शिक्षिका प्रतिभा दीक्षित ने बताया कि- ‘‘परीक्षा की तारीख नजदीक आते-आते तो ज्यादातर आदिवासियों के घरों में ताले लटकने लगते हैं। इससे पूरे इलाके में शिक्षा का स्तर बहुत नीचे चला जाता है। बच्चों की अनुपस्थिति के कारण शिक्षकों को कोर्स पूरा करने में मुश्किल होती है। जंगली क्षेत्र के कम-से-कम 75 स्कूलों में तो बच्चों का अकाल पड़ जाता है। परीक्षा के दिन तक 100 में से कम-से-कम 40 बच्चे गायब हो जाते हैं।’’ मजदूरों के साथ यह बच्चे 200 से 700 किलोमीटर दूर याने नगर, पुणे, कोल्हापर और कर्नाटक के बिदर, आलूमटी तथा बेड़गांव के इलाकों तक जाते हैं। यह परिवार गन्ने के खेतों में ही अस्थायी बस्ती बनाकर रहते हैं। काम के मुताबिक यह अपने ठिकाने बदलते रहते हैं।
धाराशिव चीनी मिल, चैरारूवली’ के लिए गन्ना काटने वाले मजदूरों की एक बस्ती को देखने का मौका मिला। पन्नी, कपड़ा और लकड़ियों की मदद से कुल 12 घर खड़े हैं। सभी घर एक-दूसरे से अलग-थलग हैं। 13 साल की नीरा शिंदे ने बताया- ‘‘घर में एक ही कमरा है। इस कमरे में पैर पसारने भर की जगह है। धूप के दिनों में पन्नी के गर्म होने से बहुत गर्मी लगती है। यह घर हमें ठण्ड और पानी से भी नहीं बचा पाते। बरसात में तो पूरा खेत कीचड़ से भर जाता है।’’ 12 साल के रामदास गायकबाड़ ने बताया- ‘‘इस उबड़-खाबड खेत में न कोई गली है, न खेलने का मैदान। पीने का पानी भी हम 2 किलोमीटर दूर से लाते हैं। सभी खुले में नहाते हैं। रात को लाइट नहीं रहने से घुप्प अंधेरा छा जाता है। हम सुबह का इंतजार करते हैं।’’ चीनी मिलों से ट्रालियों का आना-जाना देर रात तक चलता रहता है। इस दौरान कई बच्चे गन्नों को बांधने और उन्हें ट्रालियों में भरने के कामों में शामिल हो जाते हैं।
14 साल की अंगुरी मेहतो ने कहा- ‘‘मुझे अपने 3 छोटे भाईयों को संभालने में बहुत मुश्किल होती है। कंधों पर रखे-रखे शरीर दुखने लगता है। सुबह से शाम तक घर के काम भी करती हूं।’’ यहां 6 से 14 साल के बच्चे-बच्चियां घरों में खाना बनाने और सफाई का काम करते हैं। ऐसी ही दूसरी बच्ची इशाका गोरे ने बताया कि- ‘‘मैं अभी तीसरी में । दूसरी में पहले नम्बर पर आई थी। यहां से जाने के बाद परीक्षा देना है। फिर चौथी बैठूंगी।’’ उसे नहीं मालूम कि अब स्कूल की परीक्षाएं खत्म हो चुकी हैं। उसका परिवार सागली जिले के कराठ गांव से आया है। इशाका के पिता याविक गोरे का मानना है कि- ‘‘यह पढ़े तो ठीक, नहीं तो 4-5 साल में शादी करनी ही है। फिर अपने पति के साथ जोड़ा बनाकर काम करेगी।’’ यहां ज्यादातर लोग अपने बच्चों की शादियां कम उम्र में ही कर देते हैं। इन्हें लगता है कि परिवार में जितने अधिक जोड़े रहेंगे, आमदनी उतनी ही अधिक होगी। ज्यादातर रिश्तेदारियां भी काम की जगहों पर हो जाती हैं। इस तरह बाल-विवाह की प्रथा यहां नए रुप में सामने आती है। इस तरह बाल-विवाह की प्रथा यहां नए रुप में सामने आती है।
दूसरी बस्तियों में भी बच्चों से जुड़ी कई दिक्कते एक समान पायी गई, जैसे- 1) बढ़ते बच्चों को पर्याप्त और समय पर भोजन नहीं मिलता। इससे कुपोषण के मामलों में बढ़ोतरी होती है। 2) खेतों में बच्चे सबसे ज्यादा सर्दी के मौसम में बीमार होते हैं। 3) गन्ना काटते वक्त कोयना जैसे धारदार हथियार लगने, सांप काटने और बावड़ियों में गिरने की घटनाएं होती रहती हैं। 4) ऐसे खेतों से ‘प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र’ करीब 15-20 किलोमीटर दूर होते हैं। इसलिए इमरजेंसी के दौरान अनहोनी की आशंकाएं बढ़ जाती हैं।
‘शंभु महाराज चीनी मिल, हवरगांव’ के लिए गन्ना काटने वाली शोभायनी कस्बे ने बताया- ‘‘हमारे बच्चे हमारे साथ होकर भी दूर हैं। यह कभी चिड़चिड़ाते हैं, कभी चुपचाप हो जाते हैं। ऐसे माहौल में बच्चों का दिमाग बिगड़ जाता है। यह खेलने-पढ़ने के दिनों में भी बहुत काम करते हैं। इन्हें पढ़ाई का कोई तनाव नहीं है। यह तो भूख की मजबूरी से स्कूल नहीं जा पाते।’’
केन्द्र सरकार 2010 तक देश के सभी बच्चों को स्कूल ले जाना चाहती है। लेकिन 11वीं योजना में साफ तौर से कहा गया है कि 7 प्रतिशत बच्चों को स्कूल से जोड़ना मुश्किल हैं। यह बच्चे सामाजिक और आर्थिक कारणों से सरकार की पहुंच से दूर हैं। यूनेस्को ने भी ‘एजुकेशन फार आल मानिटिरिंग, 2007 की रिपोर्ट में कहा है कि भारत, पाकिस्तान और नाईजीरिया में दुनिया के 27 प्रतिशत बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। दुनिया के 101 देशों की तरह भारत भी पूर्ण साक्षरता की दौड़ से बाहर है। यूनेस्को के मुताबिक भारत के 70 लाख बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं। दुनिया के 17 देशों की तरह भारत में प्राइमरी स्कूलों से लड़कियों का पलायन ज्यादा हो रहा है। आखिरी जनगणना के हिसाब से 49.46 करोड़ महिलाओं में से 22.96 करोड़ महिलाएं निरक्षर हैं। ‘चाईल्ड राईटस् एण्ड यू’ मानता है कि भारत में 5 से 9 साल की 53 प्रतिशत लड़कियां पढ़ नहीं पाती।
भारत-सरकार ने 600 में से 597 जिलों को पूर्ण साक्षरता अभियान का हिस्सा बनाया है। उसके पास कई योजनाएं भी हैं जैसे- घरों के पास स्कूल खोलना, स्कालरशिप देना, मिड-डे-मिल चलाना और ब्रिज कोर्स तैयार करना। बीते 3 सालों में प्राइमरी स्तर पर 2,000 से भी अधिक आवासीय स्कूल खोले गए। लड़कियों के लिए 31,000 आदर्श स्कूल भी बने। लेकिन मराठवाड़ा जैसे इलाकों से पलायन करने वाले बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा से नहीं जुड़ सके।
पलायन, समाज की भीतरी परतों से जुड़ा है। विकास की असंतुलित रतार के कारण यह समस्या विकराल हो चुकी है। इसे रोजगार के स्थायी साधन और भूमि सुधार की नीतियों की मदद से रोकना होगा। जब तक इंसान की मूलभूत जरूरत पूरी नहीं होगी तब तक बच्चों के भविष्य पर संकट के बादल मडराते रहेंगे।

26.5.09

एक बस्ती का नाम था वटवा

शिरीष खरे

अहमदाबाद। नहीं, यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है.

लेकिन वटवा की सुल्ताना बानो के मन में एक ही सवाल बार-बार उमड़ता घुमड़ता है कि आखिर छोटी-छोटी खुशियों और सपनों का कत्ल कर के ही शॉपिंग मॉल्स, कॉपलेक्स, अण्डरब्रिज, ओवरब्रिज और सड़कों का जाल क्यों फैलाया जाता है ?
इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है. अब अहमदाबाद मेगासिटी बनने वाला है और मेगासिटी की चमक की सोच-सोच कर अभी से लोगों की आंखें चुंधिया रही हैं लेकिन मेगासिटी की इस चमक ने अपने पीछे एक ऐसा अंधेरा छोड़ना शुरु किया है, जिसमें हज़ारों लोगों की जिंदगी प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह गुम हो रही हैं.
अहमदाबाद अपने ठिकाने पर है. लेकिन इसमें रहने वालों को ठिकानों की तलाश हैं. टाऊन प्लानिंग के नक्शे के मुताबिक शहर की तंग गलियों को मुख्य सड़कों से जोड़ने के लिए चौड़ा किया जाएगा. उन गलियों को भी, जहां इसकी जरुरत नहीं है. और अब इसके लिए गरीबों के घर निशाने पर हैं.
वटवा की एक सड़क को 64 फीट चौड़ा करने का फरमान जारी हुआ है. यहां की घनी बस्ती देखने के बाद तो यह फैसला और भी अजीब लगता है. वैसे भी यह सड़क आगे जाकर रेल्वे-स्टेशन पर खत्म हो जाएगी. यहां से स्टेशन आधा घण्टे का रास्ता है. स्टेशन से ही नवापुरा के 84 घर लगे है. सड़क को चौड़ा करने के लिए स्टेशन तो टूटेगा नहीं. इसलिए यह काम स्टेशन तक जाकर रूकेगा और सिर्फ गरीबों के घर ही टूटेंगे. 28 घर टूट चुके है. कुछ घरों में लाल निशान लगे हैं.
टूटने वाले घरों का कुल आंकड़ा कोई नहीं जानता.
2001 की जनगणना के मुताबिक अहमदाबाद में 6 लाख 92 हजार 257 घरों में कुल 49 लाख 70 हजार 200 लोग रहते हैं. इसमें से 8 लाख 714 गरीब हैं. यानी यह कुल आबादी का 26 फीसदी हिस्सा हुआ. शहर के दक्षिण की ओर वार्ड-42 के नाम से दर्ज वटवा में 26,630 घर हैं, जिसमें 1 लाख 21 हजार 725 लोग रहते हैं. 2001 की जनगणना के हवाले से शहर में 10 लाख 71 हजार 11 कामगार हैं जिसमें से 37 हजार 410 वटवा में हैं. शहर में जहां 53 हजार 497 मार्जिनल वकर्स हैं वहीं वटवा में यह संख्या 1 हजार 794 है. इसी तरह शहर के 23 लाख 95 हजार 577 नॉन-वकर्स में से 82 हजार 493 वटवा में हैं.
‘सहयोग’संस्था की शीतल बहन कहती हैं- “ गरीबों के घर एक साथ न तोड़कर धीरे-धीरे तोड़े जा रहे हैं. भारी विरोध से बचने के लिए सरकार ऐसा कर रही है. उसे योजना के बारे में लोगों को बताना चाहिए था. लेकिन वह ऐन वक्त पर अपने पत्ते खोलती है. इस शिकायत को लेकर जब हम चीफ सिटी प्लॉनर के यहां गए तो उन्होंने इस्टेट डिपार्टमेन्ट के पास भेज दिया. इसके बाद इस्टेट डिपार्टमेन्ट ने चीफ सिटी प्लॉनर का पता बता दिया.”
‘चाईल्ड राईटस् एण्ड यू’के प्रवीण सिंह के अनुसार वटवा के विस्थापितों को लेकर असमंजस की स्थिति है. सरकार कहती है कि जिनके पास 1976 से रहने के सबूत हैं उन्हें ही वैकिल्पक व्यवस्था मिलेगी. लेकिन ज्यादातर गरीबों के पास 33 साल पुराने सबूत नहीं हैं.
आग जल रही है
वटवा में ज्यादातर ऐसे परिवार रहते हैं, जिन्हें 2002 के दंगों में अपने घर खोने पड़े थे. इन दंगों का सबसे ज्यादा हर्जाना अल्पसंख्यकों ने चुकाया था. इन्होंने किसी तरह अपनी जान तो बचा ली थी लेकिन दंगाइयों द्वारा लगाई गई आग से अपना घर और उसमें रखा सामान नहीं बचा पाए थे. यह आग उनके पहचान के जरूरी कागजात भी जला गई थी.
घरों में लगी आग तो बुझ गई लेकिन नफरत की एक आग उस दंगे के बाद से आज तक भड़क रही है. 2002 से ही वटवा के लोगों को “भारतीय” होने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. उन्हें “गद्दार”, “खतरनाक” और “पराए” जैसे विशेषण दे दिए गए हैं. यहां की हर गली, चौराहा और बाजार अब बदनाम है. यही कारण है कि अघोषित तौर पर वटवा विकास योजनाओं से बेदखल ही रहा है.
जब सबकी नजरों से वटवा उतरा तब बिल्डरों की आंखों में यह चढ़ा. उन्होंने यहां नाजायाज तौर पर मकान बनाए और यही के अल्पसंख्यकों को बेच दिए. पूरा कंस्ट्रेक्शन अवैध तरीके से हुआ, इसलिए यहां के लोगों ने जो मकान खरीदे वह उनके नाम पर नहीं हुए. इन्हें अपने मकान से कभी भी निकाला जा सकता है. इसके बदले में कोई राहत भी नहीं मिलेगी. क्योंकि अवैध मकानों में पानी और बिजली मुहैया कराना सरकार का काम नहीं होता इसलिए यह काम भी बिल्डर ही पूरा करते हैं. जाहिर है, आधा तीतर-आधा बटेर की तरह बिल्डर ने घर बनाए लेकिन उनमें न नाली बनाई, न पानी की कोई व्यवस्था की.
सपनों का कत्ल
वटवा की सुल्ताना बानो ने अपनी उम्र के 50 में से 20 साल यहीं गुजरे हैं. 12वीं कक्षा तक पढ़ी-लिखी सुल्ताना बानो आंगनबाड़ी चलाती हैं. लेकिन 4 सदस्यों वाले उनके परिवार की मासिक आमदनी 4,000 से ज्यादा नहीं है. ऊपर से वटवा में अतिक्रमण के नाम पर मची तोड़फोड़ ने उनकी नींद उड़ा दी है. वे कहती हैं- “ हम अपने घर का टैक्स देते रहे हैं. आज उसे छोड़ने के लिए कहा जा रहा है. लेकिन नई जगह जाने के पहले हमारी तरक्की माटी में मिल जाएगी.”
अफसाना बानो के भी 38 में से 18 साल यहीं गुजरे. वह सातवीं कक्षा तक पढ़-लिखकर भी नहीं जानती कि उनका परिवार कुल कितना कमाता है. लेकिन 6 महीने पहले उसने एक अफसर से लाल निशान लगाए जाने की वजह जाननी चाही थी. अफसर ने कुछ नहीं कहा.
अफसाना को आज तक एक भी जबावदार अफसर नहीं मिला. उसके शौहर मोहम्मद शेख ने कहा- “अगर गरीब से उसका आशियाना छीनकर तरक्की आएगी तो वह हमें मंजूर नहीं. कही दूसरा ठिकाना मिल भी जाए तो हमारा नुकसान कम नहीं होगा. फिर भी हम हर रोज नए ठिकाने की फ्रिक में डूबे रहते हैं.”
कुल 32.82 वर्ग किलोमीटर में फैले वटवा के कई परिवार 20-25 साल से यहां रहते आए हैं. लेकिन कई लोग हैं, जिनके पास निवास प्रमाण पत्र उपलब्ध नहीं है. हालत ये है कि इनमें से कई लोग यह सबूत जुटाने की कोशिश भी नहीं करते. इन्हें डर है कि ऑफिस में बैठे लोग उनकी नागरिकता पर ही शक न करने लगें!
नवापुरा में अब तक 15 परिवारों को नोटिस मिले हैं. 35 साल के संतोष कुमार यहीं पले-बढ़े हैं. अगर उसकी रोज की मेहनत को महीने में जोड़ा जाए तो वह 5,000 पहुंचती है. इसी से उनका 8 सदस्यों वाला परिवार चलता है. लेकिन अक्टूबर में उसके घर पर भी लाल निशान लग गया.
संतोष के हिस्से अब भविष्य की चिंताएं हैं- “अचानक मिली इस खबर ने जिंदगी अस्त-व्यस्त कर डाली. कुछ लोग तो दहशत के मारे अपने-अपने घर तोड़ने भी लगे हैं. उन्हें लगता हैं कि वक्त रहते ऐसा नहीं किया तो बाद में ज्यादा नुकसान होगा.”
इन घरों के साथ उन स्मृतियों पर भी हथौड़े चलेंगे, जिन्हें एक पीढ़ी ने जाने कब से अपने पास संजो कर रखा था. किसी घर की दीवार सालगिरह पर बनी थी तो किसी की छत शादी पर पक्की हुई थी. अब दीवारों से जुड़ी छतों का कोई भरोसा नही रहा. भीड़ वाली गलियां कभी भी गुम हो सकती हैं.
हालांकि लोगों ने उम्मीद नहीं छोड़ी है. बस्ती को इस बदहाली से बचाने के लिए लोगों ने ‘नवजीवन महिला मंच’ बनाया है. मंच की अध्यक्ष शहजाद बहन का हौसला देखते ही बनता है- “ हम लोगों की पहचान साबित करने के लिए रिकार्ड जमा कर रहे हैं. इसके लिए वटवा में 28 पॉकेट के 4,868 परिवारों का स्लम नेटवर्क तैयार हुआ है. इस नेटवर्क से अब 13 पॉकेट के 3,834 परिवार और जुड़ेगे.”
घर अब प्रापर्टी है
अहमदाबाद भी मंदी की चपेट में हैं. यहां जमीन और घरों की कीमत घटी है. लेकिन झुग्गियों को तोड़कर निर्माण कार्य जारी है. एक तरफ गरीबों को जमीनों से हटाया जा रहा है और दूसरी तरफ अमीरों को फ्लैट देने के लिए बिल्डर अपने ब्रोशर में 10-15 फीसदी की कमी कर रहे हैं.
प्रहलाद नगर में जिस फ्लैट की कीमत 2,800 रूपए वर्ग फीट थी, वही अब 2,300 रूपए वर्ग फीट में मिल रहा है. चांदखेडा में यह गिरावट 2,000 से 1,600, बोडकदेव में 3,400 से 2,800 और वेजलपुर में 3,500 से 3,000 रूपए वर्ग फीट तक आ गई है. फिर बिल्डरों के लुभावने नारे तो हैं ही.
चमचमाती गाड़ियों में घुमने वाले बिल्डरशाही को ही शहरी विकास का नाम दे रहे हैं. घर उनके लिए ‘रहने’की जगह नहीं बल्कि अब ‘प्रापर्टी’ है. गरीबों के तबाही की वजह भी यही से शुरू होती है.
दूसरी तरफ मेगासिटी में अपना मुनाफा देखने वाला तबका विस्थापितों के विरोध को ठीक नहीं मानता. वह कहता है कि इससे शहर की शांति और व्यवस्था भंग होती है. सरकार झुग्गी बस्तियां तोड़ने के लिए पुलिस को आगे करती है और कारपोरेट की ताकतें ऐसी खबर को बेखबर बनाती हैं. लोकतंत्र में गरीबी हटायी जाती है और बाजार गरीबों को.
साभार : रविवार.कॉम से
लिंक :
http://raviwar.com/news/161_vatva-encroachment-shirish-khare.shtml

15.5.09

कच्ची उम्र के खट्टे-मीठे अनुभव



फिल्म : कैरी
अवधि : 96 मिनिट
निर्देशक : अमोल पालेकर
कलाकार : योगिता देशमुख, शिल्पा नवलकर, मोहन गोखले और लीना भागवत
- - - - - - - - - - - - - - - -
यह फिल्म इंसानी रिश्तों का मार्मिक ताना-बाना है. जो सीधी-साधी कहानी को सहज ढ़ंग से कहती है. इसमें संगीत और कैमरे के जरिए दृश्यों को खूबसूरत रंग-रुप दिया गया है. हर दृश्य बीती यादों का फ्रेम दिखता है. हर कलाकार आसपास का आदमी लगता है. इसलिए फिल्म खत्म होने के बाद भी दर्शक कुछ देर के लिए कुछ सोचता है. वह कुर्सी से तुरंत नहीं उठता पाता.
यह तानी मौसी और उसकी नन्ही भांजी की कहानी है. इस कहानी में 10 साल की बच्ची अपने मां-बाप के मरने पर श्रीपू मामा के साथ तानी मौसी के घर आती है. तानी की कोई संतान नहीं है. वह बच्ची को हर खुशी देने का भरोसा देती है. लेकिन वह खुद खुशियों से दूर है. तानी के पति भाऊराव को उसकी जरा भी फ्रिक नहीं. भाऊराव और घर की नौकरानी तुलसा का नाजायज रिश्ता है. तुलसा भी भाऊराव की आड़ से मालकिन को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं चूकती. इन हालातों से परेशान तानी जिदंगी को अपने हाल पर छोड़ देती है. लेकिन भांजी के आने के बाद वह फिर से जीना चाहती है.
यह मराठी के लोकप्रिय लेखक जी. ए. कुलकर्णी की कहानी है. इसे अमोल पालेकर ने फिल्म ‘कैरी’ में पेश किया. यहां ‘कैरी’ का मतलब एक बच्ची के बड़े बनने के अनुभवों से है. इसमें एक औरत के जीने की तमन्ना को भी पंख लगे हुए हैं. तानी एक घरेलू औरत है. वह घर की चार दीवारी के हर सुख और दुख से खुश है. तानी अपनी भांजी को सुरक्षा और ममता का ऐसा आंचल देना चाहती है जिससे उसका बचपन बचा रहे. तानी अपने बचपन की उम्मीदों को ताजा करना चाहती है. वह प्यार के इस एहसास को संवारना चाहती है. वह पूरे जोश से मासूम बच्ची की एक-एक चाहत को बचाना चाहती है. तानी ने अपनी जिंदगी पर होने वाले अत्याचारों पर चुप्पी साध ली है. लेकिन वह बच्ची को लेकर उठने वाली छोटी अंगुली को बर्दाश्त नहीं कर सकती. ऐसी किसी आशंका की आहट सुनते ही वह समाज के तयशुदा पैमानों के खिलाफ बोलने लगती है. उस वक्त एक औरत के अंदर की ताकत का पता चलता है.
लेकिन तानी अपने पति की मार से टूट जाती है. बच्ची के मन पर बिखरते हुए घर का असर न पड़े इसलिए तानी उसे श्रीपू मामा को लौटा देती है. विदाई के समय तानी मौसी अपनी भांजी से आसपास देखने, पूछने और जानने की बातें कहती हैं. कहते हैं कच्ची उम्र की खट्टी-मीठी घटनाओं का असर उम्र भर रहता है. बच्ची ने तानी मौसी की आंखों में एक सुंदर कल की झलक देखी थी. उसने तानी मौसी की गर्म गोद से हौसला पाया था. उसके मन में तानी मौसी के होने का एहसास बना रहा. उसने तानी मौसी की नर्म अंगुलियों से मर्दों की दुनिया में आगे बढ़ने का रास्ता ढ़ूढ़ लिया. आखिरकार तानी मौसी के व्यक्तित्व के असर ने उस बच्ची को बड़ी लेखिका बना दिया.
इस फिल्म को एक कहानी की तरह ज्यों का त्यों रख दिया गया है. इससे एक पाठक की तरह दर्शक को भी अपनी तरह से सोचने और समझने का मौका मिलता है. अंत में संदेश देने की औपचारिकता से फिल्म अपना असर खो सकती थी.

10.5.09

कोई सूरत नजर नहीं आती

शिरीष खरे
सूरत। इस पहेली से मुझे बचपन की पहेलियां याद आ गईं। उन पहेलियों के आखिरी में लिखा होता था- ‘‘बूझो तो जानें.’’ सारी पहेलियां इतनी सीधी लगती थीं कि बार-बार धोखा खाता और उल्टा जबाव दे देता. आज की पहेली वैसी ही है. वह दिखती जितनी सीधी है, है उतनी ही उल्टी. पहेली शुरू होती है ‘सूरत नगर-निगम’ के एक ख्याल से. निगम ने कहा था कि शहर में एक भी झुग्गी नहीं दिखेगी.
ऐसा ‘जेएनएनयूआरएम’ योजना के जरिए होना था. निगम ने अमरौली के पास बनी राजीवनगर झोपड़पट्टी के लोगों के लिए कोसड में 42,000 फ्लेट बनाए. लेकिन अब यह लोग वह फ्लेट नहीं ले सकते. चलिए पहेली को समझने के लिए उसकी परतों में चलते हैं.
निगम के अफसरों की सुने तो पहेली सीधी ही है. इसे राजीवनगर झोपड़पट्टी के लोग चुटकी में सुलझा सकते हैं. लेकिन राजीवनगर झोपड़पट्टी के लोग कहते हैं कि अफसरों की जिद के आगे सभी नतमस्तक हैं. निगम ने इनके लिए फ्लेट बनवाए और अब यही लोग कागजों की भूल-भुलैया में गोते खा रहे हैं. आप कहेंगे कि कागजात देकर बाहर निकला जा सकता है. लेकिन यह इतना आसान नहीं है. आमतौर पर ऐसी बस्तियों के लोग नहीं जानते कि एक दिन उनके घर टूटेंगे. एक दिन उनसे यहां रहने के सबूत मांगे जाएंगे. इसलिए वह कागजों को इकट्ठा नहीं कर पाते. ऐसी बस्तियों के लोग किस कागज के टुकड़े का क्या मतलब है, यह भी नहीं जानते. राजीवनगर का भी यही हाल है. अफसरों को जो कागज चाहिए उनमें से कुछ कागज यहां के ज्यादातर रहवासियों के पास नहीं हैं. यह रहवासी अफसरों को अपनी झुग्गी दिखाना चाहते हैं. लेकिन अफसरों को तो झुग्गी में रहने का कागज ही देखना है. फिलहाल लोगों के घर का हक निगम की फाइलों से काफी दूर है. इस तरह पूरी योजना आफिस-आफिस के खेल में उलझ चुकी है.
राजीवनगर के 1200 में से सिर्फ 94 परिवार ही रहने के सबूत दिखा सकते हैं. इसलिए 1106 परिवार कोसड में बने फ्लेट का सपना नहीं देख सकते. सामाजिक कार्यकर्ता माया वालेचा के मुताबिक- ‘‘फ्लेट आंवटन से जुड़े सर्वेक्षणों में भारी अनियमितताएं हुई हैं. कुछ बस्तियों में तीन-तीन बार सर्वेक्षण हुए हैं. कुछ बस्तियों में मुश्किल से एक बार. राजीवनगर में ज्यादातर बाहर से आए मजदूर हैं. यह सूरत में 6-8 महीनों के लिए काम करते हैं. इसके बाद यह अपने गांवों को लौट जाते हैं. इनमें से कई 15-20 सालों से यही रहते हैं.’’ बस्ती के ऐसे ही रहवासी संतोष ठाकुर ने बताया- ‘‘बिजली, पानी और संपत्ति के बिल तो मकान-मालिक के पास होते हैं. हमें स्थानीय निकायों से एक सर्टिफिकेट मिलता है. लेकिन अफसर उसे सबूत ही नहीं मानते. कहते हैं कोई दूसरा कागज लाओ.’’ इसी बस्ती के रहवासी रंजन तिवारी ने बताया- ‘‘हमें हमेशा काम नहीं मिलता. इसलिए काम की तलाश में सुबह जल्दी निकलना होता है. सर्वे ऐसे समय हुआ जब हम बस्ती से दूर थे. हमें कुछ मालूम ही नहीं था. इसलिए हमारे नाम सर्वे से नहीं जुड़ सके.’’
नगर-निगम के डिप्टी कमिशनर महेश सिंह के अनुसार- ‘‘’झुग्गीवासियों को फ्लेट आवंटित करने के लिए एक कमेटी बनी हुई है. अगर किसी को लगता है कि उसके सबूत जायज हैं तो कमेटी के पास जाए.’’ नगर-निगम में स्लम अप-ग्रेडेशन सेल के मुखिया मानते हैं कि सर्वें में कई किरायेदारों के नाम छूट गए हैं. उनकी जगह मकान-मालिकों के नाम जुड़ गए हैं. लेकिन यह मुद्दा तो उसी समय उठाना चाहिए था. स्लम अप-ग्रेडेशन सेल किसी भी गड़बड़ी को रोकने के लिए दो तरह से सर्वे करता है. पहला सर्वे लोकेशेन के आधार पर होता है और दूसरा नामांकन के आधार पर. इसलिए स्लम अप-ग्रेडेशन सेल यह मानता है कि अगर लोकेशन वाली सूची से किराएदार का नाम है. साथ ही उसके पास 2005 के पहले से रहने का सबूत भी है तो उसे फ्लेट मिल जाएगा. अब यह किराएदार की जिम्मेदारी है कि वह कहीं से सबूत लाए.
बस्ती के सेवाजी केवट ने कहा- ‘‘मैंने 8 महीने पहले फ्लेट के लिए आवेदन भरा था. लेकिन अफसरों ने अभी तक चुप्पी साध रखी है. उन्होंने यह नहीं बताया कि मैं फ्लेट के योग्य हूं या नहीं और नहीं हूं तो क्यों ? मैंने पार्षद को भी अपने निवास का सर्टिफिकेट और एप्लीकेशन दिया है. लेकिन मुझसे और कागजातों की मांग की जा रही है. वैसे मेरा नाम बायोमेट्रिक सर्वे से भी जुड़ा है. लेकिन सरकार के ही अलग-अलग सर्वे एक-दूसरे से मेल नहीं खा रहे हैं.’’ इससे कई आशंकाएं पनप रही हैं.
यूं तो घर का मतलब रहने की एक जगह से होना चाहिए. लेकिन बाजार में बदलते शहरों के लिए वह प्रापर्टी भर है. सूरत भी इसी दौर से गुजर रहा है. यहां भी 40 प्रतिशत आबादी के विकास के लिए 60 प्रतिशत आबादी को नजरअंदाज किया जा रहा है. यहां भी पहले घर तोड़ो फिर घर बनाओ की बात हो रही है. लेकिन सवाल तो बस्ती के बदले बस्ती देने का है. घर के आजू-बाजू रास्ते, बत्ती, बालबाड़ी, नल और नालियों से जुड़कर एक बस्ती बनती है. उन्हें खोकर सिर्फ घर पाना नुकसानदायक है. इसलिए घर के आसपास की सुविधाओं का हक भी देना होगा.
सूरत की तरह हर शहर को ‘जीरो स्लम’ बनाने का मतलब भी समझना होगा. सरकार मजदूरों से उनकी बस्तियां उजाड़कर उन्हें बहुमंजिला इमारतों में भेजना चाहती है. इसका मतलब यह हुआ कि वह उन्हें घर के बदले घर दे रही है लेकिन जमीन के बदले जमीन नहीं. वह गरीबों से छीनी इन सारी जमीनों को बिल्डरों में बांट देगी. मतलब यह कि गरीबों को फ्लेट उनकी जमीनों के बदले मिल सकता है. मतलब यह कि गरीबों को मिलने वाला फ्लेट मुफ्त का नहीं होगा. लेकिन बिल्डरों को तो मुफ्त में जमीन मिल जाएगी. यही वजह है कि बिल्डर केवल फ्लेट बनाने पर जोर ही देते हैं. उनके दिल और दिमाग में बालबाड़ी या स्कूल बनाने का ख्याल नहीं आता. जाहिर है बात सिर्फ मुनाफा कमाने की है.
शहर के विकास में शहरवासियों को बराबरी का हिस्सा मिलना जरूरी है. इससे नगर-निगम को शहर की समस्याएं सुलझाने में मदद मिलेगी. लेकिन ऐसा नहीं चलता. दूसरी तरफ शहरी इलाकों में नागरिक संगठनों का सीमित दायरा है. शहर के गरीबों की भागीदारी को उनकी आर्थिक स्थिति के कारण रोका जा रहा है. विकास में सबका हिस्सा नहीं मिलने से गरीबी का फासला बढ़ेगा. एक तरफ गरीबी हटाने की बजाय गरीबों की बस्तियां तोड़ी जा रही हैं. दूसरी तरफ उन्हें नुकसान के अनुपात में बहुत कम राहत मिल पा रही है. तीसरी तरफ मिलने वाली ऐसी राहतों को कागजी औपचारिकताओं में उलझाया जा रहा है. कुल मिलाकर चौतरफा उलझे सूरतवासियों को उम्मीद की कोई सूरत नजर नहीं आती. आज यह घर से निकलकर काम पर जाते है. कल यह काम से लौटकर कहां जाएंगे ?