27.10.10

पहले पंचायत चले हम

शिरीष खरे



गांवों के बच्चे बड़ी संख्या में मजदूर बनते जा रहे हैं. अगर बच्चों की संख्या स्कूलों की बजाय काम की जगहों पर ज्यादा मिल रही है तो उनके लिए 'स्कूल चले हम' से पहले 'पंचायत चले हम' का नारा देना जरूरी लगता है.

चाहे गांवों के विकास का हवाला हो या गांवों के लगातार टूटे जाने का मौजूदा हाल हो बच्चों के मुद्दों को बहुत पीछे रखा जा रहा है. खास तौर से गांवों के लगातार टूटे जाने के मौजूदा संदर्भ में बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं. इसे देखते हुए नीतिगत प्रक्रियाओं में बच्चों को केन्द्रीय स्थान देने की जरुरत है. लेकिन विकराल स्वरूप लेते जाने के बावजूद बाल मजदूरी जैसी समस्या जहां मुख्यत: राजनैतिक तौर से नजरअंदाज बनी हुई है, वहीं स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक बच्चों से जुड़े तमाम सवालों को भी बहुत हल्के ढ़ंग से लिए जाने की मानसिकता घर बना चुकी है.

खुशहाल, स्वस्थ्य और रचनात्मक बचपन का सूत्र गांवों के भविष्य का आधार है लेकिन बच्चों के मुद्दों को पंचायत की नीतियों से भी अलग-थलग करने या वरीयता की सूची में निचले पायदान पर रखे जाने से ग्रामीण बच्चों की तस्वीर दिन-ब-दिन बदसूरत देखी जा रही है. जाहिर है कि ग्राम पंचायतों में पंच-सरपंचों और सचिवों से सकारात्मक रुख की अपेक्षा किए बगैर यह तस्वीर नहीं सुधरने वाली है. ऐसे में स्थानीय समुदायों का महत्व बढ़ जाता है जो बाल अधिकारों और संरक्षणों को लेकर अपने-अपने जन-प्रतिनिधियों के साथ लगातार बैठकों को आयोजित करके उन्हें संवेदनशील बना सकते हैं. इसके लिए स्थानीय स्तर पर खास तौर से वंचित समूह के बच्चों की समस्याओं, उनकी जरूरतों और ताकतों की पहचान करके, स्थानीय स्तर पर संचालित विभिन्न योजनाओं के भीतर उन्हें और उनके परिवारजनों के लिए विकल्प तलाशे जा सकते हैं. इसके दूसरे सिरे के रूप में निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों को अपनी प्रशासन अकादमियों से संपर्क बढ़ाने की जरुरत है जिसके जरिए जरूरी जानकारियों को लेते हुए कार्यवाही करने में सहूलियत हो सके.

ग्रामीण इलाकों में बच्चों के लिए काम करने के दौरान बाल अधिकारों से जुड़े मुद्दों को केवल ग्रामीण परिवेश में ही देखने से काम नहीं चलेगा बल्कि उससे जुड़ी कुछ बुनियादी घटनाओं, नीतियों और पहलूओं को भी समझना जरूरी होगा. इससे सभी बच्चों के अधिकारों को सुनिश्चित किया जाना संभव हो सके. उदाहरण के लिए 2 सितम्बर, 1990 को सयुंक्त राष्ट्र के बाल अधिकार समझौता पर विश्व के दो देशों (अमेरिका एवं सोमालिया) को छोडक़र सभी ने हस्ताक्षर किए तथा बच्चों के अधिकारों और संरक्षणों को लेकर पहल की. भारत ने 11 दिसम्बर, 1992 को इस समझौते पर हस्ताक्षर किए. बाल अधिकार समझौते में 18 साल की आयु तक के बच्चों के अधिकारों और संरक्षणों की बात कही गई है. जबकि भारत में 0 से 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को ही बच्चा मानकर उनके अधिकारो के संरक्षण के लिये कानूनी प्रावधान किये गये हैं. यही नहीं अलग-अलग अधिनियमों के मुताबिक बच्चों की उम्र भी बदलती जाती है. जैसे किशोर-न्याय अधिनियम, 2000 में 18 साल, बाल-श्रम अधिनियम, 1886 में 14 साल, बाल-विवाह अधिनियम में लड़के के लिए 21 साल और लड़की के लिए 18 साल की उम्र तय की गई है. खदानों में काम करने की उम्र 15 और वोट देने की उम्र 18 साल है. इसी तरह शिक्षा के अधिकार कानून में बच्चों की उम्र 6 से 14 साल रखी गई है. इससे 6 से कम और 14 से अधिक उम्र वालों के लिए शिक्षा का बुनियादी हक नहीं मिल सकेगा. इसी तरह भारत में बच्चों की उम्र को लेकर भी अलग-अलग परिभाषाएं हैं. इसी तरह विभिन्न विभागों और कार्यक्रमों में भी बच्चों की उम्र को लेकर उदासीनता दिखाई देती है. 14 साल तक के बच्चे ‘युवा-कल्याण’ मंत्रालय के अधीन रहते हैं. लेकिन 14 से 18 साल वाले बच्चे की सुरक्षा और विकास के सवाल पर चुप्पी साध ली जाती है. बच्चों के अधिकारों में प्रमुख रूप से चार अधिकार- जीने का अधिकार, विकास का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार और विचारों की सहभागिता का अधिकार आते हैं.

बच्चों को सुरक्षित माहौल देने के लिए ग्राम सभा की बैठकों में बच्चों के साथ बाल अधिकारों के बारे में अलग से चर्चा का सिलसिला शुरू किया जा सकता है. बच्चों को सुरक्षित माहौल देने के संबंध में उनका शोषण रोकने, उन्हें बाल मजदूरी से मुक्त रखने और हिंसा से बचाव करने जैसे मामले प्रमुख हैं. हर बच्चा स्कूल जाये, उसे अच्छा खाना मिले, बच्चा अपराधी न बने इसके लिये समुदायों द्वारा चाइल्ड लाईन भी अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं. इस दिशा में मध्य-प्रदेश के भोपाल में चाइल्ड लाईन 1098 को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है. जिसके जरिए बीते 1 दशक में तकरीबन 1 लाख बच्चों की मदद की जा सकी है. इस तरह समुदायों के आपसी सहयोग से संचालित बाल अधिकारों के हनन की सूचना चाइल्ड लाईन पर दी जा सकती है. कानून में बच्चों को प्रताड़ित करने वालों में से किसी को भी नहीं छोड़ा गया है और परिवारजनों सहित सभी लोगों के लिए सजा का प्रावधान रखा गया है.

पंचायतों में गठित समितियों को सशक्त बनाकर बाल अधिकारों का संरक्षण किया जा सकता है. इसके तहत कई महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देने की जरुरत है, जैसे बच्चे के पैदा होते ही उसके जन्म पंजीयन का अधिकार है जिसे गांवों में ग्राम पंचायतें पूरा करती हैं. विकलांग एवं परिवारविहीन बच्चों के भी अपने अधिकार हैं जिसे जिला स्तर पर गठित बाल कल्याण कमेटी के माध्यम से पूरा कराया जा सकता हैं वगैरह.

सभी बच्चों खास तौर से बालिकाओं को शिक्षा दिलाने के लिए ग्रामीण परिवेश में भी जागरूकता लाने की जरूरत है. गैरबराबरी को बच्चियों की कमी नही बल्कि उनके खिलाफ मौजदू स्थितियों के तौर पर देखा जाना चाहिए. अगर लडक़ी है तो उसे ऐसा ही होने चाहिए, इस प्रकार की बातें उसके सुधार की राह में बाधाएं बनती हैं. इसके चलते समाज में कन्या भ्रूण हत्या, बाल दुर्व्यवहार और बाल विवाह जैसी समस्याएं पलती-बढ़तीं हैं. सामाजिक धारणा को समझने के साथ-साथ बच्चियों को बहन, बेटी, पत्नी या मां के दायरों से बाहर निकालने और उन्हें सामाजिक भागीदारिता के लिए प्रोत्साहित करने में मदद के तौर पर जाना जाए. समाज में जागरूकता आने के बावजूद अब भी लोग बेटी नहीं बेटे चाहते हैं जबकि क्राई के अध्ययनों में यह साफ् हुआ है कि लडकियां व्यक्तिगत और सामूहिक रूप में समाज की पुरानी परंपराओं को तोड़कर आगे बढ़ रही हैं और भेदभाव को स्वीकार नहीं कर रही हैं. वे मंजिल हासिल करने की दिशा में बढ़ने लगी हैं.

20.10.10

सूरत बदलने की बदसूरत कवायद

शिरीष खरे

सूरत/ एक जमाने में विकास के लिए 'गरीबी हटाओ' एक घोषित नारा था. मगर आज आलम यह है कि विकास के रास्ते से 'गरीबों को हटाना' एक अघोषित एंजेडा बन चुका है. गुजरात के सूरत को देख कर यह समझा जा सकता है कि 'गरीबी की बजाय गरीबों को हटाने' का जो व्यंग्यात्मक मुहावरा था, वह आज किस तरह से गंभीर हकीकत में तब्दील हो चुका है.

सैकड़ों झोपड़ियों को तोड़ जाने के क्रम में जब झोपड़पट्टी तोड़ने वाले जलाराम नगर के 40 वर्षीय लक्ष्मण चंद्राकार उर्फ संतोष की झोपड़ी को तोड़ने लगे तो उसने केरोसिन डालकर अपने आप को मौत के हवाले करना चाहा था. उसके बाद उसे एक एम्बुलेंस से न्यू सिविल हास्पिटल भेजा गया. वहां पहुंचते-पहुंचते उसके शरीर का 75 प्रतिशत हिस्सा जल गया. उधर डाक्टरों ने संतोष की हालत को बेहद गंभीर बताया और इधर सूरत महानगर पालिका ने शाम होते-होते ताप्ती नदी के किनारे से तीन बस्तियों के हजारों बच्चों, बूढ़ों और औरतों को खुली सड़क पर ला दिया था.

फिलहाल सूरत के गरीबों को न तो साम्प्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ रहा है और न ही बाढ़ या भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं का ही. अब उनके साथ जो कुछ घट रहा है, वह सूरत को जीरो स्लम बनाने की सरकारी कवायद का हिस्सा है.

सूरत को जीरो स्लम बनाने के लिए सूरत की कुल 1 लाख से ज्यादा झोपड़ियों को तोड़ा जा रहा है. मगर सरकारी दस्तावेजों पर पुनर्वास के लिए केवल 42000 घर बनाए जाने का उल्लेख है. जाहिर है 58000 से ज्यादा झोपड़ियों का सवाल हवा में है. एक तरफ सालों से घरों को तोड़े जाने का सिलसिला थम नहीं रहा है और दूसरी तरफ इतना तक तय नहीं हो पा रहा है कि घर मिलेंगे भी तो किन्हें, कैसे, कहां और कब तक ?

जबकि 2009 के पहले-पहले सूरत की सभी झोपड़ियों के परिवारों को नए घरों में स्थानांतरित करने का लक्ष्य रखा गया था. मगर उजाड़े गए लाखों रहवासियों के हिस्से में आज तक शहर की सीमारेखा से कोसों दूर कोसाठ या अन्य इलाकों में बसाए जाने का आश्वासन भर है. उनके लिए अगर कुछ और भी है तो प्रशासन द्वारा बमरोली और बेस्तान जैसे इलाकों में चले जाने जैसा सुझाव.

यकीकन इनदिनों शहर की सूरत तेजी से बदल रही है और उसी के सामानांतर तबाही, कार्यवाही, जवाबदारी और राहत से जुड़े कई किस्से भी पनप रहे हैं.


ऐसे बनेगा जीरो स्लम
यह किस्सा बरसात से थोड़े पहले का है. जब सूरत महापालिका ने अपने लक्ष्य का पीछा करते हुए सुभाषनगर, मैनानगर और उदना इलाके से 1650 झोपड़ियों को तोड़ा था. उस समय सूरत को झोपड़पट्टी रहित बनाने के मिशन ने 8500 से भी ज्यादा लोगों के सिरों से उनका छत छीना था. उसी के साथ क्योंकि तुलसीनगर और कल्याणनगर की एक सड़क व्यवस्था को भी ठिकाने पर लाना था, इसीलिए 5000 से ज्यादा गरीबों को ठिकाने लगाया गया था. इसके आगे सेंट्रल जोन की सड़क को भी 80 फीट चौड़ा करने के लिए 2500 से ज्यादा लोगों को शहर की खूबसूरती के नाम पर उजाड़ा गया था.

उजाड़ने के बाद प्रशासन का दावा था कि शुरू में तो रहवासियों ने डेमोलेशन का बहुत विरोध किया मगर बाद में कोसाठ में बसाने की बात पर सब मान गए. जबकि यहां से उजाड़े गए रहवासियों का कहना था कि उन्हें डेमोलेशन की सूचना तक नहीं दी गई थी. डेमोलेशन की कार्रवाई को बड़ी निर्दयतापूर्वक पूरा किया गया और जिसके चलते उन्होंने प्रशासन का विरोध भी किया था.

इसके बाद प्रशासन की तरफ से यह साफ हुआ है कि उसके अगले निशाने पर कौन-कौन सी बस्तियां रहेंगी. उसने स्लम डेमोलेशन का अपना लक्ष्य सामने रखा और उसे कुछ दिनों के भीतर पूरा कर लेने का ऐलान भी किया. कुछ दिनों के भीतर बापूनगर कालोनी के तकरीबन 2700 घरों में 15000 से भी ज्यादा लोगों को भी उजाड़ दिया गया.

दूसरा किस्सा सर्दी के समय का है. जब सूरत महापालिका ने कार्यालय के समय यानी 10 से 6 बजे तक जेपी नगर, जलाराम नगर और इकबाल नगर से कुल 502 झोपड़ियों को तोड़ने का रिकार्ड दर्ज किया. पुलिस के भारी बंदोबस्त के बीचोंबीच तनावपूर्ण स्थिति को नियंत्रण में बनाए रखते हुए 4000 से ज्यादा रहवासियों से उनका पता-ठिकाना छीन लिया गया. कुल मिलाकर ताप्ती नदी के आजू-बाजू कई दशक पुरानी इन बस्तियों से 1700 से ज्यादा झोपड़ियों को साफ किया जाना था. अर्थात् 14000 से ज्यादा रहवासियों से उनका पता-ठिकाना छीना जाना था.

जैसा कि महापालिका के बस्ती उन्नयन विभाग से सी वाय भट्ट ने भी जताया कि "नदी और खाड़ी के इर्द-गिर्द जमा झोपड़ियों को साफ करने के लिए डेमोलेशन की कार्रवाई जारी रहेगी." डेमोलेशन की यह कार्रवाई अगले रोज भी जारी रही. मगर सूरत के बाकी इलाकों को तोड़े जाने के अगले चरणों और उनकी तारीखों के सवालों पर एक बार फिर से खामोशी औड़ ली गई. आगे-आगे डेमोलेशन, उसके पीछे-पीछे महापालिका वाले नल, गटर के पाईप और बिजली के तार काटते रहे थे.

सुबह-सुबह, कोई सूचना दिए बगैर, यकायक और पूरे दल-बल के साथ झुग्गी बस्तियों को नेस्तानाबूत करने की प्रशासनिक रणनीति को अब सूरत के रहवासी खूब जानते हैं. इन झोपड़ियों को साफ किए जाने के पहले पुलिस रात को ही उन सामाजिक कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं को हिरासत में ले लेती है, जो महानगर पालिका द्वारा गरीबों को शहर से हटाए जाने वाली मुहिम के विरोधी होते हैं.

उस रोज भी जेपी नगर, जलाराम नगर और इकबाल नगर के रहवासी यह कहने लगे कि घर के बदले घर दिए बगैर हमारे घरों को कैसे उजाड़ा जा रहा है? मगर प्रशासन के लिए यह कोई नया सवाल नहीं था. उनका ध्यान तो झोपड़पट्टी तोड़ने के दौरान 'अधिकतम नुकसान पहुंचाने' के सिद्धांत पर टिका था.

अंधियारा छाने के बहुत पहले ही बस्ती वालों के असंतोष ने आग पकड़ ली थी. देखते ही देखते एक भारी भीड़ पथराव करते हुए आगे बढ़ने लगी. हर एक के हाथों में उनके दुख, दर्द, उनकी आशंकाओं और हताशाओं से भरी भावनाओं में डूबे जनसैलाब के अलावा कुछ न था. इसके बाद मुस्तैद पुलिस वाले आगे आएं और उन्होंने बस्तियों की तरह उनके जनसैलाब को भी लाठीचार्ज के जरिए माटी में मिला दिया. उसके ऊपर से आंसू गैस के दो गोले भी छोड़े गए. ऐसे में जिनकी झोपड़ियां टूटी थीं, उनके लिए कम से कम 2000 रुपये का किराया चुका कर भाड़े का मकान लेना आसान नहीं था. उससे भी बड़ा सवाल तो यही था कि झोपड़पट्टी में रहने वालों को किराये पर मकान देगा कौन?

सामाजिक कार्यकर्ता भरत भाई कंथारिया ने बताया "डेमोलेशन की ज्यादातर कार्यवाहियों मौसम के मिजाज को बिगड़ते हुए देखकर की जाती हैं. सारे झोपड़े एक साथ न तोड़कर, कभी 200 तो कभी 400 की संख्या में तोड़े जाते हैं, जिससे लोग संगठित न हो सकें. ऐसे हमले अचानक और बहुत जल्दी-जल्दी होते हैं. दीवाली का त्यौहार जब सिर पर होगा तो सरकारी नजरिए से वह डेमोलेशन के लिए आदर्श समय होगा."


कारपोरेट की वल्ले-वल्ले
टेम्स नदी से लगे लंदन वाली तस्वीर के हू-ब-हू सूरत को लंदन जैसा बनाने की गति अपने चरम पर है. इसलिए ताप्ती के किनारे से हजारों झापड़ियों को साफ किए जाने की गति अपने चरम पर है. सूरत में स्लम एरिया हटाने के लिए केन्द्र की यूपीए और राज्य की भाजपा सरकार ने मिलकर 2157 करोड़ की रणनीति बना ली है. वहीं सूरत महापालिका का काम जमीनें खाली करवाना और बिल्डरों को सस्ते दामों में बेचना रह गया है.

कतारगाम इलाके का यह वाकया शहर के नक्शे से न केवल गायब हो जाने का बल्कि व्यवस्था के गायब हो जाने का वाकया भी है.

चंद्रकांत भाई रोज की तरह शाम को काम पर लौटे तो पूरी बस्ती को ही लापता देखा. जब उन्होंने पता किया कि पता चला कि बस्ती के बहुत सारे लोग शहर से बाहर कोसाठ नाम की एक जगह पर पहुंच गए हैं. तब अपने घरवालों से मिलने के लिए उन्हें रिक्शा करके फौरन कोसाठ जाना पड़ा.

जून 2004 में बस्ती के 155 घरवाले कारपोरेट के मुनाफे की भेट चढ़ाए गए थे. यहां की 2 एकड़ जमीन पर कभी 250 घरों की 2000 आबादी बसती थी. 90 साल पुरानी इस बस्ती की जमीन ने करोड़ों का भाव पार किया तो यहां के असली मालिकों को सस्ते घरों समेत उखाड़ फेंका गया. गायत्री बेन ने बताया "न सूचना दी, न सुनवाई की. वैसे भनक लग गई थी कि वहां सुन्दर तालाब बनेगा. हमारी जगह पिकनिक वाली जगह में बदलेगी. पार्किंग और गार्डन को जगह मिलेगी. सुबह-शाम टहलने वालों का 'स्पेशल रुट' बनेगा. बिल्डरों की दुकानें खुलेंगी. बस्ती की बजाय बाजार खुलेगा. आप तो वहीं से आ रहे हैं तो आप ही देखिए हमारी बातें कितनी सच साबित हुईं."

शहरों में विकास के नाम पर झोपड़ियां टूटने की खबर अब नई नहीं लगती. मगर कारपोरेट के नाम पर झोपड़ियां टूटने का किस्सा शायद आप पहली बार सुन रहे होंगे. सूरत में जगमगाता मिलेनियम मार्केट एक उदाहरण भर है. मिलेनियम मार्केट, साऊथ-वेस्ट में कोहली खाड़ी से लगा है. वैसे 2 एकड़ से ज्यादा जमीन पर फैले इस टेक्स्टाईल मार्केट का पता कोई भी बता देगा. मगर उनमें से कुछेक ही यह जानते हैं कि 1999 के पहले तक यहां कोई 800 झोपड़ियों का वजूद था.अब तो लगता भी नहीं कि यहां कभी 5000 से ज्यादा की बस्ती थी.5000 आबादी को यहां से साफ करके शहर से 25 कलोमीटर दूर बेस्तान में ठिकाने लगा दिया गया था.

मालम भाई बंजारा बताते हैं कि "हमारा बीता कल कोई सोने जैसा नहीं था. मगर इतना काला भी नहीं था. तब हमारे सस्ते झोपड़े चांदी की जमीन पर जो खड़े थे." उन्होंने चका भाई को देखते हुए कहा "आज मेलेनियम मार्केट की जमीन 100 करोड़ रूपए की तो होगी चका भाई?"

चका भाई फूट पड़े "हम झोपड़पट्टी के करोड़पतियों को 1 रूपए दिए बगैर वहां से खदेड़ा गया था. ऊपर से घर-सामान टूटने का जो नुकसान झेला, उसका हिसाब तो जोड़ा भी नहीं कभी." अन्याय की ईबारत इसके बाद भी नहीं रूकी- लंबे इंतजार के बाद मकान दिए भी तो 55000 के लोन पर. और मकानों का साईज निकला- 10 गुणा 12 वर्ग फीट.


राहत के सवाल पर
21 फरवरी 2009 को नरेन्द्र मोदी सूरत के कोसाठ आने वाले थे. मकसद था कि कोसाठ में जो 30000 मकान बन रहे हैं उनमें से 3700 परिवारों को मकान सौंपे जाए. मगर 20 फरवरी तक यह तय नहीं हो पाया कि किस झोपड़े को यहां शिफ्ट किया जाए. कार्यक्रम तो फेल होना ही था. मगर अहम बात यह है कि आज की तारीख तक उन हजारों झोपड़ों के नाम तक तय नहीं हो सके हैं.

सूरत महापालिका के कायदे में झोपड़पट्टी में कुल बजट का 10 प्रतिशत खर्च करना लिखा है. मगर सामाजिक कार्यकर्ता भरत भाई कंथारिया ने बताया कि "इस बार यह हिस्सा पुनर्वास के खाते में डाल देने से बुनियादी चीजों में कटौती हुई है. मतलब पुनर्वास पर अलग से पैसा खर्च करने की बजाय गरीबों के हिस्से का पैसा गरीबों को ही बांट दिया गया है."

2005-06 में सूरत की 407 झोपड़पट्टियों को हटाने के लिए बायोमेट्रिक सर्वे हुआ. उसके मुताबिक पुनर्वास के लिए जो मकान बनेगा उसमें से कुल खर्च का 50 प्रतिशत केन्द्र सरकार, 25 प्रतिशत राज्य सरकार, बाकी के 25 प्रतिशत में से जिसको मकान मिलेगा वह और सूरत महापालिका आपस में डील करेगी. अगर यह डील कामयाब रही तो भी मकान के मालिक को 5 साल तक मकान के दस्तावेज नहीं मिलेंगे. मतलब यह कि किसी के हिस्से में मकान आया भी तो वह मुफ्त में और बाईज्जत तो नहीं आने वाला.

2007 को ताप्ती नदी की धार को रोकने के लिए जब एक दीवार बनी तो इसके घेरे में सुभाषनगर की तकरीबन 800 झोपड़ियां भी आ गईं. यह दीवार सिंचाई विभाग ने खड़ी की थी इसलिए झोपड़ियां भी उसी ने तोड़ी. मगर तोड़ने का नोटिस कलेक्ट्रर ने भेजा. सूरत महापालिका के बड़े गेट पर मौजूद कन्हैया भाई बंजारा ने बताया "जब हम पुनर्वास की मांग लेकर सिंचाई-विभाग के पास गए तो बाबू लोग बोले पुनर्वास का काम हमारे दायरे में नहीं आता, कलेक्ट्रर साब शायद कुछ बता पाएं. कलेक्ट्रर साब के पास गए तो वह बोले कि मैं तो केवल मोनीटिरिंग करता हूं, सूरत महापालिका कुछ बताएगा. सूरत महापालिका ने कहा कि तोड़-फोड़ तो सिंचाई विभाग और कलेक्ट्रर की तरफ से हुआ, हम क्या बताएं? मगर जब जनता के स्वर ऊंचे हुए तो बायोमेट्रिक सर्वे करा लिया गया. इसमें भी गजब पालिटिक्स हुई. नतीजा यह है कि दर्जनों नए नाम जुड़ गए और पुराने नाम छूट गए." कन्हैया भाई बंजारा उन्हीं में से अब एक छूटा हुआ नाम बन चुके है.

सूरत के लोगों में बहु-विस्थापन की दहशत भी बढ़ रही है. जैसे कि आज मीठी खाड़ी की जिन झोपड़ियों को उखाड़ा जा रहा है, उनमें से कई ऐसी हैं जिन्हें 25 साल पहले उमरबाड़ा से उखाड़ा गया था. अन्तर बस इतना भर है कि पहले सड़क चौड़ी करने के नाम पर उखाड़ा गया था और अब फ्लाईओवर बनाने के नाम पर उखाड़ा जा रहा है.

कोसाठ, विस्थापितों की जगह से 15 से 25 किलोमीटर दूर, शहर के उत्तरी तरफ का आऊटसाइडेड और नक्शे के हिसाब से बाढ़ प्रभावित इलाका है. कौशिक भाई ने बताया "यहां बसाए जाने का विरोध सुनकर महापालिका का अफसर बड़े ठण्डे दिमाग से बोला कि तुम्हें बस्ती बनाने की बजाय ऊंची मंजिलों में रहना चाहिए. बारिश का पानी भरे भी तो दूसरी, नहीं तो तीसरी मंजिल में चढ़ जाना."

तारीखें गवाह हैं कि 2004 की बाढ़ से सूरत के 30000 लोग प्रभावित हुए थे. तब उन्हें न मंजिल नसीब हुई, न जमीन. एक साल बाद महापालिका से जगह यानी 12 गुणा 35 वर्ग फीट प्रति 2 लाख के बदले जगह माटी के दाम जैसी तो मिली लेकिन घर के बदले घर नहीं. न ही तोड़े गए लाखों के घरों और हजारों की गृहस्थियों का मुआवजा. एक साथ इनसे बिजली, पानी, नालियां, टायलेट, रास्ते, मैदान, बाजार, आंगनबाड़ी, स्कूल, राशनकार्ड, वोटरलिस्ट के नाम ऐसे छूटे कि अभी तक नहीं लौटे. उनके बगैर भी काम चल जाता, जब काम की छूट गए तो जिंदगी कैसे चले?


काम और कर्ज का रोना है
"जमीन, घर, गृहस्थी का नुकसान तो सबने देखा. मगर सबसे ज्यादा नुकसान तो बेकारी से हुआ." सूरज महापात्र यह सब बोलते हुये उदासी में डूब जाते हैं.

कोसाठ में उनकी तरह ही दर्जन भर औरत-मर्द अपने-अपने ठिकानों के बाहर खाली बैठते हैं. बातों ही बातों में मालूम पड़ा कि पहले इन्हें कतारगाम इण्डस्ट्रियल एरिया के पावरलूम्स में दिहाड़ी मजदूरी मिल जाती थी. एक दिन में 150 और महीने भर में 3500 से 4000 रूपए तो बनते ही थे. कुछ लोग मजदूरों की छोटी-छोटी जरूरतों जैसे चाय, नाश्ता या खाने-पीने के धंधों से जुड़े थे. औरतें घरेलू काम के लिए आसपास की सोसाइटियों में जातीं और महीने भर में 600 रूपए कमाती थीं. इस तरह हर घर का हाल-चाल बहुत अच्छा तो नहीं था मगर फिर भी चल तो रहा था. यहां आकर तो इनकी दुनिया ठहर ही चुकी है.

अज्जू मियां ने कहा "कतारगाम आओ-जाओ तो 40 रूपए अकेले आटो के. इसके बाद मजदूरी न मिले तो आफत. तब कारखानों के आसपास थे तो मजदूरी मिलती ही थी. अब आसपास के दूसरे लोगों को ही रख लेते हैं." यही हाल औरतों का है. घरों में काम करने से 600 रूपए मिलेगा उससे दोगुना 1200 रूपए तो अब भाड़े में जाएगा.

रक्षा बेन कहती हैं "मालकिनों से जरूरत की चीजें और उधार के पैसे तो मिलते थे. यहां तो ऊंचे ब्याज-दर पर पैसे उठाने पड़ते हैं." महीना भर पहले ही हेमंत भाई की बीबी टीबी के चलते खत्म हुईं. उन्होंने ईलाज के लिए 12 रूपए/महीने के हिसाब से 10,000 उठाए थे. एक तो आमदनी नहीं और ऊपर से कर्ज का बढ़ता बोझ. यहां हर एक कम से कम 25,000 रूपए का कर्जदार तो बना ही रहता है. इनमें से ज्यादातर ने घर बनाने के लिए कर्ज लिया था. जिसका ब्याज अब तक नहीं छूट रहा है.

राजेश भाई रिक्शा चलाते हैं. उन्होंने अधूरे खड़े घरों का इतिहास बताने के लिए 4 साल पुरानी बात छेड़ी "तब 29 दिनों तक तो ऐसे ही पड़े रहे. बीच में जोर की बारिश हुई तो सबने चंदा करके यहां एक टेंट लगवाया. कईयों ने अपने टूटे घरों की लकड़ी, पन्नी और बांस से अस्थायी घर बनाए, जो भारी बाढ़ में बह गए. मेरी 90 साल की नानी और एक पैर से कमजोर मौसी ने जो तकलीफ झेली उसे कैसे सुनाऊं और बीबी टीबी की मरीज थी, उसे बच्ची को लेकर मायके जाना पड़ा."

यहां कच्चे-पक्के आशियाने एक बार बनने के बाद खड़े नहीं रहते. हर साल की बाढ़ से टूटते, फूटते, गिरते या बहते ही हैं. इस तरह मानसून के साथ आशियाने बनाने और सामान खरीदने की जद्दोजहद जारी रहती है. इस साल भी भारी बूंदों के साथ तबाही के बादल बरसने लगे हैं.


यह एसएमसी का राज है भाई
सूरत महापालिका प्रशासन तरीके को टीना बेन के किस्से से समझते हैं. 1992 को टीना बेन 14 साल की थी, तब उन्हें घर के सामने खड़ा करके एक स्लेट पर उनका नाम और उनके परिवार वालों का नाम लिखवाकर फोटो ले लिया गया. 2005 को यानी ठीक 12 साल बाद जब वह दो बच्चों की मां बनी तो भी उन्हें 1992 की फोटो के हिसाब से घर का मुआवजा दिया गया. समय के इतने बड़े अंतराल में घर तो क्या शहर की पूरी दुनिया ही बदल जाती है. मगर नहीं बदलती है तो सूरत महापालिका की मानसिकता.

कतारगाम में किसी का घर 30 तो किसी का 60 फीट की जगह पर था. मगर कोसाठ में सभी को 12 गुणा 35 वर्ग फीट के फार्मूले से जगह बांटी गई. अब आप ही बताइए 12 गुणा 35 वर्ग फीट में कोई क्या बनाएगा, जो बनेगा उसे चाहे तो किचन कह लीजिएगा, नहीं तो टायलेट, बाथरूम, बेडरूम, हाल या गेलरी, कुछ भी कह लीजिए.

ऐसी बस्तियों में लम्बे समय से काम करने वाले अल्फ्रेड भाई ने बताया "महापालिका जिन मकानों को तोड़ने की ठान लेती है उनसे टैक्स वसूलना बंद कर देती है. जिससे टैक्स नहीं लिया जाता वह डर जाता है कि अगला नम्बर उसका भी हो सकता है."


कायदे, वायदे और हकीकत
सामाजिक कार्यकर्ता भरत भाई कंथारिया से यह मालूम हुआ कि इस दौरान संयुक्त राष्ट्र की गाईडलाईन निभानी जरूरी थी. मगर सूरत में डेमोलेशन के पहले और बाद में मानव-अधिकारों का खुला उल्लंघन आम बात हो चुकी है. जिन्हें उखाड़ना था, उनके साथ बैठकर पुनर्वास और राहत की बातें की जानी थीं.

गाईडलाईन कहती है कि विकलांग, बुजुर्ग और एसटी-एससी को उनके रोजगार के मुताबिक और पुराने झोपड़े के पास ही बसाया जाए. पीड़ित आदमी को पहले पुनर्वास वाली जगह दिखाई जाए. इसके बाद अगर वह मांग करता है तो उसे अदालत में जाने का हक भी है. इसके लिए कम से कम 90 दिनों का समय भी दिया जाए. मगर सूरत महापालिका ने तो एक भी कायदा नहीं निभाया.

जैसा कि सब जानते हैं महात्मा गांधी को 'कालेपन' की वजह से एक रात दक्षिण-अफ्रीका में चलती ट्रेन से फेंका गया था. उन्हीं महात्मा को अपना बताने वाले गुजरात के सूरत में हजारों भारतीयों को 'झोपड़पट्टी वाला' होने की वजह से 25 किलोमीटर दूर फेंका गया है. 120 साल पहले हुए अन्याय का किस्सा यहां का इतिहास नहीं वर्तमान और शायद भविष्य भी है.


कैसी पहेली जिंदगानी
राजीवनगर झोपड़पट्टी के लोग कहते हैं कि सूरत महापालिका के अफसरों की जिद के आगे सभी नतमस्तक हैं. असल में महापालिका ने इनके लिए फ्लेट बनवाएं और अब यही लोग कागजों की भूल-भुलैया में गोते खा रहे हैं. आमतौर पर ऐसी बस्तियों के लोग नहीं जानते कि एक दिन उनके घर टूटेंगे. एक दिन उनसे यहां रहने के सबूत मांगे जाएंगे. इसलिए वह कागजों को इकट्ठा नहीं कर पाते. ऐसी बस्तियों के लोग किस कागज के टुकड़े का मतलब नहीं जानते. अफसरों को जो कागज चाहिए उनमें से कुछ कागज यहां के ज्यादातर रहवासियों के पास नहीं हैं. यह रहवासी अफसरों को अपनी झुग्गी दिखाना चाहते हैं. इसके बावजूद कई लोगों को अपने झोपड़ियों का हक नहीं मिल पा रहा है. कुलमिलाकर पूरी योजना आफिस-आफिस के खेल में उलझ चुकी है.

राजीवनगर के 1200 में से सिर्फ 94 परिवार ही रहने के सबूत दिखा सकते हैं. इसलिए 1106 परिवार कोसाठ में बने फ्लेट का सपना नहीं देख सकते. यहां के रहवासियों का आरोप है कि फ्लेट आंवटन से जुड़े सर्वेक्षणों में भारी अनियमितताएं हुई हैं. कुछ बस्तियों में तीन-तीन बार सर्वेक्षण हुए हैं. कुछ बस्तियों में मुश्किल से एक बार. राजीवनगर में ज्यादातर बाहर से आए मजदूर हैं. यह सूरत में 6-8 महीनों के लिए काम करते हैं. इसके बाद यह अपने गांवों को लौट जाते हैं. इनमें से कई 15-20 सालों से यही रहते हैं. बस्ती के ऐसे ही रहवासी संतोष ठाकुर ने बताया ‘‘बिजली, पानी और संपत्ति के बिल तो मकान-मालिक के पास होते हैं. हमें स्थानीय निकायों से एक सर्टिफिकेट मिलता है. मगर अफसर उसे सबूत ही नहीं मानते. कहते हैं कोई दूसरा कागज लाओ." इसी बस्ती के रहवासी रंजन तिवारी ने बताया "हमें हमेशा काम नहीं मिलता. इसलिए काम की तलाश में सुबह जल्दी निकलना होता है. सर्वे ऐसे समय हुआ जब हम बस्ती से दूर थे. हमें कुछ मालूम ही नहीं था. इसलिए हमारे नाम सर्वे से नहीं जुड़ सके."

नगर-निगम के डिप्टी कमिशनर महेश सिंह के अनुसार "झुग्गीवासियों को फ्लेट आवंटित करने के लिए एक कमेटी बनी हुई है. अगर किसी को लगता है कि उसके सबूत जायज हैं तो कमेटी के पास जाए."

नगर-निगम में स्लम अप-ग्रेडेशन सेल के मुखिया मानते रहे हैं कि सर्वें में कई किरायेदारों के नाम छूट गए हैं. उनकी जगह मकान-मालिकों के नाम जुड़ गए हैं. मगर यह मुद्दा तो उसी समय उठाना चाहिए था.

स्लम अप-ग्रेडेशन सेल किसी भी गड़बड़ी को रोकने के लिए दो तरह से सर्वे करता है. पहला सर्वे लोकेशेन के आधार पर होता है और दूसरा नामांकन के आधार पर. इसलिए स्लम अप-ग्रेडेशन सेल यह मानता है कि अगर लोकेशन वाली सूची से किराएदार का नाम है. साथ ही उसके पास 2005 के पहले से रहने का सबूत भी है तो उसे फ्लेट मिल जाएगा. अब यह किराएदार की जिम्मेदारी है कि वह कहीं से सबूत लाए.

बस्ती के सेवाजी केवट ने कहा "मैंने 8 महीने पहले फ्लेट के लिए आवेदन भरा था. मगर अफसरों ने अभी तक चुप्पी साध रखी है. उन्होंने यह नहीं बताया कि मैं फ्लेट के योग्य हूं या नहीं हूं और नहीं हूं तो क्यों ? मैंने पार्षद को भी अपने निवास का सर्टिफिकेट और एप्लीकेशन दिया है. लेकिन मुझसे और कागजातों की मांग की जा रही है. वैसे मेरा नाम बायोमेट्रिक सर्वे से भी जुड़ा है. मगर सरकार के ही अलग-अलग सर्वे एक-दूसरे से मेल नहीं खा रहे हैं."

सवाल महज घर का नहीं है
यूं तो घर का मतलब रहने की एक जगह से होना चाहिए. मगर बाजार में बदलते शहरों के लिए वह प्रापर्टी भर है. सूरत भी इसी दौर से गुजर रहा है. यहां भी 40 प्रतिशत आबादी के विकास के लिए 60 प्रतिशत आबादी को नजरअंदाज किया जा रहा है. यहां भी पहले घर तोड़ो, फिर घर बनाओ की बात हो रही है. जबकि पहले घर बनाओ फिर घर तोड़ो की बात होनी चाहिए. दूसरी बात बस्ती के बदले बस्ती देने की है. घर के आजू-बाजू रास्ते, बत्ती, बालबाड़ी, नल और नालियों से जुड़कर एक बस्ती बनती है. उन्हें खोकर सिर्फ घर पाना नुकसानदायक है. इसलिए घर के आसपास की सुविधाओं का हक भी देना होगा.

सूरत की तरह हर शहर को जीरो स्लम बनाने का मतलब भी समझना होगा. सरकार मजदूरों से उनकी बस्तियां उजाड़ कर उन्हें बहुमंजिला इमारतों में भेजना चाहती है. इसका मतलब यह हुआ कि वह उन्हें घर के बदले घर दे रही है. मगर जमीन के बदले जमीन नहीं. वह गरीबों से छीनी इन सारी जमीनों को बिल्डरों में बांट देगी. मतलब यह कि गरीबों को फ्लेट उनकी जमीनों के बदले मिल सकता है. मतलब यह कि गरीबों को मिलने वाला फ्लेट मुफ्त का नहीं होगा. मगर बिल्डरों को तो मुफ्त में जमीन मिल जाएगी. यही वजह है कि बिल्डर केवल फ्लेट बनाने पर जोर ही देते हैं. उनके दिल और दिमाग में बालबाड़ी या स्कूल बनाने का ख्याल नहीं आता. जाहिर है खेल केवल मुनाफा कमाने भर का रह गया है.

शहर के विकास में शहरवासियों को बराबरी का हिस्सा मिलना जरूरी है. इससे नगर-निगम को शहर की समस्याएं सुलझाने में मदद मिलेगी. मगर ऐसा नहीं चलता. दूसरी तरफ शहरी इलाकों में नागरिक संगठनों का सीमित दायरा है. शहर के गरीबों की भागीदारी को उनकी आर्थिक स्थिति के कारण रोका जा रहा है. विकास में सबका हिस्सा नहीं मिलने से गरीबी का फासला बढ़ेगा. एक तरफ गरीबी हटाने की बजाय गरीबों की बस्तियां तोड़ी जा रही हैं. दूसरी तरफ उन्हें नुकसान के अनुपात में बहुत कम राहत मिल पा रही है. तीसरी तरफ मिलने वाली ऐसी राहतों को कागजी औपचारिकताओं में उलझाया जा रहा है. कुल मिलाकर चौतरफा उलझे सूरतवासियों को उम्मीद की कोई सूरत नजर नहीं आती है. आज यह घर से निकलकर काम पर जाते है. कल यह काम से लौटकर कहां जाएंगे?

क्या बदलेगी शहर की सूरत
एक सूरत को दो सूरतों में बांटा जा रहा है. शहर के भीतरी हिस्से में अमीरी के लिए साफ-सुथरा, व्यवस्थित और महंगी कारों से दौड़ता सूरत होगा. शहर के बाहरी हिस्से में अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए रात-दिन लड़ने वाले गरीबों का सूरत. जहां न लोग सुरक्षित हैं और न ही उनके काम या रहने के स्थान वगैरह. जाहिर है एक सूरत में अमीरी और गरीबी के फासले को कम करने की बात तो दूर दोनों को एक-दूसरे से बहुत दूर-दूर किया जा रहा है. पहला हिस्सा दूसरी हिस्से की मेहनत के जरिए शहर के बाजार से मुनाफा तो चाहता है. मगर बदले में उसका श्रेय और जायज पैसा नहीं देना चाहता है.

अब तक तो एक शहर का मतलब उसकी पूरी आबादी से लगाया जाता रहा है. मगर सूरत में एक छोटे तबके की तरक्की को शहर की तरक्की माना जाने लगा है और शहर का बड़ा तबका ऐसी तरक्की से तबाह हो रहा है. दरअसल इस तबके से भी तरक्की के मायने जानने थे. एक शहर को लंदन बनाने जैसी बातों की बजाय तरक्की में सबका और सबको हिस्सा देने और अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई को भरे जाने जैसे प्रयास होने थे. मगर नागरिक सुविधाएं मुहैया कराने की जवाबदारी लेने वाली सरकार खुद को पीछे और निजी ताकतों को आगे कर रही है.

जबकि कई तजुर्बों से यह साफ हो रहा है कि निजी ताकतों का काम व्यवस्था में सुधार की आड़ में बाजार तैयार करना है. बाजार नागरिकों से नहीं उपभोक्ताओं से चलता है. जबकि गरीबों के पास अपनी उलझनों को सुलझाने के लिए न तो अधिक पैसा होता है और न ही कागजी औपचारिकताओं को निपटाने की समझ.

शहर के लिए तरक्की की संरचनाएं आम आदमी की भागीदारी से नहीं बन रही हैं और नागरिकों के संवाद और विरोध को रोका जा रहा है. 74वें संविधान संशोधन में विकेन्द्रीकरण और जनभागीदारिता का जिक्र हुआ है. इसके लिए वार्ड-सभा और क्षेत्रीय-सभाओं का उल्लेख भी मिलता है. लेकिन इसका सच देखना हो तो सूरत की सूरत देख लें.

19.10.10

मजदूरी की कीमत पर

शिरीष खरे

खेलने कूदने के दिनों में कोई बच्चा अगर मजदूरी करने को मजबूर हो जाए तो.. और हमारे सामने तो बाल मजदूरी की मजबूरी गांवों से लेकर शहरों और महानगरों में एक मकड़जाल के जैसी फैल रही है. जबकि बाल मजदूरी से परिवारों को आमदनी के स्रोतों का केवल एक रेशा ही मिलता है जिसके लिए गरीब अपने बच्‍चों के भविष्‍य को इस गर्त में झोंक देते है. इसलिए 'क्राई' बाल मजदूरी से निपटने के लिए उसकी जड़ों में जाने और बच्‍चों में स्‍वास्‍थ्‍य, सुरक्षा, शिक्षा, पोषण प्रदान करने को लेकर बीते 30 सालों से कोशिशें करता रहा है.


जैसा कि आप सब जानते हैं कि बाल मजदूरी मानवाधिकारों का घनघोर हनन है और मानवाधिकारों के तहत शारीरिक, मानसिक से लेकर सामाजिक विकास तक का अवसर पाने का अधिकार हर बच्चे को दिया गया है. मगर यह जानकर और अचरज होता है कि खनन उद्योग, निर्माण उद्योगों के साथ-साथ्‍ा कृषि क्षेत्र भी ऐसा क्षेत्र है, जहां बड़ी संख्या में बच्‍चे मजदूरी करते हुए देखे जाते हैं. इन बच्‍चों को पगार के रूप में मेहनताना भी आधा या उससे भी कम दिया जाता है. ऐसा नहीं है कि बाल मजदूरी के निराकरण के लिए सरकारें चिन्तित न हों, मगर यह चिन्‍ता समाधान में कितनी सहयोगी साबित हुई है, यह मूल्‍याकंन का सवाल बना हुआ है.

इस समय उत्‍तर प्रदेश में 2001 की जनगणना के आधार पर 1927997 बाल मजदूरों की पहचान हुई है. इसके एबज में सरकार ने 10वी पंचवर्षीय योजना में 602 करोड़ रूपया आवंटित किया है. जबकि पंचवर्षीय नवीं योजना में 178 करोड़ रूपये खर्च किया गया था. सरकार ने बाल मजदूरी कानून-1986 के अन्‍तर्गत ऐसे क्षेत्रों को चुना है जहां ज्यादा संख्‍या में बाल मजदूर रह रहें हों और जो हानिकारक उद्योगों में काम कर रहें हो. सरकार ने लगभग देश के 250 जिलों में राष्‍ट्रीय बाल मजदूरी परियोजना  द्वारा और 21 जिलों में इण्‍डस प्रोजेक्‍ट द्वारा जिलाधिकारियों को आदेश दे रखें है कि वे बाल मजदूरी को दूर करने के लिए हरसम्‍भव प्रयास करें. इसके लिए विशेष स्‍कूल संचालित किये जाएं, बालश्रमिकों के परिवारों के लिए आर्थिक सहायता उपलब्‍ध करायी जाए  और 18 साल के पहले किसी भी दशा में उनसे मजदूरी न करायी जाए. इस सम्‍बन्‍ध में 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने भी श्रम विभाग को यह आदेश दिया है कि बच्चों को सामान्‍य कार्यो में 6 घण्‍टे से अधिक न लगाया जाए. उन्‍हें निर्धारित अवकाश के साथ्‍ा कम से कम दो घण्‍टे जरूर पढ़ाया जाए. अगर नियोजक ऐसे आदेशों की लापरवाही करें तो उस पर कम से कम 20000 रूपये का जुर्माना लगाया जाए. इस जुर्माने को बच्‍चे के भविष्‍य के लिए उपयोग में लाया जाए.

अब आप जरा देखिये कि सरकार, सुप्रीम कोर्ट, जागरूक जनता के प्रयासों के बावजूद पूरे देश में 58962 नियोजकों के विरूद्ध बालश्रम कराने के लिए मुकदमे दायर किये गये हैं और उत्‍तर प्रदेश में ऐसे अभियोग 6885 हैं. अगर यह सोचा जाए कि सब कुछ कानूनों और सजा से सुधर जाएगा तो यह मुमकिन नहीं है. कानूनों और सजा के प्रावधानों के बावजूद हमें घरों में, ढ़ाबों मे, होटलों में असंख्य बाल मजदूर मिल जाते हैं जो कड़ाके की ठण्‍ड या तपती धूप की परवाह किये बगैर काम करते है. मजदूर कार्यालय या रेलवे स्‍टेशन के बाहर चाय पहुंचाने का काम यह छोटे छोटे हाथ ही करते हैं और मालिक की गालियां भी खाते है. सभ्‍य कहे जाने वाले समाज में यह अभिशाप बरकरार है और जिसे हम नजरअंदाज बनाए हुए हैं. दरअसल तथाकथित अच्‍छे परिवारों में नौकरों के रूप में छोटे बच्‍चों को पसन्‍द किया जाता है और आर्थिक रूप से सशक्‍त होते परिवारों को अपने बच्चे, खिलाने और घर के कामकाज के लिए गरीबों के बच्चे ही पसन्‍द आते हैं.


इन छोटे मजदूरों के छोटे-छोटे कंधों पर बिखरे हुए परिवारों के बड़े बोझ हैं. असल में ऐसे कई समुदाय हैं जिन्होंने अपने आजीविका के साधन खोए हैं, जैसे कि जंगलों पर निर्भर रहने वाले आदिवासी, भूमिहीन, छोटे किसान वगैरह. जबकि देश में गरीबी का आंकलन वास्तविकता से बहुत कम किया गया है. देशभर में काम करने के दौरान हमने पाया है कि बच्चों के लिए पोषित भोजन का संकट बढ़ रहा है, उनके लिए स्कूल और आवास की स्थितियां भी बिगड़ रही हैं. फिर भी तकनीकी तौर पर बहुत सारे बच्चे ऐसे हैं जो वंचित होते हुए भी गरीबी रेखा के ऊपर हैं. जब हम गरीबी को ही वास्तविकता से कम आंक रहे हैं, तो सरकारी योजनाओं और बजट में खामियां तो होगी ही. ऐसे में हालात पहले से ज्यादा मुश्किल होते जा रहे हैं. ऐसे लोगों के लिए लोक कल्याण की योजनाएं जीने का आधार देती हैं. हम इस बात पर ध्यान खींचना चाहते हैं कि बच्चों की गरीबी सिर्फ उनका आज ही खराब नहीं करता, बल्कि ऐसे बच्चे बड़े होकर भी हाशिये पर ही रह जाते हैं. सरकार को चाहिए कि वह देश में बच्चों की संख्या के हिसाब से, सार्वजनिक सेवाओं जैसे प्राथमिक उपचार केन्द्र, आंगनबाड़ी, स्कूल, राशन की दुकानों के लिए और अधिक पैसा खर्च करे.

18.10.10

बच्चों का लापतागंज

शिरीष खरे

देश में एक बार फिर से बच्चों के गायब होने की घटनाएं सामने आ रही हैं. सामने आ रहीं घटनाओं के आधार पर गौर किया जाए तो बड़े शहरो में स्थिति ज्यादा भयावह है. गैर-सरकारी संस्थाओं का अनुमान है कि भारत में हर साल 45000 बच्चे गायब हो रहे हैं. 2007 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देश में सबसे अधिक बच्चे झारखंड, छत्तीसगढ़, आध्र प्रदेश, बिहार और उड़ीसा से गायब हो रहे हैं.

2001 की जनगणना के आकड़ों के जोड़-घटाने में 7.2 करोड़ बच्चे लापता पाए गए हैं. एक आकड़े के मुताबिक 8.5 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जाते. दूसरे आकड़े में 5 से 14 साल के 1.3 करोड़ बच्चे मजदूर हैं. अगर 8.5 करोड़ में से 1.3 करोड़ घटा दें तो 7.2 करोड़ बचते हैं. यह उन बच्चों की संख्या है, जो न छात्र हैं, न ही मजदूर. तो फिर यह क्या हैं, कहां हैं और कैसे हैं? इसका हिसाब भी किसी किताब या रिकार्ड में दर्ज नहीं मिलता है. इस 7.2 करोड़ के आकड़े में 14 से 18 साल तक के बच्चे नहीं जोड़े गए हैं. अगर इन्हें भी जोड़ दें तो देश के बच्चों की हालत और भी बदतर नजर आएगी.

भारत में बच्चों की उम्र को लेकर अलग-अलग परिभाषाएं हैं. संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में बच्चों की उम्र 0 से 18 साल रखी गई है. भारत में बच्चों के उम्र की सीमा 14 साल ही है. मगर अलग-अलग अधिनियमों के मुताबिक बच्चों की उम्र बदलती जाती है. जैसे किशोर-न्याय अधिनियम, 2000 में अधिकतम 18 साल, बाल-श्रम अधिनियम, 1886 में अधिकतम 14 साल, बाल-विवाह अधिनियम में लड़के के लिए न्यूनतम 21 साल और लड़की के लिए न्यूनतम 18 साल की उम्र तय की गई है. खदानों में काम करने की उम्र 15 और वोट देने की न्यूनतम उम्र 18 साल रखी गई है. इसी तरह शिक्षा के अधिकार कानून में बच्चों की उम्र 6 से 14 साल रखी गई है.

इस तथ्य को 2001 की जनगणना के उस आकड़े से जोड़कर देखना चाहिए, जिसमें 5 साल से कम उम्र के 6 लाख बच्चे घरेलू कामकाज में उलझे हुए हैं. कानून के ऐसे भेदभाव से अशिक्षा और बाल मजदूरी की समस्याएं उलझती जाती हैं. सरकारी नीति और योजनाओं में भी बच्चों की उम्र को लेकर उदासीनता दिखाई देती है. 14 साल तक के बच्चे युवा-कल्याण मंत्रालय के अधीन रहते हैं. मगर 14 से 18 साल वाले बच्चे की सुरक्षा और विकास के सवाल पर चुप्पी साध ली जाती है. किशोर बच्चों की हालत भी बहुत खराब है. 2001 की जनगणना में किशोर बच्चों की संख्या 22 करोड़ 50 लाख है. यह कुल जनसंख्या का 22 प्रतिशत हिस्सा है. इसमें भी 53 प्रतिशत लड़के और 47 प्रतिशत लड़किया हैं. यह सिर्फ संख्या का अंतर नहीं है, असमानता और लैंगिक-भेदभाव का भी अंतर है.

2001 की जनगणना में 0 से 5 साल की उम्र वालों का लिंग-अनुपात 100-879 है, जबकि 15 से 19 साल वालों में यह 1000-858 है. जिस उम्र में लिंग-अनुपात सबसे खराब है, उसके लिए अलग से कोई रणनीति बननी थी. मगर हमारे देश में उम्र की जरूरत और समस्याओं को अनदेखा किया जा रहा है. बात साफ है कि बच्चियां जैसे-जैसे किशोरिया बन रही हैं, उनकी हालत बद से बदतर हो रही है. देखा जाए तो बालिका शिशु बाल-विभाग, महिला व बाल-विकास के अधीन आता है, मगर एक किशोरी न तो बच्ची है न ही औरत. इसलिए इसके लिए कोई विभाग या मंत्रालय जिम्मेदार नहीं होता. इसलिए देश की किशोरियों को सबसे ज्यादा उपेक्षा सहनी पड़ रही है.

ऐसा नहीं है कि बच्चों के गुम होने जैसी समस्या से अकेले भारत ही जूझ रहा है. दुनिया के विकासशील देशों से लेकर विकसित देशों से भी हर साल लाखों की संख्या में बच्चे गायब हो रहे हैं. ब्रिटेन में हर साल करीब 13000 बच्चों के लापता होने की घटनाएं सामने आईं हैं. चीन में 2000 में हुई जनगणना के दौरान बीते 10 सालों में 3.7 करोड़ बच्चे गायब पाए गए. अफ्रीकी देशों की हालत भी इससे अलग नहीं है. रिकार्ड बताते हैं कि बेल्जियम में हर साल 2928 और रोमानिया में 2354 बच्चे गायब होते हैं. जबकि फ्रांस में सालाना 706 बच्चे गायब हो जाते हैं. अमेरिकी बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं और अमेरिकी सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2007 में यहां 4802 बच्चों के गायब होने की सूचना पुलिस को थी. यहां कई हाई प्रोफाइल बच्चे भी गायब हुए और सालों बाद भी उनका कोई अता-पता नहीं चला. बच्चों के गायब होने के ये सारे आंकड़े पुलिस द्वारा दिए जाते हैं. मगर ज्यादातर मामलों को पुलिस दर्ज ही नहीं करती या उन तक पहुंचती ही नहीं है.

ऐसे में सवाल सिर्फ यह नहीं है कि बच्चे गायब हो रहे है बल्कि सवाल यह भी है कि बच्चे कहां जा रहे हैं ? रिकार्ड बताते हैं कि ज्यादातर गायब हुए बच्चों से या तो मजदूरी कराई जाती है या उन्हें सेक्स वर्कर बना दिया जाता है. बड़े शहरों के भीतर खेलने-कूदने की उम्र वाले बच्चों को बड़ी संख्या में भीख मांगने के लिए भी मजबूर किया जा रहा है.

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन भले ही जून 1999 से ही बाल श्रम को खत्म करने के लिए कमर कस चुका हो मगर अब भी करोड़ों बच्चे जीविका चलाने के लिए बाल मजदूरी कर कर रहे हैं. भारत में दुनिया भर के मुकाबले सबसे ज्यादा बाल श्रमिक हैं. देश में 5 से 14 साल के तकरीबन 1 करोड़ बच्चे घातक और जानलेवा पेशे में लगे हुए हैं. 12 जून को बाल श्रम के खिलाफ विश्व दिवस मनाया गया. संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने अपनी रिपोर्ट में माना है कि 1999 से आर्थिक गतिविधियों में लिप्त बच्चों की संख्या भले ही घटी हो मगर अब भी 5 से 14 साल के 16.5 करोड़ बच्चे मजदूर हैं. इनमें से ज्यादातर बच्चे शिक्षा से वंचित हैं और खतरनाक स्थितियों में काम करते हैं. इनमें से कुछ के साथ गुलामों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है, जिन्हें उनके गरीब माता-पिता के ऋणों को चुकाने के बदले बेच दिया जाता है.

बाल सैनिकों की समस्या को भी बाल श्रम के खिलाफ विश्व दिवस पर पहचाना गया है, जो बाल श्रम के सबसे बुरे रूपों में से एक है. सयुंक्त राष्ट्र संघ बाल कोष के अनुसार दुनिया भर में करीब तीन लाख बच्चे 30 सशस्त्र संघर्षो में शामिल हैं, जिनमें 7 या 8 साल के छोटे बच्चे भी हैं. हालांकि ज्यादातर बाल सैनिकों को जबरन लड़ाई में झोंका जा रहा है. कई से खानसामों, चौकीदारों, संदेशवाहकों या जासूसों का काम लिया जाता है. लड़का हो या लड़की दोनों का ही बाल मजदूर के तौर पर अक्सर यौन शोषण किया जाता है और बहुधा इसका परिणाम अवांछित गर्भधारण और यौन रोगों में होता है.

7.10.10

बिहार चुनाव : कहां गए बच्चे

शिरीष खरे





बिहार के विधानसभा की घमाचान में हर पार्टी के झोले के भीतर से एक-एक करके हर एक के लिए मुद्दे ही मुद्दे और नारे ही नारे बाहर आ रहे हैं. मगर बच्चों के लिए इस बार भी कोई मुद्दा और नारा नहीं गूंज रहा है. ऐसे में क्राई ने बच्चों के मुद्दों को सूचीबद्ध करते हुए सभी राजनैतिक दलों से बच्चों के अधिकारों को वरीयता देने के लिए संवाद का सिलसिला शुरू किया है. इसके तहत बाल अधिकारों का एक घोषणा-पत्र तैयार किया जा चुका है और अब बच्चों के मामले में राजनैतिक दलों पर जल्द से जल्द अपना-अपना रूख स्पष्ट करने के लिए दबाव बनाना भी तय हुआ है.

इस बारे में क्राई से विकास सहयोग विभाग के वरिष्ठ प्रबंधक शरदेन्दु बंधोपध्याय बताते हैं कि "राज्य में चुनावी माहौल के दौरान हम याद दिलाना चाहते हैं कि यहां आबादी का एक चौथाई हिस्सा 18 साल से कम उम्र का होने के चलते वोट नहीं डालता है. 2001 जनगणना के अनुसार बिहार में 3 करोड़ 40 लाख बच्चे हैं. ऐसे में मतदाता और प्रत्याशी के रुप में हमारी जवाबदारी बनती है कि राजनैतिक फलक से बच्चों के जुड़े हुए हितों को भी प्रमुखता से उठाया जाए." लोकतंत्र में किसी पार्टी की ताकत उसके वोट-बैलेंस से बनती-बिगड़ती है और पार्टी का एजेंडा इस वोट-बैलेंस को घटाने-बढ़ाने में खास भूमिका निभाता है. मगर बच्चे वोट-बैलेंस नहीं होते हैं इसलिए बच्चों के हितों का प्रतिनिधित्व बड़ों के हाथों में होता है.

शरदेन्दु बंधोपध्याय बताते हैं कि ‘‘राज्य में बच्चों की एक बहुत बड़ी संख्या होने के बावजूद राजनैतिक दलों द्वारा बच्चों और उनके मुद्दों को लगातार नजरअंदाज बनाया जाता रहा है. इसलिए अबकि बार हमने मीडिया के जरिए बच्चों के मुद्दों को लेकर मतदाताओं और प्रत्याशियों के बीच पहुंचना का सोचा है. हम इस चुनाव में जहां वोटर से बच्चों के अधिकारों के लिए वोट डालने की अपील करेंगे, वहीं प्रत्याशियों को यह याद दिलाना चाहेंगे कि अगर वह जीते तो अपनी जीत को बच्चों की जीत के तौर पर भी याद रखें." इस दौरान चुनाव के उम्मीदवारों से सीधा संपर्क साधा जाएगा और उन्हें घोषणा-पत्र के बारे में बताया जाएगा. साथ ही यह भी देखा जाएगा कि उम्मीदवारों के पास बच्चों के मुद्दे हैं भी या नहीं और अगर हैं भी तो इस रूप में हैं.

बिहार में बच्चों के मुद्दों को प्रमुखता देना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि बिहार के 58 प्रतिशत से ज्यादा बच्चे कुपोषित पाये गए हैं, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर कुपोषित बच्चों का आकड़ा 46 प्रतिशत है. हर साल जन्म लेने वाले 1000 बच्चों में से 61 की मौत हो जाती है, जो दर्शाता है कि यह राज्य शिशु मृत्यु-दर के मामले में दूसरे राज्यों के मुकाबले कितना दयनीय है. बिहार के ग्रामीण इलाके में एनीमिया से पीडि़त बच्चों की संख्या पहले 81 प्रतिशत थी जो बढ़कर 89 प्रतिशत हो गई है. औसत से कम वजन के बच्चों की सबसे ज्यादा संख्या के मामले में बिहार को देश के पांच राज्यों के साथ गिना जाता है. केवल 33 प्रतिशत बच्चों का ही टीकाकरण होता हैं. 51.5 प्रतिशत लड़कियों का विवाह 18 साल से पहले हो जाता है. केवल 47 प्रतिशत पुरूष और 33 प्रतिशत महिलाएं ही साक्षर हैं यानी साक्षरता दर के मामले में बिहार सबसे नीचे है. जबकि मानव विकास सूचकांक के मामले में भी सबसे पिछड़ा राज्य बिहार (0.367) ही है.

क्राई वोट मांगने वाले राजनैतिक दलों के उम्मीदवारों से यह तयशुदा करने के लिए कहेगा कि सभी बच्चे स्कूल में हों और उन्हें पूरी स्कूली शिक्षा प्राप्त हो. सभी बच्चों के लिए पर्याप्त पोषण मिले और उन्हें समान अवसर प्राप्त हों. बच्चों को बाल मजदूरी, शोषण और तशकरी से बचाने के प्रयासों में तेजी लायी जाए. सरकार की जवाबदेही का मूल्यांकन करते हुए अगर जनता बच्चों के अधिकारों को वरीयता दे तो बाल अधिकार को राज्य के राजनैतिक एंजेडे में खास स्थान प्राप्त हो सकता है और उन्हें भोजन, स्वास्थ्य, आवास, शिक्षा, सुरक्षा और खेल से जुड़े अधिकारों की उचित हिस्सेदारी भी. बच्चों को उनके अधिकार समान रुप से मिल सकें इसके लिए उन्हें दूसरे नागरिकों की तरह ही समान रुप से देखे जाने की भी जरूरत है.

क्राई यह मानता है कि गरीबी, पलायन और विस्थापन बच्चों के विकास को रोकता है. इसके लिए संतुलित विकास का होना जरूरी है. कमजोर तबकों के लिए स्थानीय स्तर पर आजीविका के विकल्प के रूप में जमीन देने और बचाने की प्रक्रिया को अपनाने की जरुरत है. भूमि सुधार की ऐसी नीतियां शामिल की जाएं जिससे पलायन रूके और बच्चों को अपने समुदायों तथा क्षेत्रों में ही विकास के मौके मिलें. हर एक के लिए घर, रोजगार और समान वेतन तय हों जिससे बच्चों के अधिकारों का संरक्षण भी सुनिश्चित हो सके. गरीब किसानों के लिए कृषि-नीति पर दोबारा सोचा जाए और खास तौर से असंगठित मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा देने की नीति को बढ़ावा दिया जाए.

क्राई अपने तजुर्बों के आधार पर यह मानता है कि तकनीकी तौर पर बहुत सारे बच्चे ऐसे हैं जो हाशिए पर होते हुए भी गरीबी रेखा के ऊपर हैं. जब हम गरीबी को ही वास्तविकता से कम आंक रहे हैं तो सरकारी योजनाओं और बजट में खामियां तो होंगी ही. इसलिए हालात पहले से ज्यादा बदतर होते जा रहे हैं. बच्चों की गरीबी केवल उनका आज ही खराब नहीं करता बल्कि ऐसे बच्चे बड़े होकर भी हाशिये पर ही रह जाते हैं. ऐसे में उम्मीदवारों को चाहिए कि वह राज्य में बच्चों की संख्या के हिसाब से सार्वजनिक सेवाओं जैसे प्राथमिक उपचार केन्द्र, आंगनबाड़ी, स्कूल, राशन की दुकानों के लिए और अधिक पैसा खर्च करने पर जोर देंगे.

4.10.10

पंचायती व्यवस्था का बलात्कार

शिरीष खरे राजस्थान से लौटकर

बाड़मेर और अजमेर. राजौ और गीता. एक ही दुनिया के दो अलग-अलग किस्सों के दो किरदार हैं. इधर है अपनी अस्मत गंवा चुकी राजौ, जो गांव के विरोध पर भी अपनी अर्जी अदालत तक दे तो आती है, मगर लौटकर गांव से छूट जाती है. उधर है कमजोर दलित महिला होने का दर्द झेलनी वाली गीता, जो डर के मारे अपनी गुहार अदालत से वापिस ले आती है, और गांव से दोबारा जुड़ जाती है. दोनों ही मानते हैं कि थाने के रास्ते अदालत आना-जाना और इंसाफ की लड़ाई लड़ना तो फिर भी आसान है, मगर समाज के बगैर रह पाना बड़ा मुश्किल है.

एक को अदालत की लड़ाई मंजूर है, दूसरे को गांव में रहना. दोनों का हाल आपके सामने है. मगर कौन ज्यादा अंधेरे में है, और कौन कम उजाले में. चलिए आप ही तय कीजिए- गांव....थाने....अदालत....पंचायत....समाज के बीच मौजूद इनके फासलों, अंधेरे, उजाले से होकर.

राजौ के यहां जाने से पहले, उस रोज का अखबार भरतपुर जिले के गढ़ीपट्टी में ‘बंदूक की नोंक पर पांच लोगों के दलित औरत से बलात्कार’ की खबर दे रहा था. राजौ का गांव सावऊ, बाड़मेर जिले के गोड़ा थाने से 12 किलोमीटर दूर है. वहां तक पहुंचने में 30 मिनिट भी नहीं लगे, मगर राजौ के भीतर की झिझक ने उसे 45 मिनिट तक बाहर आने से रोके रखा.

राजौ के साथ जो हुआ वो घटना के चार रोज बाद यानी 9 जून, 2003 की एफआईआर में दर्ज था : "श्रीमान थाणेदार जी, एक अरज है कि मैं कुमारी राजौ पिता देदाराम, उम्र 15 साल, जब गोड़ा आने वाली बस से सहरफाटा पर उतरकर घर जा रही थी, तब रास्ते में टीकूराम पिता हीराराम जाट ने पटककर नीचे गिराया, दांतों से काटा, फिर.......और उसने जबरन खोटा काम किया. इसके बाद वह वहां से भाग निकला. मैंने यह बात सबसे पहले अपनी मां को बतलाई. मेरे पिता 120 किलोमीटर दूर मजूरी पर गए थे, पता चलते ही सबेरे लौट आएं. जब गांव वालों से न्याय नहीं मिला तो आज अपने भाई जोगेन्दर के साथ रिपोर्ट लिखवाने आई हूं. साबजी से अरज है कि जल्द से जल्द सख्त से सख्त कार्यवाही करें."

मुंह मोड़ने वाला समाज
राजौ अब 20 साल की हो चुकी है. उसकी मां से मालूम चला कि बचपन में उसकी सगाई अपने ही गांव में पाबूराम के लड़के हुकुमराम से हो चुकी है. मगर वह परिवार अब न तो राजौ को ले जाता है, न ही दूसरी शादी की बात करता है. गांव वालों से किसी मदद की तो पहले ही कोई गुंजाइश नहीं है, मगर 2 किलोमीटर दूर पुनियो के तला गांव में जो ताऊ है, 60 किलोमीटर दूर बनियाना में जो चाचा है, 80 किलोमीटर दूर सोनवा में जो ननिहाल है, वहां से भी कोई खैर-खबर नहीं आती है. उसका झोपड़ा भी गांव से 2 किलोमीटर दूर उसके खेत में आ पहुंचा है, और गृहस्थी का हाल पहले से ज्यादा खराब है. पंचों में चाहे खेताराम जाट हो या रुपाराम, खियाराम हो या अमराराम, सारे यही कहते हैं कि चिड़िया जब पूरा खेत चुग जाए तो उसके बाद पछताने से क्या फायदा है ?

राजौ के पिता देदाराम यह खोटी खबर लेकर सबसे पहले गांव के पंच खियाराम जाट के पास पहुंचे थे. पंच खियाराम जी ने पहले तो इसे अंधेर और जमाने को घोर कलयुगी बतलाया, फिर देदाराम से पूछे बगैर दोषी टीकूराम के पिता के यहां यह संदेशा भी भिजवा दिया कि 20,000 रूपए देकर मामला निपटा लेने में ही भलाई है. मगर टीकूराम के पिता हीराराम जाट ने साफ कह दिया कि वह न तो एक फूटी कोड़ी देने वाला है, न निपटारे के लिए कहीं आने-जाने वाला है. फिर मजिस्ट्रेट की दूसरी पेशी पर बाड़मेर कोर्ट के सामने दोषी समेत गांव के सारे पंच-प्रधान जमा हुए. सबने मिलके राजौ को समझाया कि केस वापिस ले लो, कोर्ट-कचहरी का खर्चापानी भी दे देंगे. पर टीकूराम को साथ देखकर राजौ बिफर पड़ी. उसने राजीनामा के तौर पर लाये गए 50, 000 रूपए जमीन पर फेंक दिए और ऐसी खरी-खोटी सुनाई कि वहां एक न ठहरा.

लड़ाई जारी है
इसके बाद जिस चाचा ने राजौ का नाता जोड़ा था, उसी के जरिए पंचों ने बातें भेजीं कि- राजीनामा कर लो तो हम साथ रहकर गौना भी करवा दें. छोटे भाई की भी शादी करवा दें. नहीं तो सब धरा रह जाएगा. कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ने से अच्छा है आपस में निपट लेना. वो तो लड़का है, उसका क्या है, जितना तुम्हें पैसा देगा, उतना कचहरी में लुटाकर छूट जाएगा, तुम लड़की हो, उम्र भी क्या है, बाद में कोई साथ नहीं देता बेटी. फिर बदनामी बढ़ाने में अपना और अपनी जात का ही नुकसान होता है.

जब राजौ पर ऐसी बातों का भी असर नहीं हुआ तो कभी राजौ की जान की फिक्र की गई, तो कभी उसके छोटे भाई जोगेन्दर की जान की.

राजौ आज तक केस लड़ रही है. यह अलग बात है कि टीकूराम को जमानत पर रिहाई चुकी है, और उसके बाद उसकी शादी भी हो चुकी है. राजौ को अदालत में लड़ने का फैसला कभी गलत नहीं लगा है, उसे अदालत से फैसले का अब भी इंतजार है. राजौ को गांव में आने-जाने के लिए सीधे तो कोई भी नहीं रोकता, मगर पीठ पीछे तरह-तरह की बातों को वह महसूस करती हैं.


वैसे पंचों को छोड़कर गांव के बाकी लोगों के साथ उसके रिश्ते धीरे-धीरे सुधर रहे हैं. राजौ के यहां से उठते वक्त उससे जब कहा गया कि रिपोर्ट में उसका नाम और फोटो छिपा ली जाएगी तो उसने बेझिझक कहा "मेरा असली नाम और फोटो ही देना. जिनके सामने लाज शरम से रहना था, उनके सामने ही जब ईज्जत उतर गई तो. तो दुनिया में जिन्हें हम जानते तक नहीं, उनसे बदनामी का कैसा डर ?"

इस रात की सुबह कब ?
थानाधिकारी सतीश यादव टेबल पर रखे ‘सत्यमेव जयते’ की प्लेट और पीछे की दीवार पर लटकी गांधीजी की फोटो के बीचोंबीच मानो 180 डिग्री का कोण बनाते हुए बैठे हैं. उन्होंने दूसरी तरफ निगाह टिकाते हुए कहा- "आपकी तारीफ". मगर बगैर जबाव सुने ही चल दिए.

मेरा सवाल यह नहीं कि केस कितना छोटा या बड़ा है, या आप बड़ा किसे मानते हैं, सवाल है कि जब कभी गांवों में दलित और खासकर दलित महिला पर अत्याचार होता है तो न्याय के हर पड़ाव तक कैसी मानसिकता अपनाई जाती है ? आगे की किस्सा इसी मानसिकता को केन्द्र में रखकर लिखा जा रहा है.

रसूलपुरा गांव से दलित-महिला अत्याचारों के एक हफ्ते में ही तीन-तीन केस आने पर थानाधिकारी महोदय क्रोधित है. ‘महिला जन अधिकर समिति’ का आरोप है कि वह दलित-महिलाओं को कानून में दिये गए विशेष अधिकारों पर अमल करना तो दूर शिकायत दर्ज करवाने वाले को ही हवालात की हवा खिलाने लगे हैं.

रसूलपुरा के सुआलाल भाम्बी, उसकी पत्नी गीतादेवी और पुत्री रेणु ने जब बीरम गूजर के खिलाफ जर्बदस्ती गाय हथियाने और मारपीट का मामला अलवर थाने में दर्ज करवाना चाहा तो सुआलाल भाम्बी को ही यह कहते हुए बंद कर लिया गया कि जांच के बाद पता करेंगे कि कसूरवार है कौन ?

रसूलपुरा, अजमेर से जयपुर जाने वाली सड़क पर बामुश्किल 10 किलोमीटर दूर है. यहां करीब 800 मतों में से 600 मुस्लिम, 150 गूजर और 50 दलितों के हैं. 15 साल पहले दलितों की संख्या ठीक-ठाक थी. तब से अब तक करीब 20 दलित परिवारों को अपनी जमीन-जायदाद कौड़ियों के दाम बेचकर अजमेर आना पड़ा है. बचे दलितों को भी गांव से आधा किलोमीटर दूर अपने खेतों में आकर रहना पड़ रहा है.

दलित हो तो नीचे रहो
यहां आज भी चबूतरे पर दलितों का बैठना मना है. वह साइकिल पर सवार होकर निकल तो सकते हैं, मगर जब-तब रोकने-टोकने का डर भी है. पहले तो दलित दूल्हा घोड़े पर चढ़ नहीं सकता था, पर 10 साल पहले हरकिशन मास्टर ने घोड़े पर चढ़कर पुराना रिवाज तोड़ा डाला था. 15 साल पहले छग्गीबाई भील सामान्य सीट से जीतकर सरपंच भी बनी थी. तब गांव की ईज्जत का वास्ता देकर सारे पंचों को एक किया गया और अविश्वास प्रस्ताव के जरिए छग्गीबाई को 6 महीने में ही हटा दिया गया. छग्गीबाई का सामान्य सीट से जीतना करिश्मा जैसा ही था.

छग्गीबाई कहती हैं "तब सामान्य जाति के इतने उम्मीदवार खड़े हो गए कि दलितों के कम मत ही भारी पड़ गए. नतीजा सुनकर उंची जात वालों ने रसूलपुरा स्कूल घेर लिया, ऐसे में पीछे की कमजोर दीवार से लगी खिड़की तोड़कर मुझे पुलिस की गाड़ी से भगाया गया. पुराने सरपंच श्रवण सिंह रावत फौरन पंचायत की तरफ दौड़े, कुर्सी पर बैठकर बोले ‘ई भीली को कोड़ पूछै, कौड़ पैदा नी होय ऐसो, जो जा पंचायती में राज करै’."

यानी एक गांव के ऐसे दो उदाहरणों से बीते 10-15 सालों के भीतर आपसी टकराहटों के कारण साफ समझ में आते हैं. तकरीबन 15 साल पहले ही इलाके की महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए समिति बनायी और नाम रखा ‘महिला जन अधिकार समिति’. तब 2-2 रूपए देकर 10-12 महिलाएं जुड़ी. केसर, तोला, सोहनी, सरजू, सकुंतला, रेनू, जूली, लीला, गंगा, रिहाना, संपत, भंवरीबाई जैसी महिलाएं अपनी छोटी-छोटी दिक्कतों और निपटारे के लिए चर्चाएं करतीं. भंवरीबाई बताती हैं "5 साल के बाद जब हम बालविवाह, मृत्युभोज और जातिप्रथा जैसी बुराईयों के विरोध में बोलने लगे तो हमारा भी विरोध बढ़ने लगा. दलित महिलाएं जब जातिसूचक शब्दों और गालियों पर ऐतराज जताने लगीं तो सवर्ण कहते कि हम तो तुम्हें रोज ही गालियां देते थे, पहले भी तुम्हारे बच्चों को बिगड़े नामों से ही बुलाते थे, तब तो तुम्हें बुरा नहीं लगता था, अब क्यों लग रहा है ?"

दलितों को सरकारी जमीन से होकर अपने खेत आना-जाना होता था. मगर जून की घनी दोपहरी में तेजा गूजर ने उसी रास्ते पर गड्डा खुदवाया, और तार और कांटे की बागड़ लगवा दी. इसके बाद दलित महिलाओं की तरफ से भंवरीबाई ने तेजा गूजर से बात की- "लालजी (देवरजी) डब्बो थाओ बात करणी है." जबाव में उन्हें अश्लील गालियां और गड्डे में ही गाड़ देने जैसी धमकियां मिलीं.

ऐसो पुलिस वालो से तो...
इसके बाद दलित महिलाओं ने उनके बड़े भाई और वार्ड के पंच अंबा गूजर को बताया कि आपको वोट दिया तो इस उम्मीद पर कि सुख-दुख बांटोंगे, आप तो खुद ही दुख दे रहे हैं. जबाव में अंबा गूजर ने थाने घूम आने की नसीहत दी.

रसूलपुरा के दलित परिवारों ने बताया कि यह दोनों भाई कई गांवों जैसे बेड़िया, गूगरा, बुडोल और गगबाड़ा के दलितों की जमीनों को सस्ते दामों में खरीदने में लगे हुए हैं. अगले दिन दलित महिलाएं जब नारेती पुलिस चौकी गईं तो पुलिस वाले बोले कि पहले जांच करेंगे, तब केस लेंगे. जांच के लिए जब कैलाश (दलित) कांस्टेबल आया तो तेजाभाई-अंबाभाई ऊपर बैठे और कैलाश कांस्टेबल आंगन के बाहर नीचे बैठा.

यह नजारा देखते ही दलित महिलाएं अलवर गेट थाने पहुंची, जहां थानाधिकारी ऐसे मामलों के चलते पहले से ही हैरान-परेशान पाये गए. उन्होंने ऐसी वारदातों में कमी लाने की बात पर जोर दिया.

गांव के दलित व्यक्ति कल्याणजी पूरे भरोसे के साथ बताते हैं ‘‘ऊंची जात के हमारे 30 एकड़ के खेतों के अलावा 4 एकड़ की सरकारी जमीन भी हथियाना चाहते हैं. यहां 1 एकड़ खेत की कीमत 1 लाख के आसपास चल रही है. हमारे पास गृहस्थी चलाने का मुख्य जरिया खेती ही है. 10-15 सालों से सूखा पड़ने से खेती वैसे ही चौपट है. मजूरी के लिए पलायन करना पड़ता है. ऐसे में ऊंची जात वालों की नीयत बिगड़ने से थाने-कचहरी के चक्कर भी लगाने पड़ रहे हैं.’’

मौसेरे भाई
इसी साल के कुछ मामलों पर नजर दौडाएं तो जमीन के विवाद में 12 फरवरी को मामचंद रावत और उसके लोगों ने शंकरलाल रेंगर, उसकी पत्नी कमला, बेटी संगीता, बहू ललिता, बेटे विनोद और गोपाल के साथ घर में घुसकर मारपीट की. ‘दलित अधिकार केन्द्र’ के हस्तक्षेप करने से अलवर गेट थाने में तीन महीने बाद रिपोर्ट दर्ज हो सकी. अभी तक चलान पेश नहीं हुआ.

इसके बाद तेजाभाई-अंबाभाई गूजर ने रास्ता रोकने का विरोध करने वाली गीता और सोहनी को पीटा. एसपी साब के हस्तक्षेप के बाद ही रिपोर्ट लिखी जा सकी. बहुत दिनों से कार्यवाही का इंतजार है. जिन दलितों के दिलों में अपनी जमीन खो देने का डर हैं, उनमें हैं कल्याण, कैलाश, ओमप्रकाश, रतन, सोहन, छोटू, नाथ, मोहन, सुआंलाल, गोगा, घीसू, किशन, दयाल, रामचंद, रामा, हरिराम ने अपने नाम लिखवाए हैं.

रसूलपुरा का राजनैतिक-आर्थिक ताना-बाना ऐसा है कि वर्चस्व की लड़ाई में गूजरों के साथ मुस्लिमों ने हाथ मिला लिया है. लाला शेराणी और लाला सलीम जैसे दो मुस्लिम व्यापारियों ने तो गूजरों का खुला समर्थन किया है. इसमें से लाला सलीम ने तो यहां तक कह दिया है कि "पूरा गांव उलट-पुलट हो जाएगा, अगर एक भी गूजर थाने में गया तो." मुस्लिम और सवर्ण-हिन्दूओं की एकता का इससे बेहतरीन उदाहरण और कहां मिलेगा ?

इधर अलवर गेट थाने के थानाधिकारी महोदय की परेशानी समझ नहीं आती है. शंकरलाल रेंगर जब रिपोर्ट लिखाने पहुंचे तो थानाधिकारी महोदय ने स्वयं समझाने की कोशिश की थी कि यह थाना केवल दलितों या रसूलपुरा के लिए नहीं खोला गया है. इलाके में और भी तो लोग हैं, और भी परेशानियां हैं.

उधर रसूलपुरा में शाम 7 बजे तक जब सुआलाल भाम्बी की गाय न लौटी तो उसकी पत्नी गीता और बेटी रेणु पता लगाने गांव में घूमने लगीं. उन्हें पता चला कि बीरम सिंह ने उनकी गाय बांध रखी है. इसके बाद जिसका अंदेशा था, वही हुआ. गाय मांगने पर गाली-गलौज और विरोध करने पर मारपीट. उस वक्त एक भी बीच-बचाव में न आया. ऐसे में जब सुआंलाल भाम्बी, उसकी पत्नी गीता और बेटी रेणु रिपोर्ट लिखवाने आए तो सुआलाल को बंद कर लिया गया. मगर ‘महिला जन अधिकार समिति’ और ‘दलित अधिकार केन्द्र’ के विरोध के बाद पुलिस सुआलाल से कहती है कि "गांव चलते हैं, अगर एक भी आदमी यह कह दे कि यह तेरी गाय है तो रख लेना."

सुआलाल बोला "गवाह तो एक नहीं कई हैं, पर मामला केवल गाय का नहीं है, गाय तो मेरी है ही, सवाल मेरी पत्नी और बेटी को बेवजह पीटने और गाली-गलौज का है, उसका न्याय चाहिए." पुलिस वालों के हिसाब से "ऐसे तो मामला सुलझने से रहा." इसलिए अगली सुबह गीता और रेणु को जिला एवं सेशन न्यायधीश, अजमेर का रास्ता पकड़ना है. रात उन्हें अजमेर ही ठहरना है. सुबह होने के पहले गांव के पंच उन्हें कचहरी की हकीकत बताने के लिए आते हैं. वह बाकायदा गाय लौटा देने का वादा भी करते हैं. मारपीट और ईज्जत के सवाल पर अस्पताल में लगा खर्चापानी दिलवाने की गांरटी भी देते हैं. दोषी बीरम सिंह माफी भी मांगता है, यह अलग बात है कि केवल ऊंची जाति वालों के सामने.

गांव का वास्ता
गीता और रेणु के शरीर पर चोट के निशान ज्यादा हैं. मगर गांव के पंचों के बढ़ते जोर के सामने उन्हें मारपीट का भंयकर दर्द हमेशा के लिए भूलना पड़ेगा. सुआलाल के हिसाब से यह राजीनामा उसकी खुशी के लिए नहीं गांववालों की खुशी के लिए करना पड़ेगा. बड़े-बड़े लोग जब अपनी ईज्जत की खातिर आ जाएं तो उनका अड़ी ठुकराते भी तो नहीं बनती. खेत का पानी, आंगन का गोबर, चूल्हे की लकड़ियां, कर्ज के पैसे, आटे की चक्की, मजूरी, हर रोज हर एक चीज के लिए तो उन्हीं का आसरा है.

गीता मान रही है कि इस बार ईज्जत से कोई समझौता नहीं होना चाहिए. हालांकि सुबह होने में अभी बहुत देर है , मगर उसके पहले यह भी जानना चाह रही है कि वह गांव और घरबार छोड़कर भी कहीं जी सकती है ?

कहते हैं ‘‘पांच पंच मिल कीजै काज। हारे जीते होय न लाज।।’’ मगर जहां के पंच अपनी ताकत से सत्य को अपने खाते में रखते हो, वहां के कमजारों के पास हार और लाज ही बची रह जाती है. ऐसे में कोई कमजोर जीतने की उम्मीद से कचहरी के रास्ते जाए भी तो उसे जाती हुई 'राजौ 'और लौटी हुई 'गीता' मिलती है. तब यह सवाल इतना सीधा नहीं रह जाता है कि वह किसके साथ चले, किसके साथ लौटे ?