26.8.09

अकाल के बीच सुकाल का टांका

पश्चिमी राजस्थान के थार में बीते सालों के मुकाबले इस साल सूखे की छाया ज्यादा काली है। इसके बावजूद गीले रहने की परंपरागत कलाओं से तरबतर कुछ गांवों में पानी की कुल मांग में से 40 प्रतिशत तक फसल उगाने की जुगत जारी है। बायतु, बाड़मेर से सुखद समाचार लेकर लौटे शिरीष खरे की रिपोर्ट -
अगर आप पाकिस्तान की सीमा से कंधा मिलाने वाले जिला बाड़मेर का नक्शा देखें तो बायतु ब्लाक अच्छी-खासी जगह घेरता दिखता है। बायतु से लगा ज्यादातर इलाका हरे रंग से रंगा है जो थार का खाली स्थान बतलाता है। दूसरी तरफ का मामूली-सा हिस्सा पीले रंग में है वो प्रशासनिक क्षेत्र का संकेत देता है। बायतु ब्लाक की 47 में से 42 पंचायतों का पानी ऐसा खारा (फ्लोराइट-8 पीपीएम) है कि गले नहीं उतरता। मीठे पानी का इकलौता जरिया है भी तो 60 किलोमीटर दूर शिव ब्लाक के उण्डू में। उधर की पाइपलाइन से आने वाला मीठा पानी 42 किलोमीटर की यात्रा करके खानजी का बेटा गांव से दो धाराओं में फूटता है। एक का रास्ता 18 किलोमीटर दूर पनावड़ा की तरफ जाता है, दूसरा इतनी ही दूरी के बाद बायतु से होकर गिरा तक गिरता है। लेकिन अब यह पूरी पाइपलाइन बहुत पुरानी और खस्ताहाल है, कचरा जमा होने के अलावा इसके कनेक्शन भी जगह-जगह से खुले मिलते हैं। इसकी लंबाई के चलते पानी की आपूर्ति महीने में 5 रोज और उसमें भी मुश्किल से 2 घण्टे हो पाती है। यह पानी घर-घर पहुंचने की बजाय सामुदायिक होदी तक ही पहुंचता है, यही से मटके लेकर खड़ी औरतों की लंबी लाइन लग जाती है। नए दोस्तों के हवाले से- यह दृश्य तो कुछ भी नहीं, 9 साल पहले आया होता तो संकट के बादल और भी घनघोर देखने को मिलतें।
9 साल पहले2000 को ‘लोक कल्याण संस्थान’ ने बायतु ब्लाक के 12 गांवों में पीने, बर्तन, कपड़े, पशु, निर्माण और तीज-त्यौहार में खर्च होने वाले पानी की कुल मांग का हिसाब लगाने के लिए अध्ययन किया। इससे पता लगा कि यहां तो कुल जरूरत का 10 प्रतिशत पानी ही पूरा हो पाता है। ऐसे में पानी की कुल मांग का 90 प्रतिशत अंतर पाटना एक बड़ा सवाल था। जबावदारी के नजरिए से सरकार टैंकरों से 10 प्रतिशत तक की हिस्सेदारी निभा रही थी, इसके बाद जनता 200 से 250 फीट जमीन के नीचे से 20 प्रतिशत तक खारा पानी निकालकर उसे मीठे पानी में मिलाकर पीने को मजबूर होती। फिर भी तो पानी की कुल मांग का 70 प्रतिशत अंतर बना रहता, जिसे भरने के लिए बड़े पैमाने पर निजी टांके बनाने की पहल हुई। बरसात की बूंदों को सहेजने वाली इस पंरपरागत शैली को मुहिम का रंग-रुप देने से यहां 40 प्रतिशत तक पानी की जरूरत का इंतजाम करने की भूमिका बंधी। वैसे पानी की कुल मांग का 30 प्रतिशत अंतर अब भी कम नहीं कहलाता। इसीलिए तो यहां मटके लेकर खड़ी औरतों की लंबी लाइन वाले दृश्य (संकट के कम बादलों के साथ) जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। ‘लोक कल्याण संस्थान’ के भंवरलाल चौधरी कहते हैं- ‘‘यहां के 100 सालों में से 80 तो अकाल के नाम रहे। बाकी के 10 साल सुकाल और 10 साल ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ भरा मामला रहा। इसके अलावा हमने बरसात और जमीन के जल स्तरों की थाह भी मापी। यह गुणा-भाग लगाया कि कितने टांके से कितनी पानी की मांग पूरी हो सकती है।’’ भंवर भाई और उनके दोस्तों को सबसे पहले 34 घरों वाले भीलों की बस्ती में 40 टांके बनाने की बात समझ में आई। यहां के लोगों की मदद से 40 टांके बनाये भी गए। फिर तो एक के बाद एक टांके बनाने वाले दर्जनों गांवों के नाम जुड़ते गए- पनावड़ा, कोल्हू, अकड़दरा, बायतु (भोपजी), शहर, पूनियो, कतरा, चिड़िया, केसुमला, भाटियान, कबरस, चैकल्दरा, खेतिया का तला, नगाना, छीतर के पार, जानवा.......
....... अगर आकड़ों के ऊंट पर सवार हुआ जाए तो 2000 से 2008 तक इलाके भर में कुल 1200 टांके बने। 2008 को संस्थान ने टांके बनाने के काम को नरेगा याने सरकारी स्तर पर जोड़ने की जन-वकालत छेड़ी और जीती। आज की तारीख तक नरेगा के जरिए जिले भर में ज्यादा नहीं तो कम-से-कम 50,000 टांके बनाए जा रहे हैं। कार्यकर्ताओं के मुताबिक नरेगा में टांके बनाने के काम सबसे पहले यही से शुरू हुए। यह कहते हैं आज बाड़मेर, जोधपुर और जेसलमेर जिलों सहित पश्चिमी राजस्थन भर में नरेगा का ज्यादातर पैसा टांके बनाने में ही खर्च हो रहा है।
यहां की जनता तो पानी इकट्ठा करने की तरकीब को ही टांका कहने लगी है। कनौड़ के मुरली चौधरी कहते हैं- ‘‘टांका धरती के भीतर बना ऐसा छोटा-सा टैंक है जो आपको ज्यादातर घरों के आंगन में दिखलाई देगा।’’ ‘‘यहां की धरती के लिहाज से गोलाकार टांके मुनासिब होते हैं’’: ऐसी बातें फतेहपुर से आए खियारामजी से पता पड़ी- ‘‘गोलाकार टांके में पानी का दबाव दीवार पर इस तरह से बन जाता है कि संतुलन बराबर रहता है। इससे दीवार ढ़हने का खतरा कम हो जाता है।’’ आमतौर से यहां 12 गुणा 12 वर्ग फीट वाले टांके दिखाई पड़ते हैं। इसमें 30 फीट का आगोर (केंचमेंट) रहता है। अकड़दरा की सीतामणी बताती हैं- ‘‘इसे (आगोर) पहले कच्चा बनाते हैं, फिर चिकनी माटी डालकर कूट-कूटकर सख्त और चिकना करते हैं। इससे बरसात का पानी जमीन के आजू-बाजू न फैलकर सीधा टांके में ही भरता है।’’ इस तरह की साइज और डिजाइन वाला टांका मानो यहां सफल माडल के तौर पर अपना लिया गया है। मनावड़ी के ठाकराराम कहते हैं- ‘‘सरकार ने जो माडल बनाए थे वो सफल नहीं रहे। एक तो स्थानीय हालातों के लिहाज से उनके साइज (20 गुणा 20 फीट) ठीक नहीं थे, दूसरा वो सार्वजनिक टांके थे सो दलितों को पानी के लेने में खासी परेशानी होती।’’
12 गुणा 12 वर्ग फीट वाले टांके बनाने के कुल खर्च को अकड़दरा के हनुमानजी पहले ही जोड़कर बैठे हैं- ‘‘यही कोई 30,000 से 40,000 रूपए। इसमें मटेरियल याने सीमेंट, क्रांकीट, पत्थर में 25,000 रूपए और बाकी का खर्चा मजदूरी में जोड़ लो।’’ यहां जमीन से पानी की फसल लेने का चलन है। क्योंकि पक्के छत वाले मकान कम ही हैं इसलिए छत से पानी उतारने के जतन न के बराबर दिखाई पड़ते हैं। रेतीली जमीन पर पानी नहीं ठहरने से यहां तालाब नहीं दिखते, कोई बड़ी नदी भी नहीं है, नहर आने की संभावना तो दूर-दूर तक नहीं है, इंदिरा सागर नहर की दूरी यहां से 250 किलोमीटर है। पनावड़ा के करणरामजी की सुने तो- ‘‘जिसमें बरसात का पानी आए वो नदी कहलाती है, जिसमें बारह महीने पानी रहे वो नहर।’’ उनके साथ बैठे कुंवरलाल चौधरी कहते हैं- ‘‘दुर्ग या किले में कुएं या बाबड़ियों को देखकर बाबड़ियां बनाने की योजनाएं भी बनी थीं। लेकिन यहां की गरीबी को देखकर संस्थान ने ऐसी योजनाओं को बहुत महंगा बताया। सार यह है कि यहां इसी तरीके के टांके बरसाती पानी को भरने के एकमात्र उपाय हैं।’’
बिन पानी सब....
‘बिन या कम पानी’ के बावजूद यहां ‘सब सूना’ नहीं है। यहां की आवो-हवाओं में ही पानी उगाने से लेकर उसे बचाने की फितरतें जो घुलीमिली हैं। कई मामूली बातें हैं, जैसे यहां के घरों में देखने को मिला कि गिलास को जुबान में लगाने की बजाय ऊपर से पानी पिया जाता है, इससे धोने में खर्च होने वाला पानी बचता है। इसी तरह यहां के लोग नहाते समय लोहे के बड़े कुण्ड में बैठते हैं। यह खारे पानी से नहाकर बचे हुए पानी से कुण्ड में ही कपड़ा धोते हैं। यहां डिचरजेण्ट की बजाय चिकनी माटी इस्तेमाल में लाते हैं। इससे मैल और माटी की परत जब कुण्ड के नीचे जमती है तो ऊपर का पानी ऊंट के पीने के काम आता है। यहां दिन या महीने की बजाय कुछ घण्टे ही बादल बरसने को बरसात मानते है। तब घण्टेभर में ही सालभर के लिए मीठे पानी बचाने की कोशिश रहती है। यहां के लोगों की माने तो बादल से पानी नहीं राहत बरसती है। ‘लोक कल्याण संस्थान’ के दफ्तर से जाते वक्त भंवर भाई, हनुमानजी, करणरामजी, भंवरी, ठाकरारामजी, रामलालजी, मुरलीजी जैसे दोस्तों ने कहा कि आबादी और पानी की बढ़ती जरूरत को देखते हुए टांके बनाने की प्रक्रिया लगातार चलती रहनी चाहिए।
जब रिपोर्ट लिखी जा रही थी तब धरती पूरी तरह से भीगी न थी, टांकों में सिर्फ 6 फीट पानी ही भरा था। यहां टांके में 6 फीट खाली होने का मतलब है साल के 6 महीनों का खाली होना। फिलहाल जितनी बरसात हो जाना चाहिए थी, उसकी आधी बूंदे भी नहीं बरसीं। इसलिए मानसून के बचे हिस्से से आखिरी आस अटकी है। अगर ऐसा न हुआ तो टांकों से पानी की फसल चौपट हो जाएगी, तब मांग पूरा करने का प्रतिशत 40 से गिरकर 20 तक पर लुढ़क जाएगा। अगर यह लुढ़का तो यहां की कई जिंदगियों को खारे पानी का इस्तेमाल 20 से 40 प्रतिशत तक बढ़ाना पड़ेगा।
बीच सफर में देश के 604 जिलों में से 177 जिलों में सूखे के हालात बन गए हैं, इससे देश में अर्थव्यवस्था की कमर टूट सकती है। मंदी की जो रफ़्तार ग्रामीण अर्थव्यवस्था की वजह से थोड़ी सुस्त है उसमें तेजी आ सकती है। सूखे के चलते 1 जून से अबतक रोजमर्रा की चीजो की खुदरा कीमतें 32 प्रतिशत तक ऊपर गई हैं। जो हालात बन रहे हैं उससे विकास दर 2 प्रतिशत कम होने के आसार हैं।

17.8.09

उद्रेश भैयाणी बाड़ी में लालबहादुरजी की सरकार

शिरीष खरे
इस कहानी के किसी चरित्र या घटना का किसी शहर, मोहल्ले, व्यक्ति या वस्तु से कोई सम्बन्ध पाया जाता है तो इसे मात्न संयोग नहीं माना जाए। क्योंकि जहां सरकार कमजोर होती है, वहां माफिया की सरकारे खड़ी हो ही जाती हैं। यूं तो गुजरात सरकार बहुत मजबूत कही जाती है लेकिन सूरत महापालिका के सामानान्तर, माफिया राज के कई पाकेट संस्करण बस्ती की जमीन को अपनी कहते हैं, और घरों में रहने का भाड़ा भी वसूलते हैं। जैसे कि उद्रेश भैयाणी बाड़ी में लालबहादुरजी का राज है। बस्ती के लोग टेक्स के बदले जब सरकार से बिजली, पानी और नाली की उम्मीद करते हैं तो सरकारी कार्यालयों में बैठे बड़े से बड़े बाबू भी एक मर्तबा लालबहादुरजी से पूछ लेने की नसीहत देते हैं।
सहारा दरवाजे के ऊपर, खुले पुल पर धड़धड़ाती रेल के नीचे से राज्य परिवहन डिपो की चौड़ी सड़क है। यही से धागों जैसी अनगिनत गलियां उलझी पड़ी हैं। बारिश है, इसलिए गली को नाली कह लीजिए, या नाली को गली। दोनों के वजूद ने खुल-मिलकर संड़ाध को अजीब बना डाला है। बस्ती की सघनता का जाल देखिए, हर चौथे कदम पर एक घर पड़ रहा है। कोई घर लकड़ी का, कोई माटी का तो कोई पक्का खड़ा है, कोई बांस, पन्नी, ईटों से मिल-जुलकर आड़ा पड़ा है। घुमावदार मोड़ों पर आवाजाही की आहटों से लोग, बकरियां, रेडियो, मुर्गियां, गाएं, साइकिले, मोटरसाइकिले आपस में टकराने से पहले बच लेते हैं। इस तरह गांधीनगर, विकासनगर, अम्बा बाड़ी से गुजरते हुए उद्रेश भैयाणी बाड़ी में श्री फरनी माता जी के मंदिर पहुंचते हैं, मंदिर में बनने का साल दर्ज है-1966। चबूतरे पर हैं इनायत खान, अज्जू मियां, राधा बेन, रामसुंदर वर्मा, मंगू वर्मा, भालेराम शर्मा और उनके बहुत सारे साथी।
‘‘अब यहां से लौटना, लखनऊ की भूल-भुलैया से कम नहीं होगा’’- ऐसा सुनते ही इनायात भाई बोले- ‘‘गलियों से सकरे तो यहां के घर हैं, यहां से तो फिर भी निकल जाइयेगा, बस्ती की पेचिदियों से नहीं निकल पाइयेगा।’’ पुरूषोतम महापात्र ने जोड़ा- ‘‘यह 100 साल पुरानी बस्ती है, इतना वक्त बीतने के बावजूद सरकारी चश्मे से यह नाजायज ही है। अगर यह जायज नहीं है तो टेक्स और बिजली के बिल वगैरह क्यों आते हैं ?’’ अज्जू मियां बोले- ‘‘वार्ड नंबर 18 में नल, नाली, पानी, बिजली जैसे सवालों पर सूरत महापालिका का एक ही जबाव है- ‘पहले लालबहादुरजी से तो पूछ लो।’ जब हम सूरत महापालिका को टेक्स देते हैं, फिर लालबहादुरजी से क्यों पूछे ?’’ लेकिन इस सवाल के आगे यह सवाल भी है कि प्राइवेट से छुटकारा दिलाने की बजाय सूरत महापालिका ऐसा कह क्यों रहा है ? ?
राकेश भाई बताते हैं- ‘‘100 साल पहले यहां की जमीन पर खेत हुआ करते थे। लेकिन महापालिका ने कागजों में सैकड़ों खेतीहरो के नामो की बजाय यहां के रखवाले का नाम ही चढ़ाया। लालबहादुरजी रखवाली करने वाले उसी परिवार की पीढ़ी से है। इन दिनों सत्ता में उनकी अच्छी पूछ-परख है, उनका दावा भी है कि यह उन्हीं की खानदानी जमीन है, इसलिए वह 40 सालों से जबरन भाड़ा लेते हैं। महीने के 50 रूपए के बदले 4-5 सालों से कोई रसीद भी नहीं देते हैं, ताकि किराएदार कहे जाने वालों के हाथों में रहने का सबूत न जाए।’’ लालबहादुरजी की अच्छी पूछ-परख को लेकर राधा बेन ने थोडा और जोड़ा- "....वो बस्ती में आने वाली सुविधाओं को सरकारी फाइलों में ही दफन कर देते हैं। इसके बाद जो-जो काम सरकार को करना चाहिए, वो-वो काम पैसे के बदले माफिया के लोग करते हैं।"
अगले दिन इनायत, पुरूषोतम, अज्जू, राकेश भाई और राधा बेन के सवालों के साथ सूरत महापालिका के दफ्तर में दाखिल हुआ। यहां आने का कोई खास फायदा नहीं निकला, लेकिन एक अहम जानकारी हाथ जरूर लगी कि राज्य सरकार ‘जमीन गणोत धारा, 1960’ को रद्द करके ‘गुजरात जमीन मेसूल कायदा’ लाने का मन बना चुकी है। ‘जमीन गणोत धारा, 1960’ में जो परिवार खेती करके जिस जमीन पर रहते आए हैं उन्हें जमीनों का हक दिया गया है। लेकिन ‘गुजरात जमीन मेसूल कायदा’ में कोई कितने साल से भी खेती करे या रहे, उससे वह जमीन सरकार कभी भी ले सकती है। याने खेती करने या रहने में समय के महत्व को ही महत्वहीन बना दिया जाएगा। अब तक हक और न्याय का आखिरी रास्ता कचहरी की तरफ जाता रहा है, आगे से इसे भी बंद करने की तैयारी कर ली गई है।
हालांकि बस्ती के वाशिंदे सुरेश भाई बोरसे को इसमें हेरत जैसी कोई बात नजर नहीं आती, उनके मुताबिक- ‘‘सूरत के झोपड़ों में रहने वालों को बगैर किसी कसूर के सजा सुनाई जा चुकी है। सूली पर लटकाने की तारीखें अलग-अलग हैं, हमारी तो तारीख भी घोषित नहीं हुई है।’’ सूरत महापालिका की जमीन से हटाने वालों को तो एक बार फिर भी पुर्नवास या मुआवजे की उम्मीद है लेकिन उद्रेश भैयाणी बाड़ी वालों के हिस्से में तो यह भी नहीं। ऐसे में यहां के लोगों की मांग इतनी भर ही है कि यहां की जमीन को सूरत महापालिका में मिला लो। फिर क्या करना है, बाद की बात है।
हीरा बेन जैसी औरतों की अपनी परेशानियां हैं, वह घर से बाहर आकर बोली- ‘‘देखिए एक भी स्ट्रीट लाईट नहीं है, और जिसे आप गली या नाली समझ बैठे हैं, वह तो खुली गटर है। 500 घरों पर 1 नल है, गांधीनगर के भी 4 में से 3 नल तो गटर में डूबे हैं। टायलेट के नाम पर कईयों के लिए सुलभ शौचालय ही एकमात्र सहारा है। पानी के लिए प्राइवेट टेंकर है, स्कूल के लिए भी प्राइवेट का ही आसरा है।’’
‘‘सूरत कारर्पोरेशन के चुनाव नजदीक है, चुनाव के वक्त आप ऐसे मुद्दे क्यों नहीं उठाते ?’’ इसके जबाव में मजहर खान ने जो सुनाया वो आज के चुनाव-ए-हाल की पोल खोलने के लिए काफी है- ‘‘वार्ड नंबर 18 में ज्यादातर मुस्लिम मत हैं इसलिए यहां के 30 प्रतिशत मतों को वार्ड नंबर 17 में डालकर मत-विभाजन कर दिया गया है। वार्ड नंबर 17 में तो हिन्दुओं की तादाद ज्यादा है ही, वार्ड नंबर 18 में भी हिन्दुओं की संख्या भारी पड़ जाती है।’’ इस तरह बटवारे का राजनैतिक हथकंडा अपनाते हुए मुस्लिम मतों के दबाव से छुटकारा पा लिया गया है। वैसे भी वार्ड नंबर 17 झोपड़पट्टी नहीं है, इसलिए वार्ड नंबर 18 में झोपड़पट्टी वाले मतों के दबाव से भी निजात पा लिया गया है। मजहर खान भारतीय चुनाव का दूसरा पेंच भी खोलते हैं- ‘‘उलमाड़ विधानसभा की मतसूची से मुस्लिम मत लगातार घट और हिन्दू मत लगातार बढ़ रहे हैं। रामपुरा में कम से कम 3,000 मुस्लिम मत कटे, सैय्यदपुरा और झापा बाजार जैसे इलाकों का भी यही हाल है। मैं खुद 2007 में विधानसभा (उत्तर) से उम्मीदवार था, लेकिन 2009 में लोकसभा की सूची से मेरा नाम ही हटा दिया गया।’’ सारांश यह है कि कोई एक पार्टी सालों तक सत्ता में यूं ही नहीं रहती।
निरंजन भाई महापात्र ने मंदिर की गोल-गोल गली में घूमाते हुए बताया- ‘‘इधर 10 गुणा 12 वर्ग फीट से बड़े घर मिलेंगे ही नहीं, 1 घर में 1 से ज्यादा परिवार हैं, 1 घर में कम से कम 7 लोग तो जोड़कर चलिए ही। इस तरह 500 घर में यही कोई 3000 लोग रहते हैं। आधे से ज्यादा तो यूपी से आए मुस्लिम हैं, कुछ मराठी, उड़िया और गुजराती हैं। सारे के सारे मजदूर हैं, कोई टेक्सटाइल मार्केट में है, कोई पावरलूम्स में, कोई ड्राइंग पेंटिंग में। कई लोग पुराना कपड़ा लाकर, उसे रिप्येर करके, बड़िया धोकर, प्रेस करके बेचते हैं।’’
लौटते वक़्त ओमप्रकाश बोरसे उलझी गलियों से सुलझते हुए चलते हैं, वह कहते हैं- ‘‘यहां रोजाना की हाजरी के हिसाब से मजदूरी मिलती है, एक दिन की मजदूरी 70 से 120 रूपए है, ज्यादा से ज्यादा 3,000 रूपए महीना भी जोड़ो तो गुजरात के सबसे मंहगे शहर में कम पड़ते है। सूरत में अनाज, तेल, सब्जी और दूसरी चीजें बाहर से आती हैं। इतने में ही दवा, पानी, घर-खर्च चलाना है। इतने में ही गांव भी पैसा भेजना है।’’ बातों ही बातों में हम सहारा दरवाजे के धड़धड़ाते पुल के नीचे आ गए। ‘‘आपको हर शाम के शाम मजदूरी मिलती होगी ?’’ ओमप्रकाश बोरसे कहते हैं- ‘‘मजदूरी मिलने की कोई तारीख पक्की नहीं, सेठ लोगों की भी राजनीति है, वो 2 महीनों का एडवांस रखते हैं, ताकि मजदूर को अच्छा काम मिले तो भी भाग न सके। सही समय पर पैसा नहीं मिलेगा तो लोग कर्ज लेंगे ही।’’ हमने पटरियों को पार कर लिया, अब ओमप्रकाश के साथ आए कई साथियों को पटरियों के उस तरफ ही लौटना होगा। जिनके सिर, पीठ और कंधों पर बोझ ही बोझ लटका दिख रहा है, दूर से देखने पर उनकी दुनिया छोटी-बड़ी (नाजायज-जायज) सरकारों के जाल में फसी लाचार मक्खी जैसी दिखती है। वक़्त का तकाजा यह है कि जो लोग सिर्फ अपनी घर-गृहस्थी ही चलाना चाहते हैं, उनके सामने घर-गृहस्थी को बचाने का सवाल खड़ा है।

15.8.09

भू-माफिया को हराने के बावजूद हार गये विठ्ठल भाई

शिरीष खरे
सहारा दरवाजे वाले छोर से गांधीनगर, विकासनगर, अम्बा बाड़ी, उद्रेश भैयाणी बाड़ी के बाद कुछ तंग गलियों का रास्ता पाटीचाल की तरफ भी खुलता है। आपको याद होगा कि पिछले किस्सा उद्रेश भैयाणी बाड़ी में लालबहादुरजी की सरकार के नाम रहा। आपको बता दे कि 25 साल पहले पाटीचाल में भी लालबहादुरजी का ही राज था। लेकिन यहां विठ्ठल भाई पाटिल ने उसके फैलते साम्राज्य के खिलाफ दीवानी अदालत का दरवाजा खटखटाया था।
3 साल की जद्दोजहद के बाद यह जमीन सूरत महापालिका की बतलायी गई। आज की तारीख में यहां न कोई झोपड़े के बदले मकान बनाने से रोकता है, न रहने का भाड़ा वसूलता है, न ही बुनियादी सुविधाओं के सवाल पर कोई बाबू एक मर्तबा लालबहादुरजी से पूछ लेने की नसीहत देता है। लेकिन इन राहतों के बीच अब शीघ्रातिशीघ्र पाटीचाल को भी तोड़े जाने का फैसला हो चुका है। ऐसे में यहां के लोगों की आखिरी उम्मीद घर और जमीन के बदले राहत रुपी नाम पर आकर अटक गई है।
यूं तो 100-50 कदमों के फासले पर दो दुनिया मिलती हैं, लेकिन कुछ मायनों में एक-दूसरे से एकदम अलग-अलग, कुछ मायनों में बिल्कुल एक जैसी। विठ्ठल भाई पाटिल के 18 गुणा 20 वर्ग फीट वाले मकान के पहले कमरे में उनके साथ दशरथ भाई, भरत भाई और अल्फ्रेड भाई बैठे हैं। लंबी खामोशी को तोड़ते हुए विठ्ठल भाई बोले- ‘‘ऐसे 700 घरों को लालबहादुर के कब्जे से निकल लाए, लेकिन बाजू में जो मंगू भाई वाली गली है, वहां से अभी भी लालबहादुर का राज कायम है। अगर वहां के लोग भी कचहरी के रास्ते जाए तो वहां की दुनिया भी बदल जाए। झोपड़े तो उनके भी टूटने हैं लेकिन कम से कम राहत का आसरा तो रहेगा।’’ इसके बाद भरत भाई ने 3 अगस्त 2008 को अखबारों में छपी खबर का हवाला देते हुए पूछा- ‘‘सूरत महापालिका ने कहीं-कहीं ‘माडल बसाहट’ बनाने की बात कही थी, ‘पाटीचाल’ का नाम उनमें है या नहीं ?’’ विठ्ठल भाई अखबारों की उन कतरनों के अलावा सूचना के अधिकार से मिले कागजातों को लाकर बोले- ‘‘हमने एसएमसी के पास कुछ सवाल भेजे थे। उनसे पूछा था कि क्या आप वाकई माडल बसाहट बनाने वाले हैं, अगर हां तो उसमें पाटीचाल, गांधीनगर, विकासनगर, अंबा बाड़ी, उद्रेश भैयाणी बाड़ी और नवी बसाहट के नाम शामिल हैं ? एसएमसी का जबाव ‘न’ में आया। असल में सूरत की बाकी जमीनों के मुकाबले यहां की जमीन बहुत मंहगी हो चुकी है, इसलिए अब कई बिल्डरों की निगाह यहां जम चुकी है, इसलिए एसएमसी कार्यालय की विस्थापित सूची में यहां के झोपड़े भी दर्ज हो चुके हैं।’’
लेकिन ‘बिल्डरों की निगाह’ और ‘एसएमसी कार्यालय की विस्थापित सूची’ का आपस में क्या मेल-जोल है ? बहुत समय से झोपड़पट्टियों में ही काम कर रहे अल्फ्रेड भाई जबाव देते हैं- ‘‘भरी-पूरी बस्ती को शहर से बहुत दूर किसी बहुमंजिला इमारत में भेजने की कवायद चल रही है, इसके बाद खाली हुई जमीनों को कारर्पोरेट के हवाले कर दिया जाना है। सूरत महापालिका कई जगह कारर्पोरेट को आगे (घोषित एजेंडा) करके, कई जगह कारर्पोरेट को पीछे करके (अघोषित एजेंडा) बढ रही है।’’ शोध और सामाजिक गतिविधियों से जुड़े भरत भाई मानते हैं- ‘‘सूरत को 2009 के अंत तक 0 स्लम बनाने की कोई स्पष्ट योजना या रणनीति तो होनी चाहिए थी। किनका विस्थापन होना है, कब तक होना है, कुछ जाहिर नहीं है। पुनर्वास का पात्र कौन होगा, अगर होगा भी तो किन शर्तों पर और कहां भेजा जाएगा, अभी तक यही समझ नहीं आ रहा है। एसएमसी के पास तो हर सवाल का यही जबाव है कि ‘कोसाठ में 42 हजार घर बन रहे हैं।’ जबकि सूरत के झोपड़पट्टियों में रहने वालों की आबादी 6 लाख से ऊपर है।’’
बस्ती के रहवासी दशरथ भाई कहते हैं- ‘‘हर आदमी अच्छे मकान और उसमें बेहतरीन चीजों का सपना देखता है। यहां कोई चाहकर भी अच्छा मकान नहीं बनाएगा, न ही अपने मकान में सुंदर या सुविधाओं की चीजों को सजाना चाहेगा। कल क्या होना है, पता नहीं। फासी देने की तारीख भी पता होती है, लेकिन हमारे टूटने की कोई तारीख नहीं बतलाई गई है, ऐसे में रातों की नींद तो अभी से तोड़ी जा चुकी है।’’ उन्होंने विठ्ठल भाई को देखते हुए कहा- ‘‘बेकार ही गए आप!!’’ भू-माफिया का अंत करने के लिए कचहरी का दरवाजा घटघटाने वाले विठ्ठल भाई चुप हैं, ऐसे लोग अब कहां जाएंगे ?

10.8.09

ऐसे सूरत की कैसी सूरत?

शिरीष खरे, सूरत से लौटकर
थेम्स नदी से लगे लंदन वाली तस्वीर के हू-ब-हू सूरत को लंदन जैसा बनाने की कवायद जोर पकड़ चुकी है। इसलिए ताप्ती के किनारे से हजारों झापड़ियों को साफ किया जा रहा है। सरकार के मुताबिक इसके बाद सूरत आबाद हो जाएगा। क्या सचमुच सूरत आबाद हो पाएगा? सूरत में स्लम एरिया हटाने के लिए केन्द्र (यूपीए) और राज्य (बीजेपी) सरकारों ने मिलकर 2,157 करोड़ की रणनीति बना ली है। दोनों (यूपीए-भाजपा) इन दिनों एक साथ 1 लाख से ज्यादा झोपड़ियां तोड़ रहे हैं। सूरत महापालिका का काम जमीने खाली करवाना और बिल्डरों को सस्ते दामों में बेचना है।
हालांकि शहर में ‘रहने’ और ‘रोजी-रोटी’ के कई सवाल गहरा गए हैं, जबाव हैं कि मिलतें नहीं। मिलतें हैं तो उन टूटी बस्तियों के बेरहम किस्से, जो सूरत के नए नक्शे से गायब हैं। आपके सामने है कतारगाम इलाके से गायब एक ऐसी ही बस्ती का किस्सा, वैसे यह व्यवस्था के गायब होने का किस्सा भी है : चंद्रकांत भाई रोज की तरह काम पर गए थे, शाम को लौटे तो पूरी बस्ती ही लापता थी। फिर उन्होंने पता किया कि बाकी लोग शहर से बाहर कोसाठ नाम की जगह पर गए हैं। घरवालों से मिलने के लिए उन्हें रिक्शा करके फौरन कोसाठ जाना पड़ा।
15 जून 04’ का यह किस्सा अकेले चंद्रकांत भाई का नहीं है, तब सूरत के बीचो बीच कतारगाम बस्ती के 155 घर शहर की खूबसूरती की भेंट चढे़ थे। बाकी के 55 कच्चे घरों का टूटना भी पक्का है, बस तारीख फाईनल नहीं हुई है। यहां की 2 एकड़ जमीन पर कभी 2,50 घरों की 2,000 आबादी बसती थी। 90 साल पुरानी इस बस्ती की जमीन ने करोड़ों का भाव पार किया तो यहां के असली मालिकों को सस्ते घरों समेत उखाड़ फेंका गया। गायत्री बेन बताती हैं- ‘‘न सूचना दी, न सुनवाई की। वैसे भनक लग गई थी कि खूबसूरती के लिए तालाब फैलेगा, हमारी जगह पिकनिक स्पाट में बदलेगी, पार्किंग और गार्डन को जगह मिलेगी, सुबह-शाम टहलने वालों का ‘स्पेशल-रुट’ बनेगा, बिल्डरों की दुकाने खुलेगी, बस्ती की बजाय मार्केट होगा।...आप तो वहीं से आ रहे हैं, हमारी बातें सच साबित हुईं ना!’’
कोसाठ, जहां हम खड़े हैं, यह कतारगाम से उजड़े रहवासियों का अगला ठिकाना बना। यह कतारगाम से ‘12 किलोमीटर’ दूर, शहर के उत्तरी तरफ का ‘आऊटसाइड’ और नक्शे के हिसाब से ‘बाढ़ प्रभावित’ इलाका है। कौशिक भाई बताते हैं- ‘‘यहां बसाए जाने का विरोध सुनकर महापालिका का अफसर बड़े ठण्डे दिमाग से बोला कि तुम्हें बस्ती बनाने की बजाय ऊंची मंजिलों में रहना चाहिए। बारिश का पानी भरे भी तो दूसरी, नहीं तो तीसरी मंजिल में चढ़ जाना।’’ तारीखे गवाह हैं कि 2004 की बाढ़ से सूरत के 30,000 लोग प्रभावित हुए थे। तब इन्हें न मंजिल नसीब हुई, न जमीन। एक साल बाद महापालिका से जगह (12 गुणा 35 वर्ग फीट/2 लाख) के बदले जगह (माटी के दाम जैसी) तो मिली लेकिन घर के बदले घर नहीं। न ही तोड़े गए लाखों के घरों और हजारों की गृहस्थियों का मुआवजा। एक साथ इनसे बिजली, पानी, नालियां, टायलेट, रास्ते, मैदान, बाजार, आंगनबाड़ी, स्कूल, राशनकार्ड, वोटरलिस्ट के नाम ऐसे छूटे कि अभी तक नहीं लौटे। इनके बगैर भी काम चल जाता, जब काम की छूट गए तो जिंदगी कैसे चले ?
काम छूट गए
‘‘जमीन, घर, गृहस्थी का नुकसान तो सबने देखा। लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान तो बेकारी से हुआ।’’ ऐसा कहना है नरोत्तम महापात्र का, कोसाठ में उनकी तरह ही दर्जन भर औरत-मर्द अपने-अपने ठिकानों के बाहर बैठे हैं। बातों ही बातों में मालूम पड़ता है कि पहले इन्हें ‘कतारगाम इण्डस्ट्रियल एरिया’ के ‘पावरलूम्स’ में दिहाड़ी मजदूरी मिल जाती थी। एक दिन में 1,50 और महीने भर में 3,500 से 4,000 रूपए तो बनते ही थे। कुछ लोग मजदूरों की छोटी-छोटी जरूरतों जैसे चाय, नाश्ता या खाने-पीने के धंधों से जुड़े थे। औरते, घरेलू काम के लिए आसपास की सोसाइटियों में जातीं और महीने भर में 6,00 रूपए कमाती थीं। इस तरह हर घर का हाल-चाल बहुत अच्छा तो नहीं, फिर भी चल रहा था। यहां आकर तो इनकी दुनिया ठहर ही गई है।
अज्जू मियां बताते हैं- ‘‘कतारगाम आओ-जाओ तो 40 रूपए अकेले आटो के। इसके बाद मजदूरी न मिले तो आफत। तब कारखानों के आसपास थे, मजदूरी मिलती ही थी। अब आसपास के दूसरे लोगों को ही रख लेते हैं।’’ यही हाल औरतों का है, घरों में काम करने से जितना (6,00 रूपए) मिलेगा उससे दोगुना तो अब भाड़े (12,00 रूपए) में जाएगा। रक्षा बेन बोली- ‘‘मालकिनों से जरूरत की चीजे और उधार के पैसे तो मिलते थे। यहां तो ऊंचे ब्याज-दर पर पैसे उठाने पड़ते हैं।’’ महीना भर पहले ही हेमंत भाई की बीबी टीबी के चलते खत्म हुईं हैं, उन्होंने ईलाज के लिए 12 रूपए/महीने के हिसाब से 10,000 उठाए थे। एक तो आमदनी नहीं, ऊपर से कर्ज का बढ़ता बोझ। यहां हरके कम से कम 25,000 रूपए का कर्जदार तो बना ही रहता है। इनमें से ज्यादातर ने घर बनाने के लिए कर्ज लिया था, जिसका ब्याज अब तक नहीं छूट रहा है।
राजेश भाई रिक्शा चलाते हैं। उन्होंने अधूरे खड़े घरों का इतिहास बताने के लिए 4 साल पुरानी बात छेड़ी- ‘‘तब 29 दिनों तक तो ऐसे ही पड़े रहे। बीच में जोर की बारिश हुई तो सबने चंदा करके यहां एक टेंट लगवाया। कईयों ने अपने टूटे घरों की लकड़ी, पनी और बांस से अस्थायी घर बनाए, जो भारी बाढ़ में बह गए। मेरी 90 साल की नानी और एक पैर से कमजोर मौसी ने जो तकलीफ झेली उसे कैसे सुनाऊं, बीबी टीबी की मरीज थी, उसे बच्ची को लेकर मायके जाना पड़ा।’’ यहां की हालत देखकर तो लगता है कि कच्चे-पक्के आशियाने एक बार बनने के बाद खड़े नहीं रहते, हर साल की बाढ़ से टूटते, फूटते, गिरते या बहते ही हैं। इस तरह मानसून के साथ आशियाने बनाने और सामान खरीदने की जद्दोजहद जारी रहती है। इस साल भी भारी बूंदों के साथ तबाही के बादल बरसने लगे हैं।
एसएमसी का (स्व)राज
सूरत महापालिका (प्र)शासन तरीके को टीना बेन के किस्से से समझते हैं। 1992 को टीना बेन 14 साल की थी, तब उन्हें घर के सामने खड़ा करके एक स्लेट पर उनका नाम, एनके परिवार वालों का नाम लिखवाकर फोटो ले लिया गया। 2005 को याने ठीक 12 साल बाद जब वह दो बच्चों की मां बनी तो भी उन्हें 1992 की फोटो के हिसाब से घर का मुआवजा मिला। समय के इतने बड़े अंतराल में घर तो क्या बस्ती की पूरी दुनिया ही बदल जाती है, लेकिन नहीं बदलती है तो सूरत महापालिका की मानसिकता।
कतारगाम में किसी का घर 30 तो किसी का 60 फीट की जगह पर था, लेकिन कोसाठ में सभी को 12 गुणा 35 वर्ग फीट के फार्मूले से जगह बांटी गई। अब आप ही बताइए 12 गुणा 35 वर्ग फीट में कोई क्या बनाएगा, जो बनेगा उसे चाहे तो किचन कह लो, नहीं तो टायलेट, बाथरूम, बेडरूम, हाल या गेलरी, कुछ भी कह लो। ऐसी बस्तियों में लम्बे समय से काम करने वाले अल्फ्रेड भाई बताते हैं- ‘‘महापालिका जिन मकानों को तोड़ने की ठान लेती है उनसे टेक्स वसूलना बंद कर देती है। जिससे टेक्स नहीं लिया जाता वह डर जाता है, अगला नम्बर उसका भी हो सकता है! बुलडोजर आने से पहले पुलिस के पास बस्ती में कड़ा विरोध करने वालों की वाकायदा एक लिस्ट होती है। उन्हें डेमोलेशन से पहले ही धर दबोचा जाता है। कुल मिलाकर सूरत में तोड़-फोड़ की ज्यादातर कार्यवाहियों को तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण भरे माहौल में निपटा लिया जाता है।’’
लौटते वक्त नानदीप मिला। इतनी बड़ी बसाहट में अकेला यही लड़का पढ़ने जाता है, वह भी 2 किलोमीटर दूर के एक मंहगे प्राइवेट स्कूल में। 9 वीं में पढ़ने वाले नानदीप ने बताया- ‘‘जिन महीनों में स्कूल की फीस और टेम्पो का पैसा रहता है, उन्हीं महीनों में ही स्कूल जाता हूं। कतारगाम वाले स्कूल (महापालिका) में इतने हाई-फाई बच्चे नहीं थे। लेकिन यहां के बच्चों के साथ बैठने, पढ़ने में अच्छा नहीं लगता। क्लास 6 में वहां मेरी ‘बी’ ग्रेड थी, और यहां ‘सी’।’’ यह है एसएमसी और प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा और सभ्यता के बीच की खाई। नानदीप जैसे बच्चों से खाई भरने की उम्मीद पालना नाइंसाफी होगी।
काहे के कायदे, वायदे
डेमोलेशन की कानूनी लड़ाईयों में उलझने वाले भरत भाई से यह मालूम हुआ कि इस दौरान ‘यूनाईटेड नेशन’ की गाईडलाईन निभानी जरूरी थी। यहां डेमोलेशन के पहले और बाद में ‘मानव-अधिकारों’’ का खुला अपमान हुआ। जिन्हें उखाड़ना था, उनके साथ बैठकर पुनर्वास और राहत की बातें की जानी थी। गाईडलाईन कहती है कि विकलांग, बुजुर्ग और एसटी-एससी को उनके रोजगार के मुताबिक और पुराने झोपड़े के पास ही बसाया जाए। पीड़ित आदमी को पहले पुनर्वास वाली जगह दिखाई जाए, इसके बाद अगर वह मांग करता है तो उसे कोर्ट में जाने का हक भी है। इसके लिए कम से कम 90 दिनों का समय भी दिया जाए। लेकिन सूरत महापालिका ने तो एक भी कायदा नहीं निभाया।
मावजी भाई, 62 साल के दलित नेता है। कतारगाम बस्ती में डेमोलेशन (2004) के वक्त वहीं थे, पुलिस ने उन्हें भी खूब पीटा, दो दिनों तक जेल में भी रखा। मावजी भाई बताते हैं- ‘‘हमारे नामों को अभी तक वोटरलिस्ट में नहीं लाना, संयोग नहीं, एक साजिश है। महापालिका के चुनाव फिर आ गए, ऐसे में हर एक का राजनैतिक वजूद भी तोड़ा गया है।’’ डेमोलेशन के वक्त आप लोग कारर्पोरेटर (महापालिका का मेम्बर) के पास गए थे ?’ मेरे इस औपचारिक भरे सवाल पर ममता आपा अपनी हंसी नहीं रोक सकीं, वह बोलीं- ‘‘गए थे, वह बोला कि बहुत तेज बुखार आया है, उठने में महीना भर तो लगेगा। 5 साल होने को हैं, न उसका बुखार उतरा, न ही कोई विधायक, मंत्री, सांसद इस तरफ आया।
जैसा कि सब जानते हैं महात्मा गांधी को ‘कालेपन’ की वजह से एक रात साऊथ-अफ्रीका में चलती ट्रेन से फेंका गया था। उन्हीं महात्मा को अपना बताने वाले गुजरात के सूरत में हजारों भारतीयों को ‘झोपड़पट्टी-वाला’ होने की वजह से 25 किलोमीटर दूर फेंका गया है। 120 साल पहले हुए अन्याय का किस्सा इतिहास नहीं वर्तमान है, जो भविष्य में भी बार-बार दोहराया जाएगा। हां यह और बात हैं कि कल कतारगाम जैसी बस्तियों का उल्लेख खोजने से भी नहीं मिलेगा। लेकिन शायद कातरगाम के निवासी नहीं जानते हैं कि सूरत चमकाने के लिए कोई न कोई कीमत अदा करता ही है. यहां, इस शहर में यह कीमत उनसे वसूली जा रही है.