24.3.09

घर कहां है ?

शिरीष खरे

23 जनवरी 2009 की रात दुनिया के लिये भले एक सामान्य रात रही होगी लेकिन शांतिनगर, मानखुर्द की नूरजहां शेख के लिए नहीं. आखिर इसी रात तो उनके सपनों का कत्ल हुआ था. अपनी सूनी आंखों से खाली जगह को घुरती हुई नूरजहां अभी जहां बैठी हैं, वहां 23 जनवरी से पहले तक 18 गुणा 24 फीट की झोपड़ी थी, जिसमें एक परदा लगा कर कुल दो परिवारों के तेरह लोग रहते थे.

लेकिन एक लोकतांत्रिक देश की याद दिलाने वाले गणतंत्र दिवस के ठीक 3 दिन पहले ही सारे नियम कायदे ताक पर रख कर नूरजहां शेख की बरसों की जमा पूंजी माटी में मिला दी गयी. 26 जनवरी के 3 रोज पहले सरकारी बुलडोजर ने उनकी गृहस्थी को कुचल डाला. अपनी जीवन भर की कमाई को झटके में गंवाने वाली नूरजहां अकेली नहीं थीं. उस रात मानखुर्द की करीब 1800 झुग्गियां उजड़ीं और 5000 लोगों की जमा-पूंजी माटी में मिल गई.

अंबेडकरनगर, भीमनगर, बंजारवाड़ा, इंदिरानगर और शांतिनगर अब केवल नाम भर हैं, जहां कल तक जिंदगी सांस लेती थी. अब इन इलाकों में केवल अपने-अपने घरों की यादें भर शेष हैं, जिनके सहारे जाने कितने सपने देखे गये थे. आज हज़ारों की संख्या में लोग खुले आकाश के नीचे अपनी रात गुजार रहे हैं. यह बच्चों की परीक्षाओं के दिन हैं लेकिन शासन ने पानी के पाइप और बिजली के खम्बों तक को उखाड़ डाला. इस तरह आने वाले कल के कई सपनों की बत्तियां अभी से बुझा दी गईं.

ताक पर कानून

प्रदेश का कानून कहता है कि 1995 से पहले की झुग्गियां नहीं तोड़ी जाए. अनपढ़ नूरजहां शेख के हाथों में अंग्रेजी का लिखा सरकारी सबूत था. उसे पढ़े-लिखे बाबूओं पर पूरा भरोसा भी था. लेकिन शासन ने बिना बताए ही उसके जैसी हजारों झुग्गियां गिरा दी. नूरजहां की पूरी जिदंगी मामूली जरूरतों को पूरा करने में ही गुजरी है. अपनी उम्र के 50 में से 27 साल उसने मुंबई में ही बिताए. वह अपने शौहर युसुफ शेख के साथ कलकत्ता से यहां आई थी. दोनों 9 सालों तक किराए के मकानों को बदल-बदल कर रहते रहे.

नूरजहां अपने शौहर पर इस कदर निर्भर थीं कि उन्हें मकान का किराया तक मालूम नहीं रहता था. 1995 में युसुफ शेख को बंग्लादेशी होने के शक में गिरफ्तार किया गया. जांच के बाद वह भारतीय निकला. पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में उसके इस बस्ती में रहने का उल्लेख किया.

युसुफ शेख जरी कारखाने में काम करते हुए समय के पहले बूढ़ा हुआ और गुजर गया. तब नूरजहां की जिंदगी से किराए का मकान भी छिन गया. कुछ लोग समुद्र की इस दलदली जगह पर बसे थे. 18 साल पहले नूरजहां भी अपने 6 बच्चों के साथ यही आ गईं.

नूरजहां का पहला बेटा शादी करके अलग हुआ मगर दूसरा उसके साथ है. वह जरी का काम करता है और 1500 रूपए महीने में घर चलाने की भारी जिम्मेदारी निभाता है. उससे छोटी 2 बहिनों ने दसवीं तक पढ़कर छोड़ दिया. आर्थिक तंगी से जूझता नूरजहां का परिवार अब बेहतर कल की उम्मीद भूल बैठा है.

मुश्किल भरे दिन

उस रोज जब 1 बुलडोजर के साथ 10 कर्मचारी और 20 पुलिस वाले मीना विश्वकर्मा की झुग्गी तोड़ने आए तब उसका पति ओमप्रकाश विश्वकर्मा घर पर नहीं था. उस वक्त मीना सहित बस्ती की सारी औरतों को पार्क की तरफ खदेड़ा दिया गया. मीना ने कागज निकालकर बताना चाहा कि उसकी झुग्गी गैरकानूनी नहीं है. 2008 को दादर कोर्ट ने अपने फैसले में उसे 1994 से यहां का निवासी माना है. लेकिन वहां उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं था.

बसंती जैसे ही मां बनी, वैसे ही बस्ती टूटने लगी. उसके यहां बिस्तर, दरवाजा, अनाज के डब्बे और टीवी को तोड़ा गया. पीछे से पति हुकुम सिंह ने सामान निकाला लेकिन गर्म कपड़े और खिलौने यहां-वहां बिखर गए. अब बहुत सारे बच्चे खिलौने और किताबें ढ़ूढ़ रहे हैं. हुकुम सिंह सालों पहले आगरा से सपनों के शहर मुंबई आया था जहां 2005 में उसने बसंती से प्रेम-विवाह किया. अब जब उनके जीवन में सबसे सुंदर दिन आने थे, उसी समय जीवन के सबसे मुश्किल दिनों ने दरवाजे पर दस्तक दे दी. अब बसंती भी बाकी औरतों की तरह खुले आसमान में सोती हैं. ओस की बूदों से उसके बच्चे की तबीयत नाजुक है. उसे दोपहर की धूप भी सहन नहीं होती. इन टूटी झुग्गियों के आसपास मकानों के कई नक्शे दबे रह गए. फिलहाल सस्ती तस्वीरों में दर्ज बेशकीमती कारों वाली हसरतें भी हवा हो चुकी हैं.

बस्ती के लोग याद करते हैं कि सरकारी तोड़फोड़ से पहले विधायक यूसुफ अब्राहीम ने इंदिरानगर मस्जिद में खड़े होकर कहा था कि आपकी झुग्गियां सलामत रहेंगी. लेकिन अतिक्रमण दस्ते ने इंदिरानगर की मस्जिद को तो तोड़ा ही बस्ती के कई मंदिरों को भी तोड़ा.

किस्से सैकड़ों हैं

बस्ती तोड़ने का यह अंदाज नया नही है. पहली बार 1993 में शासन ने करीब 500 झुग्गियां तोड़ने की बात मानी थी. मतलब 1995 के पहले यहां कम-से कम 500 परिवार तो थे ही. सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के मुताबिक 1993 से 2008 तक इस बस्ती को 119 बार तोड़ा गया. लेकिन पिछली कार्यवाहियों के मुकाबले इस कार्यवाही से पूरी बस्ती का वजूद हिला गया है.

समुद्र से लगी भीमनगर की जमीन पर बरसों से बिल्डरों की नजर है. लोग बताते हैं कि 1999 के पहले यह जमीन समुद्र में थी जिसे स्थानीय लोगों ने मिट्टी डालकर रहने लायक बनाया. लेकिन 2001 में खालिद नाम के बिल्डर ने दावा किया कि यह जमीन जयसिंह ठक्कर से उसने खरीदी है. वह झुग्गी वालों को यह जमीन बाईज्जत खाली करने की सलाह भी देने लगा. इसी साल उसकी गाड़ी से एक बच्चे की मौत हुई और वह इस केस में उलझ गया. फिर 2008 में बालकृष्ण गावड़े नाम का एक और बिल्डर आया और दावा किया कि जयसिंह ठक्कर के बेटे से उसने यह जमीन खरीदी है. हालांकि मुंबई उपनगर जिला अधिकारी से मिले पत्र में यह जमीन महाराष्ट्र सरकार की संपत्ति के रुप में दर्ज है.

‘समता’ संस्था की संगीता कांबले बताती हैं- “ 1998 में इस बस्ती का रजिस्ट्रेशन हो चुका है. लेकिन वर्ष 2000 का सर्वे महज 2 दिनों में निपटा लिया गया. जबकि इस दौरान यहां के मजदूर काम पर गए थे और कई झुग्गियां खार में फंसे होने के कारण छोड़ दी गईं थीं. उपर से 2005 में आई मुंबई की बाढ़ इन झुग्गियों में रहने वालों के सारे कागजात बहा ले गई. फिर भी यहां के 75 फीसदी लोगों ने साल 2000 के पहले से रहने के सबूत इकट्ठा किए हैं. ऐसे परिवारों को उनकी झोपड़ियों का पट्टा मिलना चाहिए.”

कब्जे की होड़

“ घर बचाओ-घर बनाओ आंदोलन” ने ‘सूचना के अधिकार’ के तहत जो जानकारियां एकत्र की हैं, उसके अनुसार मुंबई में जगह-जगह बिल्डर और ठेकेदारों का कब्जा है. अट्रीया शापिंग माल महापालिका की जमीन पर बना है. यह 3 एकड़ जमीन 1885 बेघरों को घर और बच्चों को एक स्कूल देने के लिए आवंटित थी.

इसी तर्ज पर हिरानंदानी गार्डन शहर में घोटाला का गार्डन बन चुका है. इस केस में बड़े व्यपारियों को 40 पैसे एकड़ की दर पर 230 एकड़ जमीन 80 साल के लिए लीज पर दी गई.

ऐसा ही इकरारनामा ओशिवरा की 160 एकड़ जमीन के साथ भी हुआ. इसी तरह मुंबई सेन्ट्रल में बन रहा 60 मंजिला टावर देश का सबसे ऊंचा टावर होगा. लेकिन यहां की 12.2 मीटर जमीन डीपी मार्ग के लिए है. यह काम झोपड़पट्टी पुनर्वास योजना के तहत होना है. लेकिन टावर के बहाने गरीबों की करोड़ों रूपए की जमीन घेर ली गई है.

90 के दशक में व्यापारिक केन्द्र के रूप में बांद्रा-कुर्ला कांप्लेक्स तैयार हुआ था. यह मंगरू मार्शेस पर बनाया गया जो माहिम खाड़ी के पास इस नदी के मुंह पर फैला है. यहां 1992 से 1996 के बीच कई नियमों की अनदेखी करके 730 एकड़ जमीन हथियाई गई. आज काम्पलेक्स का कैंपस लाखों वर्ग फिट से अधिक जगह पर फैला हैं. इनमें कई प्राइवेट बैंक और शापिंग माल हैं. मलबार हिल की जो जगह महापालिका थोक बाजार के लिए थी, अब उसे भी छोटे व्यापारियों से छीन लिया गया है.

पूरी व्यवस्था कई तरह के विरोधाभासों से भरी हुई है. मानखुर्द जैसी झुग्गियों में रहने वालों को वोट देने का हक तो है लेकिन आवास में रहने का नहीं. मतलब हर पार्टी सत्ता तक पहुंचने के लिए इनका वोट तो चाहती है लेकिन उसके बदले जीने का मौका नहीं देना चाहती.

लोग मानते हैं कि मुंबई को सिंगापुर बनाने का जो सपना देखा जा रहा है, वह मेहनजकश मजदूरों के बिना पूरा नहीं हो सकता फिर भी शहर के मास्टर प्लान में करोड़ों कामगारों के सपनों को जगह नहीं मिली है. एक अघोषित एजेंडा यह है कि शहर की झोपड़पट्टियों को तोड़कर भव्य मॉल और कॉम्पलेक्स बनाए जाएं. लेकिन सवाल है कि इन इमारतों को बनाने वाले कहां जाए ?
साभार : रविवार.कॉम से
लिंक : http://raviwar.com/news/139_where-is-my-home-shirish-khare.shtml

उठ गये चौसठ हाथ

शिरीष खरे
महाराष्ट्र के जिला बीड़ के मुख्यालय से कोई 110 किलोमीटर दूर है कनाडी गांव. वहां जाने वाली उबड़-खाबड़ सड़क आधे रास्ते पर साथ छोड़ देती है. फिर लोग अपनी सहूलियत से पगडंडियां बनाते चलते हैं. कनाडी से डेढ़ किलोमीटर पहले एक मुहल्ला आता है. एक ऐसा मुहल्ला, जिसके बारे में न तो पहले कभी सुना था, न कभी देखा था. यह तिरूमली मोहल्ला है. कुल 274 लोगों का मोहल्ला.
नंदी बैल पर फटे-पुराने कपड़ों से लिपटी गृहस्थी लटकाना और गाना-बजाना तिरूमली बंजारों की पहचान है. यह दर-दर रोटी मांगकर पेट भरना अपना काम समझते हैं. विभागीय कर्मचारियों के लिए लापता रहने वाले ऐसे नाम मतदाता सूची से नहीं जुड़ते.
तिरूमली बंजारों ने घर, बिजली, पानी, राशन, स्कूल और अस्पताल की बातों पर कभी सोचा ही नहीं. इनकी सुनें तो सोचने से सब मिलता भी नहीं. शासन को नागरिकता का सबूत चाहिए, जो इनके पास है नहीं. इसलिए हक की बात करना नाजायज होगा. गांव वाले इन्हें चार दिन से ज्यादा न तो ठहरते देखते हैं और न ही ठहरने देते. इसलिए इस आबादी का पूरा पता राज्य-सरकार भी नहीं जानती. इस हालत में तिरूमली मोहल्ला होना किसी हेरतअंगेज समाचार जैसा लगता है.
कनाड़ी गांव के तिरूमलियों ने 118 एकड़ बंजर जमीन से बीज उगाए और कानून को पढ़कर पंचायत से कई काम करवाए. यह ऊंची जाति की ज्यादतियों के खिलाफ लम्बे संघर्ष का नतीजा रहा. 1993 में छिड़ी इस लड़ाई को यह लोग आजादी की पहली लड़ाई से कम नहीं मानते. तब 32 जोड़ों के 64 हाथ एक जगह जीने के लिए उठ गए थे.
वोट की राजनीति
यहां घास-फूस से बंधी झोपडियों के मुंह एक-दूसरे से सटे और आमने-सामने है. यह आपसी और घुली-मिली जीवनशैली की ओर इशारा है. इनके पीछे हू-ब-हू वैसी ही झोपड़ियां गाय, कुत्ता और बकरियों के लिए तैयार हैं. इन 15 सालों में तिरूमली परिवारों की संख्या बढ़कर 45 पहुंच चुकी है और हालत ये है कि 9 सदस्यों वाली पंचायत में 3 सदस्य इसी इलाके के हैं.
लेकिन 10 साल पहले स्थिति एकदम उल्टी थी. तब तिरूमलियों का 1 भी वोटर नहीं था, इसलिए उनकी सुनवाई नहीं होती थी. इन दिनों बस्ती के सभी 26 बच्चे पढ़-लिख रहे हैं. 32 परिवारों के हाथ में राशनकार्ड हैं. इनमें से कुछ बीपीएल में भी हैं. अब यह अस्पताल में बीमारियों का इलाज और सहकारी बैंक से लोन ले सकते हैं. बस पास में 50% की छूट भी मिल गई है. लेकिन इन सबसे ऊपर है इज्जत, आत्मनिर्भर और बराबरी की दुनिया में मिलना. कमसे कम ग्राम-सभा का इनकी रजामंदी से चलना यही जाहिर करता है.
'चाईल्ड राईटस एण्ड यू' और 'राजार्षि शाहु ग्रामीण विकास' बीते एक दशक से इस क्षेत्र में तिरूमली, पारधी, भील और सैय्यद मदारी जैसी घुमन्तु जनजातियों के लिए काम कर रही हैं. सामाजिक कार्यकर्ता बाल्मिक निकालजे के मुताबिक- “ दान देने-लेने के रिवाज को कमजोर किए बिना किसी जमात को ताकतवर बनाना नामुमकिन है. इन भटके लोगों को उनका हक देना सरकार का फर्ज है. वोट-बैलेंस की राजनीति से अछूते होने के कारण एक भी पार्टी का ध्यान उनकी तरफ नहीं जाता. तिरूमली जनजाति के लिए हम लड़े. अब वह आगे की लड़ाई खुद लड़ रहे हैं.”
भूरा गायकबाड़ पूरी लड़ाई के मुख्य सूत्रधार हैं. भूरा कहते हैं- “ तब नंदी का खेल दिखा-दिखाकर जिंदगी तमाशा बन चुकी थी. लेकिन हम और हमारी पुरखे कहीं भी जाएं घूम-फिरकर यहीं आते थे. जब कोई गाय-भैंस पेट से होती तो 15 हजार में उसे खरीदकर बड़े बाजार में 25-30 हजार तक में बेच देते. लेकिन बेचने से पहले उन्हें इसी जमीन पर चराते. यहीं से चारे का धंधा भी करते. कोई-न-कोई यहां जरूर बना रहता. मतलब ये कि इस जमीन से हमारा रिश्ता लगातार बना रहा.''
एक नई कहानी
महाराष्ट्र का 'गायरन जमीन कानून' कहता है कि 14 अप्रैल 1991 के पहले तक जो लोग ऐसी जमीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें इसका पट्टा दिया जाए. तिरूमलियों ने संस्था की मदद से इसकी एक अर्जी कलेक्टर को भेजी.
लेकिन सवाल वही था कि आखिर जमीन का किया क्या जाये. एक रोज पत्थरों को हटाकर खेत बनाने का काम तय किया गया.
बाबू फुलमारी के अनुसार- “पत्थर बीनने में ही हालत खराब हो गई. हमारे पास बीज, हल, बैल, कुदाड़ी और फावड़ा नहीं थे. खेत में फसल रोपना या कुदाल या हल चलाना नया काम था. यह सब पड़ोस के खेतों में जाकर सीखा. संस्था की मुहिम से 32 कुदालियां और 64 क्विंटल ज्वार के बीज इकट्ठा हो गए.”
इस तरह हर हाथ के लिए 1 कुदाली और 2 क्विंटल बीज मिले. कड़ी मेहनत के बाद खेत बने और उनके बीच से कुछ रास्ते. लेकिन मुश्किल तो आनी ही थी.
बकौल बाबू फुलमारी “ जुताई को 15 दिन भी नहीं गुजरे कि एक सुबह ऊंची जाति के 500 लोगों ने हल्ला बोला. उनके हाथों में लाठी, सुलई, कुल्हाड़ी और कोयता थे. 60 साल के बापू गायकवाड़ को रस्सी से बांधकर दूर तक खींचा. सबको इतना मारा कि एक भी उठने लायक नहीं बचा.”
लेकिन उसमें से छोटा बच्चा रवि जगताप नजर बचाकर निकल भागा. अब वह बड़ा हो चुका है. उसने बताया- “ भागते-भागते 5 किलोमीटर दूर के शिराठ गांव पहुंचा. वहां से 20 किलोमीटर दूर संस्था के आफिस फोन लगवाकर इस मारपीट की खबर सुनाई. जब तक कार्यकर्ता पुलिस के साथ यहां पहुंचते तब तक घायलों की हालत गंभीर हो चुकी थी. उन्हें जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया.”
इसके बाद 'जाति अत्याचार प्रतिबंध कानून' के तहत केस दायर करके सत्याग्रह छेड़ दिया गया. इसमें बाकी जनजातियों के हजारों लोग शामिल हुए. इससे संगठन की ताकत कई गुना बढ़ी. दबाव में पुलिस ने 7 पिंजरा गाड़ी मंगवायी और करीब 150 आरोपियों को हिरासत में लिया. सभी को जिला मजिस्ट्रेट ने रिमाण्ड पर भेजा और 21 दिनों तक जमानत नहीं दी.
अखबारों ने इन खबरों को चारों तरफ फैला दिया. इससे पूरे इलाकों को कानून का पाठ समझ आ गया. शिराठ गांव के कई दलित तिरूमली मोहल्ला आकर रात को रखवाली करने लगे.
आखिरकार आपसी समझौता हुआ, जिसमें सवर्णों ने फिर कभी न सताने का वादा किया, जिस पर आज तक वो कायम हैं.
हौसला, जज्बा और...
साहिबा फुलमाली कहती हैं- “ हम निडर, ताकतवर, पढ़े-लिखे, अपनी बात पर बोलने और दिल्ली-बम्बई तक लड़ने वाले बन गए हैं.”
उनके साथ बैठे संस्था के समन्वयक सतीश गायकवाड़ की चिंता है कि पिछले 15 सालों की लड़ाई के बाद भी इनके हक की जमीन इनके नाम नहीं हो सकी हैं. अब यही लड़ाई लड़नी और जीतनी है.
“ चाईल्ड राईटस एण्ड यू ” ने स्कूली शिक्षा के लिए यहां 'गैर औपचारिक केन्द्र' खोला. वहां अपनी पढ़ाई शुरु करने वाले बच्चे अब कालेज की दहलीज पर खड़े हैं. वह रमेश और रामा मुलवारी से भी आगे जाना चाहते हैं. तब तीसरी में पढ़ने वाला रमेश फुलमारी अब 'विशेष सुरक्षा बल' में है. इसी तरह रामा फुलमारी राज्य परिवहन बस का कण्डेक्टर है.
जिले के बड़े नक्शे पर तिरूमली मोहल्ला नजर नहीं आता. पूरी तिरूमली आबादी का छोटा सा हिस्सा यहां बसा है. असल में यह बदलाव का एक छोटा उदाहरण भर है. ज्यादातर तिरूमली लोग नंदी बैल के सिर पर महादेव-बाबा की मूर्ति, गले में घण्टी और कमर में रंग-बिरंगा कपड़ा बांधने के बावजूद मटमैली जिंदगी जीते हैं.
बिस्मिल्लाह खां ने जिस 'सवई' को बजाकर देश-विदेश नाम कमाया उसे तिरूमली लोग कई पीढ़ियों से बजाते आ रहे हैं. लेकिन इन्हें न नाम मिला न दाम. मांगी रोटियां मिल-बांटकर खाते हैं. खाने के लिए अन्न नहीं पकाते इसलिए बर्तनों को भी नहीं रखते. बरसात में रेल्वे-पुलों के नीचे सोते हैं. उसके बाद यह 500 किलोमीटर दूर पुना, मुम्बई, सोजारी, उस्मानाबाद, भूम, पारण्डा, शोलापुर और बारसी के इलाकों में भटकते हैं. हर रोज कम से कम 20 से 40 किलोमीटर की यात्रा. इनका हर परिवार 10-15 बच्चों से भरा है. जिन्हें यह कमर, कंधों और सिरों पर ढ़ोते हैं. इससे पैरों में होने वाली तकलीफ बढ़ जाती है.
ऐसे अनगिनत पैरों की तकलीफ दूर करने के लिए 'उठ गए चौसठ हाथ' की कहानी जगह-जगह दोहरानी होगी.
साभार : रविवार.कॉम से लिंक : http://raviwar.com/news/125_tirumali-bid-maharashtra-shirish-khare.shtml

8.3.09

मोनालिसा (ओं) की मुसकान

शिरीष खरे
तीसरी में पढ़ने वाली इशाका गोरे का परिवार महाराष्ट्र के सांगली जिले से है जो गन्नों के खेतों में कटाई के लिए 6 महीनों के लिए बाहर जाता है. इशाका का सपना चौथी में आने का है लेकिन उसके पिता याविक गोरे अगले चार सालों में ही उसकी शादी करना चाहते हैं. मराठवाड़ा के ऐसे कई परिवार अपने बच्चों की शादियां कम उम्र में करते हैं.
यहां जोड़ा (पति-पत्नी) बनाकर काम करने का चलन है. इन्हें लगता है कि परिवार में जितने अधिक जोड़ा रहेंगे, आमदनी उतनी ही रहेगी. फिलहाल इशाका गोरे का सपना काम और किताबों के बीच उलझा है.
सरकार ने लड़कियों के हकों की खातिर `सशक्तिकरण के लिए शिक्षा´ का नारा दिया है. लेकिन नारा जितना आसान है, लक्ष्य उतना ही मुश्किल हो रहा है. क्योंकि देश में इशाका जैसी 50 फीसदी लड़कियां स्कूल नहीं जाती. आखिरी जनगणना के अनुसार भारत की 49.46 करोड़ महिलाओं में से सिर्फ 53.67 फीसदी साक्षर हैं. मतलब 22.91 करोड़ महिलाएं निरक्षर हैं. एशिया महाद्वीप में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है. क्राई के मुताबिक भारत में 5 से 9 साल की 53 फीसदी लड़कियां पढ़ना नहीं जानती. इनमें से ज्यादातर रोटी के चक्कर में घर या बाहर काम करती हैं. यहां वह यौन-उत्पीड़न या दुर्व्यवहार की शिकार बनती हैं. 4 से 8 साल के बीच 19 फीसदी लड़कियों के साथ बुरा व्यवहार होता है. इसी तरह 8 से 12 साल की 28 फीसदी और 12 से 16 साल की 35 फीसदी लड़कियों के साथ भी ऐसा ही होता हैं. `राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो´ से मालूम हुआ कि बलात्कार, दहेज प्रथा और महिला शोशण से जुड़े मुकदमों की तादाद देश में सलाना 1 लाख से ऊपर है.
देश में महिलाओं की कम होती संख्या मौजूदा संकटों में से एक बड़ा संकट है. समय के साथ महिलाओं की संख्या और उनकी स्थितियां बिगड़ती जा रही हैं. जहां 1960 में 1000 पुरुषों पर 976 महिलाएं थीं वहीं आखिरी जनगणना के मुताबिक यह अनुपात 1000:927 ही रह गया. यह उनके स्वास्थ्य और जीवन-स्तर में गिरावट का अनुपात भी है. कुल मिलाकर सामाजिक और आर्थिक संतुलन गड़बड़ा चुका है.
सरकार ने लड़कियों की शिक्षा के लिए तमाम योजनाएं बनायी है. जैसे- घरों के पास स्कूल खोलना, स्कॉलरिशप देना, मिड-डे-मिल चलाना और समाज में जागरूकता बढ़ाना. इसके अलावा ग्रामीण और गरीब लड़कियों के लिए कई ब्रिज कोर्स चलाए गए हैं. बीते 3 सालों में प्राथमिक स्तर पर 2000 से अधिक आवासीय स्कूल मंजूर हुए हैं. `राष्ट्रीय बालिका शिक्षा कार्यक्रम´ के तहत 31 हजार आदर्श स्कूल खुले जिसमें 2 लाख शिक्षकों को लैंगिक संवेदनशीलता में ट्रेनिंग दी गई. इन सबका मकसद शिक्षा व्यवस्था को लड़कियों के अनुकूल बनाना है.
ऐसी महात्वाकांक्षी योजनाएं सरकारी स्कूलों के भरोसे हैं. लड़कियों की बड़ी संख्या इन्हीं स्कूलों में हैं. इसलिए स्कूली व्यवस्था में सुधार से लड़कियों की स्थितियां बदल सकती हैं. लेकिन समाज का पितृसत्तात्मक रवैया यहां भी रूकावट खड़ी करता है. एक तो क्लासरुम में लड़कियों की संख्या कम रहती है और दूसरा उनके महत्व को भी कम करके आंका जाता है. हर जगह भेदभाव की यही दीवार होती है. चाहे पढ़ाई-लिखाई हो या खेल-कूद, लायब्रेरी हो लेबोरेट्री या अन्य सुविधाओं का मामला. दीवार के इस तरफ खड़ी भारतीय लड़कियां अपनी अलग पहचान के लिए जूझती है. हमारा समाज भी उन्हें बेटी, बहन, पत्नी, अम्मा या अम्मी के दायरों से बाहर निकलकर नहीं देखना चाहता. दरअसल इस गैरबराबरी को लड़कियों की कमी नहीं बल्कि उनके खिलाफ मौजूद हालातों के तौर पर देखना चाहिए. `अगर लड़की है तो उसे ऐसा ही होना चाहिए´ ऐसी सोच उसके बदलाव में बाधाएं बनती हैं.
एक तरफ स्कूल को सशक्तिकरण का माध्यम माना जा रहा है और दूसरी तरफ ज्यादातर स्कूल औरतों के हकों से बेपरवाह हैं. पाठयपुस्तकों में ही लिंग के आधार पर भेदभाव की झलक देखी जा सकती है. ज्यादातर पाठों के विशय, चित्र और चरित्र लड़कों के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं. इन चरित्रों में लड़कियों की भूमिकाएं या तो कमजोर होती हैं या सहयोगी. ऐसी बातें घुल-मिलकर बच्चों के दिलो-दिमाग को प्रभावित करती हैं. फिर वह पूरी उम्र परंपरागत पैमानों से अलग नहीं सोच पाते.
कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जिनकी गली, मोहल्लों और घरों में महिलाओं के साथ मारपीट होती है. इसके कारण उनके दिलो-दिमाग में कई तरह की भावनाएं या जिज्ञासाएं पनपती हैं. लेकिन स्कूलों में उनके सवालों के जबाव नहीं मिलते. जबकि ऐसे मामलों में बच्चों को जागरूक बनाने के लिए स्कूल मददगार बन सकता है. दरअसल हमारी शिक्षा प्रणाली में ही अभद्र भाशा, पिटाई और लैंगिक-भेदभाव मौजूद है. इसलिए स्कूलों के मार्फत समाज को बदलने के पहले स्कूलों को बदलना चाहिए.
उस्मानाबाद जिले के एक हेडमास्टर सतीश बाग्मारे (बदला नाम) ने फरमाया कि- ``लड़कियों की सुरक्षा के लिए चारों तरफ एक दीवार होना जरूरी है.´´ दीवारों को बनने के बाद हो सकता है उन्हें गार्डों की तैनाती जरूरी लगने लगे. हमारा स्कूल उस समाज से घिरा है जहां लड़कियों को सुरक्षा के नाम पर कैद करने का रिवाज है. आज भी ज्यादातर लड़कियों के लिए िशक्षा का मतलब केवल साक्षर बनाने तक ही है. बचपन से ही उनकी शिक्षा का कोई मकसद नहीं होता. लड़कियों को बीए और एमए कराने के बाद भी उनकी शादी करा दी जाती है. इसलिए लड़कियों की शिक्षा को लेकर रचनात्मक ढ़ंग से सोचना जरूरी है.
गांधीजी ने कहा था-``एक महिला को पढ़ाओगे तो पूरा परिवार पढ़ेगा´´ उन्होंने 23 मई, 1929 को `यंग इण्डिया´ में लिखा-``जरूरी यह है कि शिक्षा प्रणाली को दुरूस्त किया जाए. उसे आम जनता को ध्यान में रखकर बनाया जाए.´´ गांधीजी मानते थे-``ऐसी शिक्षा होनी चाहिए जो लड़का-लड़कियों को खुद के प्रति उत्तरदायी और एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना पैदा करे. लड़कियां के भीतर अनुचित दबावों के खिलाफ विद्रोह पैदा हो. इससे तर्कसंगत प्रतिरोध होगा.´´ इसलिए महिला आंदोलनों को तर्कसंगत प्रतिरोध के लिए अपने एजेण्डा में `लड़कियों की शिक्षा´ को केन्द्रीय स्थान देना चाहिए. महिलाओं की अलग पहचान के लिए भारतीय शिक्षा पद्धति, शिक्षक और पाठयक्रमों की कार्यप्रणाली पर नए सिरे से सोचना भी जरूरी है.