29.4.09

किसकी मुंबई ?

शिरीष
खरे
मुंबई मेहनतकश मजदूरों की बदौलत चलती है. जिस रोज उन्होंने अपना हाथ रोका, यह शहर भी रूक जाएगा. इतनी अहम हिस्सेदारी होने के बावजूद उनकी जिंदगी मलिन बस्तियों में गुजरती है. क्योंकि देश की पूरी तरक्की खास शहरों को केन्द्र में रखकर हुई इसलिए कई दलित, आदिवासी, मछुआरा, कामगार और कारीगर अपने माहल्लों से उजड़कर यहां आए.
लेकिन अमीर खानदान उन्हें `अतिक्रमणदार´ कहते हैं. ऐसा कहते वक्त गंदगी का एहसास उनके चेहरे पर आकर सिकुड़ जाता है. जबकि सच यह है कि आखा मुंबई पर बिल्डर, ठेकेदार और माफिया के गठजोड़ का राज है.जिन्होंने समुंदर के किनारों और रास्तों को गैरकानूनी तरीके से हथिया लिया है. 10/12 की लाखों झुग्गियां तोड़ने वाली सत्ता का ध्यान इस तरफ नहीं जाता. महाराष्ट्र या बाकी राज्यों से आए गरीब लोग मुंबई के दुश्मन नहीं होते. जिन लोगों की वजह से मुंबई अस्त-व्यस्त आता हैं उनके काले कारनामों पर रोशनी डाली जानी चाहिए.
अट्रीया शापिंग माल महापालिका की जमीन पर बना है. यह 3 एकड़ जमीन 1885 बेघरों को घर और बच्चों को एक स्कूल देने के लिए आवंटित थी. लेकिन बिल्डर ने गरीबों का हक मारकर अपना कारोबार तो खड़ा किया ही कई कानूनों को भी तोड़ा. इसी तर्ज पर हिरानंदानी गार्डन मुंबई में घोटाला का गार्डन बन चुका है. इस केस में शहर के बड़े व्यपारियों को 40 पैसे एकड़ की दर पर 230 एकड़ जमीन को 80 साल के लिए लीज पर दिया गया. ऐसा ही एक और इकरारनामा ओशिवरा की 160 एकड़ जमीन के साथ भी हुआ. इसके अलावा दो और घटनाओं पर गौर कीजिए. पहले जमीन सीलिंग कानून का रद्द होना और उसके बाद कुछ अमीरों का 3000 एकड़ जमीन पर राज चलना. यह दोनों बातें एक-दूसरे से अलग-थलग नहीं बल्कि काफी घुली-मिली लगती हैं.
मुंबई सेन्ट्रल में तैयार हो रहा 60 मंजिला टावर देश का सबसे ऊंचा टावर होगा. जो आप नहीं जानते वह है इससे जुड़ा घोटाला. यह टावर से भी ऊंचा है. सूचना के हक से मिली जानकारी के मुताबिक यहां की जमीन 12.2 मीटर डीपी मार्ग के लिए आरक्षित है. यह काम झोपड़पट्टी पुर्नवास योजना के तहत होना है. साफ है कि टावर के बहाने शहर के अमीर लोगों ने करोड़ रूपए की जमीन घेर ली है. लेकिन इससे भी ज्यादा हेरतअंगेज मामला यह है कि सड़क के ऊपर हुआ इतना बड़ा अतिक्रमण किसी को नजर नहीं आता.
1976 में सरकार ने शहर की खाली जमीन को बचाने और समुदाय की भलाई के लिए `शहरी जमीन कानून´ बनाया था. लेकिन यह कानून मौलिक तौर पर कभी अमल में नहीं लाया गया. लगता है शहरी जमीनदारों ने ही इसका फायदा उठाया है. इसलिए तो कुछ खानदानों ने ऐसी करीब 15000 एकड़ से अधिक जमीन को अपना बना लिया. इसी तरह सार्वजनिक जमीनों का निजी इस्तेमाल भी हो रहा है. जैसा कि नगर योजना विभाग लिखता है कि `मुंबई की जमीन का इस्तेमाल विकास योजना के तहत जाना और माना गया है.´ इसलिए विकास योजना मे उन्हें हर बार गरीब का झोपड़ा ही बाधक लगता है. बार-बार ऐसी बस्तियां ही टूटती हैं.
सूचना के हक से मिले कागजात दर्शाते हैं कि पिछले दो सालों में, महाराष्ट्र शासन ने 60 जगहों के आरक्षण या तो बदलें या काटे. और उनमें से कई प्राइवेट बिल्डरों को ऊंची इमारत बनाने के लिए दिए. पिछले 15 सालों में स्कूल, अस्पताल, गार्डन और ग्राउण्ड के लिए रखी कुल जमीन में से एक-तिहाई ही प्राप्त की है. इसी प्रकार 281 जगहों में से महज 3 सार्वजनिक आवास के लिए, 925 जगहों में से 48 स्कूलों के लिए और 379 जगहों में से केवल 1 अस्पताल के लिए रखी है. बाकी की जमीनों का जिक्र नहीं मिलता है.
सूचना के हक से मिली जानकारी के आधार पर यह जाहिर होता है कि- ``मंडल ने मुंबई की सैकड़ों एकड़ जमीन कुछ गिने-चुने लोगों को सौंपी है. दूसरी तरफ पिछले कई सालों से गरीब के भाड़े की जमीन रूकवाई है. कुछ असरदार लोगों ने भाड़े की नई जगहों को लिया है. उन्होंने पुराने भाड़ों के इकरारनामों को या तो नया बनवाया या बढ़वाया है. मंडल ने करीब 10,000 वर्ग मीटर जगह भाड़े से दी हैं. इसका बाजार भाव सलाना 1700 रूपए प्रति वर्ग मीटर है लेकिन मंडल ने 106 रूपए प्रति वर्ग मीटर से भाड़ा लगाया. इससे उसे कुल 48 करोड़ रूपए का घाटा हुआ.
मुंबई के लोगों ने कपड़ा मीलों को बंद होते देखा है. इस बेकारी के बीच मिलों की जमीनों को बेचा गया. इसमें एक के बाद एक घपले हुए. उनमें से एक घपला 2005 का है जिसमें एनटीसी ने ज्युटीपर मिल को 11 एकड़ जमीन बेची. एनटीसी ने जब जमीन बेचने के लिए भाव मंगवाए तब टेण्डर में घोषित किया था कि एमएसआय करीब 6.4 लाख वर्ग फिट रहेगा. इस आधार पर इण्डियाबुल्स ने 276 करोड़ रूपए लगाए. लेकिन मिल की जमीन लेने पर एमएसआय दुगुना हुआ. कानून के हिसाब से देखा जाए तो `शहरी जमीन कानून की धारा 26´ के मुताबिक जमीन बेचने से पहले मंडल से इजाजत लेनी जरूरी थी. लेकिन यह जमीन बिना इजाजत बेची गई. ऐसे ही घपले कर शहर के बीचोंबीच करीब 600 एकड़ जमीन पर माल, शापिंग काम्लेक्स, बंग्ले और प्राइवेट आफिस बनाए जा रहे हैं. उन्होंने मीठी नदी को भी नहीं छोड़ा. 90 के दशक में व्यापारिक केन्द्र के रूप में बांद्रा-कुर्ला काम्प्लेक्स तैयार हुआ था. यह मंगरू मार्शेस पर बनाया था जो माहिम खाड़ी के पास इस नदी के मुंह पर फैला है. यहां 1992 से 1996 के बीच कई नियमों की अनदेखी करके 730 एकड़ जमीन बनाई गई. आज काम्पलेक्स की जगह लाखों वर्ग फिट से अधिक फैली हैं जिनमें कई प्राइवेट बैंक और शापिंग माल्स बस गए हैं. इन बिल्डरों ने फेरीवालों की जमीनों पर कब्जा किया. मलबार हिल की जो जगह महापालिका थोक बाजार के लिए आरक्षित थी उसे छोटे व्यपारियों से छीन लिया गया है.

28.4.09

कहां है पारधी ?

शिरीष खरे
पारधी
एक बंजारा जमात का नाम है. उसके माथे पर जन्मजात गुनहगार होने का कलंक लगा है. उसे अपनी पहचान बदलने के लिए मौका चाहिए. देश चुनाव से बनता है. लोग वोट से अपनी किस्मत बदलते है. फिलहाल चुनाव-2009 की हवा है. लेकिन पारधी जैसे बंजारा लोग नहीं दिखते. वह मराठवाड़ा के जंगलों में भटक रहे हैं. यहां कुल वोटर में से करीब 3 प्रतिशत बंजारा है. लेकिन आजादी के 62 सालों के बाद भी कई बंजारों के नाम वोटरलिस्ट से नहीं जुड़ सके हैं. इसलिए कोई भी पार्टी या नेता उनके पास क्यों जाएगा ?
पारधी याने मिथ, इतिहास और परंपराओं में जकड़ी एक ऐसी जमात जिसे अंग्रेजों ने ‘अपराधिक जनजाति अधिनियम 1871’ के तहत सूचीबद्ध किया था. अंग्रेज चले गए लेकिन धारणाएं नहीं गईं. तभी तो पारधी लोग गांव से बेदखल हैं. इसलिए उन्हें अपने बुनियादी हक नहीं मिल सके हैं. इसीलिए उनके हिस्से में घर, बिजली, पानी, राशन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं.
पारधी पारध शब्द से बना. पारध का मतलब शिकार से हुआ. इस तरह पारधी याने शिकार करने वाला. पारधी भी कई तरह के होते हैं. जैसे राज, बाघरी, गाय, हिरन शिकारी और गांव पारधी. राजा के पास जो शिकार करने वाला विशेषज्ञ था वह राज पारधी कहलाया. जब राजा बोलता कि मुझे बाघ पर सवार होना है तो बाघरी पारधी बाघ पकड़ता और उसे पालतू बनाता. एक तो बाघ को जिंदा पकड़ना और उसे लाकर पालतू बनाना बहुत मुश्किल काम होता है.
गाय पारधी का मुख्य वाहन गाय है. आज भी हर परिवार के पास एक गाय होना जरूरी है. यह गाय प्रशिक्षित होती है. यह पारधी के शिकार के धंधे की मां होती है. इसलिए पारधी गाय का मांस नहीं खाता. एक पारधी के लिए हिरन के पीछे दौड़कर मारना मुश्किल होता है. इसमें वह गाय की मदद लेता है. वह ऐसी गाय बाजार से खरीदने की बजाय अपनी ही गाय से पाता है. हिरन के शिकार के वक्त जब गाय चरती हुई आगे बढ़ती है तब उसके पीछे पारधी छिपा आता है. हिरन के पास आते ही पारधी उसके ऊपर अचानक छलांग मारता है. पारधी की गाय शिकार की सारी शैलियां जानती है.
उसकी गाय इतनी सीखी होती है कि शरीर के जिस हिस्से में हाथ रखो तो वह समझ जाती है क्या करना है. कहते हैं कि पारधी पंछियों की बोली भी खूब जानता है. जैसे पारधी के तीतर जब दूसरे तीतरों को गाली देते हैं तब जंगल के कई तीतर लड़ने के लिए आते हैं. लेकिन वह बीच में लगे जाल में फंस जाते हैं. इस तरह शिकार के और भी कई ढ़ंग हैं.
पारधी शिकार के बारे में सबसे ज्यादा जानकारी रखने वाली जमात है. वह दुनिया की सबसे ईमानदार जमातों में से एक है. इसलिए वह राजा के सुरक्षा सलाहकार भी बनते थे. जिसे आज की जुबान में एनएसजी कमाण्डो कह सकते हैं. आज भी एक पारधी गांव के 25 से 50 खेतों की रखवाली करता है. सारे पारधी मिलकर एक-दूसरे के खेतों में नहीं जाने का उसूल बनाते हैं. किसी के खेत में चोरी हुई तो उस खेत का पारधी नुकसान की भरपाई करता है. वह अपने खुफिया नेटवर्क से चोरी का पता लगा लेता है. इस मामले को जाति पंचायत में उठाता है.
गांव के पारधी को रखवाली के बदले सलाना अनाज मिलता है. इस लिहाज से पारधी गांव की अर्थव्यवस्था में अहम कड़ी है. पारधी का रहन-सहन उसके धंधे के मुताबिक होता है. वह कमर में छोटी और कसी हुई धोती पहनता है. उसकी छाती पर कई पाकेट वाली बण्डी और सिर पर रंग-बिरंगी पगड़ी होती है. इनका पहनावा ऐसा होता है कि दौड़-भाग करने पर आवाज नहीं आए.
क्योंकि पारधी जमात नागरिकों की रखवाली का काम करती है. इसलिए उसने गुलामी के खिलाफ पहली उग्र प्रतिक्रिया भी दी थी. मराठवाड़ा के पारधियों ने पहले निजाम और फिर अंग्रेजों से कई लड़ाईयां लड़ी. पारधियों की वीरता के हिस्से स्थानीय जनता की जुबान पर हैं. अंग्रेज जब पारधियों की छापामार और बार-बार के हमलों से परेशान हो गए तो उन्होंने इस जमात को ‘गुनहगार’ घोषित कर दिया. उन्होंने ‘अपराधिक जनजाति अधिनियम 1871’ के तहत सभी पारधियों को गुनहगार कह डाला. 1947 को आजादी आयी और अपनी सरकार का पुलिस विभाग बना. लेकिन तरीका अंग्रेजों के जमाने का ही चला.
1924 को देश में 52 गुनहगार बसाहट बनाये गए थे. महाराष्ट्र के शोलापुर में सबसे बड़ी गुनहगार बसाहट बनी. इसमें तार के भीतर कैदियों को रखा जाता था. 1949 को बाल साहेब खेर और उनके साथियों ने शोलापुर सेटलमेंट का तार तोड़ डाला. 1952 को डा. बी. आर. अंबेडकर ने गुनहगार घोषित करने वाले कानून को रद्द किया. 1960 को जवाहरलाल नेहरू ने शोलापुर दौरा किया. लेकिन यहां आज भी चोरी हुई तो पुलिस सबसे पहले पारधी को ही पकड़ती है. इसलिए यहां सबसे पहला सवाल उनकी पहचान को लेकर हाजिर है.
देखा जाए तो पारधी चोर नहीं इंसान है. अगर वह चोर है भी तो उन्हें चोरी के दलदल से बाहर निकालना होगा. इसमें समाज और पुलिस की भूमिका अहम हो सकती है. लेकिन समाज और पुलिस की व्यवस्था उसे चोर से ज्यादा कुछ नहीं मानती. पहली जरूरत उनके भीतर के डर को खत्म करना है. इसके लिए आपसी एकता, कानून और वोट को हथियार बनाना होगा. तभी जमीन और आजीविका का हक मिलेगा.
एक शिक्षित और जागरूक समाज ही व्यवस्था की खामियों के खिलाफ लड़ सकता है. इसलिए पारधी जमात के बच्चों को एक सपना देना होगा कि पुलिस या समाज तुम्हारे पीछे नहीं है. वह तुम्हारे साथ-साथ है. ऐसा सपना देखने वाले बच्चों को स्कूलों में तैयार करना होगा. उनकी खेल, सांस्कृतिक और बौद्धिक प्रतिभाओं को मौका देना होगा. दरअसल पारधी जमात की पहचान उन्हें कुशल बनाकर ही बदली जा सकती है.
चुनाव सबकी भागीदारी का संदेश देता है. लेकिन कई बंजारों को वोट डालने की इजाजत नहीं देता. सत्ता के विकेन्द्रीकरण और पुलिस सुधारों की बातें तो होती है. लेकिन पारधियों के ऊपर होने वाली बर्बरताएं नहीं गूंजती. चुनाव के बाद बहुत सारे मुद्दों को भुला दिया जाता है. लेकिन पारधियों की परेशानियों को तो चुनाव में भी याद नहीं किया जाता. इसलिए चुनने की आजादी का हक पाए बगैर पारधियों की हर लड़ाई अधूरी ही रहेगी.
साभार : विस्फोट.कॉम
लिंक : http://www.visfot.com/index.php/story_of_india/875.html

22.4.09

आपका वोट और बच्चों की जीत

शिरीष खरे
यह चुनाव का वक्त है और हर पार्टी का उम्मीदवार वोटर को अपनी तरफ खींचना चाहता है. लेकिन बच्चों से जुड़ा एक भी नारा नहीं गूंजता. ऐसे में चाईल्ड राईटस् एण्ड यू याने क्राई ने बच्चों के हक को मुद्दा बनाया है. क्राई ने बच्चों के हक के लिए चार्टर तैयार किया है. इस चार्टर में बच्चों की शिक्षा पर जीडीपी का 10 प्रतिशत और स्वास्थ्य पर 7 प्रतिशत हिस्सा खर्च करने की मांग हुई है.
लोकतंत्र है तो चुनाव है और चुनाव है तो वोट. किसी पार्टी की ताकत उसका वोट-बैलेंस है. हर पार्टी का एजेंडा उसके वोट-बैलेंस के घटने-बढ़ने में खास भूमिका निभाता है. लेकिन बच्चे 18 साल के नहीं होते इसलिए वोट नहीं देते. इसलिए एक भी पार्टी को इस 40 करोड़ आबादी की फ्रिक नहीं रहती. इस बार क्राई ने आपके वोट से बच्चों के जीत की उम्मीद जतायी है. संस्था की इला डी हुक्कू ने बताया- ‘‘हम और हमारे सहयोगी चुनाव के उम्मीदवारों से सीधा संपर्क कर रहे हैं. हम उन्हें इस चार्टर के बारे में बता रहे हैं. हम यह भी देख रहे हैं कि उम्मीदवारों के पास बच्चों के मुद्दे हैं भी या नहीं.’’
क्राई के ही दीपांकर मजूमदार ने कहा- ‘‘हम चाहे उम्मीदवार बने या मतदाता, हमारी जिम्मेदारी है कि हम देश की एक चौथाई आबादी के मुद्दों को पोलिटिकल एजेंडों में शामिल करें. इस तरह बच्चों को उनके बचपन से जुड़े सभी हक मिल सकेंगे.’’
क्राई मानता है कि हर साल 1,000 शिशुओं में से 70 की मौत हो जाती है. 5 साल से कम उम्र का हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार बन रहा है. 52 प्रतिशत बच्चों के नाम स्कूलों से गायब हैं. बच्चों के हितों का प्रतिनिधित्व बच्चों की बजाय बड़ों के हाथों में होता है. इसलिए आपका वोट बच्चों की आवाज बुलंद कर सकता है. आपका एक फैसला बच्चों को स्कूलों का रास्ता दिखा सकता है. वह अपनी पढ़ाई पूरी कर सकते हैं. उन्हें सम्मान से जीने का वादा मिल सकता है. उन्हें श्रम, शोषण और तस्करी से छुटकारा मिल सकता है. इस तरह आप बच्चों को शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, सुरक्षा, भोजन और खेलने का हक पाने में मददगार बन सकते हैं.
बाल हक चार्टर में
बच्चा होने की एक ही परिभाषा हो. इसमें 18 साल से कम उम्र के सभी लोगों को बच्चा माना जाए. इससे बच्चों पर असर डालने वाली सभी नीतियों और कानूनों में असंतुलन नहीं रहेगा. बच्चों की शिक्षा पर जीडीपी का 10 प्रतिशत और स्वास्थ्य पर 7 प्रतिशत हिस्सा खर्च हो. 6 से 18 साल तक के बच्चों को पड़ोस के स्कूलों में दाखिला मिले. 6 साल से कम उम्र के बच्चों को आंगनवाडी की सुविधा हो. बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का हक देने वाले बिल में जरूरी फेरबदल हो. इससे बच्चों की शिक्षा की मूल भावना साकार हो सकेगी. शिक्षा में निजीकरण बंद हो. सभी प्राइमरी स्कूलों में बेहतर गुणवत्ता का मिड-डे-मिल दिया जाए. इसमें स्कूल न जाने वाले बच्चों को भी जोड़ना होगा. इसे पूरे साल चलाया जाए.
कृषि सहित सभी क्षेत्रों में हर प्रकार की बाल-मजदूरी को पूरी तरह रोका जाए. बाल-मजदूरों और कामकाजी बच्चों को औपचारिक शिक्षा में लाया जाए. घरों में काम-काज और बच्चों की देखभाल करने वाली लड़कियों पर खास ध्यान दिया जाए. नेशनल चाईल्ड पोलिसी (1974) की दोबारा समीक्षा की जाए. संविधान और संयुक्त राष्ट्र के बाल हक कन्वेंशन के मुताबिक इसका दायरा बढ़ाया जाए. भोजन की सुरक्षा और उसके अधिकारों की बात करने वाली नीति लागू हो. ऐसे कानून बनाए जाएं जिससे कोई बच्चा कुपोषण का शिकार न बने. गरीबी रेखा को तय करने वाले पैमानों पर दोबारा सोचा जाए. पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम में गरीबों को अनाज देने वाले पैमानों पर भी दोबारा सोचा जाए. बच्चों के यौन शोषण और उनकी तस्करी रोकने के लिए असरदार कानून हो. विकलांग बच्चों को भी बराबरी से जीने के मौके मिलें.
बाल हक से जुड़े मुद्दे
विस्थापन बच्चों के विकास को रोकता है। इससे शोषण की आशंकाएं पनपती हैं. इसलिए कमजोर तबकों का विस्थापन और असंतुलित विकास को रोका जाए. कमजोर तबकों की जमीन बचाने के लिए सेज एक्ट-2005 में बदलाव हो. पुनर्वास की बेहतर नीति बनायी जाए. शहरी गरीबों के लिए आवास का हक कारगर ढ़ंग से लागू करने के लिए जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन का फिर से गठन किया जाए. इसमें निजीकरण पर जोर देने की बजाए सरकार को विकास की जबावदारी खुद लेनी होगी.
भूमि सुधार की ऐसी नीतियां अपनायी जाएं जिससे माईग्रेशन रूके. इससे बच्चों को अपने समुदाय और क्षेत्रों में ही विकास के मौके मिलेंगे. तटीय इलाकों के रहवासियों के पंरपरागत हकों को बचाने के लिए कोस्टल जोन मैनेजमेंट-2006 को हटाया जाए. इसके बदले कोस्टल जोन रेगूलेशन-1991 को अपनाया जाए. जनजातियों को वनों के इस्तेमाल का हक देने के लिए वनवासी एक्ट-2006 को लागू किया जाए. पेट्रोलियम, केमीकल एण्ड पेट्रोकेमीकल इन्वेस्ट एरिया एक्ट-2003 को हटाया जाए. हरेक के लिए घर, रोजगार और समान वेतन तय हो. इससे बच्चों के हक सुरक्षित होंगे. गरीब किसानों के लिए कृषि-नीति पर दोबारा सोचा जाए. असंगठित मजदूरों सहित सभी को सामाजिक सुरक्षा दी जाए. सांप्रदायिकता का विरोध हो और हर हाल में मानवीय हकों को बचाया जाए.
क्राई का नेटवर्क
क्राई का एक बड़ा नेटवर्क होने से इस केम्पेन को बढ़ावा मिल रहा है. क्राई पिछले 30 सालों से गरीब बच्चों और उनके समुदाय से जुड़ा रहा है. यह 18 राज्यों के 5,000 गांव और झुग्गियों में काम कर रहा है. यह लिंग, जाति, आजीविका और विस्थापन की तह तक जाता है. यह भूख, गरीबी, बेकारी, शोषण और अत्याचार से लड़ता है.
क्राई ने 2006-07 को 5,250 गांवो और बस्तियों के 4,97,343 बच्चों के साथ काम किया. क्राई ने समुदाय के साथ बंद पड़े 143 प्राइमरी स्कूलों को दोबारा चालू किया. क्राई ने शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए लगातार जोर दिया. इसका नतीजा है कि 192 प्राइमरी स्कूलों में 1 भी बच्चा ड्रापआउट नहीं हो सका. क्राई ने 317 पंचायत शिक्षा समितियों को सक्रिय बनाया. 22,736 बच्चों को प्राइमरी स्कूलों तक लाकर शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ा. इसलिए अबकि चुनाव में बच्चों के हक को मुद्दा बनाते ही क्राई को भरपूर समर्थन मिलने लगा है.

20.4.09

बाल हक के लिए फोटोग्राफी मंच

मुंबई। ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ ने फोटो और उसके पीछे छिपी कहानियों को बाल-हक अभियान से जोड़ने के लिए फोटोग्राफी मंच बनाया है जिसमें इस क्षेत्र के पेशेवर और शौकिया फोटोग्राफर शामिल होंगे. इस दिशा में दिलचस्पी रखने वाले हर फोटोग्राफर को कार्यशाला में आने का मौका मिलेगा. हर चुनिंदा फोटोग्राफ मीडिया सामग्री के लिहाज से अहम होगा. फोटोग्राफी के आधार पर लेख, फीचर और कविताएं लिखे जा सकते हैं. इस तरह फोटोग्राफी को प्रचार योजनाओं का हिस्सा मानकर ज्यादा से ज्यादा असरदार बनाया जा सकेगा.

‘वालिन्टियर विभाग’ की हावोवी वाडिया ने बताया कि- ‘‘हम ऐसे समूह बना रहे हैं जहां लोग अपने फोटाग्राफी के हुनर को बच्चों की स्थिति दर्शाने में इस्तेमाल करें. इसी कोशिश के तहत एक ऑनलाइन फोरम भी बनाया जाएगा. इसमें फोटो और उससे जुड़ी आलोचना, टिप्पणी, शूटिंग के अनुभव और मुद्दों पर बातचीत की जाएगी.’’

फिलहाल देश के 6 पेशेवर फोटोग्राफर सैमित्र भट्टाचार्य, सौमिक कर, राहुल चिटेल्ला, फ्रेडरिकनोरोन्हा, अतुल लोके, विद्या कुलकर्णी और निवेदन मंगलेश ने जरूरी संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी ली है. सैमित्र भट्टाचार्य ने बताया कि- ‘‘मैं इस क्षेत्र में काफी वक्त से काम कर रहा हूं लेकिन इस तरह की पहल को कभी होते नहीं देखा. यह मंच शौकिया फोटोग्राफर को भी जगह दे रहा है. इससे जुड़ना सभी के लिए नया अनुभव होगा. जल्दी ही अच्छे नतीजे मिलेंगे. ’’

सौमिक कर के मुताबिक- ‘‘जो बात एक तस्वीर कहती है वह हजार शब्द नहीं कह पाते. कैमरा लोगो के जज्बात को ज्यों का त्यों कैद करता है. वह जन-जन तक पहुंचने का आसान रास्ता भी है. मीडिया के इस हथियार को अलग-अलग ढ़ंग से इस्तेमाल किया जाता है. कई फोटोग्राफर अपने हुनर से अंधियारी सच्चाईयों को रोशन करते हैं. इनमें से कुछ फोटोग्राफर बच्चों की बेहतर दुनिया बनाने में भरोसा रखते होंगे. हमें ऐसे ही दोस्तों की तलाश है.’’

बच्चियों के हक के लिए माइक्रोसाइट


‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ ने बच्चियों के साथ भेदभाव के खिलाफ जागरूकता लाने के लिए cry4girls.cry.org नाम से एक माइक्रो साइट जारी की है. इसके तहत बच्चियों की अपनी पहचान न उभर पाने के पीछे छिपे असली कारणों को सामने लाया जाएगा.




यह साइट बच्चियों को बहन, बेटी, पत्नी या मां के दायरों से बाहर निकलकर उन्हें सामाजिक भागीदारिता के लिए प्रोत्साहित करेगी. इसमें आम लागों के लिए चार्टर तक पहुँचने और ब्लाग पर अपनी कहानी भेजने की सुविधा होगी. साथ ही लेख, कार्यक्रम, अभियान और अन्य गतिविधियों के जरिए अहम जानकारियो भी दी जाएगी.





यह माइक्रोसाइट लिंग-अनुपात में असंतुलन की वजह और बच्चियों के प्रति सामाजिक धारणा को समझने में मदद करेगी. भारत में 6-14 साल तक के सभी बच्चों को निःशुल्क शिक्षा प्राप्त है. इसके बावजदू 51 प्रतिशत लड़िकयां आठवीं कक्षा तक पहुचंते-पहचुंते स्कूल जाना बंद कर देती हैं.




सर्वेक्षणों से निकले ज्यादातर तथ्यों में भी लडक़ों के मुकाबले लड़िकयों की हालत बदतर पायी गई है। ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ से संगीता कपिला ने बताया कि- ‘‘इस गैरबराबरी को बच्चियों की कमी नही बल्कि उनके खिलाफ मौजदू स्थितियों के तौर पर देखा जाना चाहिए. अगर लडक़ी है तो उसे ऐसा ही होने चाहिए, इस प्रकार की बातें उसके सुधार की राह में बाधाएं बनती हैं. यदि हर कोई अपनी लडक़ी को मनमर्जी से जीने की आजादी दे तो उसके जीवन में स्थायी बदलाव लाया जा सकेगा.’’




‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ की उपलब्धियां -




संस्था 2006-07 में 5250 गांवो और बस्तियों के 497,343 बच्चों के साथ जुडी. इस दौरान संस्था ने लोगों के साथ मिलकर बंद पड़े 143 शासकीय प्राइमरी स्कूलों को दोबारा चालू किया. संस्था ने शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए लगातार जोर दिया. इसका नतीजा ही है कि 192 शासकीय प्राइमरी स्कूलों में 1 भी बच्चा ड्रापआउट नहीं हो सका. संस्था ने 317 गांवों की पंचायत शिक्षा समितियों को सक्रिय बनाया और 22,736 बच्चों को प्राइमरी स्कूलों तक लाकर शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ा.

9.4.09

रोशनी से रु-ब-रु होती पारधी जमात

शिरीष खरे
बीड़। पारधी लोग घनघोर जंगल में रहते थे। उन्हें रोशनी चाहिए थी। लेकिन दिया नहीं रखते थे। एक आहट मिलते ही डरते कि पुलिस तो नहीं। पारधी लोग गाय के ऊपर गृहस्थी का बोझ लटकाते। चोरी-छिपे भटकते। इस तरह उनकी कई पीढ़ियां गुजरी। उन्हें ‘इंसान’ नहीं ‘चोर’ ही कहा जाता रहा। वह ‘चोर’ हैं या नहीं। और हैं भी तो क्यों-यह किसी ने न जाना। एक रोज इन्हें चोर’ नहीं ‘इंसान’ कहा गया। इन्हें भरोसा न हुआ। धीरे-धीरे होने लगा। तब आसमान, धरती और रास्ते तो जहां के तहां रहे. मगर इनकी दुनिया बदलने लगी।
यह मराठवाड़ा का बीड़ जिला है। यहां ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ और ‘राजार्षि शाहु ग्रामीण विकास’ संस्थाएं सक्रिय हैं। इन दोनों ने मिलकर स्कूल और जमीन के रास्तों से बदलाव लाया है। बदलाव का पहला बीज 21 साल पहले ही गिर चुका था।
एक रोज पाथरड़ी तहसील में चोरी हुई। कई महीने बीते लेकिन चोर का पता नहीं लगा। बीड़ से करीब 100 किलोमीटर दूर आष्टी तहसील के चीखली में रहवसिया पारधी का परिवार ठहरा हुआ था। पुलिस ने उसे ही चोरी के केस में अंदर डाल दिया। इधर रहवसिया को दो महीनों की जेल हुई। उधर उसके परिवार को ऊंची जाति वालों ने जगह छोड़ने के लिए धमकाया। रहवसिया ने बताया- ‘‘परिवार के पास पहुंचते ही मुझे अपने 12 साथियों के साथ रस्सी से बांध दिया। हमें बोला गया कि हम गांव के लिए ‘अपशगुन’ हैं। आग लगाने की बात सुनते ही मैं भाग निकला। 4 किलामीटर दौड़ते हुए संगठन के आफिस पहुंचा। वहां से 7 टेम्पों में करीब 300 कार्यकर्ता नारा लगाते हुए यहां आए। तब ऊंची जाति वाले अपने घरों में ताला लगाकर भागे।’’
आप को लग रहा होगा कि पुलिस या ऊंची जाति वाले बिना वजह ऐसा क्यों करेंगे ? इस बारे में राजार्षि शाहु ग्रामीण विकास’ के बाल्मीक निकालजे ने बताया- ‘‘कभी यह जमात शासन और समाज की व्यवस्था में अहम कड़ी मानी जाती थी। तब यह राजा के शिकारी या खुफिया विभाग में होते थे। युद्धों में इनके राजा हार गए। लेकिन पारधियों ने पहले निजाम और फिर अंगेजों से आखिरी तक हार नहीं मानी। यह देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी साबित हुए। यहां के लोग इसकी कथाएं सुनाते हैं। जब अंग्रेज छापामारी युद्धशैली से परेशान हो गए तो उन्होंने ‘जन्मजाति गुनहगार कानून, 1873’ बनाया और पारधी को ‘गुनहगार जमात’ में रख दिया।’’ 60 साल पहले अंग्रेज चले गए लेकिन धारणाएं नहीं गईं। तभी तो पारधी जमात आज तक गुनहगार बनी हुई है।
इसी धारणा की वजह से ही चीखली के ऊंची जाति वालों ने पारधियों को हटाने के लिए पूरी ताकत का इस्तेमाल किया था। वह तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पास तक चले गए। लेकिन राजीव गांधी ने दो टूक कह दिया कि पारधी देश के नागरिक हैं और उन्हें हटाया नहीं जा सकता। इसके बाद गांव के दबंगों और पारधियों के बीच 5 साल तक संघर्ष चला। इस बीच पारधी बस्ती में 4 बार हमले हुए। लेकिन कोर्ट में केस पहुंचने के बाद हमले बंद भी हो गए।
दूसरी तरफ पुलिस का अत्याचार जारी रहा। 2002 को राजन गांव में वास्तुक काले की पत्नी विमल खेत में काम कर रही थी। तब इंस्पेक्टर ने आकर बताया कि उसने सोने की पट्टी चुराई है इसलिए थाने चलना होगा। विमल के विरोध करने पर इंस्पेक्टर बोला यह औरत तेज लगती है और सोने की पट्टी इसकी साड़ी के पल्लू में है। आखिरकार आज के दु:शासन ने दोपद्री का पल्लू खीच डाला। 2003 को धिरणी के गोकुल को चोरी के शक में पकड़ लिया। वह जिस सुबह छूटा उसी शाम फांसी लगाकर मर गया। इसे पारधी युवकों की मानसिक स्थिति के तौर पर देखा जाना चाहिए।
'राजार्षि शाहु ग्रामीण विकास’ के सतीश गायकवाड़ ने बताया- ‘‘पुलिस थाने से कचहरी तक कई तरह की मानसिक और आर्थिक उलझनों से गुजरना होता है। इन हालातों से आपराधिक प्रवत्तियां पनपती है। मतलब पहले जो ‘इंसान’ था उसे व्यवस्था ‘चोर’ बनाती है। इसलिए अब यह व्यवस्था का ही फर्ज है कि उसे ‘चोर’ से ‘इंसान’ बनाया जाए। इसके लिए संगठन ने ‘जोर का झटका जोर से’ लगाने की रणनीति अपनायी है।’’ इन दिनों संगठन कानूनी हक और योजनाओं का सहारा ले रहा है। कुछ उदाहरण पेश हैं-
जब सोलेवाड़ी गांव में चोरी हुई तब पुलिस ने तवलबाड़ी के हरन्या और उसके 2 लड़कों को पकड़ लिया। पुलिस 17 किलोमीटर दूर चैभानिम गांव में हरन्या की लड़की नचाबाई के घर भी पहुंची। नचाबाई के विरोध करने पर पुलिस ने मारपीट की जिसमें उसका पैर टूट गया। संगठन ने इंस्पेक्टर एम.यू। कुलकर्णी और उसके साथियों के खिलाफ ‘अत्याचार प्रतिबंधक कानून’ के तहत मुकादमा दायर किया। इसके बाद पुलिस ने माफी मांगी। इसी तरह चीखली से 2 किलामीटर दूर पारगांव के राजेश काले ने अपने खेत से 60 बोर मूंगफलियां उगाई। वह अपना अनाज बेचने करीब 50 किलोमीटर दूर अहमदनगर पहुंचा तो पुलिस ने उस पर छापा मारा। पुलिस की मारपीट से छूटकर 3 लोग भागे और 2 पकड़े गए। इसके जबाव में संगठन ने आंदोलन करते हुए सरकारी विभागों के मंत्रियों के सामने आपत्तियां दर्ज की। वकीलों की मदद से पारधियों को रिहा करवाया गया। आखिरकार पुलिस ने कहा कि वह ठोस सबूत के बिना पारधियों को गिरफ्तार नहीं करेगी।
चीखली में आज 29 पारधी घरों में करीब 300 लोग रहते है। इन्होंने 70 वोटों की ताकत बटोरी है। यह पिछले 15 साल से वोट देते आ रहे हैं। इन्होंने अपने बीच से ही उमेश काले को वार्ड मेम्बर बनाया है। उमेश काले ने बताया- ‘‘हमने थोड़ी-थोड़ी जमीन खरीदी। इससे रहवासी होने के सबूत मिल गए और हमारे नाम वोटरलिस्ट से जुड़ गए। इसलिए आज सभी परिवार बीपीएल और राशनकार्ड की लिस्ट में भी हैं। हम हर पार्टी का दबाव रहता है। लेकिन वोट का फैसला जाति पंचायत में करते हैं। हम अपनी पंचायत में कुछ बुर्जुगों को मुखिया बनाते हैं। उनके सामने एक-एक समस्याएं रखते हैं। जो बात पक्की हुई उसे सामूहिक तौर पर मानते हैं।’’
‘राजार्षि शाहु ग्रामीण विकास’ ने 18 साल पहले पारधी बच्चों को स्कूल में दाखिला लेने के लिए अभियान छेड़ा था। इसका नतीजा यह हुआ कि रविवार भोंसले और बालुंज जिला पंचायत में आडिटर हैं। रविवार का चचेरा भाई रवि भोंसल पुलिस में है। रहवसिया का बड़ा बेटा इमारत भी राज्य परिवहन बस में कण्डेक्टर हो चुका है। नवनाथ काले और सर्विस काले कांस्टेबल हैं। कुल मिलाकर 8 सरकारी नौकरियों में हैं जिसमें से 2 महिलाएं हैं। 1998 में ‘चाईलण्ड राईटस एण्ड यू’ की मदद से चीखली के पारधी बच्चों के लिए ‘गैर औपचारिक केन्द्र’ खोला गया। इसके बच्चे अब 8वीं, 9वीं, 10वीं होते हुए कालेज के दरवाजों पर खड़े हैं।
‘चाईलण्ड राईटस एण्ड यू’ के अनिल जेम्स ने बताया- ‘‘हमारा काम बच्चों को सपना देना और उसे पूरा करने में मददगार बनना है। पारधियों में गजब की बौद्धिक, सांस्कृतिक और खेल प्रतिभाएं हैं। उनकी प्रतिभाओं को विकसित करने की कोशिश चल रही है। पारधियों को कुशल बनाकर ही उनकी पहचान बदली जा सकती है।’’
1995 के बाद संगठन के सहयोग से इस इलाके में 1200 से अधिक पारधियों के लिए कास्ट सर्टिफिकेट बनवाए गए। आज वह खुद ही कास्ट सर्टिफिकेट बनवाते लेते हैं। 2006 में सरकार ने इस इलाके के पारधियों को रोजगार देने के लिए 21 लाख रूपए की योजना बनायी है। इससे उन्हें खाद, खेती, पशुपालन और दुकानों के लिए वित्तीय मदद मिलेगी।
चीखली से लौटते वक्त हसीना काले अपने बच्चों के साथ बाहर आई। उन्होंने अपनी अंगुलिया से बदलाव की गिनती भी सुनाई- ‘‘पहले काम की आदत नहीं थी और अब अपने खेतों से फसल उगाते हैं। पहले घर में चूल्हा नहीं जलता था और अब खाना खुद पकाते हैं। सबके साथ बैठते हैं। एक ही जगह पर रहते हैं। घरों में बिजली जलती है। पुलिस से सीधे बतियाते हैं।’’ उनके साथ खड़े पारधी अभिमन्युओं ने कहा- हम पुलिस के पीछे नहीं भागना चाहते। हम पढ़-लिखकर ऐसा करना हैं कि पुलिस खुद हमें सेल्युट मारे।’’
यहां के पारधी अभिमन्यु अब चक्रव्यूह तोड़ने को बेकरार हैं।

7.4.09

तिरंगा फहराने के जिद की जीत



शिरीष खरे
नागपुर । छोटी-छोटी बातों से जिंदगी बनती है और छोटे-छोटे सिरों से कहानी। यह छोटी-सी कहानी भी एक छोटे-से सिरे से शुरू होती है। लेकिन सबको एक बडे जज्बात से जोडती है। नागपुर की गंगानगर बस्ती में कभी तिरंगा नहीं फहराया था।
२६ जनवरी २००८ को लोगों ने तिरंगा फहराने की सोची। एक मामूली लगने वाले काम की अडचनों को देखते हुए टाल दिया। अगली बार फहराने का कहते हुए भूल गए। लेकिन बच्चों को याद रह गया। जो बच्चे आशाओं की नन्ही-नन्ही नसैनियां लगाकर आकाश पर चढते हैं, उन्हीं में से १२ बच्चों ने साल २००९ की उसी तारीख को आखिरी सिरा जोड दिया। ११ से १४ साल के इन बच्चों ने कौन-सा सिरा, कहां से जोडा, यह जानना भी दिलचस्प होगा।
आपने दो सच को एक साथ और अलग-अलग देखा हैं? यहां एक सच था- काम बेहद आसान है। दूसरा था- काम बेहद मुश्किल है। एक सच ’कहने‘ और दूसरा ’करने‘ से जुडा था। इसलिए एक सच ने दूसरे को बहुत दिनों तक दबाए रखा। लेकिन तीसरा सच भी था कि बच्चों का जज्बा किसी जज्बे से कम नहीं था। इस तीसरे सच ने दूसरे सच को अपने पाले में खीच लिया।
पहला सिरा
जनवरी २००८ की २६ तारीख पहला सिरा बना। इस रोज गंगानगर के लोग झण्डा ऊंचा करने के लिए एक हुए। लेकिन जिस खम्बे से तिरंगा फहराना था, वह टूट गया। लोग बिखर गए और बच्चों के दिल भी टूट गए।
१४ साल की हेमलता नेताम ने याद किया- ‘हमारी ’बाल अधिकार समिति‘ के सभी साथी ’बाल अधिकार भवन‘ में मिले। हमने अपनी बस्ती में तिरंगा फहराने की ठानी।’ इस लिहाज से अगली और अहम तारीख थी १५ अगस्त। बच्चों की बैठक से दो बातें निकली। एक- बस्ती के बडों से चर्चा की जाए। दूसरा- अपने पार्षद को एक एप्लीकेशन दी जाए।
आखिरी सिरे के पहले
११ साल की पूजा भराडे ने याद किया- ‘हमने काम को दूसरों पर छोडा और हार गए। हमें बडों के साथ एप्लीकेशन लिखनी और उन्हें लेकर आगे बढना था। लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा था। जब १५ अगस्त नजदीक आया तो लगा कि झण्डा सिर्फ दिलों में ही फहराकर रह जाएगा। सबकी आंखें १५ से हट गईं। हमारे दिल फिर टूट गए।’ लेकिन १५ की तारीख हार और हिम्मत की तारीख बनी। अगर यह नहीं आती तो २६ जनवरी २००९ जीत की तारीख कैसे बनती!

१५ अगस्त को वार्ड-१२ की पार्षद मीनाताई बरडे ने तिरंगा फहराया। उनके भाषणों से बच्चों के दिलों में देशप्रेम की भावनाएं उमडती थीं। बच्चों ने आजादी के नारे लगाए। फिर सबके सामने मीनाताई से २६ जनवरी के पहले खम्बा और उसका चबूतरा बनाने की मांग रखी।

देखते-देखते नए साल का सूरज उग गया। १२ साल की रोशनी ठाकरे ने याद किया- ‘हमें भी अपनी जिद पकडी। ५ जनवरी को सारे फिर बैठे। यहां दो फैसले हुए। यह पिछले फैसलों से अलग थे। एक तो अपने हाथों से एप्लीकेशन बनाई। दूसरा खुद जाकर पार्षद से मिलने की सोची। यह काम हमें ही करने थे इसलिए पूरे हुए।’

१३ साल के अक्षय नागेश्वर ने याद किया- ‘हमने जिम्मेदारियां बांटी। ८ जनवरी को १२ बच्चे पार्षद के आफिस पहुंचे। लेकिन मीनाताई नहीं मिलीं। हम उदास हुए, निराश नहीं।’
पार्षद से मिलने की दूसरी तारीख ११ जनवरी रखी गई। इस तारीख की सुबह ९ बजे बच्चे ऑफिस पहुंचे। मीनाताई फिर नहीं थीं। लेकिन मैनेजर ईश्वर बरडे मिल गए। बच्चों ने एप्लीकेशन उन्हें ही दे दी और उनसे मीनाताई का मोबाइल नंबर ले लिया।

बच्चों के अगले १० दिन भी इंतजार में गुजरे। अब पानी सिर के ऊपर था। २१ जनवरी को ’बाल अधिकार भवन‘ में तीसरी बैठक रखनी पडी। यहां से बच्चे फिर मीनाताई के ऑफिस पहुंचे। इस बार संबंधित अधिकारी अशोक सिंह का नम्बर मिला। बच्चों ने अशोक सिंह से खम्बा और उसका चबूतरा बनाने की अपनी पुरानी जिद दोहरायी। कुल मिलाकर बात आई और गई हो गई।

१४ साल के मनीष सोनावने ने याद किया- ‘२६ जनवरी नजदीक आया। यह परीक्षा की घडी थी। हम फिर मीनाताई के ऑफिस में गए। वह फिर नहीं मिली। इसलिए उनके घर जाना पडा। मीनाताई ने जब हमारी परेशानियाँ सुनी तो सॉरी कहा। उन्होंने २६ जनवरी के पहले तक खम्बा और उसका चबूतरा बनाने का वादा किया।’

सुबह की तस्वीर
मीनाताई की बातों से उत्साहित बच्चे घर लौटे। २६ जनवरी के एक रोज पहले बच्चे आगे आए। उन्होंने रात के पहले तक खम्बा और उसका चबूतरा बना डाला। जो बच्चे आकाश से पंतगें तोडकर अपनी छतों पर लहराना चाहते हैं, उन्हीं में से १२ ने अपनी बस्ती में पहली बार तिंरगा फहराने की ख़ुशी महसूस की थी। ’बाल अधिकार समिति‘ की नंदनी गायकबाड और उनके साथी नींव के खास पत्थर साबित हुए। नंदनी बोली- ‘अगली सुबह तिरंगा आंखों के सामने लहरा उठा। अब यह खम्बा बच्चों के दृढ संकल्प और समपर्ण का प्रतीक है।’

जब कोई बच्चा पहली बार जूते के बंध बांधता है तो उसके चेहरे की ख़ुशी देखती ही बनती है। एक रोज कुछ नन्हें हाथ मिले तो किसी ने न देखा। लेकिन जब छोटी-सी आशा हकीकत में बदली तो पूरे गंगानगर देखता रह गया।

’बाल अधिकार भवन‘ में बडा फासला मिटाने वाले छोटे-छोटे कदम एक साथ खडे है। हेमलता नेताम, पूजा भराडे, अक्षय नागेश्वर, रोशनी ठाकरे और मनीष सोनावने को एक तस्वीर में कैद किया गया है। तकदीर से बनी यह तस्वीर अब इस कहानी का आखिरी सिरा है। हो सकता है यह अगली कहानी का पहला सिरा बन जाए!!