30.6.09

हरीबत्ती के इंतजार में



शिरीष खरे
- - - - - - - 

मुंबई के फुटपाथों पर न जाने कितनी बार लालबत्ती हरीबत्ती में बदलती है और हरीबत्ती लालबत्ती में. पर इनके नीचे खड़ी लाखों औरतों को आज भी अपनी जिंदगी में एक हरीबत्ती का इंतजार हैं


‘मुझ जैसी कईयों को अपना शरीर बार-बार बेचना पड़ता है.’ एक औरत की मुंह से पहली बार ऐसा सुन कोई भी झिझक सकता है. सपना ने बेझिझक आगे कहा, ‘पेट की खातिर करना पड़ता है. इज्जत के मारे घर बैठ सकती हूं लेकिन...’ उसके बाद वह चुपचाप एक गली में गई और ओझल हो गई.
देश के कोने-कोने से हजारों मजदूर सपनों के शहर मुंबई आते हैं. इनमें से अधिकतर असंगठित क्षेत्र से हैं. यह शहर के उठने का वक्त है. मुंबई सेंट्रल से बोरीबली आने वाली लोकल के ठहरने के बीच का यह वक्त हजारों लोगों के दौड़ने का भी वक्त है. ठीक इसी वक्त नाकों पर मजदूर औरतें भी खासी संख्या में दिखाई देती हैं. इनमें से कइयों को काम नहीं मिलता और इसलिए कइयों को ‘सपना’ बन जाना पड़ता है. तो क्या पलायन के रास्ते ये बेकारी से होते हुए सीधे देह-व्यापार को जा रही हैं?

मुंबई के उत्तरी तरफ, बोरावली में संजय गांधी नेशनल पार्क के पास दिहाड़ी मजदूरों की एक बस्ती है. यहां पीने के पानी के बाद अब रोजीरोटी के लिए दिन कि शुरुआत एक लंबी लाइन के साथ शुरु हो चुकी है. बुनियादी योजनाओं यहां से होकर नहीं गुजरतीं. इन्होंने अपने हाथों से कई आकाश चूमती इमारतें बनायी हैं. खास तौर से नवी मुंबई को बनाने में कम अवधि के ठेकों पर अंगूठे लगाए हैं. इन्होंने ही कई गिरती इमारतों को दुबारा खड़ा भी किया है. यहां आमतौर पर औरत को 120 और मर्द को 180 रूपये दिन के हिसाब से मजदूरी मिलती है. ठेकेदार और मजदूरों के आपसी रिश्तों से भी मजदूरी तय होती है. एक मजदूर का 3,500 रूपये महीने से कम में गुजारा नहीं होता. मतलब एक दिन के लिए सौ रूपये चाहिए ही चाहिए. इतनी आमदनी पाने के लिए परिवार की औरत भी मजदूरी को जाती है. उसे महीने में कम से कम पंद्रह दिन काम चाहिए. मगर उसे हर दिन काम मिले ही तो यह जरुरी नहीं. कुल मिलाकर, एक औरत के लिए 1,800 रुपए महीना कमाना भी मुश्किल हो जाता है.

यह मलाड नाके का दृश्य है. सड़क किनारे और मेडिकल स्टोर के ठीक सामने मजदूरों के दर्जनों समूह हैं. यहां औरत-मर्द एक-दूसरे के आजू-बाजू बैठे बतियाते हैं. यह काम पाने की सूचनाओं का अहम अड्डा है. यहां सुबह ग्यारह बजे तक भीड़ रहती है. और उसके बाद जिन्हें काम मिलता है वे काम पर जाते हैं और जिन्हें काम नहीं मिलता वे घर लौट आते हैं. पर सेवंती खाली नहीं लौट सकती. इसलिए उसकी सुबह देर रात में बदल जाती है. और उसे नाके से लगी गलियों में पहुंचकर देह के ग्राहक ढूंढने पड़ते हैं.

रविवार होने के बावजूद उसे तीन घंटे से कोई ग्राहक नहीं मिला. इस व्यापार में दलाल कुल कमाई का बड़ा हिस्सा निगल जाता है इसलिए सेवंती दलाल की मदद नहीं लेना चाहती. सेवंती जैसी दूसरी औरतों को भी ग्राहक के एक इशारे का इंतजार है. इनकी उम्र चौदह से पैंतीस है. यह अस्सी से 150 रुपये में सौदा पक्का कर सकती हैं. अगले 24 घंटों में चार ग्राहक भी मिल गये तो बहुत हैं. ये अपने ग्राहकों से दोहरे अर्थो वाली भाषा में बात करती हैं. ऐसा शायद पुलिस और रहवासियों से बचने के लिए कर रही हैं. ये अपने असली नाम भी नहीं बतातीं. जाहिर है इन्हें यहां सुरक्षा का एहसास नहीं है. शारारिक और मानसिक यातनाओं का डर सता रहा है. यहां से किसी को गर्भवती तो किसी को गंभीर बीमारी के शिकार बनने का डर भी सता रहा है.

देह कारोबार से जुड़ी तारा बताती है कि इस कारोबार में सौ में सत्तर 30 साल से कम की है. इसमें से भी पच्चीस बामुश्किल अठारह की हैं. इनदिनों कम उम्र की लड़कियों की संख्या बढ़ रही है. पैंतीस तक आते-आते औरत की आमदनी कम होने लगती है. एक औरत अपने को बीस साल से ज्यादा नहीं बेच पाती. आधे से अधिक औरतें पैसों की कमी के चलते इन गलियों में आती हैं. पीछे खड़ी कुसुम कहती है कि मुझे तो बच्चे और घर-बार भी संभालना होता है. यहां अधिकतर की अंतहीन कहानियां हैं. मसलन, माधुरी का पिता उसे मजदूरी के लिए भेजता है लेकिन वह मजदूरी के साथ अपने शरीर से भी पैसे कमा लाती है. गिरिजा अपने भाई की बेकारी के दिनों का बरकत है. सुब्बा ने पति के एक्सीडेंट के बाद गृहस्थी का बोझ संभाल लिया है. जोया ने छोटी बहिन की शादी के लिए थोड़ा-थोड़ा पैसा बचाना शुरू कर दिया है. पर अब उसकी बहन पढ़ाई के लिए मुंबई आना चाहती है. जोया अपनी सच्चाई छिपाना चाहती है. उसे अपनी इज्जत के तार-तार होने का आशंका है. नगमा पैंतालीस पार हो चुकी है और अब उसकी चौदह साल की बेटी बड़की कमाती है. बड़की बाल यौन-शोषण का जीता जागता रूप है.

और यहां कदम-कदम पर ‘बड़कियां’ खड़ी हैं. ये चोरी-छिपे इस कारोबार में लगी हैं लिहाजा कुल लड़कियों का असली आकड़ा कोई नहीं जानता. कोई बंगाल से है तो कोई नेपाल से तो कोई महाराष्ट्र से. पर इनके दुख-दुविधाओं में अधिक अंतर नहीं दिखता. इन्होंने अपनी चिंताओं को मेकअप की गहरी परतों से ढंक लिया है. मोनी ने बताया कि इस पेशे से हमारा शरीर जुड़ता है, मन नहीं. हम पैसों के लिए अलग-अलग मर्दों को अपना शरीर बेचते हैं लेकिन कई मर्द ऐसे भी हैं जो जिस्मफरोशी के लिए बार-बार ठिकाने बदलते हैं. अगर हमें गलत समझा जाता है तो उन्हें क्यों नही? मोनी का सवाल देह कारोबार के उन अनछुएं पहलुओं पर शिनाख्त करने की मांग करता है जिन्हें समाज की तरह सरकार ने भी अनदेखा किया हुआ है और जब तब ये उठते भी हैं तो इन्हें नैतिकता, अपराध या स्वास्थ्य के दायरों से बांध दिया जाता है. इस क्षेत्र से जुड़े एक वर्ग का मानना है कि यौनकर्मी बनने की बहुत सारी बातें पारिवारिक हिंसा, दुत्कार, अपराध, बलात्कार और खरीद-फरोख्त से भी जुड़ी होती हैं. मगर बाजार की फितरत के चलते यहां भी शोषण के लिए अधिकतर उन्हीं लड़कियों को चुन लिया जाता है जो पिछड़े और गरीब तबके से आती हैं. उनकी मजबूरियों के विरूद्ध उनके सारे सपने बहुत सस्ते और थोक में जो बिक जाते हैं. जाहिर है देह कारोबार का ताल्लुक गरीबी-बेकारी-पलायन जैसी कडि़यों से है. मगर इन कडि़यों के आपसी गठजोड़ की ओर ध्यान नहीं जाता.

भारत में देह कारोबार की रोकथाम के लिए ‘भारतीय दंडविधान, 1860’ से लेकर ‘वेश्यावृत्ति उन्मूलन विधेयक, 1956’ बनाये गये. फिलहाल कानून के फेरबदल पर भी विचार चल रहा है. मगर इस स्थिति की जड़ें तो समाज की भीतरी परतों में छिपी हैं. मुंबई से सांसद प्रिय दत्त के मुताबिक, 'इनकी जिंदगी में फेरबदल तो गरीबी, बेकारी या पलायन में से किसी एक समस्या को हल करने से होगा. इस व्यापार से जुड़ी औरतें दो वक्त की रोटी के लिए लड़ रही हैं. इसलिए ऐसी नीतियां हों जिनमें इन औरतों के जीवन-स्तर को उठाने की बजाय इन्हें जीने के सही मौके दिये जाने को वरीयता दी जाए.'
देखा जाए तो सरकार ने पलायन रोकने के लिए मनरेगा चलाई है जिसके तहत देश के दो सौ जिलों में साल में सौ दिनों के लिए 'हर हाथ को काम और पूरा दाम' का प्रावधान है. मगर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने खुलासा किया है कि यह योजना फ्लॉप साबित हुई है. वहीं 365 दिनों के काम की तलाश में मजदूरों का मुंबई जैसे महानगरों की तरफ पलायन जारी है. दूरदर्शन के कार्यक्रम के बीच ‘रुकावट के लिए खेद’ जैसा संदेश चर्चा का विषय रहा है. मुंबई जैसी महानगरी में कमाठीपुरा जैसी गलियों के भीतर बढ़ते देह के सौदागरों को देखते हुए क्या 'हर हाथ को काम और पूरा दाम' के आगे भी यही संदेश नहीं चिपका देना चाहिए?

पलायन की रफ्तार के बराबर मुंबई का देह कारोबार भी तेजी से फल-फूल रहा है. बात चाहे आजादी के पहले की हो या बाद की. यह किस्सा चाहे कलकत्ता का हो या मुंबई का. मुंबई में सड़क चाहे ग्रांट रोड की हो या मीरा रोड की. चौराहे पर मूर्ति चाहे अंबेडकर की लगी हो या गांधी की. यहां आपको रूकमणी (हिन्दू) भी मिलेगी और रूहाना (मुसलमान) भी. मगर जिन्हें अपने धर्म, क्षेत्र, जुबान या जाति पर नाज है, वे कहीं नहीं दिखते. यहां के लालबत्ती पर रुकी औरतों की जिंदगी बदलाव चाहती है. तस्करी के तारों से जुड़ने के पहले इन्हें एक हरीबत्ती का इंतजार है.
स्टोरी में देह-व्यापार के लिए मजबूर औरतों की पहचान छिपाने के लिए उनके नाम बदल दिये गए हैं.

21.6.09

देश के 7 करोड़ 20 लाख बच्चे कहां हैं ?

शिरीष खरे
2001 की जनगणना के आकड़ों के जोड़-घटाने से यह सवाल उभरा है। पहले आकड़े के मुताबिक 8 करोड़ 50 लाख बच्चे स्कूल नहीं जाते। दूसरे आकड़े में 5 से 14 साल के 1 करोड़ 30 लाख बच्चे मजदूर हैं। अगर 8 करोड़ 50 लाख में से 1 करोड़ 30 लाख घटा दो तो 7 करोड़ 20 लाख बचते हैं। यह उन बच्चों की संख्या है जो न छात्र हैं, न ही मजदूर। तो फिर यह क्या हैं, कहां हैं और कैसे हैं- इसका हिसाब भी किसी किताब या रिकार्ड में नहीं मिलता।
इस 7 करोड़ 20 लाख के आकड़े में 14 से 18 साल तक के बच्चे नहीं जोड़े गए हैं। अगर इन्हें भी जोड़ दो तो देश के बच्चों की हालत बेहद दुबली नजर आएगी। देखा जाए तो भारत में बच्चों की उम्र को लेकर अलग-अलग परिभाषाएं हैं। संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में बच्चों की उम्र 0 से 18 साल रखी गई है। भारत में बच्चों के उम्र की सीमा 14 साल ही है। लेकिन अलग-अलग अधिनियमों के मुताबिक बच्चों की उम्र बदलती जाती है। जैसे किशोर-न्याय अधिनियम, 2000 में 18 साल, बाल-श्रम अधिनियम, 1886 में 14 साल, बाल-विवाह अधिनियम में लड़के के लिए 21 साल और लड़की के लिए 18 साल की उम्र तय की गई है। खदानों में काम करने की उम्र 15 और वोट देने की उम्र 18 साल है। इसी तरह शिक्षा के अधिकार बिल, 2008 में बच्चों की उम्र 6 से 14 साल रखी गई है। इससे 6 से कम और 14 से अधिक उम्र वालों के लिए शिक्षा का बुनियादी हक नहीं मिल सकेगा।
इस तथ्य को 2001 की जनगणना के उस आकड़े से जोड़कर देखना चाहिए जिसमें 5 साल से कम उम्र के 6 लाख बच्चे घरेलू कामकाज में उलझे हुए हैं। कानून के ऐसे भेदभाव से अशिक्षा और बाल मजदूरी की समस्याएं उलझती जाती हैं। सरकारी नीति और योजनाओं में भी बच्चों की उम्र को लेकर उदासीनता दिखाई देती है। 14 साल तक के बच्चे ‘युवा-कल्याण’ मंत्रालय के अधीन रहते हैं। लेकिन 14 से 18 साल वाले बच्चे की सुरक्षा और विकास के सवाल पर चुप्पी साध ली जाती है। किशोर बच्चों की हालत भी बहुत खराब है। 2001 की जनगणना में किशोर बच्चों की संख्या 22 करोड़ 50 लाख है। यह कुल जनसंख्या का 22 प्रतिशत हिस्सा है। इसमें भी 53 प्रतिशत लड़के और 47 प्रतिशत लड़कियां हैं। यह सिर्फ संख्या का अंतर नहीं है, असमानता और लैंगिक-भेदभाव का भी अंतर है।
2001 की जनगणना में 0 से 5 साल की उम्र वालों का लिंग-अनुपात 1000:879 है। जबकि 15 से 19 साल वालों में यह 1000:858 है। जिस उम्र में लिंग-अनुपात सबसे खराब है उसके लिए अलग से कोई रणनीति बननी थी। लेकिन उम्र की जरूरत और समस्याओं को अनदेखा किया जा रहा है। बात साफ है कि बच्चियां जैसे-जैसे किशोरियां बन रही हैं, उनकी हालत बद से बदतर हो रही है। देखा जाए तो बालिका शिशु बाल-विभाग, महिला व बाल-विकास के अधीन आता है। लेकिन एक किशोरी न तो बच्ची है न ही औरत। इसलिए उसके लिए कोई विभाग या मंत्रालय जिम्मेदार नहीं होता। इसलिए देश की किशोरियों को सबसे ज्यादा उपेक्षा सहनी पड़ती है।
एक किशोरी की पहचान न उभर पाने के पीछे उसकी कमजोरी नहीं बल्कि समाज में मौजूद धारणाएं हैं। लड़की के जन्म के बाद ही उसे बहिन, पत्नी और मां के दायरों से बांध दिया जाता हैं। उसे शुरूआत से ही ‘समझौते’ की शिक्षा दी जाने लगती है। किशोरियों को घरेलू काम, कम उम्र में शादी और मां बनने की जिम्मेदारियां निभानी होती हैं। इसलिए 6 से 14 साल के सभी बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी जाने के बावजूद 51 प्रतिशत लड़कियां आठवीं तक पढ़ाई छोड़ देती हैं। ‘लड़की है तो उसे ऐसा ही होना चाहिए’- इस तरह की बातें उसके जीने, सुरक्षा, विकास और भागीदारिता की राह में बाधा पैदा करती हैं। इस उपेक्षित समूह को उनकी मनमर्जी से जीने की आजादी का इंतजार है। इससे उनके जीवन में स्थायी बदलाव आ सकेगा। फिलहाल ऐसे लक्षण दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते।
उपेक्षित समूहों के साथ होने वाले भेदभाव को रोकने के लिए दोहरे मापदण्डों से बचना होगा। इसके लिए शिक्षा के अधिकार बिल, 2008 में बच्चों की परिभाषा 0 से 18 साल तक की जाए। हरेक बच्चे के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का हक मिले। सरकार को बच्चों के स्वास्थ्य की जवाबदारी भी लेनी होगी। इसके लिए वह बच्चों की शिक्षा पर जीडीपी का 10 प्रतिशत और स्वास्थ्य पर 7 प्रतिशत खर्च करे। संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के मुताबिक बाल अधिकारों का दायरा बढ़ाया जाए। बाल-मजदूरी अधिनियम, 1986 को संशोधित करते हुए बच्चों को खतरनाक और गैर-खतरनाक कामों से रोकना होगा। योजनाएं बनाते समय बच्चों की उम्र, लिंग और वर्ग का ध्यान भी रखा जाए। राष्ट्रीय नीति के बुनियादी सिद्धांत में बराबरी की गांरटी हो। बच्चों और महिलाओं के लिए अलग से बनाये गए मंत्रालयों के पास काम की स्पष्ट रुपरेखा हो।

12.6.09

बाल मजदूरी की मजबूरी

शिरीष खरे 12 जून बाल-मजदूरी के खिलाफ विश्व दिवस के तौर पर जाना जाता है। भारत में बाल-मजदूरी पर प्रतिबंध लगे 23 साल गुजर गए। इसके बावजूद सबसे ज्यादा बाल-मजदूर भारत में ही हैं। एक अनुमान के मुताबिक देशभर में 1 करोड़ 70 लाख बाल-मजदूर हैं। इसमें से 80 प्रतिशत खेतों और कारखानों में काम करते हैं। बाकी खदानों, चाय बगानों, दुकानों और घरेलू कामों में हैं। इसमें से सबसे ज्यादा बच्चे शिक्षा से दूर और खतरनाक स्थितियों में काम करते हैं। देश के 1 करोड़ 70 लाख बाल-मजदूरों में से सिर्फ 15 प्रतिशत को ही मजदूरी से मुक्ति मिल पायी है। कई तरह के कानून और योजनाओं के बाद भी स्थिति नहीं बदलती, आखिर क्यों ?
ऐसा इसलिए क्योंकि कानून बाल-मजबूरी के पीछे की मजबूरियों को नहीं जानता। हर जनगणना में देश के हर हिस्से से बाल-मजदूरों की बड़ी संख्या सामने आ जाती है। इसे हम गरीबी में होने बढ़ोतरी के साथ जोड़कर देख सकते हैं। जिस देश में उन बेसहारा परिवारों की संख्या बढ़ रही हो जिन्हें जीने के लिए रोजाना संघर्ष करना पड़ रहा है, उस देश में बाल-मजदूरों की संख्या कम होना बहुत मुश्किल है। सरकार को बाल-मजदूरी के असली कारणों को जानने के लिए गरीबी की जड़ों में जाना होगा।
बच्चों के अधिकारों को लेकर काम करने वाली संस्था ‘चाईल्ड राईटस् एण्ड यू के निदेशक दीपांकर मजूमदार ने कहा- ‘‘सरकार के उस निर्णय से कुछ उम्मीद बंधी है जिसमें उसने घरेलू क्षेत्रों में भी बाल-मजदूरी पर रोक लगा दी है। लेकिन जो हालत हैं उसकी तुलना में तमाम सरकारी कार्यवाहियां सीमित नजर आती हैं। बाल-मजदूरी को जड़ से मिटाना संभव है बशर्ते सरकार उसके असली कारणों को जानने के लिए गरीबी की जड़ों तक जाए।’’
चाईल्ड राईटस् एण्ड यू’ ने सरकार से यह मांग की है कि वह हर बच्चे को काम की बजाय स्कूल भेजने के लिए मंत्रालय और विभागों पर दबाव बनाए। वह ऐसा माहौल तैयार किया जाए जिससे सभी बच्चों को मुफ्त और बेहतर शिक्षा मिल सके। सभी कानूनों में बचपन की उम्र की सीमा 18 साल तक कर दी जाए। बाल मजदूरी से लड़ने के लिए हर परिवार को कम से कम रोजगार, भोजन और स्वास्थ्य का बुनियादी हक हासिल हो। ऐसे परिवारों को जायज मजदूरी, उचित मूल्य पर रोजमर्रा की जरूरी वस्तुएं और आसानी से ऋण भी मुहैया करायें जाए। साथ ही बाल-मजदूरी से जुड़े सभी कानून और सामाजिक-कल्याण की योजनाएं कारगर ढ़ंग से लागू हो।

3.6.09

आतंक के बादल बरसने से पहले

शिरीष खरे
मुंबई में मानसून के बादल दस्तक दे चुके हैं लेकिन नेताजी-नगर के लोग नए आशियानों की खोज में घूम रहे हैं। 29 मई की सुबह, ईस्टर्न एक्सप्रेस हाइवे के पास वाली इस झोपड़पट्टी के करीब 250 कच्चे घर तोड़ दिये गए। मुंबई नगर-निगम की इस कार्यवाही से करीब 2,000 गरीब लोग प्रभावित हुए। पुलिस ने झोपड़पट्टी हिंसक कार्यवाही में 10 महिलाओं सहित कुल 17 लोगों को गिरफ्तार किया। कई महिलाएं पुलिस की लाठी-चार्ज से घायल भी हुईं। मुंबई में बादलों के पहले यह सरकार का आंतक है जो मनमानी तरीके से एक बार फिर गरीबों पर बेतहाशा बरस रहा है।
पुलिस की इस बर्बरता को देखते हुए ‘घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन’ ने ‘महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग’ को तुरंत एक पत्र भेजा और पूरे मामले के बारे में बताया। आंदोलन ने इसे मानव अधिकारों का घोर उल्लंघन माना और आयोग से हस्तक्षेप का आग्रह किया।

29 मई
तारीख नेताजी-नगर के रहवासी हमेशा याद रखेंगे। यह लोग सुबह की चाय पीकर फुर्सत भी नहीं हो पाए कि प्रशासन ने बुलडोजर के साथ बस्ती पर हमला बोल दिया। यह हमला अचानक और बहुत तेज था, इसलिए किसी को संभलने का मौका नहीं मिला। देखते-देखते बस्ती के सैकड़ों घर एक के बाद एक ढ़ह गए। प्रशासन ने बस्ती को मैदान में बदलने की रणनीति पहले ही बना ली थी। इसलिए झोपड़पट्टी तोड़ने वाले दस्ते के साथ पुलिस ने बिखरी गृहस्थियों को आग भी लगाना शुरू कर दिया। इस दौरान प्रेम-सागर सोसाइटी के लोगों ने उनकी हरकतों को कैमरों में कैद कर लिया। यह लोग अब प्रशासनिक अत्याचार के खिलाफ अहम गवाह बन सकते हैं। साथ ही उनके द्वारा खींची गई तस्वीरों को भी सबूत के तौर पर पेश किया जा सकता है।

29 मई को 12 बजते-बजते पूरी बस्ती का वजूद माटी में मिल चुका था। इधर बड़े-बूढ़ों के साथ उनके बच्चे सड़कों पर आए। उधर पंत-नगर पुलिस स्टेशन में बंद महिलाओं को शाम तक एक कप चाय भी नहीं मिली। लाठी-चार्ज में बुरी तरह घायल डोगरीबाई को कुछ महिलाएं घाटकोपर के राजावाड़ी अस्पताल लेकर पहुंचीं थी। लेकिन पुलिस ने उन सभी को गिरतार करके पंत-नगर पुलिस स्टेशन में कैद कर दिया। यहां ईलाज की सही व्यवस्था न होने से डोगरीबाई की हालत गंभीर हो गई। रात होने के पहले भूखे, प्यासे और घायल लोगों के झुण्ड के झुण्ड खाली जगहों के नीचे से अपने घर तलाशने लगे। उन्हें अब भी मलवों के नीचे कुछ बचे होने की उम्मीद थी। लेकिन बेरहम बुलडोजर ने खाने-पीने और जरूरत की सारी चीजों को बर्बाद कर डाला था। थोड़ी देर में ही घोर अंधियारा छा गया। अब बरसात के मौसम में यह लोग सिर ढ़कने के लिए छत, खाने के लिए रोटी और रोटी के लिए चूल्हे का इंतजाम कहां से करेंगे ?
देश का मानसून मुंबई से होकर जाता है। लेकिन मुंबई नगर-निगम, महाराष्ट्र सरकार के लोक-निर्माण विभाग के साथ मिलकर नेताजी-नगर जैसी गरीब बस्तियों को ढ़हा रहा है। प्रदेश-सरकार के मुताबिक जो परिवार कट-आफ की तारीख 1-1-1995 के पहले से जहां रहते हैं, उन्हें वहां रहने दिया जाए। इसके बावजूद नेताजी-नगर के कई पुराने रहवासियों को अपने हक के लिए लड़ना पड़ लड़ना पड़ रहा है
आतंक के बादल
नगर बस्ती नाले के बाजू और मीठी नदी के नजदीक है। शहर के अहम भाग पर बसे होने से यह जगह बहुत कीमती है। इसलिए आसपास के करीब 60 एकड़ इलाके पर बड़े बिल्डरों की नजर टिकी हुई है। भीतरी ताकतों के आपसी गठजोड़, आंतक के सहारे बस्ती खाली करवाना चाहता है। लेकिन प्रशासन को भी बस्ती तोड़ने की इतनी जल्दी थी कि उसने सूचना देना ठीक नहीं समझा। पूरी बस्ती को ऐसे कुचला गया जिससे ज्यादा से ज्यादा नुकसान हो। अगर प्रशासन चाहता तो नुकसान को कम कर सकता था। लेकिन उसने पुलिस को आगे करके लाठी-चार्ज की घटना को अंजाम दिया।
इस बस्ती के रहवासी कानूनी तौर पर मतदाता है। इसलिए उन्हें जीने का अधिकार है। इसमें जमीन और बुनियादी सुविधाओं वाले घर के अधिकार भी शामिल हैं। किसी भी ओपरेशन में पुलिस अकारण हिंसा नहीं कर सकती है। अगर किसी का घर और उसमें रखी चीजों को तोड़ा-फोड़ा जाएगा तो लोग बचाव के लिए आएंगे ही। नेताजी-नगर के रहवासी भी अपने खून-पसीने की कमाई से जोड़ी ज्यादाद बचाने के लिए आए थे। बदले में उन्हें पुलिस की मार और जेल की सजा भुगतनी पड़ी।
‘घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन’ के सिंप्रीत सिंह ने ‘महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग’ से आग्रह किया है कि- ‘‘स्लम एक्ट और अन्य दूसरे नियमों के आधार पर इस मामले की जांच की जाए। सरकार पुलिस की लाठियों से घायल महिलाओं का ईलाज करवाए। पीड़ित परिवारों को उचित मुआवजा मिले और दोषी पुलिसकर्मियों पर कड़ी कार्यवाही हो।’’

इन दिनों
मुंबई में गरीबों को उनकी जगहों से हटाने की घटनाओं में तेजी आई है। शहर की जमीन पर अवैध कमाई के लिए निवेश किया जा रहा है। शहरी जमींदार ऊंची इमारतों को बनाने के लिए हर स्केवेयर मीटर जमीन का इस्तेमाल करना चाहते हैं। अब यह कारोबार अथाह कमाई का जरिया बन चुका है। इस मंदी के दौर में भी जमीनों की कीमत काफी ऊंची बनी हुई हैं। इसकी वजह सस्ती दरों पर कर्ज किसानों की बजाय कारर्पोरेट को दिया जाना है।
महाराष्ट्र ने अपनी 30 हजार एकड़ जमीन प्राइवेट को दी है। सीलिंग कानून के बावजूद ऐसा हुआ। 1986 को प्रदेश सरकार यह प्रस्ताव पारित कर चुकी थी कि- ‘‘अतिरिक्त जमीन का इस्तेमाल कम लागत के घर बनाने में किया जाएगा। 500 मीटर से ज्यादा जमीन तभी दी जाएगी जब उसका इस्तेमाल 40 से 80 स्केवेयर मीटर के लेट्स बनाने में होगा।’’ लेकिन मुंबई के हिरानंदानी गार्डन में बिल्डर को 300 एकड़ की बेशकीमती जमीन सिर्फ 40 पैसे प्रति एकड़ के हिसाब से दी गई। इस जमीन पर ऐसा ‘स्विटजरलैण्ड’ खड़ा किया गया जिसमें सबसे कम लागत के एक मकान की कीमत सिर्फ 5 करोड़ रूपए है।
साभार : विस्फोट.कॉम
लिंक : http://www.visfot.com/index.php/jan_jeevan/982.html