28.9.09

फोटो के साथ एक खबर

विनय कुमार गुप्ता

बारह-तीस की कल्याण जाने वाली लोकल आज प्लॅटफॉर्म नंबर तीन की जगह प्लॅटफॉर्म नंबर पाँच से जाएगी, उद्घोषक बार -बार माइक से घोषणा कर रहा था. आज प्लटफार्म पर सामान्य से ज़्यादा भीड़ थी पर इन सब से अप्रभावित रमाकांत एक कुर्सी पर गुमसुम सा बैठा शून्य में ताक रहा था. आज एक ही दिन में उसकी दुनिया कितनी बदल गयी थी, सुबह जब वह घर से निकला था तब उसा नही पता था कि शाम तक उसे ऐसी खबर मिलेगी जो उसा हिला कर रख देगी.


बैठे-बैठे वह अपने बीते समय को याद करने लगा,  जब पहली बार वो गावों से निकला था, मिलिट्री में भरती होने के लिए, कितना खुश था वो, उन दिनों सेना में भरती होने को बहुत गर्व से देखा जाता था और रमाकांत ने पहली बार में ही प्रवेश परीक्षा पास कर ली थी, उसके बाद करीब 3 महीने की ट्रेनिंग के बाद उसे अपनी पहली पोस्टिंग मिली, अगरतला मैं, चारों तरफ जंगलों से घिरा वो इलाक़ा अगले 4 साल तक उन लोगों का घर बन गया था जब तक की उन्हें राजस्थान आने को नही कहा गया.

राजस्थान में पाकिस्तान से घमासान लड़ाई छिड़ी हुई थी और रमाकांत की यूनिट को तुरंत वहाँ पहुँचना पड़ा, उसे याद आ रहा था- कैसे लगातार 24 घंटे तक चलने के बाद उनकी यूनिट ने वहाँ मोर्चा संभाला था और उसने अपने कंधे पर गोली खाकार अपने ऐक मेजर की जान बचाई थी, पर उस चोट के परिणाम से रमाकांत को दो स्वाद एक साथ मिले थे. उसे वीरता चक्र मिला और साथ में फौज से रिटाइर कर दिया गया.

इसके बाद वापिस गांवो में कुछ दिनों तक वहाँ रहने के बाद उसका मन उब गया और एक दिन उसने, मुंबई आने का फ़ैसला लिया, उसके मन में अब अपना व्यापार करने की इक्छा थी, रमाकांत सन 80 में मुंबई आ गया और उसने यहाँ आकर कुछ लड़कों को भरती कर के एक छोटी सी सिक्यूरिटी सर्वीसज़ की कंपनी शुरू की, फौज की जानकारी यहाँ उसके बहुत काम आई और उसकी कंपनी चल निकली.

अब रमाकांत एक जाना हुआ नाम बन चुका था, मुंबई के सब बड़े लोगों की जान की सुरक्षा का ठेका उसकी कंपनी को ही मिलता था.रमाकांत के इस बीच कई लड़कियों से संबंध बने पर कभी भी वह अपने रिश्ते को शादी तक नही ले जा पाया.परंतु वो उसकी जिंदगी के स्वर्णिम दिन थे रमाकांत के अंदर का फ़ौजी हमेशा जिंदा रहा,उसने अपनी कंपनी के साथ ही एक स्वयं सेवी संस्था की शुरुआत भी की, जो फ़ौजी परिवारों की विधवाओं की मदद करती थी.पर ये सब बहुत समय तक नही चल सका, 90 के दशक में एक नेता का कत्ल हो गया जिसकी रक्षा की ज़िम्मेदारी रमाकांत की कंपनी के उपर थी और बाद मे यह भी पता चला की रमाकांत के यहाँ काम करने वालों का उसमे हाथ था, इससे कंपनी को बहुत नुकसान हुआ और जितनी तेज़ी से वो उपर आए थे उतनी तेज़ी से ही नीचे जाने लगे.

पर रमाकांत को इन सब से बहुत ज़्यादा फ़र्क नही पड़ा, वो गावों का लड़का था और भले ही वो अब शहर का अधेड़ हो चुका था पर उसके अंदर वही गांवों की ईमानदारी और सादगी ज़िंदा थी.उसने अपनी कंपनी को बेच दिया और स्वयम् सेवी संस्थान की बाग डोर भी अपने एक मित्र के हाथ मे दे दि.हाँ वो स्वयं सेवा-भाव से वहाँ काम करने में लगा रहा और उसे जानने वाले आज भी उसका मान करते थे.

कल ही वो 55 बरस का हुआ था और उसके बहुत सारे सेना और व्यापार के दोस्तों ने मिलकर उसे एक सर्प्राइज़ पार्टी दी थी. कल उन सब ने बैठ कर अपने पुराने दिनों को याद किया था, 72 की लड़ाई के दीनों को...रमाकांत की...बहादुरी ...मेडल...गावों....अगरतला....सब....क़िस्सों को......कितना बहादुर था रमाकांत ......उसने जिंदगी की सभी मुश्किलों का सामना डॅट के किया था...सोचते-सोचते रमाकांत रोमांचित हो गया... उसके सामने सारी गाड़ियाँ .....आ जा रही थी....छत्रपती शिवाजी टर्मिनस...अपनी पूरी काबिलियत से काम कर रहा था...तभी उसकी नज़र अपने हाथ में लगे कागज पर गयी...टाटा मेमोरियल कॅन्सर हॉस्पिटल...

रमाकांत को अभी कुछ देर पहले ही पता चला था की उसे लास्ट स्टेज का ब्लड कॅन्सर है और अब उसके पास सिर्फ़ 2-३ महीने ही रह गये थे...उसकी आँखे...डब-डबा आईं...इसलिए नही कि उसे मरने से डर लग रहा था परंतु ..इसलिए कि...उसके जीवन के कथा सार का अंत किसी हॉस्पिटल के बेड पर खून की उल्टियाँ करते हुए होना लिखा था...वो मन ही मन भगवान से कहने लगा...की क्या मुझ फ़ौजी ...उधमी...का यही अंत लिखा है आपने.....में तो सिर्फ़ एक स्वाभिमान निहित मृत्यु चाहता था....नाकि ऐसे गुमनाम किसी हॉस्पिटल के बेड पर....

वह अभी अपने ख़यालों मे ही था की अचानक,स्टेशन का माहौल बदल गया, लोग इधर-उधर भाग रहे थे और चारों तरफ खून के छींटे उड़ रहे थे...बीच - बीच में गोलियों की ताड़-ताड़ सुनाई दे रही थे...एक पल के लिए तो रमाकांत को समझ मे ही नही आया की हुआ क्या है पर तभी उसके फ़ौजी दिमाग़ ने उसे उत्तर दे दिया....स्टेशन पर आतंकवादियों ने हमला कर दिया था....रमाकांत, एक दीवार की ओट लेकर खड़ा हो गया, गोलियाँ अब भी चल रही थी तभी उसकी नज़र सामने के प्लॅटफॉर्म पर पड़ी, वहाँ एक छोटी बच्ची एक निर्जीव-माँ के पास बिलख रही थी, रमाकांत जनता था की उसे क्या करना है...उसने ...इधर-उधर चौकस निगाहों से देखा....फिर एक बार अपने....हाथ मे लगे कागज को देख कर मुस्कुराया....और सीधे....बच्ची कीतरफ...दौड़ लगा ..दी...

अगले दिन के अख़बार आतंकी हमले की खबरों से भरे पड़े थे और एक कोने में फोटो के साथ खबर थी...की पचपन साल केएक रिटायर्ड फ़ौजी ने अपनी जान देकार बचाई ...बच्ची की जान....सारा देश उसे एक हीरो की तरह देख रहा था.

26.9.09

हीरे की मण्डी में हारती जिन्दगी

शिरीष खरे, सूरत से लौटकर


मंदी की उठा-पटक के बीच सूरत का चेहरा भले कई लोगों के लिए अब भी चमकदार लग रहा हो लेकिन इस चमक के पीछे एक ऐसा अंधेरा फैलता जा रहा है, जिसमें जिंदगी हारती जा रही है. मंदी के तूफान ने हीरे की मण्डी सूरत की सूरत कुछ ऐसी बिगाड़ी कि पिछली दीवाली से इस जुलाई के पहले हफ्ते तक हीरा-कारखाने के 39 मजदूरों ने अपनी जान दे दी. हालांकि गैरसरकारी आकड़ों में यह संख्या 90 के पार ठहरती है.

मंदी के तूफान ने हीरे की मण्डी सूरत की सूरत कुछ ऐसी बिगाड़ी कि दीवाली से जुलाई के पहले हफ्ते तक हीरा-कारखाने के 39 मजदूरों ने अपनी जान दे दी. हालांकि गैरसरकारी आकड़ों में यह संख्या 90 के पार ठहरती है.

पिछले कुछ समय में गुजरात के सबसे चमकदार शहर सूरत में हीरे की 10,000 से ज्यादा यूनिट बंद हुई, जिससे आठ लाख से ज्यादा मजदूर बेकार हो गए. पिछले साल नंवबर-दिसम्बर के दो महीनों में ही कम से कम एक लाख मजदूर शहर छोड़ चुके थे. आज की तारीख में यह आंकड़ा चार लाख के बाहर पहुंच चुका है और मज़दूरों के पलायन का यह सिलसिला अब तक जारी है. जनवरी के पहले हफ्ते में ही 5 इलाकों से स्कूलों के 4,500 बच्चों को फीस न भरने के चलते निकाला जा चुका था.

कायदे से सूरत का यह हाल एक 'राष्ट्रीय मुद्दा' होना चाहिए लेकिन राज्य के सारे राजनैतिक दल इन दिनों खामोश हैं. लोकसभा-चुनाव की लहर जा चुकी है, अब सिर पर सूरत-कारर्पोरेशन का चुनाव है. फिर भी हीरा-कारखाने के मजदूरों को राहत देने के सवाल पर हर तरफ सन्नाटा है.

एक नजर सूरत की सूरत पर

सूरत में हीरे की छोटी-बड़ी कुल 14,310 यूनिट हैं, जिसमें से 10,017 याने 70 फीसदी बंद हो चुकी हैं. सभी 14,310 यूनिट में 9,70,000 मजदूर काम करते थे, जिसमें से करीब 8,000000 याने 80 फीसदी से भी ज्यादा बेकार हो चुके हैं. बाकी बचे मजदूरों को अगर काम मिलता भी है तो उनके महीने की आमदनी (12,000) से आधी से आधी से आधी (15,00) हो गई है.


जमीनी पड़ताल के लिए एक छोटे-सा सर्वे देखते हैं. शहर के वारछा रोड़ पर हीरे की 2,59 यूनिट में से 80 के दरवाजे बंद हो चुके हैं. यहां की 1 यूनिट में औसतन 63 मजदूर थे, इस लिहाज से जोड़े तो 5,040 से ज्यादा मजदूरों के हाथों से मजदूरी निकली है. इसी तरह कापोदरा विस्तार की 5,97 यूनिट में से 2,43 में काम बंद है. यहां की 1 यूनिट से औसतन 75 मजदूर थे, यहां भी 18,225 से ज्यादा मजदूर बेकार हुए. यह ऐसी छोटी-छोटी यूनिट थीं जिनके पास अब कच्चा हीरा खरीदने के लिए पैसा नहीं बचा है.


श्यामधाम चौकड़ी, देवीकृपा सोसायटी के सूरज पटेरिया का यह 36 वां साल चल रहा था. गए साल तक उन्होंने खुदखुशी करने के बारे में सोचा भी नहीं होगा. लेकिन दीवाली के बाद सूरज ने दो बार जहर पीकर मरना चाहा. दोनों बार उन्हें पड़ोसियों ने बचा लिया.

एक तो भूख, ऊपर से अपने ही इलाज के खर्च ने उन्हें दिमागी तौर से भी लाचार बना दिया. तीसरी बार उन्होंने अपने को जलाकर खुदखुशी कर ली. अब उनके पीछे उनकी पत्नी अंजू बेन और चौथी में पढ़ने वाला लड़का राहुल है. इन दोनों को अपने आने वाले कल के बारे में कुछ खबर नहीं. अंजू बेन और राहुल केवल नाम भर हैं, सूरज में तो ऐसे परिवारों की एक लंबी सूची हैं, जिसमें नए-नए नाम जुड़ते जा रहे हैं.

सूरत-ए-हाल

देश के हीरा निर्यात में सूरत की हिस्सेदारी 24 अरब डालर के आसपास है. दीवाली के पहले अफ्रीका के एटेन्पर्व से काले पत्थर सूरत के कारखानों में आते थे. ऐसे पत्थरों को सूरत के 'रत्न कलाकार' कहे जाने वाले मजदूर तरासते और चमकदार हीरे में बदल देते.

लेकिन मंदी के मारे बीते अक्टूबर से एटेन्पर्व के काले पत्थरों का आयात बंद हो गया. यही कारण है कि पिछले 9 महीनों से हज़ारों हीरा कारखानों में ताले लटक गये हैं और मज़दूरों के सामने दो जून की रोटी के लाले पड़ गये हैं. शहर की सूरत में कभी चार चांद लगाने वालों की दुनिया फिलहाल घुप्प अंधियारे में है, जहां उजाले की कोई किरण नज़र नहीं आ रही.

सूरत में जब मंदी का शोर कुछ और बढ़ा तो बड़े-बड़े साहूकार मौके की नजाकत भांप गए और छोटी-छोटी यूनिट चलाने वालों का करोड़ो रूपए लेकर भाग गए. जैसे कतारगाम के हर्षद महाजन और घनश्याम पटेल को ही लें. यह दोनों ब्याज के 7 करोड़ रूपए लेकर लापता हैं. इसी तरह साजन तालुका का एक और महाजन जो मिनी बाजार और राजहंस टावर में 1,00-1,50 लोगों के साथ लेन-देन करता था; कोई साढ़े 5 करोड़ रूपए के साथ रफू-चक्कर है. इसलिए छोटी-छोटी यूनिट चलाने वालों के कारोबार ठप्प हुए और फिर बड़ी संख्या में मज़दूर सड़कों पर आ गये.

हीरा-व्यापारियों का हाल सुने तो पालिश्ड हीरे नहीं बिकने से उन्हें नकद नहीं मिल रहा है. इसलिए वह कच्चा हीरा खरीद ही नहीं सकते. तभी तो मिनी बाजार में हीरे के हजारों व्यापारियों का एक साथ जमा होना जैसे बीते कल की बात लगती है.

एक पहेली जिंदगानी

लेकिन सारे आकड़ों के बीच ऐसा पहलू भी छिपा है जो आज नहीं तो कल हालात को और उलझा सकता है. सूरत में 'फेक्ट्री एक्ट' के मद्देनजर हीरे की केवल 4,27 फैक्ट्रियां ही निबंधित हैं. लेकिन यहां चलने वाली फैक्ट्रियों की संख्या 14,310 है. मतलब ये कि सूरत की 13,883 फैक्ट्रियां निबंधित ही नहीं हैं.

असल में ज्यादातर मालिक 'टैक्स' से बचने, मजदूरों को 'पीएफ' और 'ईएसआई' जैसी सुविधाएं न देने के लिए 'फेक्ट्री एक्ट' को अनदेखा करते हैं. इसलिए 13,883 यूनिट से जुड़े करीब 9,40,000 मजदूर 'फेक्ट्री एक्ट' के दायरे से बाहर हैं. अभी तो यहां के एक भी हीरा-मजदूर को मुआवजा नहीं मिला है, लेकिन कल अगर मुआवजे की बात उठती है तो 'अन-रजिस्टर्ड' कही जाने वाली 13,883 फैक्ट्रियों के कोई 9 लाख 40 हज़ार मज़दूरों का क्या होगा ? क्या उन्हें मुआवजे का पात्र समझा जाएगा ?

हार गई जिंदगी

आकार अपार्टमेंट, कुबेरनगर की 'संदवी डायमण्ड' जैसी बड़ी कंपनी से जुड़े 40 साल के कल्पेश जादव की घर-गृहस्थी ठीक-ठाक चल रही थी. लेकिन 6 महीने तक काम न मिलने से वह खाली हाथ घर लौटते थे. एक रात जब वह लौटे तो खाने का एक दाना न होने पर पत्नी से जमकर झगड़ा हुआ. इसके बाद वह कहीं से 5 किलो चावल, 5 किलो आटा और 1 किलो तेल तो लाए लेकिन किसी को अनुमान नहीं था कि कल्पेश के मन में किस तरह का द्वंद्व चल रहा है. कल्पेश उस रोज ताप्ती नदी में ऐसे डूबे कि वापिस नहीं आए. कल्पेश ने मुक्ति पा ली, उनकी पत्नी अब अकेली है, बच्चे अभी से संघर्ष के दिन देखने के लिए रह गए हैं.

पुणागांव, विक्रम सोसायटी के अशोक भाई घाट ने 30 वें साल में कदम रखा था. उनकी बिटिया उन्नति 1 साल की होने वाली थी. अशोक भाई 'शिवजी डायमंड' कंपनी में थे. जब बेरोजगारी की नौबत आई तो उसका सामना करना उन्हें मुश्किल लगा और उन्होंने जहर पी कर अपनी जान दे दी.

उवली रोड़, मोहनदास सोसायटी के भरत ठुमरे ने 35 साल देख लिए थे. फांसी की रस्सी उन्हें जिंदगी की तंगी से कही ढ़ीली लगी होगी. इसलिए तो पत्नी और 10 साल से भी कम उम्र के दो बच्चों को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर चले गए.

कतारगाम में 60 साल की जीबी बेन अपने 34 साल के बेटे सूर्य की बेकारी देख न सकी, उन्होंने केरोसिन डालकर खुदखुशी कर ली. सूर्य 'शीतल डायमंड' कंपनी में काम करता था.

वह औरतें सबसे ज्यादा प्रभावित हुई हैं जो जैसे-तैसे अपने घर संभाल रही थीं. पति की लम्बी बेकारी ने उन्हें मायके जाने पर मजबूर किया. इन दिनों सौराष्ट्र से कुछ औरतों की खुदखुशी के मामले जोर पकड़ने लगे हैं. सबसे ज्यादा मजदूर सौराष्ट्र से ही आए थे. दूसरी तरफ कई मजदूरों की शादियां भी टूट रही हैं.

जो जिंदा हैं

19 जनवरी को 'सूरत डायमण्ड एसोसिएशन' की तरफ से बच्चों की स्कूल-फीस माफ करने के लिए फार्म बंटने वाले थे. तब 12,000 की भीड़ जमा हुई. लेकिन अफरा-तफरी के माहौल में पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा.

पुलिस की लाठी से 35 साल की बसंती बेन बगाणी बुरी तरह घायल हो गई. नवी शक्ति, विजय सोसायटी की बसंती बेन से जाना कि वह अपने 3 बच्चों, 4 साल के शिवम, 5 साल के जेनल और 7 साल के सावंत के लिए रात 2 बजे से ही लाइन में लगी थी. जैसे ही उनका नंबर आने को हुआ, लाठी चार्ज हुआ और उनका माथा फूट गया. जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है जनवरी के पहले हफ्ते में ही 5 इलाकों से स्कूलों के 4,500 बच्चों को फीस न भरने के चलते निकाला जा चुका था.

ठक्करनगर की कोकिला बेन से मालूम हुआ कि उनके पति 9 महीने से खाली हैं. उनके सिर पर अब तक 25,000 का कर्ज चढ़ चुका है. चिंटू कहकर बुलाने वाले बड़े लड़के ने 12 वीं 67 प्रतिशत के साथ पास की थी. लेकिन पैसे की मजबूरी से कालेज की पढ़ाई रूकी हुई है. कोकिला बेन कहती हैं- “पहले औरतों को घर में हीरे के पैकेट बनाने का काम मिल जाता था. इससे वह अपने खर्च-पानी के लिए महीने भर में 12,000 से 15,000 रूपए कमा लेती थीं. हीरे के कारखानों के बंद होते ही उनके खर्च-पानी का पैसा भी चला गया.”

आपके पति दूसरा काम तलाश सकते हैं ? जबाव में कोकिला बेन ने बताया कि जो आदमी अपनी कलाकारी से 12,000 रूपए महीना कमाता हो, जिसकी आमदनी के मुताबिक ही घर की जरूरतें बन गई हो, ऐसे में बिल्कुल आमदनी नहीं होने पर जरूरतें पहाड़-सी लगेगी ही. रही बात दूसरे काम की, तो कोई भी हीरा-मजदूर ऐसा चाहकर भी नहीं कर पाएगा. जो मजदूर 15-20 साल से हीरा तराशने जैसा काम करता हो, उससे मेहनत वाली मजदूरी बनेगी भी नहीं. उसे रात-दिन मेहनत से महीने भर में 15,00 ही मिलेंगे, अगर वह मेहनत वाले काम करना भी चाहे तो उसे मेहनत वाले काम देने से पहले हर कोई हिचकिचाएगा.

जबाव के इंतजार में...

24 जनवरी को ठक्कर नगर, डायमंड पार्क में राधा बोरसे जैसी 1,000 औरतों ने राज्य के मुखिया नरेन्द्र भाई (मोदी) को 1,000 पोस्ट-कार्ड भेजे. इन औरतों ने लिखा था कि घर में न अनाज है, न केरोसिन. दो टाइम खाने को तरस गए हैं. एक महीने से कोई सब्जी नहीं आई है. बच्चों की पढ़ाई भी रोक दी है. जल्दी मदद भेजिए वरना हमको भी सुसाइड करना पड़ेगा.

उन्होंने राज्य के मुखिया को यह पोस्ट-कार्ड इसलिए लिखा क्योंकि गुजरे विधान-सभा चुनाव के वक्त महिला-सम्मेलन में नरेन्द्र भाई गरजे थे- “तुम्हें कभी कोई परेशानी हो, भाई जानकर एक पोस्ट-कार्ड भर भेजा देना.” अब रक्षाबंधन आने को है, लेकिन सूरत की बहनों को गांधीनगर के भाई का जवाब नहीं मिला.

14 फरवरी को लोक-सभा चुनाव में राहुल भैया (गांधी) भी पधारे थे. उन्होंने अपने ही अंदाज में हीरा-मजदूरों से सीधी बात साधी थी. लोगों ने उनसे पूछा कि चलिए गुजरात सरकार ने हमारे लिए कुछ नहीं किया, केन्द्र सरकार क्या करने वाली है ?

जनता में एक ने उन्हें याद दिलाया कि जब केन्द्र सरकार 'सत्यम' जैसी (7,000 करोड़ का घोटाला करने वाली) कंपनी को बचाने के लिए राहत पैकेज दे सकती है तो देश के जो आम लोग अपनी मौत मर रहे हैं, उन्हें बचाने में इतनी देर क्यों ? राहुल कोई जबाव नहीं दे पाए. कांग्रेस ने दिल्ली में झण्डा फहराते ही जीत की पगड़ी राहुल गांधी के सिर पर बांधी है. इसके बाद तो वह ‘लाजबाव’ हो चुके हैं.

लोकसभा-चुनाव में भाजपा ने कहा- “दिल्ली वाले जाग रहे होते तो ऐसे हालात नहीं होते.” कांग्रेस ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को नया विशेषण दिया- “ कुंभकरण न जाने कब जागेंगे.” कांग्रेस के कार्यकर्ता यह तर्क देते भी घूमते रहे कि- “मामला सेंटर से नहीं, गांधीनगर से सुलझेगा.” इस तरह चुनाव के साथ यह आरोप-प्रत्यारोप भी गुजर गये, नहीं गुजरे तो आत्महत्याओं के हादसे. सांसद चुने गए, नहीं चुनी गई तो मजदूरों की मजबूरियां. सरकार भी बनी, नहीं बंधी तो पहले जैसे हालात बनने की उम्मीदें. वैसे मजदूरों के पास उम्मीद के अलावा और कुछ है भी नही.

लेकिन शहर के कुछ लोग, यहां तक की मीडिया का एक हिस्सा हीरा-कारखाने के सेठ लोगों से खफा है. उनके नजरिए से जब तक मुनाफे का धंधा चल रहा था तब तक तो मजदूरों की मेहनत और कलाकारी से सेठ लाखो से करोड़ो, करोड़ो से अरबो कमाते रहे. लेकिन जैसे ही मंदी ने मुंह दिखाया, सेठ लोगों ने मुंह मोड़ लिया. मजदूरों की उम्मीदें या जरूरतें लाखों-करोड़ों की नहीं हैं. ऐसे में सेठ लोगों को मजदूरों की मामूली जरूरतों में मददगार बनना ही चाहिए था. लेकिन उनकी तरफ से मदद की हवा तो दूर, मदद का एक पत्ता भी नहीं हिलता.

आत्महत्याएं ठण्डे बस्ते में

सूरत में हीरे की चमक नहीं लौट रही है. दो-एक महीने से आत्महत्याओं के मामले में कमी जरूर देखी गई है. यह किसी के विशेष प्रयासों का नतीजा नहीं हैं, यह तो हर दिन करीब तीन सौ मजदूर परिवारों के सूरत छोड़ने का नतीजा है. ऐसे में आत्महत्याओं के किस्से सूरत के आसपास फैल गए हैं. शहर से जाने वाले एक परिवार के जमेश और महेश (भाई-भाई) ने हाथ हिलाते हुए कहा- “दोबारा सूरत ही लौटेंगे.”

लेकिन सूरत में छाये संकट के बादल बरसने भर से खत्म नही होने वाले.

23.9.09

थार का सरकारी अकाल

शिरीष खरे

थार में फिर अकाल के हालात बन पड़े हैं- इस समय की सबसे खतरनाक पंक्ति को सवाल की तरह कहा जाना चाहिए. दरअसल अकाल को बरसात से जोड़कर देखा जाता है और राजस्थान के अकालग्रस्त जिलों से लेकर जयपुर या दिल्ली तक नेताओं, अफसरों और जनता के बड़े तबके तक यही समझ बनी हुई है. कुछ तो जानबूझकर और कुछ मजबूरी में. लेकिन हकीकत यह भी है कि आस्ट्रेलिया या खाड़ी जैसे दुनिया के अनेक हिस्सों में तो और भी कम बरसात होती है मगर वहां अकाल का साया नहीं पड़ता. तो क्या भारत में अकाल की जड़े सरकारी अनदेखी से जुड़ी हैं ?

अंग्रेजी हुकूमत में अकाल से निपटने के लिए 'फेमिन कोड' (अकाल संहिता) बुकलेट बनी थी. हमारी सरकार आज तक उसी को लेकर बैठी है. आस्ट्रेलिया, अमेरिका, इंग्लैंड और सऊदी अरब जैसे देशों में अकालरोधी नीतियां हैं; भारत देश या राजस्थान प्रदेश में जहां 100 में से 90 साल सूखा पड़ता है, कोई नीति नहीं है.

बायतु, बाड़मेर के भंवरलाल चौधरी और उनके साथी कहते हैं- “पानी, अनाज और चारे का न होना ही अकाल है. अगर पीने के लिए पानी, लोगों को अनाज और पशुओं को चारा मिल जाए तो फिर पानी गिरे या न गिरे, काहे का अकाल.”

जाहिर है, अपनी सरकार लापरवाही छिपाने के लिए अकाल से बरसात को जोड़कर चलती है और जनता भी ‘लकीर की फकीर’ बनी हुई है.

जयपुर से 500 किलोमीटर दूर, पाकिस्तान की सरहद से 100 किलोमीटर पहले, पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तानी जिले बाड़मेर में बायतु ब्लाक के कई अनदेखे गांव इस हकीकत को बयां कर रहे हैं. बायतु, लाहौर जाने वाली थार एक्सप्रेस का छोटा-सा पड़ाव है. वैसे तो सूखे की ज्यादातर योजनाएं यही के लिए बनती हैं, जो जयपुर से जोधपुर आते-आते खप जाती हैं और यहां के लोगों के हिस्से में रह जाती हैं अगले साल के मानसून वाले बादलों की आस.

इस बार मानसून फिर दगा दे गया. बंगाल की खाड़ी में कम दबाव वाले क्षेत्र के कमजोर होने से राजस्थान के 27 जिले भंयकर सूखे से ग्रस्त घोषित किए गए हैं. केंद्रीय रुक्ष क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, काजरी के मुताबिक इस साल 2002 से भी खतरनाक अकाल के हालात हैं. बाड़मेर सहित 6 जिलों में औसत से 60 फीसदी कम बरसात हुई जिससे बाजरा, पानी, कितना सूखा, कितनी उपज, कितनी आमदनी, गरीबी, बेकारी, पलायन, कर्ज, योजनाएं गुहार और मोठ की फसलें फिर खड़ी-खड़ी सूख रही हैं. नतीजतन अभी से हिसाब लगाया जा रहा है- कितना, फायदे, दावे, कायदे..... और वायदे!

अकाल का घर


बाड़मेर जिले में 100 सालों के आकड़े देखें तो 80 साल सूखे के काले साए में बीते. बाकी 20 सालों में से 10 साल सुकाल और 10 साल 50-50 वाला हिसाब-किताब रहा.

फसलों का उत्पादन देखें तो 100 में से 30 साल 0 (शून्य) प्रतिशत और 20 साल 10-20 प्रतिशत (बेहद मामूली) उत्पादन रहा. बाकी बचे 50 में से 20 साल 20-30 प्रतिशत, 10 साल 30-40 प्रतिशत, 10 साल 50-60 प्रतिशत और 10 साल 70 प्रतिशत तक उत्पादन हुआ.

पानी की जरूरत को देखें तो कुल जरूरत का 10 प्रतिशत भी पूरा नहीं हो पाता, बाकी 90 प्रतिशत की पूर्ति के लिए निजी टांके से 40 प्रतिशत, सरकारी टैंकरों से 10 प्रतिशत और खारे पानी से 20 प्रतिशत तक की भरपाई होती है. फिर भी 30 प्रतिशत का भारी अंतर रहता है, जिसका कोई स्त्रोत नहीं.

निजी टांके से जो 40 प्रतिशत पानी की भरपाई होती है, वह भी बरसात के भरोसे है. अगर बूंदे न बरसीं तो निजी टांके की भरपाई का प्रतिशत 40 से लुढ़ककर 5 प्रतिशत तक आ जाता है. तब खारे पानी की भरपाई 20 से 40 प्रतिशत तक बढ़ाना एक मजबूरी है.

सूखे का फायदा

1947 के बाद, 62 सालों में एक बार सूखे का स्थायी हल खोजने की कोशिश हुई थी. राजीव गांधी के समय, पंजाब के हरिकेन बांध से जो इंदिरा-गांधी नहर गडरा (बाड़मेर) तक आनी थी, उसे भी केंद्रीय सत्ता में बैठी ताकतों ने अपने फायदे के लिए मोड़ लिया. नहर को गंगानगर, बीकानेर, जैसलमेर से होकर करीब 800 किमी का रास्ता तय करना था, जैसे ही यह 300 किमी दूर बीकानेर पहुंची वैसे ही तत्कालीन कपड़ा मंत्री अशोक गहलोत (अबके मुख्यमंत्री) ने पाइपलाइन का रुख जोधपुर की कायलाना झील की तरफ करवा दिया. इससे पहला फायदा महाराजा गजोसिंह को हुआ और झील का पट्टा आज भी उन्हीं के नाम चढ़ा हुआ है. पानी पहुंचते ही पर्यटन का उनका धंधा लहलहा उठा, होटल तो था ही, हुजूर ने ‘वाटर रिसोर्स सेंटर’ के नाम पर महल भी बनवा लिया. अशोक गहलोत, जो खुद भी माली जाति और जोधपुर इलाके से हैं, उन पर ‘माली लॉबी’ के दबाव में काम करने का आरोप लगा क्योंकि पाइपलाइन मोड़ने का दूसरा फायदा माली जाति के कुओं को रिचार्ज करने में हुआ. लिहाजा असली प्रभावितों की आंखे बेवफा बादलों को घूरती रह गई.



1990 में सरकार ने पैसा बटोरने के लिए हरे-भरे खेतों से कलकल बहती नहर की तस्वीर दिखाई थी. अपनी जिंदगी में भी हरियाली लाने के लिए लोगों ने सरकार से नहर के आसपास की जमीनें खरीदी थीं. पनावड़ा, मनावड़ी, भियाड़ और भीमड़ा के गांव वाले अब बताते हैं कि जिनके पास पैसा नहीं था, उन्होंने घर की औरतों के गहने तक बेचे और बोली लगा-लगाकर जमीनें खरीदी थीं. उन्होंने पांच एकड़ की रूखी जमीन के टुकड़े को एक लाख से 5 लाख रु. तक में खरीदा, जंगली झाड़-पेड़ उखाड़े और फिर उन्हें पहले मैदानों में और खेतों में बदला. मगर यह विडंबना ही है कि उस समय भी उन जमीनों की कीमत कुछ नहीं थी, आज भी कुछ नहीं है. वहां रेतीली आंधियों से सिर्फ रेत की नहरें बनती और बिगड़ती रही.

अकाल का हाल

उन्हें पीने के पानी की हरेक बूंद का ख्याल रहता है. महंगा पानी खरीदने से मजूरी का बड़ा हिस्सा पानी में जाता है. कन्नौड़, कोल्हू, अकड़दरा, चिड़िया जैसे कई गांवों में खारे पानी के टयूवबेल दिखते हैं, जो केवल यहीं दिखते हैं और यदा-कदा, टयूवबेल में बाकायदा सरकार के बिजली कनेक्शन लगे हैं. रेतीली मिट्टी में साल्ट ज्यादा होने से पानी रिसते-रिसते अपनी मिठास खो देता है. इसके बावजूद रेतीली जमीन के 250-300 फीट नीचे से खारे पानी को बरसात के मीठे पानी में मिलाकर लोग अपना गला गीला करते हैं. इन्हीं दिनों असंख्य आवारा और घरेलू जानवर असमय मौत के शिकार बनते हैं.

पानी की कमी से गला ही नहीं पेट भी सूखता है. इसलिए मजूरी का दूसरा बड़ा हिस्सा अनाज संकट से उबरने में जाता है. कतरा, केसुमला और शहर के गांववाले बताते हैं कि उन्हें गेहूं, मक्का, ज्वार के बजाए मालाड़ी बाजरा खाने की आदत है. वास्तव में वे यूपी में जानवरों को खिलाने वाला बाजरा खाते हैं. सूखा की लपटों से परंपरागत बीजों की कई किस्में खत्म हो रही हैं. ऊन उत्पादन के लिए भेड़ पालने वाले गड़रिए भेड़ो को काट-काटकर भूख की आग मिटाते हैं.

रोजी-रोटी का दूसरा जरिया चारा है. नगाना और खेतिया का तला के लोगों से जाना कि भैंस के बजाए यहां के लोग गाय, ऊंट, भेड़, बकरी और गधा पालते हैं. बढ़ते तापमान के हिसाब से भैंस की काली चमड़ी ज्यादा पानी मांगती है. जिन चरवाहों के पास 500 से ज्यादा जानवर हैं, वे पंजाब, हरियाणा, यूपी और मध्य प्रदेश का रुख करते हैं.

यहां पलायन की स्थिति दूसरे इलाकों के मुकाबले एकदम जुदा है. पूरे परिवार के बजाए एकाध आदमी घर से बाहर जाता है. छीतर का पार और बायतु के ज्यादातर लोग मानते हैं, पलायन करने वालों की हालत फिर भी ठीक हैं, जो पलायन नहीं कर पाते वो बेहद गरीब हैं. यहां रह जाने वालों का सारा पैसा पानी, अनाज और चारा खरीदने में चला जाता है. एक तो इतनी बेकारी, ऊपर से काम का दूसरा विकल्प न होने से पलायन यहां बुरा नहीं माना जाता. कुल मिलाकर 90 फीसदी घरों से पलायन होता है, जिन 10 फीसदी घरों से पलायन नहीं होता उनमें से ज्यादातर के यहां कमाने वाले ही नहीं होते. यहां के हालात समझने के लिए इतना काफी है कि 1964 का अकाल देख चुकी रत्नीबाई अब 74 बरस की हो चली हैं- पोपले चेहरे में धंसी आंखें भुखमरी, कुपोषण और तपेदिक जैसे रोगों की प्रतीक बन चुकी हैं.

सरकार बताती है कारण


1. बहुत कम बरसात.
2. बरसात की अनियमित आवृत्तियां यानी बादल की पहली बूंदों के बाद दूसरी बूंदें 20-30 दिनों में नहीं गिरीं तो फसलों की बर्बादी, फिर 1000 मिलीमीटर बरसात भी हो तो कोई फायदा नहीं.
3. थार की रेतीली आंधियां.
4. तापमान, अगर मानसून के मुकाबले तापमान का पारा 45 से 50 डिग्री तक चढ़े तो फसल जल जाती है.
5. ओले, पाला और कई किस्म के रोगों से मिलजुलकर अकाल पनपता है.

राहत की राजनीति

राहत योजनाएं अप्रैल से जून यानी साल के तीन महीनों के लिए ही होती हैं. इस दरम्यान बगैर पाइपलाइन वाले इलाकों में टैंकरों से पानी पहुंचाने की कोशिश होती है. लेकिन फतेहपुर के खियाराम कहते हैं- “जहां-जहां पाइपलाइन हैं, उनमें से ज्यादातर इलाकों में पानी की व्यवस्थाएं ठप्प हैं.” यानी ऊपर से ही यह मानकर चला जाता है कि व्यवस्थाएं सुचारू ढ़ंग से चल रही हैं.

चूंकि ‘फेमिन कोड’ में गाय को ही पशु माना गया है इसलिए सरकार के पशु-शिविरों में गाय को ही चारा खिलाने का कायदा है. यूं तो अंग्रेजों के जमाने में तो ऊंट को भी चारा मिलता था, क्योंकि उस समय परिवहन के मुख्य साधन ऊंट ही थे. अबके अधिकारियों को लगता है कि ऊंट परिवहन के साधन नहीं रहे इसलिए ‘वोट बैलेंस’ की राजनीति के चलते सिर्फ गाय के मरने की चिंता व्यक्त कर ली जाती है. वह भी वहां-वहां, जहां-जहां राजनैतिक दबाव है यानी 10 में से इक्का-दुक्का जगह. अकड़दरा के हनुमान कई उदाहरण देते हुए कहते हैं, “इन शिविरों में जब गाय तक चारा नहीं पहुंचता तो वह मरती हैं.” मरी गायों के बारे में लिखा जाता है- बचाने के विशेष प्रयासों के दौरान मारी गई.

सरकार की सुनें तो नरेगा ( राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) में 100 रु. ‘न्यूनतम मजदूरी’ है लेकिन मांग के मुताबिक भुगतान न होने से 100 रु. भी नहीं मिलते. ऐसे में 100 रु. को ‘अधिकतम मजदूरी’ कहना चाहिए. वैसे 100 रु. को भी घटाने की तैयारियां चल रही हैं. स्थानीय स्थितियों को देखते हुए यह सवाल बड़े काम का है, काम के बदले आखिर करवाया क्या? जैसे कि जिन गांवों में नाड़ियां (तालाब) नहीं हैं, हो भी नहीं सकते, क्योंकि वहां न पानी आता है, न रेतीली जमीनों में ठहरता है, वहां नालियां बनवाने से कोई फायदा नहीं. इसके बावजूद नालियां बनवाकर लाखों रु. राहत वाली फाइलों में चढ़ जाते हैं.

पनावड़ा के करणराम कहते हैं- “कुछ लोगों को तो रोजगार मिलता ही है, कुछ अधिकारियों को भी राहत मिल जाती है.”

आइए इसे एक किस्से से समझते हैं. जोधपुर के पास एक बड़ा पुराना तालाब था. क्योंकि अधिकारियों को नरेगा के तहत इसकी मरम्मत करवानी ही थी इसलिए उसे एक, दो, तीन साल तक खोदते रहे. जिस चिकनी मिट्टी से पानी ठहरता था, उसे ही उखाड़ते हुए आजू-बाजू में बड़े-बड़े टीले खड़े किए. जब बरसात का पानी उसमें आया तो 15 दिनों से ज्यादा नहीं ठहरा. अब अधिकारियों के सामने यह विपदा आन पड़ी कि टीले के वजूद में पड़ी मिट्टी को वापस तालाब में डलवाएं भी तो पैमेन्ट कहां से शो करेंगे, क्योंकि यह टॉस्क की कल्पना से परे था. यानी तालाब के तमाम काम निपटाने के नाम से तालाब का ही काम तमाम कर दिया गया.

इसी तरह विधानसभा क्षेत्र में कुल 25 हेडपंप लगने थे, क्योंकि दो सरपंच विधायक के खास थे इसलिए कोल्हू और अकड़दरा गांवों में 20 हेडपंप लग गए. यहां हेडपंप सफल नहीं माने जाते, लेकिन राहत के छोटे-छोटे बटवारों में भी दलगत, जातिगत, इलाकागत जैसे समीकरणों की भूमिका तो रहती ही है.

एक ओर राजस्व विभाग की गिरदावरी रिपोर्ट ने “बायतु ब्लाक के 47 गांवों में सूखा” बताया, दूसरी तरफ सरकार की ही बीमा कंपनी ने कहा- वह “6 खेतों के मूल्यांकन के बाद बताएगी कि यहां सूखा है या नहीं.”

चलते-चलते

मामला महज बाड़मेर का नहीं है, थार यानी देश के 61 फीसदी रेगिस्तान का जर्रा-जर्रा सूखे की कहानी खुद कहता है. यहां सरकारी उम्मीद की अकाल मौत तो बहुत पहले ही हो चुकी है, इसलिए भूखे, प्यासे और बीमार लोगों को बादलों से ही राहत का इंतजार है. अप्रैल की आखिरी तारीखों में मुख्यमंत्री जी ने बाड़मेर भ्रमण का कार्यक्रम बनाया था. तब पंचायत समिति सिणधरी के चबा गांव में अकाल राहत कार्य के 60 मजदूरों ने हाथ खड़े करके एक महीने से मजदूरी नहीं मिलने की व्यथा कहनी चाही थी. लेकिन दौरे के एक दिन पहले ही प्रशासन ने मुख्यमंत्री को भ्रमित करते हुए नेशनल हाइवे पर पानी के लबालब हौद भरे, चारे के टैंकर खड़े करवा दिए. सूखे को सरकारी आंखों से दिखा दिया गया.

घंटे भर में मुख्यमंत्री जी यहां से वहां हुए, हालात जहां के तहां रहे. हालात इन दिनों सूखे से अकाल में बदल रहे हैं, इसलिए सरकारी महकमों में मुख्यमंत्री जी के वहां से यहां होने की गर्मागर्म चर्चाएं हैं.

20.9.09

इसलिए सूरत में 50,000 बच्चे काम पर जाते है

शिरीष खरेसूरत: शहर में जो 262 प्राइमरी स्कूल हैं, उनमें महापालिका के स्कूलों की संख्या दो है। दूसरे हैरतअंगेज आंकड़ें के मुताबिक, महापालिका के सेकेण्डरी स्कूलों की संख्या है चार। 112.27 वर्ग किलोमीटर में फैले सूरत की 29 लाख आबादी में से 6 लाख गरीब हैं। एक तो प्राइमरी स्कूलों और गरीबों के बच्चों के बीच का फासला बेहद ज्यादा है, ऐसे में जो थोड़े से बच्चे किसी तरह स्कूल जाते हैं, उनमें से भी 10 प्रतिशत बच्चे सेकेण्डरी स्कूलों तक नहीं पहुंच पाते। सवाल है कि जो बच्चे स्कूल नहीं जाते वो क्या करेंगे ? जवाब मिलता है- आज नहीं तो कल काम पर ही जाएंगे।


गुजरात के महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र के अलावा सूरत सबसे मंहगे शहरों में से भी एक है। यहां साग-सब्जी, अनाज और रोजमर्रा की जरूरी चीजें बाहर से आने से बहुत मंहगी मिलती हैं। ऐसे में 4 सदस्यों वाले एक परिवार को यहां रहने के लिए कम से कम 5,000 रूपए तो चाहिए ही। इसलिए, घर की गृहस्थी चलाने में बच्चों को मददगार माना जाता है।
सूरत से मुंबई की तरफ जाने वाली ट्रेन की रफ़्तार तेज होते ही अंबेडकरनगर की घनी झुग्गियां बहुत पीछे छूटने लगती हैं। ऐसे में शायद ही किसी का ध्यान '''स्मीमेल हॉस्पीटल' की उस दीवार पर जाए, जिसके सहारे से करीब 100 झुग्गियां सट गई हैं। पटरियों के आसपास बिखरी गंदगी की सल्तनत से हवा में दूर तक कई किस्म की बदबुएं घुल-मिल गई हैं।
यहां रहने वाले संजू बाघेला, 3 भाईयों में सबसे बड़े हैं। 14 साल की उम्र कोई बड़ी उम्र नहीं कहलाती, फिर भी वह 6 महीनों से टेक्सटाइल मार्केट की गोदाम में लगा है। उसकी 10 गुणा 12 वर्ग फीट की एक झुग्गी ही कई चीजों जैसे डबल-बेड की लकड़ियों, बांस की बल्लियों, कच्ची मिट्टी, पत्थरों, पत्तों और पन्नियों से मिलकर बनी है। उसके मां-बाप रेलवे के खुले पुल के नीचे से गुजरने वाली रोड पर ठेला लगाकर सब्जियां बेचते हैं। सब कुछ ठीक रहा, तो वह रोज का 100 रूपए बचा लेते हैं। इस तरह महीने के 30 दिनों में 3000 रूपए भी जोड़ें, तो सूरत जैसी जगह के लिए बहुत थोड़े पड़ते हैं। ऐसे में संजू एक उम्मीद की तरह है, एक रोज जब वह लायक हो जाएगा तो महीने में 1,000 रूपए तो कमायेगा ही।
मालिक की नजर में संजू अभी लायक नहीं हुआ, इसलिए मेहनताने के नाम पर कुछ नहीं मिलता। यह पहली नौकरी है, इसलिए संजू हर सुबह 7 के पहले-पहले मान दरवाजे की साड़ी-गोदाम को निकलता है। 14 किलोमीटर आने-जाने में उसके कुछ दोस्त रिक्शा शेयर करते हैं। संजू का 10 रूपए रोज भाड़े में ही जाता है। लौटना रात 10 के पहले-पहले नहीं होता। वह सुबह 5 बजे उठने के लिए आते ही सो जाता है। अंधेरा छंटने के पहले उसे पटरी को पार करके खुले में शौच करना पड़ता है, घर का पानी भर लेना पड़ता है। वैसे घर के ज्यादातर काम छोटे भाई मुकेश के हिस्से में हैं। लेकिन, 12 साल के होते ही उसे भी ट्रेनिंग में भेजा जाने वाला है। इन बच्चों की मां दक्षा बेन ने बताया कि सब्जी खरीदने के लिए रोजाना 500 से 600 रूपए चाहिए। इन दिनों आजू-बाजू की बस्ती टूटने से ग्राहकी कम हो गई है। दूसरे किस्म के कामों में अनाड़ी हैं, भूखा सोने से बच्चों को काम पर भेजना अच्छा है।
संजू के तीन दोस्त बेअटक किताबे पढ़ते हैं। संजू केवल अपना नाम लिख पाता है। उसे 1,2,3 भी आता है, जोड़ना-घटाना नहीं। वह कुछेक रोज के लिए स्कूल भी गया था, लेकिन पहली के बच्चे के लिए रेल की पटरियां, संगम टेकरी के पहले आने वाले मेन-रोड़ के ट्रेफिक से गुजरते हुए दो किलोमीटर चलना बहुत मुश्किल था। जब से मोटर-साइकिल की टक्कर में दांया पांव खराब हुआ, तब से उसने स्कूल जाने का नाम ही छोड़ दिया।
आज भी रेलवे लाइन के छोटे बच्चे लाचार हैं क्रासिंग करने से। बड़े लाचार हैं उन्हें स्कूल लाने-ले जाने से। 11 फरवरी को जब बुलडोजर चला, तो पता चला कि यहां कुल 156 झुग्गियों के 1125 लोग रहते हैं, लेकिन यहां से एक भी बच्चा स्कूल नहीं जाता।
इस लाइन के अजय ठाकुर, मोगिया, परवीन अहीरे, संजय उखरू और राजा जनार्दन की कहानियां तो और भी उलझी हैं। अजय का पिता दीवाली को दारू के नशे में अपने दो लड़कों और तीन लड़कियों को छोड़कर खत्म हो गया। सोलह साल का अजय टेक्सटाइल मार्केट की बहुमंजिला इमारतों से बोरियां उठाकर नीचे खड़े ट्रको में भरता है। एक बोरी का 2 रूपए, इस तरह वह दिनभर में 25 बोरियों को ठिकाने लगाता है।
मोगिया का पिता भी ऐसे ही खत्म हुआ था। वह अभी 13 का है, और 12 की छोटी बहिन आकू के साथ कचरा बीनता है। 14 की कविता अपनी मां अरूणा के साथ 'स्मीमेल हास्पीटल' के बाथरूमों को साफ करती है। ऐसे सारे बच्चे रविवार को काम नहीं मिलने पर अंजू बेन के टेलीविजन के सामने जमा होते हैं। इस लाइन में एक ही टेलीविजन होने से यह हिस्सा वीडियो थियेटर जैसा लगता है।
यहां के बच्चे इधर-उधर ज्यादा घूम-फिर नहीं सकते, क्योंकि कई बार पुलिस धारा 155 और 109 का इस्तेमाल करके उन्हें अंदर डाल देती है। अगर मां-बाप को मालूम पड़ा, तो 50 रूपए के बदले वह अपने बच्चे को छुड़ा लाते हैं। दूसरी तरफ कानून को अनदेखा करते हुए महापालिका के कांट्रेक्टर छोटे-छोटे बच्चों से काम करवाते हैं। उदाहरण के लिए 12 साल का विनोद अपने कई दोस्तों के साथ सरदार ब्रिज में बिजली के खंभों को रंगता है। किसी विभाग में अगर 18 साल से कम उम्र के बच्चे काम करते हैं, तो उन्हें दण्ड दिया जाता है। इस लिहाज से महापालिका पर भी ऐसा दण्ड लगना चाहिए। सलामती का कोई भी साधन दिए बगैर बच्चों को ऐसे जोखिम भरे कामों में ही चढ़ा दिया जाता है। हमारे दौरे के दौरान ही पिप्लोद के पास के एक खंभे पर चढ़ा इलेक्ट्रिशियन हादसे में मारा गया।
सोमवार को हम संजू से मिलने के बहाने मान दरवाजे की गोदाम में गए। संजू गोदाम का काम तो करता ही है, जरूरत पड़े तो अशिंका-गारमेंट्स के नाम से चलने वाली मालिक की दूसरी दुकान में भी जाता है। शापिंग-काम्पलेक्स की यह गोदाम जमीन के भीतर है। गोदाम की गैलरी इतनी पतली, अंधियारी है कि बड़े-बड़ों की आंखें धुंधली हो जाएं। यहां एक छोटे से गोदाम में 12 से 15 साल तक के 12 बच्चे पतली-पतली उंगलियों से साड़ियों की कटिंग, धागों की बुनावट, पैकिंग और बोझा उठाने से लेकर सामान को दो मंजिला ऊपर तक लाने-ले जाने का काम करते हैं। 12 में से 8 को खांसी और दमा की बीमारी का पता लगते ही हम चौंक गए। वहां न पंखा है, न खिडकियां। गर्मी, एक जगह घंटों बैठने और काम से शरीर टूटता है, लेकिन काम नहीं रूकता। दिनभर भीतर बैठने से मालूम नहीं चलता कि दिन है या रात। आधे घंटे के लंच की खबर सुनते ही बच्चे समझ जाते हैं कि 2 से 3 बजा होगा।
गुजरात में बाल मजदूरी से जुड़े कुछ तथ्‍य:
गुजरात के ही एक-चौथाई से ज्यादा बाल-मजदूर काम करते हैं। सरकारी आंकडों के हिसाब से सूरत में 5,000 बाल-मजदूर हैं, जबकि गैर सरकारी आंकडों को देखें, तो यह संख्या 50,000 को पार कर जाती है।
इसमें 15 से 18 साल के 68 प्रतिशत बाल मजदूर हैं। ‘राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ भी यह मानता है कि गुजरात के सूरत, भावनगर और बांसकांठा जिलों में बाल मजदूरी के मामले सबसे ज्यादा सामने आए हैं। इन जिलों के कुल मजदूरों में से 28.51 प्रतिशत बाल मजदूर हैं।
यहां 4 लाख 50 हजार पावरलूम ही हैं। तेजी से बढ़ती पावरलूम इकाइयों ने अधिक, अकुशल और सस्ती मजदूरी के लिए बड़ी संख्या में बच्चों को काम पर लगाया है। टेक्स्टाइल इंडस्ट्री के बाल-मजदूर तीन पावरलूम फैक्ट्री, डाईंग प्रिटिंग और टेक्स्टाइल मार्केट में बटे हैं। यूनियनों की गैर मौजूदगी से भी बाल-मजदूरी में इजाफा हुआ। इन दिनों शहर की सारी पावरलूम इकाइयां मिलकर हर दिन 5 करोड़ का टर्नओवर करती हैं और हर दिन 35 हजार से एक लाख साड़ियां बनाती हैं।
गुजरात सरकार ने 2010 तक प्रदेश को बाल-मजदूरी से मुक्त करने का संकल्प’ ले लिया है।

19.9.09

वह गुजरात जिसे आप नहीं जानते

शिरीष खरे
गुजरात उपचुनाव का फल देख भाजपा का मुरझाया फूल जरा सा फूला नहीं कि नरेन्द्र भाई ने एक बार फिर अपने विरोधियों को विरोध न करने के लिए चेता दिया। भाई बोले हैं कि जो लोग विरोध करते रहते हैं वो जान लें कि राज्य के लोग किनके साथ हैं। भाई और उनके जो साथी इनदिनों एक-दूजे की पीठ ठोंक रहे हैं, उनसे गुजारिश है कि भाजपा, गांधीनगर की कुण्डली भी झांके। देखें इसमें भाजपा, दिल्ली की कुंडली की तरह कहीं शनि महाराज तो नहीं विराजे हैं। दशाओं का आपसी गठजोड़ और कालचक्र के हिसाब से एक-दूजे की पीठ की जगह छाती पीटने का योग बन बैठा है।
तो राज्य के लोग किनके साथ हैं आइए बात करते हैं पहले उनकी। याने गुजरात में आबादी के ढ़ाचे और उसके भीतर सत्ता के प्रतिनिधित्व की। यहां अनुसचित जनजातियां- 7 प्रतिशत, अनुसूचित जनजातियां- 15 प्रतिशत, मुसलमान- 11 प्रतिशत, पिछड़े 52 प्रतिशत हैं। इसके बावजूद आबादी का इतना बड़ा हिस्सा ‘पटेल-ब्राहमण-महाजनों’ की सत्ता के सामने कहीं नहीं दिखता है। कुण्डली की पहली दशा बीते दशक से ही गृह-नक्षत्र सुधारने के संकेत दे रही है। हाल के लोकसभा चुनाव में तो इस दशा ने बीजेपी की गृह-दिशा भी बिगाड़ दी। ऐसे में साम्प्रदायिक धुव्रीकरण से पनपी अंतर विरोधों की रेल भी अब पटरी से उतरने को है।
नरेन्द्र मोदी सत्ता में ऐसे ही नहीं हैं, उनकी जड़ों में हिन्दुत्व का प्रयोग, खाद, पसीना मिला है। चलिए बात बीते तीन दशक से शुरू करते हैं, 1980 में जब आरक्षण विरोधी आंदोलन हुआ तो गुजरात के मुसलमानों ने दलितों का साथ दिया। क्योंकि 80 के दशक में यहां करीब 50 कपड़ा मिलें बंद हुई थीं। इनमें दोनों समुदायों के लोग साथ-साथ काम करते थे और छंटनी के चलते दोनों के ही दुख एक जैसे थे। लेकिन 80 के बाद से दलित-मुसलमानों की बीच न केवल दूरियां बढ़ी बल्कि यह दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने भी आ खड़े हुए। 1980, 85 में जो दंगे हुए उसमें संघ ने हिन्दू पहचान को आगे रखा और दलितों की हिन्दू पहचान को प्रचारित किया। इससे दलितों को ऐसा लगा कि उन्हें अचानक ऊपर आने का मौका मिला है। उन्हें यह भी लगा कि देर-सबेर ऐसे संबंधों का फायदा भी मिलेगा। इसी के सामानान्तर यह भी प्रचारित किया कि आदिवासी तो हिन्दू ही होते हैं। आदिवासियों को भी सांस्कृतिक तौर से मुख्यधारा के हिन्दूओं में मिलाने का प्रयास हुआ। अंतत: 2002 के दंगों में हिन्दुत्व की तोप से दलित-आदिवासियों को गोले की तरह छोड़ने का प्रयोग सफल रहा। बहरहाल बहुत समय से हिन्दुत्व के प्रयोग ढ़ीले पड़े हैं, हिन्दुत्ववादियों के तो खुद ही पसीने छूटे हुए हैं, इससे देश की तरह राज्य की राशियां प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकतीं। नरेन्द्र भाई के क्रोध से राशियों के भटकने का संयोग बलवान होगा।
नृवंश शास्त्रीय सर्वे कहता है भारत में 4,599 समुदाय हैं, 12 भाषा परिवारों की 3,25 भाषाएं और 24 लिपियां हैं। यह सच है ‘भारत विविधताओं का देश है’। यह भी सच है कि ‘भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य’ है। लेकिन संविधान के पार हमारा समाज उतना ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘एक’ नहीं है, जितना कि दावा किया जाता है। हकीकत यह है कि आजादी के पहले 150 सालों में इतने साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुए जितने आजादी के 62 सालों में हुए। 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद से मुसलमानों ने महसूस किया कि उन्हें न्याय नहीं मिला। उसके बाद 2002 के गुजरात दंगों ने तो जैसे जता दिया कि अब उन्हें सुरक्षा ही मिल जाए तो बहुत है।
गुजरात में 1969 को जब दंगे हुए तो ‘रेड्डी जांच आयोग’ ने हिंदू महासभा और जनसंघ की भूमिका उजागर की। 1974 को नवनिर्माण आंदोलन के जरिए हिन्दुत्व को ऐतहासिक मौका दिया गया। 1975 में जनता मोर्चा सरकार में जनसंघ हिस्सेदार बना। उस समय जनसंघ ने 18 सीटें निकाली। आरक्षण विरोधी आंदोलन का समय आते-आते भाजपा लांच हुई। इस समय तक हिंदूवादी संगठनों ने दूरदराज के इलाकों तक अपनी जड़े जमा ली थीं। गुजरात में हिन्दुत्व को मजबूत बनाने के लिए 1983 में ‘गंगाजल एकात्मता यात्रा’ और 1990 में लालकृष्ण आडवानी की ‘अयोध्या रथयात्रा’ सोमनाथ से शुरू हुई। इसी के साथ मुसलमानों को लेकर समान नागरिक संहिता, कुरान पर रोक, तिरंगा फहराने, वंदे मातरम गाने, हज के लिए दी जाने वाली सब्सिडी, पाकिस्तान की वफादारी, हिन्दुस्तान के साथ गद्दारी, मदरसों की पढ़ाई जैसे मुद्दे में छोड़े गए।
लेकिन 2002 के दंगों में जैसा हुआ वैसा कभी नहीं हुआ। इसमें राज्य की व्यवस्था सीधे तौर से शामिल हुई। मुख्यमंत्री साहब ने तो अधिकारियों की बैठक में साफ-साफ कह डाला था कि गुजरात के लोगों को उनकी भावनाएं व्यक्त करने दीं जाए। इसके बाद कोई रिपोर्ट बोलीं 2,000 मुसलमान मारे गए, कोई बोलीं 2,000 से ज्यादा मारे गए। किसी रिपोर्ट ने 4,00 तो किसी ने इससे भी ज्यादा मुस्लिम महिलाओं से बालात्कार की बात मानी। ज्यादातर रिपोर्ट में कम से कम 6,00 के ऊपर धार्मिक स्थान ढ़हाये गए, करोड़ों की संपत्ति लूटी, लाखों मुसलमान विस्थापित हुए। आज भी अहमदाबाद, सूरत के हिस्सों में ‘हिन्दू राष्ट्र में आपका स्वागत है’ जैसे बोर्ड को लगा देखकर हेरत होती है। उससे भी खतरनाक तो वह संदेश होता है जो बोर्ड में नहीं होता है कि ‘हमें दंगे के बाद कोई पछतावा नहीं’। गुजरात में ‘मोदी की जीत’ से लंबी सूची तो ‘मुसलमानों के फर्जी मुठभेड़’ की है। उन्होंने इतना अंधेर किया कि देर से ही सही अब उन्हें भरने का समय नजदीक है। केसों की तादाद, उनकी गति और दिशाओं से लगता है कि मोदी के सितारे कभी भी डूब सकते हैं। जानकार जानते है कि उपचुनाव का नतीजा तो दीपक की बुझती लौ है। ऐसी दशा में राजनीति का मामूली पण्डित भी यह भविष्यवाणी कर सकता है कि भाजपा का ढ़लता सूरज कहीं और से नहीं गांधीनगर से ही ढ़लने वाला है।
और अब थोड़ा राजकाज की बातें, 2002 के दंगों के बाद सत्ता में नरेन्द्र मोदी तो मजबूत हुए मगर महाराष्ट्र और दक्षिण के राज्यों में जैसे महत्वपूर्ण जनांदोलन हुए वैसे आंदोलन गुजरात में नहीं देखें गए। देश के बाकी हिस्सों में जो प्रयास हुए वो यहां के आदिवासियों के हिस्से में नहीं आए। दक्षिण गुजरात के उकाई बांध से विस्थापितों को कुछ हासिल न हो सका। यहां के आदिवासी सूरत पहुंचे तो यहां की झोपड़पट्टी वाले कहलाए। फिलहाल इन्हें यहां से भी उजाड़ा जा रहा है। पहले की सरकारें भूमिहीनों को प्राकृतिक संसाधन देती थीं, घर और सहकारी मंडलों के लिए जमीन देती थीं। मोदी के राज में सब बंद है। दूसरे राज्यों में तो लड़-लड़कर जंगल पर आक्रमण और वन-विभाग के शोषण से मुक्ति मिली मगर मुक्ति की ऐसे लहरों से गुजरात बेदखल रहा। झारखंड, पूर्वी राज्यों की तरह यहां अभी तक आदिवासियों को अपनी पहचान का राजकीय मौका नहीं मिला। बिहार और यूपी में जातिवाद का विरोध होने से लगता है वहां जातिवाद ज्यादा है, असल जातिवाद तो गुजरात में हैं। यहां तो दलित विरोध करने की हालत में भी नहीं हैं। यहां के अनेक हिस्सों में सिर पर मैला ढ़ोने का रिवाज आजतक बरकरार है। यही नहीं कला और साहित्य की प्रगतिशील धारा के रूकने से सांस्कृतिक शून्य भी समय के साथ बढ़ता गया है। रूकी हुई चीजों का फूटने की हद तक जाना मोदी के राजयोग का अंत दर्शाता है।
किसी भी राज्य के विकास को आबादी के कमजोर तबके की हालात के हिसाब से मापना चाहिए। गुजरात में मानव विकास बहुत पीछे है। मोदी सरकार का मकसद तो किसी भी कीमत पर बहुराष्ट्रीय और इन्फोटेक कंपनियों का विकास ही रहा, वह दिखता भी है। यहां मुख्यधारा की अर्थव्यवस्था और राजनीति से जो अर्थ निकले हैं उनके मुताबिक (असमान) विकास अब किसी भी प्रकार की रोक-टोक के बगैर कर सकते हैं, इसमें गरीबों की कोई बिसात नहीं। पहले की सरकारें गरीबों के लिए कर्ज और सब्सिडी देती थीं। क्योंकि अब बाजारवाद में गरीबों को कर्ज या सब्सिडी देना फायदेमंद नहीं माना जाता, सो बैंकों ने हाथ ऊपर कर लिए हैं। क्योंकि राज्य के विकास में चंद खास शहरों को केन्द्र बनाया गया है, सो गांव में बेहिसाब बेकारी बढ़ी है और उसी अनुपात में पलायन भी। गुजरात में महिलाओं की पतली हालत पर खास तौर से रोशनी डालने की जरूरत है। यहां 0 से 6 साल की उम्र के बालकों में लिंग अनुपात 883:1000 है। पूरे देश में 927:1000 है। अहमदाबाद जिले का हाल यह है कि यहां मात्र 813 लड़कियां हैं।
महिलाओं की साक्षरता की दर देखें तो डांग, दाहोद, नर्मदा जैसे जिले में ही यह 35 प्रतिशत से भी कम है। जबकि यहां बालकों का लिंग अनुपात 950 है। यहां 99 प्रतिशत गर्भपात स्त्री भू्रण हत्या के कारण होते हैं। गुजरात के ही एक-चौथाई से ज्यादा बाल-मजदूर काम करते हैं। इसमें 15 से 18 साल के 68 प्रतिशत बाल मजदूर हैं। ‘राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ भी यह मानता है कि गुजरात के सूरत, भावनगर और बनासकंथा जिलों में बाल मजदूरी के मामले सबसे ज्यादा सामने आए हैं। इन जिलों के कुल मजदूरों में से 28।51 प्रतिशत बाल मजदूर हैं। सरकारी आंकडों के हिसाब से सूरत में 5,000 बाल-मजदूर हैं, जबकि गैर सरकारी आंकडों को देखे तो यह संख्या 50,000 को पार कर जाती है। शहर में जो 262 प्राइमरी स्कूल हैं उनमें महापालिका के स्कूलों की संख्या 2 है। दूसरे हेरतअंगेज आकड़े के मुताबिक महापालिका के सेकेण्डरी स्कूलों की संख्या है 4। 112.27 वर्ग किलोमीटर में फैले सूरत की 29 लाख आबादी में से 6 लाख गरीब हैं। एक तो प्राइमरी स्कूलों और गरीबों के बच्चों के बीच का फासला बेहद ज्यादा है, ऐसे में जो थोड़े से बच्चे किसी तरह स्कूल जाते हैं, उनमें से भी 10 प्रतिशत बच्चे सेकेण्डरी स्कूलों तक नहीं पहुंच पाते।
हालातों को मद्देनजर रखते हुए आखिरी भविष्यवाणी यह है कि गुजरात ‘गोधरा’ से ‘साबरमती’ लौटने वाला है, राज्य की पहचान ‘मोदी’ की बजाय ‘महात्मा’ बरकरार रहेगी।

14.9.09

ऐसा कैसा शिक्षा का अधिकार ?

शिरीष खरे

बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा विधेयक, 2009 पर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल सोचते हैं कि- ‘‘यह हमारे लिए एक बड़ा अवसर है, क्योंकि हमने हर बच्चे को शिक्षा का कानूनी हक दे दिया है।’’ उनके मुताबिक- ‘‘इसमें कोई राजनीति नहीं है। देश के भविष्य के लिए इसमें केन्द्र के साथ राज्य सरकारों को एक साझेदारी निभानी है।’’ कपिल सिब्बल जी जो भी कहे लेकिन उनके कहने के अर्थ ठीक उल्टे निकलते हैं।

हकीकत तो यह है कि इसी के साथ शिक्षा के अधिकार के नाम से संविधान के अधिकारों को ही कतरने का बंदोबस्त हो चुका है। जो बिल अधिकार देने बात करता है वो बच्चों में गैरबराबरी शिक्षा की नींव को मजबूत बनाता है। जिसे ऐतहासिक कामयाबी की तरह पेश किया जा रहा है दरअसल वह ऐतहासिक धोखा है, क्योंकि :

देशभर में 6 साल से नीचे के 17 करोड़ बच्चों को हमारा संविधान प्राथमिक शिक्षा, पूर्ण स्वास्थ्य और पोषित भोजन का अधिकार देता है। अब नए विधेयक पर नजर डाले तो इसमें सिर्फ 6 से 14 साल तक के बच्चों को ही जगह मिली है। सवाल उठता है कि फिर 6 साल से नीचे के 17 करोड़ बच्चों का क्या होगा ? इसी तरह 6 से 14 साल तक के बच्चों को मुफ्त में शिक्षा देने का दावा तो किया गया है लेकिन तमाम शर्तों में बांटकर। ऐसी तमाम शर्ते, उसकी किस्में और उन्हें लगाने का तरीके तक जब सरकारी लगाम के हिसाब से कसे होंगे तो बुनियादी अधिकार के जज्बात क्या मतलब रह जाता है ? बीते लंबे समय से देश के करोड़ो गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूलों में सुधार की उम्मीद की जा रही थी लेकिन इस विधेयक में कई प्रावधान प्राइवेटाइजेशन को आधार बनाकर रखे गए हैं। इस विधेयक से वैसे भी करीब दो-तिहाई प्राइवेट स्कूलों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। जहां तक प्राइवेट स्कूलों में फीस रखे जाने की बात है तो उसके नियंत्रण के बारे में कहीं कोई जबाव नहीं मिलता है। अर्थात यह पूरे देश में प्राइवेट स्कूलों को अपनी मनमर्जी से फीस वसूलने की आजादी बरकरार रखने वाला विधेयक है। विधेयक में यह भी तयशुदा नहीं है कि सभी स्कूलों का प्रबंधन एक जैसा होगा या कैसा होगा ? कई शब्दों की परिभाषाओं के सामने भी सवालिया निशान हैं। पैकेजिंग जैसी भी हो लेकिन यह विधयेक शिक्षा को निजीकरण की तरफ धकेलने और असमान शिक्षा की खाई को बढ़ाने का ही एक तरीका है।

इसी तरह विधयेक में कहा गया है कि प्राइवेट स्कूलों को 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को पढ़ाना है। फिलहाल राज्य सरकारें एक बच्चे पर सालाना करीब 2,500 रूपए खर्च करती है। विधयेक के हिसाब से खर्च की यह रकम राज्य सरकारों को प्राइवेट स्कूलों में बांटना होगी। ऐसे में जिन प्राइवेट स्कूलों की फीस सालाना करीब 2,500 रूपए से ज्यादा भी हुई तो वह अपने भीतर के नियम-कानून बदल देंगे। उनके भीतर अमीरों और गरीबों के बच्चों की मंहगी और सस्ती व्यवस्थाएं लागू हो जाएगी। तजुर्बे बताते हैं कि यह कई जगह लागू हो भी चुके हैं। ऐसे महौल में गरीब बच्चों को खैरात की शिक्षा मिली भी तो आठवीं तक, इसके बाद वह शिक्षा के अधिकार से बाहर जो आ जाएगा। आजकल शिक्षा की न्यूनतम जरूरत बारहवीं है। ऐसे गरीबों के बच्चे पिछड़े के पिछड़े ही रहेंगे। देखा जाए तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 18 साल से कम उम्र के बच्चों से काम करवाना गैरकानूनी है, अपनी सरकार बचपन को लेकर अलग-अलग परिभाषाओं में बंटे होने के बावजूद 18 साल से कम उम्र के बच्चों से काम नहीं करवाने का प्रचार-प्रसार करती है। लेकिन जब कानून या नीतियों के बनने का वक्त आता है तो उनमें घुमाफिराकर बच्चों को बाल मजदूरी की तरफ ले जाने की मंशाए विश्वबैंक के अघोषित एजेंडे से जुड़ जाती हैं।

विधेयक में सरकारी शिक्षकों के बारे में कहा गया है कि उनसे केवल शिक्षकीय कार्य ही करवाए जाएंगे सिवाय जनगणना, हर स्तर के चुनाव और आपदाओं से जुड़े कामकाजों को छोड़कर। ऐसे मे बचा ही क्या है, अगर कुछ बचा भी है तो वो आपदाओं से जुड़े कामकाजों में आ जाएगा। इसके मुकाबले प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों के हिस्से में केवल पढ़ाने-लिखाने का काम ही आएगा। पहले तो सरकारी स्कूलों के लिए बिजली, कम्प्यूटर और टेलीफोन लगाने की बात भी की गई थी। जिसे इस विधेयक में काट डाला गया है। ऐसे तो सरकारी स्कूलों के हालत सुधरने की बजाय बिगड़ेगी। सरकारी स्कूलों को तो पहले ही जानबूझकर इतना बिगाड़ा जा चुका है कि इसमें सिर्फ गरीबों के बच्चे ही पढ़ सके। सरकार इसके पहले भी शिक्षा की अलग-अलग परतों को मिटाने की बजाय कभी साक्षरता अभियान तो कभी अनौपचारिक शिक्षा तो कभी शिक्षा गांरटी शालाओं जैसी तरकीबों से भरमाती रही है। ऐसे में यह विधेयक और ज्यादा खतरनाक हो जाता है। यह तो बेहतर, बराबरी और भेदभावरहित शिक्षा के सपने को सिर्फ सपना गढ़कर रख देने की तरकीब हुई।

शिक्षा के अधिकार का जो कानून सड़क से संसद में दाखिल होना था, उसे कारर्पोरेट के वातानुकूलित महौल में तैयार किया गया है। यह सच है कि आज शिक्षा के निजीकरण के विरोध में जंगल और जमीन से जुड़े आंदोलन ही खड़े है। लेकिन आने वाले दिनों में जैसे-जैसे प्राइवेट और सरकारी स्कूलों के बीच की बराबरी और भेदभाव बढ़ेंगे वैसे-वैसे देश में मध्यम वर्ग के लोग भी विरोध में उतरते आएंगे। आगे क्या होगा, इसका अंदाजा तो आहटों से ही लगाया जा सकता है। फिलहाल यह विधेयक निजीकरण को बढ़ाने और एक समान शिक्षा के आंदोलन को पटरी से उतारने की साजिश से ज्यादा कुछ नजर नहीं आता है।

13.9.09

सुबह होने में अभी देर है..

शिरीष खरे
अजमेर स्टेशन उतरते ही भंवरीबाई को मोबाइल लगाया, वह लड़खड़ाती हुई आवाज में बोलीं- ‘‘आप तो औरतों की आवाज लिखने के लिए आ रहे हैं न, सीधे अजमेरी गेट थाने चले आइए।’’ मैंने अपने भीतर की लड़खड़ाहट को साधते हुए कहा- ‘‘लेकिन मामला क्या है...’’ (उधर से) ‘‘मामला थाने से ही समझ लेना। हम तो 50 साल की बूढ़ी औरतें हैं, आप नए लड़के हो, हमें तो दो-चार थप्पड़ के बाद बिठा दिया है, इसलिए आना चाहो तो ही आना।’’
मुंबई लौटने से अच्छा है अजमेरी गेट थाने चलना, आटो वाले ने सामान से लदा देख होटल में रूकने का बजट पूछा लेकिन थाने चलने की बात ने उसे थोड़ी देर के लिए चौंका दिया। थानाधिकारी सतीश यादव टेबल पर रखे ‘सत्यमेव जयते’ की प्लेट और पीछे की दीवार पर लटकी गांधीजी की फोटो के बीचोंबीच मानो 180 डिग्री का कोण बनाते हुए बैठे हैं। उन्होंने दूसरी तरफ निगाह टिकाते हुए कहा-‘‘आपकी तारीफ’’.... लेकिन बगैर जबाव सुने ही चल दिए। मेरा सवाल यह नहीं कि केस कितना छोटा या बड़ा है, या आप बड़ा किसे मानते हैं, सवाल है जब कभी गांवों में दलित और खासकर दलित महिला पर अत्याचार होता है तो आस-पड़ोस से लेकर पंचायत या पुलिस से लेकर कचहरी तक कैसी मानसिकता होती है ? आगे की किस्सा इसी मानसिकता को केन्द्र में रखकर लिखा जा रहा है।
रसूलपुरा गांव से दलित-महिला अत्याचारों के एक हफ्ते में ही तीन-तीन केस आने पर थानाधिकारी महोदय क्रोधित है। ‘महिला जन अधिकर समिति’ का आरोप है कि वह दलित-महिलाओं को कानून में दिये गए विशेष अधिकारों पर अमल करना तो दूर शिकायत दर्ज करवाने वाले को ही हवालात की हवा खिलाने लगे हैं। रसूलपुरा के सुआलाल भाम्बी, उसकी पत्नी गीतादेवी और पुत्री रेणु ने जब बीरम गूजर के खिलाफ जर्बदस्ती गाय हथियाने और मारपीट का मामला अलवर थाने में दर्ज करवाना चाहा तो सुआलाल भाम्बी को ही यह कहते हुए बंद कर लिया गया कि जांच के बाद पता करेंगे कि कसूरवार है कौन ?
रसूलपुरा, अजमेर से जयपुर जाने वाली सड़क पर बामुश्किल 10 किलोमीटर दूर है। यहां करीब 800 मतों में से 600 मुस्लिम, 150 गूजर और 50 दलितों के हैं। 20 साल पहले दलितों की संख्या ठीकठाक थी, तब से अबतक करीब 20 दलित परिवारों को अपनी जमीन-ज्यादाद कौड़ियों के दाम बेचकर अजमेर आना पड़ा है। बचे दलितों को भी गांव से आधा किलोमीटर दूर अपने खेतों में आकर रहना पड़ रहा है। यह भारत का वह हिस्सा है जहां आज भी चबूतरे पर दलितों का बैठना मना है, वह हेडपम्प का पानी नहीं भर सकते, साइकिल पर सवार होकर निकल तो सकते हैं लेकिन टोकने (रोकने) का डर भी है, पहले तो दलित दूल्हा घोड़े पर चढ़ नहीं सकता था लेकिन 10 साल पहले हरकिशन मास्टर ने घोड़े पर चढ़कर पुराना रिवाज तोड़ा था। 15 साल पहले छग्गीबाई भील सामान्य सीट से जीतकर सरपंच भी बनी थी, तब गांव की ईज्जत का वास्ता देकर सारे पंचों को एक किया गया और अविश्वास प्रस्ताव के जरिए छग्गीबाई को 6 महीने में ही हटा दिया गया। छग्गीबाई का सामान्य सीट से जीतना करिश्मा जैसा ही था। छग्गीबाई कहती हैं- ‘‘तब सामान्य जाति के इतने उम्मीदवार खड़े हो गए कि दलितों के कम मत ही भारी पड़ गए। नजीता सुनकर सवर्णों ने रसूलपुरा स्कूल घेर लिया, ऐसे में पीछे की कमजोर दीवार से लगी खिड़की तोड़कर मुझे पुलिस की गाड़ी से भगाया गया। पुराने सरपंच श्रवण सिंह रावत फौरन पंचायत की तरफ दौड़े, कुर्सी पर बैठकर बोले ‘ई भीली को कोड़ पूछै, कौड़ पैदा नी होय ऐसो, जो जा पंचायती में राज करै’।’’ याने एक गांव के ऐसे दो उदाहरणों से बीते 10-15-20 सालों के हालात देखें तो आपसी टकराहटों की तस्वीर थोड़ी-बहुत साफ होती है।
करीब 15 साल पहले इलाके की महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए समिति बनायी, नाम रखा ‘महिला जन अधिकार समिति’, तब 2-2 रूपए देकर 10-12 महिलाएं जुड़ी। केसर, तोला, सोहनी, सरजू, सकुंतला, रेनू, जूली, लीला, गंगा, रिहाना, संपत, भंवरीबाई जैसी महिलाएं अपनी छोटी-छोटी दिक्कतों और निपटारे के लिए चर्चाएं करतीं। भंवरीबाई बताती हैं- ‘‘5 साल के बाद जब हम बालविवाह, मृत्युभोज और जातिप्रथा जैसी बुराईयों के विरोध में बोलने लगे तो हमारा भी विरोध बढ़ने लगा। दलित महिलाएं जब जातिसूचक शब्दों और गालियों पर ऐतराज जताने लगीं तो सवर्ण कहते कि हम तो तुम्हें रोज ही गालियां देते थे, पहले भी तुम्हारे बच्चों को बिगड़े नामों से ही बुलाते थे, तब तो तुम्हें बुरा नहीं लगता था, अब क्यों लग रहा है ?’’ इस तरह की बहसों के बीच आपसी टकराहट का रुप बिगड़ता चला गया।
दलितों को सरकारी जमीन से होकर अपने खेत आना-जाना होता था। बीते 6 जून को तेजा गूजर ने उसी रास्ते पर गड्डा खोदा, तार और कांटे की बागड़ लगा दी। इसके बाद दलित महिलाओं की तरफ से भंवरीबाई ने तेजा गूजर से बात की- ‘‘लालजी (देवरजी) डब्बो थाओ बात करणी है।’’ जबाव में उन्हें मां-बेड़ की गालियां और रास्ते के ही गड्डे में गाड़ देने जैसी धमकियां मिलीं। इसके बाद दलित महिलाओं ने उनके बड़े भाई और वार्ड के पंच अंबा गूजर को बताया कि आपको वोट दिया तो इस उम्मीद पर कि सुख-दुख बांटोंगे, आप तो खुद ही दुख दे रहे हैं। जबाव में अंबा गूजर ने थाने घूम आने की नसीहत दी। असल में यह दोनों भाई कई गांवों जैसे बेड़िया, गूगरा, बुडोल और गगबाड़ा के दलितों की जमीनों को सस्ते दामों में खरीदने में लगे हैं। अगले दिन दलित महिलाएं जब नारेती पुलिस चैकी गईं तो पुलिस वाले बोले कि पहले जांच करेंगे, तब केस लेंगे। जांच के लिए जब कैलाश (दलित) कांस्टेबल आया तो तेजाभाई-अंबाभाई ऊपर बैठे और कैलाश कांस्टेबल आंगन के बाहर नीचे बैठा। यह नजारा देखते ही दलित महिलाएं अलवर गेट थाने पहुंची, जहां थानाधिकारी ऐसे मामलों के चलते पहले से ही हेरान-परेशान पाये गए। उन्होंने ऐसी वारदातों में कमी लाने की बात पर जोर दिया।
कल्याणजी पूरे भरोसे के साथ कहते हैं- ‘‘सवर्ण हमारे 30 एकड़ के खेतों के अलावा 4 एकड़ की सरकारी जमीन भी हथियाना चाहते हैं। यहां 1 एकड़ खेत की कीमत 1 लाख के आसपास चल रही है। हमारे पास गृहस्थी चलाने का मुख्य जरिया खेती ही है। 10-15 सालों से सूखा पड़ने से खेती वैसे ही चौपट है, मजूरी के लिए पलायन करना पड़ता है, ऐसे में सर्वणों की नीयत बिगड़ने से थाने-कचहरी के चक्कर भी लगाने पड़ रहे हैं।’’ इसी साल के कुछ मामलों पर नजर दौड़ाए तो जमीन के विवाद में 12 फरवरी को मामचंद रावत और उसके लोगों ने शंकरलाल रेंगर, उसकी पत्नी कमला, बेटी संगीता, बहू ललिता, बेटे विनोद और गोपाल के साथ घर में घुसकर मारपीट की। ‘दलित अधिकार केन्द्र’ के हस्तक्षेप करने से अलवर गेट थाने में तीन महीने बाद रिपोर्ट दर्ज हो सकी, अभी तक चलान पेश नहीं हुआ। इसके बाद तेजाभाई-अंबाभाई गूजर ने रास्ता रोकने का विरोध करने वाली गीता और सोहनी को पीटा। एसपी साब के हस्तक्षेप के बाद ही रिपोर्ट लिखी जा सकी, बहुत दिनों से कार्यवाही का इंतजार है। जिन दलितों के दिलों में अपनी जमीन खो देने का डर हैं, उनमें हैं कल्याण, कैलाश, ओमप्रकाश, रतन, सोहन, छोटू, नाथ, मोहन, सुआंलाल, गोगा, घीसू, किशन, दयाल, रामचंद, रामा, हरिराम.........
रसूलपुरा का सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक ताना-बाना ऐसा है कि वर्चस्व की लड़ाई में गूजरों के साथ मुस्लिमों ने हाथ मिला लिया है। लाला शेराणी और लाला सलीम जैसे दो मुस्लिम व्यापारियों ने तो गूजरों का खुला समर्थन किया है। इसमें से एक ने तो यहां तक कह दिया कि ‘पूरा गांव उलट-पुलट हो जाएगा, अगर एक भी गूजर थाने में गया तो।’ मुस्लिम और सवर्ण-हिन्दूओं की एकता का इससे बेहतरीन उदाहरण और कहां मिलेगा ?
इधर अलवर गेट थाने के थानाधिकारी महोदय की परेशानी समझ नहीं आती है, शंकरलाल रेंगर जब रिपोर्ट लिखाने पहुंचे तो थानाधिकारी महोदय ने स्वयं समझाने की कोशिश की थी कि ‘यह थाना केवल दलितों या रसूलपुरा के लिए नहीं खोला गया है, और भी तो लोग हैं, और भी परेशानियां हैं।’ उधर रसूलपुरा में शाम 7 बजे तक जब सुआलाल भाम्बी की गाय न लौटी तो उसकी पत्नी गीता और बेटी रेणु पता लगाने गांव में घूमने लगीं। उन्हें पता चला कि बीरम सिंह ने उनकी गाय बांध रखी है। इसके बाद जिसका अंदेशा था वहीं हुआ, गाय मांगने पर गाली-गलौज और विरोध करने पर मारपीट। उस वक्त एक भी बीच-बचाव में न आया। ऐसे में जब सुआंलाल, उसकी पत्नी गीता और बेटी रेणु रिपोर्ट लिखवाने आए तो सुआलाल को बंद कर लिया गया। लेकिन ‘महिला जन अधिकार समिति’ और ‘दलित अधिकार केन्द्र’ के विरोध के बाद पुलिस सुआलाल से कहती है कि ‘गांव चलते हैं, अगर एक भी आदमी यह कह दे कि यह तेरी गाय है तो रख लेना।’ सुआलाल बोला गवाह तो एक नहीं कई हैं, लेकिन मामला केवल गाय का नहीं है, गाय तो मेरी है ही, सवाल मेरी पत्नी और बेटी को बेवजह पीटने और गाली-गलौज का है, उसका न्याय चाहिए।’ पुलिस वालों के हिसाब से ‘ऐसे तो मामला सुलझने से रहा।’ इसलिए अगली सुबह गीता और रेणु को जिला एवं सेशन न्यायधीश, अजमेर का रास्ता पकड़ना है। रात उन्हें अजमेर ही ठहरना है, सुबह होने के पहले गांव के सवर्ण उन्हें कचहरी की हकीकत बताने के लिए आते हैं, वह गाय लौटा देने का वादा भी करते हैं, मारपीट और ईज्जत के सवाल पर लेन-देन की बातें भी चलती हैं। गीता और रेणु के शरीर पर चोट के निशान ज्यादा हैं, सुबह होने में अभी बहुत देर है लेकिन दोनों ने इस बार ईज्जत से कोई समझौता नहीं करने की ठानी है। कचहरी में, कचहरी से गांव और गांव से कचहरी जाने-आने के बीच क्या होता है, कचहरी के रास्ते चलकर क्या गांव के रास्ते चला जा सकता है, गांव के रास्ते पर वापिस लौटकर क्या ईज्जत से जीया जा सकता है, ऐसे ही कुछ और किस्से हैं, अगले हिस्से में....

9.9.09

वनों से कटे अधिकार

वनाधिकार कानून, 2005 को पारित करते समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह माना था कि आजादी के 6 दशकों तक आदिवासियों के साथ ऐतहासिक अन्याय होता रहा है और इस कानून के बाद उन्हें न्याय मिल पाएगा। लेकिन दक्षिण राजस्थान के वनों में वनाधिकार का हाल सरकार की दोहरी मानसिकता दर्शाता है। राजस्थान के उदयपुर जिले के गावों का दौरा करके लौटे शिरीष खरे की रिपोर्ट।
‘‘कानून में पटवारी फैसला नहीं लेता है। कानून में तो वह वनाधिकार समिति के साथ मिलकर कितना खसरा, कितना रकबा पर कितना कब्जा है, यह भर सत्यपापित करता है। लेकिन जमीन पर पटवारी ही असली खिलाड़ी है। खसरा, रकबा और कब्जा से जुड़ा अंतिम और सर्वमान्य फैसला उसी का है। यही हाल वन-विभाग के वनपाल का है। उसके हिस्से में वनक्षेत्र के नंबर देने, मेपिंग करने जैसे काम हैं। लेकिन उसका रोल भी मालिक जैसा है। सरकार ने कहा कि जो सत्यापन होगा वह जीपीएस मशीन से होगा, कानून में ऐसा तो कहीं भी नहीं लिखा है। यहां जीपीएस मशीनें बहुत कम हैं, उस पर प्रशिक्षित वनपाल ढ़ूढ़े से नहीं मिलते हैं।’’ - रामलाल खोकरिया और उनके कई सारे साथी, भलाई, उदयपुर।
‘‘ब्लाक स्तर की कमेटी बनी, उसने दावों की फाइलों को तीन भागों में बांटा- (एक) जो 1980 वाली फाइलें हैं, उन्हें पहली वरीयता दी जाए। (दो) इसके बाद 1991 की धारा में जो अतिक्रमित काष्ठकार हैं, उनका नियमन किया जाए। जिनके पास सबूत हैं उन्हीं के बारे में विचार किया जाए। (तीन) आखिरी में बचे लोगों के लिए 11 पेजों वाला आवेदन है। कानून में ऐसी वरीयता नहीं है। लेकिन सरकार ने वन के अधिकार को तीन भागों में बांटकर हमें भम्र के जाल में डाला हुआ है।’’ - हीरालाल बांदर और उनके कई सारे साथी, बावई, उदयपुर।
‘‘कानून कहता है कि जहां व्यक्तिगत दावा नहीं लग सकता वहां सार्वजनिक वनाधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं। दूसरी तरफ सरकार को सामुदायिक वनाधिकार देने में अड़चन है। तभी तो यहां वनाधिकार के आवेदन तक नहीं बने हैं।’’ - छत्तरसिंह चैहान, गड़रवास, उदयपुर।
‘‘आवेदन मंजूरी का अंतिम अधिकार जिला कमेटी को है। जिले भर से आवेदन की फाइलें आती रहती हैं लेकिन निपटारे के लिए कमेटी को बैठने का समय नहीं। याने जब आवेदन ही नहीं होंगे तो अधिकार के सवाल भी नहीं उठेंगे।’’ - शंकर सिंह सिसोदिया, निचला तालाब, उदयपुर।
‘‘दावों का सत्यापन गंभीरता से किया जा रहा है। यह एक लंबी प्रक्रिया है। कमी रहने पर दावे निचले स्तर पर भी लौटाए जा रहे हैं।’’-ओ पी सिंह, अतिरिक्त आयोग, जनजाति विकास विभाग, उदयपुर।
राजस्थान में वनाधिकार कानून, 2005 को 2008 में लागू किया गया। इसके मुकाबले महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्य बहुत आगे रहे। तब कि वसुंधरा राजे सरकार ने आवेदन को बेहद जटिल बना दिया। पहले इसे 3 पेज का बनाया, फिर 11 पेज का। फिर कहा कि इसमें एसडीएम की सील भी जरूरी है। यह आवेदन राज्य सरकार को उपलब्ध कराने थे लेकिन जब बाजारों में आए तो सरकार ने बाजारों के आवेदनों पर रोक लगा दी। सरकार ने वनाधिकार कानून को वनों तक लाने में जरूरत से ज्यादा समय खर्च किया। और जब यह वनों तक आया है तब: जीपीएस मशीन किसी भी व्यक्ति का लोकेशन देखता है तो अक्षांतर और देशांतर को केन्द्र में रखकर। इसमें सभी व्यक्तियों का लोकेशन नहीं देखा गया है। जैसे कि उदयपुर जिले के बबई गांव को अनसेटल्ड एरिया होने के चलते मापा नहीं जा सका है। ऐसे अनगिनत गांवों हैं जहां जीपीएस मशीन के गैरमौजूदगी में आवेदन नहीं भरे जा सके हैं। इसी तरह भाखरा गांव की फाइल रूकी हुई है। यहां के लोगों को वन-विभाग के भौतिक सत्यापन का इंतजार है। बिछीवाड़ा में वन-विभाग के दबाव में लोगों को जमीनों से बेदखल किया गया है। जलपका गांव के लोगों का आरोप है कि पटवारीसाब ‘खर्चापानी’ के चक्कर में फाइलें सत्यापित नहीं करते। पटवारीसाब के पास जीपीएस मशीन न होने का ठोस बहाना जो है।
मानव आश्रिता संस्थान, बावलवाड़ा’ के अजमाल सिंह के मुताबिक- ‘‘असलियत यह है कि यहां जमीन जोतने, लघु वन उपज, पंरपरागत सामुदायिक जंगल और उसकी रक्षा जैसे हकों का आज भी इंतजार है। कानून की लगाम विभागीय कर्मचारियों के हाथों में जो रखी गई है।’’ दक्षिणी राजस्थान के 5 जिलों उदयपुर, डोंगरपुर, बांसवाड़ा, राजसमंद और प्रतापगढ़ की 23 पंचायत समितियों में की कुल आबादी का करीब 75 प्रतिशत हिस्सा जनजातियों का है। इन्होंने 1995 से ‘जंगल जमीन जन आंदोलन’ के बैनर तले वनाधिकार की जो लड़ाई शुरू की थी उसे कानूनी तौर से 2005 में जीती भी। लेकिन कानून को उसी रूप में वनों तक लाने की लड़ाई अबतक चालू है। आंदोलन मानता है कि पहले 10 सालों में काफी कुछ बदला है और काफी कुछ बदलना बाकी है।
जमीन का आंदोलन
एक तरफ 1 जुलाई 1992 का आदेश था कि 01/07/1980 के पहले से जो आदिवासी जहां रहते हैं उनका नियमन राज्य सरकार शीघ्रातिशीघ्र करे। 1995 तक राजस्थान भर में कुल 11 कब्जों की पहचान हुई। दूसरी तरफ वन-विभाग वाले आदिवासियों को जंगल से बेदखली, हफ्तावासूली के साथ-साथ उनकी झोपड़ियों और खड़ी फसलों में आग लगाने जैसी कार्यवाहियां होती रही। 1995 में जनसंगठनों ने कुल 23 पंचायत समितियों में 17000 काष्ठकारों के जंगल में रहने का आकड़ा उजागर किया। 6 अक्टूबर, 1995 को 2000 आदिवासियों ने पहला प्रदर्शन जनजाति आयुक्त कार्यालय, उदयपुर में किया। प्रदर्शन से पहले लोग एक-दूसरे को भले ही नहीं जानते हो लेकिन सबका दर्द एक ही था। नारे क्या लगाने हैं, भाषण कौन देगा जैसी बातें भी उन्होंने टाउनहाल में तय की थीं। जब शहर के बीचोबीच जुलूस में भारी भीड़ उमड़ी तो दफ्तर के लोगों से मंत्रालय तक पता जाकर चला कि यह तो बड़ी समस्या है। आदिवासियों ने मांग रखी कि वन-विभाग की तरफ से बेदखली की कार्यवाही बंद हो। 15 दिसंबर, 1995 को जब राजस्थान के मुख्य सचिव मीठालाल मेहता उदयपुर दौरे पर आए तो जनता ने उन्हें 1992 के आदेश के नियमन की याद दिलायी। मुख्य सचिव ने तिथि आगे बढ़ाने और शीघ्रातिशीघ्र नियमन का आश्वासन दिया।
आश्वासन के अलावा कुछ होता नहीं देख 6 जुलाई, 1996 को उदयपुर तहसील की सभी तहसीलों के साथ बांसवाड़ा, डुंगरपुर और चित्तोड़गढ़ से 3000 आदिवासियों ने टाउनहाल के सामने अनिश्चितकालीन धरने की बात कही। प्रशासन ने सोचा कि यह दम दिखावटी है, रात होते-होते लोग वापस चले जाएंगे। लेकिन शाम होते-होते जब लोग अपने साथ लाए आटा-सामान खोलकर रोटियां बनाने लगे तो प्रशासन समझा। सुबह 10 बजते-बजते संभागीय आयुक्त एस अहमद ने लिखित आश्वासन पढ़कर सुनाया तो पुराने तजुर्बों के चलते लोगों ने भरोसा नहीं किया। काफी चर्चा-बहस के बाद लोग लिखित आश्वासन की सैकड़ों प्रतियां लेकर गांव गए। लिखित आश्वासन में कहा गया था कि लोकसभा के चुनाव के बाद कब्जों की पहचान करायी जाएगी। ऐसा कोई कार्यवाही होते न देख आंदोलन ने सर्वे प्रपत्र खुद बनाने का फैसला लिया। इसमें ग्राम स्तर पर समितियां बनाई गई। 31 जनवरी, 1997 तक सूचनाएं जमा हुई, जिसमें कुल 8788 लोगों का 71304 बीघा जमीन पर कब्जा पाया गया। याने 1 परिवार की औसतन 8 बीघा जमीन। 6 फरवरी, 1997 में जनजाति आयुक्त को 1980 से पहले काबिज लोगों की तहसीलवार सूचियां दी गई। 9 सितम्बर, 1997 को दो दिनों तक चले सम्मेलन में तय हुआ कि चार स्तरीय समितियां (ग्राम-पंचायत-तहसील-केन्द्रीय स्तर) बनायी जाए। 1998-99 में सरकार ने मौका सत्यापन के लिए शिविर लगाए। कोरम के अभाव में जो खानापूर्ति बनकर रह गए। 1998 के लोकसभा चुनाव में ‘सवाल हमारे जबाव आपके’ नाम से जो अभियान चलाया गया उसमें उम्मीदवारों से जंगल-जमीन को नियमन करने की बात पर लिखित आश्वासन मांगे गए। अलग-अलग क्षेत्रों से अलग-अलग पार्टी के उम्मीदवार जीते और पुराने आश्वासन भूले। लेकिन 5 सालों तक वनाधिकार की लड़ाई ने आंदोलन का रुप ले लिया था।
15 सितम्बर, 2004 तक वन मंत्री बीना काक ने जब कब्जों का भैतिक सत्यापन करवाने के वायदा नहीं निभाया तो आंदोलन ने विधानसभा का घेराव किया। उस समय दक्षिण राजस्थान के 16 विधायकों के साथ हुई चर्चा हुई। तब कई विधायकों और मंत्रियों का समर्थन मिला। 19 जुलाई को नई दिल्ली में दो दिनों तक चली राष्ट्रीय जनसुनवाई में 13 राज्यों से प्रतिनिधि आए। इसमें फैसला लिया गया कि जिन राज्यों की याचिकाएं ‘केन्द्रीय सशक्त समिति’ में दायर नहीं की गई हैं उन्हें दायर किया जाए। 18 अक्टूबर को तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के साथ हुई बैठक में दो बातें तय हुईं। एक तो आदिवासियों की बेदखली को फौरन रोका जाए। दूसरा फसल को आग लगाने से लेकर पुलिस कार्यवाही की घटनाएं भी बंद हो।
2002 को राजस्थान में लगातार चौथे साल अकाल पड़ने और राहत नहीं मिलने से आदिवासी इलाकों से भारी तादाद में पलायन होने लगा। भुखमरी और पशुओं की मौतों की तादाद में इजाफा बढ़ते देख आंदोलन ने 12 अप्रेल, 2002 को जो धरना दिया उसमें विश्वनाथ प्रताप सिंह और सीताराम येचुरी भी शामिल हुए। लोगों ने नारे लगाए- ‘‘भूखे पेट नहीं चलेगा यह अन्याय।’’ उस समय 60 लाख टन अनाज को सड़ाकर समुद्र में फेंका जा रहा था। लोग जैसे ही एफसीआई की गोदामों की तरफ बढ़े वैसे ही पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया। इसके बाद राज्य के लोगों को 2.5 लाख टन अनाज का कोटा मिला और ‘काम के बदले अनाज' की योजना बनी।
7 से 21 मार्च, 2005 को जंतर-मंतर, दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे ‘इज्जत से जीने के अधिकार’ के साथ ‘वनाधिकार विधेयक’ को संसद में पास कराने के लिए 15 दिनों का धरना दिया गया। इसके समर्थन में 41 सांसद व्यक्तिगत तौर से उपस्थिति हुए। इसके बाद 20 सांसदों की एक समिति भी बनी जिसने अपने स्तर पर संसद में काम करना शुरू किया। 16 सितम्बर, 2005 को राष्ट्रीय नेता और दक्षिण राजस्थान से 5000 से ज्यादा आदिवासियों ने ‘संयुक्त संघर्ष मंच’ की उदयपुर रैली में भाग लिया। 15 दिसम्बर को वनाधिकार कानून लोकसभा में और 18 दिसम्बर को राज्यसभा में पारित हुआ।
लेकिन दक्षिणी राजस्थान में वनाधिकार की लड़ाई अभी अधूरी है। प्रशासन ने अपनी सहूलियत के हिसाब से कानून में कई तरह के छेद कर दिए हैं। फिलहाल वनों के लिए बने अधिकार वनों से कटे लगते हैं। इसलिए यहां के आदिवासियों के बीच एक नारा बुलंद हो रहा है- ‘‘हमें जब तक वनाधिकार नहीं। हमारे वोट पर तुम्हारा अधिकार नहीं।।’’

8.9.09

एक कहे अकाल दूसरा बोले सुकाल

शिरीष खरे
4 फरवरी को जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बाड़मेर आए तो उन्होंने अफसरों को सीधे शब्दों में कह दिया कि संवेदनशील, पारदर्शी और स्वच्छ प्रशासन सरकार की पहली मंशा है। इसके बाद अनियमितता में डूबे विभागों ने मुख्यमंत्री जी के कथन को जिस ढ़ंग से उड़ाया उसका एक रंग है यह।
एक तरफ से राजस्व विभाग की गिरदावरी रिर्पोट ने बायतु ब्लाक के 47 गांवों को अकालग्रस्त दिखाया। उसने दावा किया कि राज्य सरकार ने अकालराहत के काम खोले, लोगों को रोजगार बांटा और कुल मिलाकर बड़ी राहत पहुंचाई। दूसरी तरफ कृषि विभाग ने अकाल मानने से मना कर दिया। याने एक ही सरकार के दो विभागों की अलग-अलग रिपोर्ट एक-दूसरे से ऐसी उलझी कि किसान बीच में ही फंसा रह गया। इस तरह से फसल बीमा योजना की क्लेम राशि ने अकाल पर ऐसा सवाल (बवाल) खड़ा कर दिया कि सवालिया निशान पर किसान ही झूलता नजर आया।
असलियत से मीलों दूर खड़ी यह योजना यहां के अकालग्रस्त गांवों को सुकाल में दर्शाने के लिए बदनाम हो गई। इसमें अकाल का आंकलन करने के लिए क्राप कटिंग को आधार बनाया जाता है। याने एक तहसील की 50 से ज्यादा पंचायतों के हजारों खेतों में से सिर्फ 16 खेतों को चुना जाता है। इन खेतों के एक छोटे से हिस्से की फसल को काटकर राजस्व बोर्ड के दफ्तर भेजा जाता है, इसके बाद राजस्व बोर्ड कृषि प्रयोगशाला में इसकी पैदावार का जोड़-घटाना लगाकर तय करता है कि इस बार अकाल आया भी है या नहीं। तब इसकी रिपोर्ट से निकलने वाले पैदावार के आकड़े पटवारियों की रिपोर्ट के आकड़ों से भिड़ जाते हैं। और सोचने के लिए रह जाता है किसान कि आखिर तहसील के हजारों खेतों की पैदावार की बुनियाद केवल 16 खेत कैसे हो सकते हैं ? वह भी थार में जहां बरसात का यह हाल है कि एक गांव में अकाल रहता है और दूसरे में सुकाल।
लेकिन 28 मार्च को एक बड़े अखबार के स्थानीय संवाददाता ने बाड़मेर-बालोतरा संस्करण में जो रिपोर्ट भेजी उसका र्शीषक था- ‘किसानों की उम्मीदों को पंख’। इंटरो था- ‘‘राष्ट्रीय कृषि बीमा कंपनी ने खरीफ फसल बीमा क्लेम राशि जारी कर किसानों को नए साल में नई सौगात दी है।’’ खबर का शरीर बनाते हुए उसने लिखा- ‘‘..... इससे आठों तहसील क्षेत्र के अकालग्रस्त गांवों के किसानों को प्रीमियम के आधार पर क्लेम मिलेगा। अकेले दी बाड़मेर सेंट्रल को-आपरेटिव बैंक को 24 करोड़ रूपए खरीफ बीमा क्लेम राशि मिली है। प्रबंध कार्यालय ने सभी ग्राम सेवा सहकारी समितियों को यह राशि जारी करने की कवायद शुरू कर दी है जो किसानों के खातों में जमा होगी।’’ जबकि उसी तारीख में बीमा कंपनी ने सभी तहसीलों में खरीफ फसल की ग्वार का क्लेम अटकाकर रखा था। मानो फसल के नुकसान का गलत आंकलन और भुगतान की अनियमितताएं कोई मामला ही न हो। मानो कुछेक गाँवों में ही अकाल की छाया हो, और उसे हटाने के लिए भी राहत का इंतजाम हो गया हो।
अप्रैल की 3 तारीख को बायतु इलाके के किसानों ने राजस्व मंत्री हेमारामजी चौधरी को ज्ञापन दिया और बताया कि कृषि विभाग ने क्राप कटिंग पैटर्न के तरीके से बाजरा और ग्वार में पूर्ण पैदावार दर्शायी है, इस तरह बाजरा और ग्वार में औसत 7.6 प्रतिशत और मोठ में 19 प्रतिशत की दर से भुगतान किया जा रहा है। किसानों ने कहा कि जितना उत्पादन लिखा है उतना तो बीज ही लग जाता हैं। योजना का यह हाल है कि जिसने लोन लिया उसे फायदा मिलता है, जिसने लोन नहीं लिया वह छूट जाता है। यह भी कहा कि बायतु अक्सर अकाल की मार झेलता रहा है इसलिए किसानों की आर्थिक स्थितियां बहुत खराब हैं। सरकार को तो अतिरिक्त सहायता पैकेज देना चाहिए था ऐसे में उल्टा किसानों को मिलने वाली राशि भी काटी जा रही है। इससे साफ समझ में आता है कि बीमा कंपनियों को फायदा पहुंचाया जा रहा है। यहां के किसानों ने मंत्री महोदय से मांग की : पूरा बीमा क्लेम दिया जाए और बीमा आंकलन का तरीका बदलते हुए गिरदावरी रिपोर्ट को आधार बनाया जाए। इन्होंने बताया कि फसल खराब होती है सितम्बर में और राहत पैसा मिलता है अप्रेल में। इससे 6 महीने का ब्याज ही करोड़ों रूपए हो जाता है, अकेले बायतु में 47 करोड़ रूपए बकाया हैं। इसलिए बीमा क्लेम का भुगतान फसल खराब होने के तुरंत बाद दिया जाए।
राजस्व मंत्री हेमारामजी चौधरी ने संशोधन की जरूरत पर जोर की बात को माना- ‘‘फसल बीमा में तहसील को आधार रखा गया है, जबकि गांव को इकाई बनाया जाए तो सही होगा।’’ इस बात को अगर एक उदाहरण से जोड़कर देखेंगे तो तस्वीर और साफ होगी- इस बार बाड़मेर तहसील में बाजरे का बीमा 14.67 प्रतिशत आया है। अब जिनका बाजरा पूरा खराब हुआ है उन्हें भी इतनी राशि मिलेगी और जिनका कुछ भी खराब नहीं हुआ उन्हें भी इतनी ही राशि।
आश्वासन की आश में जब हफ्ताभर से ज्यादा गुजर गया तो हजारों किसानों ने तहसील मुख्यालय के सामने धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया। मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन सौंपते हुए किसान संघ जनमोर्चा के पूर्व प्रदेश संयोजक भंवरलाल चौधरी ने सरकार से आर-पार की लड़ाई लड़ने का ऐलान किया और अखिल भारतीय किसान सभा, एसएफआई के साथ-साथ बाल पैरवी नेटवर्क की तरफ से भी समर्थन मिला। अनिश्चितकालीन धरने के 5 दिन बीत जाने पर भी प्रशासन हरकत में नहीं आया तो किसानों ने आमरण अनशन की धमकी देते हुए नेशनल हाइवे रोकने की चेतावनी दी। नेशनल हाइवे रोकने की खबर मिलने ही अधिकारी चेते। चर्चा में उपखण्ड अधिकारी और तहसीलदार ने 2 महीने की मोहलत मांगी। उन्होंने कहा कि ग्वार में बीमा कंपनी ने 61 प्रतिशत मंजूरी दी है, 2 दिनों में मुआवजे के लिए नुकसान की रिपोर्ट ऊपर भेज देंगे। किसानों ने प्रशासन की ओर से सही कार्यवाही और आचार सहिंता का पालन करने की बातें सुनकर अपना आंदोलन रोक दिया।
अनिश्चितकालीन धरने के उन 5 दिनों को याद करते हुए बाल पैरवी नेटवर्क के मोटाराम गौड़ बताते हैं- ‘‘यह किसानों का मामला था, किसानों ने ही उठाया और आगे बढ़ाया। वही तय करते कि आज कौन सा गांव रोटी लेकर आएगा। इसमें छोटे-छोटे जनप्रतिनिधियों की भागीदारिता रही। बड़ा प्रतिनिधि (जैसे सांसद) वगैरह आते तो 20-25 सरपंचों को देखकर दबाव में आ जाते।’’ बुजुर्ग किसान उदाराम कहते हैं- ‘‘14 अप्रेल याने अंबेडकर जंयती पर बड़े नेता के हाथों आमरण अनशन तोड़ने की बजाय नन्हीं बच्ची के हाथों जूस लिया। बीमा क्लेम यहां इतने बड़े मामले की तरह छाया कि हर पार्टी के बड़े नेता की गले में हड्डी बन गया। सांसद पद के कई उम्मीदवार हमारा समर्थन करते घूमते। हरीशचंदजी ने इसे 200 से ज्यादा बैठकों में उठाया और उनकी जीत में यहां के मतों ने अहम भूमिका निभाई।‘‘ अब नई सरकार के पुराने वायदे पूरा करने का समय है। अब देखना यह है कि जनता ने नई सरकार में जिस प्रतिनिधि (सांसद) को चुना है उसके कथन का रंग भी जमेगा या उड़ेगा ?