22.1.09

पत्थरों के रास्ते बदलाव


















शिरीष खरे


बीड़ से लौटकर

जिन दलितों से रोजाना रोटी की उलझन नहीं सुलझती थी अब वही पत्थरों के रास्ते बदलाव की तरकीब सुझा रहे हैं। जानवर चराने वाली पहाड़ियों पर ज्वार पैदा करने की सूझ अतिशेक्ति अंलकार जैसी लगती है. मराठवाड़ा में बीड़ जिले के दलितों ने `जमीन हक अभियान´ से जुड़कर जमीन का मतलब जाना और समाज का ताना-बाना पलटकर रख दिया. इन दिनों 69 गांवों की करीब 2000 एकड़ पहाड़ियां दलित-संघर्ष के बीज से हरी-भरी हैं. इस संघर्ष में औरतों ने भी बराबरी से हिस्सेदारी निभायी. इसलिए उन्हें जमीन का आधा हिस्सा मिला. इस तरह खेतीहीन से किसान हुए कुल 1420 नामों में से 710 औरत हैं.


साल पहले तक यह लोग पहाड़ों के चरवाहे कहलाते थे। यह तथ्य महाराष्ट्र के `जमीन गायरन कानून´ से मेल खाता है. इस कानून के मुताबिक 14 अप्रैल 1991 के पहले से जो परिवार ऐसी जमीन का इस्तेमाल करते हैं उन्हें वह जमीन दे दी जाए. लेकिन कानून बनने के एक दशक बाद भी लोग अनजान रहे. यह `जमीन वालों´ के असर से डरकर अपनी जमीन को `अपनी´ नहीं कह सकते थे. इसलिए `चाईल्ड राईटस एण्ड यू´ और `राजार्षि शाहू ग्रामीण विकास´ ने जब गांव-गांव तक इस कानून का संदेश पहुंचाया तो सभी ने उसे अनसुना कर दिया. लेकिन 2002 की एक मामूली प्रतिक्रिया ने बड़े संघर्ष को जन्म दे दिया. शिराल गांव के 2-3 दलित एक सुबह संगठन के आफिस आए और बोले कि हमने जबसे अपनी जमीन पर खेती की बात छेड़ी तब से सवर्ण धमकियां देते हैं. वह अपनी ताकत से हमें दबाते हैं. इसलिए संगठन आगे आए. कार्यकर्ताओं ने उन्हें समझाया कि संगठन चार रोज तुम्हारे साथ रहेगा. तुम्हें वही रहना है इसलिए वह जमीन और उसकी लड़ाई तुम्हारी ही है. उससे जो भी नफा-नुकसान होगा वह भी तुम्हारा ही होगा. सबकुछ तो सवर्णों का है इसलिए डरना तो उन्हें चाहिए. तुम्हारे पास जीने के लिए केवल एक जिंदगी है. कम से कम उस जिंदगी को तो निडर होकर जीओ. ऐसा सुनकर वह दलित अपने खेतों को आजाद कराने की बात कहकर चले गए.

इसके आगे का सिरा महेन्द्र जगतप ने जोड़ा- ``हम लोग गांवों में मिट्टी डालने और पत्थर हटाने लगे तो सवर्णों ने अचानक हमला बोल दिया. इसमें 5 लोग बुरी तरह घायल हो गए. संगठन के साथ मिलकर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज की. पुलिस कार्यवाही में 15 हमलावरों को 18 दिन जेल हुई. यह मामला कचहरी के मार्फत सुलझा.´´ इसके बाद संगठन ने शिराल गांव में जो बैठक बुलायी उसमें 2 हजार लोग इकट्ठा हुए. इसमें दलितों के साथ पारधी, भील, धनगढ़, सुतार, कुम्हार, बड़ई और लोहार समुदाय मिलकर एक हो गए. उन्होंने ``मार खाने को तैयार, जमीन छोड़ने को नहीं´´ जैसे नारे लगाकर यहां खेत बनाए और उसमें बीज डाले. वह एक-दूसरे को सुनते और उसमें गुणा-भाग लगाकर जगह-जगह लड़ने की तैयारियां करते. 8 दिन रूककर बाहरी लोग शिराल गांव से विदा हुए. तब फसल की रखवाली के लिए 35 दलित झोपड़ियां 120 एकड़ खेतों के इर्द-गिर्द बस गई. दामोदर धोरात ने बताया- ``जब पहली बार ज्वार की फसल आई तो हमारे अंदर इज्जत से जीने का सपना जागा. बढ़िया जीने की चाहत नई ऊंचाईयां छूने लगी. खेत मालिक बनने का सपना दूर-दूर तक फैल गया.´´

शिराल की लड़ाई रंग लायी और करंजी गांव के 15 दलितों ने 51 एकड़ पथरीली जमीन पर बीज रोपे. इस बार सवर्ण चुप रहे. मगर यह चुप्पी तूफान के पहले की थी. इसके बाद जहां-जहां दलितों ने खेत मालिक बनना चाहा वहां-वहां सर्वणों का अत्याचार कहर बनकर टूटा. पाठसरा में घर की कुण्डी लगायी और ऊपर की छत निकालकर मारा. भातुड़ी में सामाजिक बाहिश्कार करते हुए दाना-पानी बंद किया. धामनगांव में चोरी के झूठे मामलों के बहाने फंसाया गया. करेहबाड़ी में बस्ती और आसपास के जंगल को आग के हवाले किया. िशडाला में खेत का धान जला दिया. बेलगांव में खड़ी फसल को जानवरों के लिए छोड़ दिया. पारोडी में गेहूं की फसल काट ली और देवीगांव में खेत सहित जंगल जला डाला.

उस समय एक तरफ सवर्ण हमला करते दूसरी तरफ संगठन से जुड़े दलित पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज कराते। इस तरह पाठसरा से 250, भातुड़ी से 70, धामनगांव से 45, करेहबाड़ी से 70, शिडाला से 150, बेलगांव से 9, पारोड़ी से 70 और देवीगांव से 9 हमलावरों को गिरफ्तार किया गया। जैसे-जैसे गिरफ्तारियां बढ़ी वैसे-वैस दलितों पर हमले कम हुए. 2005 तक जातीय-संघर्ष का यह दौर पूरी तरह थम चुका था.

शिडाला के दादासाहेब बाग्मारे ने बताया- ``जब दलितों की अपनी जमीन हुई तो मजदूरों की कमी पड़ गई. ऐसे में बड़े किसानों ने मजदूरी बढ़ायी और काम के घण्टे तय किए. इससे हम छोटे किसानों को फायदा हुआ. हम अपनी खेतीबाड़ी से फुर्सत होते ही उनके खेतों के काम निपटाते. लेकिन बंधुआ मजदूर बनकर नहीं बल्कि अपनी मेहनत का सही मेहनताना लेकर. प्रभाकर सावले ने कहा- ``हम खेतों से साल भर का अनाज बचाते हैं और चारा बेचकर कुछ पैसा भी. इस तरह कई बकरियां खरीदी हैं. हम बहुत अमीर नहीं हुए लेकिन गृहस्थी की हालत पहले से ठीक है.´´ पाठसरा गांव की बैठक में सैकड़ों लोगों के साथ हम भी मौजूद हैं. यहां `संगठन´ के मतलब और मकसद पर गर्मागम चर्चा चल रही है. नमनदेव काले ने कहा- ``संगठन याने आप. अगर आपके अंदर की ताकत बढ़ती है तो संगठन खुद-ब-खुद ताकतवर होगा.´´ अप्पा बालेकर बोला- ``एक-एक से पूरा गांव और ऐसे कई गांवों से जुड़कर संगठन बनता है. संगठन के आगे आने का मतलब लोगों के आगे आने से होना चाहिए. एक के पीछे एक होने या किसी के हटने से संगठन नहीं रूकता.´´ चागदेव सांग्ले बोला- ``दूसरों के भरोसे जिया भी नहीं जा सकता. जो अपने आप चलता है वहीं संगठन है. हमें नेता नहीं, कार्यकर्ताओं चाहिए.´´ जनाबाई गरजी- ``अगर किसी गांव का संगठन पावरफुल है तो समझो वह आसपास के इलाके का पावरहाउस है.´´

करंजी गांव के मंदिर में दलितों का घुसना मना था लेकिन उर्मिला निकालजे आज वहीं की सरपंच हैं। उन्होंने बताया- ``जमीन-हक को लेकर निकलने वाली रैलियों में 10-15 हजार लोग जमा होते हैं। उन रैलियों को औरतें संभालती हैं। हम पुलिस हो या तहसीलदार, मिनिस्टर हो या कलेक्टर सबसे बतियाते हैं. अब हमारा अभियान सामुदायिक खेती के बारे में सोच रहा है. शिराल गांव की राहीबाई खंडागले ने बताया- ``ऐसी खेती में सारे खेतों की हदों को तोड़ दिया जाएगा। तब हर गांव का एक खेत होगा. इससे कम लागत और मेहनत में ज्यादा पैदावार होगी. जो फसल आएगी उसे बराबर हिस्सों में बांट दिया जाएगा. सवर्ण की सुने तो ऐसा मुश्किल है. जब हमने जमीन की लड़ाई शुरू की थी तब भी वह ऐसा ही कहते थे. हमने मिलकर 22 गांव के खेतों के लिए बाबड़ियां बनायी हैं. इसलिए सब मिलकर खेती भी कर सकते हैं.´´ पोखड़ी गांव की जनाबाई ने बताया- ``खेतों के बिना भी हमारी जिंदगी थी मगर बंधी हुई. ऊंची जाति के घरों से गुजारा चलता था. वह जैसा कहते वैसा करते. हम उनकी गंदगी उठाते. हमारे बच्चे उनके जानवरों के पीछे भागते. हमारे मर्द उनके खेतों में रात-दिन काम करते. इसके बदले साल में एक बार अनाज, उतरन के कपड़े और रोजाना बचा हुआ खाना मिलता. बारिश में जब झोपड़ियां बहती तो उनकी छतों का बाहरी हिस्सा हमारा आसरा बनता.´´ भातुड़ी गांव की अभिधाबाई धेवड़े ने कहा-``पहले बैठकों में हमें बुलाया नहीं जाता था और अब हम पंचायत का फैसला सुनाते हैं.´´

एक सदी पहले महात्मा फुले ने कहा था- ``शिक्षा बिना मति गई, मति बिना गति गई, गति बिना अर्थ गया और अर्थ बिना शूद्र बर्बाद हुए।´´ हमारी पंरपराओं ने दलितों को धन रखने की आजादी नहीं दी जिससे वह लाचार हुए. इसलिए वह सवर्णों पर निर्भर हो गए. यह निर्भरता आज तक बरकरार है. सामाजिक कार्यकर्ता बाल्मिक निकालजे ने इस स्थिति को उल्टने की बात कहते है- अगर दलितों को आत्मनिर्भर बनाना है तो उन्हें जीने के संसाधन देने होंगे। फिलहाल जमीन से बेहतर दूसरा विकल्प नजर नहीं आता. जमीन मिलते ही लोग मालिक बन जाते हैं. इसलिए बीड़ जिले के दलित आज किसी से कुछ नहीं मांगते. जमीन की यह लड़ाई स्वाभिमान से भी जुड़ी है.

जो पत्थर घास को रास्ता नहीं देता था आज वहां ख्वाहिशों की फसल है. यहां के धरतीपुत्रों ने धरती को आजाद किया और उससे जीना सीख लिया. इस तरह उन्होंने अपनी दुनिया को `सुजलाम सुभलाम मलयज शीतलाम´ बना डाला. लेकिन कानून के मद्देनजर उन्हें जमीन का पट्टा मिलना बाकी है. मतलब 15 साल गुजरने के बावजूद जमीन की लड़ाई यहां आज तक जारी है. जब तक लड़ाई पूरी नहीं होती तब तक यह कहानी भी अधूरी ही रहेगी.

10.1.09

गांव-गांव टूटकर, ठांव-ठांव बन गए













मेलघाट टाइगर रिर्जव एरिया से

इस साल ज्यों ही टाइगर रिजर्व बना कोरकू जनजाति का जीवन दो टुकड़ों में बट गया. एक विस्थापन और दूसरा पुनर्वास. ऊंट के आकार में उठ आये विस्थापन के सामने पुनर्वास जीरे से भी कम था. पुराने घाव भरने की बजाय एक के बाद एक प्रहारों ने जैसे पूरी जमात को ही काट डाला. अब इसी कड़ी में 27 गांव के 16 हजार लोगों को निकालने का फरमान जारी हुआ है. अफसर कहते हैं बेफिक्र रहिए, कागज में जैसा पुनर्वास लिखा है ठीक वैसा मिलेगा. जबाव में लोग पुनर्वास के कागजी किस्से सुनाते हैं. और आने वाले कल की फिक्र में डूब जाते हैं.


10 तक का पहाड़ा न आने के बावजूद 1974 यहां के बड़े-बूढ़ों की जुबान पर रखा रहता है. 1974 को `वन्य जीव संरक्षण कानून´ बना और `मेलघाट टाइगर रिजर्व´ वजूद में आया. कुल भू-भाग का 73 फीसदी हिस्सा कई तरह की जंगली पहाड़ियों से भरा है. बाकी जिस 27 फीसदी जमीन पर खेती की जाती है वह भी बारिश के भरोसे है. इस तरह आजीविका का मुख्य साधन खेती नहीं बल्कि जंगल ही है. इस 1677.93 वर्ग किलोमीटर इलाके को तीन हिस्सों में बांटा गया है- (पहला) 361.28 वर्ग किलोमीटर में फैला गुगामल नेशनल पार्क, (दूसरा) 768.28 वर्ग किलोमीटर में फैला बफर एरिया और (तीसरा) 1597.23 वर्ग किलोमीटर में फैला मल्टीपल यूजेज एरिया. तब के दस्तावेजों के मुताबिक सरकार ने माना था कि इससे कुल 62 गांव प्रभावित होंगे.

विराट गांव के ठाकुजी खड़के ने बताया कि- ``परियोजना को लेकर हम लोगों से कभी कोई जिक्र नहीं किया गया. 1974 में तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और प्रदेश के वनमंत्री रामू पटेल अपने काफिले के साथ यहां आए और कोलखास रेस्टहाउस में ठहर गए. उस वक्त रामू पटेल ने आसपास के खास लोगों को बुलाकर इतना भर कहा था कि सरकार शेरों को बचाना चाहती है इसलिए यहां शेर के चमड़ा बराबर जगह दे दो.´´ लेकिन यह चमड़ा चौड़ा होते-होते अब पूरे मेलघाट को ही ढ़कने लगा है. ऐसी स्थिति में `चाईल्ड राईटस एण्ड यू´ और `प्रेम´ संस्थाएं कोरकू जनजाति के साथ कदम से कदम मिलाकर संघर्ष कर रही हैं. `चाईल्ड राईटस एण्ड यू´ के महाप्रंबधक कुमार नीलेन्दु के मुताबिक- ``सरकार जनता के हितों के लिए काम करती है. मगर यहां तो स्थिति एकदम उल्टी है. कभी संरक्षण तो कभी विकास के नाम पर जनजातियों का ही विनाश जारी है. ऐसी योजना में न तो लोगों को शामिल किया जाता है और न ही खुली नीति को अपनाया जाता है. इसलिए व्यवस्था में घुल-मिल गई कई खामियां अब पकड़ से दूर होती जा रही हैं. सरकार हल ढ़ूढ़ने की बजाय हमेशा नई उलझनों में डाल देती है.´´

इस दिशा में पहला काम 1974 को बाघों की संख्या खोजने के लिए सर्वे से शुरू हुआ. 6 सालों तक तमाम कागजी कार्यवाहियों का दौर चलता रहा जिसमें सारी औपचारिकताएं पूरी कर ली गई. 1980 से `वन्य जीव संरक्षण कानून´ व्यवहारिक अगड़ाईयां लेने लगा. पसतलई गांव के तुकाराम सनवारे कहते हैं- ``जब बाबू लोग फाइलों को लेकर इधर-उधर टहलते तब हमने नहीं जाना था कि वह एक दिन जंगलों को इस तरह बांट देंगे. वह जीपों में सवार होकर आते और हर बस्ती की हदबंधी करके चले जाते. साथ ही हमसे खेती के लिए जमीन देने की बातें कहते. हमें अचरज होता कि जो जमीन हमारी ही है उसे क्या लेना. उनकी यह कागजी लिखा-पढ़ी 6 महीने से ज्यादा नहीं चली.´´ सेतुकर डांडेकर ने बताया- इतने कम वक्त में उन्होंने कई परिवारों को खेती के लिए पट्टे बांट देने की बात कर डाली. लेकिन उस वक्त कई परिवार पंजीयन से छूट गए. ऐसा लोगों के पलायन करने और सर्वे में गड़बड़ियों के चलते हुआ. इस तरह उन्होंने हमारी बहुत सारी जमीन को अपनी बताया. हमने भी जमीनों को छोड़ दिया. वन-विभाग ने ऐसी जमीनों पर पेड़ लगाकर उन्हें अपने कब्जे में ले लिया. हमारी सुनवाई एक बार भी नहीं हुई.´´ इस तरह किसानों की एक बड़ी आबादी को मजदूरों में बदल डाला. रोजगार गांरटी योजना के तहत अब तक 45780 मजदूरों के नाम जोड़े जा चुके हैं.

1980 के खत्म होते ही जंगल और आदिवासी के आपसी रिश्तों पर होने वाला असर साफ-साफ दिखने लगा. एक-एक करके उन्हें जंगली चीजों के इस्तेमाल से पूरी तरह बेदखल कर दिया गया. उन्हें भी लगने लगा जंगल हमारा नहीं, पराया है. इस पराएपन के एहसास के बीच उन पर जंगल खाली करने का दबाव डाला गया. `मेलघाट टाइगर रिजर्व´ से सबसे पहले तीन गांव कोहा, कुण्ड और बोरी के 1200 घरों को विस्थापित होना पड़ा था. पुनर्वास के तौर पर उन्हें यहां से करीब 120 किलोमीटर दूर अकोला जिले के अकोठ तहसील भेज दिया गया. कुण्ड पुनर्वास स्थल में मानु डाण्डेकर ने बताया कि- ``सर्वे में तब जो गड़बड़ियां हुई थी उन्हें हम अब भुगत रहे हैं. जैसे 6 परिवारों को यहां आकर मालूम चला कि उन्हें खेती के लिए दी गई जमीन तो तालाब के नीचे पड़ती है. अब आप ही बताए पानी में कौन-सी फसल उगाए? जो जानवर हमारी गुजर-बसर का आसरा हुआ करते थे इधर आते ही उन्हें बेचना पड़ा. क्योंकि चराने के लिए यहां जमीन नहीं थी इसलिए सड़क के किनारे-किनारे चराते. इस पर आसपास के लोग झगड़ा करते और कहते कि हमारे जानवर कहां चरेंगे ? हम आदमी के मरने पर उसे जमीन के नीचे दफनाते हैं. लेकिन यहां कहां दफनाए ?´´

पुनर्वास-नीति के कागजों में दर्ज हर सुंदर कल्पना यहां आकर दम तोड़ देती है. इन पुनर्वास की जगहों पर दौरा करने के बाद मूलभूत सुविधाओं का अकाल नजर आया. तीनों गांवों के बीचोबीच जो स्कूल खोला गया उसकी दूरी हर गांव से 2 किलोमीटर दूर पड़ती हैं. इस तरह गांव की बसाहट एक-दूसरे से बहुत दूर-दूर हो गई है. आंगनबाड़ी यहां से 5 किलोमीटर दूर अस्तापुर में हैं. प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के लिए 10 किलामीटर दूर रूईखेड़ा जाना होता है. इन्हें जिन इलाकों में जगह मिली है वह आदिवासी आरक्षित क्षेत्र से बाहर है इसलिए यह सरकार की विशेष सुविधाओं से भी बाहर हो गए हैं. जैसे पहले इन्हें राशन की दुकान पर अन्तोदय योजना से 3 रूपए किलो में 15 किलो चावल और 2 रूपए किलो में 20 किलो गेहूं मिल जाता था. वह अब नहीं मिलता. और तो और यहां बीपीएल में केवल 3 परिवारों के नाम ही जुड़ सके हैं. लगता है बाकी के हजारों परिवार इस सूची से भी विस्थापित हो गए हैं. 2002 में शासन ने बिजली, पानी और निकास के इंतजाम का वादा किया गया था. बीते 6 सालों में यह वादा एक सपने में तब्दील हो गया.

यहां से 4 किलोमीटर दूर कुण्ड गांव से विस्थापित नत्थू बेलसरे की सुनिए- ``6 साल पहले खेती के लिए मिली जमीन कागज पर तो दिखती है मगर यहां ढ़ूढ़ने पर भी नहीं मिलती. इसके लिए अमरावती से लेकर नागपुर तक कई कार्यालयों के चक्कर लगाए लेकिन जमीन का कोई अता-पता नहीं. इस पर बाबू लोग हैरान और हम परेशान हैं.´´ यहां से 4 किलोमीटर दूर कोहा पुनर्वास स्थल में हरिजंड बेलसरे और हीरा मावस्कर ने खेती के लिए जमीन नहीं मिलने की बात बताई. कुण्ड पुनर्वास स्थल पर तो 11 परिवारों को घर के लिए न तो पैसा मिला और न ही जमीन. लोगों ने कहा कि वह आज भी इधर-उधर गुजर-बसर कर रहे हैं. लेकिन कहां हैं, यह कोई नहीं जानता.

बोरी पुनर्वास स्थल में सुखदेव एवले ने बताया कि- ``हमारी पुश्तैनी बस्तियों को हटाए जाने के पहले इसकी कोई कागजी खबर और तारीख देना भी मुनासिब नहीं समझा गया। अफसर आते और कह जाते बस अब इतने दिन और बचे, फिर तुम्हें जाना होगा। उनका बस्ती हटाने का तरीका भी अजीब है. जिस बस्ती के इर्द-गिर्द 8-15 दिन पहले से ट्रक के ट्रक घूमने लगे, समझो घर-गृहस्थी बांधने का समय आ गया. कर्मचारियों के झुण्ड के झुण्ड चाय-पान की दुकानों पर जमा होकर तोड़ने-फोड़ने की बातें करते हैं. कहते हैं दिल्ली से चला आर्डर तीर की तरह होता है, आज तक वापिस नहीं लौटा. अगर समय रहते हट गए तो कुछ मिल भी जाएगा. नहीं तो घर की एक लकड़ी ले जाना मुश्किल हो जाएगा. ऐसी बातों से घबराकर जब कुछ लोग अपने घर की लकड़ियां और घपड़े उतारने लगते हैं तो वह बस्ती को तुड़वाने में हमारी मदद करते हैं. हमारे लड़को को शाबाशी देते हैं. देखते ही देखते पूरी बस्ती के घर टूट जाते हैं.´´

इसी तरह वैराट, पसतलई और चुरनी जैसे गांवों के घर भी टूटने वाले हैं. पुनर्वास के लिए शासन को 1 करोड़ 9 लाख रूपए दिये गए हैं. अधिकारियों को यह रकम बहुत कम लगी इसलिए उन्होंने और 2 करोड़ रूपए की मांग की है. ऐसे अधिकारी जंगल और जमीन के बदले नकद मुआवजों पर जोर देते हैं. जानकारों की राय में नकद मुआवजा बांटने से भष्ट्राचार की आशंकाएं पनपती हैं. जैसे सरदार सरोवर डूब प्रभावितों को नकद मुआवजा बांटने की आड़ में भष्ट्राचार का बांध खड़ा हो गया. जिसमें अब कई अधिकारी और दलालों के नाम उजागर हो रहे हैं. यहां भी कोरकू जनजाति का रिश्ता जिन कुदरती चीजों से जुड़ा है उसे रूपए-पैसों में तौला जा रहा हैं. लेकिन जनजातियों को रूपए-पैसों के इस्तेमाल की आदत नहीं होती. इसके पहले भी विस्थापित हुए लोगों के पास न तो जंगल ही रहा और न ही नकद. आखिरी में उसकी पीठ पर बस मुसीबतों का पहाड़ रह जाता है. वैराट गांव की मनकी सनवारे कहती है-``यहां से गए लोगों की हालत देखकर हम अपना जंगल नहीं छोड़ना चाहते. सरकार के लोग बस निकलने की बात करते हैं लेकिन अगले ठिकानों के बारे में कोई नहीं बोलता.´´

`प्रेम´ संस्था के संजय इंग्ले मानते हैं- ``शासन के पास दर्जनों गांवों को विस्थापित करने के बाद उन्हें एक जगह बसाने की व्यवस्था नहीं हैं. जिस अनुपात में विस्थापन हो रहा है उसी अनुपात में राहत मुहैया कराना बेहद मुश्किल होगा. पुराने तजुर्बों से भी ऐसा जाहिर होता है इसलिए अब और विस्थापन सहन नहीं होगा´´ उनके साथ वैराट, पसतलई और चुरनी गांवों से तुकाराम सनवारे, तेजुजी सनवारे, फकीरजी हेकड़े, किशनजी हेकड़े, शांता सनवारे, सुले खड़के, फुलाबाई खड़के और गोदाबाई सनवारे जैसी हजारो आवाजों ने विस्थापन के विरोध में एक आवाज बुलंद की है. क्या उनकी यह गूंज जंगल से बाहर भी सुनी जाएगी ?

हाल ही में इस डिवीजन के वनाधिकारी रवीन्द्र बानखेड़े ने सरकार को टाइगर रिजर्व की सीमा 444.14 वर्ग किलोमीटर बढ़ाने के लिए प्रस्ताव भेजा है. जब तक यह रिर्पोट प्रकाशित होगी तब तक हो सकता है उसे मंजूरी मिल जाए. फिलहाल एक और विस्थापन की इबारत लिखकर भेजी जा चुकी है. इसका मतलब दर्जनों गांवों के हजारों लोगों को उनकी दुनिया से बेदखल कर दिया जाएगा. इंसान और जानवर सालों से साथ रहते आये हैं इस सरकारी संरक्षण (उत्पीड़न) के बाद जानवर और इंसान सालों तक नहीं समझ पायेंगे कि उनके साथ क्या किया गया और क्यों?

3.1.09

लड़ाई-पढ़ाई साथ-साथ

शिरीष खरे

सरदार सरोवर बांध से नफा और नुकसान। पिछले दो दशकों से जारी इस बहस ने हमारे दिलो-दिमाग पर दो चित्र उभारे हैं। पहला चित्र बिजली, पानी और विकास की गंगा के रूप में तो दूसरा हजारों लागों के विस्थापन का दर्द लिए खड़ा है। नर्मदा घाटी के बाहर इस आंदोलन को जानने की उत्सुकता बनी रहती है। आंदोलन की दो रेखाएं सामानान्तर चल रही हैं। एक अहिंसा पर आधारित लड़ाई को जारी रखती है तो दूसरी रचनात्मकता का रास्ता दिखाती है।

बांध से प्रभावित आदिवासियों ने अपने बच्चों के लिए जीवनशाला नाम से कई स्कूल तैयार किए है। लोगों के मुताबिक `लड़ाई-पढ़ाई साथ-साथ´ होना चाहिए। विंध्यांचल और सतपुड़ा पर्वतमालाओं की ओट में यहां कई छोटे और सुंदर गांव हैं। यह गांव अपने जिला मुख्यालय से बेहद दूर और घनघोर जंगलों के बीच हैं। इन स्थानों में स्कूल भवन बनने और शिक्षक आने की राह तकना नियति का खेल समझा जाता था। ऐसा नहीं कि बांध विस्थापितों ने बच्चों की शिक्षा के लिये कभी गुहार नही लगाई हो। हर बार केवल आश्वासन मिलें और स्थिति जस के तस बनी रही। आखिरकार, आदिवासियों ने खुद बदलाव की यह पहल की। 1991-92 में, चिमलखेड़ी और नीमगांव में जीवनशालाएं शुरू हुई। काम नया और कुछ मालूम नहीं होने से चुनौती पहाड की तरह खड़ी थी। फिर भी जीवनशाला का आधार स्बावलंबी रखा गया। शुरूआत से ही सीमित साधन, संसाधन और समुदायिक क्षमता के अनुरुप बेहतर शिक्षा की बात पर बल दिया गया। इन जीवनशालओं का मकसद महज सरकारी स्कूलों की शून्यता भरना नहीं था बल्कि आदिवासी जीवनशैली को कायम रखना भी था। फिलहाल करीब 13 गांव में जीवनशालाएं संचालित है जो आसपास के 1500 से अधिक बच्चों को जिन्दगी की बारहखड़ी सिखाती हैं।

`नर्मदा बचाओं आंदोलन´ से जुड़े आशीष मण्डलोई बताते है कि- ``वैसे तो जीवनशाला का जन्म विस्थापन रोकने की लड़ाई का नतीजा रहा मगर जल्दी ही ऐसे स्थान आंदोलनकारियों के लिये विविध चर्चा, रणनीति और कार्यक्रम आयोजन का मुख्य केन्द्र बन गए। इस प्रकार आन्दोलन और जीवनशाला, दोनों को एक-दूसरे को लाभ पहुंचाने लगे। ऐसे स्थान आदिवासी एकता और भागीदारिता के प्रतीक बन गए।´´जीवनशाला में पढ़ाई-लिखाई का तरीका सहज ही रखा गया है। लोगों के बीच से कुछ लोग निकले और पढ़ाने लगे। इसमें गांव की बोली को वरीयता दी गई। इस दौरान किताबों का प्रकाशन भी पवरी/भिलाली बोलियों में किया गया। पहली बार बच्चों को उनकी बोली की किताबें मिल सकी। शिक्षकों ने ``अमर केन्या´´ (हमारी कथाएं) में कुल 12 आदिवासी कहानियों को समेटा। इसके अलावा सामाजिक विषयों पर ``अम्रो जंगल´´(हमारा जंगल) और ``आदिवासी वियाब´´(आदिवासी विवाह) जैसी किताबों को लिखा गया। केवल सिंह गुरूजी ने ``अम्रो जंगल´´ में यहां की कई जड़ी-बूटियों को बताया। खुमान सिंह गुरूजी ने ``रोज्या नाईक, चीमा नाईक´´ किताब में अंग्रेजी हुकूमत के वक्त संवरिया गांव के संग्राम पर रोशनी डाली। ऐसी किताबों में आदिवासी समाज का ईतिहास, साहित्य, कला, संस्कृति और परंपराओं से लेकर स्थानीय भूगोल, प्रशासन और कानूनी हकों तक की बातें होती हैं।
हर
किताब जैसे कुदरत के साथ दोस्ताना रिश्ता बनाने का संदेश देती है। पढ़ाई को दिलचस्प बनाने के लिये अनेक तरीको को अजमाया गया। ``अक्षर ओलखान´´(अक्षरमाला) में यहां की बोली के मुताबिक अक्षरों की पहचान और जोड़ना सिखाया गया है। इसमें कई आवाजों को निकालकर या आसपास की चीजों से मेल-जोल कराना होता है। नाच-गाना, चित्र और खेलों से पढ़ाई मंनारंजक बन जाती है। लिखने की कई विधियां को भी बार-बार दोहराया जाता है।
जीवनशाला से निकली पहली पीढ़ी अब तैयार हो चुकी है। जो अब शिक्षक बनकर अपने संस्कारों को आगे बढ़ा रहे हैं। लेकिन विकास के नाम पर जंगल काटने और अब घाटी के लोगों को भोजन की कमी महसूस होने लगी है। अपनी जमीन से अलग-थलग यहां का आदिवासी अपने को यकायक बाजार में खड़ा पाता है। उन्हें न आर्थिक सुरक्षा मिल पा रही है और न ही भावनात्मक। इतनी बड़ी निर्दोष आबादी से जहां एक ओर जीने के साधन छीने गए हैं वहीं दूसरी तरफ उन्हें पिछड़ा बताया जा रहा है। विस्थापन का कार्य गति पर है।

विस्थापन, दोबारा या बार-बार बसना, सरकारी योजना का लाभ न उठा पाना, कानूनी हक से बेदखल, मेजबान समुदाय की आनाकानी, नया समायोजन, शोषण, यौन उत्पीड़न, अधिक व्यय, हिंसा, अपराध,अव्यवस्था,संसाधन या जमीन की सीमितता, निर्णय की गतिविधि से कटाव, अस्थायी मजदूरी, मवेशियों का त्याग, प्रदूषण, सुविधा व स्वास्थ्य संकट........ एक तरफ बांध के कारण विस्थापन से विकराल आशंकाओं का इतना भरी बोझ है और दूसरी ओर जीवनशाला के नन्हें बच्चों के हाथों में खुली किताबों-सा खुला आसमान है। हालांकि उन्हें अभी बहुत सी परीक्षा पास करनी हैं मगर किसी के चेहरे पर चिंता की लकीर तक नहीं। बच्चों के हंसते चेहरों को देखकर लाख समस्याओं से लड़ने की मन करता है।