13.9.09

सुबह होने में अभी देर है..

शिरीष खरे
अजमेर स्टेशन उतरते ही भंवरीबाई को मोबाइल लगाया, वह लड़खड़ाती हुई आवाज में बोलीं- ‘‘आप तो औरतों की आवाज लिखने के लिए आ रहे हैं न, सीधे अजमेरी गेट थाने चले आइए।’’ मैंने अपने भीतर की लड़खड़ाहट को साधते हुए कहा- ‘‘लेकिन मामला क्या है...’’ (उधर से) ‘‘मामला थाने से ही समझ लेना। हम तो 50 साल की बूढ़ी औरतें हैं, आप नए लड़के हो, हमें तो दो-चार थप्पड़ के बाद बिठा दिया है, इसलिए आना चाहो तो ही आना।’’
मुंबई लौटने से अच्छा है अजमेरी गेट थाने चलना, आटो वाले ने सामान से लदा देख होटल में रूकने का बजट पूछा लेकिन थाने चलने की बात ने उसे थोड़ी देर के लिए चौंका दिया। थानाधिकारी सतीश यादव टेबल पर रखे ‘सत्यमेव जयते’ की प्लेट और पीछे की दीवार पर लटकी गांधीजी की फोटो के बीचोंबीच मानो 180 डिग्री का कोण बनाते हुए बैठे हैं। उन्होंने दूसरी तरफ निगाह टिकाते हुए कहा-‘‘आपकी तारीफ’’.... लेकिन बगैर जबाव सुने ही चल दिए। मेरा सवाल यह नहीं कि केस कितना छोटा या बड़ा है, या आप बड़ा किसे मानते हैं, सवाल है जब कभी गांवों में दलित और खासकर दलित महिला पर अत्याचार होता है तो आस-पड़ोस से लेकर पंचायत या पुलिस से लेकर कचहरी तक कैसी मानसिकता होती है ? आगे की किस्सा इसी मानसिकता को केन्द्र में रखकर लिखा जा रहा है।
रसूलपुरा गांव से दलित-महिला अत्याचारों के एक हफ्ते में ही तीन-तीन केस आने पर थानाधिकारी महोदय क्रोधित है। ‘महिला जन अधिकर समिति’ का आरोप है कि वह दलित-महिलाओं को कानून में दिये गए विशेष अधिकारों पर अमल करना तो दूर शिकायत दर्ज करवाने वाले को ही हवालात की हवा खिलाने लगे हैं। रसूलपुरा के सुआलाल भाम्बी, उसकी पत्नी गीतादेवी और पुत्री रेणु ने जब बीरम गूजर के खिलाफ जर्बदस्ती गाय हथियाने और मारपीट का मामला अलवर थाने में दर्ज करवाना चाहा तो सुआलाल भाम्बी को ही यह कहते हुए बंद कर लिया गया कि जांच के बाद पता करेंगे कि कसूरवार है कौन ?
रसूलपुरा, अजमेर से जयपुर जाने वाली सड़क पर बामुश्किल 10 किलोमीटर दूर है। यहां करीब 800 मतों में से 600 मुस्लिम, 150 गूजर और 50 दलितों के हैं। 20 साल पहले दलितों की संख्या ठीकठाक थी, तब से अबतक करीब 20 दलित परिवारों को अपनी जमीन-ज्यादाद कौड़ियों के दाम बेचकर अजमेर आना पड़ा है। बचे दलितों को भी गांव से आधा किलोमीटर दूर अपने खेतों में आकर रहना पड़ रहा है। यह भारत का वह हिस्सा है जहां आज भी चबूतरे पर दलितों का बैठना मना है, वह हेडपम्प का पानी नहीं भर सकते, साइकिल पर सवार होकर निकल तो सकते हैं लेकिन टोकने (रोकने) का डर भी है, पहले तो दलित दूल्हा घोड़े पर चढ़ नहीं सकता था लेकिन 10 साल पहले हरकिशन मास्टर ने घोड़े पर चढ़कर पुराना रिवाज तोड़ा था। 15 साल पहले छग्गीबाई भील सामान्य सीट से जीतकर सरपंच भी बनी थी, तब गांव की ईज्जत का वास्ता देकर सारे पंचों को एक किया गया और अविश्वास प्रस्ताव के जरिए छग्गीबाई को 6 महीने में ही हटा दिया गया। छग्गीबाई का सामान्य सीट से जीतना करिश्मा जैसा ही था। छग्गीबाई कहती हैं- ‘‘तब सामान्य जाति के इतने उम्मीदवार खड़े हो गए कि दलितों के कम मत ही भारी पड़ गए। नजीता सुनकर सवर्णों ने रसूलपुरा स्कूल घेर लिया, ऐसे में पीछे की कमजोर दीवार से लगी खिड़की तोड़कर मुझे पुलिस की गाड़ी से भगाया गया। पुराने सरपंच श्रवण सिंह रावत फौरन पंचायत की तरफ दौड़े, कुर्सी पर बैठकर बोले ‘ई भीली को कोड़ पूछै, कौड़ पैदा नी होय ऐसो, जो जा पंचायती में राज करै’।’’ याने एक गांव के ऐसे दो उदाहरणों से बीते 10-15-20 सालों के हालात देखें तो आपसी टकराहटों की तस्वीर थोड़ी-बहुत साफ होती है।
करीब 15 साल पहले इलाके की महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए समिति बनायी, नाम रखा ‘महिला जन अधिकार समिति’, तब 2-2 रूपए देकर 10-12 महिलाएं जुड़ी। केसर, तोला, सोहनी, सरजू, सकुंतला, रेनू, जूली, लीला, गंगा, रिहाना, संपत, भंवरीबाई जैसी महिलाएं अपनी छोटी-छोटी दिक्कतों और निपटारे के लिए चर्चाएं करतीं। भंवरीबाई बताती हैं- ‘‘5 साल के बाद जब हम बालविवाह, मृत्युभोज और जातिप्रथा जैसी बुराईयों के विरोध में बोलने लगे तो हमारा भी विरोध बढ़ने लगा। दलित महिलाएं जब जातिसूचक शब्दों और गालियों पर ऐतराज जताने लगीं तो सवर्ण कहते कि हम तो तुम्हें रोज ही गालियां देते थे, पहले भी तुम्हारे बच्चों को बिगड़े नामों से ही बुलाते थे, तब तो तुम्हें बुरा नहीं लगता था, अब क्यों लग रहा है ?’’ इस तरह की बहसों के बीच आपसी टकराहट का रुप बिगड़ता चला गया।
दलितों को सरकारी जमीन से होकर अपने खेत आना-जाना होता था। बीते 6 जून को तेजा गूजर ने उसी रास्ते पर गड्डा खोदा, तार और कांटे की बागड़ लगा दी। इसके बाद दलित महिलाओं की तरफ से भंवरीबाई ने तेजा गूजर से बात की- ‘‘लालजी (देवरजी) डब्बो थाओ बात करणी है।’’ जबाव में उन्हें मां-बेड़ की गालियां और रास्ते के ही गड्डे में गाड़ देने जैसी धमकियां मिलीं। इसके बाद दलित महिलाओं ने उनके बड़े भाई और वार्ड के पंच अंबा गूजर को बताया कि आपको वोट दिया तो इस उम्मीद पर कि सुख-दुख बांटोंगे, आप तो खुद ही दुख दे रहे हैं। जबाव में अंबा गूजर ने थाने घूम आने की नसीहत दी। असल में यह दोनों भाई कई गांवों जैसे बेड़िया, गूगरा, बुडोल और गगबाड़ा के दलितों की जमीनों को सस्ते दामों में खरीदने में लगे हैं। अगले दिन दलित महिलाएं जब नारेती पुलिस चैकी गईं तो पुलिस वाले बोले कि पहले जांच करेंगे, तब केस लेंगे। जांच के लिए जब कैलाश (दलित) कांस्टेबल आया तो तेजाभाई-अंबाभाई ऊपर बैठे और कैलाश कांस्टेबल आंगन के बाहर नीचे बैठा। यह नजारा देखते ही दलित महिलाएं अलवर गेट थाने पहुंची, जहां थानाधिकारी ऐसे मामलों के चलते पहले से ही हेरान-परेशान पाये गए। उन्होंने ऐसी वारदातों में कमी लाने की बात पर जोर दिया।
कल्याणजी पूरे भरोसे के साथ कहते हैं- ‘‘सवर्ण हमारे 30 एकड़ के खेतों के अलावा 4 एकड़ की सरकारी जमीन भी हथियाना चाहते हैं। यहां 1 एकड़ खेत की कीमत 1 लाख के आसपास चल रही है। हमारे पास गृहस्थी चलाने का मुख्य जरिया खेती ही है। 10-15 सालों से सूखा पड़ने से खेती वैसे ही चौपट है, मजूरी के लिए पलायन करना पड़ता है, ऐसे में सर्वणों की नीयत बिगड़ने से थाने-कचहरी के चक्कर भी लगाने पड़ रहे हैं।’’ इसी साल के कुछ मामलों पर नजर दौड़ाए तो जमीन के विवाद में 12 फरवरी को मामचंद रावत और उसके लोगों ने शंकरलाल रेंगर, उसकी पत्नी कमला, बेटी संगीता, बहू ललिता, बेटे विनोद और गोपाल के साथ घर में घुसकर मारपीट की। ‘दलित अधिकार केन्द्र’ के हस्तक्षेप करने से अलवर गेट थाने में तीन महीने बाद रिपोर्ट दर्ज हो सकी, अभी तक चलान पेश नहीं हुआ। इसके बाद तेजाभाई-अंबाभाई गूजर ने रास्ता रोकने का विरोध करने वाली गीता और सोहनी को पीटा। एसपी साब के हस्तक्षेप के बाद ही रिपोर्ट लिखी जा सकी, बहुत दिनों से कार्यवाही का इंतजार है। जिन दलितों के दिलों में अपनी जमीन खो देने का डर हैं, उनमें हैं कल्याण, कैलाश, ओमप्रकाश, रतन, सोहन, छोटू, नाथ, मोहन, सुआंलाल, गोगा, घीसू, किशन, दयाल, रामचंद, रामा, हरिराम.........
रसूलपुरा का सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक ताना-बाना ऐसा है कि वर्चस्व की लड़ाई में गूजरों के साथ मुस्लिमों ने हाथ मिला लिया है। लाला शेराणी और लाला सलीम जैसे दो मुस्लिम व्यापारियों ने तो गूजरों का खुला समर्थन किया है। इसमें से एक ने तो यहां तक कह दिया कि ‘पूरा गांव उलट-पुलट हो जाएगा, अगर एक भी गूजर थाने में गया तो।’ मुस्लिम और सवर्ण-हिन्दूओं की एकता का इससे बेहतरीन उदाहरण और कहां मिलेगा ?
इधर अलवर गेट थाने के थानाधिकारी महोदय की परेशानी समझ नहीं आती है, शंकरलाल रेंगर जब रिपोर्ट लिखाने पहुंचे तो थानाधिकारी महोदय ने स्वयं समझाने की कोशिश की थी कि ‘यह थाना केवल दलितों या रसूलपुरा के लिए नहीं खोला गया है, और भी तो लोग हैं, और भी परेशानियां हैं।’ उधर रसूलपुरा में शाम 7 बजे तक जब सुआलाल भाम्बी की गाय न लौटी तो उसकी पत्नी गीता और बेटी रेणु पता लगाने गांव में घूमने लगीं। उन्हें पता चला कि बीरम सिंह ने उनकी गाय बांध रखी है। इसके बाद जिसका अंदेशा था वहीं हुआ, गाय मांगने पर गाली-गलौज और विरोध करने पर मारपीट। उस वक्त एक भी बीच-बचाव में न आया। ऐसे में जब सुआंलाल, उसकी पत्नी गीता और बेटी रेणु रिपोर्ट लिखवाने आए तो सुआलाल को बंद कर लिया गया। लेकिन ‘महिला जन अधिकार समिति’ और ‘दलित अधिकार केन्द्र’ के विरोध के बाद पुलिस सुआलाल से कहती है कि ‘गांव चलते हैं, अगर एक भी आदमी यह कह दे कि यह तेरी गाय है तो रख लेना।’ सुआलाल बोला गवाह तो एक नहीं कई हैं, लेकिन मामला केवल गाय का नहीं है, गाय तो मेरी है ही, सवाल मेरी पत्नी और बेटी को बेवजह पीटने और गाली-गलौज का है, उसका न्याय चाहिए।’ पुलिस वालों के हिसाब से ‘ऐसे तो मामला सुलझने से रहा।’ इसलिए अगली सुबह गीता और रेणु को जिला एवं सेशन न्यायधीश, अजमेर का रास्ता पकड़ना है। रात उन्हें अजमेर ही ठहरना है, सुबह होने के पहले गांव के सवर्ण उन्हें कचहरी की हकीकत बताने के लिए आते हैं, वह गाय लौटा देने का वादा भी करते हैं, मारपीट और ईज्जत के सवाल पर लेन-देन की बातें भी चलती हैं। गीता और रेणु के शरीर पर चोट के निशान ज्यादा हैं, सुबह होने में अभी बहुत देर है लेकिन दोनों ने इस बार ईज्जत से कोई समझौता नहीं करने की ठानी है। कचहरी में, कचहरी से गांव और गांव से कचहरी जाने-आने के बीच क्या होता है, कचहरी के रास्ते चलकर क्या गांव के रास्ते चला जा सकता है, गांव के रास्ते पर वापिस लौटकर क्या ईज्जत से जीया जा सकता है, ऐसे ही कुछ और किस्से हैं, अगले हिस्से में....

1 टिप्पणी:

संजय तिवारी ने कहा…

आपको हिन्दी में लिखता देख गर्वित हूँ.

भाषा की सेवा एवं उसके प्रसार के लिये आपके योगदान हेतु आपका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ.