शिरीष खरे
बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा विधेयक, 2009 पर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल सोचते हैं कि- ‘‘यह हमारे लिए एक बड़ा अवसर है, क्योंकि हमने हर बच्चे को शिक्षा का कानूनी हक दे दिया है।’’ उनके मुताबिक- ‘‘इसमें कोई राजनीति नहीं है। देश के भविष्य के लिए इसमें केन्द्र के साथ राज्य सरकारों को एक साझेदारी निभानी है।’’ कपिल सिब्बल जी जो भी कहे लेकिन उनके कहने के अर्थ ठीक उल्टे निकलते हैं।
हकीकत तो यह है कि इसी के साथ शिक्षा के अधिकार के नाम से संविधान के अधिकारों को ही कतरने का बंदोबस्त हो चुका है। जो बिल अधिकार देने बात करता है वो बच्चों में गैरबराबरी शिक्षा की नींव को मजबूत बनाता है। जिसे ऐतहासिक कामयाबी की तरह पेश किया जा रहा है दरअसल वह ऐतहासिक धोखा है, क्योंकि :
देशभर में 6 साल से नीचे के 17 करोड़ बच्चों को हमारा संविधान प्राथमिक शिक्षा, पूर्ण स्वास्थ्य और पोषित भोजन का अधिकार देता है। अब नए विधेयक पर नजर डाले तो इसमें सिर्फ 6 से 14 साल तक के बच्चों को ही जगह मिली है। सवाल उठता है कि फिर 6 साल से नीचे के 17 करोड़ बच्चों का क्या होगा ? इसी तरह 6 से 14 साल तक के बच्चों को मुफ्त में शिक्षा देने का दावा तो किया गया है लेकिन तमाम शर्तों में बांटकर। ऐसी तमाम शर्ते, उसकी किस्में और उन्हें लगाने का तरीके तक जब सरकारी लगाम के हिसाब से कसे होंगे तो बुनियादी अधिकार के जज्बात क्या मतलब रह जाता है ? बीते लंबे समय से देश के करोड़ो गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूलों में सुधार की उम्मीद की जा रही थी लेकिन इस विधेयक में कई प्रावधान प्राइवेटाइजेशन को आधार बनाकर रखे गए हैं। इस विधेयक से वैसे भी करीब दो-तिहाई प्राइवेट स्कूलों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। जहां तक प्राइवेट स्कूलों में फीस रखे जाने की बात है तो उसके नियंत्रण के बारे में कहीं कोई जबाव नहीं मिलता है। अर्थात यह पूरे देश में प्राइवेट स्कूलों को अपनी मनमर्जी से फीस वसूलने की आजादी बरकरार रखने वाला विधेयक है। विधेयक में यह भी तयशुदा नहीं है कि सभी स्कूलों का प्रबंधन एक जैसा होगा या कैसा होगा ? कई शब्दों की परिभाषाओं के सामने भी सवालिया निशान हैं। पैकेजिंग जैसी भी हो लेकिन यह विधयेक शिक्षा को निजीकरण की तरफ धकेलने और असमान शिक्षा की खाई को बढ़ाने का ही एक तरीका है।
इसी तरह विधयेक में कहा गया है कि प्राइवेट स्कूलों को 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को पढ़ाना है। फिलहाल राज्य सरकारें एक बच्चे पर सालाना करीब 2,500 रूपए खर्च करती है। विधयेक के हिसाब से खर्च की यह रकम राज्य सरकारों को प्राइवेट स्कूलों में बांटना होगी। ऐसे में जिन प्राइवेट स्कूलों की फीस सालाना करीब 2,500 रूपए से ज्यादा भी हुई तो वह अपने भीतर के नियम-कानून बदल देंगे। उनके भीतर अमीरों और गरीबों के बच्चों की मंहगी और सस्ती व्यवस्थाएं लागू हो जाएगी। तजुर्बे बताते हैं कि यह कई जगह लागू हो भी चुके हैं। ऐसे महौल में गरीब बच्चों को खैरात की शिक्षा मिली भी तो आठवीं तक, इसके बाद वह शिक्षा के अधिकार से बाहर जो आ जाएगा। आजकल शिक्षा की न्यूनतम जरूरत बारहवीं है। ऐसे गरीबों के बच्चे पिछड़े के पिछड़े ही रहेंगे। देखा जाए तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 18 साल से कम उम्र के बच्चों से काम करवाना गैरकानूनी है, अपनी सरकार बचपन को लेकर अलग-अलग परिभाषाओं में बंटे होने के बावजूद 18 साल से कम उम्र के बच्चों से काम नहीं करवाने का प्रचार-प्रसार करती है। लेकिन जब कानून या नीतियों के बनने का वक्त आता है तो उनमें घुमाफिराकर बच्चों को बाल मजदूरी की तरफ ले जाने की मंशाए विश्वबैंक के अघोषित एजेंडे से जुड़ जाती हैं।
विधेयक में सरकारी शिक्षकों के बारे में कहा गया है कि उनसे केवल शिक्षकीय कार्य ही करवाए जाएंगे सिवाय जनगणना, हर स्तर के चुनाव और आपदाओं से जुड़े कामकाजों को छोड़कर। ऐसे मे बचा ही क्या है, अगर कुछ बचा भी है तो वो आपदाओं से जुड़े कामकाजों में आ जाएगा। इसके मुकाबले प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों के हिस्से में केवल पढ़ाने-लिखाने का काम ही आएगा। पहले तो सरकारी स्कूलों के लिए बिजली, कम्प्यूटर और टेलीफोन लगाने की बात भी की गई थी। जिसे इस विधेयक में काट डाला गया है। ऐसे तो सरकारी स्कूलों के हालत सुधरने की बजाय बिगड़ेगी। सरकारी स्कूलों को तो पहले ही जानबूझकर इतना बिगाड़ा जा चुका है कि इसमें सिर्फ गरीबों के बच्चे ही पढ़ सके। सरकार इसके पहले भी शिक्षा की अलग-अलग परतों को मिटाने की बजाय कभी साक्षरता अभियान तो कभी अनौपचारिक शिक्षा तो कभी शिक्षा गांरटी शालाओं जैसी तरकीबों से भरमाती रही है। ऐसे में यह विधेयक और ज्यादा खतरनाक हो जाता है। यह तो बेहतर, बराबरी और भेदभावरहित शिक्षा के सपने को सिर्फ सपना गढ़कर रख देने की तरकीब हुई।
शिक्षा के अधिकार का जो कानून सड़क से संसद में दाखिल होना था, उसे कारर्पोरेट के वातानुकूलित महौल में तैयार किया गया है। यह सच है कि आज शिक्षा के निजीकरण के विरोध में जंगल और जमीन से जुड़े आंदोलन ही खड़े है। लेकिन आने वाले दिनों में जैसे-जैसे प्राइवेट और सरकारी स्कूलों के बीच की बराबरी और भेदभाव बढ़ेंगे वैसे-वैसे देश में मध्यम वर्ग के लोग भी विरोध में उतरते आएंगे। आगे क्या होगा, इसका अंदाजा तो आहटों से ही लगाया जा सकता है। फिलहाल यह विधेयक निजीकरण को बढ़ाने और एक समान शिक्षा के आंदोलन को पटरी से उतारने की साजिश से ज्यादा कुछ नजर नहीं आता है।
1 टिप्पणी:
आपकी सोंच सही है .. सरकार द्वारा शिक्षा का अधिकार बच्चों को दिया गया है है .. पर उस कर्तब्य को पालन करनेवाले ही जबाबदेही नहीं लेते इसकी .. फिर क्या फायदा ?
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