28.9.09

फोटो के साथ एक खबर

विनय कुमार गुप्ता

बारह-तीस की कल्याण जाने वाली लोकल आज प्लॅटफॉर्म नंबर तीन की जगह प्लॅटफॉर्म नंबर पाँच से जाएगी, उद्घोषक बार -बार माइक से घोषणा कर रहा था. आज प्लटफार्म पर सामान्य से ज़्यादा भीड़ थी पर इन सब से अप्रभावित रमाकांत एक कुर्सी पर गुमसुम सा बैठा शून्य में ताक रहा था. आज एक ही दिन में उसकी दुनिया कितनी बदल गयी थी, सुबह जब वह घर से निकला था तब उसा नही पता था कि शाम तक उसे ऐसी खबर मिलेगी जो उसा हिला कर रख देगी.


बैठे-बैठे वह अपने बीते समय को याद करने लगा,  जब पहली बार वो गावों से निकला था, मिलिट्री में भरती होने के लिए, कितना खुश था वो, उन दिनों सेना में भरती होने को बहुत गर्व से देखा जाता था और रमाकांत ने पहली बार में ही प्रवेश परीक्षा पास कर ली थी, उसके बाद करीब 3 महीने की ट्रेनिंग के बाद उसे अपनी पहली पोस्टिंग मिली, अगरतला मैं, चारों तरफ जंगलों से घिरा वो इलाक़ा अगले 4 साल तक उन लोगों का घर बन गया था जब तक की उन्हें राजस्थान आने को नही कहा गया.

राजस्थान में पाकिस्तान से घमासान लड़ाई छिड़ी हुई थी और रमाकांत की यूनिट को तुरंत वहाँ पहुँचना पड़ा, उसे याद आ रहा था- कैसे लगातार 24 घंटे तक चलने के बाद उनकी यूनिट ने वहाँ मोर्चा संभाला था और उसने अपने कंधे पर गोली खाकार अपने ऐक मेजर की जान बचाई थी, पर उस चोट के परिणाम से रमाकांत को दो स्वाद एक साथ मिले थे. उसे वीरता चक्र मिला और साथ में फौज से रिटाइर कर दिया गया.

इसके बाद वापिस गांवो में कुछ दिनों तक वहाँ रहने के बाद उसका मन उब गया और एक दिन उसने, मुंबई आने का फ़ैसला लिया, उसके मन में अब अपना व्यापार करने की इक्छा थी, रमाकांत सन 80 में मुंबई आ गया और उसने यहाँ आकर कुछ लड़कों को भरती कर के एक छोटी सी सिक्यूरिटी सर्वीसज़ की कंपनी शुरू की, फौज की जानकारी यहाँ उसके बहुत काम आई और उसकी कंपनी चल निकली.

अब रमाकांत एक जाना हुआ नाम बन चुका था, मुंबई के सब बड़े लोगों की जान की सुरक्षा का ठेका उसकी कंपनी को ही मिलता था.रमाकांत के इस बीच कई लड़कियों से संबंध बने पर कभी भी वह अपने रिश्ते को शादी तक नही ले जा पाया.परंतु वो उसकी जिंदगी के स्वर्णिम दिन थे रमाकांत के अंदर का फ़ौजी हमेशा जिंदा रहा,उसने अपनी कंपनी के साथ ही एक स्वयं सेवी संस्था की शुरुआत भी की, जो फ़ौजी परिवारों की विधवाओं की मदद करती थी.पर ये सब बहुत समय तक नही चल सका, 90 के दशक में एक नेता का कत्ल हो गया जिसकी रक्षा की ज़िम्मेदारी रमाकांत की कंपनी के उपर थी और बाद मे यह भी पता चला की रमाकांत के यहाँ काम करने वालों का उसमे हाथ था, इससे कंपनी को बहुत नुकसान हुआ और जितनी तेज़ी से वो उपर आए थे उतनी तेज़ी से ही नीचे जाने लगे.

पर रमाकांत को इन सब से बहुत ज़्यादा फ़र्क नही पड़ा, वो गावों का लड़का था और भले ही वो अब शहर का अधेड़ हो चुका था पर उसके अंदर वही गांवों की ईमानदारी और सादगी ज़िंदा थी.उसने अपनी कंपनी को बेच दिया और स्वयम् सेवी संस्थान की बाग डोर भी अपने एक मित्र के हाथ मे दे दि.हाँ वो स्वयं सेवा-भाव से वहाँ काम करने में लगा रहा और उसे जानने वाले आज भी उसका मान करते थे.

कल ही वो 55 बरस का हुआ था और उसके बहुत सारे सेना और व्यापार के दोस्तों ने मिलकर उसे एक सर्प्राइज़ पार्टी दी थी. कल उन सब ने बैठ कर अपने पुराने दिनों को याद किया था, 72 की लड़ाई के दीनों को...रमाकांत की...बहादुरी ...मेडल...गावों....अगरतला....सब....क़िस्सों को......कितना बहादुर था रमाकांत ......उसने जिंदगी की सभी मुश्किलों का सामना डॅट के किया था...सोचते-सोचते रमाकांत रोमांचित हो गया... उसके सामने सारी गाड़ियाँ .....आ जा रही थी....छत्रपती शिवाजी टर्मिनस...अपनी पूरी काबिलियत से काम कर रहा था...तभी उसकी नज़र अपने हाथ में लगे कागज पर गयी...टाटा मेमोरियल कॅन्सर हॉस्पिटल...

रमाकांत को अभी कुछ देर पहले ही पता चला था की उसे लास्ट स्टेज का ब्लड कॅन्सर है और अब उसके पास सिर्फ़ 2-३ महीने ही रह गये थे...उसकी आँखे...डब-डबा आईं...इसलिए नही कि उसे मरने से डर लग रहा था परंतु ..इसलिए कि...उसके जीवन के कथा सार का अंत किसी हॉस्पिटल के बेड पर खून की उल्टियाँ करते हुए होना लिखा था...वो मन ही मन भगवान से कहने लगा...की क्या मुझ फ़ौजी ...उधमी...का यही अंत लिखा है आपने.....में तो सिर्फ़ एक स्वाभिमान निहित मृत्यु चाहता था....नाकि ऐसे गुमनाम किसी हॉस्पिटल के बेड पर....

वह अभी अपने ख़यालों मे ही था की अचानक,स्टेशन का माहौल बदल गया, लोग इधर-उधर भाग रहे थे और चारों तरफ खून के छींटे उड़ रहे थे...बीच - बीच में गोलियों की ताड़-ताड़ सुनाई दे रही थे...एक पल के लिए तो रमाकांत को समझ मे ही नही आया की हुआ क्या है पर तभी उसके फ़ौजी दिमाग़ ने उसे उत्तर दे दिया....स्टेशन पर आतंकवादियों ने हमला कर दिया था....रमाकांत, एक दीवार की ओट लेकर खड़ा हो गया, गोलियाँ अब भी चल रही थी तभी उसकी नज़र सामने के प्लॅटफॉर्म पर पड़ी, वहाँ एक छोटी बच्ची एक निर्जीव-माँ के पास बिलख रही थी, रमाकांत जनता था की उसे क्या करना है...उसने ...इधर-उधर चौकस निगाहों से देखा....फिर एक बार अपने....हाथ मे लगे कागज को देख कर मुस्कुराया....और सीधे....बच्ची कीतरफ...दौड़ लगा ..दी...

अगले दिन के अख़बार आतंकी हमले की खबरों से भरे पड़े थे और एक कोने में फोटो के साथ खबर थी...की पचपन साल केएक रिटायर्ड फ़ौजी ने अपनी जान देकार बचाई ...बच्ची की जान....सारा देश उसे एक हीरो की तरह देख रहा था.

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