मंदी की उठा-पटक के बीच सूरत का चेहरा भले कई लोगों के लिए अब भी चमकदार लग रहा हो लेकिन इस चमक के पीछे एक ऐसा अंधेरा फैलता जा रहा है, जिसमें जिंदगी हारती जा रही है. मंदी के तूफान ने हीरे की मण्डी सूरत की सूरत कुछ ऐसी बिगाड़ी कि पिछली दीवाली से इस जुलाई के पहले हफ्ते तक हीरा-कारखाने के 39 मजदूरों ने अपनी जान दे दी. हालांकि गैरसरकारी आकड़ों में यह संख्या 90 के पार ठहरती है.
मंदी के तूफान ने हीरे की मण्डी सूरत की सूरत कुछ ऐसी बिगाड़ी कि दीवाली से जुलाई के पहले हफ्ते तक हीरा-कारखाने के 39 मजदूरों ने अपनी जान दे दी. हालांकि गैरसरकारी आकड़ों में यह संख्या 90 के पार ठहरती है.
पिछले कुछ समय में गुजरात के सबसे चमकदार शहर सूरत में हीरे की 10,000 से ज्यादा यूनिट बंद हुई, जिससे आठ लाख से ज्यादा मजदूर बेकार हो गए. पिछले साल नंवबर-दिसम्बर के दो महीनों में ही कम से कम एक लाख मजदूर शहर छोड़ चुके थे. आज की तारीख में यह आंकड़ा चार लाख के बाहर पहुंच चुका है और मज़दूरों के पलायन का यह सिलसिला अब तक जारी है. जनवरी के पहले हफ्ते में ही 5 इलाकों से स्कूलों के 4,500 बच्चों को फीस न भरने के चलते निकाला जा चुका था.
कायदे से सूरत का यह हाल एक 'राष्ट्रीय मुद्दा' होना चाहिए लेकिन राज्य के सारे राजनैतिक दल इन दिनों खामोश हैं. लोकसभा-चुनाव की लहर जा चुकी है, अब सिर पर सूरत-कारर्पोरेशन का चुनाव है. फिर भी हीरा-कारखाने के मजदूरों को राहत देने के सवाल पर हर तरफ सन्नाटा है.
एक नजर सूरत की सूरत पर
सूरत में हीरे की छोटी-बड़ी कुल 14,310 यूनिट हैं, जिसमें से 10,017 याने 70 फीसदी बंद हो चुकी हैं. सभी 14,310 यूनिट में 9,70,000 मजदूर काम करते थे, जिसमें से करीब 8,000000 याने 80 फीसदी से भी ज्यादा बेकार हो चुके हैं. बाकी बचे मजदूरों को अगर काम मिलता भी है तो उनके महीने की आमदनी (12,000) से आधी से आधी से आधी (15,00) हो गई है.
जमीनी पड़ताल के लिए एक छोटे-सा सर्वे देखते हैं. शहर के वारछा रोड़ पर हीरे की 2,59 यूनिट में से 80 के दरवाजे बंद हो चुके हैं. यहां की 1 यूनिट में औसतन 63 मजदूर थे, इस लिहाज से जोड़े तो 5,040 से ज्यादा मजदूरों के हाथों से मजदूरी निकली है. इसी तरह कापोदरा विस्तार की 5,97 यूनिट में से 2,43 में काम बंद है. यहां की 1 यूनिट से औसतन 75 मजदूर थे, यहां भी 18,225 से ज्यादा मजदूर बेकार हुए. यह ऐसी छोटी-छोटी यूनिट थीं जिनके पास अब कच्चा हीरा खरीदने के लिए पैसा नहीं बचा है.
श्यामधाम चौकड़ी, देवीकृपा सोसायटी के सूरज पटेरिया का यह 36 वां साल चल रहा था. गए साल तक उन्होंने खुदखुशी करने के बारे में सोचा भी नहीं होगा. लेकिन दीवाली के बाद सूरज ने दो बार जहर पीकर मरना चाहा. दोनों बार उन्हें पड़ोसियों ने बचा लिया.
एक नजर सूरत की सूरत पर
सूरत में हीरे की छोटी-बड़ी कुल 14,310 यूनिट हैं, जिसमें से 10,017 याने 70 फीसदी बंद हो चुकी हैं. सभी 14,310 यूनिट में 9,70,000 मजदूर काम करते थे, जिसमें से करीब 8,000000 याने 80 फीसदी से भी ज्यादा बेकार हो चुके हैं. बाकी बचे मजदूरों को अगर काम मिलता भी है तो उनके महीने की आमदनी (12,000) से आधी से आधी से आधी (15,00) हो गई है.
जमीनी पड़ताल के लिए एक छोटे-सा सर्वे देखते हैं. शहर के वारछा रोड़ पर हीरे की 2,59 यूनिट में से 80 के दरवाजे बंद हो चुके हैं. यहां की 1 यूनिट में औसतन 63 मजदूर थे, इस लिहाज से जोड़े तो 5,040 से ज्यादा मजदूरों के हाथों से मजदूरी निकली है. इसी तरह कापोदरा विस्तार की 5,97 यूनिट में से 2,43 में काम बंद है. यहां की 1 यूनिट से औसतन 75 मजदूर थे, यहां भी 18,225 से ज्यादा मजदूर बेकार हुए. यह ऐसी छोटी-छोटी यूनिट थीं जिनके पास अब कच्चा हीरा खरीदने के लिए पैसा नहीं बचा है.
श्यामधाम चौकड़ी, देवीकृपा सोसायटी के सूरज पटेरिया का यह 36 वां साल चल रहा था. गए साल तक उन्होंने खुदखुशी करने के बारे में सोचा भी नहीं होगा. लेकिन दीवाली के बाद सूरज ने दो बार जहर पीकर मरना चाहा. दोनों बार उन्हें पड़ोसियों ने बचा लिया.
एक तो भूख, ऊपर से अपने ही इलाज के खर्च ने उन्हें दिमागी तौर से भी लाचार बना दिया. तीसरी बार उन्होंने अपने को जलाकर खुदखुशी कर ली. अब उनके पीछे उनकी पत्नी अंजू बेन और चौथी में पढ़ने वाला लड़का राहुल है. इन दोनों को अपने आने वाले कल के बारे में कुछ खबर नहीं. अंजू बेन और राहुल केवल नाम भर हैं, सूरज में तो ऐसे परिवारों की एक लंबी सूची हैं, जिसमें नए-नए नाम जुड़ते जा रहे हैं.
सूरत-ए-हाल
देश के हीरा निर्यात में सूरत की हिस्सेदारी 24 अरब डालर के आसपास है. दीवाली के पहले अफ्रीका के एटेन्पर्व से काले पत्थर सूरत के कारखानों में आते थे. ऐसे पत्थरों को सूरत के 'रत्न कलाकार' कहे जाने वाले मजदूर तरासते और चमकदार हीरे में बदल देते.
लेकिन मंदी के मारे बीते अक्टूबर से एटेन्पर्व के काले पत्थरों का आयात बंद हो गया. यही कारण है कि पिछले 9 महीनों से हज़ारों हीरा कारखानों में ताले लटक गये हैं और मज़दूरों के सामने दो जून की रोटी के लाले पड़ गये हैं. शहर की सूरत में कभी चार चांद लगाने वालों की दुनिया फिलहाल घुप्प अंधियारे में है, जहां उजाले की कोई किरण नज़र नहीं आ रही.
सूरत में जब मंदी का शोर कुछ और बढ़ा तो बड़े-बड़े साहूकार मौके की नजाकत भांप गए और छोटी-छोटी यूनिट चलाने वालों का करोड़ो रूपए लेकर भाग गए. जैसे कतारगाम के हर्षद महाजन और घनश्याम पटेल को ही लें. यह दोनों ब्याज के 7 करोड़ रूपए लेकर लापता हैं. इसी तरह साजन तालुका का एक और महाजन जो मिनी बाजार और राजहंस टावर में 1,00-1,50 लोगों के साथ लेन-देन करता था; कोई साढ़े 5 करोड़ रूपए के साथ रफू-चक्कर है. इसलिए छोटी-छोटी यूनिट चलाने वालों के कारोबार ठप्प हुए और फिर बड़ी संख्या में मज़दूर सड़कों पर आ गये.
हीरा-व्यापारियों का हाल सुने तो पालिश्ड हीरे नहीं बिकने से उन्हें नकद नहीं मिल रहा है. इसलिए वह कच्चा हीरा खरीद ही नहीं सकते. तभी तो मिनी बाजार में हीरे के हजारों व्यापारियों का एक साथ जमा होना जैसे बीते कल की बात लगती है.
एक पहेली जिंदगानी
लेकिन सारे आकड़ों के बीच ऐसा पहलू भी छिपा है जो आज नहीं तो कल हालात को और उलझा सकता है. सूरत में 'फेक्ट्री एक्ट' के मद्देनजर हीरे की केवल 4,27 फैक्ट्रियां ही निबंधित हैं. लेकिन यहां चलने वाली फैक्ट्रियों की संख्या 14,310 है. मतलब ये कि सूरत की 13,883 फैक्ट्रियां निबंधित ही नहीं हैं.
असल में ज्यादातर मालिक 'टैक्स' से बचने, मजदूरों को 'पीएफ' और 'ईएसआई' जैसी सुविधाएं न देने के लिए 'फेक्ट्री एक्ट' को अनदेखा करते हैं. इसलिए 13,883 यूनिट से जुड़े करीब 9,40,000 मजदूर 'फेक्ट्री एक्ट' के दायरे से बाहर हैं. अभी तो यहां के एक भी हीरा-मजदूर को मुआवजा नहीं मिला है, लेकिन कल अगर मुआवजे की बात उठती है तो 'अन-रजिस्टर्ड' कही जाने वाली 13,883 फैक्ट्रियों के कोई 9 लाख 40 हज़ार मज़दूरों का क्या होगा ? क्या उन्हें मुआवजे का पात्र समझा जाएगा ?
हार गई जिंदगी
आकार अपार्टमेंट, कुबेरनगर की 'संदवी डायमण्ड' जैसी बड़ी कंपनी से जुड़े 40 साल के कल्पेश जादव की घर-गृहस्थी ठीक-ठाक चल रही थी. लेकिन 6 महीने तक काम न मिलने से वह खाली हाथ घर लौटते थे. एक रात जब वह लौटे तो खाने का एक दाना न होने पर पत्नी से जमकर झगड़ा हुआ. इसके बाद वह कहीं से 5 किलो चावल, 5 किलो आटा और 1 किलो तेल तो लाए लेकिन किसी को अनुमान नहीं था कि कल्पेश के मन में किस तरह का द्वंद्व चल रहा है. कल्पेश उस रोज ताप्ती नदी में ऐसे डूबे कि वापिस नहीं आए. कल्पेश ने मुक्ति पा ली, उनकी पत्नी अब अकेली है, बच्चे अभी से संघर्ष के दिन देखने के लिए रह गए हैं.
पुणागांव, विक्रम सोसायटी के अशोक भाई घाट ने 30 वें साल में कदम रखा था. उनकी बिटिया उन्नति 1 साल की होने वाली थी. अशोक भाई 'शिवजी डायमंड' कंपनी में थे. जब बेरोजगारी की नौबत आई तो उसका सामना करना उन्हें मुश्किल लगा और उन्होंने जहर पी कर अपनी जान दे दी.
उवली रोड़, मोहनदास सोसायटी के भरत ठुमरे ने 35 साल देख लिए थे. फांसी की रस्सी उन्हें जिंदगी की तंगी से कही ढ़ीली लगी होगी. इसलिए तो पत्नी और 10 साल से भी कम उम्र के दो बच्चों को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर चले गए.
कतारगाम में 60 साल की जीबी बेन अपने 34 साल के बेटे सूर्य की बेकारी देख न सकी, उन्होंने केरोसिन डालकर खुदखुशी कर ली. सूर्य 'शीतल डायमंड' कंपनी में काम करता था.
वह औरतें सबसे ज्यादा प्रभावित हुई हैं जो जैसे-तैसे अपने घर संभाल रही थीं. पति की लम्बी बेकारी ने उन्हें मायके जाने पर मजबूर किया. इन दिनों सौराष्ट्र से कुछ औरतों की खुदखुशी के मामले जोर पकड़ने लगे हैं. सबसे ज्यादा मजदूर सौराष्ट्र से ही आए थे. दूसरी तरफ कई मजदूरों की शादियां भी टूट रही हैं.
जो जिंदा हैं
19 जनवरी को 'सूरत डायमण्ड एसोसिएशन' की तरफ से बच्चों की स्कूल-फीस माफ करने के लिए फार्म बंटने वाले थे. तब 12,000 की भीड़ जमा हुई. लेकिन अफरा-तफरी के माहौल में पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा.
पुलिस की लाठी से 35 साल की बसंती बेन बगाणी बुरी तरह घायल हो गई. नवी शक्ति, विजय सोसायटी की बसंती बेन से जाना कि वह अपने 3 बच्चों, 4 साल के शिवम, 5 साल के जेनल और 7 साल के सावंत के लिए रात 2 बजे से ही लाइन में लगी थी. जैसे ही उनका नंबर आने को हुआ, लाठी चार्ज हुआ और उनका माथा फूट गया. जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है जनवरी के पहले हफ्ते में ही 5 इलाकों से स्कूलों के 4,500 बच्चों को फीस न भरने के चलते निकाला जा चुका था.
ठक्करनगर की कोकिला बेन से मालूम हुआ कि उनके पति 9 महीने से खाली हैं. उनके सिर पर अब तक 25,000 का कर्ज चढ़ चुका है. चिंटू कहकर बुलाने वाले बड़े लड़के ने 12 वीं 67 प्रतिशत के साथ पास की थी. लेकिन पैसे की मजबूरी से कालेज की पढ़ाई रूकी हुई है. कोकिला बेन कहती हैं- “पहले औरतों को घर में हीरे के पैकेट बनाने का काम मिल जाता था. इससे वह अपने खर्च-पानी के लिए महीने भर में 12,000 से 15,000 रूपए कमा लेती थीं. हीरे के कारखानों के बंद होते ही उनके खर्च-पानी का पैसा भी चला गया.”
आपके पति दूसरा काम तलाश सकते हैं ? जबाव में कोकिला बेन ने बताया कि जो आदमी अपनी कलाकारी से 12,000 रूपए महीना कमाता हो, जिसकी आमदनी के मुताबिक ही घर की जरूरतें बन गई हो, ऐसे में बिल्कुल आमदनी नहीं होने पर जरूरतें पहाड़-सी लगेगी ही. रही बात दूसरे काम की, तो कोई भी हीरा-मजदूर ऐसा चाहकर भी नहीं कर पाएगा. जो मजदूर 15-20 साल से हीरा तराशने जैसा काम करता हो, उससे मेहनत वाली मजदूरी बनेगी भी नहीं. उसे रात-दिन मेहनत से महीने भर में 15,00 ही मिलेंगे, अगर वह मेहनत वाले काम करना भी चाहे तो उसे मेहनत वाले काम देने से पहले हर कोई हिचकिचाएगा.
जबाव के इंतजार में...
24 जनवरी को ठक्कर नगर, डायमंड पार्क में राधा बोरसे जैसी 1,000 औरतों ने राज्य के मुखिया नरेन्द्र भाई (मोदी) को 1,000 पोस्ट-कार्ड भेजे. इन औरतों ने लिखा था कि घर में न अनाज है, न केरोसिन. दो टाइम खाने को तरस गए हैं. एक महीने से कोई सब्जी नहीं आई है. बच्चों की पढ़ाई भी रोक दी है. जल्दी मदद भेजिए वरना हमको भी सुसाइड करना पड़ेगा.
उन्होंने राज्य के मुखिया को यह पोस्ट-कार्ड इसलिए लिखा क्योंकि गुजरे विधान-सभा चुनाव के वक्त महिला-सम्मेलन में नरेन्द्र भाई गरजे थे- “तुम्हें कभी कोई परेशानी हो, भाई जानकर एक पोस्ट-कार्ड भर भेजा देना.” अब रक्षाबंधन आने को है, लेकिन सूरत की बहनों को गांधीनगर के भाई का जवाब नहीं मिला.
14 फरवरी को लोक-सभा चुनाव में राहुल भैया (गांधी) भी पधारे थे. उन्होंने अपने ही अंदाज में हीरा-मजदूरों से सीधी बात साधी थी. लोगों ने उनसे पूछा कि चलिए गुजरात सरकार ने हमारे लिए कुछ नहीं किया, केन्द्र सरकार क्या करने वाली है ?
जनता में एक ने उन्हें याद दिलाया कि जब केन्द्र सरकार 'सत्यम' जैसी (7,000 करोड़ का घोटाला करने वाली) कंपनी को बचाने के लिए राहत पैकेज दे सकती है तो देश के जो आम लोग अपनी मौत मर रहे हैं, उन्हें बचाने में इतनी देर क्यों ? राहुल कोई जबाव नहीं दे पाए. कांग्रेस ने दिल्ली में झण्डा फहराते ही जीत की पगड़ी राहुल गांधी के सिर पर बांधी है. इसके बाद तो वह ‘लाजबाव’ हो चुके हैं.
लोकसभा-चुनाव में भाजपा ने कहा- “दिल्ली वाले जाग रहे होते तो ऐसे हालात नहीं होते.” कांग्रेस ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को नया विशेषण दिया- “ कुंभकरण न जाने कब जागेंगे.” कांग्रेस के कार्यकर्ता यह तर्क देते भी घूमते रहे कि- “मामला सेंटर से नहीं, गांधीनगर से सुलझेगा.” इस तरह चुनाव के साथ यह आरोप-प्रत्यारोप भी गुजर गये, नहीं गुजरे तो आत्महत्याओं के हादसे. सांसद चुने गए, नहीं चुनी गई तो मजदूरों की मजबूरियां. सरकार भी बनी, नहीं बंधी तो पहले जैसे हालात बनने की उम्मीदें. वैसे मजदूरों के पास उम्मीद के अलावा और कुछ है भी नही.
लेकिन शहर के कुछ लोग, यहां तक की मीडिया का एक हिस्सा हीरा-कारखाने के सेठ लोगों से खफा है. उनके नजरिए से जब तक मुनाफे का धंधा चल रहा था तब तक तो मजदूरों की मेहनत और कलाकारी से सेठ लाखो से करोड़ो, करोड़ो से अरबो कमाते रहे. लेकिन जैसे ही मंदी ने मुंह दिखाया, सेठ लोगों ने मुंह मोड़ लिया. मजदूरों की उम्मीदें या जरूरतें लाखों-करोड़ों की नहीं हैं. ऐसे में सेठ लोगों को मजदूरों की मामूली जरूरतों में मददगार बनना ही चाहिए था. लेकिन उनकी तरफ से मदद की हवा तो दूर, मदद का एक पत्ता भी नहीं हिलता.
आत्महत्याएं ठण्डे बस्ते में
सूरत में हीरे की चमक नहीं लौट रही है. दो-एक महीने से आत्महत्याओं के मामले में कमी जरूर देखी गई है. यह किसी के विशेष प्रयासों का नतीजा नहीं हैं, यह तो हर दिन करीब तीन सौ मजदूर परिवारों के सूरत छोड़ने का नतीजा है. ऐसे में आत्महत्याओं के किस्से सूरत के आसपास फैल गए हैं. शहर से जाने वाले एक परिवार के जमेश और महेश (भाई-भाई) ने हाथ हिलाते हुए कहा- “दोबारा सूरत ही लौटेंगे.”
लेकिन सूरत में छाये संकट के बादल बरसने भर से खत्म नही होने वाले.
2 टिप्पणियां:
दुर्गा पूजा एवं दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएं।
( Treasurer-S. T. )
aapakee post batatee hai ki kanha kanha abhee bahut kuch karana hai sarkar ko
kai marmik prasangdil ko choo gae |
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