20.9.09

इसलिए सूरत में 50,000 बच्चे काम पर जाते है

शिरीष खरेसूरत: शहर में जो 262 प्राइमरी स्कूल हैं, उनमें महापालिका के स्कूलों की संख्या दो है। दूसरे हैरतअंगेज आंकड़ें के मुताबिक, महापालिका के सेकेण्डरी स्कूलों की संख्या है चार। 112.27 वर्ग किलोमीटर में फैले सूरत की 29 लाख आबादी में से 6 लाख गरीब हैं। एक तो प्राइमरी स्कूलों और गरीबों के बच्चों के बीच का फासला बेहद ज्यादा है, ऐसे में जो थोड़े से बच्चे किसी तरह स्कूल जाते हैं, उनमें से भी 10 प्रतिशत बच्चे सेकेण्डरी स्कूलों तक नहीं पहुंच पाते। सवाल है कि जो बच्चे स्कूल नहीं जाते वो क्या करेंगे ? जवाब मिलता है- आज नहीं तो कल काम पर ही जाएंगे।


गुजरात के महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र के अलावा सूरत सबसे मंहगे शहरों में से भी एक है। यहां साग-सब्जी, अनाज और रोजमर्रा की जरूरी चीजें बाहर से आने से बहुत मंहगी मिलती हैं। ऐसे में 4 सदस्यों वाले एक परिवार को यहां रहने के लिए कम से कम 5,000 रूपए तो चाहिए ही। इसलिए, घर की गृहस्थी चलाने में बच्चों को मददगार माना जाता है।
सूरत से मुंबई की तरफ जाने वाली ट्रेन की रफ़्तार तेज होते ही अंबेडकरनगर की घनी झुग्गियां बहुत पीछे छूटने लगती हैं। ऐसे में शायद ही किसी का ध्यान '''स्मीमेल हॉस्पीटल' की उस दीवार पर जाए, जिसके सहारे से करीब 100 झुग्गियां सट गई हैं। पटरियों के आसपास बिखरी गंदगी की सल्तनत से हवा में दूर तक कई किस्म की बदबुएं घुल-मिल गई हैं।
यहां रहने वाले संजू बाघेला, 3 भाईयों में सबसे बड़े हैं। 14 साल की उम्र कोई बड़ी उम्र नहीं कहलाती, फिर भी वह 6 महीनों से टेक्सटाइल मार्केट की गोदाम में लगा है। उसकी 10 गुणा 12 वर्ग फीट की एक झुग्गी ही कई चीजों जैसे डबल-बेड की लकड़ियों, बांस की बल्लियों, कच्ची मिट्टी, पत्थरों, पत्तों और पन्नियों से मिलकर बनी है। उसके मां-बाप रेलवे के खुले पुल के नीचे से गुजरने वाली रोड पर ठेला लगाकर सब्जियां बेचते हैं। सब कुछ ठीक रहा, तो वह रोज का 100 रूपए बचा लेते हैं। इस तरह महीने के 30 दिनों में 3000 रूपए भी जोड़ें, तो सूरत जैसी जगह के लिए बहुत थोड़े पड़ते हैं। ऐसे में संजू एक उम्मीद की तरह है, एक रोज जब वह लायक हो जाएगा तो महीने में 1,000 रूपए तो कमायेगा ही।
मालिक की नजर में संजू अभी लायक नहीं हुआ, इसलिए मेहनताने के नाम पर कुछ नहीं मिलता। यह पहली नौकरी है, इसलिए संजू हर सुबह 7 के पहले-पहले मान दरवाजे की साड़ी-गोदाम को निकलता है। 14 किलोमीटर आने-जाने में उसके कुछ दोस्त रिक्शा शेयर करते हैं। संजू का 10 रूपए रोज भाड़े में ही जाता है। लौटना रात 10 के पहले-पहले नहीं होता। वह सुबह 5 बजे उठने के लिए आते ही सो जाता है। अंधेरा छंटने के पहले उसे पटरी को पार करके खुले में शौच करना पड़ता है, घर का पानी भर लेना पड़ता है। वैसे घर के ज्यादातर काम छोटे भाई मुकेश के हिस्से में हैं। लेकिन, 12 साल के होते ही उसे भी ट्रेनिंग में भेजा जाने वाला है। इन बच्चों की मां दक्षा बेन ने बताया कि सब्जी खरीदने के लिए रोजाना 500 से 600 रूपए चाहिए। इन दिनों आजू-बाजू की बस्ती टूटने से ग्राहकी कम हो गई है। दूसरे किस्म के कामों में अनाड़ी हैं, भूखा सोने से बच्चों को काम पर भेजना अच्छा है।
संजू के तीन दोस्त बेअटक किताबे पढ़ते हैं। संजू केवल अपना नाम लिख पाता है। उसे 1,2,3 भी आता है, जोड़ना-घटाना नहीं। वह कुछेक रोज के लिए स्कूल भी गया था, लेकिन पहली के बच्चे के लिए रेल की पटरियां, संगम टेकरी के पहले आने वाले मेन-रोड़ के ट्रेफिक से गुजरते हुए दो किलोमीटर चलना बहुत मुश्किल था। जब से मोटर-साइकिल की टक्कर में दांया पांव खराब हुआ, तब से उसने स्कूल जाने का नाम ही छोड़ दिया।
आज भी रेलवे लाइन के छोटे बच्चे लाचार हैं क्रासिंग करने से। बड़े लाचार हैं उन्हें स्कूल लाने-ले जाने से। 11 फरवरी को जब बुलडोजर चला, तो पता चला कि यहां कुल 156 झुग्गियों के 1125 लोग रहते हैं, लेकिन यहां से एक भी बच्चा स्कूल नहीं जाता।
इस लाइन के अजय ठाकुर, मोगिया, परवीन अहीरे, संजय उखरू और राजा जनार्दन की कहानियां तो और भी उलझी हैं। अजय का पिता दीवाली को दारू के नशे में अपने दो लड़कों और तीन लड़कियों को छोड़कर खत्म हो गया। सोलह साल का अजय टेक्सटाइल मार्केट की बहुमंजिला इमारतों से बोरियां उठाकर नीचे खड़े ट्रको में भरता है। एक बोरी का 2 रूपए, इस तरह वह दिनभर में 25 बोरियों को ठिकाने लगाता है।
मोगिया का पिता भी ऐसे ही खत्म हुआ था। वह अभी 13 का है, और 12 की छोटी बहिन आकू के साथ कचरा बीनता है। 14 की कविता अपनी मां अरूणा के साथ 'स्मीमेल हास्पीटल' के बाथरूमों को साफ करती है। ऐसे सारे बच्चे रविवार को काम नहीं मिलने पर अंजू बेन के टेलीविजन के सामने जमा होते हैं। इस लाइन में एक ही टेलीविजन होने से यह हिस्सा वीडियो थियेटर जैसा लगता है।
यहां के बच्चे इधर-उधर ज्यादा घूम-फिर नहीं सकते, क्योंकि कई बार पुलिस धारा 155 और 109 का इस्तेमाल करके उन्हें अंदर डाल देती है। अगर मां-बाप को मालूम पड़ा, तो 50 रूपए के बदले वह अपने बच्चे को छुड़ा लाते हैं। दूसरी तरफ कानून को अनदेखा करते हुए महापालिका के कांट्रेक्टर छोटे-छोटे बच्चों से काम करवाते हैं। उदाहरण के लिए 12 साल का विनोद अपने कई दोस्तों के साथ सरदार ब्रिज में बिजली के खंभों को रंगता है। किसी विभाग में अगर 18 साल से कम उम्र के बच्चे काम करते हैं, तो उन्हें दण्ड दिया जाता है। इस लिहाज से महापालिका पर भी ऐसा दण्ड लगना चाहिए। सलामती का कोई भी साधन दिए बगैर बच्चों को ऐसे जोखिम भरे कामों में ही चढ़ा दिया जाता है। हमारे दौरे के दौरान ही पिप्लोद के पास के एक खंभे पर चढ़ा इलेक्ट्रिशियन हादसे में मारा गया।
सोमवार को हम संजू से मिलने के बहाने मान दरवाजे की गोदाम में गए। संजू गोदाम का काम तो करता ही है, जरूरत पड़े तो अशिंका-गारमेंट्स के नाम से चलने वाली मालिक की दूसरी दुकान में भी जाता है। शापिंग-काम्पलेक्स की यह गोदाम जमीन के भीतर है। गोदाम की गैलरी इतनी पतली, अंधियारी है कि बड़े-बड़ों की आंखें धुंधली हो जाएं। यहां एक छोटे से गोदाम में 12 से 15 साल तक के 12 बच्चे पतली-पतली उंगलियों से साड़ियों की कटिंग, धागों की बुनावट, पैकिंग और बोझा उठाने से लेकर सामान को दो मंजिला ऊपर तक लाने-ले जाने का काम करते हैं। 12 में से 8 को खांसी और दमा की बीमारी का पता लगते ही हम चौंक गए। वहां न पंखा है, न खिडकियां। गर्मी, एक जगह घंटों बैठने और काम से शरीर टूटता है, लेकिन काम नहीं रूकता। दिनभर भीतर बैठने से मालूम नहीं चलता कि दिन है या रात। आधे घंटे के लंच की खबर सुनते ही बच्चे समझ जाते हैं कि 2 से 3 बजा होगा।
गुजरात में बाल मजदूरी से जुड़े कुछ तथ्‍य:
गुजरात के ही एक-चौथाई से ज्यादा बाल-मजदूर काम करते हैं। सरकारी आंकडों के हिसाब से सूरत में 5,000 बाल-मजदूर हैं, जबकि गैर सरकारी आंकडों को देखें, तो यह संख्या 50,000 को पार कर जाती है।
इसमें 15 से 18 साल के 68 प्रतिशत बाल मजदूर हैं। ‘राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ भी यह मानता है कि गुजरात के सूरत, भावनगर और बांसकांठा जिलों में बाल मजदूरी के मामले सबसे ज्यादा सामने आए हैं। इन जिलों के कुल मजदूरों में से 28.51 प्रतिशत बाल मजदूर हैं।
यहां 4 लाख 50 हजार पावरलूम ही हैं। तेजी से बढ़ती पावरलूम इकाइयों ने अधिक, अकुशल और सस्ती मजदूरी के लिए बड़ी संख्या में बच्चों को काम पर लगाया है। टेक्स्टाइल इंडस्ट्री के बाल-मजदूर तीन पावरलूम फैक्ट्री, डाईंग प्रिटिंग और टेक्स्टाइल मार्केट में बटे हैं। यूनियनों की गैर मौजूदगी से भी बाल-मजदूरी में इजाफा हुआ। इन दिनों शहर की सारी पावरलूम इकाइयां मिलकर हर दिन 5 करोड़ का टर्नओवर करती हैं और हर दिन 35 हजार से एक लाख साड़ियां बनाती हैं।
गुजरात सरकार ने 2010 तक प्रदेश को बाल-मजदूरी से मुक्त करने का संकल्प’ ले लिया है।

2 टिप्‍पणियां:

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

जानकारी सच्‍ची है
और
सूरत का एक बच्‍चा
ब्‍लॉग पर टिपियाता और
पोस्टियाता है
नाम है जिसका
अलबेला खत्री।

अर यो वर्ड वेरीफिकेशन तो हटा लो भाई

Apanatva ने कहा…

चिंता मत करिये भाई
बाल दिवस की घड़ी
बस दो महिने मे ही आई
फिर होंगे कुछ भाषण
कुछ नेता देंगे आश्वासन
हम भी आभार व्यक्त करेंगे
फिर हाथ पे हाथ रख कर
पूरा होने का इंतजार करेंगे |
समय ऐसी गति से दोडेगा
कि बच्चे कब बड़े हुए
ओर हमारी लाइन मे खड़े हुए
बस पता ही नहीं चलेगा |