थार में फिर अकाल के हालात बन पड़े हैं- इस समय की सबसे खतरनाक पंक्ति को सवाल की तरह कहा जाना चाहिए. दरअसल अकाल को बरसात से जोड़कर देखा जाता है और राजस्थान के अकालग्रस्त जिलों से लेकर जयपुर या दिल्ली तक नेताओं, अफसरों और जनता के बड़े तबके तक यही समझ बनी हुई है. कुछ तो जानबूझकर और कुछ मजबूरी में. लेकिन हकीकत यह भी है कि आस्ट्रेलिया या खाड़ी जैसे दुनिया के अनेक हिस्सों में तो और भी कम बरसात होती है मगर वहां अकाल का साया नहीं पड़ता. तो क्या भारत में अकाल की जड़े सरकारी अनदेखी से जुड़ी हैं ?
अंग्रेजी हुकूमत में अकाल से निपटने के लिए 'फेमिन कोड' (अकाल संहिता) बुकलेट बनी थी. हमारी सरकार आज तक उसी को लेकर बैठी है. आस्ट्रेलिया, अमेरिका, इंग्लैंड और सऊदी अरब जैसे देशों में अकालरोधी नीतियां हैं; भारत देश या राजस्थान प्रदेश में जहां 100 में से 90 साल सूखा पड़ता है, कोई नीति नहीं है.
बायतु, बाड़मेर के भंवरलाल चौधरी और उनके साथी कहते हैं- “पानी, अनाज और चारे का न होना ही अकाल है. अगर पीने के लिए पानी, लोगों को अनाज और पशुओं को चारा मिल जाए तो फिर पानी गिरे या न गिरे, काहे का अकाल.”
जाहिर है, अपनी सरकार लापरवाही छिपाने के लिए अकाल से बरसात को जोड़कर चलती है और जनता भी ‘लकीर की फकीर’ बनी हुई है.
जयपुर से 500 किलोमीटर दूर, पाकिस्तान की सरहद से 100 किलोमीटर पहले, पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तानी जिले बाड़मेर में बायतु ब्लाक के कई अनदेखे गांव इस हकीकत को बयां कर रहे हैं. बायतु, लाहौर जाने वाली थार एक्सप्रेस का छोटा-सा पड़ाव है. वैसे तो सूखे की ज्यादातर योजनाएं यही के लिए बनती हैं, जो जयपुर से जोधपुर आते-आते खप जाती हैं और यहां के लोगों के हिस्से में रह जाती हैं अगले साल के मानसून वाले बादलों की आस.
इस बार मानसून फिर दगा दे गया. बंगाल की खाड़ी में कम दबाव वाले क्षेत्र के कमजोर होने से राजस्थान के 27 जिले भंयकर सूखे से ग्रस्त घोषित किए गए हैं. केंद्रीय रुक्ष क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, काजरी के मुताबिक इस साल 2002 से भी खतरनाक अकाल के हालात हैं. बाड़मेर सहित 6 जिलों में औसत से 60 फीसदी कम बरसात हुई जिससे बाजरा, पानी, कितना सूखा, कितनी उपज, कितनी आमदनी, गरीबी, बेकारी, पलायन, कर्ज, योजनाएं गुहार और मोठ की फसलें फिर खड़ी-खड़ी सूख रही हैं. नतीजतन अभी से हिसाब लगाया जा रहा है- कितना, फायदे, दावे, कायदे..... और वायदे!
अकाल का घर
बाड़मेर जिले में 100 सालों के आकड़े देखें तो 80 साल सूखे के काले साए में बीते. बाकी 20 सालों में से 10 साल सुकाल और 10 साल 50-50 वाला हिसाब-किताब रहा.
फसलों का उत्पादन देखें तो 100 में से 30 साल 0 (शून्य) प्रतिशत और 20 साल 10-20 प्रतिशत (बेहद मामूली) उत्पादन रहा. बाकी बचे 50 में से 20 साल 20-30 प्रतिशत, 10 साल 30-40 प्रतिशत, 10 साल 50-60 प्रतिशत और 10 साल 70 प्रतिशत तक उत्पादन हुआ.
पानी की जरूरत को देखें तो कुल जरूरत का 10 प्रतिशत भी पूरा नहीं हो पाता, बाकी 90 प्रतिशत की पूर्ति के लिए निजी टांके से 40 प्रतिशत, सरकारी टैंकरों से 10 प्रतिशत और खारे पानी से 20 प्रतिशत तक की भरपाई होती है. फिर भी 30 प्रतिशत का भारी अंतर रहता है, जिसका कोई स्त्रोत नहीं.
निजी टांके से जो 40 प्रतिशत पानी की भरपाई होती है, वह भी बरसात के भरोसे है. अगर बूंदे न बरसीं तो निजी टांके की भरपाई का प्रतिशत 40 से लुढ़ककर 5 प्रतिशत तक आ जाता है. तब खारे पानी की भरपाई 20 से 40 प्रतिशत तक बढ़ाना एक मजबूरी है.
सूखे का फायदा
1947 के बाद, 62 सालों में एक बार सूखे का स्थायी हल खोजने की कोशिश हुई थी. राजीव गांधी के समय, पंजाब के हरिकेन बांध से जो इंदिरा-गांधी नहर गडरा (बाड़मेर) तक आनी थी, उसे भी केंद्रीय सत्ता में बैठी ताकतों ने अपने फायदे के लिए मोड़ लिया. नहर को गंगानगर, बीकानेर, जैसलमेर से होकर करीब 800 किमी का रास्ता तय करना था, जैसे ही यह 300 किमी दूर बीकानेर पहुंची वैसे ही तत्कालीन कपड़ा मंत्री अशोक गहलोत (अबके मुख्यमंत्री) ने पाइपलाइन का रुख जोधपुर की कायलाना झील की तरफ करवा दिया. इससे पहला फायदा महाराजा गजोसिंह को हुआ और झील का पट्टा आज भी उन्हीं के नाम चढ़ा हुआ है. पानी पहुंचते ही पर्यटन का उनका धंधा लहलहा उठा, होटल तो था ही, हुजूर ने ‘वाटर रिसोर्स सेंटर’ के नाम पर महल भी बनवा लिया. अशोक गहलोत, जो खुद भी माली जाति और जोधपुर इलाके से हैं, उन पर ‘माली लॉबी’ के दबाव में काम करने का आरोप लगा क्योंकि पाइपलाइन मोड़ने का दूसरा फायदा माली जाति के कुओं को रिचार्ज करने में हुआ. लिहाजा असली प्रभावितों की आंखे बेवफा बादलों को घूरती रह गई.
1990 में सरकार ने पैसा बटोरने के लिए हरे-भरे खेतों से कलकल बहती नहर की तस्वीर दिखाई थी. अपनी जिंदगी में भी हरियाली लाने के लिए लोगों ने सरकार से नहर के आसपास की जमीनें खरीदी थीं. पनावड़ा, मनावड़ी, भियाड़ और भीमड़ा के गांव वाले अब बताते हैं कि जिनके पास पैसा नहीं था, उन्होंने घर की औरतों के गहने तक बेचे और बोली लगा-लगाकर जमीनें खरीदी थीं. उन्होंने पांच एकड़ की रूखी जमीन के टुकड़े को एक लाख से 5 लाख रु. तक में खरीदा, जंगली झाड़-पेड़ उखाड़े और फिर उन्हें पहले मैदानों में और खेतों में बदला. मगर यह विडंबना ही है कि उस समय भी उन जमीनों की कीमत कुछ नहीं थी, आज भी कुछ नहीं है. वहां रेतीली आंधियों से सिर्फ रेत की नहरें बनती और बिगड़ती रही.
अकाल का हाल
उन्हें पीने के पानी की हरेक बूंद का ख्याल रहता है. महंगा पानी खरीदने से मजूरी का बड़ा हिस्सा पानी में जाता है. कन्नौड़, कोल्हू, अकड़दरा, चिड़िया जैसे कई गांवों में खारे पानी के टयूवबेल दिखते हैं, जो केवल यहीं दिखते हैं और यदा-कदा, टयूवबेल में बाकायदा सरकार के बिजली कनेक्शन लगे हैं. रेतीली मिट्टी में साल्ट ज्यादा होने से पानी रिसते-रिसते अपनी मिठास खो देता है. इसके बावजूद रेतीली जमीन के 250-300 फीट नीचे से खारे पानी को बरसात के मीठे पानी में मिलाकर लोग अपना गला गीला करते हैं. इन्हीं दिनों असंख्य आवारा और घरेलू जानवर असमय मौत के शिकार बनते हैं.
पानी की कमी से गला ही नहीं पेट भी सूखता है. इसलिए मजूरी का दूसरा बड़ा हिस्सा अनाज संकट से उबरने में जाता है. कतरा, केसुमला और शहर के गांववाले बताते हैं कि उन्हें गेहूं, मक्का, ज्वार के बजाए मालाड़ी बाजरा खाने की आदत है. वास्तव में वे यूपी में जानवरों को खिलाने वाला बाजरा खाते हैं. सूखा की लपटों से परंपरागत बीजों की कई किस्में खत्म हो रही हैं. ऊन उत्पादन के लिए भेड़ पालने वाले गड़रिए भेड़ो को काट-काटकर भूख की आग मिटाते हैं.
रोजी-रोटी का दूसरा जरिया चारा है. नगाना और खेतिया का तला के लोगों से जाना कि भैंस के बजाए यहां के लोग गाय, ऊंट, भेड़, बकरी और गधा पालते हैं. बढ़ते तापमान के हिसाब से भैंस की काली चमड़ी ज्यादा पानी मांगती है. जिन चरवाहों के पास 500 से ज्यादा जानवर हैं, वे पंजाब, हरियाणा, यूपी और मध्य प्रदेश का रुख करते हैं.
यहां पलायन की स्थिति दूसरे इलाकों के मुकाबले एकदम जुदा है. पूरे परिवार के बजाए एकाध आदमी घर से बाहर जाता है. छीतर का पार और बायतु के ज्यादातर लोग मानते हैं, पलायन करने वालों की हालत फिर भी ठीक हैं, जो पलायन नहीं कर पाते वो बेहद गरीब हैं. यहां रह जाने वालों का सारा पैसा पानी, अनाज और चारा खरीदने में चला जाता है. एक तो इतनी बेकारी, ऊपर से काम का दूसरा विकल्प न होने से पलायन यहां बुरा नहीं माना जाता. कुल मिलाकर 90 फीसदी घरों से पलायन होता है, जिन 10 फीसदी घरों से पलायन नहीं होता उनमें से ज्यादातर के यहां कमाने वाले ही नहीं होते. यहां के हालात समझने के लिए इतना काफी है कि 1964 का अकाल देख चुकी रत्नीबाई अब 74 बरस की हो चली हैं- पोपले चेहरे में धंसी आंखें भुखमरी, कुपोषण और तपेदिक जैसे रोगों की प्रतीक बन चुकी हैं.
सरकार बताती है कारण
1. बहुत कम बरसात.
2. बरसात की अनियमित आवृत्तियां यानी बादल की पहली बूंदों के बाद दूसरी बूंदें 20-30 दिनों में नहीं गिरीं तो फसलों की बर्बादी, फिर 1000 मिलीमीटर बरसात भी हो तो कोई फायदा नहीं.
3. थार की रेतीली आंधियां.
4. तापमान, अगर मानसून के मुकाबले तापमान का पारा 45 से 50 डिग्री तक चढ़े तो फसल जल जाती है.
5. ओले, पाला और कई किस्म के रोगों से मिलजुलकर अकाल पनपता है.
राहत की राजनीति
राहत योजनाएं अप्रैल से जून यानी साल के तीन महीनों के लिए ही होती हैं. इस दरम्यान बगैर पाइपलाइन वाले इलाकों में टैंकरों से पानी पहुंचाने की कोशिश होती है. लेकिन फतेहपुर के खियाराम कहते हैं- “जहां-जहां पाइपलाइन हैं, उनमें से ज्यादातर इलाकों में पानी की व्यवस्थाएं ठप्प हैं.” यानी ऊपर से ही यह मानकर चला जाता है कि व्यवस्थाएं सुचारू ढ़ंग से चल रही हैं.
चूंकि ‘फेमिन कोड’ में गाय को ही पशु माना गया है इसलिए सरकार के पशु-शिविरों में गाय को ही चारा खिलाने का कायदा है. यूं तो अंग्रेजों के जमाने में तो ऊंट को भी चारा मिलता था, क्योंकि उस समय परिवहन के मुख्य साधन ऊंट ही थे. अबके अधिकारियों को लगता है कि ऊंट परिवहन के साधन नहीं रहे इसलिए ‘वोट बैलेंस’ की राजनीति के चलते सिर्फ गाय के मरने की चिंता व्यक्त कर ली जाती है. वह भी वहां-वहां, जहां-जहां राजनैतिक दबाव है यानी 10 में से इक्का-दुक्का जगह. अकड़दरा के हनुमान कई उदाहरण देते हुए कहते हैं, “इन शिविरों में जब गाय तक चारा नहीं पहुंचता तो वह मरती हैं.” मरी गायों के बारे में लिखा जाता है- बचाने के विशेष प्रयासों के दौरान मारी गई.
सरकार की सुनें तो नरेगा ( राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) में 100 रु. ‘न्यूनतम मजदूरी’ है लेकिन मांग के मुताबिक भुगतान न होने से 100 रु. भी नहीं मिलते. ऐसे में 100 रु. को ‘अधिकतम मजदूरी’ कहना चाहिए. वैसे 100 रु. को भी घटाने की तैयारियां चल रही हैं. स्थानीय स्थितियों को देखते हुए यह सवाल बड़े काम का है, काम के बदले आखिर करवाया क्या? जैसे कि जिन गांवों में नाड़ियां (तालाब) नहीं हैं, हो भी नहीं सकते, क्योंकि वहां न पानी आता है, न रेतीली जमीनों में ठहरता है, वहां नालियां बनवाने से कोई फायदा नहीं. इसके बावजूद नालियां बनवाकर लाखों रु. राहत वाली फाइलों में चढ़ जाते हैं.
पनावड़ा के करणराम कहते हैं- “कुछ लोगों को तो रोजगार मिलता ही है, कुछ अधिकारियों को भी राहत मिल जाती है.”
आइए इसे एक किस्से से समझते हैं. जोधपुर के पास एक बड़ा पुराना तालाब था. क्योंकि अधिकारियों को नरेगा के तहत इसकी मरम्मत करवानी ही थी इसलिए उसे एक, दो, तीन साल तक खोदते रहे. जिस चिकनी मिट्टी से पानी ठहरता था, उसे ही उखाड़ते हुए आजू-बाजू में बड़े-बड़े टीले खड़े किए. जब बरसात का पानी उसमें आया तो 15 दिनों से ज्यादा नहीं ठहरा. अब अधिकारियों के सामने यह विपदा आन पड़ी कि टीले के वजूद में पड़ी मिट्टी को वापस तालाब में डलवाएं भी तो पैमेन्ट कहां से शो करेंगे, क्योंकि यह टॉस्क की कल्पना से परे था. यानी तालाब के तमाम काम निपटाने के नाम से तालाब का ही काम तमाम कर दिया गया.
इसी तरह विधानसभा क्षेत्र में कुल 25 हेडपंप लगने थे, क्योंकि दो सरपंच विधायक के खास थे इसलिए कोल्हू और अकड़दरा गांवों में 20 हेडपंप लग गए. यहां हेडपंप सफल नहीं माने जाते, लेकिन राहत के छोटे-छोटे बटवारों में भी दलगत, जातिगत, इलाकागत जैसे समीकरणों की भूमिका तो रहती ही है.
एक ओर राजस्व विभाग की गिरदावरी रिपोर्ट ने “बायतु ब्लाक के 47 गांवों में सूखा” बताया, दूसरी तरफ सरकार की ही बीमा कंपनी ने कहा- वह “6 खेतों के मूल्यांकन के बाद बताएगी कि यहां सूखा है या नहीं.”
चलते-चलते
मामला महज बाड़मेर का नहीं है, थार यानी देश के 61 फीसदी रेगिस्तान का जर्रा-जर्रा सूखे की कहानी खुद कहता है. यहां सरकारी उम्मीद की अकाल मौत तो बहुत पहले ही हो चुकी है, इसलिए भूखे, प्यासे और बीमार लोगों को बादलों से ही राहत का इंतजार है. अप्रैल की आखिरी तारीखों में मुख्यमंत्री जी ने बाड़मेर भ्रमण का कार्यक्रम बनाया था. तब पंचायत समिति सिणधरी के चबा गांव में अकाल राहत कार्य के 60 मजदूरों ने हाथ खड़े करके एक महीने से मजदूरी नहीं मिलने की व्यथा कहनी चाही थी. लेकिन दौरे के एक दिन पहले ही प्रशासन ने मुख्यमंत्री को भ्रमित करते हुए नेशनल हाइवे पर पानी के लबालब हौद भरे, चारे के टैंकर खड़े करवा दिए. सूखे को सरकारी आंखों से दिखा दिया गया.
घंटे भर में मुख्यमंत्री जी यहां से वहां हुए, हालात जहां के तहां रहे. हालात इन दिनों सूखे से अकाल में बदल रहे हैं, इसलिए सरकारी महकमों में मुख्यमंत्री जी के वहां से यहां होने की गर्मागर्म चर्चाएं हैं.
2 टिप्पणियां:
hakeekat ko baya karata lekh.
kab insan swarth se upar uth kar sochega ?
aapne hakikat ko samne laya hai.... badhai..chandrapal
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