10.8.09

ऐसे सूरत की कैसी सूरत?

शिरीष खरे, सूरत से लौटकर
थेम्स नदी से लगे लंदन वाली तस्वीर के हू-ब-हू सूरत को लंदन जैसा बनाने की कवायद जोर पकड़ चुकी है। इसलिए ताप्ती के किनारे से हजारों झापड़ियों को साफ किया जा रहा है। सरकार के मुताबिक इसके बाद सूरत आबाद हो जाएगा। क्या सचमुच सूरत आबाद हो पाएगा? सूरत में स्लम एरिया हटाने के लिए केन्द्र (यूपीए) और राज्य (बीजेपी) सरकारों ने मिलकर 2,157 करोड़ की रणनीति बना ली है। दोनों (यूपीए-भाजपा) इन दिनों एक साथ 1 लाख से ज्यादा झोपड़ियां तोड़ रहे हैं। सूरत महापालिका का काम जमीने खाली करवाना और बिल्डरों को सस्ते दामों में बेचना है।
हालांकि शहर में ‘रहने’ और ‘रोजी-रोटी’ के कई सवाल गहरा गए हैं, जबाव हैं कि मिलतें नहीं। मिलतें हैं तो उन टूटी बस्तियों के बेरहम किस्से, जो सूरत के नए नक्शे से गायब हैं। आपके सामने है कतारगाम इलाके से गायब एक ऐसी ही बस्ती का किस्सा, वैसे यह व्यवस्था के गायब होने का किस्सा भी है : चंद्रकांत भाई रोज की तरह काम पर गए थे, शाम को लौटे तो पूरी बस्ती ही लापता थी। फिर उन्होंने पता किया कि बाकी लोग शहर से बाहर कोसाठ नाम की जगह पर गए हैं। घरवालों से मिलने के लिए उन्हें रिक्शा करके फौरन कोसाठ जाना पड़ा।
15 जून 04’ का यह किस्सा अकेले चंद्रकांत भाई का नहीं है, तब सूरत के बीचो बीच कतारगाम बस्ती के 155 घर शहर की खूबसूरती की भेंट चढे़ थे। बाकी के 55 कच्चे घरों का टूटना भी पक्का है, बस तारीख फाईनल नहीं हुई है। यहां की 2 एकड़ जमीन पर कभी 2,50 घरों की 2,000 आबादी बसती थी। 90 साल पुरानी इस बस्ती की जमीन ने करोड़ों का भाव पार किया तो यहां के असली मालिकों को सस्ते घरों समेत उखाड़ फेंका गया। गायत्री बेन बताती हैं- ‘‘न सूचना दी, न सुनवाई की। वैसे भनक लग गई थी कि खूबसूरती के लिए तालाब फैलेगा, हमारी जगह पिकनिक स्पाट में बदलेगी, पार्किंग और गार्डन को जगह मिलेगी, सुबह-शाम टहलने वालों का ‘स्पेशल-रुट’ बनेगा, बिल्डरों की दुकाने खुलेगी, बस्ती की बजाय मार्केट होगा।...आप तो वहीं से आ रहे हैं, हमारी बातें सच साबित हुईं ना!’’
कोसाठ, जहां हम खड़े हैं, यह कतारगाम से उजड़े रहवासियों का अगला ठिकाना बना। यह कतारगाम से ‘12 किलोमीटर’ दूर, शहर के उत्तरी तरफ का ‘आऊटसाइड’ और नक्शे के हिसाब से ‘बाढ़ प्रभावित’ इलाका है। कौशिक भाई बताते हैं- ‘‘यहां बसाए जाने का विरोध सुनकर महापालिका का अफसर बड़े ठण्डे दिमाग से बोला कि तुम्हें बस्ती बनाने की बजाय ऊंची मंजिलों में रहना चाहिए। बारिश का पानी भरे भी तो दूसरी, नहीं तो तीसरी मंजिल में चढ़ जाना।’’ तारीखे गवाह हैं कि 2004 की बाढ़ से सूरत के 30,000 लोग प्रभावित हुए थे। तब इन्हें न मंजिल नसीब हुई, न जमीन। एक साल बाद महापालिका से जगह (12 गुणा 35 वर्ग फीट/2 लाख) के बदले जगह (माटी के दाम जैसी) तो मिली लेकिन घर के बदले घर नहीं। न ही तोड़े गए लाखों के घरों और हजारों की गृहस्थियों का मुआवजा। एक साथ इनसे बिजली, पानी, नालियां, टायलेट, रास्ते, मैदान, बाजार, आंगनबाड़ी, स्कूल, राशनकार्ड, वोटरलिस्ट के नाम ऐसे छूटे कि अभी तक नहीं लौटे। इनके बगैर भी काम चल जाता, जब काम की छूट गए तो जिंदगी कैसे चले ?
काम छूट गए
‘‘जमीन, घर, गृहस्थी का नुकसान तो सबने देखा। लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान तो बेकारी से हुआ।’’ ऐसा कहना है नरोत्तम महापात्र का, कोसाठ में उनकी तरह ही दर्जन भर औरत-मर्द अपने-अपने ठिकानों के बाहर बैठे हैं। बातों ही बातों में मालूम पड़ता है कि पहले इन्हें ‘कतारगाम इण्डस्ट्रियल एरिया’ के ‘पावरलूम्स’ में दिहाड़ी मजदूरी मिल जाती थी। एक दिन में 1,50 और महीने भर में 3,500 से 4,000 रूपए तो बनते ही थे। कुछ लोग मजदूरों की छोटी-छोटी जरूरतों जैसे चाय, नाश्ता या खाने-पीने के धंधों से जुड़े थे। औरते, घरेलू काम के लिए आसपास की सोसाइटियों में जातीं और महीने भर में 6,00 रूपए कमाती थीं। इस तरह हर घर का हाल-चाल बहुत अच्छा तो नहीं, फिर भी चल रहा था। यहां आकर तो इनकी दुनिया ठहर ही गई है।
अज्जू मियां बताते हैं- ‘‘कतारगाम आओ-जाओ तो 40 रूपए अकेले आटो के। इसके बाद मजदूरी न मिले तो आफत। तब कारखानों के आसपास थे, मजदूरी मिलती ही थी। अब आसपास के दूसरे लोगों को ही रख लेते हैं।’’ यही हाल औरतों का है, घरों में काम करने से जितना (6,00 रूपए) मिलेगा उससे दोगुना तो अब भाड़े (12,00 रूपए) में जाएगा। रक्षा बेन बोली- ‘‘मालकिनों से जरूरत की चीजे और उधार के पैसे तो मिलते थे। यहां तो ऊंचे ब्याज-दर पर पैसे उठाने पड़ते हैं।’’ महीना भर पहले ही हेमंत भाई की बीबी टीबी के चलते खत्म हुईं हैं, उन्होंने ईलाज के लिए 12 रूपए/महीने के हिसाब से 10,000 उठाए थे। एक तो आमदनी नहीं, ऊपर से कर्ज का बढ़ता बोझ। यहां हरके कम से कम 25,000 रूपए का कर्जदार तो बना ही रहता है। इनमें से ज्यादातर ने घर बनाने के लिए कर्ज लिया था, जिसका ब्याज अब तक नहीं छूट रहा है।
राजेश भाई रिक्शा चलाते हैं। उन्होंने अधूरे खड़े घरों का इतिहास बताने के लिए 4 साल पुरानी बात छेड़ी- ‘‘तब 29 दिनों तक तो ऐसे ही पड़े रहे। बीच में जोर की बारिश हुई तो सबने चंदा करके यहां एक टेंट लगवाया। कईयों ने अपने टूटे घरों की लकड़ी, पनी और बांस से अस्थायी घर बनाए, जो भारी बाढ़ में बह गए। मेरी 90 साल की नानी और एक पैर से कमजोर मौसी ने जो तकलीफ झेली उसे कैसे सुनाऊं, बीबी टीबी की मरीज थी, उसे बच्ची को लेकर मायके जाना पड़ा।’’ यहां की हालत देखकर तो लगता है कि कच्चे-पक्के आशियाने एक बार बनने के बाद खड़े नहीं रहते, हर साल की बाढ़ से टूटते, फूटते, गिरते या बहते ही हैं। इस तरह मानसून के साथ आशियाने बनाने और सामान खरीदने की जद्दोजहद जारी रहती है। इस साल भी भारी बूंदों के साथ तबाही के बादल बरसने लगे हैं।
एसएमसी का (स्व)राज
सूरत महापालिका (प्र)शासन तरीके को टीना बेन के किस्से से समझते हैं। 1992 को टीना बेन 14 साल की थी, तब उन्हें घर के सामने खड़ा करके एक स्लेट पर उनका नाम, एनके परिवार वालों का नाम लिखवाकर फोटो ले लिया गया। 2005 को याने ठीक 12 साल बाद जब वह दो बच्चों की मां बनी तो भी उन्हें 1992 की फोटो के हिसाब से घर का मुआवजा मिला। समय के इतने बड़े अंतराल में घर तो क्या बस्ती की पूरी दुनिया ही बदल जाती है, लेकिन नहीं बदलती है तो सूरत महापालिका की मानसिकता।
कतारगाम में किसी का घर 30 तो किसी का 60 फीट की जगह पर था, लेकिन कोसाठ में सभी को 12 गुणा 35 वर्ग फीट के फार्मूले से जगह बांटी गई। अब आप ही बताइए 12 गुणा 35 वर्ग फीट में कोई क्या बनाएगा, जो बनेगा उसे चाहे तो किचन कह लो, नहीं तो टायलेट, बाथरूम, बेडरूम, हाल या गेलरी, कुछ भी कह लो। ऐसी बस्तियों में लम्बे समय से काम करने वाले अल्फ्रेड भाई बताते हैं- ‘‘महापालिका जिन मकानों को तोड़ने की ठान लेती है उनसे टेक्स वसूलना बंद कर देती है। जिससे टेक्स नहीं लिया जाता वह डर जाता है, अगला नम्बर उसका भी हो सकता है! बुलडोजर आने से पहले पुलिस के पास बस्ती में कड़ा विरोध करने वालों की वाकायदा एक लिस्ट होती है। उन्हें डेमोलेशन से पहले ही धर दबोचा जाता है। कुल मिलाकर सूरत में तोड़-फोड़ की ज्यादातर कार्यवाहियों को तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण भरे माहौल में निपटा लिया जाता है।’’
लौटते वक्त नानदीप मिला। इतनी बड़ी बसाहट में अकेला यही लड़का पढ़ने जाता है, वह भी 2 किलोमीटर दूर के एक मंहगे प्राइवेट स्कूल में। 9 वीं में पढ़ने वाले नानदीप ने बताया- ‘‘जिन महीनों में स्कूल की फीस और टेम्पो का पैसा रहता है, उन्हीं महीनों में ही स्कूल जाता हूं। कतारगाम वाले स्कूल (महापालिका) में इतने हाई-फाई बच्चे नहीं थे। लेकिन यहां के बच्चों के साथ बैठने, पढ़ने में अच्छा नहीं लगता। क्लास 6 में वहां मेरी ‘बी’ ग्रेड थी, और यहां ‘सी’।’’ यह है एसएमसी और प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा और सभ्यता के बीच की खाई। नानदीप जैसे बच्चों से खाई भरने की उम्मीद पालना नाइंसाफी होगी।
काहे के कायदे, वायदे
डेमोलेशन की कानूनी लड़ाईयों में उलझने वाले भरत भाई से यह मालूम हुआ कि इस दौरान ‘यूनाईटेड नेशन’ की गाईडलाईन निभानी जरूरी थी। यहां डेमोलेशन के पहले और बाद में ‘मानव-अधिकारों’’ का खुला अपमान हुआ। जिन्हें उखाड़ना था, उनके साथ बैठकर पुनर्वास और राहत की बातें की जानी थी। गाईडलाईन कहती है कि विकलांग, बुजुर्ग और एसटी-एससी को उनके रोजगार के मुताबिक और पुराने झोपड़े के पास ही बसाया जाए। पीड़ित आदमी को पहले पुनर्वास वाली जगह दिखाई जाए, इसके बाद अगर वह मांग करता है तो उसे कोर्ट में जाने का हक भी है। इसके लिए कम से कम 90 दिनों का समय भी दिया जाए। लेकिन सूरत महापालिका ने तो एक भी कायदा नहीं निभाया।
मावजी भाई, 62 साल के दलित नेता है। कतारगाम बस्ती में डेमोलेशन (2004) के वक्त वहीं थे, पुलिस ने उन्हें भी खूब पीटा, दो दिनों तक जेल में भी रखा। मावजी भाई बताते हैं- ‘‘हमारे नामों को अभी तक वोटरलिस्ट में नहीं लाना, संयोग नहीं, एक साजिश है। महापालिका के चुनाव फिर आ गए, ऐसे में हर एक का राजनैतिक वजूद भी तोड़ा गया है।’’ डेमोलेशन के वक्त आप लोग कारर्पोरेटर (महापालिका का मेम्बर) के पास गए थे ?’ मेरे इस औपचारिक भरे सवाल पर ममता आपा अपनी हंसी नहीं रोक सकीं, वह बोलीं- ‘‘गए थे, वह बोला कि बहुत तेज बुखार आया है, उठने में महीना भर तो लगेगा। 5 साल होने को हैं, न उसका बुखार उतरा, न ही कोई विधायक, मंत्री, सांसद इस तरफ आया।
जैसा कि सब जानते हैं महात्मा गांधी को ‘कालेपन’ की वजह से एक रात साऊथ-अफ्रीका में चलती ट्रेन से फेंका गया था। उन्हीं महात्मा को अपना बताने वाले गुजरात के सूरत में हजारों भारतीयों को ‘झोपड़पट्टी-वाला’ होने की वजह से 25 किलोमीटर दूर फेंका गया है। 120 साल पहले हुए अन्याय का किस्सा इतिहास नहीं वर्तमान है, जो भविष्य में भी बार-बार दोहराया जाएगा। हां यह और बात हैं कि कल कतारगाम जैसी बस्तियों का उल्लेख खोजने से भी नहीं मिलेगा। लेकिन शायद कातरगाम के निवासी नहीं जानते हैं कि सूरत चमकाने के लिए कोई न कोई कीमत अदा करता ही है. यहां, इस शहर में यह कीमत उनसे वसूली जा रही है.

1 टिप्पणी:

Apanatva ने कहा…
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