सहारा दरवाजे वाले छोर से गांधीनगर, विकासनगर, अम्बा बाड़ी, उद्रेश भैयाणी बाड़ी के बाद कुछ तंग गलियों का रास्ता पाटीचाल की तरफ भी खुलता है। आपको याद होगा कि पिछले किस्सा उद्रेश भैयाणी बाड़ी में लालबहादुरजी की सरकार के नाम रहा। आपको बता दे कि 25 साल पहले पाटीचाल में भी लालबहादुरजी का ही राज था। लेकिन यहां विठ्ठल भाई पाटिल ने उसके फैलते साम्राज्य के खिलाफ दीवानी अदालत का दरवाजा खटखटाया था। 3 साल की जद्दोजहद के बाद यह जमीन सूरत महापालिका की बतलायी गई। आज की तारीख में यहां न कोई झोपड़े के बदले मकान बनाने से रोकता है, न रहने का भाड़ा वसूलता है, न ही बुनियादी सुविधाओं के सवाल पर कोई बाबू एक मर्तबा लालबहादुरजी से पूछ लेने की नसीहत देता है। लेकिन इन राहतों के बीच अब शीघ्रातिशीघ्र पाटीचाल को भी तोड़े जाने का फैसला हो चुका है। ऐसे में यहां के लोगों की आखिरी उम्मीद घर और जमीन के बदले राहत रुपी नाम पर आकर अटक गई है। यूं तो 100-50 कदमों के फासले पर दो दुनिया मिलती हैं, लेकिन कुछ मायनों में एक-दूसरे से एकदम अलग-अलग, कुछ मायनों में बिल्कुल एक जैसी। विठ्ठल भाई पाटिल के 18 गुणा 20 वर्ग फीट वाले मकान के पहले कमरे में उनके साथ दशरथ भाई, भरत भाई और अल्फ्रेड भाई बैठे हैं। लंबी खामोशी को तोड़ते हुए विठ्ठल भाई बोले- ‘‘ऐसे 700 घरों को लालबहादुर के कब्जे से निकल लाए, लेकिन बाजू में जो मंगू भाई वाली गली है, वहां से अभी भी लालबहादुर का राज कायम है। अगर वहां के लोग भी कचहरी के रास्ते जाए तो वहां की दुनिया भी बदल जाए। झोपड़े तो उनके भी टूटने हैं लेकिन कम से कम राहत का आसरा तो रहेगा।’’ इसके बाद भरत भाई ने 3 अगस्त 2008 को अखबारों में छपी खबर का हवाला देते हुए पूछा- ‘‘सूरत महापालिका ने कहीं-कहीं ‘माडल बसाहट’ बनाने की बात कही थी, ‘पाटीचाल’ का नाम उनमें है या नहीं ?’’ विठ्ठल भाई अखबारों की उन कतरनों के अलावा सूचना के अधिकार से मिले कागजातों को लाकर बोले- ‘‘हमने एसएमसी के पास कुछ सवाल भेजे थे। उनसे पूछा था कि क्या आप वाकई माडल बसाहट बनाने वाले हैं, अगर हां तो उसमें पाटीचाल, गांधीनगर, विकासनगर, अंबा बाड़ी, उद्रेश भैयाणी बाड़ी और नवी बसाहट के नाम शामिल हैं ? एसएमसी का जबाव ‘न’ में आया। असल में सूरत की बाकी जमीनों के मुकाबले यहां की जमीन बहुत मंहगी हो चुकी है, इसलिए अब कई बिल्डरों की निगाह यहां जम चुकी है, इसलिए एसएमसी कार्यालय की विस्थापित सूची में यहां के झोपड़े भी दर्ज हो चुके हैं।’’ लेकिन ‘बिल्डरों की निगाह’ और ‘एसएमसी कार्यालय की विस्थापित सूची’ का आपस में क्या मेल-जोल है ? बहुत समय से झोपड़पट्टियों में ही काम कर रहे अल्फ्रेड भाई जबाव देते हैं- ‘‘भरी-पूरी बस्ती को शहर से बहुत दूर किसी बहुमंजिला इमारत में भेजने की कवायद चल रही है, इसके बाद खाली हुई जमीनों को कारर्पोरेट के हवाले कर दिया जाना है। सूरत महापालिका कई जगह कारर्पोरेट को आगे (घोषित एजेंडा) करके, कई जगह कारर्पोरेट को पीछे करके (अघोषित एजेंडा) बढ रही है।’’ शोध और सामाजिक गतिविधियों से जुड़े भरत भाई मानते हैं- ‘‘सूरत को 2009 के अंत तक 0 स्लम बनाने की कोई स्पष्ट योजना या रणनीति तो होनी चाहिए थी। किनका विस्थापन होना है, कब तक होना है, कुछ जाहिर नहीं है। पुनर्वास का पात्र कौन होगा, अगर होगा भी तो किन शर्तों पर और कहां भेजा जाएगा, अभी तक यही समझ नहीं आ रहा है। एसएमसी के पास तो हर सवाल का यही जबाव है कि ‘कोसाठ में 42 हजार घर बन रहे हैं।’ जबकि सूरत के झोपड़पट्टियों में रहने वालों की आबादी 6 लाख से ऊपर है।’’ बस्ती के रहवासी दशरथ भाई कहते हैं- ‘‘हर आदमी अच्छे मकान और उसमें बेहतरीन चीजों का सपना देखता है। यहां कोई चाहकर भी अच्छा मकान नहीं बनाएगा, न ही अपने मकान में सुंदर या सुविधाओं की चीजों को सजाना चाहेगा। कल क्या होना है, पता नहीं। फासी देने की तारीख भी पता होती है, लेकिन हमारे टूटने की कोई तारीख नहीं बतलाई गई है, ऐसे में रातों की नींद तो अभी से तोड़ी जा चुकी है।’’ उन्होंने विठ्ठल भाई को देखते हुए कहा- ‘‘बेकार ही गए आप!!’’ भू-माफिया का अंत करने के लिए कचहरी का दरवाजा घटघटाने वाले विठ्ठल भाई चुप हैं, ऐसे लोग अब कहां जाएंगे ?
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