8.2.09

खबर नहीं बना विस्फोट



शिरीष खरे



26 जनवरी के 2 दिनों बाद मतलब 28 तारीख की दोपहर एक विस्फोट से बीड़ जिले का नेकनूर गांव दहल गया. वैसे तो इससे पूरा राष्ट्र और महाराष्ट्र दहलना चाहिए था लेकिन ऐसा हुआ नहीं. यह हादसा किसी आतंकवादी संगठन की साजिश नहीं बल्कि पटाखा फेक्ट्री मालिक की लापरवाही से हुआ. रात 10 बजते-बजते 10 जाने चली. तब तक एक चौंकाने वाला तथ्य यह निकला कि मरने वालों में 5 दलित और 2 मुस्लिम परिवारों के बाल मजदूर हैं. `चंदन फायर वक्र्स एण्ड माचिस फेक्ट्री´ नाम की इस फेक्ट्री के मालिक शेख सलीम और शेख नूर हैं.
इस धमाके से चारों तरफ आग फैल गई जिसमें 35 मजदूर झुलस गए. रिपोर्ट लिखे जाने तक कई मजदूरों की हालत गंभीर बनी हुई थी. इस हादसे के 96 घण्टे गुजरने के बावजूद जब प्रशासनिक उदासीनता बरकरार रही तो महाराश्ट्र के `बाल हक अभियान´ से जुड़े संगठनों ने मुख्यमंत्री अशोक राव चौहान को ज्ञापन लिखकर कड़ी प्रतिक्रया जतायी. इन्होंने फेक्ट्री कारखाने के मालिकों सहित जिम्मेदार अधिकारियों पर तुरंत कार्यवाही करने, मृतक बच्चे के परिवार को 5 लाख तथा घायलों को 1 लाख रूपए देने और ऐसी फैक्ट्रियों पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी की है. `चाईल्ड राईटस एण्ड यू´ से सुधीर सुधल के मुताबिक- ``यह हादसा बताता है कि बाल मजदूरी के पीछे गरीबी और बेकारी किस तरह से काम कर रही हैं. साथ ही बाल मजदूरी पर सरकार और जिलाधिकारियों की सजगता की भी पोल घुलती है.´´ संस्था मानती है कि जब तक ऐसे बच्चों के परिवारों को रोजगार और आर्थिक स्थिरता नहीं मिलती तब तक यह समस्या खत्म नहीं होगी. इसलिए उपयोगी और आजीविका पर आधारित शिक्षा व्यवस्था पर जोर दिया जाए. इसके अलावा बाल-श्रम कानून, 1986´ के तहत बाल मजदूरों की कुल संख्या का सिर्फ 15 फीसदी हिस्सा ही लिया जाता है. इसलिए सभी उद्योगों में बाल मजदूरी पर रोक लगाना जरूरी है.
संस्था के विभिन्न शोध बताते हैं कि पूरी दुनिया में 24.6 करोड़ बाल मजदूर हैं जिसमें से सबसे ज्यादा 1.7 करोड भारत में ही हैं. इसमें से 10 फीसदी घेरलू और 85 फीसदी अंसगठित क्षेत्रों से हैं. बहुत सारे बच्चे खेत, खदान और पत्थरों का काम करते हैं. `अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन´ की रिपार्ट में देश भर के करीब 71 फीसदी बाल मजदूर स्कूल नहीं जाते. सबसे ज्यादा बाल मजदूर आंध्र-प्रदेश (14.5 फीसदी) में हैं. इस हिसाब से महाराष्ट्र का नम्बर चौथा (9.5 फीसदी) है. कहते हैं देश का सच्चा धन बैंको में नही बल्कि स्कूलों में होता हैं लेकिन शिक्षा और रोजगार की अनियमितताओं से कानून भी बेअसर हो जाते हैं. संविधान की `धारा-24´ में 14 साल से छोटे बच्चों को फैक्ट्री या खदान के कामों की मनाही है. वह अन्य खतरनाक कामों में भी शामिल नहीं हो सकते. `धारा-39 ई´ के अनुसार राज्य अपनी नीतियां इस तरह बनाए कि बच्चों का शोशण न हो पाए. `धारा-39 एफ´ बच्चों को नैतिक और भौतिक दुरूपयोग से बचाता है.
`फैक्ट्री कानून-48´ के मुताबिक 15 से 18 साल तक के किशोर किसी फेक्ट्री में तभी काम कर सकते हैं जब उन्हें मेडीकल-फिटनेस प्राप्त हो. यह कानून 14 से 18 साल के बच्चों को सिर्फ 4 घण्टे काम कराने की इजाजत देता है. 1986 के `बाल-श्रम कानून´ ने पटाखा, बीड़ी, कालीन, सीमेंट, कपड़ा, छपाई, दियासलाई, चमड़ा, साबुन और भवन निर्माण से जुड़ी फैक्ट्रियों में बच्चों के काम करने को खतरनाक माना. 1996 को सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को खतरनाक पेशों में लिप्त बच्चों की पहचान करने, उन्हें काम से हटाने और बेहतर शिक्षा देने के निर्देश दिए थे. 2006 को कानून में 14 साल से कम उम्र के बच्चों को घर, होटल या मंनोरंजन केन्द्रों तक में काम करने पर रोक लगा दी गई. साथ ही कानून न मानने वालों पर 3-10 महीने की जेल या 10-20 हजार रूपए जुर्माने का प्रावधान भी रखा. जाहिर है 1938 से अब तक बाल-श्रम कानून को कई तरह से जांचा-परखा और बदला गया. फिर भी संवैधानिक कानून और अदालती आदेशों की धज्जियां ही उड़ाई जाती रही.
बाल मजदूरों के विकास के लिए सरकारी बजट का मामूली हिस्सा ही खर्च होता है। इस दिशा में मार्च 2008 को मात्र 156 करोड़ रूपए आंवटित किए। जो पिछले साल के मुकाबले महज 3 करोड़ ही ज्यादा है. इस तरह एक बाल मजदूर को मात्र 10 रूपए महीना मिलेगा. यह रकम देश के 250 जिलों में चल रही करीब 9 हजार परियोजनाओं के लिए होगी. इसमें 9-14 साल तक के 4.5 लाख बच्चे हैं. ऐसे बच्चों के लिए श्रम मंत्रालय आवासीय स्कूल योजना बनाना चाहता है जो फिलहाल ठंडे बस्ते में है. हमारे तंत्र में बच्चों की जिम्मेदारी की ठीक-ठाक रूपरेखा तक नहीं. 6 साल तक के बच्चे `महिला एवं बाल विकास´ की जिम्मेदारी हैं. 6-14 साल तक के बच्चे 'शिक्षा विभाग´ के हवाले हैं. लेकिन 14-18 साल तक के बच्चों का रखवाला कोई नहीं. इसलिए ऐसे हादसों के बाद विभिन्न विभाग हालातों का सही जायजा लेने की बजाय एक-दूसरे की तरफ देखते हैं. नेकनूर गांव का विस्फोट ने यह भी बताया कि सस्ती मजदूरी से बाल-मजदूरी को बढ़ावा मिलता है. इस फेक्ट्री के मालिक अधिक काम के बदले बच्चों को कम पैसे देते थे. इस तरह वह अधिक काम का अतिरिक्त वेतन देने से भी बच जाते थे. देखा जाए तो 14 साल तक के बच्चों को 8 घण्टे के बदले अधिकतम 40 रूपए की ही मजदूरी मिल पाती है. इससे कई बच्चे 14 की उम्र तक आते-आते बीमार हो जाते हैं. सबसे ज्यादा बाल-मजदूर 12-15 साल के होते हैं. मतलब देश के भविश्य को समय से पहले ही बूढ़ा बनाया जा रहा है.

2 टिप्‍पणियां:

अनिल कान्त ने कहा…

इतना कुछ होते हुए भी ...हालात बदतर हैं ....क्या ध्यान है कहाँ ध्यान है समझ नही आता .....अच्छा लेख

अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

अनुनाद सिंह ने कहा…

भारत का मिडिया सतत टीआरपी के चक्कर में रहता है। उसे इन "मामूली" बातों से क्या लेना-देना?


( आपका यह सद्विचार "सामाजिक बदलाव बारिश की तरह अपने-आप होने वाली घटना नहीं" बहुत सटीक लगा।)