इन दिनों सरदार सरोवर परियोजना और डूब प्रभावितों के लिए किये जा रहे पुनर्वास कार्य में भ्रष्ट्राचार कुछ इस प्रकार व्याप्त है कि अनियमितताओं का सिलसिलेवार ब्यौरा जुटाना और उसके आधार पर लगातार कार्यवाहियों की रणनीतियां तैयार करना कठिन हो चुका है. इस विशालकाय बांध की तरह ही इससे प्राप्त होनेवाले लाभों, लागतों और पुनर्वास संबंधित तमाम फर्जीवाड़ों की लम्बी सूचियां विवादों की मोटी गठरी बन चुकी है.
सरदार सरोवर परियोजना 1979 में शुरू हुई थी और यह साल 2025 में पूरी होगी. इससे लगभग दो लाख लोग विस्थापित होंगे. 1993 में विश्व बैंक ने इस परियोजना से अपना हाथ पीछे खींच लिया था. इसी साल “केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय” के विशेषज्ञ दल ने भी अपनी रिपोर्ट में बांध के काम के दौरान पर्यावरण की भारी अनदेखी और लापरवाही पर सभी का ध्यान खींचा था. अनेक पर्यावरणविदों की राय में यह योजना पर्यावरण के प्रतिकूल है. इतने बड़े पैमाने पर काम होगा तो पर्यावरण के साथ खिलवाड़ भी उसी अनुपात में होना है. इसके बावजूद कुल 1200 किलोमीटर लंबी नर्मदा पर 3200 बाँध बनाना भी तय हुआ है. मतलब नर्मदा की घाटी में असंतुलित विकास, विस्थापन और अनियमतताओं का अतीत खत्म नहीं होने दिया जाएगा.
लाभ और लागत‘नर्मदा बचाओं आंदोलन’ ने समाज में विकास की परिभाषा और उसके मापदण्डों पर लगातार विचार करने की प्रक्रिया को प्राथमिकता दी है. इसी तर्क को आधार मानकर परियोजना के कुल लाभ और हानियों का हमेशा आकलन चलता रहा है. हर बार यह लागत बढ़ती जा रही है. सरकार के अनुसार पूरी लागत गुजरात के सिंचाई बजट का 80 प्रतिशत हिस्सा है. लेकिन इससे कच्छ के लगभग 2 प्रतिशत और सौराष्ट्र के 9 प्रतिशत भाग में ही पानी पहुंचाया जा सकेगा. मेधा पाटकर के अनुसार- “विगत 20 सालों में यह परियोजना 4200 हजार करोड़ से बढ़कर 4500 हजार करोड़ हो चुकी है. इसमें से अब तक 25 हजार करोड़ खर्च हो भी चुके हैं. अनुमान है कि आने वाले समय में यह लागत 70 हजार करोड़ तक पहुंचेगी. इसके बावजूद अकेले गुजरात में ही पानी का लाभ 10 प्रतिशत से भी कम हासिल है. महाराष्ट्र और राजस्थान को मिलने वाला लाभ नजर नहीं आता जबकि मध्यप्रदेश को भी अनुमान से कम बिजली मिलने वाली है.” कुछ तकनीकी विशेषज्ञों का मानना है कि अगर इस पूरी योजना को वैकल्पिक तरीक़े से लागू किया जाए और इसे छोटी-छोटी, आत्मनिर्भर तथा पर्यावरण के अनुकूल परियोजनाओं में बांट दिया जाए तो ज़्यादा लाभ हो सकता है.
विस्थापन यहां के आदिवासी लोगों की प्रमुख मांग जमीन के बदले जमीन की है. परंतु सरकार जमीन जुटाने में अपनी असमर्थता व्यक्त करती रही है. कुछ लोगों को पुनर्वास की जो जमीन दी गई है उनमें से ज्यादातर की शिकायत है कि वह जमीन उनकी असली जमीन से कम उपजाउ है. काम की जमीन को पानी में डूबोकर बदले में उन्हें बेकार जमीन दी जा रहीं है. जमीन बिखरे टुकड़ों में दी जा रही है. बहुत बड़ी तादाद में पुनर्वासित लोगों का कहना है कि आज नर्मदा की नहर उनकी दी गई ज़मीन से निकल रही है पर उन्हें ही नर्मदा के पानी से वंचित रखा जा रहा है. पुनर्वास कार्य में अनियमतताओं के गंभीर आरोप बढ़ते ही जाते हैं. उधर ‘नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण’ द्वारा जारी एक विज्ञप्ति में कहा गया कि सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित परिवारों के पुनर्वास कार्य में कथित अनियमितताओं के आरोप गलत हैं. तथ्य यह है कि- “विगत वर्ष मानसून सत्र के दौरान परियोजना प्रभावितों के लिए विकसित 88 पुनर्वास स्थलों में 22438 परिवारों को निशुल्क भूखण्डव आंवटित किये गए. जो परिवार भूखण्ड लेना नहीं चाहतें, उन्हें 50 हजार नकद राशि देने का विकल्प रखा गया और 806 परिवारों ने स्वेच्छा से नकद राशि लेने का विकल्प चुना.” लेकिन सरकार के भीतर ही एनवीडीए की कार्यप्रणाली को लेकर अंतर्विरोध के स्वर उभरते रहे हैं. विगत वर्ष मानसून सत्र के दौरान मुख्य सचिव द्वारा निर्माण विभागों की मानिटरिंग के दौरान एनवीडीए अधिकारियों की जमकर क्लास लेने की खबर अखबारों की प्रमुख सुर्खी बनी थी. तब श्री साहनी ने कहा कि "बार-बार निर्देश के बावजूद एनवीडीए में न तो पैसों का सही उपयोग हो पा रहा है और न ही समय सीमा में कार्य हो पा रहा है. बड़े अधिकारी स्थल पर जाकर कामकाज की सही समीक्षा करें."
भ्रष्टाचार ‘नर्मदा बचाओं आंदोलन' वैकल्पिक वनीकरण, जल संरक्षण क्षेत्र विकास और पुनर्वास योजनाओं से संबंधित सरकारी दावों और आकड़ो को झूठा तथा विरोधाभाषी बताता है और कहता है कि इसके जवाब में हम मैदानी और कानूनी लड़ाई जारी रखेंगे। आंदोलन पुनर्वास कार्य में राहत और विस्थापन सहित कई क्षतिपूर्ति योजनाओं में भारी भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं. ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन, बड़वानी’ से मिली जानकारी के अनुसार प्रदेश सरकार ने 13 जिलों के कलेक्टबर और भू-अधिग्रहण अधिकारी को उनके यहां हुईं रजिस्ट्रियों की जांच करने के लिए कहा है. कुल 4190 रजिस्ट्रियों में से 2818 रजिस्ट्रियों की जांच की गई, जिनमें से अभी तक कुल 758 फर्जी रजिस्ट्रियों की बात सरकार मान चुकी है मगर आंदोलन के मुताबिक दुर्भाग्य से यह संख्या् उससे कहीं अधिक है. ‘नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण’ के अधिकारियों द्वारा जहां अनेक बैठकों में फर्जी रजिस्ट्री जांच में किसी प्रकार की आंच न आने की बात दोहराई जा रही है वहीं कुछ लोगों का मत है कि मौजूदा अधिकारियों के होते हुए निष्पैक्ष जांच संभव ही नहीं है। आंदोलन के कार्यकर्ता आशीष मंडलोई बताते हैं कि- "एनवीडीए के अधिकारियों द्वारा दोषी अधिकारियों को बचाने और महज विस्थापितों के फसाने का खेल चल रहा है। इस संबंध में जब प्रकरण न्यायालय में है तो ऐसे में निर्णय न्यायालय को लेना है, अधिकारियों द्वारा निर्णय लेना अवैध ही माना जाएगा." उन्होंने इस पूरे प्रकरण पर सीबीआई जांच की मांग की है.
1 टिप्पणी:
achchha lekh. aapka blog kafi achchha hai. savi lekh achchhe hai, or jankari se purn v.
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