शिरीष खरे
भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए अन्ना हजारे ने सही समय पर सही तरीका अपनाया है. अन्ना के प्रभाव और उनके समर्थकों के प्रयासों से कहीं ज्यादा देश के भीतर विश्वसनीय नेतृव्य के अभाव में छटपटा रहे आम आदमी की बैचनी ने पूरे आंदोलन को सफल बनाया है. जंतर-मंतर पर हमने प्रलोभनों से खीचा गया मेला नहीं बल्कि तंत्र को दुरूस्त करने का ऐसा लोक था जिसके पीछे न किसी राजनीतिक दल का बल था और न किसी धर्म का जोर. और तो और जिस तबके पर वोट न डालने की तोहमत लगती है वह भी यही मौजूद था. बीते एक दशक से मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले जानकार बता रहे थे कि भ्रष्टाचार अब ऐसा मामला बन चुका है जो जनता को आंदोलित नहीं करता है. लेकिन स्थिति अब उतनी भी निराशाजनक नहीं है जितनी कि कुछ दिनों पहले हुआ करती थी. आजादी के बाद यह पहला आंदोलन है जिसमें एक कानून के समर्थन में पूरा देश एकजुट हुआ. इस आंदोलन ने भ्रष्टाचार को इस देश का सबसे बड़ा मामला बना दिया है.
जहां छोटे से आंदोलन में तनाव की स्थितियां बिगड़ते देर नहीं लगतीं वहीं इस आंदोलन में जर्बदस्त अनुशासन देखने को मिला. जंतर-मंतर पर दि-ब-दिन जनता हजारों की संख्या में जमा होती जा रही थी लेकिन पुलिस के किसी तरह की कोई शिकायत नहीं पहुंची. इन पांच दिनों में न तो आसपास के इलाके की सार्वजनिक संपत्ति को कोई नुकसान पहुंचा और न ही चोरी या अभद्रता जैसा कोई समाचार सुनने को मिला. हर दिन जनसैलाब का जुनून जैसे अपने साथ अपना संयम भी ले आया था. दूसरी ओर अन्ना हजारे के 97 घंटों के अनशन में इंटरनेट के जरिये तकरीबन 45 लाख लोगों ने आंदोलन को लेकर अपनी भावनाएं जाहिर कीं. इस दौरान गूगल इंडिया पर सबसे ज्यादा सर्च किए जाने वाले अन्ना हजारे को फेसबुक पर करीब 11 लाख लोगों ने पसंद किया. सरकार पर इतना दवाब था कि शनिवार रात को करीब 2.30 बजे सरकारी प्रेस खुलवाकर गजट अधिसूचना को प्रकाशित करवाया गया.
पूर्व कानून मंत्री और प्रारुप के लिए गठित संयुक्त समिति के को-चेयरमेन शांतिभूषण का मानना है कि देश के प्रभावशाली लोग जब भ्रष्टाचार करते हैं तो उनके खिलाफ कोई गहन जांच पड़ताल नहीं होती है. इसका एक कारण जांच एंजेसियों का किसी न किसी के दवाब में काम करना है. इससे जहां शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार बढ़ता ही जा रहा है वहीं कोई नतीजा न मिलने से जनता निराश होती जा रही है. असल में हमारे यहां भ्रष्टाचार से निपटने की कोई मजबूत व्यवस्था नहीं है. जन लोकपाल कानून इस दिशा में जनता की निराशाओं को दूर करेगी. इसमें जहां दोषी साबित होने पर भ्रष्टाचार की कमाई को जब्त करने का प्रावधान रहेगा वहीं प्रशासनिक जवाबदारी को ध्यान में रखते हुए अगर कोई अधिकारी समय पर अपना काम पूरा नहीं करता है तो उस पर जुर्माना लगाया जाएगा. कोई भी पीडि़त नागरिक लोकपाल के पास अपनी शिकायत दर्ज करा सकता है और शिकायत की जांच निश्चित समयसीमा में पूरी होगी.
एक तरफ सरकार कहती रही कि वह भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने चाहती है और दूसरी तरफ से उनके प्रवक्ताओं ने लोकत्रांतिक तरीके से चुने गए प्रतिनिधियों की स्वायत्तता का सवाल उछाला. असल में अन्ना और सरकार के बीच हुआ यह समझौता असामान्य परिस्थितियों की देन है जो सरकार की भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए केवल खोखले आश्वासनों से बनी़. इन्हीं खोखले आश्वासनों के चिढ़ी जनता अन्ना के समर्थन में सड़को पर आकर संसंद पर दवाब बना रही थी. जनता यह भली भांति जानने लगी थी कि कैसे न केवल एक के बाद एक घोटाले हो रहे हैं बल्कि उनके लिए जिम्मेदार लोगों को कैसे बचाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं.
यह आंदोलन केवल सरकार के विरोध में नहीं बल्कि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था के विरोध रहा. इसलिए शरद यादव, ओम प्रकाश चैटाला, उमा भारती और मेनका गांधी जैसे राजनेताओं को उल्टे पैर लौटना पड़ा जो समर्थन जताने के लिए जंतर-तंतर पहुंचे थे. लोकपाल विधेयक को लेकर लंबे समय से संघर्ष कर रहीं सामाजिक कार्यकर्ता अरूणा राय कहती हैं कि इस विधेयक की मूल भावना से हमारी किसी तरह की असहमति नहीं है लेकिन हम चाहते हैं कि जो आखिरी मसौदा बने उसमें ज्यादा से ज्यादा जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो. अरूणा राय का मानना है कि हजारे और करोड़ों भारतीयों की भावना को देखते हुए केंद्र सरकार को चाहिए कि वह तुरंत जन लोकपाल विधेयक को कानून में बदलने का भरोसा दिलाए.
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