4.10.10

पंचायती व्यवस्था का बलात्कार

शिरीष खरे राजस्थान से लौटकर

बाड़मेर और अजमेर. राजौ और गीता. एक ही दुनिया के दो अलग-अलग किस्सों के दो किरदार हैं. इधर है अपनी अस्मत गंवा चुकी राजौ, जो गांव के विरोध पर भी अपनी अर्जी अदालत तक दे तो आती है, मगर लौटकर गांव से छूट जाती है. उधर है कमजोर दलित महिला होने का दर्द झेलनी वाली गीता, जो डर के मारे अपनी गुहार अदालत से वापिस ले आती है, और गांव से दोबारा जुड़ जाती है. दोनों ही मानते हैं कि थाने के रास्ते अदालत आना-जाना और इंसाफ की लड़ाई लड़ना तो फिर भी आसान है, मगर समाज के बगैर रह पाना बड़ा मुश्किल है.

एक को अदालत की लड़ाई मंजूर है, दूसरे को गांव में रहना. दोनों का हाल आपके सामने है. मगर कौन ज्यादा अंधेरे में है, और कौन कम उजाले में. चलिए आप ही तय कीजिए- गांव....थाने....अदालत....पंचायत....समाज के बीच मौजूद इनके फासलों, अंधेरे, उजाले से होकर.

राजौ के यहां जाने से पहले, उस रोज का अखबार भरतपुर जिले के गढ़ीपट्टी में ‘बंदूक की नोंक पर पांच लोगों के दलित औरत से बलात्कार’ की खबर दे रहा था. राजौ का गांव सावऊ, बाड़मेर जिले के गोड़ा थाने से 12 किलोमीटर दूर है. वहां तक पहुंचने में 30 मिनिट भी नहीं लगे, मगर राजौ के भीतर की झिझक ने उसे 45 मिनिट तक बाहर आने से रोके रखा.

राजौ के साथ जो हुआ वो घटना के चार रोज बाद यानी 9 जून, 2003 की एफआईआर में दर्ज था : "श्रीमान थाणेदार जी, एक अरज है कि मैं कुमारी राजौ पिता देदाराम, उम्र 15 साल, जब गोड़ा आने वाली बस से सहरफाटा पर उतरकर घर जा रही थी, तब रास्ते में टीकूराम पिता हीराराम जाट ने पटककर नीचे गिराया, दांतों से काटा, फिर.......और उसने जबरन खोटा काम किया. इसके बाद वह वहां से भाग निकला. मैंने यह बात सबसे पहले अपनी मां को बतलाई. मेरे पिता 120 किलोमीटर दूर मजूरी पर गए थे, पता चलते ही सबेरे लौट आएं. जब गांव वालों से न्याय नहीं मिला तो आज अपने भाई जोगेन्दर के साथ रिपोर्ट लिखवाने आई हूं. साबजी से अरज है कि जल्द से जल्द सख्त से सख्त कार्यवाही करें."

मुंह मोड़ने वाला समाज
राजौ अब 20 साल की हो चुकी है. उसकी मां से मालूम चला कि बचपन में उसकी सगाई अपने ही गांव में पाबूराम के लड़के हुकुमराम से हो चुकी है. मगर वह परिवार अब न तो राजौ को ले जाता है, न ही दूसरी शादी की बात करता है. गांव वालों से किसी मदद की तो पहले ही कोई गुंजाइश नहीं है, मगर 2 किलोमीटर दूर पुनियो के तला गांव में जो ताऊ है, 60 किलोमीटर दूर बनियाना में जो चाचा है, 80 किलोमीटर दूर सोनवा में जो ननिहाल है, वहां से भी कोई खैर-खबर नहीं आती है. उसका झोपड़ा भी गांव से 2 किलोमीटर दूर उसके खेत में आ पहुंचा है, और गृहस्थी का हाल पहले से ज्यादा खराब है. पंचों में चाहे खेताराम जाट हो या रुपाराम, खियाराम हो या अमराराम, सारे यही कहते हैं कि चिड़िया जब पूरा खेत चुग जाए तो उसके बाद पछताने से क्या फायदा है ?

राजौ के पिता देदाराम यह खोटी खबर लेकर सबसे पहले गांव के पंच खियाराम जाट के पास पहुंचे थे. पंच खियाराम जी ने पहले तो इसे अंधेर और जमाने को घोर कलयुगी बतलाया, फिर देदाराम से पूछे बगैर दोषी टीकूराम के पिता के यहां यह संदेशा भी भिजवा दिया कि 20,000 रूपए देकर मामला निपटा लेने में ही भलाई है. मगर टीकूराम के पिता हीराराम जाट ने साफ कह दिया कि वह न तो एक फूटी कोड़ी देने वाला है, न निपटारे के लिए कहीं आने-जाने वाला है. फिर मजिस्ट्रेट की दूसरी पेशी पर बाड़मेर कोर्ट के सामने दोषी समेत गांव के सारे पंच-प्रधान जमा हुए. सबने मिलके राजौ को समझाया कि केस वापिस ले लो, कोर्ट-कचहरी का खर्चापानी भी दे देंगे. पर टीकूराम को साथ देखकर राजौ बिफर पड़ी. उसने राजीनामा के तौर पर लाये गए 50, 000 रूपए जमीन पर फेंक दिए और ऐसी खरी-खोटी सुनाई कि वहां एक न ठहरा.

लड़ाई जारी है
इसके बाद जिस चाचा ने राजौ का नाता जोड़ा था, उसी के जरिए पंचों ने बातें भेजीं कि- राजीनामा कर लो तो हम साथ रहकर गौना भी करवा दें. छोटे भाई की भी शादी करवा दें. नहीं तो सब धरा रह जाएगा. कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ने से अच्छा है आपस में निपट लेना. वो तो लड़का है, उसका क्या है, जितना तुम्हें पैसा देगा, उतना कचहरी में लुटाकर छूट जाएगा, तुम लड़की हो, उम्र भी क्या है, बाद में कोई साथ नहीं देता बेटी. फिर बदनामी बढ़ाने में अपना और अपनी जात का ही नुकसान होता है.

जब राजौ पर ऐसी बातों का भी असर नहीं हुआ तो कभी राजौ की जान की फिक्र की गई, तो कभी उसके छोटे भाई जोगेन्दर की जान की.

राजौ आज तक केस लड़ रही है. यह अलग बात है कि टीकूराम को जमानत पर रिहाई चुकी है, और उसके बाद उसकी शादी भी हो चुकी है. राजौ को अदालत में लड़ने का फैसला कभी गलत नहीं लगा है, उसे अदालत से फैसले का अब भी इंतजार है. राजौ को गांव में आने-जाने के लिए सीधे तो कोई भी नहीं रोकता, मगर पीठ पीछे तरह-तरह की बातों को वह महसूस करती हैं.


वैसे पंचों को छोड़कर गांव के बाकी लोगों के साथ उसके रिश्ते धीरे-धीरे सुधर रहे हैं. राजौ के यहां से उठते वक्त उससे जब कहा गया कि रिपोर्ट में उसका नाम और फोटो छिपा ली जाएगी तो उसने बेझिझक कहा "मेरा असली नाम और फोटो ही देना. जिनके सामने लाज शरम से रहना था, उनके सामने ही जब ईज्जत उतर गई तो. तो दुनिया में जिन्हें हम जानते तक नहीं, उनसे बदनामी का कैसा डर ?"

इस रात की सुबह कब ?
थानाधिकारी सतीश यादव टेबल पर रखे ‘सत्यमेव जयते’ की प्लेट और पीछे की दीवार पर लटकी गांधीजी की फोटो के बीचोंबीच मानो 180 डिग्री का कोण बनाते हुए बैठे हैं. उन्होंने दूसरी तरफ निगाह टिकाते हुए कहा- "आपकी तारीफ". मगर बगैर जबाव सुने ही चल दिए.

मेरा सवाल यह नहीं कि केस कितना छोटा या बड़ा है, या आप बड़ा किसे मानते हैं, सवाल है कि जब कभी गांवों में दलित और खासकर दलित महिला पर अत्याचार होता है तो न्याय के हर पड़ाव तक कैसी मानसिकता अपनाई जाती है ? आगे की किस्सा इसी मानसिकता को केन्द्र में रखकर लिखा जा रहा है.

रसूलपुरा गांव से दलित-महिला अत्याचारों के एक हफ्ते में ही तीन-तीन केस आने पर थानाधिकारी महोदय क्रोधित है. ‘महिला जन अधिकर समिति’ का आरोप है कि वह दलित-महिलाओं को कानून में दिये गए विशेष अधिकारों पर अमल करना तो दूर शिकायत दर्ज करवाने वाले को ही हवालात की हवा खिलाने लगे हैं.

रसूलपुरा के सुआलाल भाम्बी, उसकी पत्नी गीतादेवी और पुत्री रेणु ने जब बीरम गूजर के खिलाफ जर्बदस्ती गाय हथियाने और मारपीट का मामला अलवर थाने में दर्ज करवाना चाहा तो सुआलाल भाम्बी को ही यह कहते हुए बंद कर लिया गया कि जांच के बाद पता करेंगे कि कसूरवार है कौन ?

रसूलपुरा, अजमेर से जयपुर जाने वाली सड़क पर बामुश्किल 10 किलोमीटर दूर है. यहां करीब 800 मतों में से 600 मुस्लिम, 150 गूजर और 50 दलितों के हैं. 15 साल पहले दलितों की संख्या ठीक-ठाक थी. तब से अब तक करीब 20 दलित परिवारों को अपनी जमीन-जायदाद कौड़ियों के दाम बेचकर अजमेर आना पड़ा है. बचे दलितों को भी गांव से आधा किलोमीटर दूर अपने खेतों में आकर रहना पड़ रहा है.

दलित हो तो नीचे रहो
यहां आज भी चबूतरे पर दलितों का बैठना मना है. वह साइकिल पर सवार होकर निकल तो सकते हैं, मगर जब-तब रोकने-टोकने का डर भी है. पहले तो दलित दूल्हा घोड़े पर चढ़ नहीं सकता था, पर 10 साल पहले हरकिशन मास्टर ने घोड़े पर चढ़कर पुराना रिवाज तोड़ा डाला था. 15 साल पहले छग्गीबाई भील सामान्य सीट से जीतकर सरपंच भी बनी थी. तब गांव की ईज्जत का वास्ता देकर सारे पंचों को एक किया गया और अविश्वास प्रस्ताव के जरिए छग्गीबाई को 6 महीने में ही हटा दिया गया. छग्गीबाई का सामान्य सीट से जीतना करिश्मा जैसा ही था.

छग्गीबाई कहती हैं "तब सामान्य जाति के इतने उम्मीदवार खड़े हो गए कि दलितों के कम मत ही भारी पड़ गए. नतीजा सुनकर उंची जात वालों ने रसूलपुरा स्कूल घेर लिया, ऐसे में पीछे की कमजोर दीवार से लगी खिड़की तोड़कर मुझे पुलिस की गाड़ी से भगाया गया. पुराने सरपंच श्रवण सिंह रावत फौरन पंचायत की तरफ दौड़े, कुर्सी पर बैठकर बोले ‘ई भीली को कोड़ पूछै, कौड़ पैदा नी होय ऐसो, जो जा पंचायती में राज करै’."

यानी एक गांव के ऐसे दो उदाहरणों से बीते 10-15 सालों के भीतर आपसी टकराहटों के कारण साफ समझ में आते हैं. तकरीबन 15 साल पहले ही इलाके की महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए समिति बनायी और नाम रखा ‘महिला जन अधिकार समिति’. तब 2-2 रूपए देकर 10-12 महिलाएं जुड़ी. केसर, तोला, सोहनी, सरजू, सकुंतला, रेनू, जूली, लीला, गंगा, रिहाना, संपत, भंवरीबाई जैसी महिलाएं अपनी छोटी-छोटी दिक्कतों और निपटारे के लिए चर्चाएं करतीं. भंवरीबाई बताती हैं "5 साल के बाद जब हम बालविवाह, मृत्युभोज और जातिप्रथा जैसी बुराईयों के विरोध में बोलने लगे तो हमारा भी विरोध बढ़ने लगा. दलित महिलाएं जब जातिसूचक शब्दों और गालियों पर ऐतराज जताने लगीं तो सवर्ण कहते कि हम तो तुम्हें रोज ही गालियां देते थे, पहले भी तुम्हारे बच्चों को बिगड़े नामों से ही बुलाते थे, तब तो तुम्हें बुरा नहीं लगता था, अब क्यों लग रहा है ?"

दलितों को सरकारी जमीन से होकर अपने खेत आना-जाना होता था. मगर जून की घनी दोपहरी में तेजा गूजर ने उसी रास्ते पर गड्डा खुदवाया, और तार और कांटे की बागड़ लगवा दी. इसके बाद दलित महिलाओं की तरफ से भंवरीबाई ने तेजा गूजर से बात की- "लालजी (देवरजी) डब्बो थाओ बात करणी है." जबाव में उन्हें अश्लील गालियां और गड्डे में ही गाड़ देने जैसी धमकियां मिलीं.

ऐसो पुलिस वालो से तो...
इसके बाद दलित महिलाओं ने उनके बड़े भाई और वार्ड के पंच अंबा गूजर को बताया कि आपको वोट दिया तो इस उम्मीद पर कि सुख-दुख बांटोंगे, आप तो खुद ही दुख दे रहे हैं. जबाव में अंबा गूजर ने थाने घूम आने की नसीहत दी.

रसूलपुरा के दलित परिवारों ने बताया कि यह दोनों भाई कई गांवों जैसे बेड़िया, गूगरा, बुडोल और गगबाड़ा के दलितों की जमीनों को सस्ते दामों में खरीदने में लगे हुए हैं. अगले दिन दलित महिलाएं जब नारेती पुलिस चौकी गईं तो पुलिस वाले बोले कि पहले जांच करेंगे, तब केस लेंगे. जांच के लिए जब कैलाश (दलित) कांस्टेबल आया तो तेजाभाई-अंबाभाई ऊपर बैठे और कैलाश कांस्टेबल आंगन के बाहर नीचे बैठा.

यह नजारा देखते ही दलित महिलाएं अलवर गेट थाने पहुंची, जहां थानाधिकारी ऐसे मामलों के चलते पहले से ही हैरान-परेशान पाये गए. उन्होंने ऐसी वारदातों में कमी लाने की बात पर जोर दिया.

गांव के दलित व्यक्ति कल्याणजी पूरे भरोसे के साथ बताते हैं ‘‘ऊंची जात के हमारे 30 एकड़ के खेतों के अलावा 4 एकड़ की सरकारी जमीन भी हथियाना चाहते हैं. यहां 1 एकड़ खेत की कीमत 1 लाख के आसपास चल रही है. हमारे पास गृहस्थी चलाने का मुख्य जरिया खेती ही है. 10-15 सालों से सूखा पड़ने से खेती वैसे ही चौपट है. मजूरी के लिए पलायन करना पड़ता है. ऐसे में ऊंची जात वालों की नीयत बिगड़ने से थाने-कचहरी के चक्कर भी लगाने पड़ रहे हैं.’’

मौसेरे भाई
इसी साल के कुछ मामलों पर नजर दौडाएं तो जमीन के विवाद में 12 फरवरी को मामचंद रावत और उसके लोगों ने शंकरलाल रेंगर, उसकी पत्नी कमला, बेटी संगीता, बहू ललिता, बेटे विनोद और गोपाल के साथ घर में घुसकर मारपीट की. ‘दलित अधिकार केन्द्र’ के हस्तक्षेप करने से अलवर गेट थाने में तीन महीने बाद रिपोर्ट दर्ज हो सकी. अभी तक चलान पेश नहीं हुआ.

इसके बाद तेजाभाई-अंबाभाई गूजर ने रास्ता रोकने का विरोध करने वाली गीता और सोहनी को पीटा. एसपी साब के हस्तक्षेप के बाद ही रिपोर्ट लिखी जा सकी. बहुत दिनों से कार्यवाही का इंतजार है. जिन दलितों के दिलों में अपनी जमीन खो देने का डर हैं, उनमें हैं कल्याण, कैलाश, ओमप्रकाश, रतन, सोहन, छोटू, नाथ, मोहन, सुआंलाल, गोगा, घीसू, किशन, दयाल, रामचंद, रामा, हरिराम ने अपने नाम लिखवाए हैं.

रसूलपुरा का राजनैतिक-आर्थिक ताना-बाना ऐसा है कि वर्चस्व की लड़ाई में गूजरों के साथ मुस्लिमों ने हाथ मिला लिया है. लाला शेराणी और लाला सलीम जैसे दो मुस्लिम व्यापारियों ने तो गूजरों का खुला समर्थन किया है. इसमें से लाला सलीम ने तो यहां तक कह दिया है कि "पूरा गांव उलट-पुलट हो जाएगा, अगर एक भी गूजर थाने में गया तो." मुस्लिम और सवर्ण-हिन्दूओं की एकता का इससे बेहतरीन उदाहरण और कहां मिलेगा ?

इधर अलवर गेट थाने के थानाधिकारी महोदय की परेशानी समझ नहीं आती है. शंकरलाल रेंगर जब रिपोर्ट लिखाने पहुंचे तो थानाधिकारी महोदय ने स्वयं समझाने की कोशिश की थी कि यह थाना केवल दलितों या रसूलपुरा के लिए नहीं खोला गया है. इलाके में और भी तो लोग हैं, और भी परेशानियां हैं.

उधर रसूलपुरा में शाम 7 बजे तक जब सुआलाल भाम्बी की गाय न लौटी तो उसकी पत्नी गीता और बेटी रेणु पता लगाने गांव में घूमने लगीं. उन्हें पता चला कि बीरम सिंह ने उनकी गाय बांध रखी है. इसके बाद जिसका अंदेशा था, वही हुआ. गाय मांगने पर गाली-गलौज और विरोध करने पर मारपीट. उस वक्त एक भी बीच-बचाव में न आया. ऐसे में जब सुआंलाल भाम्बी, उसकी पत्नी गीता और बेटी रेणु रिपोर्ट लिखवाने आए तो सुआलाल को बंद कर लिया गया. मगर ‘महिला जन अधिकार समिति’ और ‘दलित अधिकार केन्द्र’ के विरोध के बाद पुलिस सुआलाल से कहती है कि "गांव चलते हैं, अगर एक भी आदमी यह कह दे कि यह तेरी गाय है तो रख लेना."

सुआलाल बोला "गवाह तो एक नहीं कई हैं, पर मामला केवल गाय का नहीं है, गाय तो मेरी है ही, सवाल मेरी पत्नी और बेटी को बेवजह पीटने और गाली-गलौज का है, उसका न्याय चाहिए." पुलिस वालों के हिसाब से "ऐसे तो मामला सुलझने से रहा." इसलिए अगली सुबह गीता और रेणु को जिला एवं सेशन न्यायधीश, अजमेर का रास्ता पकड़ना है. रात उन्हें अजमेर ही ठहरना है. सुबह होने के पहले गांव के पंच उन्हें कचहरी की हकीकत बताने के लिए आते हैं. वह बाकायदा गाय लौटा देने का वादा भी करते हैं. मारपीट और ईज्जत के सवाल पर अस्पताल में लगा खर्चापानी दिलवाने की गांरटी भी देते हैं. दोषी बीरम सिंह माफी भी मांगता है, यह अलग बात है कि केवल ऊंची जाति वालों के सामने.

गांव का वास्ता
गीता और रेणु के शरीर पर चोट के निशान ज्यादा हैं. मगर गांव के पंचों के बढ़ते जोर के सामने उन्हें मारपीट का भंयकर दर्द हमेशा के लिए भूलना पड़ेगा. सुआलाल के हिसाब से यह राजीनामा उसकी खुशी के लिए नहीं गांववालों की खुशी के लिए करना पड़ेगा. बड़े-बड़े लोग जब अपनी ईज्जत की खातिर आ जाएं तो उनका अड़ी ठुकराते भी तो नहीं बनती. खेत का पानी, आंगन का गोबर, चूल्हे की लकड़ियां, कर्ज के पैसे, आटे की चक्की, मजूरी, हर रोज हर एक चीज के लिए तो उन्हीं का आसरा है.

गीता मान रही है कि इस बार ईज्जत से कोई समझौता नहीं होना चाहिए. हालांकि सुबह होने में अभी बहुत देर है , मगर उसके पहले यह भी जानना चाह रही है कि वह गांव और घरबार छोड़कर भी कहीं जी सकती है ?

कहते हैं ‘‘पांच पंच मिल कीजै काज। हारे जीते होय न लाज।।’’ मगर जहां के पंच अपनी ताकत से सत्य को अपने खाते में रखते हो, वहां के कमजारों के पास हार और लाज ही बची रह जाती है. ऐसे में कोई कमजोर जीतने की उम्मीद से कचहरी के रास्ते जाए भी तो उसे जाती हुई 'राजौ 'और लौटी हुई 'गीता' मिलती है. तब यह सवाल इतना सीधा नहीं रह जाता है कि वह किसके साथ चले, किसके साथ लौटे ?

1 टिप्पणी:

उस्ताद जी ने कहा…

7/10


जबरदस्त पोस्ट
प्रशंसनीय लेखन