7.10.10

बिहार चुनाव : कहां गए बच्चे

शिरीष खरे





बिहार के विधानसभा की घमाचान में हर पार्टी के झोले के भीतर से एक-एक करके हर एक के लिए मुद्दे ही मुद्दे और नारे ही नारे बाहर आ रहे हैं. मगर बच्चों के लिए इस बार भी कोई मुद्दा और नारा नहीं गूंज रहा है. ऐसे में क्राई ने बच्चों के मुद्दों को सूचीबद्ध करते हुए सभी राजनैतिक दलों से बच्चों के अधिकारों को वरीयता देने के लिए संवाद का सिलसिला शुरू किया है. इसके तहत बाल अधिकारों का एक घोषणा-पत्र तैयार किया जा चुका है और अब बच्चों के मामले में राजनैतिक दलों पर जल्द से जल्द अपना-अपना रूख स्पष्ट करने के लिए दबाव बनाना भी तय हुआ है.

इस बारे में क्राई से विकास सहयोग विभाग के वरिष्ठ प्रबंधक शरदेन्दु बंधोपध्याय बताते हैं कि "राज्य में चुनावी माहौल के दौरान हम याद दिलाना चाहते हैं कि यहां आबादी का एक चौथाई हिस्सा 18 साल से कम उम्र का होने के चलते वोट नहीं डालता है. 2001 जनगणना के अनुसार बिहार में 3 करोड़ 40 लाख बच्चे हैं. ऐसे में मतदाता और प्रत्याशी के रुप में हमारी जवाबदारी बनती है कि राजनैतिक फलक से बच्चों के जुड़े हुए हितों को भी प्रमुखता से उठाया जाए." लोकतंत्र में किसी पार्टी की ताकत उसके वोट-बैलेंस से बनती-बिगड़ती है और पार्टी का एजेंडा इस वोट-बैलेंस को घटाने-बढ़ाने में खास भूमिका निभाता है. मगर बच्चे वोट-बैलेंस नहीं होते हैं इसलिए बच्चों के हितों का प्रतिनिधित्व बड़ों के हाथों में होता है.

शरदेन्दु बंधोपध्याय बताते हैं कि ‘‘राज्य में बच्चों की एक बहुत बड़ी संख्या होने के बावजूद राजनैतिक दलों द्वारा बच्चों और उनके मुद्दों को लगातार नजरअंदाज बनाया जाता रहा है. इसलिए अबकि बार हमने मीडिया के जरिए बच्चों के मुद्दों को लेकर मतदाताओं और प्रत्याशियों के बीच पहुंचना का सोचा है. हम इस चुनाव में जहां वोटर से बच्चों के अधिकारों के लिए वोट डालने की अपील करेंगे, वहीं प्रत्याशियों को यह याद दिलाना चाहेंगे कि अगर वह जीते तो अपनी जीत को बच्चों की जीत के तौर पर भी याद रखें." इस दौरान चुनाव के उम्मीदवारों से सीधा संपर्क साधा जाएगा और उन्हें घोषणा-पत्र के बारे में बताया जाएगा. साथ ही यह भी देखा जाएगा कि उम्मीदवारों के पास बच्चों के मुद्दे हैं भी या नहीं और अगर हैं भी तो इस रूप में हैं.

बिहार में बच्चों के मुद्दों को प्रमुखता देना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि बिहार के 58 प्रतिशत से ज्यादा बच्चे कुपोषित पाये गए हैं, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर कुपोषित बच्चों का आकड़ा 46 प्रतिशत है. हर साल जन्म लेने वाले 1000 बच्चों में से 61 की मौत हो जाती है, जो दर्शाता है कि यह राज्य शिशु मृत्यु-दर के मामले में दूसरे राज्यों के मुकाबले कितना दयनीय है. बिहार के ग्रामीण इलाके में एनीमिया से पीडि़त बच्चों की संख्या पहले 81 प्रतिशत थी जो बढ़कर 89 प्रतिशत हो गई है. औसत से कम वजन के बच्चों की सबसे ज्यादा संख्या के मामले में बिहार को देश के पांच राज्यों के साथ गिना जाता है. केवल 33 प्रतिशत बच्चों का ही टीकाकरण होता हैं. 51.5 प्रतिशत लड़कियों का विवाह 18 साल से पहले हो जाता है. केवल 47 प्रतिशत पुरूष और 33 प्रतिशत महिलाएं ही साक्षर हैं यानी साक्षरता दर के मामले में बिहार सबसे नीचे है. जबकि मानव विकास सूचकांक के मामले में भी सबसे पिछड़ा राज्य बिहार (0.367) ही है.

क्राई वोट मांगने वाले राजनैतिक दलों के उम्मीदवारों से यह तयशुदा करने के लिए कहेगा कि सभी बच्चे स्कूल में हों और उन्हें पूरी स्कूली शिक्षा प्राप्त हो. सभी बच्चों के लिए पर्याप्त पोषण मिले और उन्हें समान अवसर प्राप्त हों. बच्चों को बाल मजदूरी, शोषण और तशकरी से बचाने के प्रयासों में तेजी लायी जाए. सरकार की जवाबदेही का मूल्यांकन करते हुए अगर जनता बच्चों के अधिकारों को वरीयता दे तो बाल अधिकार को राज्य के राजनैतिक एंजेडे में खास स्थान प्राप्त हो सकता है और उन्हें भोजन, स्वास्थ्य, आवास, शिक्षा, सुरक्षा और खेल से जुड़े अधिकारों की उचित हिस्सेदारी भी. बच्चों को उनके अधिकार समान रुप से मिल सकें इसके लिए उन्हें दूसरे नागरिकों की तरह ही समान रुप से देखे जाने की भी जरूरत है.

क्राई यह मानता है कि गरीबी, पलायन और विस्थापन बच्चों के विकास को रोकता है. इसके लिए संतुलित विकास का होना जरूरी है. कमजोर तबकों के लिए स्थानीय स्तर पर आजीविका के विकल्प के रूप में जमीन देने और बचाने की प्रक्रिया को अपनाने की जरुरत है. भूमि सुधार की ऐसी नीतियां शामिल की जाएं जिससे पलायन रूके और बच्चों को अपने समुदायों तथा क्षेत्रों में ही विकास के मौके मिलें. हर एक के लिए घर, रोजगार और समान वेतन तय हों जिससे बच्चों के अधिकारों का संरक्षण भी सुनिश्चित हो सके. गरीब किसानों के लिए कृषि-नीति पर दोबारा सोचा जाए और खास तौर से असंगठित मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा देने की नीति को बढ़ावा दिया जाए.

क्राई अपने तजुर्बों के आधार पर यह मानता है कि तकनीकी तौर पर बहुत सारे बच्चे ऐसे हैं जो हाशिए पर होते हुए भी गरीबी रेखा के ऊपर हैं. जब हम गरीबी को ही वास्तविकता से कम आंक रहे हैं तो सरकारी योजनाओं और बजट में खामियां तो होंगी ही. इसलिए हालात पहले से ज्यादा बदतर होते जा रहे हैं. बच्चों की गरीबी केवल उनका आज ही खराब नहीं करता बल्कि ऐसे बच्चे बड़े होकर भी हाशिये पर ही रह जाते हैं. ऐसे में उम्मीदवारों को चाहिए कि वह राज्य में बच्चों की संख्या के हिसाब से सार्वजनिक सेवाओं जैसे प्राथमिक उपचार केन्द्र, आंगनबाड़ी, स्कूल, राशन की दुकानों के लिए और अधिक पैसा खर्च करने पर जोर देंगे.

1 टिप्पणी:

उस्ताद जी ने कहा…

6.5/10


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