20.10.10

सूरत बदलने की बदसूरत कवायद

शिरीष खरे

सूरत/ एक जमाने में विकास के लिए 'गरीबी हटाओ' एक घोषित नारा था. मगर आज आलम यह है कि विकास के रास्ते से 'गरीबों को हटाना' एक अघोषित एंजेडा बन चुका है. गुजरात के सूरत को देख कर यह समझा जा सकता है कि 'गरीबी की बजाय गरीबों को हटाने' का जो व्यंग्यात्मक मुहावरा था, वह आज किस तरह से गंभीर हकीकत में तब्दील हो चुका है.

सैकड़ों झोपड़ियों को तोड़ जाने के क्रम में जब झोपड़पट्टी तोड़ने वाले जलाराम नगर के 40 वर्षीय लक्ष्मण चंद्राकार उर्फ संतोष की झोपड़ी को तोड़ने लगे तो उसने केरोसिन डालकर अपने आप को मौत के हवाले करना चाहा था. उसके बाद उसे एक एम्बुलेंस से न्यू सिविल हास्पिटल भेजा गया. वहां पहुंचते-पहुंचते उसके शरीर का 75 प्रतिशत हिस्सा जल गया. उधर डाक्टरों ने संतोष की हालत को बेहद गंभीर बताया और इधर सूरत महानगर पालिका ने शाम होते-होते ताप्ती नदी के किनारे से तीन बस्तियों के हजारों बच्चों, बूढ़ों और औरतों को खुली सड़क पर ला दिया था.

फिलहाल सूरत के गरीबों को न तो साम्प्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ रहा है और न ही बाढ़ या भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं का ही. अब उनके साथ जो कुछ घट रहा है, वह सूरत को जीरो स्लम बनाने की सरकारी कवायद का हिस्सा है.

सूरत को जीरो स्लम बनाने के लिए सूरत की कुल 1 लाख से ज्यादा झोपड़ियों को तोड़ा जा रहा है. मगर सरकारी दस्तावेजों पर पुनर्वास के लिए केवल 42000 घर बनाए जाने का उल्लेख है. जाहिर है 58000 से ज्यादा झोपड़ियों का सवाल हवा में है. एक तरफ सालों से घरों को तोड़े जाने का सिलसिला थम नहीं रहा है और दूसरी तरफ इतना तक तय नहीं हो पा रहा है कि घर मिलेंगे भी तो किन्हें, कैसे, कहां और कब तक ?

जबकि 2009 के पहले-पहले सूरत की सभी झोपड़ियों के परिवारों को नए घरों में स्थानांतरित करने का लक्ष्य रखा गया था. मगर उजाड़े गए लाखों रहवासियों के हिस्से में आज तक शहर की सीमारेखा से कोसों दूर कोसाठ या अन्य इलाकों में बसाए जाने का आश्वासन भर है. उनके लिए अगर कुछ और भी है तो प्रशासन द्वारा बमरोली और बेस्तान जैसे इलाकों में चले जाने जैसा सुझाव.

यकीकन इनदिनों शहर की सूरत तेजी से बदल रही है और उसी के सामानांतर तबाही, कार्यवाही, जवाबदारी और राहत से जुड़े कई किस्से भी पनप रहे हैं.


ऐसे बनेगा जीरो स्लम
यह किस्सा बरसात से थोड़े पहले का है. जब सूरत महापालिका ने अपने लक्ष्य का पीछा करते हुए सुभाषनगर, मैनानगर और उदना इलाके से 1650 झोपड़ियों को तोड़ा था. उस समय सूरत को झोपड़पट्टी रहित बनाने के मिशन ने 8500 से भी ज्यादा लोगों के सिरों से उनका छत छीना था. उसी के साथ क्योंकि तुलसीनगर और कल्याणनगर की एक सड़क व्यवस्था को भी ठिकाने पर लाना था, इसीलिए 5000 से ज्यादा गरीबों को ठिकाने लगाया गया था. इसके आगे सेंट्रल जोन की सड़क को भी 80 फीट चौड़ा करने के लिए 2500 से ज्यादा लोगों को शहर की खूबसूरती के नाम पर उजाड़ा गया था.

उजाड़ने के बाद प्रशासन का दावा था कि शुरू में तो रहवासियों ने डेमोलेशन का बहुत विरोध किया मगर बाद में कोसाठ में बसाने की बात पर सब मान गए. जबकि यहां से उजाड़े गए रहवासियों का कहना था कि उन्हें डेमोलेशन की सूचना तक नहीं दी गई थी. डेमोलेशन की कार्रवाई को बड़ी निर्दयतापूर्वक पूरा किया गया और जिसके चलते उन्होंने प्रशासन का विरोध भी किया था.

इसके बाद प्रशासन की तरफ से यह साफ हुआ है कि उसके अगले निशाने पर कौन-कौन सी बस्तियां रहेंगी. उसने स्लम डेमोलेशन का अपना लक्ष्य सामने रखा और उसे कुछ दिनों के भीतर पूरा कर लेने का ऐलान भी किया. कुछ दिनों के भीतर बापूनगर कालोनी के तकरीबन 2700 घरों में 15000 से भी ज्यादा लोगों को भी उजाड़ दिया गया.

दूसरा किस्सा सर्दी के समय का है. जब सूरत महापालिका ने कार्यालय के समय यानी 10 से 6 बजे तक जेपी नगर, जलाराम नगर और इकबाल नगर से कुल 502 झोपड़ियों को तोड़ने का रिकार्ड दर्ज किया. पुलिस के भारी बंदोबस्त के बीचोंबीच तनावपूर्ण स्थिति को नियंत्रण में बनाए रखते हुए 4000 से ज्यादा रहवासियों से उनका पता-ठिकाना छीन लिया गया. कुल मिलाकर ताप्ती नदी के आजू-बाजू कई दशक पुरानी इन बस्तियों से 1700 से ज्यादा झोपड़ियों को साफ किया जाना था. अर्थात् 14000 से ज्यादा रहवासियों से उनका पता-ठिकाना छीना जाना था.

जैसा कि महापालिका के बस्ती उन्नयन विभाग से सी वाय भट्ट ने भी जताया कि "नदी और खाड़ी के इर्द-गिर्द जमा झोपड़ियों को साफ करने के लिए डेमोलेशन की कार्रवाई जारी रहेगी." डेमोलेशन की यह कार्रवाई अगले रोज भी जारी रही. मगर सूरत के बाकी इलाकों को तोड़े जाने के अगले चरणों और उनकी तारीखों के सवालों पर एक बार फिर से खामोशी औड़ ली गई. आगे-आगे डेमोलेशन, उसके पीछे-पीछे महापालिका वाले नल, गटर के पाईप और बिजली के तार काटते रहे थे.

सुबह-सुबह, कोई सूचना दिए बगैर, यकायक और पूरे दल-बल के साथ झुग्गी बस्तियों को नेस्तानाबूत करने की प्रशासनिक रणनीति को अब सूरत के रहवासी खूब जानते हैं. इन झोपड़ियों को साफ किए जाने के पहले पुलिस रात को ही उन सामाजिक कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं को हिरासत में ले लेती है, जो महानगर पालिका द्वारा गरीबों को शहर से हटाए जाने वाली मुहिम के विरोधी होते हैं.

उस रोज भी जेपी नगर, जलाराम नगर और इकबाल नगर के रहवासी यह कहने लगे कि घर के बदले घर दिए बगैर हमारे घरों को कैसे उजाड़ा जा रहा है? मगर प्रशासन के लिए यह कोई नया सवाल नहीं था. उनका ध्यान तो झोपड़पट्टी तोड़ने के दौरान 'अधिकतम नुकसान पहुंचाने' के सिद्धांत पर टिका था.

अंधियारा छाने के बहुत पहले ही बस्ती वालों के असंतोष ने आग पकड़ ली थी. देखते ही देखते एक भारी भीड़ पथराव करते हुए आगे बढ़ने लगी. हर एक के हाथों में उनके दुख, दर्द, उनकी आशंकाओं और हताशाओं से भरी भावनाओं में डूबे जनसैलाब के अलावा कुछ न था. इसके बाद मुस्तैद पुलिस वाले आगे आएं और उन्होंने बस्तियों की तरह उनके जनसैलाब को भी लाठीचार्ज के जरिए माटी में मिला दिया. उसके ऊपर से आंसू गैस के दो गोले भी छोड़े गए. ऐसे में जिनकी झोपड़ियां टूटी थीं, उनके लिए कम से कम 2000 रुपये का किराया चुका कर भाड़े का मकान लेना आसान नहीं था. उससे भी बड़ा सवाल तो यही था कि झोपड़पट्टी में रहने वालों को किराये पर मकान देगा कौन?

सामाजिक कार्यकर्ता भरत भाई कंथारिया ने बताया "डेमोलेशन की ज्यादातर कार्यवाहियों मौसम के मिजाज को बिगड़ते हुए देखकर की जाती हैं. सारे झोपड़े एक साथ न तोड़कर, कभी 200 तो कभी 400 की संख्या में तोड़े जाते हैं, जिससे लोग संगठित न हो सकें. ऐसे हमले अचानक और बहुत जल्दी-जल्दी होते हैं. दीवाली का त्यौहार जब सिर पर होगा तो सरकारी नजरिए से वह डेमोलेशन के लिए आदर्श समय होगा."


कारपोरेट की वल्ले-वल्ले
टेम्स नदी से लगे लंदन वाली तस्वीर के हू-ब-हू सूरत को लंदन जैसा बनाने की गति अपने चरम पर है. इसलिए ताप्ती के किनारे से हजारों झापड़ियों को साफ किए जाने की गति अपने चरम पर है. सूरत में स्लम एरिया हटाने के लिए केन्द्र की यूपीए और राज्य की भाजपा सरकार ने मिलकर 2157 करोड़ की रणनीति बना ली है. वहीं सूरत महापालिका का काम जमीनें खाली करवाना और बिल्डरों को सस्ते दामों में बेचना रह गया है.

कतारगाम इलाके का यह वाकया शहर के नक्शे से न केवल गायब हो जाने का बल्कि व्यवस्था के गायब हो जाने का वाकया भी है.

चंद्रकांत भाई रोज की तरह शाम को काम पर लौटे तो पूरी बस्ती को ही लापता देखा. जब उन्होंने पता किया कि पता चला कि बस्ती के बहुत सारे लोग शहर से बाहर कोसाठ नाम की एक जगह पर पहुंच गए हैं. तब अपने घरवालों से मिलने के लिए उन्हें रिक्शा करके फौरन कोसाठ जाना पड़ा.

जून 2004 में बस्ती के 155 घरवाले कारपोरेट के मुनाफे की भेट चढ़ाए गए थे. यहां की 2 एकड़ जमीन पर कभी 250 घरों की 2000 आबादी बसती थी. 90 साल पुरानी इस बस्ती की जमीन ने करोड़ों का भाव पार किया तो यहां के असली मालिकों को सस्ते घरों समेत उखाड़ फेंका गया. गायत्री बेन ने बताया "न सूचना दी, न सुनवाई की. वैसे भनक लग गई थी कि वहां सुन्दर तालाब बनेगा. हमारी जगह पिकनिक वाली जगह में बदलेगी. पार्किंग और गार्डन को जगह मिलेगी. सुबह-शाम टहलने वालों का 'स्पेशल रुट' बनेगा. बिल्डरों की दुकानें खुलेंगी. बस्ती की बजाय बाजार खुलेगा. आप तो वहीं से आ रहे हैं तो आप ही देखिए हमारी बातें कितनी सच साबित हुईं."

शहरों में विकास के नाम पर झोपड़ियां टूटने की खबर अब नई नहीं लगती. मगर कारपोरेट के नाम पर झोपड़ियां टूटने का किस्सा शायद आप पहली बार सुन रहे होंगे. सूरत में जगमगाता मिलेनियम मार्केट एक उदाहरण भर है. मिलेनियम मार्केट, साऊथ-वेस्ट में कोहली खाड़ी से लगा है. वैसे 2 एकड़ से ज्यादा जमीन पर फैले इस टेक्स्टाईल मार्केट का पता कोई भी बता देगा. मगर उनमें से कुछेक ही यह जानते हैं कि 1999 के पहले तक यहां कोई 800 झोपड़ियों का वजूद था.अब तो लगता भी नहीं कि यहां कभी 5000 से ज्यादा की बस्ती थी.5000 आबादी को यहां से साफ करके शहर से 25 कलोमीटर दूर बेस्तान में ठिकाने लगा दिया गया था.

मालम भाई बंजारा बताते हैं कि "हमारा बीता कल कोई सोने जैसा नहीं था. मगर इतना काला भी नहीं था. तब हमारे सस्ते झोपड़े चांदी की जमीन पर जो खड़े थे." उन्होंने चका भाई को देखते हुए कहा "आज मेलेनियम मार्केट की जमीन 100 करोड़ रूपए की तो होगी चका भाई?"

चका भाई फूट पड़े "हम झोपड़पट्टी के करोड़पतियों को 1 रूपए दिए बगैर वहां से खदेड़ा गया था. ऊपर से घर-सामान टूटने का जो नुकसान झेला, उसका हिसाब तो जोड़ा भी नहीं कभी." अन्याय की ईबारत इसके बाद भी नहीं रूकी- लंबे इंतजार के बाद मकान दिए भी तो 55000 के लोन पर. और मकानों का साईज निकला- 10 गुणा 12 वर्ग फीट.


राहत के सवाल पर
21 फरवरी 2009 को नरेन्द्र मोदी सूरत के कोसाठ आने वाले थे. मकसद था कि कोसाठ में जो 30000 मकान बन रहे हैं उनमें से 3700 परिवारों को मकान सौंपे जाए. मगर 20 फरवरी तक यह तय नहीं हो पाया कि किस झोपड़े को यहां शिफ्ट किया जाए. कार्यक्रम तो फेल होना ही था. मगर अहम बात यह है कि आज की तारीख तक उन हजारों झोपड़ों के नाम तक तय नहीं हो सके हैं.

सूरत महापालिका के कायदे में झोपड़पट्टी में कुल बजट का 10 प्रतिशत खर्च करना लिखा है. मगर सामाजिक कार्यकर्ता भरत भाई कंथारिया ने बताया कि "इस बार यह हिस्सा पुनर्वास के खाते में डाल देने से बुनियादी चीजों में कटौती हुई है. मतलब पुनर्वास पर अलग से पैसा खर्च करने की बजाय गरीबों के हिस्से का पैसा गरीबों को ही बांट दिया गया है."

2005-06 में सूरत की 407 झोपड़पट्टियों को हटाने के लिए बायोमेट्रिक सर्वे हुआ. उसके मुताबिक पुनर्वास के लिए जो मकान बनेगा उसमें से कुल खर्च का 50 प्रतिशत केन्द्र सरकार, 25 प्रतिशत राज्य सरकार, बाकी के 25 प्रतिशत में से जिसको मकान मिलेगा वह और सूरत महापालिका आपस में डील करेगी. अगर यह डील कामयाब रही तो भी मकान के मालिक को 5 साल तक मकान के दस्तावेज नहीं मिलेंगे. मतलब यह कि किसी के हिस्से में मकान आया भी तो वह मुफ्त में और बाईज्जत तो नहीं आने वाला.

2007 को ताप्ती नदी की धार को रोकने के लिए जब एक दीवार बनी तो इसके घेरे में सुभाषनगर की तकरीबन 800 झोपड़ियां भी आ गईं. यह दीवार सिंचाई विभाग ने खड़ी की थी इसलिए झोपड़ियां भी उसी ने तोड़ी. मगर तोड़ने का नोटिस कलेक्ट्रर ने भेजा. सूरत महापालिका के बड़े गेट पर मौजूद कन्हैया भाई बंजारा ने बताया "जब हम पुनर्वास की मांग लेकर सिंचाई-विभाग के पास गए तो बाबू लोग बोले पुनर्वास का काम हमारे दायरे में नहीं आता, कलेक्ट्रर साब शायद कुछ बता पाएं. कलेक्ट्रर साब के पास गए तो वह बोले कि मैं तो केवल मोनीटिरिंग करता हूं, सूरत महापालिका कुछ बताएगा. सूरत महापालिका ने कहा कि तोड़-फोड़ तो सिंचाई विभाग और कलेक्ट्रर की तरफ से हुआ, हम क्या बताएं? मगर जब जनता के स्वर ऊंचे हुए तो बायोमेट्रिक सर्वे करा लिया गया. इसमें भी गजब पालिटिक्स हुई. नतीजा यह है कि दर्जनों नए नाम जुड़ गए और पुराने नाम छूट गए." कन्हैया भाई बंजारा उन्हीं में से अब एक छूटा हुआ नाम बन चुके है.

सूरत के लोगों में बहु-विस्थापन की दहशत भी बढ़ रही है. जैसे कि आज मीठी खाड़ी की जिन झोपड़ियों को उखाड़ा जा रहा है, उनमें से कई ऐसी हैं जिन्हें 25 साल पहले उमरबाड़ा से उखाड़ा गया था. अन्तर बस इतना भर है कि पहले सड़क चौड़ी करने के नाम पर उखाड़ा गया था और अब फ्लाईओवर बनाने के नाम पर उखाड़ा जा रहा है.

कोसाठ, विस्थापितों की जगह से 15 से 25 किलोमीटर दूर, शहर के उत्तरी तरफ का आऊटसाइडेड और नक्शे के हिसाब से बाढ़ प्रभावित इलाका है. कौशिक भाई ने बताया "यहां बसाए जाने का विरोध सुनकर महापालिका का अफसर बड़े ठण्डे दिमाग से बोला कि तुम्हें बस्ती बनाने की बजाय ऊंची मंजिलों में रहना चाहिए. बारिश का पानी भरे भी तो दूसरी, नहीं तो तीसरी मंजिल में चढ़ जाना."

तारीखें गवाह हैं कि 2004 की बाढ़ से सूरत के 30000 लोग प्रभावित हुए थे. तब उन्हें न मंजिल नसीब हुई, न जमीन. एक साल बाद महापालिका से जगह यानी 12 गुणा 35 वर्ग फीट प्रति 2 लाख के बदले जगह माटी के दाम जैसी तो मिली लेकिन घर के बदले घर नहीं. न ही तोड़े गए लाखों के घरों और हजारों की गृहस्थियों का मुआवजा. एक साथ इनसे बिजली, पानी, नालियां, टायलेट, रास्ते, मैदान, बाजार, आंगनबाड़ी, स्कूल, राशनकार्ड, वोटरलिस्ट के नाम ऐसे छूटे कि अभी तक नहीं लौटे. उनके बगैर भी काम चल जाता, जब काम की छूट गए तो जिंदगी कैसे चले?


काम और कर्ज का रोना है
"जमीन, घर, गृहस्थी का नुकसान तो सबने देखा. मगर सबसे ज्यादा नुकसान तो बेकारी से हुआ." सूरज महापात्र यह सब बोलते हुये उदासी में डूब जाते हैं.

कोसाठ में उनकी तरह ही दर्जन भर औरत-मर्द अपने-अपने ठिकानों के बाहर खाली बैठते हैं. बातों ही बातों में मालूम पड़ा कि पहले इन्हें कतारगाम इण्डस्ट्रियल एरिया के पावरलूम्स में दिहाड़ी मजदूरी मिल जाती थी. एक दिन में 150 और महीने भर में 3500 से 4000 रूपए तो बनते ही थे. कुछ लोग मजदूरों की छोटी-छोटी जरूरतों जैसे चाय, नाश्ता या खाने-पीने के धंधों से जुड़े थे. औरतें घरेलू काम के लिए आसपास की सोसाइटियों में जातीं और महीने भर में 600 रूपए कमाती थीं. इस तरह हर घर का हाल-चाल बहुत अच्छा तो नहीं था मगर फिर भी चल तो रहा था. यहां आकर तो इनकी दुनिया ठहर ही चुकी है.

अज्जू मियां ने कहा "कतारगाम आओ-जाओ तो 40 रूपए अकेले आटो के. इसके बाद मजदूरी न मिले तो आफत. तब कारखानों के आसपास थे तो मजदूरी मिलती ही थी. अब आसपास के दूसरे लोगों को ही रख लेते हैं." यही हाल औरतों का है. घरों में काम करने से 600 रूपए मिलेगा उससे दोगुना 1200 रूपए तो अब भाड़े में जाएगा.

रक्षा बेन कहती हैं "मालकिनों से जरूरत की चीजें और उधार के पैसे तो मिलते थे. यहां तो ऊंचे ब्याज-दर पर पैसे उठाने पड़ते हैं." महीना भर पहले ही हेमंत भाई की बीबी टीबी के चलते खत्म हुईं. उन्होंने ईलाज के लिए 12 रूपए/महीने के हिसाब से 10,000 उठाए थे. एक तो आमदनी नहीं और ऊपर से कर्ज का बढ़ता बोझ. यहां हर एक कम से कम 25,000 रूपए का कर्जदार तो बना ही रहता है. इनमें से ज्यादातर ने घर बनाने के लिए कर्ज लिया था. जिसका ब्याज अब तक नहीं छूट रहा है.

राजेश भाई रिक्शा चलाते हैं. उन्होंने अधूरे खड़े घरों का इतिहास बताने के लिए 4 साल पुरानी बात छेड़ी "तब 29 दिनों तक तो ऐसे ही पड़े रहे. बीच में जोर की बारिश हुई तो सबने चंदा करके यहां एक टेंट लगवाया. कईयों ने अपने टूटे घरों की लकड़ी, पन्नी और बांस से अस्थायी घर बनाए, जो भारी बाढ़ में बह गए. मेरी 90 साल की नानी और एक पैर से कमजोर मौसी ने जो तकलीफ झेली उसे कैसे सुनाऊं और बीबी टीबी की मरीज थी, उसे बच्ची को लेकर मायके जाना पड़ा."

यहां कच्चे-पक्के आशियाने एक बार बनने के बाद खड़े नहीं रहते. हर साल की बाढ़ से टूटते, फूटते, गिरते या बहते ही हैं. इस तरह मानसून के साथ आशियाने बनाने और सामान खरीदने की जद्दोजहद जारी रहती है. इस साल भी भारी बूंदों के साथ तबाही के बादल बरसने लगे हैं.


यह एसएमसी का राज है भाई
सूरत महापालिका प्रशासन तरीके को टीना बेन के किस्से से समझते हैं. 1992 को टीना बेन 14 साल की थी, तब उन्हें घर के सामने खड़ा करके एक स्लेट पर उनका नाम और उनके परिवार वालों का नाम लिखवाकर फोटो ले लिया गया. 2005 को यानी ठीक 12 साल बाद जब वह दो बच्चों की मां बनी तो भी उन्हें 1992 की फोटो के हिसाब से घर का मुआवजा दिया गया. समय के इतने बड़े अंतराल में घर तो क्या शहर की पूरी दुनिया ही बदल जाती है. मगर नहीं बदलती है तो सूरत महापालिका की मानसिकता.

कतारगाम में किसी का घर 30 तो किसी का 60 फीट की जगह पर था. मगर कोसाठ में सभी को 12 गुणा 35 वर्ग फीट के फार्मूले से जगह बांटी गई. अब आप ही बताइए 12 गुणा 35 वर्ग फीट में कोई क्या बनाएगा, जो बनेगा उसे चाहे तो किचन कह लीजिएगा, नहीं तो टायलेट, बाथरूम, बेडरूम, हाल या गेलरी, कुछ भी कह लीजिए.

ऐसी बस्तियों में लम्बे समय से काम करने वाले अल्फ्रेड भाई ने बताया "महापालिका जिन मकानों को तोड़ने की ठान लेती है उनसे टैक्स वसूलना बंद कर देती है. जिससे टैक्स नहीं लिया जाता वह डर जाता है कि अगला नम्बर उसका भी हो सकता है."


कायदे, वायदे और हकीकत
सामाजिक कार्यकर्ता भरत भाई कंथारिया से यह मालूम हुआ कि इस दौरान संयुक्त राष्ट्र की गाईडलाईन निभानी जरूरी थी. मगर सूरत में डेमोलेशन के पहले और बाद में मानव-अधिकारों का खुला उल्लंघन आम बात हो चुकी है. जिन्हें उखाड़ना था, उनके साथ बैठकर पुनर्वास और राहत की बातें की जानी थीं.

गाईडलाईन कहती है कि विकलांग, बुजुर्ग और एसटी-एससी को उनके रोजगार के मुताबिक और पुराने झोपड़े के पास ही बसाया जाए. पीड़ित आदमी को पहले पुनर्वास वाली जगह दिखाई जाए. इसके बाद अगर वह मांग करता है तो उसे अदालत में जाने का हक भी है. इसके लिए कम से कम 90 दिनों का समय भी दिया जाए. मगर सूरत महापालिका ने तो एक भी कायदा नहीं निभाया.

जैसा कि सब जानते हैं महात्मा गांधी को 'कालेपन' की वजह से एक रात दक्षिण-अफ्रीका में चलती ट्रेन से फेंका गया था. उन्हीं महात्मा को अपना बताने वाले गुजरात के सूरत में हजारों भारतीयों को 'झोपड़पट्टी वाला' होने की वजह से 25 किलोमीटर दूर फेंका गया है. 120 साल पहले हुए अन्याय का किस्सा यहां का इतिहास नहीं वर्तमान और शायद भविष्य भी है.


कैसी पहेली जिंदगानी
राजीवनगर झोपड़पट्टी के लोग कहते हैं कि सूरत महापालिका के अफसरों की जिद के आगे सभी नतमस्तक हैं. असल में महापालिका ने इनके लिए फ्लेट बनवाएं और अब यही लोग कागजों की भूल-भुलैया में गोते खा रहे हैं. आमतौर पर ऐसी बस्तियों के लोग नहीं जानते कि एक दिन उनके घर टूटेंगे. एक दिन उनसे यहां रहने के सबूत मांगे जाएंगे. इसलिए वह कागजों को इकट्ठा नहीं कर पाते. ऐसी बस्तियों के लोग किस कागज के टुकड़े का मतलब नहीं जानते. अफसरों को जो कागज चाहिए उनमें से कुछ कागज यहां के ज्यादातर रहवासियों के पास नहीं हैं. यह रहवासी अफसरों को अपनी झुग्गी दिखाना चाहते हैं. इसके बावजूद कई लोगों को अपने झोपड़ियों का हक नहीं मिल पा रहा है. कुलमिलाकर पूरी योजना आफिस-आफिस के खेल में उलझ चुकी है.

राजीवनगर के 1200 में से सिर्फ 94 परिवार ही रहने के सबूत दिखा सकते हैं. इसलिए 1106 परिवार कोसाठ में बने फ्लेट का सपना नहीं देख सकते. यहां के रहवासियों का आरोप है कि फ्लेट आंवटन से जुड़े सर्वेक्षणों में भारी अनियमितताएं हुई हैं. कुछ बस्तियों में तीन-तीन बार सर्वेक्षण हुए हैं. कुछ बस्तियों में मुश्किल से एक बार. राजीवनगर में ज्यादातर बाहर से आए मजदूर हैं. यह सूरत में 6-8 महीनों के लिए काम करते हैं. इसके बाद यह अपने गांवों को लौट जाते हैं. इनमें से कई 15-20 सालों से यही रहते हैं. बस्ती के ऐसे ही रहवासी संतोष ठाकुर ने बताया ‘‘बिजली, पानी और संपत्ति के बिल तो मकान-मालिक के पास होते हैं. हमें स्थानीय निकायों से एक सर्टिफिकेट मिलता है. मगर अफसर उसे सबूत ही नहीं मानते. कहते हैं कोई दूसरा कागज लाओ." इसी बस्ती के रहवासी रंजन तिवारी ने बताया "हमें हमेशा काम नहीं मिलता. इसलिए काम की तलाश में सुबह जल्दी निकलना होता है. सर्वे ऐसे समय हुआ जब हम बस्ती से दूर थे. हमें कुछ मालूम ही नहीं था. इसलिए हमारे नाम सर्वे से नहीं जुड़ सके."

नगर-निगम के डिप्टी कमिशनर महेश सिंह के अनुसार "झुग्गीवासियों को फ्लेट आवंटित करने के लिए एक कमेटी बनी हुई है. अगर किसी को लगता है कि उसके सबूत जायज हैं तो कमेटी के पास जाए."

नगर-निगम में स्लम अप-ग्रेडेशन सेल के मुखिया मानते रहे हैं कि सर्वें में कई किरायेदारों के नाम छूट गए हैं. उनकी जगह मकान-मालिकों के नाम जुड़ गए हैं. मगर यह मुद्दा तो उसी समय उठाना चाहिए था.

स्लम अप-ग्रेडेशन सेल किसी भी गड़बड़ी को रोकने के लिए दो तरह से सर्वे करता है. पहला सर्वे लोकेशेन के आधार पर होता है और दूसरा नामांकन के आधार पर. इसलिए स्लम अप-ग्रेडेशन सेल यह मानता है कि अगर लोकेशन वाली सूची से किराएदार का नाम है. साथ ही उसके पास 2005 के पहले से रहने का सबूत भी है तो उसे फ्लेट मिल जाएगा. अब यह किराएदार की जिम्मेदारी है कि वह कहीं से सबूत लाए.

बस्ती के सेवाजी केवट ने कहा "मैंने 8 महीने पहले फ्लेट के लिए आवेदन भरा था. मगर अफसरों ने अभी तक चुप्पी साध रखी है. उन्होंने यह नहीं बताया कि मैं फ्लेट के योग्य हूं या नहीं हूं और नहीं हूं तो क्यों ? मैंने पार्षद को भी अपने निवास का सर्टिफिकेट और एप्लीकेशन दिया है. लेकिन मुझसे और कागजातों की मांग की जा रही है. वैसे मेरा नाम बायोमेट्रिक सर्वे से भी जुड़ा है. मगर सरकार के ही अलग-अलग सर्वे एक-दूसरे से मेल नहीं खा रहे हैं."

सवाल महज घर का नहीं है
यूं तो घर का मतलब रहने की एक जगह से होना चाहिए. मगर बाजार में बदलते शहरों के लिए वह प्रापर्टी भर है. सूरत भी इसी दौर से गुजर रहा है. यहां भी 40 प्रतिशत आबादी के विकास के लिए 60 प्रतिशत आबादी को नजरअंदाज किया जा रहा है. यहां भी पहले घर तोड़ो, फिर घर बनाओ की बात हो रही है. जबकि पहले घर बनाओ फिर घर तोड़ो की बात होनी चाहिए. दूसरी बात बस्ती के बदले बस्ती देने की है. घर के आजू-बाजू रास्ते, बत्ती, बालबाड़ी, नल और नालियों से जुड़कर एक बस्ती बनती है. उन्हें खोकर सिर्फ घर पाना नुकसानदायक है. इसलिए घर के आसपास की सुविधाओं का हक भी देना होगा.

सूरत की तरह हर शहर को जीरो स्लम बनाने का मतलब भी समझना होगा. सरकार मजदूरों से उनकी बस्तियां उजाड़ कर उन्हें बहुमंजिला इमारतों में भेजना चाहती है. इसका मतलब यह हुआ कि वह उन्हें घर के बदले घर दे रही है. मगर जमीन के बदले जमीन नहीं. वह गरीबों से छीनी इन सारी जमीनों को बिल्डरों में बांट देगी. मतलब यह कि गरीबों को फ्लेट उनकी जमीनों के बदले मिल सकता है. मतलब यह कि गरीबों को मिलने वाला फ्लेट मुफ्त का नहीं होगा. मगर बिल्डरों को तो मुफ्त में जमीन मिल जाएगी. यही वजह है कि बिल्डर केवल फ्लेट बनाने पर जोर ही देते हैं. उनके दिल और दिमाग में बालबाड़ी या स्कूल बनाने का ख्याल नहीं आता. जाहिर है खेल केवल मुनाफा कमाने भर का रह गया है.

शहर के विकास में शहरवासियों को बराबरी का हिस्सा मिलना जरूरी है. इससे नगर-निगम को शहर की समस्याएं सुलझाने में मदद मिलेगी. मगर ऐसा नहीं चलता. दूसरी तरफ शहरी इलाकों में नागरिक संगठनों का सीमित दायरा है. शहर के गरीबों की भागीदारी को उनकी आर्थिक स्थिति के कारण रोका जा रहा है. विकास में सबका हिस्सा नहीं मिलने से गरीबी का फासला बढ़ेगा. एक तरफ गरीबी हटाने की बजाय गरीबों की बस्तियां तोड़ी जा रही हैं. दूसरी तरफ उन्हें नुकसान के अनुपात में बहुत कम राहत मिल पा रही है. तीसरी तरफ मिलने वाली ऐसी राहतों को कागजी औपचारिकताओं में उलझाया जा रहा है. कुल मिलाकर चौतरफा उलझे सूरतवासियों को उम्मीद की कोई सूरत नजर नहीं आती है. आज यह घर से निकलकर काम पर जाते है. कल यह काम से लौटकर कहां जाएंगे?

क्या बदलेगी शहर की सूरत
एक सूरत को दो सूरतों में बांटा जा रहा है. शहर के भीतरी हिस्से में अमीरी के लिए साफ-सुथरा, व्यवस्थित और महंगी कारों से दौड़ता सूरत होगा. शहर के बाहरी हिस्से में अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए रात-दिन लड़ने वाले गरीबों का सूरत. जहां न लोग सुरक्षित हैं और न ही उनके काम या रहने के स्थान वगैरह. जाहिर है एक सूरत में अमीरी और गरीबी के फासले को कम करने की बात तो दूर दोनों को एक-दूसरे से बहुत दूर-दूर किया जा रहा है. पहला हिस्सा दूसरी हिस्से की मेहनत के जरिए शहर के बाजार से मुनाफा तो चाहता है. मगर बदले में उसका श्रेय और जायज पैसा नहीं देना चाहता है.

अब तक तो एक शहर का मतलब उसकी पूरी आबादी से लगाया जाता रहा है. मगर सूरत में एक छोटे तबके की तरक्की को शहर की तरक्की माना जाने लगा है और शहर का बड़ा तबका ऐसी तरक्की से तबाह हो रहा है. दरअसल इस तबके से भी तरक्की के मायने जानने थे. एक शहर को लंदन बनाने जैसी बातों की बजाय तरक्की में सबका और सबको हिस्सा देने और अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई को भरे जाने जैसे प्रयास होने थे. मगर नागरिक सुविधाएं मुहैया कराने की जवाबदारी लेने वाली सरकार खुद को पीछे और निजी ताकतों को आगे कर रही है.

जबकि कई तजुर्बों से यह साफ हो रहा है कि निजी ताकतों का काम व्यवस्था में सुधार की आड़ में बाजार तैयार करना है. बाजार नागरिकों से नहीं उपभोक्ताओं से चलता है. जबकि गरीबों के पास अपनी उलझनों को सुलझाने के लिए न तो अधिक पैसा होता है और न ही कागजी औपचारिकताओं को निपटाने की समझ.

शहर के लिए तरक्की की संरचनाएं आम आदमी की भागीदारी से नहीं बन रही हैं और नागरिकों के संवाद और विरोध को रोका जा रहा है. 74वें संविधान संशोधन में विकेन्द्रीकरण और जनभागीदारिता का जिक्र हुआ है. इसके लिए वार्ड-सभा और क्षेत्रीय-सभाओं का उल्लेख भी मिलता है. लेकिन इसका सच देखना हो तो सूरत की सूरत देख लें.

1 टिप्पणी:

O.L. Menaria ने कहा…

खरे साहब,
आर्थिक उदारीकरण, बाजारवाद ने हमारी खेती को अलाभकारी बनाया जिससे गांवों का पलायन शहरों की और लगातार बढ रहा है. कच्ची जोंपड़ों को हटा कर गरीबों को विस्थापित करने से शहर की सुन्दरता को फोरी राहत भले ही मिल जावे पर जब तक गांवों को स्वावलंबी व् खेती को लाभदायी नहीं बनाया जाता लोगों का शहरों की और पलायन जरी रहे गा. आज ये लोग भले ही साधन विहीन व् कमजोर होने से पुख्ता विरोध न कर प् रहे है पर जब ये सामूहिक रूप से एक हो कर अपना हक़ मांगे गे तो उनके सामने समस्त ताकतों को जुकना पड़ेगा.