शिरीष खरे
भारत की भूख अब विकराल रुप ले चुकी है. यहाँ सामान्य (प्रोटीन ऊर्जा) कुपोषण की स्थिति अब गरीब अफ्रीकी देशों से भी बदतर हो चुकी है. आधिकारिक आकड़ों के हवाले से स्कूल जाने वाला देश का हर दूसरा बच्चा सामान्य या फिर अति कुपोषण का शिकार बन रहा है. देश की 44 प्रतिशत जनता अंतर्राष्ट्रीय मानक (1 डालर प्रतिदिन) से कम कमा पाती है. 70 प्रतिशत ग्रामीण आबादी में कुपोषण और भूख की मात्रा बहुत ज्यादा है. खासकर पिछड़ी अनुसूचित जातियों, जनजातियों, औरतों और 5 साल तक के बच्चों में. कुपोषण और भूख के चलते देश का आने वाला कल कहे जाने वाले 47 प्रतिशत बच्चों का अपनी उम्र के अनुपात में लंबाई और वजन नहीं बढ़ पाता है. कुपोषण के चलते ही 20 से 49 साल की 50 प्रतिशत औरतों में खून की कमी हो जाती है. अगर 200 लाख टन खाद्यान्न गोदामों में हो तो कहते हैं खाद्य की स्थिति काबू में रहती हैं. जबकि गोदामों में 608.79 टन खाद्यान्न है. इसके बावजूद 23 करोड़ यानी 21 प्रतिशत से कही ज्यादा भारतीय भूखे और कुपोषित हैं. मगर खाद्यान्न गोदामों से गरीबों की थाली तक नहीं पहुँच पा रहा है और सालाना प्रति व्यव्क्ति भोजन की उपलब्धता एक सौ पैंतालीस किलोग्राम से भी लगातार घटती जा रही है.
संयुक्त राष्ट्र की 'विश्व खाद्य कार्यक्रम' द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के ग्रामीण इलाकों में आहार-असुरक्षा की स्थिति अत्यंत गंभीर है. झारखंड के उदाहरण से अगर ग्रामीण इलाकों में आहार-असुरक्षा की स्थिति का जायजा लें तो 'न्यूट्रीशनल इनटेक इन इंडिया' के मुताबिक झारखंड के ग्रामीण इलाकों के 75 प्रतिशत आबादी को कैलोरी उपभोग का 75 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ अनाज से हासिल होता है. इस राज्य के संथाल परगना में आदिवासी समूहों को साल में कई बार भूख सताती है. ‘राष्ट्रीय प्रतिदर्श संस्थान’ के अनुमानों के मुताबिक यहाँ 10.4 प्रतिशत परिवारों को मौसमी भूख तथा 25 प्रतिशत परिवारों को लगातार भूख का सामना करना पड़ता हैं. पूरी खाद्य सुरक्षा 3 से 4 महीने तक ही रहती है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 के आकलन से पता चलता है कि उम्र के लिहाज से औसत लंबाई मगर कम वजन के बच्चों (तीन साल तक की उम्र वाले) की तादाद झारखण्ड में 31.1 प्रतिशत है. यहाँ भुखमरी के कारणों में वर्षा की अनिश्चितता, एक फसलीय खेती, सिंचाई की अल्प सुविधा, घटते हुए वन, बढ़ती आबादी और भूमि की कम उत्पादकता का जिक्र किया जाता है.
संयुक्त राष्ट्र की 'विश्व खाद्य कार्यक्रम' द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के ग्रामीण इलाकों में आहार-असुरक्षा की स्थिति अत्यंत गंभीर है. झारखंड के उदाहरण से अगर ग्रामीण इलाकों में आहार-असुरक्षा की स्थिति का जायजा लें तो 'न्यूट्रीशनल इनटेक इन इंडिया' के मुताबिक झारखंड के ग्रामीण इलाकों के 75 प्रतिशत आबादी को कैलोरी उपभोग का 75 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ अनाज से हासिल होता है. इस राज्य के संथाल परगना में आदिवासी समूहों को साल में कई बार भूख सताती है. ‘राष्ट्रीय प्रतिदर्श संस्थान’ के अनुमानों के मुताबिक यहाँ 10.4 प्रतिशत परिवारों को मौसमी भूख तथा 25 प्रतिशत परिवारों को लगातार भूख का सामना करना पड़ता हैं. पूरी खाद्य सुरक्षा 3 से 4 महीने तक ही रहती है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 के आकलन से पता चलता है कि उम्र के लिहाज से औसत लंबाई मगर कम वजन के बच्चों (तीन साल तक की उम्र वाले) की तादाद झारखण्ड में 31.1 प्रतिशत है. यहाँ भुखमरी के कारणों में वर्षा की अनिश्चितता, एक फसलीय खेती, सिंचाई की अल्प सुविधा, घटते हुए वन, बढ़ती आबादी और भूमि की कम उत्पादकता का जिक्र किया जाता है.
आमतौर पर सरकार भूख से होने वाली मौतों के मामलों को छिपाती है. जैसे कि मुझे याद है कि सितम्बर 2004 को मोहनपुर प्रखंड के विभिन्न गांवों में 7 दिनों के अंदर भूख से 3 लोगों की मौतें हुईं थीं. बतरूवाहीड गाँव वालों का कहना था कि मृतक चमरू सिंह चारवाहे का काम करता था. खेती लायक थोड़ी जमीन भी थी जो उसने अपनी बेटी की शादी के चलते गिरवी रख दी. उसके घर में दो जवान बेटिया और हैं. उन्हीं की शादी की चिंता में वह कमजोर होता गया. घरवालों ने बताया कि मरने के पहले तक वह ‘भूख-भूख’ कह कर तड़प रहा था. उस समय घर में खाने के लिए एक दाना तक नहीं था. वहीं चरकी पहड़ी में 60 साल की वंशी मांझी ने भूख से लड़ते हुए दम तोड़ दिया. वह नि-संतान था. घर में कमाने वाला कोई नहीं था. तीसरी मौत जगरनाथी गाँव में हुई थी. वहाँ जागेश्वर महतो पानी भरने का काम करता था. घटना के दिन वह चावल लाने गया था. बहुत भूख था इसलिए रास्ते में ही बेहोश होकर गिर गया. बाद में उसकी मौत हो गई. इन मौतों की खबर सुनते ही कई राजनैतिक दलों के नेता आए. सबने प्रशासन की लापरवाही बताया. उसी साल संताल परगना में 10 लोगों की मौतें हुईं थीं. मगर वह चुनावी साल नहीं था इसलिए मामला ठण्डे बस्ते में रहा.
झारखंड सहित पूरे भारत में भूख का हाल इसलिए और विरोधाभाषी नजर आता है क्योंकि हर राज्य में अनाज के सरकारी गोदाम भरे हुए है मगर प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में कमी आ रही है. इससे संकेत मिलते हैं कि ग्रामीण भारत के लोगों के पास खरीददारी की ताकत कम होती जा रही है और जिसके चलते न खरीदा हुआ अनाज गोदामों में पड़ा हुआ है. इससे एक तरफ ग्रामीण भारत में खेतिहर संकट गहराया और दूसरी तरफ अनाज के सरकारी गोदामों में अनाज सड़ता रहा है. वहीं राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा प्रस्तुत 61वें दौर के आकलन के अनुसार 81 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों और 67 प्रतिशत शहरी परिवारों के पास ही राशन कार्ड है. बीपीएल कार्ड 26.5 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों और 10.5 प्रतिशत शहरी परिवारों को प्राप्त हैं. अंत्योदय योजना के अंतर्गत दिया जाने वाला कार्ड 1 प्रतिशत से भी कम ग्रामीण और शहरी परिवारों को प्राप्त हैं. ग्रामीण इलाके में अनुसूचित जनजाति के 5 प्रतिशत और अनुसूचित जाति के 4.5 प्रतिशत परिवारों के पास अंत्योदय कार्ड हैं. जबकि ग्रामीण इलाकों में अनुसूचित जाति के 40 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के 35 प्रतिशत परिवारों के पास बीपीएल कार्ड हैं. इसी तरह ग्रामीण इलाकों में 57 प्रतिशत खेतिहर-मजदूर परिवारों के पास बीपीएल कार्ड नहीं हैं. जबकि खेती से अलग मजदूरी करने वाले 65 प्रतिशत परिवारों के पास बीपीएल कार्ड नहीं है. 22.7 प्रतिशत उचित मूल्य की दुकानें कुल लागत पूंजी पर 12 प्रतिशत लौटा पाने में सफल हो पा रही हैं. सरकार द्वारा बीपीएल परिवारों को मिलने 35 किलो अनाज में से कटौती करते हुए प्रति 20 परिवार किलो अनाज वितरित किया जा रहा है. जबकि गरीब परिवारों की पहचान ठीक तरह से न हो पाने के चलते बड़ी संख्या में गरीब परिवारों को टीडीपीएस यानी टारगेटेड पब्लिक डिस्ट्रब्यूशन से बाहर हो जाना पड़ा है. आकलन के मुताबिक सिर्फ 57 प्रतिशत गरीब परिवारों को टीडीपीएस की सुरक्षा हासिल हो पायी है. 2003-04 में टीडीपीएस के तहत 7258 करोड़ रुपए का अनुदान दिया गया. मगर सिर्फ 4123 करोड़ रुपए का ही अनुदान बीपीएल परिवारों के हाथ आया. बाकी का अनुदान ग्राहक तक न पहुँचते हुए आपूर्ति-तंत्र से जुड़ी कई एजेंसियों के बीच पहुँच गया.
इसी तरह झारखंड सहित पूरे भारत में भूख जुड़ी शब्दावली को लेकर कोई तर्कसंगत परिभाषाएं नहीं बनी हैं. यहाँ भूख से मौतों के वैज्ञानिक मापदंड खोजने और उन्हें तय करने की कोशिश भी नहीं हुई हैं. आज भुखमरी एक तकनीकि सवाल बन चुका है. मगर यह सामाजिक और आर्थिक असमानता से भी गहराई से जुड़ा हुआ है. जिसे समझने की जरूरत है. असल में आर्थिक विकास का संतुलित ढ़ांचा और उचित वितरण का तरीका ही भूख की समस्या को सुलझा सकता है. रोजगार के अवसरों, आर्थिक साधनों की प्राप्ति और भोजन की सामग्री पर रियायत बरतना जरूरी हो गया है. गरीबों को लक्ष्य बनाकर उनको फायदा पहुँचाने के लिए खाद्यान्न के वितरण के खास तरीकों को अपनाने की जरुरत है.
1 टिप्पणी:
ऐसा हो भी क्यों न, क्योंकि यहाँ तो गरीबो का खाना भी अमीर लोग लूटकर खा जाते हैं।
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