28.12.09

शिक्षा से जुड़ी मांगों का चार्टर अब राष्ट्रपति के हाथों में

शिरीष खरे

क्राई के एक प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से मुलाकात कर बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 में व्याप्त कमियों पर चर्चा की। इस प्रतिनिधिमंडल ने भारत के सभी बच्चों को शिक्षा के अधिकार से जोड़ने के लिए अधिनियम में जरूरी संशोधन किए जाने की वकालत भी की।

इस दौरान राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को वह चार्टर भी सौंपा गया जिसमें देशभर से करीब 8 लाख नागरिकों ने शिक्षा के अधिकार अधिनियम में जरूरी संशोधन किए जाने की मांग का समर्थन किया था। क्राई का मानना है कि बच्चों को उनके मूलभूत अधिकारों से जोड़ने और उनके बीच की असमानताओं को घटाने के लिए अधिनियम में कुछ बातों को शामिल करना होगा। अगर अधिनियम और उसके प्रावधानों में यह संशोधन नहीं हुए तो भारत के बहुत सारे बच्चे शिक्षा जैसे मूलभूत अधिकार से बेदखल होते रहेंगे।

राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने प्रतिनिधिमंडल की बातों को गंभीरता से लेते हुए यह माना कि "शिक्षा तो मानवीय विकास की बुनियाद है और हर भारतीय बच्चे तक बेहतर शिक्षा पहुंचनी ही चाहिए।" क्राई की डायरेक्टर पूजा मारवाह के मुताबिक ‘‘हमने राष्ट्रपति के साथ 'सबको शिक्षा समान शिक्षा अभियान' से जुड़ी बहुत सारी बातों को साझा किया। हमने उन्हें बताया कि इस अभियान को देशभर में 18 राज्यों के करीब 8 लाख ऐसे नागरिकों का समर्थन मिला है जो चाहते हैं कि सभी भारतीय बच्चों के बीच एक समान और बेहतर गुणवत्ता वाली शिक्षा व्यवस्था कायम हो। अब हमारी कोशिश यह है कि सरकार हमारी मांगों को माने, जिससे शिक्षा का अधिकार महज कागजी शेर बनकर न रह जाए और यह जमीनी स्तर पर भी अपना असर दिखा पाए।’’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘भारतीय बच्चों के नजरिए से शिक्षा के अधिकार का यह अधिनियम मील का पत्थर साबित हो सकता है, बशर्ते इस अधिनियम में छिपी संभावनाओं को व्यापक स्तर पर देखा और समझा जाए तो।’’

क्राई के प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के सामने शिक्षा के अधिकार अधिनियम में जिन मांगों को शामिल किए जाने पर जोर दिया है, उनमें खास हैं : (एक) 6 साल से नीचे और 15 से 18 साल तक के बच्चों को भी मुख्य प्रावधान में लाया जाए। (दो) हर बस्ती से 1 किलोमीटर के भीतर योग्य शिक्षक और सुविधायुक्त स्कूल हों। (तीन) सकल घरेलू उत्पाद का 10 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च हो।

25.12.09

महाराष्ट्र में कई अख़बारों ने मीडिया को किया शर्मसार

लेखक : पी साईनाथ

मूलत : द हिंदू से

अनुवाद : समरेंद्र सिंह

हिन्दी प्रकाशन : जनतंत्र.कॉम से


आप सोचते होंगे कि अख़बारों में सिर्फ़ एक पेज 3 होता है? लेकिन महाराष्ट्र के अख़बार ऐसा नहीं मानते। हाल के चुनाव में उनके पास कई पेज 3 थे, जिन्हें वो लगातार कई दिनों तक छापते रहे। उन्होंने सप्लिमेंट के भीतर सप्लिमेंट छापे। इस तरह मुख्य अख़बार में भी आपको पेज 3 पढ़ने को मिले। फिर उन्होंने मेन सप्लिमेंट में अलग से पेज थ्री छापा। उसके बाद एक और सप्लिमेंट जिसके ऊपर रोमन में पेज थ्री लिखा था।


यह मतदान से ठीक पहले के दिनों में बहुत ज़्यादा हुआ क्योंकि व्यग्र उम्मीदवार “ख़बरों” को खरीदने के लिए हर क़ीमत चुकाने को तैयार थे। एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया कि “टेलीविजनों पर बुलेटिन्स की संख्या बढ़ गई और प्रिंट में पन्नों की संख्या।” मांगें पूरी करनी थीं। कई बार तो आखिरी पलों में अतिरिक्त पैकेज आए और उन्हें भी जगह देनी थी। उन्हें वापस लौटाने का कोई कारण नहीं था?

मराठी, हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू – राज्य के तमाम अख़बारों में चुनाव के दौरान आप ऐसी कई आश्चर्यजनक चीजें देखेंगे जिन्हें छापने से इनकार नहीं किया गया था। एक ही सामाग्री किसी अख़बार में “ख़बर” के तौर पर छपी तो किसी अख़बार में “विज्ञापन” के तौर पर। “लोगों को गुमराह करना शर्मनाक है” – यह शीर्षक है नागपुर (दक्षिण-पश्चिम) से निर्दयील उम्मीदवार उमाकांत (बबलू) देवताले की तरफ़ से खरीदी गई ख़बर की। यह ख़बर लोकमत (6 अक्टूबर) में प्रकाशित हुई थी। उसके आखिरी में सूक्ष्म तरीके से एडीवीटी (एडवर्टिजमेंट यानी विज्ञापन) लिखा हुआ था। द हितवाद (नागपुर से छपने वाले अंग्रेजी अख़बार) में उसी दिन यह “ख़बर” छपी और उसमें कहीं भी विज्ञापन दर्ज नहीं था। देवताले ने एक बात सही कही थी – “लोगों को गुमराह करना शर्मनाक है।”

मजेदार बात यह है कि चुनाव आचार संहिता (जिसके तहत पार्टी और सरकार का खर्च जांच के घेरे में आ जाता है) लागू होने से ठीक 24 घंटे पहले 30 अगस्त को एक विज्ञापन छपा। उसके बाद शब्द “विज्ञापन” ओझल हो गया और उसके साथ ही “रिस्पॉन्स फीचर” भी। उसके बाद सभी कुछ न्यूज़ में तब्दील हो गए।

उसके बाद विज्ञापनों की दूसरी खेप 18 सितंबर से ठीक पहले आई जब उन्होंने नामांकन भरना शुरू किया। नामांकन भरने के तुरंत बाद वो विज्ञापन भी बंद हो गए क्योंकि तब उम्मीदवारों के खर्चों पर नज़र रखी जाने लगी। इन हथकंडों ने सरकार, बड़े दलों और अमीर उम्मीदवारों को चुनावी खर्च में जोड़े बगैर बड़े पैमाने पर पैसा खर्च करने की सहूलियत दी। यही नहीं इन्होंने प्रचार का एक ऐसा तरीका भी खोच निकाला जो प्रचार खर्च में नहीं जुड़ा। उन्होंने थोक के भाव में एसएमएस और वॉयस मेल के जरिए मतदाताओं से वोट मांगे। इनके अलावा प्रचार के लिए खास वेबसाइट्स का निर्माण कराया। इन सब में पैसा काफी खर्च हुआ लेकिन खाते में नहीं जुड़ा।

30 अगस्त और 18 सितंबर के बाद न्यूज़ रिपोर्ट कई मायने में रोचक रहे। उन “ख़बरों” में कोई आलोचना और बुराई नहीं की जाती। सैकड़ों पन्ने उम्मीवारों की उपलब्धियों, प्रचार और तारीफ़ में भर दिए गए और मुद्दों की चर्चा तक नहीं हुई। जिनके पास पैसे नहीं थे उनका अख़बारों में जिक्र तक नहीं हुआ।

अगर आपने सही सौदा किया तो वही ख़बर प्रिंट, टेलीविजन और ऑनलाइन तीनों माध्यमों में उपलब्ध मिलेगी। यह पैकेज पत्रकारिता का विकसित रूप है और यह सभी माध्यमों में मौजूद है। इस तरह की ख़बरों की तरफ़ मुड़ने से चुनाव के दौरान कई बड़े अख़बारों की विज्ञापन आय घट गई – जबकि आम परिस्थितियों में ऐसा नहीं होता।

सबसे दुखद तो यह है कि कुछ बड़े पत्रकारों ने पेड न्यूज़ को अपनी बाइलाइन के साथ छपवाया। ऐसे पत्रकारों में कुछ चीफ़ रिपोर्टर और ब्यूरो चीफ़ रैंक के पत्रकार भी शामिल हैं। कुछ ने ऐसा स्वेच्छा से किया तो कुछ ने बताया कि “पत्रकारों के निजी भ्रष्टाचार के दौर में हमारे उसमें शामिल होने और उससे दूर रहने के विकल्प थे। लेकिन जब यह सब मालिकों की सहमति से एक संगठित उद्योग की शक्ल अख्तियार कर चुका है तो हमारे पास क्या विकल्प बचते हैं?”

1 अक्टूबर से 10 अक्टूबर 2009 के बीच महाराष्ट्र में छपने वाले कई अख़बारों को पढ़ना काफी मज़ेदार है। कई बार आप रहस्यम तरीके से “तय हुई चीजें” छपी हुई देखेंगे। मसलन दो कॉलम फोटो के साथ 125-150 शब्दों की स्टोरी। ये “तय हुई चीजें” काफी उत्सुकता जगाती हैं। ख़बर शायद ही कभी इन कठोर शर्तों के साथ छापी जाती हो, लेकिन विज्ञापन छापे जाते हैं। कुछ जगहों पर आपको एक ही पन्ने पर कई तरह के फॉन्ट और लेआउट देखने को मिलेंगे। ऐसा इसलिए कि लेआउट, फॉन्ट और प्रिंटआउट सब कुछ उम्मीदवार की तरफ़ से भेजा गया था।

कई बार व्यवस्थित तरीके से एक या दो पेज पर सिर्फ एक ही पार्टी से जुड़ी ख़बरें परोसी गईं। किसी और ख़बर को उन पन्नों पर छापने लायक नहीं समझा गया। 6 अक्टूबर को पुढारी अख़बार का तीसरा पन्ना कांग्रेस के लिए छापा गया। 10 अक्टूबर को सकाळ में तीसरे और चौथे पन्ने पर रणधुमली नाम का सप्लिमेंट छापा गया जिसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ एमएनएस से जुड़ी ख़बरें थीं। दूसरी बड़ी पार्टियों को कई दूसरे अख़बारों ने इसी तरह सम्मानित किया।

देशोन्नति में 11 अक्टूबर सिर्फ एनसीपी की ख़बर थी। 15 सितंबर को मुख्यमंत्री अशोक चाह्वाण पर विशेष छपा। हिंदी अख़बार नव भारत में 30 सितंबर से 13 अक्टूबर (इसके साथ ही चाह्वाण पर छपने वाले पूरे पन्नों की संख्या 89 हो गई) के बीच नव भारत में 12 पन्ने चाह्वाण को समर्पित किए गए। दूसरी तरफ, मतदान की तारीख़ जैसे-जैसे नजदीक आई पन्नों पर ख़बरों की भीड़ बढ़ती गई। कुछ पर तो 12 ख़बरें और 15 फोटो छपे।

चूंकि चुनावी दौर में उम्मीदवारों और उनकी पार्टियां ने ख़बरें वितरित कीं, इसलिए ज़्यादातर अख़बारों ने एक भी संशोधन नहीं किए। वरना ऐसा क्यों है कि अख़बारों ने बाइलाइन, स्टाइल और व्यवहार से समझौता किया और एक सी ख़बरें छापीं।


इससे कई परेशान करने वाले सवाल खड़े होते हैं।

उदाहरण के लिए, सकाळ आमतौर पर अपने रिपोर्टर की ख़बरों पर बटमिदार (रिपोर्टर) लिख कर क्रेडिट देता है। दूसरों की ख़बरों पर सकाळ वृतसेवा (न्यूज़ सर्विस) या फिर सकाळ न्यूज़ नेटवर्क लिखा होता है। लेकिन कांग्रेस की तरफ़ से भेजी गई सामाग्री पर “प्रतिनिधि” लिखा गया था। इसलिए आप पाएंगे कि सकाळ ने अपनी व्यावसायिक शर्तों को तोड़ते हुए “प्रतिनिधि” नाम से ख़बरें प्रकाशित कीं। ऐसी ही एक ख़बर – “राज्य की सत्ता कांग्रेस के ही हाथ में रहेगी” – 4 अक्टूबर को छापी गई। उसमें ऊपर “बटमिदार” लिखा हुआ था और नीचे “प्रतिनिधि”। यह ख़बर क्या थी? क्या यह एक विज्ञापन था?

जाने-माने पब्लिक रिलेशन फर्म्स, प्रोफेशनल डिजाइनर्स और विज्ञापन एजेंसियां अमीर उम्मीदवारों और पार्टियों का काम संभालते हैं। वो ख़बरों को तय शब्दों और लहजों में अख़बारों के लिए तैयार करते हैं। कई बार तो अलग-अलग अख़बारों के लिए ख़बरें ऐसे तैयार की जाती हैं कि वो एक्सक्लूसिव लगें।

कुछ चुनिंदा उम्मीदवारों ने, जिनमें से ज़्यादातर बिल्डर थे, काफी अधिक ख़बरों में रहे। इसके विपरीत छोटी पार्टियों और कम पैसे वाले उम्मीदवारों का राज्य के कई अख़बारों ने पूरी तरह बहिष्कार कर दिया। कुछ ने मुझे ख़त लिख कर अपना दर्द बयां किया है। ऐसे ही एक शख़्स हैं शकील अहमद। पेशे से वकील शकील अहमद ने बतौर निर्दलीय मुंबई के सायन-कोलीवाडा से चुनाव लड़ा। उन्होंने बताया कि जिन अख़बारों ने उनको सामाजिक कार्यकर्ता बताते हुए उनके बारे में ख़बरें छापी थीं, “उन्होंने ने भी बतौर उम्मीदवार उनके बारे में कुछ भी छापने के लिए पैसे मांगे। मैंने पैसे देने से मना कर दिया तो किसी ने मेरे बारे में कुछ नहीं छापा।” शकील अहमद चुनाव आयोग और प्रेस काउंसिल के सामने अपनी बात रखने को उत्सुक हैं।

पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने महाराष्ट्र के कई जिलों से हमारे पास 21 अख़बारों की 100 से अधिक प्रतियां भेजी हैं। इनमें से अधिक सर्कुलेशन वाले बड़े अख़बारों के साथ छोटे स्थानीय अख़बार भी शामिल हैं। उन सभी में ऐसी ख़बरों से पन्ने भरे हुए हैं। टेलीविजन चैनलों पर कहीं इन्हें ख़बरों के तौर पर तो कहीं विज्ञापन के तौर पर दिखाया गया। ऐसी ही एक ख़बर दो चैनलों पर किसी गैर की आवाज़ में प्रसारित की गई। और एक तीसरे चैनल के माइक से साथ विरोधी चैनलों पर ख़बरें नज़र आईं।

मतदान का दिन नज़दीक आने पर कुछ कम पैसे वाले उम्मीदवारों ने कुछ पत्रकारों से संपर्क साधा, ताकि वो भ्रष्टाचार की इस बाढ़ में डूब न जाएं। उन्हें प्रोफेशनल्स की ज़रूरत थी। उन्होंने उन पत्रकारों से अपने बारे में लिखने के लिए गिड़गिड़ा कर कहा और अपनी हैसियत के हिसाब से पैसों का प्रस्ताव रखा। आखिरी चंद दिनों में ऐसे कुछ छोटे आइटम अख़बारों के पन्नों पर नज़र आए। ये आइटम उन उम्मीदवारों की माली हालत बयां करते थे।


और यह वो चुनाव रहा, जिसके बारे में न्यूज़ मीडिया ने हमें बताया कि इस बार चुनाव मुद्दों के आधार पर नहीं लड़े गए।

23.12.09

बच्चे खड़े बाजार में


शिरीष खरे


यह दृश्य बार-बार घटने से अब साधारण लगता है- मुंबई के मशहूर लियोपोर्ड की संगीतभरी रातों के सामने भीख मांगते 10 से 12 साल के 12 से 15 बच्चे खड़े मिलते हैं। ये उन शोषित बच्चों के समूह से हैं जो शहर के फुटपाथों पर जूते या कार चमकाते हैं, फूल, चाकलेट या फिर कई बार अपने आप को बेच देते हैं। ना जाने ये बच्चे इधर से किधर और कितनी बार बिकने वाले हैं। इनकी जिंदगी में वह दिन कभी न आए जब यह अपने परिवार वालों को देखने के लिए भी तरस जाएं। वैसे एक साल के भीतर इसी मुंबई से करीब 8 हजार बच्चे लापता हुए हैं। देखा जाए तो एक दशक से देश और दुनिया की ऐसी ज्ञात घटनाओं या संख्याओं को जोड़ना अब असाधारण हो चुका है। भूमण्डलीकरण के जमाने में बच्चों की तस्करी को नए-नए पंख जो लग गए हैं।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के एक आंकलन के हवाले से 2002 में दुनियाभर से करीब 12 लाख बच्चों की तस्करी हुई। वहीं युनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट आफ स्टेट के आकड़ों (2004) का दावा है कि दुनिया में तस्करी के शिकार कुल लोगों में से आधे बच्चे हैं। अकेले बच्चों की तस्करी से हर साल 10 अरब डालर के मुनाफे का अनुमान है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के बाल मजदूरी से जुड़े आकड़ों (2000) का अनुमान है कि सेक्स इंडस्ट्री में 18 लाख बच्चों का शोषण हो रहा है। इनमें भी खासतौर से लड़कियों की तस्करी विभिन्न यौन गतिविधियों के लिए हो रही है। इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का यह भी अनुमान है कि घरेलू मजदूरी में भी लड़कियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। ऐसे बच्चों की तस्करी करने के लिए इनके परिवार वालों को अच्छी पढ़ाई-लिखाई या नौकरी का झांसा दिया जाता है। युनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रंस फंड, फेक्ट शीट (2005) का अनुमान है कि दुनिया के 30 से ज्यादा सशस्त्र संघर्षों में बच्चों का इस्तेमाल किया जाता है। कुछ बच्चों को गरीबी तो कुछ को जबरन उठाकर सेना में भर्ती किया जाता है। 1990 से 2005 के बीच सशस्त्र संघर्षों में 20 लाख से ज्यादा बच्चे मारे गए। युनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रंस फंड, फेक्ट शीट (2005) ने यह भी कहा है कि अक्सर पिछड़े, अनाथ, विस्थापित, विकलांग या युद्ध क्षेत्र में रहने वाले बच्चों को सैन्य गतिविधियों में लगा दिया जाता है।

प्राकृतिक आपदाओं की ऊहापोह में बच्चों की तस्करी करने वाले गिरोहों की सक्रियता भी बढ रही है। इस दौरान यह गिरोह अपने परिवार वालों से बिछुड़े और गरीब परिवार के बच्चों को निशाना बनाते हैं। इसके अलावा गरीबी के चलते कई मां-बाप अपनी बेटी को आर्थिक संकट से उभरने का उपाय मानते हैं और पैसों की खातिर उसकी शादी किसी भी आदमी के साथ कर देते हैं। इन दिनों अधेड़ या बूढ़े आदमियों के लिए नाबालिग लड़कियों की मांग बढ़ती जा रही है। उन बच्चों के बीच तस्करी की आशंका बढ़ जाती है जिनके जन्म का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ है। युनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रन्स फंड, बर्थ रजिस्ट्रेशन के मुताबिक 2000 में 41 प्रतिशत बच्चों के जन्म का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ। बच्चों की कानूनी पहचान न होने से उनकी तस्करी करने में आसानी हो जाती है। ऐसे में लापता बच्चों का पता-ठिकाना ढ़ूढ़ना मुश्किल हो जाता है। तस्करी और लापता बच्चों के बीच गहरे रिश्ते का खुलासा एनएचआरसी की रिसर्च रिपोर्ट (2004) भी करती है जिसमें कहा गया है कि भारत में एक साल 30 हजार से ज्यादा बच्चों के लापता होने के मामले दर्ज होते हैं, इनमें से एक-तिहाई का पता नहीं चलता है। तस्करी के बाद ज्यादातर बच्चों का इस्तेमाल खदानों, बगानों, रसायनिक और कीटनाशक कारखानों से लेकर खतरनाक मशीनों को चलाने के लिए किया जाता है। कई बार बच्चों को बंधुआ मजदूरी पर रखने के लिए उनके परिवार वालों को एडवांस पैसा दिया जाता है। इसके बाद ब्याज का पैसा जिस तेजी से बढ़ता है उसके हिसाब से बच्चों को वापिस खरीदना मुश्किल हो जाता है। इसके साथ-साथ अंग निकालने, भीख मांगने और नाजायज तौर से गोद लेने के लिए भी बच्चों की तस्करी के मामले बढ़ रहे हैं।

बाल तस्करी की हर अवस्था में हिंसा की सिलसिला जारी रहता है और ऐसे बच्चे आखिरी तक गुलामी का जीवन ढ़ोने को मजबूर रहते हैं। ऐसे बच्चे भरोसेमंद आदमियों के धोखा दिए जाने चलते खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। यह भी अजीब विडंबना है कि ऐसे बच्चे अपनी सुरक्षा, भोजन और आवास के लिए शोषण करने वालों के भरोसे रहते हैं। यह बच्चे तस्करी करने वाले से लेकर काम करवाने वाले, दलाल और ग्राहकों के हाथों शोषण सहते हैं। ऐसे बहुत सारी परेशानियों के चलते उनमें हताशा, बुरे सपने आने या नींद नहीं आने जैसे विकार पैदा होते हैं। तब कुछ बच्चे नशे की लत में पड़ जाते हैं और कुछ आत्महत्या की कोशिश तक करते हैं।

बाल तस्करी से जुडे़ सही और पर्याप्त आकड़े जमा कर पाना बहुत मुश्किल है। ऐसा इसलिए क्योंकि तस्करी के तार अंतर्राष्ट्रीय और संगठित अपराध की बहुत बड़ी दुनिया से जुड़े हैं। यह इतनी भयानक, विकराल और अदृश्य दुनिया है कि इसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना आसान नहीं है। यह शारारिक और यौन शोषण के घने जालों से जकड़ी एक ऐसी दुनिया है जिसको लेकर सटीक नतीजे तक पहुंच पाना भी मुश्किल है। कई बार आकड़ों में से ऐसे लोग छूट जाते हैं जिनकी तस्करी देश के भीतर हो रही है। फिर यह भी है कि कई जगहों पर तस्करी के शिकार लोगों की आयु या लिंग का जिक्र नहीं मिलता।


तस्करी को पालेर्मो प्रोटोकाल (2000) के अनुच्छेद 3 और 5 में दी गई परिभाषा के मुताबिक : ‘‘व्यक्तियों की तस्करी का अर्थ धमकी या जबरन या अपहरण जालसाजी, धोखे, सत्ता के गलत इस्तेमाल, असहायता की स्थिति, किसी दूसरे व्यक्ति पर नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति की सहमति पाने के लिए पैसे, लाभ के लेन-देन के लिए व्यक्तियों की भर्ती, परिवहन, स्थानांतरण, शरण या प्राप्ति है।’’


दुनिया भर में बच्चों की तस्करी सबसे फायदेमंद और तेजी से उभरता काला धंधा है। क्योंकि एक तो इसमें न के बराबर लागत है और फिर नशा या हथियारों की तस्करी के मुकाबले खतरा भी कम है। इस धंधे में बच्चे कीमती सामानों में बदलते हैं और मांग-पूर्ति के सिद्धांत के हिसाब से देश-विदेश के बाजारों में बिकते हैं। तस्करी में ऐसा जरूरी नहीं है कि बच्चों को अंतर्राष्ट्रीय सीमा के बाहर ही ले जाया जाए। एक बड़ी संख्या में बच्चों की तस्करी गांवों से शहरों में भी होती है। इसके अलावा पर्यटन से जुड़ी मांग और मौसमी पलायन के चलते भी तस्करी को बढ़ावा मिलता है। देश के भीतर या बाहर, दोनों ही प्रकार से बच्चों की तस्करी भयावह अपराध है। इसलिए बच्चों की तस्करी रोकने के लिए सार्वभौमिक न्याय का अधिकार देने वाले कानून की सख्त जरूरत है। फौजदारी कानूनों को न सिर्फ मजबूत बनाने होंगे बल्कि उन्हें कारगर ढ़ंग से इस्तेमाल भी करने होंगे। बच्चों की तस्करी से जुड़ी सभी गतिविधियों, लोगों और एंजेसियों पर फौजदारी कानून के तहत कार्रवाई हो। इसके अलावा शोषण से संरक्षण देने वाले ऐसे कानून और नीतियां हो जो बच्चों की तस्करी रोकने के लिए सीधे असर सकें। इनमें पलायन, बाल मजदूरी, बाल दुरुपयोग और पारिवारिक हिंसा से जुड़े कानून आते हैं। यहां एक और बात स्पष्ट है कि बच्चों की तस्करी रोकने के कानूनी उपाय तब तक बेमतलब रहेंगे जब तक कानूनों को इस्तेमाल करने और उनकी निगरीनी करने की उचित व्यवस्था नहीं रहेगी। साथ ही साथ तस्करी के शिकार बच्चों को तेजी से पहचानने के लिए कारगर तरीके बनाने और उन्हें अपनाने की भी जरुरत है।

14.12.09

सबको शिक्षा समान शिक्षा अभियान को उम्मीद से ज्यादा जनसमर्थन

शिरीष खरे

मुंबई / चाईल्ड राईटस एण्ड यू ने बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम में संशोधन किए जाने को लेकर जो हस्ताक्षर अभियान छेड़ा था उसे उम्मीद से ज्यादा जनसमर्थन मिला है। सबको शिक्षा समान शिक्षा के नाम से चलाया गया यह देशव्यापी अभियान अब अपने आखिरी पड़ाव पर है। जैसे कि उम्मीद की जा रही थी कि इस अभियान से देशभर के करीब 5 लाख लोग जुड़ेंग मगर जो नतीजा मिला है उसके मुताबिक 11 दिसम्बर तक 18 राज्यों के 20 शहरों, 6700 मलिन बस्तियों और गांवों से करीब 8 लाख लोगों ने चार्टर पर हस्ताक्षर किए हैं।


14 नंवबर याने बालदिवस के मौके पर चाईल्ड राईटस एण्ड यू ने सबको शिक्षा समान शिक्षा अभियान की शुरूआत की थी। इस अभियान का मकसद देश के नागरिकों की भागीदारी से बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम-2009 में संशोधन करवाना और खास तौर से 3 मांगों को मनवाने के लिए दबाव बनवाना था। इस अभियान को अपनी शुरुआत से ही भारी जनसमर्थन मिलने लगा था।


इस दौरान चार्टर पर हस्ताक्षर करवाने के साथ-साथ बच्चों से संबंधित अनेक गतिविधियां की आयोजित की गईं जैसे- हैदराबाद, बैंगलौर और चेन्नई में बच्चों द्वारा अपनी समस्याओं पर जनसुनवाईयां हुईं। मुंबई में बसों के जरिए कई जगहों पर पहुंचकर, बसों में ही बच्चों की कार्यशालाएं हुईं । कलकत्ता और भुवनेश्वर में नुक्कड़ नाटक हुए। दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान से करीब 1 हजार नागरिकों ने सबको शिक्षा के अधिकार के समर्थन में पैदल मार्च किया। इस कार्यक्रम में बाल समूह के अध्यक्ष 13 वर्षीय महेन्द्र रजक, कभी बाल मजदूर करने वाली 12 वर्षीय अस्मिना शाह, भोजन के अधिकार अभियान के जिआन द्रेज, बिराज पटनायक, सामाजिक कानूनविद अशोक अग्रवाल और क्राई की पूजा मारवाह शामिल हुए। इस मौके पर मोमबत्तियों को जलाकर गीत गाये गए। इसी तरह देशभर से बाकी हिस्सों में भी रैली और जनजागरण से जुड़े विभिन्न कार्यक्रम हुए।


चाईल्ड राईटस एण्ड यू द्वारा हस्ताक्षर चार्टर को अब राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केन्द्र सरकार के मंत्रियों, राज्य के मुख्यमंत्रियों और सभी महत्वपूर्ण अधिकारियों के सामने रखा जाएगा और उनसे  > 6 साल से नीचे और 15 से 18 साल तक के बच्चों को भी अधिनियम में जगह देने,  >> हर बस्ती से 1 किलोमीटर के भीतर योग्य शिक्षक और सुविधाजनक स्कूल होने और  >>> सकल घरेलू उत्पाद का 10 % शिक्षा पर खर्च करने के लिए कहा जाएगा।


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संपर्क : shirish2410@gmail.com

6.12.09

अपने ही देश में परदेशी हैं पारधी

मराठवाड़ा के बंजारा जमातों को संगठित करने के लिए अभियान चला रहे बाल्मीक निकालजे से शिरीष खरे की बातचीत।


अंग्रेज जब यहां से गए तो बहुत कुछ छोड़कर गए।  उनका छोड़ा वो बहुत कुछ हमने आजतक संभाले रखा है। पारधी जमात से चिपका मिथक उन्हीं में से एक है। पारधी अपने ही अतीत और रिवाजों में कैद एक जमात है। जो अंग्रेजों के ‘गुनहगार जनजाति अधिनियम, 1871’ का शिकार होते  ही हमेशा के लिए ‘गुनाहगार’ हो गई।


आजादी के बाद भी कितने तख्त बदले, ताज बदले, नहीं बदले तो पारधी जमात के हालात। तभी तो महाराष्ट्र में पारधी लोग आज भी गांव से दूर रहते हैं, या रखे जाते हैं। तभी तो उनके सामने बुनियादी हकों से जुड़ा हर सवाल मुंबई, 724 किलोमीटर की दूरी बताने वाले पत्थर सा बनकर रह जाता है।


आष्टी, जिला बीड़, महाराष्ट्र। इसके ऊपर राजर्षि शाहु ग्रामीण विकास संस्थान और इसके ऊपर बाल्मीक निकालजे का नाम लिखते ही चिट्ठी जिस ठिकाने पर पहुंचती है, वही बैठे हैं हम। आखा मराठवाड़ा जानता है कि पारदी जैसी बंजारा जमातों के बीच बीते दो दशक से बाल्मीक निकालजे का नाम कितना लोकप्रिय है। नाम में न पड़ते हुए आइए उनसे कुछ काम की बातें जानते हैं। ऐसी बातें जो पारधी जमात से चाहे अनचाहे गुथ्थमगुथ्था हो चुकी हैं :



- पारधी जमात यहां एक उलझी हुई गुथ्थी है...

इतनी उलझी है कि सुलझाना मुश्किल हो रहा है। वैसे जानकार यह भी जानते हैं कि पारधी असल में तो लोगों की रखवाली करने वाले होते थे। इतिहास में पारधियों ने तो गुलामी के खिलाफ सबसे पहली और उग्र प्रतिक्रियाएं दी हैं। यहां के राजा निजाम से हारे, अंग्रेजों से हारे, मगर उन राजाओं के लिए लड़ने वाले पारधियों ने हार नहीं मानी। उन्होंने कई छापामार लड़ाईयां लड़ीं, और जीतीं भी। खुद शिवाजी भी उनकी युद्धशैली से प्रभावित थे। यह और बात है कि अब उनकी वीरता के वो किस्से यहां कम ही कहने सुनने को मिलते हैं।

अंग्रेज भी जब बार-बार और छापामारी अंदाज वाले हमलों से हैरान परेशान हो गए तो उन्होंने पारधियों को गुनहगार घोषित कर दिया। मगर आजादी के बाद तो अपनी सरकार, उसके पुलिस विभाग को यह तरीका बदलना चाहिए था। जो उन्होंने नहीं बदला।

1924 को देशभर में 52 गुनहगार बसाहट बनी। सबसे बड़ी गुनहगार बसाहट अपने शोलापुर में बनी। इसमें तार के भीतर कैदियों को रखा जाता था। 1949 को बाल साहेब खेर ने शोलापुर सेटलमेंट का तार तोड़ा। 52 को अंबेडकर साहब ने गुनहगार बताने वाले अंगेजी कानून को रद्द किया। 60 को नेहरू जी खुद शोलापुर भी आए। मगर आज भी यहां जब चोरी होती है तो पुलिस वाले सबसे पहले पारधी को ही पकड़ते हैं। वह अपने देश में आज भी परदेशी हैं। यहां पहला सवाल उनकी पहचान का ही बना हुआ है।

- उनकी पहचान से क्या मतलब है ?

हम थोड़ा सा शुरू से जान लेते हैं। पारधी, पारध शब्द से निकला है। पारध याने शिकार करने वाला। अब पारधी भी कई तरह के होते हैं। जैसे राज, बाघरी, गाय, हिरन शिकारी, गांव पारधी। राजा के पास जो शिकार का जानकार था, वे राज पारधी कहलाया। राजा बोले कि अब मुझे बाघ पर सवार होना है, उसके लिए बाघरी पारधी रखे जाते। वे ही बाघ पकड़ते, फिर उसे पालतू बनाते। एक तो बाघ को जिंदा पकड़ना ही बहुत मुश्किल है, ऊपर से उसे पालतू बनाना तो और भी मुश्किल। ऐसे ही गाय पारधी की खास सवारी गाय होती। आज भी उनके यहां एकाथ गाय तो होती ही है। गाय भी ऐसी-वैसी नहीं, बाकायदा ट्रेंड गाय। वे बाजार से गाय खरीदने की बजाय अपनी ही गाय के बछड़े को ट्रेंड करते हैं। उनकी गाय सधी होती है, इतनी कि शरीर के जिस हिस्से पर पारधी हाथ रख दे, वो जान जाती है कि अब उसे आगे क्या करना है। यही गाय उनके धंधे की मां है। इसलिए पारधी कभी गाय का मांस नहीं खाते। किसी भी शिकारी के लिए हिरन के पीछे दौड़ना, उसे मारना बड़ा टेढ़ा काम है। मगर पारधी लोग गाय की मदद से शिकार के तरीके को सीधा बना लेते हैं। जैसे हिरन का शिकार करते समय, जब गाय चरती हुई आगे बढ़ती है, उसके पीछे पीछे पारधी छिपा छिपा आता है। हिरन के नजदीक आने पर, वह उसके ऊपर अचानक छलांग मार देता है और शिकार को अपने हाथ में ले लेता है। ऐसी कई शैलियां हैं पारधियों के पास।

वैसे यकीन करना मुश्किल है मगर पारधी पंछियों की बोलियां भी खूब जानते हैं। जैसे पारधी के तीतर जंगलों के तीतरों को गाली देते हैं, तो कई जंगली तीतर लड़ने के लिए उनके पास आ जाते हैं, वो सारे बीच में लगे जाल में फंस जाते हैं। ऐसे शिकार के कई और ढ़ंग भी हैं उनके पास। शिकार के बारे में जितनी बातें पारधियों को पता है, शायद ही कोई जानता हो।

- पारधी कभी लोगों की रखवाली किया करते थे। यह समझाना कितना मुश्किल है...

अगर नई पीढ़ी पारधियों के पीछे छिपे सच जानने लगे तो शायद ही कोई उन्हें गुनाहगार कहेगा। पारधी लोगों की रखवाली के काबिल नहीं होते तो राजा उन्हें अपने सुरक्षा सलाहकार कभी नहीं बनाते। यह दुनिया की सबसे खुफिया और ईमानदार जमातों में से भी एक है। आप उसे एनएसजी कमाण्डो कह सकते हैं। आज भी आप देखिए, अपने यहां कहीं-कहीं एक पारधी के हिस्से में 25 से 50 खेतों की रखवाली आती है। फिर वे आपस में तय करते हैं कि एक दूसरे के खेतों में नहीं जाएंगे। अगर किसी के खेत में चोरी हुई तो उसका नुकसान उस खेत का पारधी भरता है। उसके बाद वह अपने खुफिया नेटवर्क से चोरी का पता लगाता है। अगर पता लगा तो मामले को अपनी जात पंचायत में उठाता है। पंचायत में बात सच साबित हो जाने का मतलब है, कसूरवार को नुकसान से 5 गुना ज्यादा तक दण्ड भरना। पारधी को रखवाली के बदले साल भर का अनाज मिलता है। मतलब यह कि वह गांव की अर्थव्यवस्था का जरूरी हिस्सा रहा है।

उसके जीने का रंग-ढ़ग, उसके धंधे के हिसाब से चलता है। आपने देखा होगा कि जैसे वे कमर में छोटी, एकदम कसी हुई धोती पहनता हैं। छाती पर कई जेबो वाली बण्डी, सिर पर रंग-बिरंगी पगड़ी पहनते हैं। कुल मिलाकर ऐसा पहनावा होता है जो दौड़-भाग में आवाज न करे, न ही किसी और तरह की अड़चन दे।

- समाज के बीच किस तरह की अड़चनों में फंसे हैं पारधी ?

इसे यहां के एक किस्से से समझिए। एक बार पाथरड़ी तहसील में कहीं चोरी हुई। कई महीने बीते, चोर का पता न चला। उसी समय आष्टी तहसील के चीखली से थोड़ी दूरी पर, घूमते फिरते रहवसिया नाम के पारधी परिवार वहां आ ठहरा। पुलिस ने उसे ही चोरी के केस में अंदर डाल दिया। उधर रहवसिया दो महीनों तक जेल में रहा। इधर गांव में ऊंची जात वाले उसके परिवार को धमकाते, बोलते जगह खाली कर दो वरना ऐसा-वैसा। जब वह जेल से छूटकर अपने ठिकाने पर आया तो ऊंची जात वालों ने उसे, और उसके 12 साथियों को भी रस्सियों से बांध दिया। उनसे बोला गया कि तुम लोग चोर हो, गांव के लिए अपशगुन हो। कुछ लोग वहां से किसी तरह छूटे, और 4 किलोमीटर दौड़ते हुए अपने कार्यालय पहुंचे। खबर मिलते ही हम यहां से 7 टेम्पों में 300 कार्यकर्ता बैठे, दलित पेंथर का नारा लगाते हुए वहां पहुंचे। तब ऊंची जात वाले अपने घरों में ताला लगाकर छिपे रहे।

यहां के ऊंची जात वाले तो पारधियों को हटाने के लिए राजीव गांधी तक पहुंच गए। तब वह प्रधानमंत्री थे, वो बोले कि पारधी देश के नागरिक हैं, उन्हें हटाया नहीं जा सकता। इसके बाद पूरे इलाके में ऊंची जात वालों और बंजारा जमातों के बीच, 5 साल तक संघर्ष चला। जगह जगह पर बंजारों की बस्तियों में कई कई बार हमले हुए। मगर हमारे पास भी पक्की योजना थी, हम ऐसे मामले बार-बार थाने, कचहरी तक ले जाते। धीरे धीरे जहां तहां ऊंची जात वाले भी ठण्डे पड़ते गए।

- तो क्या ऊंची जात वालों के खिलाफ संघर्ष करने भर से ऐसी धरणाएं बदल सकती हैं ?

बदलाव की कई योजनाएं हो सकती हैं। मकसद सिर्फ यह बात समझाना है कि पारधी चोर नहीं हैं, इंसान हैं। फिर भी आम धारणा है कि पारधी बस चोर ही हैं, अगर ऐसा है भी तो हम लोगों से कहते हैं- क्या उन्हें चोरी के दलदल से निकालाना नहीं चाहिए। इस काम में लोगों के साथ पुलिस का खास रोल हो सकता है। मगर यह दोनों (पब्लिक और पुलिस) तो पारधियों को चोर से ऊपर देखने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।

मुझे लगता है हम सबका पहला काम यह बनता है कि, उनके भीतर के डर को पहले बाहर निकालें। इसके लिए जरूरी है सबसे पहले तो उन्हें ही एकजुट करना। वे अपने कानूनों को जानें। और वोट को हक से कहीं ज्यादा एक हथियार की तरह इस्तेमाल करना सीखें। उन्हें रोजगार के वो साधन मिलें जो स्थानीय भी हों, और स्थायी भी। जैसे जिन बंजर जगहों पर वो अपने जानवर चराते रहे हैं, उन्हीं जगहों से उनसे अन्न पैदा करवाने की मुहिम को बढ़ावा मिले। यहां हमने दलित, बंजारों जमातों के 1420 परिवारों को खेती से जोड़ा है। इसलिए वो स्कूल से लेकर पंचायतों में अपनी जगह खुद बना पा रहे हैं।

पढ़ेलिखे, जागरूक लोग व्यवस्था की गलतियों से लड़ सकते हैं। इसलिए पारधी बच्चों को एक सपना देना होगा, वह यह कि पुलिस या बाकी लोग तुम्हारे पीछे नहीं हैं। देखो, वो तो तुम्हारे साथ है। ऐसा सपना देखने वाले बच्चों को स्कूलों में लाना होगा। उन्हें भरोसा देना होगा कि तुम्हारे खेल, तुम्हारी संस्कृति, तुम्हारी प्रतिभाएं किसी से कम नहीं हैं। ऐसी प्रतिभाओं को मौका देकर भी उनकी पहचान बदली जा सकती है।
 
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1.12.09

कितना भूखा है मध्यप्रदेश

शिरीष खरे


झाबुआ, मध्यप्रदेश । कुपोषण ने दो दर्जन से ज्यादा बच्चों को निगला है- यह हाल आदिवासी जिले झाबुआ का है, जहां मेघनगर ब्लाक के अगासिया और मदारानी गांवों में बच्चों की मौत का सिलसिला है कि टूटता ही नहीं। फिलहाल पूरा मध्यप्रदेश ही इतना भूखा है कि यहां न जाने क्यों भूख का नामोनिशान  है कि मिटता ही नहीं ?

केवल अक्टूबर में ही झाबुआ के इन 2 गांवों से 25 बच्चों की मौत दर्ज होना- यह तो मौत के ताण्डव की एक झलक भर है। एक तरफ पास के ही खण्डवा में आंतकवादी बतलायी गई वारदात के तुरंत बाद से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अपने साहस का परिचय पेश कर रहे हैं और दूसरी तरफ महीनों से कुपोषण नाम का जो आंतक झाबुआ के कई दुबले, पतले, रक्तहीन शरीर वाले बच्चों को मलेरिया जैसी बीमारियों की चपेट में आते ही 4 रोज के भीतर खा रहा है, उसके खिलाफ ठोस कार्रवाई की बात तो दूर जबावदारी लेने का साहस तक कोई नहीं करता है। मालूम नहीं यह बात भोपाल तक पहुंची है या नहीं कि कुपोषण के गले उतर चुके ऐसे बच्चों में से ज्यादातर 0-6 साल के हैं। पता किया है तो पता चला है कि यह बच्चे तो क्या इनके नाम तक स्थानीय आंगनबाड़ी केन्द्रों में कभी नहीं पहुंचे हैं। आखिर किससे पूछे कि जिले के 75 % पोषण केन्द्रों में ताले लटके हैं तो क्यों ?

इसके पहले महिला बाल विकास विभाग की रिपोर्ट भी कह चुकी है कि झाबुआ जिले में 36 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। फिर भी प्रशासन कुपोषण से बच्चों की मौतों को रोकने की बजाय जवाबदारी से बचने के रास्ते तलाश रहा है। फिलहाल 25 बच्चों की मौत को लेकर कहा जा रहा है कि इन्हें मलेरिया जैसी बीमारियां तो थीं ही, इनमें रक्त की भारी कमी भी थी। पूरे इलाके में कुपोषण के खतरनाक स्तर को देखते हुए कुपोषण को बच्चों की मौत का मुख्य कारण बतलाया जा रहा है। जैसे कि मेघनगर के ब्लाक मेडीकल आफीसर विक्रम वर्मा भी कहते हैं कि- ‘‘हमने अभी तक 14 बच्चों की मौत के कारणों को ढ़ूढ़ा है, प्राथमिक तौर पर देखने के बाद तो यही लगता है कि उन्हें कुपोषण, एनीमिया और मलेरिया ने बुरी तरह जकड़ लिया था।’’ यह और बात है कि स्वास्थ्य विभाग के ज्वाइंट डायरेक्टर केके विजयवर्गीय कुछ और कहते हैं- ‘‘अक्टूबर में वहां सिर्फ चारेक मौतें हुई हैं। मैंने पर्यवेक्षक और एएनएम के खिलाफ कार्रवाई का आदेश दिया है, इसके अलावा ब्लाक मेडीकल आफीसर को रिपोर्ट में देरी किये जाने पर कारण बताओ नोटिस भी भेजा दिया है।’’ ज्वाइंट डायरेक्टर कुपोषण को बच्चों की मौत का कारण नहीं मानते हैं। उनके हिसाब से- ‘‘हालांकि अभी तक कोई कारण स्पष्ट नहीं हो पाया है, फिर भी एक बात तो पक्की है कि कुपोषण नहीं ही है। शायद उन्हें मौसमी बुखार था।‘‘

इस तरह जहां स्वास्थ्य विभाग की गंभीरता स्पष्ट होती है वहीं समाज कल्याण के लिए बनी योजनाएं का असर भी साफ समझ आता है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि अगासिया के जिन 4 बच्चों की मौत को मौत मान लिया गया है, उनके घरवाले रोजीरोटी के लिए अपने घरों से पलायन करते हैं। कहने को राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना 5 साल पहले आई है मगर इनके हाथों में जाब-कार्ड आजतक नहीं आए हैं।

देखा जाए तो झाबुआ जिले के अगासी और मदारानी जैसे गांव तो कुपोषण नाम के नक़्शे पर छोटे-छोटे से बिन्दु भर हैं। हकीकत तो यह है कि मध्यप्रदेश के बड़े हिस्से में कुपोषण अब महामारी की तरह फैल रहा है। प्रदेश के ही एक और जिले सीधी का रुख करें तो यहां भी अगस्त से अबतक 22 बच्चों की मौतें दर्ज हुई हैं। इस बीच एशियन हयूमन राईटस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि रीवा जिले के जेबा ब्लाक में कोल आदिवासियों के 80 % से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं। सुप्रीम कोर्ट और यूनाइटेड नेशन इंटरनेशनल चिल्ड्रनर्स इमरजंसी फण्ड की रिपोर्ट के मुताबिक यहां के हालात तो उप-सहारा अफ्रीका देशों से भी खराब हैं। इसी तरह नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे-3 के मुताबिक मध्यप्रदेश में 12 लाख से ज्यादा बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित हैं। यहां 0-3 साल के 60 % बच्चे कुपोषित हैं, जबकि इसी श्रेणी के 82.6 % बच्चे रक्तहीनता के शिकार हैं। प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 1000/70 है, जबकि आदिवासी इलाकों में शिशु मृत्यु दर है 95.6/1000!!

ऐसे में सवाल उठता है कि 2015 तक शिशु मृत्यु दर में दो-तिहाई की कमी लाने वाले प्रदेश सरकार के लक्ष्य का क्या होगा ? वह भी तब जब 1.2 करोड़ बच्चों की आबादी वाले इस प्रदेश में शिशु रोग विशेषज्ञ की संख्या है केवल 117। और तो और 30 जिलों की जनता को आज भी शिशु स्वास्थ्य से जुड़ी बुनियादी सहूलियतों का इंतजार है। मगर सेंटर फार बजट गवेर्नेंस एंड अकाउंटबिलिटी के मुताबिक मध्यप्रदेश सरकार जीडीपी का केवल 0.1 % हिस्सा बच्चों के स्वास्थ्य पर खर्च करती है। इसी तरह आजीविका के लिए तैयार हुई राष्ट्रीय रोजगार गांरटी की चाल यह है कि प्रदेश सरकार बीते 4 सालों में इस योजना की पूरी राशि ही खर्च नहीं कर सकी है। इस योजना के तहत वित्तीय वर्ष 2005-06 से वित्तीय वर्ष 2008-09 के बीच कुल 9739 करोड़ 23 लाख रूपए आंवटित हुए जिसमें से खर्च हुए 8191 करोड़ 34 लाख रूपए ही। जिसमें से 3 साल तो ऐसे भी रहे कि जब वह केन्द्र सरकार के खाते की राशि तक खर्च नहीं कर सकी। सरकार कहती है कि इस योजना में 1 करोड़ 11 लाख 40 हजार जाब-कार्ड बन गए हैं मगर अबतक केवल 11 लाख लोगों को ही रोजगार मिल पाने के सवाल पर वह चुप है। जुलाई 2008 में सेंटर फार एन्वायरमेंट एण्ड फूड सेक्यूरिटी ने झाबुआ सहित प्रदेश के 5 जिलों के 125 गांवों में सर्वे किया और कहा कि सरकार के बहुत सारे दावे झूठे हैं। उसके मुताबिक यहां साल में औसतन 16 दिन ही रोजगार मिल पाता है। सीधी बात है कि सरकार की मंशा जो भी हो मगर योजनाएं शोषण या घूसखोरी पर जाकर दम तोड़ रही हैं।

कुल मिलाकर मध्यप्रदेश के अलग-अलग हिस्सों के नाम अलग-अलग हो सकते हैं मगर यहां शोषण...बेकारी...गरीबी...भूख...रोग...मौत का पहिया अपनी चाल से लगातार घूम रहा है। अंतत: इन अलग-अलग हिस्सों में स्वास्थ्य और आजीविका की ज्ञात स्थितियों को भी एक साथ जोड़कर देखें तो हमारे सामने आदिवासी आबादी पर कुपोषण के कहर की भयानक तस्वीर पेश होती है। जिसमें उसकी शक्ल भूख से होने वाली मौतों के लिए कुख्यात उड़ीसा, झारखण्ड और गुजरात की शक्लों से काफी मिलती-जुलती है।

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