17.8.09

उद्रेश भैयाणी बाड़ी में लालबहादुरजी की सरकार

शिरीष खरे
इस कहानी के किसी चरित्र या घटना का किसी शहर, मोहल्ले, व्यक्ति या वस्तु से कोई सम्बन्ध पाया जाता है तो इसे मात्न संयोग नहीं माना जाए। क्योंकि जहां सरकार कमजोर होती है, वहां माफिया की सरकारे खड़ी हो ही जाती हैं। यूं तो गुजरात सरकार बहुत मजबूत कही जाती है लेकिन सूरत महापालिका के सामानान्तर, माफिया राज के कई पाकेट संस्करण बस्ती की जमीन को अपनी कहते हैं, और घरों में रहने का भाड़ा भी वसूलते हैं। जैसे कि उद्रेश भैयाणी बाड़ी में लालबहादुरजी का राज है। बस्ती के लोग टेक्स के बदले जब सरकार से बिजली, पानी और नाली की उम्मीद करते हैं तो सरकारी कार्यालयों में बैठे बड़े से बड़े बाबू भी एक मर्तबा लालबहादुरजी से पूछ लेने की नसीहत देते हैं।
सहारा दरवाजे के ऊपर, खुले पुल पर धड़धड़ाती रेल के नीचे से राज्य परिवहन डिपो की चौड़ी सड़क है। यही से धागों जैसी अनगिनत गलियां उलझी पड़ी हैं। बारिश है, इसलिए गली को नाली कह लीजिए, या नाली को गली। दोनों के वजूद ने खुल-मिलकर संड़ाध को अजीब बना डाला है। बस्ती की सघनता का जाल देखिए, हर चौथे कदम पर एक घर पड़ रहा है। कोई घर लकड़ी का, कोई माटी का तो कोई पक्का खड़ा है, कोई बांस, पन्नी, ईटों से मिल-जुलकर आड़ा पड़ा है। घुमावदार मोड़ों पर आवाजाही की आहटों से लोग, बकरियां, रेडियो, मुर्गियां, गाएं, साइकिले, मोटरसाइकिले आपस में टकराने से पहले बच लेते हैं। इस तरह गांधीनगर, विकासनगर, अम्बा बाड़ी से गुजरते हुए उद्रेश भैयाणी बाड़ी में श्री फरनी माता जी के मंदिर पहुंचते हैं, मंदिर में बनने का साल दर्ज है-1966। चबूतरे पर हैं इनायत खान, अज्जू मियां, राधा बेन, रामसुंदर वर्मा, मंगू वर्मा, भालेराम शर्मा और उनके बहुत सारे साथी।
‘‘अब यहां से लौटना, लखनऊ की भूल-भुलैया से कम नहीं होगा’’- ऐसा सुनते ही इनायात भाई बोले- ‘‘गलियों से सकरे तो यहां के घर हैं, यहां से तो फिर भी निकल जाइयेगा, बस्ती की पेचिदियों से नहीं निकल पाइयेगा।’’ पुरूषोतम महापात्र ने जोड़ा- ‘‘यह 100 साल पुरानी बस्ती है, इतना वक्त बीतने के बावजूद सरकारी चश्मे से यह नाजायज ही है। अगर यह जायज नहीं है तो टेक्स और बिजली के बिल वगैरह क्यों आते हैं ?’’ अज्जू मियां बोले- ‘‘वार्ड नंबर 18 में नल, नाली, पानी, बिजली जैसे सवालों पर सूरत महापालिका का एक ही जबाव है- ‘पहले लालबहादुरजी से तो पूछ लो।’ जब हम सूरत महापालिका को टेक्स देते हैं, फिर लालबहादुरजी से क्यों पूछे ?’’ लेकिन इस सवाल के आगे यह सवाल भी है कि प्राइवेट से छुटकारा दिलाने की बजाय सूरत महापालिका ऐसा कह क्यों रहा है ? ?
राकेश भाई बताते हैं- ‘‘100 साल पहले यहां की जमीन पर खेत हुआ करते थे। लेकिन महापालिका ने कागजों में सैकड़ों खेतीहरो के नामो की बजाय यहां के रखवाले का नाम ही चढ़ाया। लालबहादुरजी रखवाली करने वाले उसी परिवार की पीढ़ी से है। इन दिनों सत्ता में उनकी अच्छी पूछ-परख है, उनका दावा भी है कि यह उन्हीं की खानदानी जमीन है, इसलिए वह 40 सालों से जबरन भाड़ा लेते हैं। महीने के 50 रूपए के बदले 4-5 सालों से कोई रसीद भी नहीं देते हैं, ताकि किराएदार कहे जाने वालों के हाथों में रहने का सबूत न जाए।’’ लालबहादुरजी की अच्छी पूछ-परख को लेकर राधा बेन ने थोडा और जोड़ा- "....वो बस्ती में आने वाली सुविधाओं को सरकारी फाइलों में ही दफन कर देते हैं। इसके बाद जो-जो काम सरकार को करना चाहिए, वो-वो काम पैसे के बदले माफिया के लोग करते हैं।"
अगले दिन इनायत, पुरूषोतम, अज्जू, राकेश भाई और राधा बेन के सवालों के साथ सूरत महापालिका के दफ्तर में दाखिल हुआ। यहां आने का कोई खास फायदा नहीं निकला, लेकिन एक अहम जानकारी हाथ जरूर लगी कि राज्य सरकार ‘जमीन गणोत धारा, 1960’ को रद्द करके ‘गुजरात जमीन मेसूल कायदा’ लाने का मन बना चुकी है। ‘जमीन गणोत धारा, 1960’ में जो परिवार खेती करके जिस जमीन पर रहते आए हैं उन्हें जमीनों का हक दिया गया है। लेकिन ‘गुजरात जमीन मेसूल कायदा’ में कोई कितने साल से भी खेती करे या रहे, उससे वह जमीन सरकार कभी भी ले सकती है। याने खेती करने या रहने में समय के महत्व को ही महत्वहीन बना दिया जाएगा। अब तक हक और न्याय का आखिरी रास्ता कचहरी की तरफ जाता रहा है, आगे से इसे भी बंद करने की तैयारी कर ली गई है।
हालांकि बस्ती के वाशिंदे सुरेश भाई बोरसे को इसमें हेरत जैसी कोई बात नजर नहीं आती, उनके मुताबिक- ‘‘सूरत के झोपड़ों में रहने वालों को बगैर किसी कसूर के सजा सुनाई जा चुकी है। सूली पर लटकाने की तारीखें अलग-अलग हैं, हमारी तो तारीख भी घोषित नहीं हुई है।’’ सूरत महापालिका की जमीन से हटाने वालों को तो एक बार फिर भी पुर्नवास या मुआवजे की उम्मीद है लेकिन उद्रेश भैयाणी बाड़ी वालों के हिस्से में तो यह भी नहीं। ऐसे में यहां के लोगों की मांग इतनी भर ही है कि यहां की जमीन को सूरत महापालिका में मिला लो। फिर क्या करना है, बाद की बात है।
हीरा बेन जैसी औरतों की अपनी परेशानियां हैं, वह घर से बाहर आकर बोली- ‘‘देखिए एक भी स्ट्रीट लाईट नहीं है, और जिसे आप गली या नाली समझ बैठे हैं, वह तो खुली गटर है। 500 घरों पर 1 नल है, गांधीनगर के भी 4 में से 3 नल तो गटर में डूबे हैं। टायलेट के नाम पर कईयों के लिए सुलभ शौचालय ही एकमात्र सहारा है। पानी के लिए प्राइवेट टेंकर है, स्कूल के लिए भी प्राइवेट का ही आसरा है।’’
‘‘सूरत कारर्पोरेशन के चुनाव नजदीक है, चुनाव के वक्त आप ऐसे मुद्दे क्यों नहीं उठाते ?’’ इसके जबाव में मजहर खान ने जो सुनाया वो आज के चुनाव-ए-हाल की पोल खोलने के लिए काफी है- ‘‘वार्ड नंबर 18 में ज्यादातर मुस्लिम मत हैं इसलिए यहां के 30 प्रतिशत मतों को वार्ड नंबर 17 में डालकर मत-विभाजन कर दिया गया है। वार्ड नंबर 17 में तो हिन्दुओं की तादाद ज्यादा है ही, वार्ड नंबर 18 में भी हिन्दुओं की संख्या भारी पड़ जाती है।’’ इस तरह बटवारे का राजनैतिक हथकंडा अपनाते हुए मुस्लिम मतों के दबाव से छुटकारा पा लिया गया है। वैसे भी वार्ड नंबर 17 झोपड़पट्टी नहीं है, इसलिए वार्ड नंबर 18 में झोपड़पट्टी वाले मतों के दबाव से भी निजात पा लिया गया है। मजहर खान भारतीय चुनाव का दूसरा पेंच भी खोलते हैं- ‘‘उलमाड़ विधानसभा की मतसूची से मुस्लिम मत लगातार घट और हिन्दू मत लगातार बढ़ रहे हैं। रामपुरा में कम से कम 3,000 मुस्लिम मत कटे, सैय्यदपुरा और झापा बाजार जैसे इलाकों का भी यही हाल है। मैं खुद 2007 में विधानसभा (उत्तर) से उम्मीदवार था, लेकिन 2009 में लोकसभा की सूची से मेरा नाम ही हटा दिया गया।’’ सारांश यह है कि कोई एक पार्टी सालों तक सत्ता में यूं ही नहीं रहती।
निरंजन भाई महापात्र ने मंदिर की गोल-गोल गली में घूमाते हुए बताया- ‘‘इधर 10 गुणा 12 वर्ग फीट से बड़े घर मिलेंगे ही नहीं, 1 घर में 1 से ज्यादा परिवार हैं, 1 घर में कम से कम 7 लोग तो जोड़कर चलिए ही। इस तरह 500 घर में यही कोई 3000 लोग रहते हैं। आधे से ज्यादा तो यूपी से आए मुस्लिम हैं, कुछ मराठी, उड़िया और गुजराती हैं। सारे के सारे मजदूर हैं, कोई टेक्सटाइल मार्केट में है, कोई पावरलूम्स में, कोई ड्राइंग पेंटिंग में। कई लोग पुराना कपड़ा लाकर, उसे रिप्येर करके, बड़िया धोकर, प्रेस करके बेचते हैं।’’
लौटते वक़्त ओमप्रकाश बोरसे उलझी गलियों से सुलझते हुए चलते हैं, वह कहते हैं- ‘‘यहां रोजाना की हाजरी के हिसाब से मजदूरी मिलती है, एक दिन की मजदूरी 70 से 120 रूपए है, ज्यादा से ज्यादा 3,000 रूपए महीना भी जोड़ो तो गुजरात के सबसे मंहगे शहर में कम पड़ते है। सूरत में अनाज, तेल, सब्जी और दूसरी चीजें बाहर से आती हैं। इतने में ही दवा, पानी, घर-खर्च चलाना है। इतने में ही गांव भी पैसा भेजना है।’’ बातों ही बातों में हम सहारा दरवाजे के धड़धड़ाते पुल के नीचे आ गए। ‘‘आपको हर शाम के शाम मजदूरी मिलती होगी ?’’ ओमप्रकाश बोरसे कहते हैं- ‘‘मजदूरी मिलने की कोई तारीख पक्की नहीं, सेठ लोगों की भी राजनीति है, वो 2 महीनों का एडवांस रखते हैं, ताकि मजदूर को अच्छा काम मिले तो भी भाग न सके। सही समय पर पैसा नहीं मिलेगा तो लोग कर्ज लेंगे ही।’’ हमने पटरियों को पार कर लिया, अब ओमप्रकाश के साथ आए कई साथियों को पटरियों के उस तरफ ही लौटना होगा। जिनके सिर, पीठ और कंधों पर बोझ ही बोझ लटका दिख रहा है, दूर से देखने पर उनकी दुनिया छोटी-बड़ी (नाजायज-जायज) सरकारों के जाल में फसी लाचार मक्खी जैसी दिखती है। वक़्त का तकाजा यह है कि जो लोग सिर्फ अपनी घर-गृहस्थी ही चलाना चाहते हैं, उनके सामने घर-गृहस्थी को बचाने का सवाल खड़ा है।

1 टिप्पणी:

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

gareeb ki halat bigadati hi ja rahi hai ... aapka lekh rajnitik halaat ki pol khol raha ha iss baat ko tool dene ki zarurat hai