अहमदाबाद। नहीं, यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है.
लेकिन वटवा की सुल्ताना बानो के मन में एक ही सवाल बार-बार उमड़ता घुमड़ता है कि आखिर छोटी-छोटी खुशियों और सपनों का कत्ल कर के ही शॉपिंग मॉल्स, कॉपलेक्स, अण्डरब्रिज, ओवरब्रिज और सड़कों का जाल क्यों फैलाया जाता है ? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है. अब अहमदाबाद मेगासिटी बनने वाला है और मेगासिटी की चमक की सोच-सोच कर अभी से लोगों की आंखें चुंधिया रही हैं लेकिन मेगासिटी की इस चमक ने अपने पीछे एक ऐसा अंधेरा छोड़ना शुरु किया है, जिसमें हज़ारों लोगों की जिंदगी प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह गुम हो रही हैं. अहमदाबाद अपने ठिकाने पर है. लेकिन इसमें रहने वालों को ठिकानों की तलाश हैं. टाऊन प्लानिंग के नक्शे के मुताबिक शहर की तंग गलियों को मुख्य सड़कों से जोड़ने के लिए चौड़ा किया जाएगा. उन गलियों को भी, जहां इसकी जरुरत नहीं है. और अब इसके लिए गरीबों के घर निशाने पर हैं. वटवा की एक सड़क को 64 फीट चौड़ा करने का फरमान जारी हुआ है. यहां की घनी बस्ती देखने के बाद तो यह फैसला और भी अजीब लगता है. वैसे भी यह सड़क आगे जाकर रेल्वे-स्टेशन पर खत्म हो जाएगी. यहां से स्टेशन आधा घण्टे का रास्ता है. स्टेशन से ही नवापुरा के 84 घर लगे है. सड़क को चौड़ा करने के लिए स्टेशन तो टूटेगा नहीं. इसलिए यह काम स्टेशन तक जाकर रूकेगा और सिर्फ गरीबों के घर ही टूटेंगे. 28 घर टूट चुके है. कुछ घरों में लाल निशान लगे हैं. टूटने वाले घरों का कुल आंकड़ा कोई नहीं जानता. 2001 की जनगणना के मुताबिक अहमदाबाद में 6 लाख 92 हजार 257 घरों में कुल 49 लाख 70 हजार 200 लोग रहते हैं. इसमें से 8 लाख 714 गरीब हैं. यानी यह कुल आबादी का 26 फीसदी हिस्सा हुआ. शहर के दक्षिण की ओर वार्ड-42 के नाम से दर्ज वटवा में 26,630 घर हैं, जिसमें 1 लाख 21 हजार 725 लोग रहते हैं. 2001 की जनगणना के हवाले से शहर में 10 लाख 71 हजार 11 कामगार हैं जिसमें से 37 हजार 410 वटवा में हैं. शहर में जहां 53 हजार 497 मार्जिनल वकर्स हैं वहीं वटवा में यह संख्या 1 हजार 794 है. इसी तरह शहर के 23 लाख 95 हजार 577 नॉन-वकर्स में से 82 हजार 493 वटवा में हैं. ‘सहयोग’संस्था की शीतल बहन कहती हैं- “ गरीबों के घर एक साथ न तोड़कर धीरे-धीरे तोड़े जा रहे हैं. भारी विरोध से बचने के लिए सरकार ऐसा कर रही है. उसे योजना के बारे में लोगों को बताना चाहिए था. लेकिन वह ऐन वक्त पर अपने पत्ते खोलती है. इस शिकायत को लेकर जब हम चीफ सिटी प्लॉनर के यहां गए तो उन्होंने इस्टेट डिपार्टमेन्ट के पास भेज दिया. इसके बाद इस्टेट डिपार्टमेन्ट ने चीफ सिटी प्लॉनर का पता बता दिया.” ‘चाईल्ड राईटस् एण्ड यू’के प्रवीण सिंह के अनुसार वटवा के विस्थापितों को लेकर असमंजस की स्थिति है. सरकार कहती है कि जिनके पास 1976 से रहने के सबूत हैं उन्हें ही वैकिल्पक व्यवस्था मिलेगी. लेकिन ज्यादातर गरीबों के पास 33 साल पुराने सबूत नहीं हैं. आग जल रही है वटवा में ज्यादातर ऐसे परिवार रहते हैं, जिन्हें 2002 के दंगों में अपने घर खोने पड़े थे. इन दंगों का सबसे ज्यादा हर्जाना अल्पसंख्यकों ने चुकाया था. इन्होंने किसी तरह अपनी जान तो बचा ली थी लेकिन दंगाइयों द्वारा लगाई गई आग से अपना घर और उसमें रखा सामान नहीं बचा पाए थे. यह आग उनके पहचान के जरूरी कागजात भी जला गई थी. घरों में लगी आग तो बुझ गई लेकिन नफरत की एक आग उस दंगे के बाद से आज तक भड़क रही है. 2002 से ही वटवा के लोगों को “भारतीय” होने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. उन्हें “गद्दार”, “खतरनाक” और “पराए” जैसे विशेषण दे दिए गए हैं. यहां की हर गली, चौराहा और बाजार अब बदनाम है. यही कारण है कि अघोषित तौर पर वटवा विकास योजनाओं से बेदखल ही रहा है. जब सबकी नजरों से वटवा उतरा तब बिल्डरों की आंखों में यह चढ़ा. उन्होंने यहां नाजायाज तौर पर मकान बनाए और यही के अल्पसंख्यकों को बेच दिए. पूरा कंस्ट्रेक्शन अवैध तरीके से हुआ, इसलिए यहां के लोगों ने जो मकान खरीदे वह उनके नाम पर नहीं हुए. इन्हें अपने मकान से कभी भी निकाला जा सकता है. इसके बदले में कोई राहत भी नहीं मिलेगी. क्योंकि अवैध मकानों में पानी और बिजली मुहैया कराना सरकार का काम नहीं होता इसलिए यह काम भी बिल्डर ही पूरा करते हैं. जाहिर है, आधा तीतर-आधा बटेर की तरह बिल्डर ने घर बनाए लेकिन उनमें न नाली बनाई, न पानी की कोई व्यवस्था की. सपनों का कत्ल वटवा की सुल्ताना बानो ने अपनी उम्र के 50 में से 20 साल यहीं गुजरे हैं. 12वीं कक्षा तक पढ़ी-लिखी सुल्ताना बानो आंगनबाड़ी चलाती हैं. लेकिन 4 सदस्यों वाले उनके परिवार की मासिक आमदनी 4,000 से ज्यादा नहीं है. ऊपर से वटवा में अतिक्रमण के नाम पर मची तोड़फोड़ ने उनकी नींद उड़ा दी है. वे कहती हैं- “ हम अपने घर का टैक्स देते रहे हैं. आज उसे छोड़ने के लिए कहा जा रहा है. लेकिन नई जगह जाने के पहले हमारी तरक्की माटी में मिल जाएगी.” अफसाना बानो के भी 38 में से 18 साल यहीं गुजरे. वह सातवीं कक्षा तक पढ़-लिखकर भी नहीं जानती कि उनका परिवार कुल कितना कमाता है. लेकिन 6 महीने पहले उसने एक अफसर से लाल निशान लगाए जाने की वजह जाननी चाही थी. अफसर ने कुछ नहीं कहा. अफसाना को आज तक एक भी जबावदार अफसर नहीं मिला. उसके शौहर मोहम्मद शेख ने कहा- “अगर गरीब से उसका आशियाना छीनकर तरक्की आएगी तो वह हमें मंजूर नहीं. कही दूसरा ठिकाना मिल भी जाए तो हमारा नुकसान कम नहीं होगा. फिर भी हम हर रोज नए ठिकाने की फ्रिक में डूबे रहते हैं.” कुल 32.82 वर्ग किलोमीटर में फैले वटवा के कई परिवार 20-25 साल से यहां रहते आए हैं. लेकिन कई लोग हैं, जिनके पास निवास प्रमाण पत्र उपलब्ध नहीं है. हालत ये है कि इनमें से कई लोग यह सबूत जुटाने की कोशिश भी नहीं करते. इन्हें डर है कि ऑफिस में बैठे लोग उनकी नागरिकता पर ही शक न करने लगें! नवापुरा में अब तक 15 परिवारों को नोटिस मिले हैं. 35 साल के संतोष कुमार यहीं पले-बढ़े हैं. अगर उसकी रोज की मेहनत को महीने में जोड़ा जाए तो वह 5,000 पहुंचती है. इसी से उनका 8 सदस्यों वाला परिवार चलता है. लेकिन अक्टूबर में उसके घर पर भी लाल निशान लग गया. संतोष के हिस्से अब भविष्य की चिंताएं हैं- “अचानक मिली इस खबर ने जिंदगी अस्त-व्यस्त कर डाली. कुछ लोग तो दहशत के मारे अपने-अपने घर तोड़ने भी लगे हैं. उन्हें लगता हैं कि वक्त रहते ऐसा नहीं किया तो बाद में ज्यादा नुकसान होगा.” इन घरों के साथ उन स्मृतियों पर भी हथौड़े चलेंगे, जिन्हें एक पीढ़ी ने जाने कब से अपने पास संजो कर रखा था. किसी घर की दीवार सालगिरह पर बनी थी तो किसी की छत शादी पर पक्की हुई थी. अब दीवारों से जुड़ी छतों का कोई भरोसा नही रहा. भीड़ वाली गलियां कभी भी गुम हो सकती हैं. हालांकि लोगों ने उम्मीद नहीं छोड़ी है. बस्ती को इस बदहाली से बचाने के लिए लोगों ने ‘नवजीवन महिला मंच’ बनाया है. मंच की अध्यक्ष शहजाद बहन का हौसला देखते ही बनता है- “ हम लोगों की पहचान साबित करने के लिए रिकार्ड जमा कर रहे हैं. इसके लिए वटवा में 28 पॉकेट के 4,868 परिवारों का स्लम नेटवर्क तैयार हुआ है. इस नेटवर्क से अब 13 पॉकेट के 3,834 परिवार और जुड़ेगे.” घर अब प्रापर्टी है अहमदाबाद भी मंदी की चपेट में हैं. यहां जमीन और घरों की कीमत घटी है. लेकिन झुग्गियों को तोड़कर निर्माण कार्य जारी है. एक तरफ गरीबों को जमीनों से हटाया जा रहा है और दूसरी तरफ अमीरों को फ्लैट देने के लिए बिल्डर अपने ब्रोशर में 10-15 फीसदी की कमी कर रहे हैं. प्रहलाद नगर में जिस फ्लैट की कीमत 2,800 रूपए वर्ग फीट थी, वही अब 2,300 रूपए वर्ग फीट में मिल रहा है. चांदखेडा में यह गिरावट 2,000 से 1,600, बोडकदेव में 3,400 से 2,800 और वेजलपुर में 3,500 से 3,000 रूपए वर्ग फीट तक आ गई है. फिर बिल्डरों के लुभावने नारे तो हैं ही. चमचमाती गाड़ियों में घुमने वाले बिल्डरशाही को ही शहरी विकास का नाम दे रहे हैं. घर उनके लिए ‘रहने’की जगह नहीं बल्कि अब ‘प्रापर्टी’ है. गरीबों के तबाही की वजह भी यही से शुरू होती है. दूसरी तरफ मेगासिटी में अपना मुनाफा देखने वाला तबका विस्थापितों के विरोध को ठीक नहीं मानता. वह कहता है कि इससे शहर की शांति और व्यवस्था भंग होती है. सरकार झुग्गी बस्तियां तोड़ने के लिए पुलिस को आगे करती है और कारपोरेट की ताकतें ऐसी खबर को बेखबर बनाती हैं. लोकतंत्र में गरीबी हटायी जाती है और बाजार गरीबों को. साभार : रविवार.कॉम से
लिंक : http://raviwar.com/news/161_vatva-encroachment-shirish-khare.shtml
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