सूरत। इस पहेली से मुझे बचपन की पहेलियां याद आ गईं। उन पहेलियों के आखिरी में लिखा होता था- ‘‘बूझो तो जानें.’’ सारी पहेलियां इतनी सीधी लगती थीं कि बार-बार धोखा खाता और उल्टा जबाव दे देता. आज की पहेली वैसी ही है. वह दिखती जितनी सीधी है, है उतनी ही उल्टी. पहेली शुरू होती है ‘सूरत नगर-निगम’ के एक ख्याल से. निगम ने कहा था कि शहर में एक भी झुग्गी नहीं दिखेगी. ऐसा ‘जेएनएनयूआरएम’ योजना के जरिए होना था. निगम ने अमरौली के पास बनी राजीवनगर झोपड़पट्टी के लोगों के लिए कोसड में 42,000 फ्लेट बनाए. लेकिन अब यह लोग वह फ्लेट नहीं ले सकते. चलिए पहेली को समझने के लिए उसकी परतों में चलते हैं. निगम के अफसरों की सुने तो पहेली सीधी ही है. इसे राजीवनगर झोपड़पट्टी के लोग चुटकी में सुलझा सकते हैं. लेकिन राजीवनगर झोपड़पट्टी के लोग कहते हैं कि अफसरों की जिद के आगे सभी नतमस्तक हैं. निगम ने इनके लिए फ्लेट बनवाए और अब यही लोग कागजों की भूल-भुलैया में गोते खा रहे हैं. आप कहेंगे कि कागजात देकर बाहर निकला जा सकता है. लेकिन यह इतना आसान नहीं है. आमतौर पर ऐसी बस्तियों के लोग नहीं जानते कि एक दिन उनके घर टूटेंगे. एक दिन उनसे यहां रहने के सबूत मांगे जाएंगे. इसलिए वह कागजों को इकट्ठा नहीं कर पाते. ऐसी बस्तियों के लोग किस कागज के टुकड़े का क्या मतलब है, यह भी नहीं जानते. राजीवनगर का भी यही हाल है. अफसरों को जो कागज चाहिए उनमें से कुछ कागज यहां के ज्यादातर रहवासियों के पास नहीं हैं. यह रहवासी अफसरों को अपनी झुग्गी दिखाना चाहते हैं. लेकिन अफसरों को तो झुग्गी में रहने का कागज ही देखना है. फिलहाल लोगों के घर का हक निगम की फाइलों से काफी दूर है. इस तरह पूरी योजना आफिस-आफिस के खेल में उलझ चुकी है. राजीवनगर के 1200 में से सिर्फ 94 परिवार ही रहने के सबूत दिखा सकते हैं. इसलिए 1106 परिवार कोसड में बने फ्लेट का सपना नहीं देख सकते. सामाजिक कार्यकर्ता माया वालेचा के मुताबिक- ‘‘फ्लेट आंवटन से जुड़े सर्वेक्षणों में भारी अनियमितताएं हुई हैं. कुछ बस्तियों में तीन-तीन बार सर्वेक्षण हुए हैं. कुछ बस्तियों में मुश्किल से एक बार. राजीवनगर में ज्यादातर बाहर से आए मजदूर हैं. यह सूरत में 6-8 महीनों के लिए काम करते हैं. इसके बाद यह अपने गांवों को लौट जाते हैं. इनमें से कई 15-20 सालों से यही रहते हैं.’’ बस्ती के ऐसे ही रहवासी संतोष ठाकुर ने बताया- ‘‘बिजली, पानी और संपत्ति के बिल तो मकान-मालिक के पास होते हैं. हमें स्थानीय निकायों से एक सर्टिफिकेट मिलता है. लेकिन अफसर उसे सबूत ही नहीं मानते. कहते हैं कोई दूसरा कागज लाओ.’’ इसी बस्ती के रहवासी रंजन तिवारी ने बताया- ‘‘हमें हमेशा काम नहीं मिलता. इसलिए काम की तलाश में सुबह जल्दी निकलना होता है. सर्वे ऐसे समय हुआ जब हम बस्ती से दूर थे. हमें कुछ मालूम ही नहीं था. इसलिए हमारे नाम सर्वे से नहीं जुड़ सके.’’ नगर-निगम के डिप्टी कमिशनर महेश सिंह के अनुसार- ‘‘’झुग्गीवासियों को फ्लेट आवंटित करने के लिए एक कमेटी बनी हुई है. अगर किसी को लगता है कि उसके सबूत जायज हैं तो कमेटी के पास जाए.’’ नगर-निगम में स्लम अप-ग्रेडेशन सेल के मुखिया मानते हैं कि सर्वें में कई किरायेदारों के नाम छूट गए हैं. उनकी जगह मकान-मालिकों के नाम जुड़ गए हैं. लेकिन यह मुद्दा तो उसी समय उठाना चाहिए था. स्लम अप-ग्रेडेशन सेल किसी भी गड़बड़ी को रोकने के लिए दो तरह से सर्वे करता है. पहला सर्वे लोकेशेन के आधार पर होता है और दूसरा नामांकन के आधार पर. इसलिए स्लम अप-ग्रेडेशन सेल यह मानता है कि अगर लोकेशन वाली सूची से किराएदार का नाम है. साथ ही उसके पास 2005 के पहले से रहने का सबूत भी है तो उसे फ्लेट मिल जाएगा. अब यह किराएदार की जिम्मेदारी है कि वह कहीं से सबूत लाए. बस्ती के सेवाजी केवट ने कहा- ‘‘मैंने 8 महीने पहले फ्लेट के लिए आवेदन भरा था. लेकिन अफसरों ने अभी तक चुप्पी साध रखी है. उन्होंने यह नहीं बताया कि मैं फ्लेट के योग्य हूं या नहीं और नहीं हूं तो क्यों ? मैंने पार्षद को भी अपने निवास का सर्टिफिकेट और एप्लीकेशन दिया है. लेकिन मुझसे और कागजातों की मांग की जा रही है. वैसे मेरा नाम बायोमेट्रिक सर्वे से भी जुड़ा है. लेकिन सरकार के ही अलग-अलग सर्वे एक-दूसरे से मेल नहीं खा रहे हैं.’’ इससे कई आशंकाएं पनप रही हैं. यूं तो घर का मतलब रहने की एक जगह से होना चाहिए. लेकिन बाजार में बदलते शहरों के लिए वह प्रापर्टी भर है. सूरत भी इसी दौर से गुजर रहा है. यहां भी 40 प्रतिशत आबादी के विकास के लिए 60 प्रतिशत आबादी को नजरअंदाज किया जा रहा है. यहां भी पहले घर तोड़ो फिर घर बनाओ की बात हो रही है. लेकिन सवाल तो बस्ती के बदले बस्ती देने का है. घर के आजू-बाजू रास्ते, बत्ती, बालबाड़ी, नल और नालियों से जुड़कर एक बस्ती बनती है. उन्हें खोकर सिर्फ घर पाना नुकसानदायक है. इसलिए घर के आसपास की सुविधाओं का हक भी देना होगा. सूरत की तरह हर शहर को ‘जीरो स्लम’ बनाने का मतलब भी समझना होगा. सरकार मजदूरों से उनकी बस्तियां उजाड़कर उन्हें बहुमंजिला इमारतों में भेजना चाहती है. इसका मतलब यह हुआ कि वह उन्हें घर के बदले घर दे रही है लेकिन जमीन के बदले जमीन नहीं. वह गरीबों से छीनी इन सारी जमीनों को बिल्डरों में बांट देगी. मतलब यह कि गरीबों को फ्लेट उनकी जमीनों के बदले मिल सकता है. मतलब यह कि गरीबों को मिलने वाला फ्लेट मुफ्त का नहीं होगा. लेकिन बिल्डरों को तो मुफ्त में जमीन मिल जाएगी. यही वजह है कि बिल्डर केवल फ्लेट बनाने पर जोर ही देते हैं. उनके दिल और दिमाग में बालबाड़ी या स्कूल बनाने का ख्याल नहीं आता. जाहिर है बात सिर्फ मुनाफा कमाने की है. शहर के विकास में शहरवासियों को बराबरी का हिस्सा मिलना जरूरी है. इससे नगर-निगम को शहर की समस्याएं सुलझाने में मदद मिलेगी. लेकिन ऐसा नहीं चलता. दूसरी तरफ शहरी इलाकों में नागरिक संगठनों का सीमित दायरा है. शहर के गरीबों की भागीदारी को उनकी आर्थिक स्थिति के कारण रोका जा रहा है. विकास में सबका हिस्सा नहीं मिलने से गरीबी का फासला बढ़ेगा. एक तरफ गरीबी हटाने की बजाय गरीबों की बस्तियां तोड़ी जा रही हैं. दूसरी तरफ उन्हें नुकसान के अनुपात में बहुत कम राहत मिल पा रही है. तीसरी तरफ मिलने वाली ऐसी राहतों को कागजी औपचारिकताओं में उलझाया जा रहा है. कुल मिलाकर चौतरफा उलझे सूरतवासियों को उम्मीद की कोई सूरत नजर नहीं आती. आज यह घर से निकलकर काम पर जाते है. कल यह काम से लौटकर कहां जाएंगे ?
10.5.09
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2 टिप्पणियां:
सूरत की सूरत आपने पेश की है वह काबिलेतारीफ है। आपके नजरिये को सलाम।
How come all the stories of slum demolition/ resettlement are so similar? Kochi in Kerala is also going thru the sae kind of process. Thank you for this post.
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