25.2.09

बीमार विदर्भ पर फोकस

शि‍रीष खरे

एक तरफ बिजली से रोशन शहर का भारत है दूसरी तरफ खेती के खस्ताहाल से ढ़का देहाती भारत है. एक भारत को दूसरे भारत के बारे में कम ही पता है. फिल्म ‘समर 2007’ शहर और देहात के बीच की इसी खाई को भरने का काम करती है. यह पांच डॉक्टरों को विदर्भ में किसानों की समस्याओं से जोड़ती है.

इन दिनों बालीबुड से गांव गायब हो गए हैं. ऐसे में एक फिल्म देश के मौजूदा संकट को मुख्यधारा के करीब लाती है. लेकिन अब तक किसानों को सरकार की ठोस पहल का इंतजार है और फिल्म को दर्शकों के जरिए प्रचार का. यह फिल्म पूरे देश में नहीं दिखायी जा सकी है और बाहर भी कुल 338 शोज ही हुए.

पी साईनाथ का एक लेख विदर्भ में स्वास्थ्य सेवाओं की गिरावट को बयान करता है. इसी लेख से प्रभावित होकर ब्रजेश जयराजन ने एक कहानी लिखी जिसे निर्देशक सुहैल तातारी और निर्माता अतुल पांडेय ने रूपहले परदे पर साकार किया. इसमें पांच डॉक्टर बने हैं सिंकदर, गुल, पनाग, युविका चैधरी, अर्जुन बाबा और अलेख सेंगल. इसके अलावा विक्रम गोखले, सचिन खेडेकर, आशुतोष राणा, स्वेता मेनन और नीतू चंद्रा ने भी सहज भूमिकाएं निभायी हैं.

पटकथा में विदर्भ का संकट बड़ी खबर बनने से असमंजस, अविश्वास और निराशाएं पनपती हैं. इसलिए मेडिकल छात्रों को अनिवार्य तौर से गांवों में भेजने की बातें चलती है . इन बातों से बेपरवाह पांच दोस्तों का एक ग्रुप है. यह लाखों रूपए देकर मेडिकल की पढ़ाई पूरी करते हैं. सभी अमीर घरों के होने से हर ऐशो-आराम भोग रहे हैं. इनकी जिदंगी की बड़ी उलझनों में प्यार, परीक्षा, गर्लफ्रेड, सेक्स और तकरार हैं. हरेक उलझन खुल-मिलकर रंगीन दुनिया भी बनाती हैं. पांचों हवाओं के रूख में बहे जा रहे हैं. इन्हें समाज के बदलाव से कोई लेना-देना नहीं. लेकिन कॉलेज के चुनाव में प्रकाश नाम का लीडर उन्हें पहली बार सच से रु-ब-रु कराता है. यह लीडर उन्हें चुनाव के लिए उकसाता है. पोलिटिक्स से उकताकर यह पांचों दोस्त कैंपस छोड़ देते हैं. फिर सभी मूड बदलने के लिए एक गांव के ‘प्राइमरी हेल्थ सेंटर’ पहुंचते हैं.

लेकिन बदलाव का रास्ता यही से खुलता है. यहां आकर यह मेडिकल छात्र भारत की असली तस्वीर देखते हैं. उनके सामने घनघोर गरीबी में फंसा पूरा गांव है. यह पांचों दोस्त किसानों की आत्महत्या के मूक दर्शक भी बनते हैं. जिसे कभी नहीं सुना उसे होते देखना बेहद तकलीफ देता है. इससे उनके भीतर भय, दुख और शर्म पैदा होती है. कर्ज से डूबे किसानों का संसार उन्हें ‘मदर इण्डिया’ के रूपहले पर्दे जैसा ही रंगहीन नजर आता है. यहां की सामंती ताकतें नए रुप में हाजिर होती हैं.

ऐसे में स्वास्थ्य व्यवस्था संभालना और लोगों को जीवन की थकान से उभारना मुश्किल होता है. पांचों की अंदरूनी आवाजों ने मिलकर सवाल बनाने शुरू कर दिए. जो देश की तरक्की, गरीबों की आमदनी, आम जनता के हक और राजनैतिक उदासीनता से उभरे. कॉलेज से भागे इन दोस्तों का दिल किसानों की जंग से जुड़ गया. आखिरकार यह पांचों एक उबलते हुए बिन्दु पर पहुंच गए. जहां उन्हें हिंसक समाधान नजर आया.

दरअसल यह पूरी फिल्म अहिंसक समाधान की संभावनाएं ढ़ूढ़ती है. सभी किरदारों की प्रतिक्रियाएं अलग-अलग देखी गई. कभी उन्होंने हकीकत से समझौता करना चाहा, कभी उसे बदलना चाहा, कभी उनका दिल कड़वा हुआ, कभी प्यार से भर गया और कभी दुख से. दृश्यों के सहारे सामाजिक कोणों का स्वाभिक ताना-बाना बुना गया है. जहां कुछ भी रुखा और थोपा हुआ नहीं लगता.

जिस साल यह फिल्म बन रही थी उस साल 784 किसानों ने आत्महत्याएं की थी. प्रधानमंत्री द्वारा 40 अरब रूपए के पैकेज बावजूद यह आकड़ा 1648 तक पहुंच चुका था. तब भारत के ‘नियंत्रक और महालेखा परीक्षक’ की रिपोर्ट ने भी स्वीकारा था कि- ‘‘राहत योजनाओं को लागू करने में गंभीर खामियां हुई हैं.’’ फिल्म निर्माण के दौरान ही देश के कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा था कि- ‘‘आत्महत्याएं अब कम हो रही हैं.’’ लेकिन जिस रोज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आए उस रोज ही अकोला के राकेश बंसल सहित 5 किसानों ने आत्महत्याएं कर ली. "

मौजूदा हाल तो और भी बुरा है. बीते 5 महीनों में यावतमाल, बुलदाना, अकोला, अमरावत, वासीम और वर्धा जिले के 401 किसानों ने आत्महत्याएं की है. इसी प्रकार बीते 5 साल में यहां आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल तादाद 5157 है. ‘राष्ट्रीय सेमपल सर्वेक्षण’ के 59वें आकड़ों के मुताबिक- ‘‘यहां के किसान खेती पर खर्च करने के लिए 60 फीसदी कर्ज लेते है ’’ मतलब फसल खराब होने से समस्याएं और बढ़ जाती है."

20 साल पहले यहां 1 क्विंटल कपास 12 ग्राम सोने के बराबर होता था. आज 1 क्विंटल कपास के बदले सिर्फ 1750 रूपए का समर्थन मूल्य मिलता है. बीते दशक से खेती में रासायनिकों का प्रचलन बढ़ा और वह 6 गुना तक महँगी हुई लेकिन कपास की कीमतों में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई. उधर ‘विश्व व्यापार संगठन’ में हुए समझौते के कारण कपास पर आयात-शुल्क सिर्फ 10 फीसदी ही रह गया. अमेरिका में किसान की 1 किलो कपास की लागत करीब 1.70 डॉलर होती है. वहां की सरकार 1 किलो कपास पर 2 डालर की सब्सिडी भी देती है. इसलिए अमेरिका का किसान लागत से बेहद कम कीमत पर कपास निर्यात कर देता है. विदर्भ का किसान यही मात खा जाता है.

‘समर 2007’ जिन आकड़ों के साथ खत्म होती है उनमें भूमण्डलीकरण के खतरों का विश्लेषण तो नहीं लेकिन इशारा जरूर मिलता है. फिल्म कोई नया सवाल खड़ा नही करतीं. यह पुराने सवालों में ही असर पैदा करती है.

19.2.09

Playing Hangman


There's A Better Way To Pass T i m e
Put your fingers to better use by playing hangman and ensuring child rights at the same time

18.2.09

विवादों का विशालकाय सरोवर

शि‍रीष खरे
इन दिनों सरदार सरोवर परियोजना और डूब प्रभावितों के लिए किये जा रहे पुनर्वास कार्य में भ्रष्ट्राचार कुछ इस प्रकार व्याप्त है कि अनियमितताओं का सिलसिलेवार ब्यौरा जुटाना और उसके आधार पर लगातार कार्यवाहि‍यों की रणनीतियां तैयार करना कठिन हो चुका है. इस विशालकाय बांध की तरह ही इससे प्राप्त होनेवाले लाभों, लागतों और पुनर्वास संबंधित तमाम फर्जीवाड़ों की लम्बी सूचियां विवादों की मोटी गठरी बन चुकी है.
सरदार सरोवर परियोजना 1979 में शुरू हुई थी और यह साल 2025 में पूरी होगी. इससे लगभग दो लाख लोग विस्थापित होंगे. 1993 में विश्व बैंक ने इस परियोजना से अपना हाथ पीछे खींच लिया था. इसी साल “केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय” के विशेषज्ञ दल ने भी अपनी रिपोर्ट में बांध के काम के दौरान पर्यावरण की भारी अनदेखी और लापरवाही पर सभी का ध्‍यान खींचा था. अनेक पर्यावरणविदों की राय में यह योजना पर्यावरण के प्रतिकूल है. इतने बड़े पैमाने पर काम होगा तो पर्यावरण के साथ खिलवाड़ भी उसी अनुपात में होना है. इसके बावजूद कुल 1200 किलोमीटर लंबी नर्मदा पर 3200 बाँध बनाना भी तय हुआ है. मतलब नर्मदा की घाटी में असंतुलित विकास, विस्थापन और अनियमतताओं का अतीत खत्म नहीं होने दिया जाएगा.
लाभ और लागत‘नर्मदा बचाओं आंदोलन’ ने समाज में विकास की परिभाषा और उसके मापदण्डों पर लगातार विचार करने की प्रक्रिया को प्राथमिकता दी है. इसी तर्क को आधार मानकर परियोजना के कुल लाभ और हानियों का हमेशा आकलन चलता रहा है. हर बार यह लागत बढ़ती जा रही है. सरकार के अनुसार पूरी लागत गुजरात के सिंचाई बजट का 80 प्रतिशत हिस्सा है. लेकिन इससे कच्छ के लगभग 2 प्रतिशत और सौराष्ट्र के 9 प्रतिशत भाग में ही पानी पहुंचाया जा सकेगा. मेधा पाटकर के अनुसार- “विगत 20 सालों में यह परियोजना 4200 हजार करोड़ से बढ़कर 4500 हजार करोड़ हो चुकी है. इसमें से अब तक 25 हजार करोड़ खर्च हो भी चुके हैं. अनुमान है कि आने वाले समय में यह लागत 70 हजार करोड़ तक पहुंचेगी. इसके बावजूद अकेले गुजरात में ही पानी का लाभ 10 प्रतिशत से भी कम हासिल है. महाराष्ट्र और राजस्थान को मिलने वाला लाभ नजर नहीं आता जबकि मध्यप्रदेश को भी अनुमान से कम बिजली मिलने वाली है.” कुछ तकनी‍की विशेषज्ञों का मानना है कि अगर इस पूरी योजना को वैकल्पिक तरीक़े से लागू किया जाए और इसे छोटी-छोटी, आत्मनिर्भर तथा पर्यावरण के अनुकूल परियोजनाओं में बांट दिया जाए तो ज़्यादा लाभ हो सकता है.
विस्थापन यहां के आदिवासी लोगों की प्रमुख मांग जमीन के बदले जमीन की है. परंतु सरकार जमीन जुटाने में अपनी असमर्थता व्यक्त करती रही है. कुछ लोगों को पुनर्वास की जो जमीन दी गई है उनमें से ज्यादातर की शिकायत है कि वह जमीन उनकी असली जमीन से कम उपजाउ है. काम की जमीन को पानी में डूबोकर बदले में उन्हें बेकार जमीन दी जा रहीं है. जमीन बिखरे टुकड़ों में दी जा रही है. बहुत बड़ी तादाद में पुनर्वासित लोगों का कहना है कि आज नर्मदा की नहर उनकी दी गई ज़मीन से निकल रही है पर उन्हें ही नर्मदा के पानी से वंचित रखा जा रहा है. पुनर्वास कार्य में अनियमतताओं के गंभीर आरोप बढ़ते ही जाते हैं. उधर ‘नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण’ द्वारा जारी एक विज्ञप्ति में कहा गया कि ‍‍‍सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित परिवारों के पुनर्वास कार्य में कथित अनियमितताओं के आरोप गलत हैं. तथ्य यह है कि- “वि‍गत वर्ष मानसून सत्र के दौरान परियोजना प्रभावितों के लिए विक‍‍‍‍सित 88 पुनर्वास स्थलों में 22438 परिवारों को निशुल्क भूखण्डव आंवटित किये गए. जो परिवार भूखण्ड लेना नहीं चाहतें, उन्हें 50 हजार नकद राशि देने का विकल्प रखा गया और 806 परिवारों ने स्वेच्छा से नकद राशि लेने का विकल्प चुना.” लेकिन सरकार के भीतर ही एनवीडीए की कार्यप्रणाली को लेकर अंतर्विरोध के स्वर उभरते रहे हैं. वि‍गत वर्ष मानसून सत्र के दौरान मुख्य सचिव द्वारा नि‍र्माण विभागों की मानिटरिंग के दौरान एनवीडीए अधिकारियों की जमकर क्लास लेने की खबर अखबारों की प्रमुख सुर्खी बनी थी. तब श्री साहनी ने कहा कि "बार-बार निर्देश के बावजूद एनवीडीए में न तो पैसों का सही उपयोग हो पा रहा है और न ही समय सीमा में कार्य हो पा रहा है. बड़े अधि‍कारी स्थल पर जाकर कामकाज की सही समीक्षा करें."
भ्रष्टाचार ‘नर्मदा बचाओं आंदोलन' वैकल्पिक वनीकरण, जल संरक्षण क्षेत्र विकास और पुनर्वास योजनाओं से संबंधित सरकारी दावों और आकड़ो को झूठा तथा विरोधाभाषी बताता है और कहता है कि इसके जवाब में हम मैदानी और कानूनी लड़ाई जारी रखेंगे। आंदोलन पुनर्वास कार्य में राहत और विस्थापन सहित कई क्षतिपूर्ति योजनाओं में भारी भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं. ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन, बड़वानी’ से मिली जानकारी के अनुसार प्रदेश सरकार ने 13 जिलों के कलेक्टबर और भू-अधिग्रहण अधिकारी को उनके यहां हुईं रजिस्‍ट्रियों की जांच करने के लिए कहा है. कुल 4190 रजिस्ट्रियों में से 2818 रजिस्ट्रियों की जांच की गई, जिनमें से अभी तक कुल 758 फर्जी रजिस्ट्रियों की बात सरकार मान चुकी है मगर आंदोलन के मुताबिक दुर्भाग्य से यह संख्या् उससे कहीं अधिक है. ‘नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण’ के अधिकारियों द्वारा जहां अनेक बैठकों में फर्जी रजिस्ट्री जांच में किसी प्रकार की आंच न आने की बात दोहराई जा रही है वहीं कुछ लोगों का मत है कि मौजूदा अधिकारियों के होते हुए निष्पैक्ष जांच संभव ही नहीं है। आंदोलन के कार्यकर्ता आशीष मंडलोई बताते हैं कि- "एनवीडीए के अधिकारियों द्वारा दोषी अधिकारियों को बचाने और महज विस्थापितों के फसाने का खेल चल रहा है। इस संबंध में जब प्रकरण न्यायालय में है तो ऐसे में निर्णय न्यायालय को लेना है, अधिकारि‍यों द्वारा निर्णय लेना अवैध ही माना जाएगा." उन्होंने इस पूरे प्रकरण पर सीबीआई जांच की मांग की है.

8.2.09

खबर नहीं बना विस्फोट



शिरीष खरे



26 जनवरी के 2 दिनों बाद मतलब 28 तारीख की दोपहर एक विस्फोट से बीड़ जिले का नेकनूर गांव दहल गया. वैसे तो इससे पूरा राष्ट्र और महाराष्ट्र दहलना चाहिए था लेकिन ऐसा हुआ नहीं. यह हादसा किसी आतंकवादी संगठन की साजिश नहीं बल्कि पटाखा फेक्ट्री मालिक की लापरवाही से हुआ. रात 10 बजते-बजते 10 जाने चली. तब तक एक चौंकाने वाला तथ्य यह निकला कि मरने वालों में 5 दलित और 2 मुस्लिम परिवारों के बाल मजदूर हैं. `चंदन फायर वक्र्स एण्ड माचिस फेक्ट्री´ नाम की इस फेक्ट्री के मालिक शेख सलीम और शेख नूर हैं.
इस धमाके से चारों तरफ आग फैल गई जिसमें 35 मजदूर झुलस गए. रिपोर्ट लिखे जाने तक कई मजदूरों की हालत गंभीर बनी हुई थी. इस हादसे के 96 घण्टे गुजरने के बावजूद जब प्रशासनिक उदासीनता बरकरार रही तो महाराश्ट्र के `बाल हक अभियान´ से जुड़े संगठनों ने मुख्यमंत्री अशोक राव चौहान को ज्ञापन लिखकर कड़ी प्रतिक्रया जतायी. इन्होंने फेक्ट्री कारखाने के मालिकों सहित जिम्मेदार अधिकारियों पर तुरंत कार्यवाही करने, मृतक बच्चे के परिवार को 5 लाख तथा घायलों को 1 लाख रूपए देने और ऐसी फैक्ट्रियों पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी की है. `चाईल्ड राईटस एण्ड यू´ से सुधीर सुधल के मुताबिक- ``यह हादसा बताता है कि बाल मजदूरी के पीछे गरीबी और बेकारी किस तरह से काम कर रही हैं. साथ ही बाल मजदूरी पर सरकार और जिलाधिकारियों की सजगता की भी पोल घुलती है.´´ संस्था मानती है कि जब तक ऐसे बच्चों के परिवारों को रोजगार और आर्थिक स्थिरता नहीं मिलती तब तक यह समस्या खत्म नहीं होगी. इसलिए उपयोगी और आजीविका पर आधारित शिक्षा व्यवस्था पर जोर दिया जाए. इसके अलावा बाल-श्रम कानून, 1986´ के तहत बाल मजदूरों की कुल संख्या का सिर्फ 15 फीसदी हिस्सा ही लिया जाता है. इसलिए सभी उद्योगों में बाल मजदूरी पर रोक लगाना जरूरी है.
संस्था के विभिन्न शोध बताते हैं कि पूरी दुनिया में 24.6 करोड़ बाल मजदूर हैं जिसमें से सबसे ज्यादा 1.7 करोड भारत में ही हैं. इसमें से 10 फीसदी घेरलू और 85 फीसदी अंसगठित क्षेत्रों से हैं. बहुत सारे बच्चे खेत, खदान और पत्थरों का काम करते हैं. `अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन´ की रिपार्ट में देश भर के करीब 71 फीसदी बाल मजदूर स्कूल नहीं जाते. सबसे ज्यादा बाल मजदूर आंध्र-प्रदेश (14.5 फीसदी) में हैं. इस हिसाब से महाराष्ट्र का नम्बर चौथा (9.5 फीसदी) है. कहते हैं देश का सच्चा धन बैंको में नही बल्कि स्कूलों में होता हैं लेकिन शिक्षा और रोजगार की अनियमितताओं से कानून भी बेअसर हो जाते हैं. संविधान की `धारा-24´ में 14 साल से छोटे बच्चों को फैक्ट्री या खदान के कामों की मनाही है. वह अन्य खतरनाक कामों में भी शामिल नहीं हो सकते. `धारा-39 ई´ के अनुसार राज्य अपनी नीतियां इस तरह बनाए कि बच्चों का शोशण न हो पाए. `धारा-39 एफ´ बच्चों को नैतिक और भौतिक दुरूपयोग से बचाता है.
`फैक्ट्री कानून-48´ के मुताबिक 15 से 18 साल तक के किशोर किसी फेक्ट्री में तभी काम कर सकते हैं जब उन्हें मेडीकल-फिटनेस प्राप्त हो. यह कानून 14 से 18 साल के बच्चों को सिर्फ 4 घण्टे काम कराने की इजाजत देता है. 1986 के `बाल-श्रम कानून´ ने पटाखा, बीड़ी, कालीन, सीमेंट, कपड़ा, छपाई, दियासलाई, चमड़ा, साबुन और भवन निर्माण से जुड़ी फैक्ट्रियों में बच्चों के काम करने को खतरनाक माना. 1996 को सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को खतरनाक पेशों में लिप्त बच्चों की पहचान करने, उन्हें काम से हटाने और बेहतर शिक्षा देने के निर्देश दिए थे. 2006 को कानून में 14 साल से कम उम्र के बच्चों को घर, होटल या मंनोरंजन केन्द्रों तक में काम करने पर रोक लगा दी गई. साथ ही कानून न मानने वालों पर 3-10 महीने की जेल या 10-20 हजार रूपए जुर्माने का प्रावधान भी रखा. जाहिर है 1938 से अब तक बाल-श्रम कानून को कई तरह से जांचा-परखा और बदला गया. फिर भी संवैधानिक कानून और अदालती आदेशों की धज्जियां ही उड़ाई जाती रही.
बाल मजदूरों के विकास के लिए सरकारी बजट का मामूली हिस्सा ही खर्च होता है। इस दिशा में मार्च 2008 को मात्र 156 करोड़ रूपए आंवटित किए। जो पिछले साल के मुकाबले महज 3 करोड़ ही ज्यादा है. इस तरह एक बाल मजदूर को मात्र 10 रूपए महीना मिलेगा. यह रकम देश के 250 जिलों में चल रही करीब 9 हजार परियोजनाओं के लिए होगी. इसमें 9-14 साल तक के 4.5 लाख बच्चे हैं. ऐसे बच्चों के लिए श्रम मंत्रालय आवासीय स्कूल योजना बनाना चाहता है जो फिलहाल ठंडे बस्ते में है. हमारे तंत्र में बच्चों की जिम्मेदारी की ठीक-ठाक रूपरेखा तक नहीं. 6 साल तक के बच्चे `महिला एवं बाल विकास´ की जिम्मेदारी हैं. 6-14 साल तक के बच्चे 'शिक्षा विभाग´ के हवाले हैं. लेकिन 14-18 साल तक के बच्चों का रखवाला कोई नहीं. इसलिए ऐसे हादसों के बाद विभिन्न विभाग हालातों का सही जायजा लेने की बजाय एक-दूसरे की तरफ देखते हैं. नेकनूर गांव का विस्फोट ने यह भी बताया कि सस्ती मजदूरी से बाल-मजदूरी को बढ़ावा मिलता है. इस फेक्ट्री के मालिक अधिक काम के बदले बच्चों को कम पैसे देते थे. इस तरह वह अधिक काम का अतिरिक्त वेतन देने से भी बच जाते थे. देखा जाए तो 14 साल तक के बच्चों को 8 घण्टे के बदले अधिकतम 40 रूपए की ही मजदूरी मिल पाती है. इससे कई बच्चे 14 की उम्र तक आते-आते बीमार हो जाते हैं. सबसे ज्यादा बाल-मजदूर 12-15 साल के होते हैं. मतलब देश के भविश्य को समय से पहले ही बूढ़ा बनाया जा रहा है.