एक तरफ बिजली से रोशन शहर का भारत है दूसरी तरफ खेती के खस्ताहाल से ढ़का देहाती भारत है. एक भारत को दूसरे भारत के बारे में कम ही पता है. फिल्म ‘समर 2007’ शहर और देहात के बीच की इसी खाई को भरने का काम करती है. यह पांच डॉक्टरों को विदर्भ में किसानों की समस्याओं से जोड़ती है.
इन दिनों बालीबुड से गांव गायब हो गए हैं. ऐसे में एक फिल्म देश के मौजूदा संकट को मुख्यधारा के करीब लाती है. लेकिन अब तक किसानों को सरकार की ठोस पहल का इंतजार है और फिल्म को दर्शकों के जरिए प्रचार का. यह फिल्म पूरे देश में नहीं दिखायी जा सकी है और बाहर भी कुल 338 शोज ही हुए.
पी साईनाथ का एक लेख विदर्भ में स्वास्थ्य सेवाओं की गिरावट को बयान करता है. इसी लेख से प्रभावित होकर ब्रजेश जयराजन ने एक कहानी लिखी जिसे निर्देशक सुहैल तातारी और निर्माता अतुल पांडेय ने रूपहले परदे पर साकार किया. इसमें पांच डॉक्टर बने हैं सिंकदर, गुल, पनाग, युविका चैधरी, अर्जुन बाबा और अलेख सेंगल. इसके अलावा विक्रम गोखले, सचिन खेडेकर, आशुतोष राणा, स्वेता मेनन और नीतू चंद्रा ने भी सहज भूमिकाएं निभायी हैं.
पटकथा में विदर्भ का संकट बड़ी खबर बनने से असमंजस, अविश्वास और निराशाएं पनपती हैं. इसलिए मेडिकल छात्रों को अनिवार्य तौर से गांवों में भेजने की बातें चलती है . इन बातों से बेपरवाह पांच दोस्तों का एक ग्रुप है. यह लाखों रूपए देकर मेडिकल की पढ़ाई पूरी करते हैं. सभी अमीर घरों के होने से हर ऐशो-आराम भोग रहे हैं. इनकी जिदंगी की बड़ी उलझनों में प्यार, परीक्षा, गर्लफ्रेड, सेक्स और तकरार हैं. हरेक उलझन खुल-मिलकर रंगीन दुनिया भी बनाती हैं. पांचों हवाओं के रूख में बहे जा रहे हैं. इन्हें समाज के बदलाव से कोई लेना-देना नहीं. लेकिन कॉलेज के चुनाव में प्रकाश नाम का लीडर उन्हें पहली बार सच से रु-ब-रु कराता है. यह लीडर उन्हें चुनाव के लिए उकसाता है. पोलिटिक्स से उकताकर यह पांचों दोस्त कैंपस छोड़ देते हैं. फिर सभी मूड बदलने के लिए एक गांव के ‘प्राइमरी हेल्थ सेंटर’ पहुंचते हैं.
लेकिन बदलाव का रास्ता यही से खुलता है. यहां आकर यह मेडिकल छात्र भारत की असली तस्वीर देखते हैं. उनके सामने घनघोर गरीबी में फंसा पूरा गांव है. यह पांचों दोस्त किसानों की आत्महत्या के मूक दर्शक भी बनते हैं. जिसे कभी नहीं सुना उसे होते देखना बेहद तकलीफ देता है. इससे उनके भीतर भय, दुख और शर्म पैदा होती है. कर्ज से डूबे किसानों का संसार उन्हें ‘मदर इण्डिया’ के रूपहले पर्दे जैसा ही रंगहीन नजर आता है. यहां की सामंती ताकतें नए रुप में हाजिर होती हैं.
ऐसे में स्वास्थ्य व्यवस्था संभालना और लोगों को जीवन की थकान से उभारना मुश्किल होता है. पांचों की अंदरूनी आवाजों ने मिलकर सवाल बनाने शुरू कर दिए. जो देश की तरक्की, गरीबों की आमदनी, आम जनता के हक और राजनैतिक उदासीनता से उभरे. कॉलेज से भागे इन दोस्तों का दिल किसानों की जंग से जुड़ गया. आखिरकार यह पांचों एक उबलते हुए बिन्दु पर पहुंच गए. जहां उन्हें हिंसक समाधान नजर आया.
दरअसल यह पूरी फिल्म अहिंसक समाधान की संभावनाएं ढ़ूढ़ती है. सभी किरदारों की प्रतिक्रियाएं अलग-अलग देखी गई. कभी उन्होंने हकीकत से समझौता करना चाहा, कभी उसे बदलना चाहा, कभी उनका दिल कड़वा हुआ, कभी प्यार से भर गया और कभी दुख से. दृश्यों के सहारे सामाजिक कोणों का स्वाभिक ताना-बाना बुना गया है. जहां कुछ भी रुखा और थोपा हुआ नहीं लगता.
जिस साल यह फिल्म बन रही थी उस साल 784 किसानों ने आत्महत्याएं की थी. प्रधानमंत्री द्वारा 40 अरब रूपए के पैकेज बावजूद यह आकड़ा 1648 तक पहुंच चुका था. तब भारत के ‘नियंत्रक और महालेखा परीक्षक’ की रिपोर्ट ने भी स्वीकारा था कि- ‘‘राहत योजनाओं को लागू करने में गंभीर खामियां हुई हैं.’’ फिल्म निर्माण के दौरान ही देश के कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा था कि- ‘‘आत्महत्याएं अब कम हो रही हैं.’’ लेकिन जिस रोज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आए उस रोज ही अकोला के राकेश बंसल सहित 5 किसानों ने आत्महत्याएं कर ली. "
मौजूदा हाल तो और भी बुरा है. बीते 5 महीनों में यावतमाल, बुलदाना, अकोला, अमरावत, वासीम और वर्धा जिले के 401 किसानों ने आत्महत्याएं की है. इसी प्रकार बीते 5 साल में यहां आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल तादाद 5157 है. ‘राष्ट्रीय सेमपल सर्वेक्षण’ के 59वें आकड़ों के मुताबिक- ‘‘यहां के किसान खेती पर खर्च करने के लिए 60 फीसदी कर्ज लेते है ’’ मतलब फसल खराब होने से समस्याएं और बढ़ जाती है."
20 साल पहले यहां 1 क्विंटल कपास 12 ग्राम सोने के बराबर होता था. आज 1 क्विंटल कपास के बदले सिर्फ 1750 रूपए का समर्थन मूल्य मिलता है. बीते दशक से खेती में रासायनिकों का प्रचलन बढ़ा और वह 6 गुना तक महँगी हुई लेकिन कपास की कीमतों में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई. उधर ‘विश्व व्यापार संगठन’ में हुए समझौते के कारण कपास पर आयात-शुल्क सिर्फ 10 फीसदी ही रह गया. अमेरिका में किसान की 1 किलो कपास की लागत करीब 1.70 डॉलर होती है. वहां की सरकार 1 किलो कपास पर 2 डालर की सब्सिडी भी देती है. इसलिए अमेरिका का किसान लागत से बेहद कम कीमत पर कपास निर्यात कर देता है. विदर्भ का किसान यही मात खा जाता है.
‘समर 2007’ जिन आकड़ों के साथ खत्म होती है उनमें भूमण्डलीकरण के खतरों का विश्लेषण तो नहीं लेकिन इशारा जरूर मिलता है. फिल्म कोई नया सवाल खड़ा नही करतीं. यह पुराने सवालों में ही असर पैदा करती है.
इन दिनों बालीबुड से गांव गायब हो गए हैं. ऐसे में एक फिल्म देश के मौजूदा संकट को मुख्यधारा के करीब लाती है. लेकिन अब तक किसानों को सरकार की ठोस पहल का इंतजार है और फिल्म को दर्शकों के जरिए प्रचार का. यह फिल्म पूरे देश में नहीं दिखायी जा सकी है और बाहर भी कुल 338 शोज ही हुए.
पी साईनाथ का एक लेख विदर्भ में स्वास्थ्य सेवाओं की गिरावट को बयान करता है. इसी लेख से प्रभावित होकर ब्रजेश जयराजन ने एक कहानी लिखी जिसे निर्देशक सुहैल तातारी और निर्माता अतुल पांडेय ने रूपहले परदे पर साकार किया. इसमें पांच डॉक्टर बने हैं सिंकदर, गुल, पनाग, युविका चैधरी, अर्जुन बाबा और अलेख सेंगल. इसके अलावा विक्रम गोखले, सचिन खेडेकर, आशुतोष राणा, स्वेता मेनन और नीतू चंद्रा ने भी सहज भूमिकाएं निभायी हैं.
पटकथा में विदर्भ का संकट बड़ी खबर बनने से असमंजस, अविश्वास और निराशाएं पनपती हैं. इसलिए मेडिकल छात्रों को अनिवार्य तौर से गांवों में भेजने की बातें चलती है . इन बातों से बेपरवाह पांच दोस्तों का एक ग्रुप है. यह लाखों रूपए देकर मेडिकल की पढ़ाई पूरी करते हैं. सभी अमीर घरों के होने से हर ऐशो-आराम भोग रहे हैं. इनकी जिदंगी की बड़ी उलझनों में प्यार, परीक्षा, गर्लफ्रेड, सेक्स और तकरार हैं. हरेक उलझन खुल-मिलकर रंगीन दुनिया भी बनाती हैं. पांचों हवाओं के रूख में बहे जा रहे हैं. इन्हें समाज के बदलाव से कोई लेना-देना नहीं. लेकिन कॉलेज के चुनाव में प्रकाश नाम का लीडर उन्हें पहली बार सच से रु-ब-रु कराता है. यह लीडर उन्हें चुनाव के लिए उकसाता है. पोलिटिक्स से उकताकर यह पांचों दोस्त कैंपस छोड़ देते हैं. फिर सभी मूड बदलने के लिए एक गांव के ‘प्राइमरी हेल्थ सेंटर’ पहुंचते हैं.
लेकिन बदलाव का रास्ता यही से खुलता है. यहां आकर यह मेडिकल छात्र भारत की असली तस्वीर देखते हैं. उनके सामने घनघोर गरीबी में फंसा पूरा गांव है. यह पांचों दोस्त किसानों की आत्महत्या के मूक दर्शक भी बनते हैं. जिसे कभी नहीं सुना उसे होते देखना बेहद तकलीफ देता है. इससे उनके भीतर भय, दुख और शर्म पैदा होती है. कर्ज से डूबे किसानों का संसार उन्हें ‘मदर इण्डिया’ के रूपहले पर्दे जैसा ही रंगहीन नजर आता है. यहां की सामंती ताकतें नए रुप में हाजिर होती हैं.
ऐसे में स्वास्थ्य व्यवस्था संभालना और लोगों को जीवन की थकान से उभारना मुश्किल होता है. पांचों की अंदरूनी आवाजों ने मिलकर सवाल बनाने शुरू कर दिए. जो देश की तरक्की, गरीबों की आमदनी, आम जनता के हक और राजनैतिक उदासीनता से उभरे. कॉलेज से भागे इन दोस्तों का दिल किसानों की जंग से जुड़ गया. आखिरकार यह पांचों एक उबलते हुए बिन्दु पर पहुंच गए. जहां उन्हें हिंसक समाधान नजर आया.
दरअसल यह पूरी फिल्म अहिंसक समाधान की संभावनाएं ढ़ूढ़ती है. सभी किरदारों की प्रतिक्रियाएं अलग-अलग देखी गई. कभी उन्होंने हकीकत से समझौता करना चाहा, कभी उसे बदलना चाहा, कभी उनका दिल कड़वा हुआ, कभी प्यार से भर गया और कभी दुख से. दृश्यों के सहारे सामाजिक कोणों का स्वाभिक ताना-बाना बुना गया है. जहां कुछ भी रुखा और थोपा हुआ नहीं लगता.
जिस साल यह फिल्म बन रही थी उस साल 784 किसानों ने आत्महत्याएं की थी. प्रधानमंत्री द्वारा 40 अरब रूपए के पैकेज बावजूद यह आकड़ा 1648 तक पहुंच चुका था. तब भारत के ‘नियंत्रक और महालेखा परीक्षक’ की रिपोर्ट ने भी स्वीकारा था कि- ‘‘राहत योजनाओं को लागू करने में गंभीर खामियां हुई हैं.’’ फिल्म निर्माण के दौरान ही देश के कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा था कि- ‘‘आत्महत्याएं अब कम हो रही हैं.’’ लेकिन जिस रोज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आए उस रोज ही अकोला के राकेश बंसल सहित 5 किसानों ने आत्महत्याएं कर ली. "
मौजूदा हाल तो और भी बुरा है. बीते 5 महीनों में यावतमाल, बुलदाना, अकोला, अमरावत, वासीम और वर्धा जिले के 401 किसानों ने आत्महत्याएं की है. इसी प्रकार बीते 5 साल में यहां आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल तादाद 5157 है. ‘राष्ट्रीय सेमपल सर्वेक्षण’ के 59वें आकड़ों के मुताबिक- ‘‘यहां के किसान खेती पर खर्च करने के लिए 60 फीसदी कर्ज लेते है ’’ मतलब फसल खराब होने से समस्याएं और बढ़ जाती है."
20 साल पहले यहां 1 क्विंटल कपास 12 ग्राम सोने के बराबर होता था. आज 1 क्विंटल कपास के बदले सिर्फ 1750 रूपए का समर्थन मूल्य मिलता है. बीते दशक से खेती में रासायनिकों का प्रचलन बढ़ा और वह 6 गुना तक महँगी हुई लेकिन कपास की कीमतों में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई. उधर ‘विश्व व्यापार संगठन’ में हुए समझौते के कारण कपास पर आयात-शुल्क सिर्फ 10 फीसदी ही रह गया. अमेरिका में किसान की 1 किलो कपास की लागत करीब 1.70 डॉलर होती है. वहां की सरकार 1 किलो कपास पर 2 डालर की सब्सिडी भी देती है. इसलिए अमेरिका का किसान लागत से बेहद कम कीमत पर कपास निर्यात कर देता है. विदर्भ का किसान यही मात खा जाता है.
‘समर 2007’ जिन आकड़ों के साथ खत्म होती है उनमें भूमण्डलीकरण के खतरों का विश्लेषण तो नहीं लेकिन इशारा जरूर मिलता है. फिल्म कोई नया सवाल खड़ा नही करतीं. यह पुराने सवालों में ही असर पैदा करती है.
4 टिप्पणियां:
Nice review. I read it. There is a bollywood movie coming up in which Amir khan is going to act whci is about farmer suicides. So may be gaav is again going to be in the limelight.
But I agree with you. Even in malayalam movies villages are no more shown.
vidarbh ke kisanon ki samasyaayen naie naheen hain. naie samasya ye hai ki vahan aatmhatyaaon ka silsila samaapt nahin ho raha hai.vahaan ke kisaan kabtak aatmhatyaaen karte rahengwe? kya film mayn koi sujhaav diya gaya hai? film dekh kar hi tippadi ki ja sakti hai.phir bhi, is vishai par film banane ke liye badhai.
achchha lekh hai. mujhe is film ke baare mepata nahi tha. aankde kaam ke hain.
किसानों की आत्महत्या का सवाल बहुत गंभीर है. सरकारी आंकड़े कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में भी बड़ी संख्या में किसान खुदकुशी कर रहे हैं. उम्मीद है समर 2007 फिल्म लोगों को जागरूक करेगी और किसानों की समस्याओं पर ध्यान देने की दिशा में कुछ जरूरी कदम उठाये जाएंगे. आलेख बहुत अच्छा लगा.
www.sarokaar.blogspot.com
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