शिरीष खरे
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महाराष्ट्र का विदर्भ किसानों की आत्महत्या के चलते जाना जाता है. मगर यहां सतपुड़ा पर्वतमाला की मेलघाट पहाडि़यों के भीतर छोटे बच्चों की मौत के आंकड़े पहाडि़यों से भी ऊंचे होते जा रहे हैं. अमरावती जिले के इस भाग पर साल दर साल कोरकू जनजाति के हजारों बच्चे असमय काल के गाल में समाते जा रहे हैं.
1991 को मेलघाट पहली बार कुपोषण से बच्चों की मौत को लेकर चर्चा में आया था. यही वह समय था जब देश की मौजूदा राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल यहां से संसद में पहुंची थीं. 1991 से अब तक महाराष्ट्र सरकार से प्राप्त आकड़ों के मुताबिक यहां कुल 11 हजार 751 बच्चों की मौत हो चुकी है. इनमें 70 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हुए. 1993 से अब तक उच्च न्यायालय ने यहां कुपोषण से बच्चों की मौतों को रोकने के लिए कई निर्देश जारी किए. सरकार ने भी अरबों रू खर्च किए. मगर नौनिहालों का असमय खर्च होना नहीं रूका.
बीते छह सालों में यहां छह साल तक के बच्चों की मौत के सरकारी आकड़ों से समस्या की विकरालता का अनुमान लगता है. 2005-06 में यहां बच्चों की मौत का आकड़ा था 504. 2006-07 में यह 490 पर अटका. हालांकि 2007-08 में यह 447 तक आया. मगर 2008-09 में यह बढ़कर 467 पर चला गया. 2009-10 में यह और बढ़ा और 500 तक जा पहुंचा. और अब 2010-11 में यह पांच सालों का रिकार्ड तोड़ते हुए 509 तक जा पहुंचा है. जाहिर है कि मेलघाट में बच्चों की मौत का सिलसिला शर्मनाक तरीके से बढ़ता ही जा रहा है. यह सिलसिला हर साल 500 से अधिक बच्चों की मौत का आकड़ा पार करना चाहता है. बीते 20 सालों का रिकार्ड देखा जाए तो 2007-08 में यहां कुपोषण ने सबसे कम 447 तो 1996-97 में सबसे अधिक 1,050 बच्चों को खाया था. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के हवाले से यहां प्रति हजार जीवित शिशुओं के मुकाबले मृत शिशुओं की संख्या 60 है. यह राष्ट्रीय शिुशु मृत्यु-दर 47 और महाराष्ट्र की शिुशु मृत्यु-दर 28 के मुकाबले बहुत अधिक है. फिलहाल महाराष्ट्र बाल विकास परियोजना की रिपोर्ट बताती है कि मेलघाट में 4,472 बच्चे गंभीर रुप से कुपोषित हैं और यह सभी मौत की कगार पर हैं.
समुद्रतल से 1,118 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मेलघाट अमीर महाराष्ट्र का अत्यंत गरीबी में डूबा इलाका है. 2 लाख 19 हजार हेक्टेयर में फैला यह इलाका मुंबई से चार गुना बड़ा है. मगर विकास के सभी सूचकों के मामले में यह महाराष्ट्र के बाकी इलाकों से सैकड़ों साल पीछे है. कुल 320 गांवों की 3 लाख से अधिक आबादी का आधे से अधिक भाग यहां गरीबी रेखा के नीचे है. मेलघाट पहाडि़यों का 73 प्रतिशत भाग जंगलों से ढका हुआ है. यानी यहां सिर्फ 27 प्रतिशत पथरीली जमीन पर खेती होती है और यह खेती भी मानसून की मेहरबानी पर है. इसलिए हजारों लोगों को साल के छह महीने के लिए मैदानों की ओर पलायन करना पड़ता है. इसीलिए काम के हिसाब से यहां साल को दो भागों में बांटा गया है. एक तो दीवाली से बारिश होने से पहले तक और दूसरा बारिश से दीवाली तक. मगर बारिश का समय सबसे अधिक मुश्किलों से भरा होता है. तब लोग काम पर नहीं निकल पाते और घरों में भोजन का अकाल पड़ जाता है. लिहाजा बारिश में कुपोषण महामारी का रुप धर लेता है. यही वजह है कि हर साल ज्यों ही मानसून के बादल छाते हैं त्यों ही मेलघाट में सनसनीखेज मौतों का मौसम शुरू हो जाता है. बीती मई से अगस्त के बीच भी आधिकारिक तौर पर यहां 266 बच्चों की मौत की पुष्टि हुई थी. इन्हीं महीनों में ही जब यहां खंडू नदी उफान भरती है और खुटिदा सहित आसपास के कई गांवों को तीन ओर से घेर लेती है तब मेलघाट निवासियों के सामने अपने बच्चों को बचाने के लिए दो रास्ते बचते हैं. या तो वह उसे लेकर 20 से 25 किमी दूर मध्यप्रदेश के मोहरा कस्बे के निजी अस्पताल में जाएं या चुपचाप सबकुछ समय की मर्जी पर छोड़ दें. मगर मेलघाट में बच्चों की मौतों की बला अकेले बादलों के सिर नहीं बांधी जा सकती बल्कि बाकी दिनों में भी यहां के बच्चे स्वास्थ्य की बीमार व्यवस्था की भेंट चढ़ते रहते हैं.
मेलघाट जैसे गरीब, विषम परिस्थितियों और ऊंट के आकार वाले इलाके के सामने अस्पतालों और उनमें कुल बिस्तरों की संख्या जीरे से भी कम है. यहां कुल 320 गांवों की 3 लाख से अधिक आबादी के लिए सिर्फ 11 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं और हर केंद्र पर तकरीबन 30 हजार लोगों का भार है. 1981 में एक लाख की आबादी के लिए यहां अस्पतालों के भीतर बिस्तर की संख्या थी 63. यह संख्या 1991 में बढ़ने की बजाय घटी और 62 हो गई. 2001 में यह घटते-घटते 56 तक जा पहुंची. और अब 2011 में एक लाख की आबादी के लिए यहां अस्पतालों के भीतर बिस्तरों की संख्या है 51.
मेलघाट में बारह महीने बच्चों की मौत का मेला लगा रहता है. बावजूद इसके यहां के सरकारी अस्पतालों में डाॅक्टरों का अभाव है. सामाजिक कार्यकर्ता डाॅ आशीष सातव बताते हैं कि मेलघाट जैसे आदिवासी अंचल में कोई अच्छा डाॅक्टर आना नहीं चाहता. सातव के मुताबिक, ‘मेलघाट जरुरी दवाओं, टीकों और ब्लड बैंक के अभावों से भी जूझ रहा है.’ कुछ दिनों पहले ही सलिता गांव की 32 वर्षीय दमयंती अपनी 2 साल की बच्ची को लेकर किसी तरह 15 किमी दूर हतरू प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंची थी. मगर यहां उसकी बच्ची इलाज की कोई व्यवस्था न होने के चलते मारी गई. बीपीएल कार्डधारी दमयंती का किस्सा भी मेलघाट की कई दूसरी महिलाओं से मेल खाता है. यह भी भूमिहीन और कर्ज में डूबे परिवार की महिला है. हतरू के सरपंच केंडे सावलकर की माने तो उनके सरकारी अस्पताल में सुविधा नाम की चीज नहीं और यहां से मरीजों को 110 किलोमीटर का दुर्गम रास्ता तय करके धारणी जाना पड़ता है. मगर यहां पहुंचकर भी उनकी मुसीबतों का अंत नहीं होता. स्थानीय पत्रकार संजय लावदे के मुताबिक, ‘धारणी के अस्पतालों में मशीनरी सुविधाएं तो हैं लेकिन इमरजेंसी के दौरान कर्मचारियों से उनकी खराबियों की खबरें मिलती हैं. कई बार उनके पास बिजली न होने जैसे बहाने हैं. ऐसे में अगर इमरजेंसी रुम के जेनेरेटर की याद दिलायी जाए तो वह उसमें डीजल न होने का रोना रोते हैं.’ अंततः यहां से भी कई गंभीर मामले जिला चिकित्सालय अमरावती भेजे जाते हैं.
दूसरी तरफ महाराष्ट्र की स्वास्थ्य मंत्री फौजिया खान मेलघाट में बच्चों की मौतों को आदिवासी समाज के पिछड़ेपन से जोड़कर देखती हैं. खान के मुताबिक, ‘मेलघाट में कुपोषण की समस्या को अकेले स्वास्थ्य विभाग के कंधों पर नहीं छोड़ा जा सकता. यहां विभिन्न विभागों के बीच समन्वयन की कमी भी एक बड़ा मामला है. मेलघाट का एक बड़ा भाग सड़कों की पहुंच से कोसों दूर है. इसलिए गांव-गांव तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाना आसान काम नहीं है. खान बताती हैं कि मेलघाट का विकास के मामले में पीछे होना कुपोषण की एक बड़ी वजह है. राज्य की स्वास्थ्य मंत्री का यह बयान यहां राज्य सरकार के विकास के दावों की हवा निकाल देता है. मानव विकास सूचकांक पर यह इलाका राज्य के सबसे निचले पायदान पर है. यहां जन वितरण प्रणाली और रोजगार गारंटी योजना से भी कुछ हासिल नहीं हो पाया है. जबकि अतिरिक्त जिला आयुक्त जीपी गरड की राय में मेलघाट को लेकर मीडिया भटक गया है. उनकी सुने तो मेलघाट एक टाईगर रिजर्व एरिया है और इस हिल स्टेशन में देखने लायक बहुत कुछ है. मगर मीडिया कुपोषण के सिवाय कुछ और नहीं देखना चाहता. बकौल गरड ‘माना कि मेलघाट मे बड़े पैमाने पर कुपोषण है और स्वास्थ्य व्यवस्था का अभाव भी. मगर मेलघाट चौतरफा जंगल से घिरा हुआ भी है और यह कहना कि यहां खाने के लिए नहीं है तो सरासर गलत है.’ दूसरी तरफ कुछ जानकारों की राय में बीते तीन दशकों से मेलघाट टाइगर रिजर्व के नाम पर आदिवासियों को जंगल से काटा गया है. यहां टाइगर रिजर्व तो सुरक्षित हुआ है लेकिन भूख का संकट गहराता गया है. बीते 24 सालों से मेलघाट के दूर-दराज के इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं दे रहे डाॅ रवीन्द्र कोल्हे का मानना है कि यहां बेकारी के चलते गरीबी बुरी तरह छायी हुई है और लोगों के पास खाने के लिए अनाज का दाना तक नहीं. कुपोषित बच्चों के शरीर में बीमारियां जल्दी घर कर जाती हैं. मगर यह विडंबना ही है कि अगर उन्हें दवाई मिले भी तो उसे खाने से पहले उनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं.
महाराष्ट्र के 51वीं सालगिरह के जश्न में राजधानी मुंबई को भले ही रोशनी से नहाती हो लेकिन मेलघाट की वादियां भूख और अंधकार में डूबी हुई हैं. मेलघाट का मुंबई से कोई सीधा संपर्क नहीं है. मुंबई से इसकी दूरी पांच सौ किमी से अधिक है. इसी दूरी के चलते आम तौर पर मेलघाट को भुला दिया जाता है. वहीं मेलघाट को भूख की बड़ी काली हांडी बनाने के लिए हर राजनीतिक पार्टी जिम्मेदार है. यही वजह है कि यहां आदिवासी बच्चों की मौतों पर भी राजनीति नहीं गर्माती. कुपोषण से पीडि़त मेलघाट में कोई ढांचा या नीति बनाने की बजाय राहत पर ध्यान दिया जाता है. सत्ता से जुड़े एक तबके को राहत का तौर तरीका भाता भी है. इसका एक अर्थ यह भी है कि ‘कुपोषण राहत’ के तौर पर आई सामग्री से उनका भरपूर ‘भरण पोषण’ हो जाता है.
1 टिप्पणी:
दर्दनाक भी शर्मनाक भी ... :(
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