जया सिंह |
क्राई से जुडी हैं. रोजाना बहुत से बच्चे मारने-पीटने व गाली-गलौज वाले शोषण से लेकर यौन शोषण तक की चपेट में आते हैं. इनमें कई ऐसे हैं कि जिन्हें हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में शोषण के तौर पर देखते ही नहीं. घर में काम करने वाला बाल मजदूर हो या स्कूलों में बच्चों की शिक्षकों के हाथों पिटाई, हम इसे शोषण के तौर पर नहीं देखते. इनमें निश्चित तौर पर सबसे भयावह बाल यौन शोषण है. बच्चा चाहे 3-4 साल का ही क्यों न हो, उसका यौन शोषण होता है तो उसकी मानसिकता पर उतना ही बुरा प्रभाव पड़ता है जितना 10-11 साल के बच्चे के यौन शोषण से उस पर पड़ता है. दरअसल, यौन शोषण के लिए बच्चे आसान टारगेट होते हैं. ज्यादातर मामलों में घर-परिवार और परिचित ही ऐसे अपराध में शामिल होते हैं. मौजूदा आधुनिक जीवनशैली में माता-पिता दोनों कामकाजी हो रहे हैं. उन्हें महानगरों की जिंदगी से तालमेल बिठाने के लिए ज्यादा से ज्यादा वक्त अपने काम और सोशल सर्किल में देना होता है. ऐसी सूरत में उनके घर में बच्चा अकेला होता है. या तो वह नौकरों के हवाले होता है या नजदीकी रिश्तेदारों के हवाले. माता-पिता के पास इतनी फुरसत नहीं होती है कि वे बारीकी से बच्चों का ध्यान रख पाएं. ऐसे बच्चों को ज्यादातर निशाना बना लिया जाता है. बच्चों का यौन शोषण हो जाने पर ज्यादातर मामले पुलिस तक पहुंचते ही नहीं. घर-परिवार के लोगों को इज्जत-प्रतिष्ठा का ख्याल आने लगता है. उन्हें उस मासूम को लगे दंश की पीड़ा नहीं होती. घर ही नहीं, स्कूल, आंगनवाड़ी या फिर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर भी बच्चे सुरक्षित नहीं हैं. वहां भी उनकी बेहतर देखभाल नहीं होती है. शहरों में जागरूकता बढ़ी है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में अभी इस पहलू को लेकर परम्परागत सोच बरकरार है. 'क्राई" इस मामले में जागरूकता बढ़ाने के स्तर पर काम कर रहा है. इसके अलावा हम लोग यह भी देखने की कोशिश कर रहे हैं कि बच्चों पर होने वाले अपराध को लेकर शासन व्यवस्था के अंदर किस तरह के कदम उठाए जा रहे हैं. इस दिशा में सूचना के अधिकार से हमें काफी मदद मिली है. अब तो बच्चों के यौन शोषण वाले पर्यटन के मामले भी बढ़े हैं. यह संगठित कारोबार के तौर पर फैल रहा है. इसमें गरीब बच्चों को धकेला जा रहा है. इसके लिए बच्चों के अपहरण के मामले बढ़े हैं. देश में हर साल 9 हजार बच्चे गायब हो रहे हैं. इसमें दिल्ली सबसे टॉप पर है जहां रोजाना 18 बच्चे गुम हो रहे हैं. इस बारे में पुलिस का रवैया दोषपूर्ण है. उसे लगता है कि इलाके में बच्चों के गायब होने की रिपोर्ट दर्ज की तो कार्रवाई का दबाव बढ़ेगा. वे रिपोर्ट दर्ज करने से बचते हैं. पहली दिसम्बर, 2008 से 30 जून, "09 के बीच दिल्ली में 3,812 बच्चों के गुम होने की शिकायत हुई लेकिन मात्र 1,133 एफआईआर दर्ज हुर्इं. ज्यादातर मामलों में पुलिस इनकार करती रहती है कि ऐसा नहीं हुआ है, जबकि उसे ऐसे मामलों में तत्परता से काम करने की जरूरत है. समाज में शिक्षकों, डॉक्टरों को भी अपनी जिम्मेदारी ठीक ढंग से निभानी चाहिए. अगर कोई डॉक्टर इलाजे कराने आए मासूम का बलात्कार करता है तो उस डॉक्टर के विरुद्ध सख्त कार्रवाई होनी चाहिए. यही मापदंड शिक्षकों के प्रति भी अपनाना चाहिए पर मुश्किल है कि सरकार इस दिशा में गम्भीर कदम नहीं उठा रही है. चाइल्ड सेक्सुअल अफेंस एक्ट का मसौदा तैयार है लेकिन सरकार उसे लागू कराने में दिलचस्पी नहीं दिखा रही है. प्रस्तुति : प्रदीप कुमार. साभार : सहारा समय |
22.5.11
बाल शोषण के कई रूप
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