शिरीष खरे
"यह देखिए फोटो में सोनिया गांधी पीठ ठोंक रही हैं. और इसके पहले वाली फोटो में अब्बा लोग अमिताभ, जितेन्द्र और धर्मेन्द्र के साथ खड़े हैं..."
बीड़ जिले की खेड़करी बस्ती में, बीते साल गर्मियों की कोई ठहरी हुई दोपहर को कुछ धुंधले से पड़ गए एल्बमों के साथ सैय्यद मदारियों के यह बच्चे फोटो के पीछे छिपे और अपने अब्बा लोगों से सुने किस्से हमें सुनाते रहे.
बच्चा-बच्चा जानता है कि भारत गाँवों में बसता है, जो इनदिनों अदृश्य हो गए हैं. फ़िलहाल इन गाँवों से भी अदृश्य रहने और गली-मोहल्लों में हैरतअंगेज़ खेल दिखने वाले सैय्यद मदारियों के कई ख़ानदानी खेल भी तो अदृश्य हो गए हैं.
मगर क्या आप जानते हैं कि सबसे हैरतअंगेज़ खेल जो हुआ है, वह यह है कि ‘जाति शोध केन्द्र’ और ‘जाति आयोग’ की सूचियों में ‘सैय्यद मदारी’ ज़मात का ज़िक्र तक नहीं मिलता है. मगर वहाँ जाने से पहले मैं भी कहाँ जान पाया था कि इसीलिए महाराष्ट्र में इनकी कुल तादाद का आकड़ा भी कहीं नहीं मिलता है. ऐसे में केवल अनुमान लगाया जाता है कि शहरों की चकाचौंध, झुग्गी-बस्तियों और गाँव-देहातों की सरहदों के आरपार अपनी जिंदगियों की दुःख-तकलीफें लिए, महाराष्ट्र में यही कोई 700 सैय्यद मदारी परिवार होंगे.
प्रमाण लाओ कि...
जिनका आज नहीं उनका कल क्या..क्योंकि ‘जाति शोध केन्द्र’ और ‘जाति आयोग’ की सूचियों में ‘सैय्यद मदारी’ ज़मात का ज़िक्र तक नहीं मिलता हैं, सो जाति प्रमाण-पत्र के बगैर सैय्यद मदारियों के बहुत सारे बच्चे दूसरी जाति के बच्चों की तरह अधिकार और सुविधाएँ नहीं पा सकते हैं. यह बड़ी अज़ीब सी बात है कि एक तरफ़ सैय्यद मदारियों को अपनी जाति की पहचान का कागज़ चाहिए है, मगर दूसरी तरफ़ कलेक्टर साहब को पहले उनकी जाति का सबूत बताने वाला कागज़ चाहिए. अब दिक्कत तो यही है सैय्यद मदारी कौन से सरकारी कागज़ से और कैसे यह साबित करें कि वह भी इस देश के वासी हैं.
यहाँ के ज़्यादातर अफ़सर अगर सैय्यद मदारियों को नाम से जाने तो भी कुछ नहीं कर सकते हैं, वह नियमों से जो बॅंधे हैं, जो ऊपर से ही चला करते हैं. मगर इस सवाल का जवाब कोई नहीं देता है कि जो सैय्यद मदारी सरकार के काम-काज से कभी जुड़े ही नहीं हैं, वह सैय्यद मदारी अपने लिए जाति का कागज़ लाए भी तो कहाँ से लाएं ?
सोचिए, जहाँ ऊपर की दो ज़मातों के सिर पर घर के पते और बुनियादी सहूलियतों का सवाल ख़ुले आसमान सा पसरा हुआ है, वहीं सैय्यद मदारियों के सामने तो आज भी अपनी पहचान और उपस्थिति का सवाल ही पहला सवाल बनाकर हुआ तना है.
यहाँ जाति प्रमाण-पत्र एक ऐसा पतला-सा कागज़ है, जो मिल जाए तो संभावना है और न मिल पाए तो अंधियारा है. यह मामला महाराष्ट्र सरकार और सामाजिक कल्याण व न्याय विभाग जब तक नहीं सुलझाया जाएगा, तब तक सैय्यद मदारी बच्चों को स्कूल से जोड़ने का तार भी उलझा ही रहेगा.
एक मौका
देखा जाए तो यहाँ के बच्चों के बीच खेलों में बेजोड़ प्रतिभाएं मौजूद हैं. ख़ास तौर से जिमनेस्टिक और एथलेटिक्स में. अगर यह राष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाओं तक पहुँचे तो जरूर ही क़माल दिखा सकते हैं. इस तरह से भी तो इनकी पहचान बदल सकती है. इन्हें केवल एक मौका और सही दिशा ही तो चाहिए. मगर सब जानते हैं, जिस सफ़र में यह हैं, उसमे पड़ाव भर हैं, उसकी न तो कोई दिशा है, और न ही मंज़िल का कोई ठिकाना है. बिस्तरे पर थकान की सलवटें हमेशा ही रहती हैं, और ख़ुले आसमान के नीचे देश के नौनिहाल किसी तरह पलते-बढ़ते तो हैं, मगर पढ़ते नहीं हैं.
दिलचस्प है कि दिनों और महीनों के नामों से बेखबर यह सैय्यद मदारी बालीवुड में 30 से ज़्यादा साल बीताने के बाद भी न शोहरत पा सके हैं, न ही दौलत. कुछ सैय्यद मदारी इसे अपनी बदकिस्मती मानते हैं, वहीं बहुत से अपनी पहुँच न होने पर अफ़सोस जताते हैं. दरअसल, 70 के दशक में जब जन-आक्रोश को एक्शन का रंग रुप दिया जाने लगा तो स्टार या सुपरस्टार के ज्यादातर स्टंट सैय्यद मदारी ही करते थे. कभी एक्सट्रा आर्टिस्ट के तौर पर काम करने वाला अक्षय कुमार आज का सुपरस्टार कहलाता है, उसके संघर्ष की मनोरम कहानियाँ भी सबके सामने हैं, मगर न जाने क्यों सैय्यद मदारी नाम की ज़मात से एक भी स्टार नहीं चमकता है, और न जाने क्यों इनकी गढ़ी-गढ़ाई तस्वीरों, कहानियों के बीच छिपा पहचान का बड़ा सवाल पहचान में क्यों नहीं आता है ?
बंजारा जनजातियों की पहचान के लिए केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय विमुक्त घुमंतू एवं अर्धघुमंतू जनजाति आयोग बनाया है, जिसका मानना है कि देश भर में कोई 500 बंजारा जनजातियां हैं, जिनकी आबादी 10 करोड़ के आसपास है. लेकिन इन बंजारों को बुनियादी सुविधाओं से जोड़ने की कोई ईमानदार कोशिश अब तक नहीं हुई है.
कहने को पारधी, तिरुमली और सैय्यद मदारी अलग-अलग जमातें हैं, जिनकी अलग-अलग जुबानें हैं, मगर फिर भी सभी के दुःख-दर्दों में कोई ज्यादा भेद नहीं है. जाहिर है, सिद्धांत और व्यवहार के बीच इनके प्रति सरकार और जनता की स्वीकार्यता भी अब तक गहरे धुंध में है. एक ऐसी धुंध, जो आज़ादी के 63 साल बाद भी छंटने का नाम नहीं लेती.
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संपर्क : shirish2410@gmail.com
2 टिप्पणियां:
nice
सैयद मदारियों पर केन्द्रित इस पोस्ट में aapne desh की jin बेतरतीबी की तरफ ध्यान दिलाने का यास किया है, प्रशंसनीय है.
if time plz read this
बाज़ार, रिश्ते और हम http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/2010/07/blog-post_10.html
शहरोज़
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