पशुपति शर्मा
(माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय का पूर्व छात्र, दस्तक का साथी, हिंदुस्तान भागलपुर का पत्रकार और सबसे बढ़कर सबका प्यारा विनय तरुण चला गया, हमेशा-हमेशा के लिए…)
मंगलवार की रात नौ बजे फास्ट ट्रैक का बुलेटिन चल रहा था। मैं पीसीआर में बुलेटिन करवा रहा था, इसी दौरान प्रवीण का फोन आया, मैंने काट दिया। दूसरी बार, तीसरी बार घंटी बजी लेकिन मैंने फोन काट दिया। फिर मनोज भाई का फोन आया। वो फोन भी मैं नहीं उठा सका। बुलेटिन खत्म हुआ, तो संतोष का फोन आया कि विनय नहीं रहा। विनय हम सबको छोड़ कर चला गया। विनय तुम्हारी मौत की खबर भी इस न्यूज बुलेटिन ने मुझ तक पहुंचाने में आधे घंटे की देर कर दी। सुबह पता चला कि तुम भी ऑफिस पहुंचने की आपाधापी में ही…
पुष्य ने बताया कि ऑफिस में देर हो रही थी और शायद तुम्हारी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। पटना से तुम भागलपुर के लिए चले थे लेकिन नाथनगर में पता नहीं तुमने चलती ट्रेन से उतरने की कोशिश की या फिर कुछ और… लेकिन तुम ऑफिस नहीं पहुंच पाये। अब कभी नहीं पहुंच पाओगे। ऑफिस से लौटते हुए जो बात मुझे बहुत ज्यादा कचोट रही थी कि मैंने फोन क्यों नहीं उठाया – यह बात कुछ ज्यादा ही तकलीफ दे रही है। पता नहीं किस हालात और किन दबावों में हम काम करते हैं कि… खैर! ये वक्त इस बात का नहीं लेकिन पुष्य समेत अपने तमाम साथियों के जेहन में न जाने ऐसे ही कई सवाल उठ रहे हैं।
मेट्रो से घर पहुंचने तक कई मित्रों के फोन आये। किसी के पास कहने को कुछ नहीं था। सब एक दूसरे से एक-दो लाइनों में बात करते और फिर शब्द गुम हो जाते। अखिलेश्वर का मेरठ से फोन आया – भैया विनय नहीं… उसके बाद न वो कुछ बोल सका और न मैं। इसी तरह ब्रजेंद्र, उमेश… सभी इस खबर के बाद अजीब सी मन:स्थिति में थे। शिरीष से बात की और ये सूचना दी तो वो भी सन्न रह गया। विनय अब तुमसे तो कोई सवाल नहीं कर सकता लेकिन एक दूसरे से ताकत बटोरने की कोशिश कर रहे हैं। विनय ऐसी भी क्या जल्दी थी? एक दिन ऑफिस छूट ही जाता तो क्या होता? लेकिन हादसों के बारे में क्या कहा जा सकता है? तुमने भी तो शायद ये नहीं सोचा था कि चलती ट्रेन के पहिये तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं…
तुम्हारा चेहरा रात से बार-बार मेरे सामने घूम रहा है। सीधा, सपाट और बिल्कुल बेबाक विनय और उसकी उतनी ही प्यारी मुस्कुराहट अब कभी देखने को नहीं मिलेगी। वो विनय जो चंद मुलाकातों में ही बिलकुल अपना सा हो गया था, वो पता नहीं कहां गुम हो गया? बंदर मस्त कलंदर का गोडसे उड़न छू हो गया। विनय वो तुम ही तो थे जो बैक स्टेज पर हंसते मुस्कुराते और मंच पर जाते ही गोडसे के चरित्र में ढ़ल जाते थे। तुम्हीं ने राजकमल नायक के साथ एक अलग ही परसाई की कहानी के कैरेक्टर में कमाल की जान डाल दी थी। आज बेजान पड़े हो। बिना किसी रिहर्सल के जिंदगी के नाटक का पटाक्षेप कर दिया।
कई सारी बातें ध्यान में आ रही हैं। बिलकुल बेतरतीब। तुम्हारा भोपाल का कमरा, जहां तुमने मुझे खिचड़ी का न्योता दिया। हबीबगंज स्टेशन पर ट्रेन सीटी बजा रही थी लेकिन तुम्हारे कुकर की सीटी नहीं बज रही थी। बिना खिचड़ी खाये जाना मुमकिन नहीं था। जब तक हम स्टेशन की ओर बढ़ते तब तक ट्रेन जा चुकी थी। तुमने बड़े प्यार से कह दिया – ठीक है एक दिन और रुक जाइए… मेरा मन भी नहीं था कि आप जाएं…
ऐसी ही चंद मुलाकातें बार-बार जेहन में कौंध रही है… तुम्हारी प्रवीण के साथ नोक-झोंक, भागलपुर स्टेशन पर पुष्य के साथ खबरों को लेकर खींचतान…. भागलपुर का वो कमरा जो तुमने तीसरी या चौथी मंजिल पर ले रखा था… जिसका पूरा व्याकरण तुमने अपने मुताबिक गढ़ रखा था। विनय तुम सबसे जुदा थे। सबसे अलग। तुम्हारा स्नेह, तुम्हारा प्यार, तुम्हारी बहस और तुम्हारे सवाल सब तुम्हारे साथ ही गायब हो रहे हैं। कैसे कहूं – हो सके तो लौट आओ मेरे भाई… तुम्हारे हाथ की खिचड़ी खाने का फिर से मन हो रहा है… क्या तुम मौत की ट्रेन मेरे लिए मिस नहीं कर सकते।
1 टिप्पणी:
अचानक चले जाना..और ऐसे साथी.. जैसा तू देखता है,वैसा तू लिख में विश्वास करने वाले पत्रकार का..
.सदमे में हम साथ हैं..
और खबर हो तो बताएँगे..
क्या विनय किसी हादसे के तो शिकार नहीं हो गए..आखिर ऐसा कैसे हो गया...
पुनश्च:शब्द पुष्टिकरण हटा दें, कमेन्ट करने में अतिरिक्त समय लग जाता है.
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