शिरीष खरे
बाल अधिकारों से जुड़ी लगभग सभी संधियों पर दस्तखत करने के बावजूद भारत बाल मजदूरों का सबसे बड़ा घर क्यों बन चुका है, और इसी से जुड़ा यह सवाल भी सोचने लायक है कि बाल श्रम निषेध एवं नियंत्रण कानून, 1986 के बावजूद हर बार जनगणना में बाल मजदूरों की तादाद पहले से कहीं बहुत ज्यादा क्यों निकल आया करती है ?
मगर हकीकत इससे कहीं भयानक है। दरअसल बाल मजदूरी में फसे केवल 15% बच्चे ही कानून के सुरक्षा घेरे में हैं। जबकि देश के 1.7 करोड़ बाल मजदूरों में से 70% बच्चे खेती के कामों से जुड़े हैं, जो कानून के सुरक्षा घेरे से बाहर ही रहते हैं। इसलिए जब तक खेती से जुड़े कामों को भी बाल मजदूरी मानकर उन पर प्रतिबंध नहीं लगाया जाएगा, तब तक बाल मजदूरी को जड़ सहित उखाड़ फेंकना संभव नहीं हो पाएगा।
आजादी से 39 साल बाद और अबसे 24 साल पहले, बाल श्रम निषेध एवं नियंत्रण कानून, 1986 के जरिए भारतीय बच्चों को खतरनाक कामों से बाहर निकालने के लिए वैधानिक कार्रवाई शुरू हुई थी। इसके बाद, 2006 को इसी कानून में बाल मजदूरी के कई क्षेत्रों और घरेलू कामों को प्रतिबंधित किया गया। कुलमिलाकर, तब 16 व्यवसायों और 65 प्रक्रियाओं को भी खतरनाक कामों की सूची में शामिल किया गया। मगर इस सूची से खेती से जुड़े कई खतरनाक काम छूट ही गए।
खेत-खलिहानों में काम करने या पशुओं को चराने वाले बच्चों के पास अगर पढ़ने लायक समय भी नहीं बचेगा, तो जाहिर है उनके आने वाले समय को अंधकार ले डूबेगा। खासतौर से लड़कियों के साथ तो मुसीबतें ज्यादा हैं, क्योंकि उन्हें खेती के कामों के साथ-साथ घर और छोटे बच्चों को भी संभालना पड़ता है। इन बच्चों की हालत भी बाकी क्षेत्रों के बाल मजदूरों जैसी ही है। इसके बावजूद इन्हें बाल मजदूर क्यों नहीं कहा जा सकता है ?
हालांकि यह एक अजीब स्थिति है, मगर कहीं न कहीं एक सच भी है कि खेती के क्षेत्र में बाल मजदूरों की भारी संख्या के चलते ही इन्हें बाल मजदूर कहने या मानने में परहेज किया जा रहा है। बाल मजदूरों की इतनी भारी संख्या का दबाव कहीं न कहीं कानून और नीति बनाने वाले के ऊपर भी रहता है। यह एक असमंजस से भरा सवाल बना हुआ है कि ‘‘अगर बच्चों ने खेतों में काम करना बंद कर दिया तो फिर क्या होगा ?’’
यह भी एक कड़वा सच है कि परिवार वालों के पास उपयुक्त रोजगार का जरिया और पर्याप्त आमदनी नहीं होने के चलते वह अपने बच्चों को काम पर भेजते हैं। एक तबके के मुताबिक इसमें हर्ज भी नहीं है। मगर इसके आगे यह भी गौर करना जरूरी होगा कि अगर बाजारों में हमेशा से बच्चों की मांग बनी भी रहती है तो इसलिए कि उनकी मजदूरी बहुत अधिक सस्ती होती है। जबकि गरीब और बंधुआ परिवार वाले तो बाजारों की मांग के आगे हमेशा से झुके रहे हैं। यह परिवार वाले अपने बच्चों को दूर इलाकों में अच्छा पैसा दिलवाने की उम्मीद पर जिन ठेकेदारों के हाथों ‘‘बेचते’’ हैं, वह उन्हें शोषण के रास्ते पर ही धकेल रहे हैं।
कुछ महीने पहले राजस्थान के श्रम विभाग ने केन्द्र सरकार के श्रम मंत्रालय को बाकायदा एक पत्र लिखकर यह सिफारिश की थी कि बाल मजदूरी पर कारगर तरीके से पाबंदी लगाने के लिए श्रम निषेध एवं नियंत्रण कानून में खेती से जुड़े कार्यों को भी जोड़ा जाए। असल में राजस्थान से बहुत सारे बाल मजदूर गुजरात की तरफ पलायन करते हैं। मगर श्रम निषेध एवं नियंत्रण कानून में खेती से जुड़े कार्यों को शामिल नहीं किए जाने के चलते प्रदेश का श्रम विभाग यह मान रहा है कि जहां बाल मजदूरी को बढ़ावा देने वाली प्रवृतियों को कानूनी आड़ मिल रही है, वहीं वह कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है। बीते साल केवल अगस्त महीने का हाल यह रहा कि उत्तरी गुजरात में कपास की खेती से जुड़े एक दर्जन से भी ज्यादा बाल मजदूर मारे गए। तब इन हादसों के पीछे बीटी कपास में जंतुनाशक दवा के रियेक्शन की आशंका जतलायी गई थी।
आमतौर पर यह भी कहने सुनने में आता है कि अगर काम खतरनाक नहीं है तो बच्चों से काम करवाने में कोई हर्ज नहीं है, जैसे कि खेती। मगर बच्चों के मामले में कौन-सा काम खतरनाक है या नहीं है, यह तो उन बच्चों को देने वाले काम पर ही निर्भर करता है। हमें यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि खेती से जुड़े काम मुश्किलों से भरे होते ही नहीं हैं। जबकि खेतों में भी तो खतरनाक मशीनों, औजारों, उपकरणों के इस्तेमाल से लेकर भारी-भरकम चीजों को उठाने और लाने-ले जाने तक के काम होते हैं। खेतों में भी तो स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल माहौल में काम करना होता है, जिसमें खतरनाक पदार्थों के मामले, दलाल या मालिकों के काम करने का तरीके, मौसम या तापमान और हिंसा के स्तर भी शामिल हैं। खेती में भी तो जटिल परिस्थितियों में काम के लिए रातदिनों और घंटों का समय तय नहीं होता है। एक बच्चे को खेत में एक दिन के कम-से-कम 10 से घंटे तो बिताने ही पड़ते हैं। फसल बुहाई और कटाई के मौसम में तो काम का कोई हिसाब-किताब भी नहीं रहता है।
बीड़ जिले की रूपल माने (13 साल) बताती है कि उसे सुबह 9 से शाम के 7 बजे तक खेतों में ही काम करना पड़ता है। इसी तरह, लातूर जिले के सुभाष तौर (14 साल) कहता है कि वह 12-13 घंटे खेतों में रहता है, और कई-कई हफ्तों तक ढंग से आराम नहीं कर पाता है। यहां तक कि महीनों-महीनों तक घर लौटने की इजाजत भी नहीं मिलती है। गौर करने वाला तथ्य यह भी है कि देशभर में 5 से 14 साल तक के 42% बच्चे इसी तरह के कामों में लगे हुए हैं। जब तक इस मामले में किसी नतीजे तक नहीं पहुंचा जाता है, तब तक ऐसे बच्चों से इसी तरह के काम करवाने वालों को खुली छूट मिलती रहेगी।
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संपर्क : shirish2410@gmail.com
1 टिप्पणी:
Sahi kaha aapne.
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