28.5.10

जंगल से कटकर सूख गये मालधारी

शिरीष खरे

पोरबंदर/ एशियाई शेरों के सुरक्षित घर कहे जाने वाले गिर अभयारण्य में बरसों पहले मालधारियों का भी घर था. ‘माल’ यानी संपति यानी पशुधन और ‘धारी’ का मतलब ‘संभालने वाले’. इस तरह पशुओं को संभाल कर, पाल कर मालधारी अपनी आजीविका चलाते थे. एक दिन पता चला कि अब इस इलाके में केवल शेर रहेंगे. फिर धीरे-धीरे मालधारियों को उनकी जड़ों से उखाड़कर फेंकने का सिलसिला शुरु हुआ.

आज की तारीख में वन्यजीव अभयारण्य के चलते गिरी के जंगलों से बेदखल हुए मालधारी समुदाय के पास जहां रोजीरोटी एक प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह हो गया है, वहीं बुनियादी सुविधायें भी सिरे से लापता हैं. अपनी सामाजिक पहचान बनाने की जद्दोजहद के बीच उनके सामने शिक्षा और सेहत जैसे कई सवाल हैं, जिसका जवाब कोई नहीं देना चाहता.

मालधारियों का घर

गुजरात में शुष्क पर्णपाती जंगल, नम पर्णपाती जंगल, घास के बड़े-बड़े मैदान, समुद्र के लंबे-लंबे किनारे और बहुत सारे दलदली इलाके हैं. यहां 4 राष्ट्रीय उद्यान और 20 अभयारण्य हैं, जो 13 विकासखण्डों की 24 जगहों पर बसे हैं. प्रदेश के 4 राष्ट्रीय उद्यान जहां कुल 47,967 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में हैं, वहीं 20 अभयारण्य कुल 16,74,224 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले हैं.

इन्हीं में एक गिर का अभयारण्य भी है, जो एशियाई शेरों का सुरक्षित घर कहलाता है. यह 1424 वर्ग किलोमीटर में फैला सघन जंगल, देश के सबसे बड़े शुष्क पर्णपाती जंगलों में से एक है. यही वह फैलाव है, जिसके आसपास मालधारी समुदाय का जीवन अपना विस्तार पाता था.

आरक्षित जंगल वाले इस इलाके को 70 के दशक में वन्य अभयारण्य के तौर पर अधिसूचित किया गया था. सबसे पहले 1972 में, सरकार ने यहां के 845 मालधारी परिवारों में से 580 परिवारों को जंगल से बाहर करने की कवायद शुरु की और देखते ही देखते 129 बस्तियों से तकरीबन 5000 आबादी को जंगल से उजाड़ दिया गया. तब से अब तक, यहां वन्य संरक्षण के नाम पर मालधारियों का शिकार बाकायदा जारी है.

बरदा एक ऐसा ही इलाका है, जो विस्थापन की सूची से फिलहाल तो छूटा हुआ है लेकिन वन विभाग का जंगल राज जब तब यह अहसास कराता रहता है कि मालधारियों की कोई औकात नहीं है और वन विभाग जब चाहे मालधारियों को जानवरों की तरह हकाल सकता है.

बरदा के जेसिंगभाई, हरिसिंग भाई, रामगुलाब, चंदाभामा जैसे लोगों से अगर आप बात करें तो सब के पास अब केवल पुराने दिनों की यादें शेष हैं. एक-एक आदमी के पास अपने-अपने किस्से हैं. वन-विभाग के आने के पहले तक उनका जीवन कितना मस्त, आजाद, आत्मनिर्भर, सरल, व्यवस्थित और हरा भरा था. लेकिन पिछले 40 सालों में सरकार ने मालधारियों को उनकी जड़ों से ऐसा काटा कि उनका जीवन सूख ही गया.

जानवरों के नाम पर

70 के दशक में विभाग ने यहां सर्वे किया, जंगलों को नापा और जमीनों की हदबंधी की. देखते ही देखते, उसने जंगल की जमीनों को राजस्व की जमीनों में बदलना चालू किया. इसके बाद विभाग ने पानी से लेकर कंदमूल और पेड़ की टहनियों, यहां तक कि जिन पत्थरों और गीली माटी से मालधारियों ने अपने घर बनाए , उनके इस्तेमाल तक पर पाबंदी लगा दी.

सरकार को जंगल के जीवों की देखभाल का तो ख्याल आता रहा, मगर पालतू पशुओं की चराई पर लगी रोक को हटाने का ख्याल एक बार भी नहीं आया. जबकि मालधारियों के पास तो बड़ी संख्या में गिर की मशहूर गाएं थीं, जो अब तेजी से घट रही हैं और जिनके घटने के सवाल पर सरकार भी अब चिंता प्रकट कर रही है.

यहां के लोगों पर चौतरफा मार पड़ी है. सरकार ने जहां उनके काम, धंधे और संसाधनों को उनसे छीना है, वहीं उनकी दुनिया में आए अभावों की ओर पलटकर भी नहीं देखा है. इन मालधारियों का जीवन जंगल पर ही निर्भर था और जब वे जंगल से बेदखल किये गये तो जैसे जिंदगी से ही बेदखल कर दिये गये. सरकार ने विस्थापन से पहले कई वायदे किये लेकिन एक बार जंगल से विस्थापित होने के बाद सरकारी महकमे ने इनकी ओर पलट कर नहीं देखा.

बरदा की पहाड़ियां, पोरबंदर से 15 किलोमीटर दूर हैं. अरब सागर के चेहरे को मानो चूमता सा यह इलाका पोरबंदर और जामनगर जिलों से जुड़ा हुआ है. यहां का जंगल कभी राणावाव और जामनगर के राजाओं के अधीन था, सो अभी भी यह पहाड़ियां राणाबरदा और जामबरदा के नाम से ही जानी जाती है.

पत्थर जैसे जिंदगी

राणाबर्दा और जामबर्दा पहाड़ियों पर कुल 61 बस्तियां बची हैं, जो एक-दूसरे से बहुत दूर-दूर और ऊंची नीची पथरीली जगहों पर हैं. यहां 1154 परिवारों के 6372 लोग रहते हैं, उनमें 14 साल तक के 2774 बच्चे हैं. अब दोनों पहाड़ियों की 61 बस्तियों के इतने बच्चों के सामने जो 14 प्राथमिक स्कूल हैं भी तो उनमें से 7 के भवन नहीं हैं. बाकी 7 प्राथमिक स्कूलों के भवन हैं, मगर उनमें भी छोटे-छोटे 15 कमरे ही हैं. मतलब यहां के सारे बच्चों को ध्यान में रखा जाए तो औसतन 185 बच्चों पर केवल एक कमरा ठहरता है.

दूसरी तरफ, राणाबर्दा के प्राथमिक स्कूलों में तो शिक्षकों की संख्या फिर भी ठीक है, मगर जामबर्दा के 1077 बच्चों के सामने जो 5 प्राथमिक स्कूल हैं, उनमें शिक्षकों की संख्या 6 हैं. मतलब यहां औसतन 180 बच्चों पर केवल एक शिक्षक ठहरते हैं. इन्हीं सबके चलते यहां 14 साल तक के 2774 बच्चों में से केवल 728 बच्चों के नाम स्कूली फाइलों में भरे जा सके हैं. बीते 1 अप्रेल से, केन्द्र सरकार ने देश भर के सारे बच्चों के लिए शिक्षा के अधिकार का कानून लागू किया है, मगर यहां के 2046 बच्चों के लिये तो कम से कम यह कानून नाकाफी है.

सरकारी दावे और उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के उलट यहां की 61 बस्तियों के भीतर 6 साल से नीचे के कुल 1354 बच्चे हैं. लेकिन उनकी देखभाल के लिए एक भी आंगनबाड़ी केन्द्र यहां नहीं है. इसी तरह 192 वर्ग मीटर तक फैली इन दो पहाड़ियों के बीच एक भी जगह ऐसी नहीं है, जहां सरकार ने स्वास्थ्य की कोई सेवा उपलब्ध करायी हो. इसलिए तबीयत बिगड़ जाने पर मरीजों को 25 किलोमीटर तक की दूरी तय करनी पड़ती है. कच्ची और खराब सड़क के कारण गंभीर बीमारी या दुर्घटना झेलने वाले बहुत सारे मरीजों और गर्भवती महिलाओं को दुर्गम रास्तों के बीच ही अपनी जान गंवानी पड़ती है.

केन्द्र सरकार ने मातृ मृत्यु-दर और शिशु मृत्यु-दर घटाने के लिए एनएचआरएम यानि ‘राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’ चलाया है. इसी तर्ज पर गुजरात सरकार ने भी एसएचआरएम यानि ‘राज्य ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’ छेडा हुआ है. मगर यहां से ऐसा लगता है जैसे न केवल स्वास्थ्य सेवा बल्कि बुनियादी सहूलियत से जुड़ी हर एक नीति, योजना और कार्यक्रम से मालधारियों का यह बरदा इलाका छूटा हुआ है. कुछ ऐसे, जैसे 21वी शताब्दी के 10 साल गुजरने के बाद भी यह इलाका 1970 के जमाने में ही छूट गया हो.

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13.5.10

शहर के भीतर कितने शहर

शिरीष खरे

आपने अली बाबा और चालीस चोर की कहानी तो देखी, पढ़ी या सुनी ही होगी। उसमें एक चोर जब अलीबाबा का घर पहचान लेता है तो उसके बाहर क्रॉस का निशान लगाकर चल देता है। अगली सुबह चालीस चोर आते हैं। मगर हर घर के आगे क्रॉस का निशान लगा रहता है। इसलिए चालीस चोर मिलकर भी एक अली बाबा का घर नहीं खोज पाते। ठीक यही कहानी इस देश के शहरों की होने वाली है। हो सकता है कि जब हम अपने शहर वापिस लौटे तो अपना ही चौराहा, मोहल्ला, या उनकी गलियां, दुकानें खोजते फिरें और हमें अपने ही यारों की महफ़िलें ना मिलें।




चाहे मुंबई हो या अहमदाबाद, सूरत हो या भोपाल। सबके मास्टर प्लॉन एक जैसे जो बन रहे हैं। इसलिए अब शहर के भीतर शहर है कि पहचान में नहीं आ रहे हैं। सबके सब शहर एक जैसे लगने लगे हैं। और आप माने चाहे ना माने मगर शहरों के रहवासियों की दशा अब दुर्दशा में बदल रही है। देश की तरक्की के केन्द्र में बड़े शहर हैं। यह शहर उत्पादन, बाजार और सम्पत्ति के केन्द्र भी हैं। यहां गांव के गरीब बेहतर काम और आमदनी की उम्मीद से आते हैं। इसलिए पूंजी की फितरत और आबादी के बोझ से शहर की सहभागी व्यवस्था के बहुत नीचे दब जाते हैं। एक शहर भी तो कई तरह की असमानताओं से भरा होता है। तो सवाल है कि क्या शहरों को बदलने के किसी मास्टर प्लॉन में भूख, गरीबी और बेकारी जैसी असमानताओं को मिटाने की कोई योजना भी शामिल है या नहीं ? अगर है तो शहरों के बदलने के साथ-साथ उसके कई हिस्सों में बड़ी तेजी से भूख, गरीबी और बेकारी क्यों जमा हो रही है ? इस तरह शहर का बड़ा भूगोल निरक्षर और बीमार क्यों दिखाई दे रहा है ? समझ क्यों नहीं आता है कि गांव की गरीबी ज्यादा उलझी है या शहर की ?

दरअसल, एक शहर के भीतर कई शहर बनते जा रहे हैं। पहले दृश्य में हमारे साफ-सुथरा, व्यवस्थित और महंगी कारों से दौड़ता शहर है। वहां के लोगों की सुरक्षित और अधिक आमदनी है। इसलिए उन्हें बेहतर सुविधाएं मिलती हैं। इसलिए उन्हें शहरी तरक्की में मददगार माना जाता है। दूसरे दृश्य में झोपड़पट्टी है। यह गंदा, तंग और भीड़ भरा शहर है। यहां न लोग ही सुरक्षित हैं, और न ही उनके काम या घर। झोपड़पट्टियों को तरक्की राह में रोड़ा समझा जाता है। सार्वजनिक जगहों पर ऐसी झोपड़पट्टियां बनती हैं इसलिए शहर के कई जगहों पर अलग-अलग कानून और विकास योजनाएं चलती हैं। यहां के रहवासियों की मेहनत से शहर का बाजार मुनाफा लेता है। बदले में उसका श्रेय और जायज पैसा नहीं देता। इससे शहरी गरीबी सुधरने की बजाय बिगड़ती है। एक शहर में शोषण के कई दृश्य उभरते हैं। शहरी गरीबी के पीछे- 1. गरीबों की समस्याएं और 2. सरकारी विफलताएं घुली-मिली हैं। गरीबों को 'काम' और 'घर' की तलाश रहती है। देश में असंगठित क्षेत्र से 93 फीसदी मजदूर जुड़े हैं। दूसरी तरफ औपचारिक अर्थव्यवस्था में कम हिस्सेदारी से गरीबी, योग्यता और रचनात्मकता पर बुरा असर पड़ता है। इससे औपचारिक अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी नहीं होती और बेकारी बढ़ती है। इसलिए देश के 5 करोड़ से भी अधिक लोग झोपड़पट्टी में रहते हैं। यह आर्थिक, कानूनी और सामाजिक सुरक्षाओं से दूर हैं। नतीजतन, पूरा भार शासन पर पड़ता है। क्योंकि ऐसी झोपड़पट्टियां गैरकानूनी कहलाती हैं इसलिए यहां नल और गटर की व्यवस्थाएं नहीं होतीं। यहां तक सार्वजनिक संसाधन और सेवाएं भी नहीं पहुंचतीं। इससे गरीब और अधिक असहाय तथा बीमार होते हैं। आखिरकार, गरीबों की बड़ी तादाद गरीबी के दायरे से बाहर नहीं आ पाती। शहरी गरीब शहर में रहकर भी उससे दूर रहता है। यह छोटी झुग्गी, फुटपाथ या रेल्वे पटरियों के किनारे होता है। शहरी ताकतों का गठजोड़ उसे एक तरफ धकेलता है। इस ढंग से उसका स्थान, काम और हक नजरअंदाज बनाया जाता है। यहां तक कि उसकी गतिविधियां भी संदेह के घेरे में रहती हैं। शहरी गरीबी मिटाने वाले भी कभी शहरी विकास तो कभी खूबसूरती के नाम पर चुप्पी को गहरा बनाया जाता है। इस तरह गरीबी की बजाय गरीबों को उखाड़ने की कार्रवाई सहज और शांतिपूर्ण ढंग से चलती है।

सरकार की विफलता को तीन तरह से उजागर होती है। 1-जमीन की कमी 2-सब्सिडी में कमी और 3- संसाधनों में कमी। मुंबई के उदहारण से अगर हम देखें  तो जैसा कि सब जानते हैं कि मुंबई में जमीन बहुत कम और महंगी हैं। यहां कुल बस्ती का 60 फीसदी हिस्सा झोपड़पट्टी का है। मगर यह शहर की सिर्फ 14 फीसदी जमीन पर बसा है। सरकार के मुताबिक हर आदमी के लिए 5 वर्ग मीटर और हर परिवार के लिए 25 वर्ग मीटर जमीन होनी चाहिए। मतलब शहर के गरीब कम जमीन और ढेर सारी परेशानियों के साथ रहता है। इससे उनका काम या धंधा प्रभावित होता है। नागरिक सुविधाएं मुहैया कराने के लिए सरकार चुनी जाती है। मगर इस लिहाज से कई तजुर्बों से अब यह साफ हो गया है कि वह खुद को पीछे और निजी ताकतों को आगे कर रही है। दुनिया भर के कई तजुर्बों से यह साफ हुआ है कि निजी ताकतों का काम व्यवस्था में सुधार की आड़ में बाजार तैयार करना होता है। बाजार नागरिकों से नहीं उपभोक्ताओं से चलता है। गरीबों के पास अपनी उलझनों को सुलझाने के लिए न तो अधिक पैसा होता है और न ही तकनीकी सूझ या समझ। तकनीकी सूझ या समझ का मतलब यहां खास तौर से कागजी औपचारिकताओं से है। शहर के लिए तरक्की के मॉडल आम आदमी की भागीदारी से नहीं बनते। इन दिनों वैश्विक ताकतों की सलाह को अहम् माना जा रहा है, लेकिन नागरिकों के 'संवाद' और 'विरोध' को रोका जा रहा है। गरीबी कम करने के लिए सभी लोगों को आजादी और बराबरी से जीने का मौका देना चाहिए। 74 वें संविधान संशोधन में विकेन्द्रीकरण और जनभागीदारिता का जिक्र हुआ है। इसके लिए वार्ड-सभा और क्षेत्रीय-सभाओं के उल्लेख भी हुए हैं। मगर असलियत में शहरी विकास की मौजूदा योजनाओं में जनता की सीधी भागीदारिता न के बराबर है।

किसी शहर को 'लंदन', 'न्यूयॉर्क' या 'संघाई' बनाने की बातों भर से वहां का नजारा नहीं बदल जाएगा। इसके लिए तरक्की में सबका और सबको हिस्सा देना होगा। इसके बिना अमीरी-गरीबी के बीच की खाई नहीं भरी जा सकती। एक शहर का मतलब उसकी पूरी आबादी से है। इसमें एक छोटे तबके की तरक्की को शहर की तरक्की मान लिया जाता है। लेकिन शहर का बड़ा तबका ऐसी तरक्की से बर्बाद होता है। इस तबके से भी तरक्की की धारणाएं जाननी होगी। यह केवल घर बचाने और बनाने की बात नहीं हैं बल्कि बजट, कारोबार और प्रावधानों में शामिल होने की बात भी है।

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9.5.10

अजीबोगरीब संख्याओं का शहर मुंबई

शिरीष खरे

 
‘‘शांति और हंसी-खुशी यहां से नहीं जा सकती हूं। यहां से जो तूफान उठा है, उसे यही छोड़कर नहीं जा सकती हूं। इस शहर ने मुझे दर्द और परेशानियों के जो लंबे-लंबे दिनरात दिए हैं, उनकी शिकायत किए बगैर, यहां से कैसे जा सकती हूं ?’’

मुंबई में ऐनी के दिनरात अब गिने जा रहे हैं। बहुत जल्द ही वह इस शहर को नमस्कार कहकर अपने देश फिनलेण्ड चली जाएगी। मगर जाने के पहले, उसे शहर से जुड़ी कुछ संख्याएं परेशान कर रही हैं। संख्याएं। मुंबई कई अजीबोगरीब संख्याओं से भरा शहर है। जैसे कि, यहां 1 करोड़ 25 लाख से भी ज्यादा लोगों के पास अपने सेल नम्बर हैं- इतने सेल नम्बर तो कई यूरोपियन देशों के पास भी नहीं हैं।



यह और बात है कि मुंबई के करीब 40 प्रतिशत लोगों को झोपड़पट्टियों में रहना पड़ता है- यहां 67 लाख 20 हजार लोग झोपड़पट्टियों में रहते हैं, जो फिनलेण्ड की कुल आबादी से करीब डेढ़ गुना ज्यादा है। फिनलेण्ड की कुल आबादी करीब 50 लाख है, जो वहां के 384 हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैली है, जबकि मुंबई के 67 लाख 20 हजार झोपड़पट्टी रहवासियों के पास ऐसा सौभाग्य कहां है- यहां की 40 प्रतिशत आबादी के पास तो यहां की 14 प्रतिशत जमीन ही है, जो कि 140 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा नहीं हो सकती है। यहां कुछ संख्याओं की गणना करने से एक बड़ा हैरतअंगेज आकड़ा यह भी निकलता है- फिनलेण्ड की जनसंख्या घनत्व के मुकाबले मुंबई की झोपड़पट्टियों की जनसंख्या का घनत्व करीब 28 हजार गुना ज्यादा है। दूसरी तरफ, मुंबई की झोपड़पट्टी के रहवासियों की आमदनी फिनलेण्ड के रहवासियों की आमदनी के मुकाबले 100 गुना कम है।

वैसे तो मुंबई देश का सबसे अमीर शहर कहा जाता है, मगर बड़ी अजीब सी बात है कि इस शहर का हर दूसरा आदमी झोपड़पट्टी में रहता है। मुंबई की प्रति व्यक्ति आय (करीब 7 हजार रूपए महीना) है, जो कि देश की प्रति व्यक्ति आय (करीब 3 हजार रूपए महीना) के मुकाबले दोगुनी से भी ज्यादा है। इसके बावजूद देश की आर्थिक राजधानी की 40 प्रतिशत आबादी गरीब रेखा के नीचे है, और इसमें से भी 10वां हिस्सा रोजाना 20 रूपए भी नहीं कमा पाता है।

मुंबई की तरक्की यहां के मजदूरों के कंधों से होकर गुजरती है। यहां 66 लाख 16 हजार घरेलू मजदूर हैं, जिसमें से भी 3 लाख 76 हजार सीमांत मजदूर हैं। इन्हीं मजदूरों की बदौलत राज्य सरकार को सलाना 40 हजार करोड़ रूपए टेक्स मिलता है। इसके बावजूद यहां के मजदूरों को सघन और मलिन झोपड़पट्टियों में रहना पड़ता है, जहां पीने का पानी, बिजली, नाली, रास्ता, शौचालय, स्कूल, अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाओं का घनघोर अभाव है। कायदे से तो मुंबई के इतने सारे मजदूरों को जमीन का कम-से-कम 25 प्रतिशत हिस्सा मिलना चाहिए। मगर बड़ी अजीब सी बात है कि उन्हें उनकी 14 प्रतिशत जमीन से भी हटाया जा रहा है। जबकि खुद सरकार यह मानती है कि हर आदमी के लिए 5 वर्ग मीटर और हर परिवार के लिए 25 वर्ग मीटर जमीन होनी ही चाहिए।

स्लमडाग मिलेनियर की कामयाबी के बाद, मुंबई दुनिया के सबसे दिलचस्प शहरों में से एक माना जाने लगा है। मगर शहर में जमीन का काला कारोबार भी कम दिलचस्प नहीं हैं जिसे एक उदाहरण से समझते हैं। बीते कुछ सालों में, राज्य सरकार ने शहर की 30 हजार एकड़ से भी ज्यादा जमीन प्राइवेट सेक्टर को दी है। 1986 के सीलिंग कानून के बावजूद उसने ऐसा किया है। यह कानून कहता है कि अतिरिक्त जमीनों का उपयोग कम लागत के घर बनाने के लिए किया जाए। किसी को 500 मीटर से ज्यादा जमीन तभी दी जाए, जब वह उसमें 40 से 80 वर्ग मीटर के फ्लेटस् बनाए। मगर देखिए : मुंबई के हिरानंदानी गार्डन में बिल्डर को 230 एकड़ की बेशकीमती जमीन सिर्फ और सिर्फ 40 पैसे प्रति एकड़ की दर से 80 सालों के लिए लीज पर दी गई है। इसके बाद हिरानंदानी गार्डन में ऐसा ‘स्विटजरलण्ड’ खड़ा किया गया है जिसमें कम लागत के एक फ्लेट की कीमत सिर्फ 5 करोड़ रूपए है। सोचिए : यहां गरीबों को घर देने का जो खेल खेला जाता है, उसका हर गरीब भी कितना करोड़पति होता है ?

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8.5.10

सूरत जीरो स्लम आपदा : और 1650 झोपड़ियां टूटी

शिरीष खरे


सूरत/ बीते एक हफ़्ते में महानगर पालिका ने शहर के तीन इलाकों से 1650 झोपड़ियों को तोड़ा है। सूरत को झोपड़पट्टी रहित बनाने के मिशन ने अबकि 8500 से भी ज्यादा लोगों को बेघर बनाया है। इसके बदले, प्रशासन ने उन्हें शहर की सीमारेखा से कोसों दूर कोसाठ या अन्य इलाकों में बसाने का आश्वासन दिया है।

सुभाषनगर झोपड़पट्टी हटाने की बड़ी कार्रवाई को अंजाम तक पहुंचाने के बाद, सूरत महानगर पालिका ने अपने काम को जारी रखा और मैनानगर इलाके की तकरीबन 300 झोपड़ियों को तोड़ डाला। उसके बाद, उदना और सेंट्रल जोन में भी विध्वंस का यही नजारा देखने को मिला। यहां की तुलसीनगर और कल्याणनगर की तकरीबन 1100 झोपड़ियों को तोड़ा गया। इस इलाके में एक सड़क व्यवस्था को ठिकाने पर लाना था, जिसके चलते 5000 से ज्यादा गरीबों को ठिकाने लगाया गया। नतीजन, यहां से प्रशासन ने 24000 वर्ग मीटर की जगह खाली करवायी है। मगर दूसरी तरफ, यहां से उजड़े लोगों की शिकायत है कि- वैकल्पिक व्यवस्था के नाम पर, प्रशासन ने उनके लिए बमरोली और बेस्तान जैसे इलाकों में चले जाने का सुझाव भर दिया है, उसके आगे कुछ भी नहीं किया है।

इसी तरह, सेंट्रल जोन में सड़क को 80 फीट चौड़ा करने के लिए तकरीबन 550 झोपड़ियों को तोड़ा गया है। यहां से तकरीबन 2500 से ज्यादा लोगों को उजाड़ने के बाद प्रशासन ने दावा किया है कि- शुरू में तो रहवासियों ने डेमोलेशन का बहुत विरोध किया, मगर बाद में कोसाठ में बसाने की बात पर सब मान गए। जबकि यहां से उजाड़े गए लोग कहते हैं कि- उन्हें डेमोलेशन की सूचना तक नहीं दी गई थी और डेमोलेशन की कार्रवाई को बड़ी निर्दयतापूर्वक पूरा किया गया, जिसके चलते उन्होंने प्रशासन का विरोध भी किया।

प्रशासन की तरफ से यह साफ हुआ है कि उसका अगला निशाना अब बापूनगर कालोनी है, जहां तकरीबन 2700 घरों में 15000 से भी ज्यादा लोग रहते हैं। प्रशासन ने यह भी साफ किया है कि- फिलहाल स्लम डेमोलेशन का जो लक्ष्य उसके सामने है, उसे 15 दिनों के भीतर पूरा कर लिया जाएगा।


कैसे बनेगा सूरत जीरो स्लम :

  • सूरत को जीरो स्लम बनाने के लिए 1 लाख से ज्यादा झोपड़ियों को तोड़ने का लक्ष्य रखा गया है। मगर सरकारी योजना में पुनर्वास के लिए केवल 42 हजार घर बनाये जाने हैं। ऐसे में 56 हजार से ज्यादा घरों का क्या होगा ?

  • एक तरफ झोपड़ियों को साफ करने का काम जोरो पर है, दूसरी तरफ उन्हें बसाने की बात तो बहुत दूर, अभी तक तो यही साफ नहीं हो पाया है कि बसेगा कौन, कैसे और कब तक ?

  • झोपड़पट्टियों को उजाड़ने के बाद उन्हें कोसाठ जैसी जगहों पर बसाने का अश्वासन दिया जा रहा है, यह जगह विस्थापितों की जगहों से 15 किलोमीटर तक दूर है। फिर यह बाढ़ प्रभावित इलाका भी है। इसलिए एक बात तो यह है कि शहर के बाहर उन्हें काम नहीं मिलेगा और अगर वह काम की तलाश में शहर आए-गए भी तो 150 रूपए प्रति दिन की दिहाड़ी मजदूरी में से कम-से-कम 40 रूपए प्रति दिन (क्योंकि यहां से बस नहीं मिलती, सिर्फ ऑटो मिलते हैं) का तो किराया ही जाएगा। ऐसे में अगर किसी दिन मजदूरी नहीं मिली तो उस दिन का किराया तो फालतू में ही जाएगा। दूसरी बात यह भी कि जब यहां का इलाका बाढ़ के चलते पानी से भर जाएगा तो यहां की स्थिति पहले से कहीं ज्यादा भंयकर हो जाएगी।

  • किसी भी प्रशासन को झोपड़ियां तोड़ने के पहले संयुक्त राष्ट्र की गाइडलाईन माननी होती है। मगर बहुत सारे तजुर्बों से यह जाहिर हुआ है कि सूरत महानगर पालिका ने संयुक्त राष्ट्र की गाइडलाईन खुला उल्लंघन हो रहा है।

  • सूरत महानगर पालिका पर आरोप हैं कि उसने झोपड़पट्टियों में गलत सर्वेक्षण किये हैं। इसके अलावा वह कागजातों को लेकर भी कई गंभीर अनियमिताओं से घिरी हुई हैं।
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7.5.10

आधी लड़कियों के लिए राइट विदाउट एजुकेशन

शिरीष खरे

भारत में 6 से 14 साल तक के बच्चों के लिए ‘राईट टू एजुकेशन’ है, मगर 6 से 14 साल की कुल लड़कियों में से 50 प्रतिशत लड़कियां तो स्कूल से ड्राप-आऊट हो जाती हैं।

यह आकड़ा मौटे तौर पर दो सवाल पैदा करता है, अव्वल तो यह कि इस आयुवर्ग की आधी लड़कियां स्कूल से ड्राप-आऊट क्यों हो जाती हैं, दूसरा यह कि इस आयुवर्ग की आधी लड़कियां अगर स्कूल से ड्राप-आऊट हो जाती हैं तो एक बड़े परिदृश्य में ‘राईट टू एजुकेशन’ का क्या अर्थ रह जाता है ?

जेती, उम्र 10 साल, सुबह 5 के पहले उठ जाती है, वह इतनी जल्दी उठकर घर की साफ-सफाई और अपने माता-पिता के लिए दोपहर का खाना बनाती है। गिर अभयारण्य की जामबरदा पहाड़ी पर छपिया नाम की एक बस्ती है, जेती यही रहती है। यहां से पोरबंदर कम-से-कम 15 किलोमीटर दूर है, उसके माता-पिता को काम की तलाश में सुबह साढ़े 6 बजे के पहले पोरबंदर निकलना पड़ता है।

इसके बाद जेती अपने 4 से 7 साल के दो छोटे भाईयों को खाना खिलाती है, उन्हें तैयार कराती है, फिर पड़ोसियों के भरोसे छोड़कर स्कूल जाती है, मगर जैसे ही वह स्कूल की कक्षा में बैठती है, नींद से उठने के बाद पहली बार कुछ आराम पाती है, और उसकी आंखों में नींद भर जाती है। इस तरह, जेती के हिस्से से दिन के बहुत सारे पाठ छूट जाते हैं। जेती कहती है- ‘‘स्कूल अच्छा तो लगता है, पर पता नहीं कितना पढ़ पाऊंगी। हर कोई यही कहता है कि है कि घर पर रहो और बच्चे देखो।’’

मौजूदा शिक्षा के हक का कानून, देश के 192 मिलियन बच्चों के लिए मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का हक तो देता है, मगर उनमें से जेती जैसी करोड़ों लड़कियां छूट रही हैं। माना कि यह लड़कियां अपने घर से लेकर छोटे बच्चों को संभालने तक के बहुत सारे कामों से भी काफी कुछ सीखती हैं। मगर यदि यह लड़कियां केवल इन्हीं कामों में रातदिन उलझीं हुई हैं, भारी शारारिक और मानसिक दबावों के बीच जी रही हैं, पढ़ाई के लिए थोड़ा-सा भी समय नहीं निकाल पा रही हैं, और एक स्टेज के बाद स्कूल से ड्राप-आऊट हो जाति हैं तो यह उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ ही हुआ।

1996 को ‘इंटरनेशलन लेबर आर्गेनाइजेशन’ की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनियाभर में 33 मिलियन लड़कियां काम पर जाती हैं, जबकि काम पर जाने वाले लड़कों की संख्या 41 मिलियन हैं। मगर इन आकड़ों में पूरे समय घरेलू कामकाजों में जुटी रहने वाली लड़कियों की संख्या नहीं जोड़ी गयी थी। इसके बाद, ‘नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रनस् राईटस्’ यानी एनसीपीसीआर की एक रिपोर्ट ने बताया था कि भारत में 6 से 14 साल तक की ज्यादातर लड़कियों को हर रोज औसतन 8 घंटे से भी ज्यादा समय केवल अपने घर के छोटे बच्चों को संभालने में बीताना पड़ता है। इसी तरह, सरकारी आकड़ों में दर्शाया गया है कि 6 से 10 साल की जहां 25 प्रतिशत लड़कियों को स्कूल से ड्राप-आऊट होना पड़ता है, वहीं 10 से 13 साल की 50 प्रतिशत (ठीक दोगुनी) से भी ज्यादा लड़कियों को स्कूल से ड्राप-आऊट हो जाना पड़ता है। 2008 को, एक सरकारी सर्वेक्षण में 42 प्रतिशत लड़कियों ने यह बताया कि वह स्कूल इसलिए छोड़ देती हैं, क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें घर संभालने और अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने को कहते हैं।

दूसरी तरफ, कानून में मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा कह देने भर से कुछ नहीं होगा, बल्कि यह भी देखना होगा कि मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा के मुताबिक खासतौर से लड़कियों के लिए देश में शिक्षा की बुनियादी संरचना है भी या नहीं। आज कई करोड़ भारतीय बच्चों की प्राथमिक शिक्षा के सामने पर्याप्त स्कूल, कमरे, प्रशिक्षित शिक्षक और गुणवत्तायुक्त सुविधाएं नहीं हैं। देश की 40 प्रतिशत बस्तियों में तो स्कूल ही नहीं हैं और इसी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि 46 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं हैं। अगर राइट टू एजुकेशन के प्रावधानों का ख्याल रखते हुए, बरदा पहाड़ियों में शिक्षा की बुनियादी संरचना की जमीनी पड़ताल की जाए तो यहां की 61 बस्तियों के बीच केवल 14 प्राइमरी स्कूल हैं, जिनमें से 7 भवन विहीन हैं, खुली हवाओं में चल रहे स्कूलों तक पहुंचने के लिए भी लड़कियों को ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरना पड़ता है और 2 से 3 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है। मुख्य तौर से इन दो वजहों (पारिवारिक बाल-श्रम और प्राथमिक शिक्षा के बुनियादी व्यवस्था का अभाव) के चलते, हमारे देश की आधी लड़कियों के पास राईट तो है, मगर विथआऊट एजुकेशन। उनकी एजुकेशन से जुड़ी बाधाओं को तोड़े बगैर राईट टू एजुकेशन का मकसद पूरा नहीं हो सकता है।

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4.5.10

एक मीनार जो कानून से ऊंची है

शिरीष खरे

मुंबई के सबसे मंहगे इलाकों में से एक है बालकेश्वर, जहां 32 मंजिलों वाली यानी इलाके की सबसे ऊंची मीनार बन रही है, मगर उससे कहीं ऊंची खबर अपने पास यह है कि यह मीनार महाराष्ट्र के कायदे-कानूनों से अब बहुत ऊपर उठ चुकी है, और उसे उठाने वाला भी कोई मामूली आदमी नहीं है, बल्कि मशहूर डायमंड मर्चेण्ट और फिल्म फायनेंसर भरत शाह है।

मुंबई के तटीय क्षेत्र में जब भी कोई बिल्डिंग बनाई जाती है तो उसके पहले बिल्डर को ‘कोस्टल रेग्यूलेटरी जोन नोटिफिकेशन’ के तहत एमसीजेडएमए यानी ‘महाराष्ट्र कोस्टल जोन मेनेजमेंट अथोरिटी’ से मंजूरी लेनी पड़ती है। मगर भरत शाह है कि एमसीजेडएमए की मंजूरी लिए बगैर समुद्र के किनारे से अपनी बिल्डिंग को आसमान की ऊंचाई तक पहुंचा देना चाहते हैं।


उधर ‘कोस्टल इन्वायरमेंट अथोरिटी’ ने साफ कह दिया है कि बाल्केश्वर की इस 32 मंजिलों वाली निर्माणाधीन बिल्डिंग के बिल्डरों ने एमसीजेडएमए से कोई मंजूरी नहीं ली है और इस तरह से उन्होंने ‘कोस्टल रेग्यूलेटरी जोन नोटिफिकेशन’ का साफ-साफ उल्लंघन किया है।

एक जनहित याचिका के जवाब में एमसीजेडएमए द्वारा जो एफिडेबिट फाइल की गई है उसमें बताया गया है कि भरत शाह की कंपनी ‘लेयर्स एक्सपोर्ट कारर्पोरेशन’ ने ’लेजेण्ड’ नाम से इस बिल्डंग को बनाने के पहले अथोरिटी के सामने कोई प्लान सब्मिट नहीं किया।

31 जुलाई, 2009 को, ‘इन्वायरमेंट सेक्रेटरी’ वाल्सा आर नायर सिंह ने भरत शाह की कंपनी और उनकी बिल्डिंग के प्रोजेक्ट अर्किटेक्ट को पत्र भेज था और उन्हें एफिडेबिट के बारे में जरूरी जानकारी दी थी। उस पत्र के जरिए तब दोनों से कहा गया था कि उन्हें अभी तक की सारी कानूनी अनुमतियों (अगर एमसीजेडएमए की अनुमति भी ली गई है तो उससे भी) से जुड़े कागजातों को 15 दिनों के भीतर उपलब्ध कराना है। अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो ‘इन्वायरमेंट प्रोटेक्शन एक्ट, 1986’ के प्रावधानों के तहत भरत शाह की कंपनी और उनकी बिल्डिंग के प्रोजेक्ट अर्किटेक्ट के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी। मगर आरोप है कि अबतक न तो भरत शाह की कंपनी और न ही उनकी बिल्डिंग के प्रोजेक्ट अर्किटेक्ट ने ‘इन्वायरमेंट सेक्रेटरी’ के पत्र का कोई जवाब भेजा है।

इस संबंध में जब भरत शाह से संपर्क साधा गया था तो पहले उन्होंने कहा कि ‘इन दिनों जनहित याचिका फाइल करना एक फैशन हो गया है’; मगर जब उनसे ‘कोस्टल रेग्यूलेटरी जोन’ में मंजूरी वाली बात पूछी गई तो बोले कि वह अपनी टीम से पेपर मंगवाकर ही कुछ बता पाएंगे। जबकि उनकी कंपनी के अधिकारियों का कहना था कि बीते साल की जुलाई से अबतक, उन्हें कानूनी अनुमतियों को उपलब्ध करवाने से जुड़ा अथोरिटी का कोई पत्र नहीं मिला है।

हाईकोर्ट में यह जनहित याचिका दायर करने वाले सिम्प्रीत सिंह ने बताया है कि ‘‘इसी एक बिल्डिंग में 24 तरह की कानूनी अनियमिताएं हैं।’’ उनके प्रतिनिधि एडवोकेट योगेश प्रताप सिंह कहते हैं कि ‘‘बिल्डिंग से जुड़ी हर तरह की अनुमति, जिसमें कोस्टल रेग्यूलेटरी जोन की अनुमति भी शामिल है, को लेना बिल्डर की जिम्मेदारी होती है, जो उसने नहीं निभायी है।’’

दूसरी तरफ, इस कहानी से बेखबर ऐसे कई लोग हैं, जिन्होंने समुद्र के आगे ’लेजेण्ड’ में अपार्टमेंट खरीदने के लिए एडवांस बुकिंग करायी है। अनुमान के मुताबिक एक अपार्टमेंट करोड़ों रूपए का है, यह अनुमान इस इलाके में अपार्टमेंट की वर्तमान कीमत के आधार पर लगाया गया है, जो फिलहाल 60,000 रूपए प्रति वर्ग फीट के हिसाब से बिक रहा है।

भरत शाह की कंपनी का यह प्लाट 4300 वर्ग मीटर में फैला है और राजभवन के एकदम बाजू में है। कभी यहां के टूटे-फूटे घरों में निम्न और मध्यम वर्गीय परिवार रहा करते थे। 1995 के आसपास, भरत शाह ने यहां के लिए एक ‘पुर्नविकास परियोजना’ का एलान किया था। 1997 में, उनके बिल्डर ने ‘मुंबई बिल्डिंग्स रिपेयर एण्ड रिकन्स्ट्रशन बोर्ड’ से एनओसी यानी ‘नो ओब्जेक्शन सर्टिफिकेट’ पाया था। 1999 में, यहां आवास के लिए केवल 16 मंजिलों को बनाए जाने, पार्किंग और रिटेल मार्केट की जगह दिये जाने को ही मंजूरी दी गई थी। मगर आज देखिए- 32 मंजिलों का निर्माण किया जा रहा है।

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