पश्चिमी नारीवाद तो क्या प्राच्य के नारीवाद की भी मेरी खास समझ नहीं थी, लेकिन फिर भी बचपन से ही परिवार और समाज के अनेक उपदेशों और बंधनों को मैंने मानने से इनकार कर दिया या उन पर सवाल किए। मुझे जब बाहर मैदान में खेलने नहीं दिया जाता और मेरे भाइयों को खेलने दिया जाता था। ऋतुधर्म के समय मुझे जब अपवित्र बोला जाता। मुझसे कहा जाता कि मैं बड़ी हो गई हूं और बाहर निकलते समय काले रंग का बुरका पहन कर निकलूं। ऐसे हर मौके पर मैंने प्रश्न किए हैं।
रास्तों पर चलते समय अनजान लड़के जब मुङो अपशब्द कहते, दुपट्टे को खींच लेते या छेड़खानी की कोशिश करते तो मैंने प्रतिवाद किया है। जब मैंने देखा कि घर-घर में पति अपनी पत्नियों को पीट रहे हैं, पुत्री के जन्म के बाद स्त्री आशंकित हो रही है, मुझसे यह सब बर्दाश्त नहीं होता था। बलात्कार पीड़ित लड़कियों के लज्जित मुख को देख कर मैं वेदना कातर हुई हूं। वेश्या बनाने के लिए लड़कियों को एक शहर से दूसरे शहर, एक देश से दूसरे देश में बेचने की खबर सुनकर रोई हूं मैं। सिर्फ दो वक्त की रोटी के लिए वेश्यालयों में लड़कियों को यौन-उत्पीड़न सहने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
पुरुष चार-चार लड़कियों से विवाह कर उसे घर की नौकर बना रहे हैं। लड़की के रूप में जन्म लेने के कारण उत्तराधिकार के अधिकार से उसे वंचित किया जाता रहा है। मैं इसे नहीं मान सकी हूं। जब मैं देखती कि घर से निकलते ही लड़कियों को घर में घुसने की हिदायत दी जाती, पर पुरुष से प्रेम करने के अपराध में उसे जला कर मार दिया जाता, घर के आंगन में गड्ढा खोदकर उसे उस गड्ढे में डाल दिया जाता और उस पर पत्थर मारा जाता, तब मैं चीखती-चिल्लाती थी। किसी भी तर्क से, किसी भी बुद्धि से लड़कियों के ऊपर पुरुषों, परिवारों, समाज और राष्ट्र के अत्याचारों को मैं नहीं मान सकी हूं। उस समय मेरी इस वेदना, रुलाई, अस्वीकार, न मानना, स्तब्ध होना, न सोना और करुण चीत्कार को किसी ने नहीं देखा। देखा तब, जब मैंने लिखना शुरू किया।
मैं जिस समाज में बड़ी हुई हूं, वहां अनेक लोगों के मन में यह प्रश्न उठता था पर वे पुरुषवादियों के आगे नतमस्तक थे, परंतु मैं बाध्य नहीं हुई। मुझे किसी ने अबाध्य होना नहीं सिखाया। नारी अधिकारों की मांग के लिए बेटी फ्रिडान या रबीन मरम्यान पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती है। अपनी चेतना ही काफी होती है। पूर्व की नारियों ने बंद दरवाजों को खोलकर जब भी बाहर निकलने की कोशिश की है तब पूर्व के पुरुषवादी विचारवालों ने उन्हें दोषी ठहराया है और कहा है कि वे पश्चिम के नारीवाद का अनुकरण कर रही हैं।
नारीवाद पश्चिम की संपत्ति नहीं है। अत्याचारित, असम्मानित, अवहेलित नारियों के संगठित होकर नारी के अधिकारों के लिए जीवन की बाजी लगाकर अदम्य संग्राम करने का नाम नारीवाद है। पश्चिमी लड़कियों के जीवन के बारे में जानने पर यह पता चला कि उन्हें जीवन में कम यातना नहीं सहनी पड़ी। पूर्व की लड़कियों की तरह पश्चिम की लड़कियां भी शताब्दियों तक पुरुष, धर्म, नारी विरोधी संस्कारों की शिकार हुई हैं। धर्मान्ध लोगों ने उन्हें जीवित जला कर मार डाला। नारी विरोधी संस्कारों ने उनके शरीर को दासता की जंजीरों में जकड़ दिया, उनको यौन वासना की कृतदासी बनाकर रख दिया।
लड़की होने का अपराध सभी लड़कियों को एक समान ही ङोलना पड़ता है, चाहे वह पूर्व की हो पश्चिम की, उत्तर की या दक्षिण की हो। पश्चिम की लड़कियों ने एकजुट होकर अपने अधिकारों के लिए आंदोलन शुरू किया था, उन्हें उस आंदोलन को एक लम्बे समय तक जारी रखना पड़ा था। वोट देने के अधिकार की मांग करने पर उन्हें अपमानित होना पड़ा है। पुरुषों ने उन पर थूका है, गाली दी है, तब उन्होंने बार-बार एक ही बात दोहराई है कि ‘इस वैषम्य को दूर कर जैसे भी हो, हमें हमारा अधिकार देना होगा’, लेकिन आंदोलन के बाद जो कुछ उन्हें मिला है वह पर्याप्त नहीं है।
गर्भपात के अधिकार के लिए लड़कियां आज भी लड़ रही हैं, बलात्कार के विरुद्ध वे आज भी प्रतिवाद कर रही हैं, समान मजदूरी की मांग कर रही हैं, और संसद में महिलाओं की संख्या बढ़ाने को लेकर आज भी आंदोलनरत हैं। आश्रय केन्द्रों में आज भी उत्पीड़ित लड़कियों की भीड़ लगी है। हां पश्चिम की गोरी और सुनहरे बालों वाली लड़कियों को भी प्रताड़ित होना पड़ता है और आज भी अभाव के कारण उन्हें देह बेचने के लिए रास्ते पर आना पड़ता है। समान अधिकार या मानवाधिकार का कोई पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण नहीं होता। लड़कियां सब देशों में, सब काल में उत्पीड़ित हुई हैं।
यह बात प्राय: उठती है कि मैंने धार्मिक संकीर्णता पर चोट की है। धर्म के साथ नारीवाद का विरोध बहुत पुराना है, नारी के अधिकार के संबंध में जिसको थोड़ी जानकारी है, वह भी यह जानता है कि धर्म मूल रूप से पुरुषवादी है। धर्म में वर्ण का उपयोग करके पुरुषसत्ता को बचाए रखने का षड्यंत्र बहुत पुराना है। बर्बरता के विरोध में हमेशा सभी सांस्कृतिक लोगों ने प्रतिवाद किया है। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर और राम मोहन राय को भी हिन्दू धर्म की अनुभूति पर आक्रमण करना पड़ा था।
कुछ कूपमंडूक लोगों का कहना है कि मैंने मुस्लिम धर्म को आघात पहुंचाया है। वे कहते हैं मेरा बयान पश्चिम का बयान है और पश्चिम की आंखों से प्राच्य को देखने का बयान है। सहिष्णुता के नाम पर मुस्लिम मौलवियों को इस अर्थहीन, तर्कहीन दावे को तथाकथित भारतीय संदर्भ में ‘सेकुलर’ नामधारी प्राय: उच्चारण करते हैं। उन लड़कियों की बातों को ‘पाश्चात्य का बयान’ कह कर जिन लोगों ने नीचा दिखाया है, उनकी आधुनिकता को मैं धिक्कारती हूं।
मैंने क्रिश्चियन, यहूदी धर्म तथा अन्य और भी नारी विरोधी धर्मो की निन्दा की है, लेकिन उसके बाद भी किसी ने इसे लेकर मेरे ऊपर किसी प्रकार का आरोप नहीं लगाया। गैर मुस्लिम धार्मिक अनुभूति पर आक्रमण करने के बावजूद किसी ने मेरी मृत्यु का फतवा जारी नहीं किया। मैंने मानवतावाद को अपने विश्वास के ऊपर चुन लिया है। हमें इस्लाम धर्म के सुधारवादी के रूप में देखा जाता है, लेकिन ऐसी भूल करना उचित नहीं है। मैं रिफार्मर नहीं हूं । मैं किसी समुदाय की नहीं हूं। मेरा समुदाय धर्ममुक्त मानवतावाद का है।
(लेखिका मशहूर कथाकार हैं। लेख में व्यक्त विचार लेखिका के निजी विचार हैं।)
_ _ _ _
_ _ _ _
हिंदुस्तान से साभार।
http://epaper.hindustandainik.com/ArticleImage.aspx?article=08_03_2010_010_015&mode=1
2 टिप्पणियां:
तस्लीमा ने सही लिखा है. लेकिन डर देखिये कि अखबार ने नीचे लिखा है कि यह तस्लीमा के निजी विचार हैं.
इसी डर और तुष्टिकरण की नीति व् नियति ने तसलीमा को 'हिंदुस्तान' ने बाहर का रास्ता दिखा दिया- केंद्र और बंगाल के सेकुलर शैतानों को सलाम !
एक टिप्पणी भेजें