शिरीष खरे
बाड़मेर। राजौ और पूसाराम, एक ही दुनिया के दो किस्से हैं, दो किरदार हैं। इधर है अपनी अस्मत गंवा चुकी राजौ, जो गांव के विरोध पर भी अपनी अर्जी अदालत तक दे तो आती है, मगर लौटकर गांव से छूट जाती है। उधर है कमजोर दलित होने का दर्द झेलने वाला पूसाराम, जो डर के मारे अपनी गुहार अदालत से वापिस ले आता है, और गांव से जुड़ जाता है। यह दोनों ही मानते हैं कि थाने के रास्ते अदालत आना-जाना और इंसाफ की लड़ाई लड़ना तो फिर भी आसान है, मगर समाज के बगैर रह पाना बहुत मुश्किल है।
एक ने अदालत जाना मंजूर किया, दूसरे ने गांव में रहना। दोनों का हाल आपके सामने है, मगर कौन ज्यादा अंधेरे में है, कौन कम उजाले में- चलिए आप ही तय कीजिए- गांव....थाने....अदालत....समाज के बीच मौजूद इनके फासलों, अंधेरों से होकर :
राजौ के यहां जाने से पहले, उस रोज का अखबार भरतपुर जिले के गढ़ीपट्टी में ‘बंदूक की नोंक पर पांच लोगों के दलित औरत से बलात्कार’ की खबर देता था। राजौ का गांव सावऊ, बाड़मेर जिले के गोड़ा थाने से 12 किलोमीटर दूर बतलाया गया। वहां तक पहुंचने में 30 मिनिट भी नहीं लगे, मगर राजौ के भीतर की झिझक ने उसे 45 मिनिट तक बाहर आने से रोके रखा। राजौ के साथ जो हुआ वो घटना के चार रोज बाद याने 9 जून, 2003 की एफआईआर में दर्ज था : ‘‘श्रीमान थाणेदार जी, एक अर्ज है कि मैं कुमारी राजौ पिता देदाराम, उम्र 15 साल, जब गोड़ा आने वाली बस से शहरफाटा पर उतरकर घर जा रही थी, तब रास्ते में टीकूराम पिता हीराराम जाट ने पटककर नीचे गिराया, दांतों से काटा, फिर.......और उसने जबरन खोटा काम किया। इसके बाद वह वहां से भाग निकला। मैंने यह बात सबसे पहले अपनी मां को बतलाई। मेरे पिता 120 दूर मजूरी पर गए थे, पता चलते ही अगली सुबह लौट आए। जब गांव वालों से न्याय नहीं मिला तो आज अपने भाई जोगेन्दर सिंह के साथ रिपोर्ट लिखवाने आई हूं। साबजी से अर्ज है कि जल्द से जल्द सख्त कार्यवाही करें।’’
राजौ अब 20 साल की हो चुकी है। उसकी मां से मालूम चला कि बचपन में उसकी सगाई अपने ही गांव में पाबूराम के लड़के हुकुमराम से हो चुकी है। मगर वह परिवार अब न तो राजौ को ले जाता है, न ही दूसरी शादी की बात कहता है। गांव वालों से मदद की तो कोई गुंजाइश भी नहीं है। कहने को 2 किलोमीटर दूर पुनियो के तला गांव में ताऊ है, 60 किलोमीटर दूर बनियाना में चाचा है, 80 किलोमीटर दूर सोनवा में ननिहाल है, मगर कोई खबर नहीं लेता। यह झोपड़ा भी गांव से 2 किलोमीटर दूर यहां आ गया है, गृहस्थी का हाल पहले से ज्यादा खराब है। पंचों में चाहे खेताराम जाट हो या रुपाराम, खियाराम हो या अमराराम, सारे यही कहते हैं कि चिड़िया जब पूरा खेत चुग जाए, इसके बाद पछताओ भी तो क्या फायदा ?
राजौ के पिता देदाराम यह खोटी खबर लेकर सबसे पहले गांव के पंच खियाराम जाट के पास पहुंचे थे। उन्होंने इसे अंधेर और जमाने को घोर कलयुगी बतलाया, फिर देदाराम से पूछे बगैर दोषी टीकूराम के यहां यह संदेशा भी भिजवा दिया कि 20,000 रूपए देकर मामला निपटा लेने में ही भलाई है। मगर टीकूराम के पिता हीराराम जाट ने साफ कह दिया कि वह न तो एक फूटी कोड़ी देने वाला है, न निपटारे के लिए कहीं आने-जाने वाला है। फिर मजिस्ट्रेट की दूसरी पेशी पर बाड़मेर कोर्ट के सामने दोषी समेत गांव के सारे पंच-प्रधान जमा हुए। उन्होंने समझाया कि केस वापिस ले लो, कोर्ट-कचहरी का खर्चापानी भी दे देंगे। पर टीकूराम को साथ देखकर राजौ बिफर पड़ी, उसने राजीनामा के तौर पर लाये गए 50,000 रूपए जमीन पर फेंक दिए और ऐसी खरी-खोटी सुनाई कि वहां एक न ठहरा। इसके बाद जिस चाचा ने राजौ का नाता जोड़ा था, उसी के जरिए पंचों ने बातें भेजीं कि- ‘‘राजीनामा कर लो तो हम साथ रहकर गौना भी करवा दें, और छोटे भाई की शादी भी। नहीं तो सब धरा रह जाएगा। कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ने से अच्छा है आपस में निपटना। वो तो लड़का है, उसका क्या है, जितना तुम्हें पैसा देगा, उतना कचहरी में लुटाकर छूट जाएगा, तुम लड़की हो, उम्र भी क्या है, बाद में कोई साथ नहीं देता बेटी। फिर बदनामी बढ़ाने में अपना ही नुकसान है।’’ जब ऐसी बातों का असर भी नहीं हुआ तो कभी राजौ की जान की फ़िक्र की गई, कभी उसके छोटे भाई के जान की।
राजौ आज तक केस लड़ रही है। यह अलग बात है कि टीकूराम को जमानत पर रिहाई मिल गई, और उसके बाद उसकी शादी भी हुई। राजौ को कोर्ट में लड़ने का फैसला गलत नहीं लगता है, उसे वहां के फैसले का अब भी इंतजार है। राजौ को गांव में आने-जाने के लिए सीधे तो कोई भी नहीं रोकता, मगर पीठ पीछे......तरह-तरह की बातें तो होती ही हैं। वैसे पंचों को छोड़कर गांव के बाकी लोगों के साथ उसके रिश्ते धीरे-धीरे सुधर रहे हैं। राजौ के यहां से उठते वक्त उससे जब कहा गया कि रिपोर्ट में उसका नाम और फोटो छिपा ली जाएगी तो उसने बेझिझक कहा ‘‘मेरा असली नाम और फोटो ही देना। जिनके सामने लाज शरम से रहना था, उनके सामने ही ईज्जत उतर गई तो....तो दुनिया में जिन्हें हम जानते तक नहीं, उनसे बदनामी का कैसा डर ?’’
यह सवाल लेकर वहां से निकले और पूसाराम भील के गांव बाण्डी धारा की तरफ बढ़े। यहां तक पहुंचने के लिए कच्चे, टेढ़े-मेढ़े रास्ते के बीच इतने हिचकोले खाए कि मिनिटों का समय घण्टे में बदला। पूसाराम भी दो साल पहले अपने पर बीती बातों को घण्टों तक बतलाता रहा कि तब रामसिंह राजपूत और उसके साथ के सात और आदमियों ने दारू पीकर यहां बुरी-बुरी गालियां दीं। फिर उसे डराकर उसका एक बकरा खरीदने और पैसा बाद में देने की बात करने लगे। जब पूसाराम ने न की तो उसे बुरी तरह पीटा। खेत में काम कर रही उसकी घरवाली मीरा ने जब ये चीखें सुनीं तो दोड़ी-दौड़ी आई। आते ही देखा कि रामसिंह उसके बकरे को ले जा रहा है तो उसे छुड़ाने की कोशिश में बेरहम मार भी खाई। इत्तेफाक से वह 26 जनवरी की सुबह थी, इसलिए सारे गांव वाले स्कूल में थे। पूसाराम फौरन वहां भागा और सबके सामने सारी बात सुना डाली। तब गांव वालों ने रामसिंह को बुलवाया, मगर वह नहीं आया। अगले रोज पूसाराम अपनी घरवाली के साथ थाने जाकर रिपोर्ट लिखवा आया। उस तारीख से दो महीने तक उसका केस कचहरी में रहा, मगर इधर गांव वालों के बढ़ते जोर के आगे एक रोज वह ऐसा टूटा कि राजीनामा के लिए हां बोल बैठा। उसे मारपीट का भंयकर दर्द हमेशा के लिए भूल जाना पड़ा। खींचतान से बुरी तरह घायल होकर 5 रोज में मरे बकरे की मौत और उसकी कीमत भी भूल जानी पड़ी। गांव वालों ने सिर्फ अस्पताल में लगे खर्चापानी दिलवाने की गांरटी भर दी। उन्होंने यह भी भरोसा दिलाया कि अब आगे से ऐसा नहीं होगा। दोषी रामसिंह राजपूत ने माफी भी मांगी, यह अलग बात है कि केवल ऊंची जाति वालों के सामने। पूसाराम से माफी मांगने के सवाल पर उसके भीतर जाति का अहम अड़ गया था। तब गांव वालों ने ही पूसाराम से माफी मांग ली और केस को निपटा दिया।
‘तो राजीनामा से खुश हो’- ऐसा सुनकर पूसाराम ने सिर से मनाही करते हुए जैसे सख्त ऐतराज जताया। उसने बताया कि ‘‘यह राजीनामा उसकी खुशी से नहीं, गांव वालों की खुशी से हुआ है। जिसकी बड़ी लड़की के ही 3 लड़कियां हो, उसे बेहिसाब पीटने का कोई तुक नहीं बनता। घरवाली की पीठ, पसलियों से उठने वाले दर्द ने महीनों तक तकलीफ दी थी।’’ ‘अगर ऐसा ही था तो राजीनामा किया ही क्यों’- जबाव में पूसाराम बोला ‘‘कुछ लोग बोले देख कितने बड़े लोग तेरे सामने हाथ जोड़ रहे हैं, तू उनकी बातें ठुकरा नहीं सकता, आखिर हम सब को रहना तो गांव में ही है ना। मुझे भी लगा कि वह सही है। खेत के पानी से लेकर आंगन का गोबर, चूल्हे की लकड़ियां, कर्ज के पैसे, आटे की चक्की, मजूरी, सब तो उन्हीं के भरोसे पर है। मेरा जोर चलता तो आगे भी लड़ता, मगर कुछ रोज में गांव छोडना पड़ जाता। यहां झोपड़ी हैं, यहीं जमीन हैं। बीबी, बच्चों, बकरियों को लेकर कहां जाता ?’’
कहते हैं ‘‘पांच पंच मिल कीजै काज। हारे जीते होय न लाज।।’’ मगर जहां के पंच अपनी ताकत से जीत को अपने खाते में रखते हो, वहां के कमजारों के पास हार और लाज ही बची रह जाती है। ऐसे में कोई कमजोर जीतने की उम्मीद से कचहरी के रास्ते जाए भी तो उसे जाती हुई राजौ और लौटता हुआ पूसाराम खड़ा मिलता है। तब यह सवाल इतना सीधा नहीं रह जाता है कि वह किसके साथ चले, किसके साथ लौटे ?
1 टिप्पणी:
बहुत उम्दा कथा. विचारणीय.
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