शिरीष खरे
पारधी एक बंजारा जमात का नाम है. उसके माथे पर जन्मजात गुनहगार होने का कलंक लगा है. उसे अपनी पहचान बदलने के लिए मौका चाहिए. देश चुनाव से बनता है. लोग वोट से अपनी किस्मत बदलते है. फिलहाल चुनाव-2009 की हवा है. लेकिन पारधी जैसे बंजारा लोग नहीं दिखते. वह मराठवाड़ा के जंगलों में भटक रहे हैं. यहां कुल वोटर में से करीब 3 प्रतिशत बंजारा है. लेकिन आजादी के 62 सालों के बाद भी कई बंजारों के नाम वोटरलिस्ट से नहीं जुड़ सके हैं. इसलिए कोई भी पार्टी या नेता उनके पास क्यों जाएगा ?
पारधी याने मिथ, इतिहास और परंपराओं में जकड़ी एक ऐसी जमात जिसे अंग्रेजों ने ‘अपराधिक जनजाति अधिनियम 1871’ के तहत सूचीबद्ध किया था. अंग्रेज चले गए लेकिन धारणाएं नहीं गईं. तभी तो पारधी लोग गांव से बेदखल हैं. इसलिए उन्हें अपने बुनियादी हक नहीं मिल सके हैं. इसीलिए उनके हिस्से में घर, बिजली, पानी, राशन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं. पारधी पारध शब्द से बना. पारध का मतलब शिकार से हुआ. इस तरह पारधी याने शिकार करने वाला. पारधी भी कई तरह के होते हैं. जैसे राज, बाघरी, गाय, हिरन शिकारी और गांव पारधी. राजा के पास जो शिकार करने वाला विशेषज्ञ था वह राज पारधी कहलाया. जब राजा बोलता कि मुझे बाघ पर सवार होना है तो बाघरी पारधी बाघ पकड़ता और उसे पालतू बनाता. एक तो बाघ को जिंदा पकड़ना और उसे लाकर पालतू बनाना बहुत मुश्किल काम होता है. गाय पारधी का मुख्य वाहन गाय है. आज भी हर परिवार के पास एक गाय होना जरूरी है. यह गाय प्रशिक्षित होती है. यह पारधी के शिकार के धंधे की मां होती है. इसलिए पारधी गाय का मांस नहीं खाता. एक पारधी के लिए हिरन के पीछे दौड़कर मारना मुश्किल होता है. इसमें वह गाय की मदद लेता है. वह ऐसी गाय बाजार से खरीदने की बजाय अपनी ही गाय से पाता है. हिरन के शिकार के वक्त जब गाय चरती हुई आगे बढ़ती है तब उसके पीछे पारधी छिपा आता है. हिरन के पास आते ही पारधी उसके ऊपर अचानक छलांग मारता है. पारधी की गाय शिकार की सारी शैलियां जानती है. उसकी गाय इतनी सीखी होती है कि शरीर के जिस हिस्से में हाथ रखो तो वह समझ जाती है क्या करना है. कहते हैं कि पारधी पंछियों की बोली भी खूब जानता है. जैसे पारधी के तीतर जब दूसरे तीतरों को गाली देते हैं तब जंगल के कई तीतर लड़ने के लिए आते हैं. लेकिन वह बीच में लगे जाल में फंस जाते हैं. इस तरह शिकार के और भी कई ढ़ंग हैं. पारधी शिकार के बारे में सबसे ज्यादा जानकारी रखने वाली जमात है. वह दुनिया की सबसे ईमानदार जमातों में से एक है. इसलिए वह राजा के सुरक्षा सलाहकार भी बनते थे. जिसे आज की जुबान में एनएसजी कमाण्डो कह सकते हैं. आज भी एक पारधी गांव के 25 से 50 खेतों की रखवाली करता है. सारे पारधी मिलकर एक-दूसरे के खेतों में नहीं जाने का उसूल बनाते हैं. किसी के खेत में चोरी हुई तो उस खेत का पारधी नुकसान की भरपाई करता है. वह अपने खुफिया नेटवर्क से चोरी का पता लगा लेता है. इस मामले को जाति पंचायत में उठाता है. गांव के पारधी को रखवाली के बदले सलाना अनाज मिलता है. इस लिहाज से पारधी गांव की अर्थव्यवस्था में अहम कड़ी है. पारधी का रहन-सहन उसके धंधे के मुताबिक होता है. वह कमर में छोटी और कसी हुई धोती पहनता है. उसकी छाती पर कई पाकेट वाली बण्डी और सिर पर रंग-बिरंगी पगड़ी होती है. इनका पहनावा ऐसा होता है कि दौड़-भाग करने पर आवाज नहीं आए. क्योंकि पारधी जमात नागरिकों की रखवाली का काम करती है. इसलिए उसने गुलामी के खिलाफ पहली उग्र प्रतिक्रिया भी दी थी. मराठवाड़ा के पारधियों ने पहले निजाम और फिर अंग्रेजों से कई लड़ाईयां लड़ी. पारधियों की वीरता के हिस्से स्थानीय जनता की जुबान पर हैं. अंग्रेज जब पारधियों की छापामार और बार-बार के हमलों से परेशान हो गए तो उन्होंने इस जमात को ‘गुनहगार’ घोषित कर दिया. उन्होंने ‘अपराधिक जनजाति अधिनियम 1871’ के तहत सभी पारधियों को गुनहगार कह डाला. 1947 को आजादी आयी और अपनी सरकार का पुलिस विभाग बना. लेकिन तरीका अंग्रेजों के जमाने का ही चला. 1924 को देश में 52 गुनहगार बसाहट बनाये गए थे. महाराष्ट्र के शोलापुर में सबसे बड़ी गुनहगार बसाहट बनी. इसमें तार के भीतर कैदियों को रखा जाता था. 1949 को बाल साहेब खेर और उनके साथियों ने शोलापुर सेटलमेंट का तार तोड़ डाला. 1952 को डा. बी. आर. अंबेडकर ने गुनहगार घोषित करने वाले कानून को रद्द किया. 1960 को जवाहरलाल नेहरू ने शोलापुर दौरा किया. लेकिन यहां आज भी चोरी हुई तो पुलिस सबसे पहले पारधी को ही पकड़ती है. इसलिए यहां सबसे पहला सवाल उनकी पहचान को लेकर हाजिर है. देखा जाए तो पारधी चोर नहीं इंसान है. अगर वह चोर है भी तो उन्हें चोरी के दलदल से बाहर निकालना होगा. इसमें समाज और पुलिस की भूमिका अहम हो सकती है. लेकिन समाज और पुलिस की व्यवस्था उसे चोर से ज्यादा कुछ नहीं मानती. पहली जरूरत उनके भीतर के डर को खत्म करना है. इसके लिए आपसी एकता, कानून और वोट को हथियार बनाना होगा. तभी जमीन और आजीविका का हक मिलेगा. एक शिक्षित और जागरूक समाज ही व्यवस्था की खामियों के खिलाफ लड़ सकता है. इसलिए पारधी जमात के बच्चों को एक सपना देना होगा कि पुलिस या समाज तुम्हारे पीछे नहीं है. वह तुम्हारे साथ-साथ है. ऐसा सपना देखने वाले बच्चों को स्कूलों में तैयार करना होगा. उनकी खेल, सांस्कृतिक और बौद्धिक प्रतिभाओं को मौका देना होगा. दरअसल पारधी जमात की पहचान उन्हें कुशल बनाकर ही बदली जा सकती है. चुनाव सबकी भागीदारी का संदेश देता है. लेकिन कई बंजारों को वोट डालने की इजाजत नहीं देता. सत्ता के विकेन्द्रीकरण और पुलिस सुधारों की बातें तो होती है. लेकिन पारधियों के ऊपर होने वाली बर्बरताएं नहीं गूंजती. चुनाव के बाद बहुत सारे मुद्दों को भुला दिया जाता है. लेकिन पारधियों की परेशानियों को तो चुनाव में भी याद नहीं किया जाता. इसलिए चुनने की आजादी का हक पाए बगैर पारधियों की हर लड़ाई अधूरी ही रहेगी. साभार : विस्फोट.कॉम लिंक : http://www.visfot.com/index.php/story_of_india/875.html
2 टिप्पणियां:
भाई साहब,
आपका यह पारधी हिंदुधर्म के अलावा किसी और धर्म का है क्या? दर्जनों की बच्चे पैदा करता है क्या? क्या यह जमात किसी एक (मुखिया) कहने में है??
किसी एक जगह बसने पर, थोड़े ही समय में वहाँ अपना पुरा कुनबा इकठ्ठा कर लेता है क्या?? अंत में, क्या यह समुदाय "अल्पसंख्यक" श्रेणी में आता है?? अगर नहीं तो फ़िर ये जमात वोट बैंक कैसे बन सकती है, और जब वोट बैंक नहीं तो बाकी की सुख सुविधाओं की सोच भी कैसे सकते हैं?
आप भी ना, पता नहीं किस किस जाति समुदाय की बातें ले आते हैं यहाँ 'हिन्दुस्तान' में।
मेरे बदनाम होने के बाद
कितने लोगों के काम हो गये
सारे जुर्म मेरे नाम हो गये
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