10.1.09

गांव-गांव टूटकर, ठांव-ठांव बन गए













मेलघाट टाइगर रिर्जव एरिया से

इस साल ज्यों ही टाइगर रिजर्व बना कोरकू जनजाति का जीवन दो टुकड़ों में बट गया. एक विस्थापन और दूसरा पुनर्वास. ऊंट के आकार में उठ आये विस्थापन के सामने पुनर्वास जीरे से भी कम था. पुराने घाव भरने की बजाय एक के बाद एक प्रहारों ने जैसे पूरी जमात को ही काट डाला. अब इसी कड़ी में 27 गांव के 16 हजार लोगों को निकालने का फरमान जारी हुआ है. अफसर कहते हैं बेफिक्र रहिए, कागज में जैसा पुनर्वास लिखा है ठीक वैसा मिलेगा. जबाव में लोग पुनर्वास के कागजी किस्से सुनाते हैं. और आने वाले कल की फिक्र में डूब जाते हैं.


10 तक का पहाड़ा न आने के बावजूद 1974 यहां के बड़े-बूढ़ों की जुबान पर रखा रहता है. 1974 को `वन्य जीव संरक्षण कानून´ बना और `मेलघाट टाइगर रिजर्व´ वजूद में आया. कुल भू-भाग का 73 फीसदी हिस्सा कई तरह की जंगली पहाड़ियों से भरा है. बाकी जिस 27 फीसदी जमीन पर खेती की जाती है वह भी बारिश के भरोसे है. इस तरह आजीविका का मुख्य साधन खेती नहीं बल्कि जंगल ही है. इस 1677.93 वर्ग किलोमीटर इलाके को तीन हिस्सों में बांटा गया है- (पहला) 361.28 वर्ग किलोमीटर में फैला गुगामल नेशनल पार्क, (दूसरा) 768.28 वर्ग किलोमीटर में फैला बफर एरिया और (तीसरा) 1597.23 वर्ग किलोमीटर में फैला मल्टीपल यूजेज एरिया. तब के दस्तावेजों के मुताबिक सरकार ने माना था कि इससे कुल 62 गांव प्रभावित होंगे.

विराट गांव के ठाकुजी खड़के ने बताया कि- ``परियोजना को लेकर हम लोगों से कभी कोई जिक्र नहीं किया गया. 1974 में तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और प्रदेश के वनमंत्री रामू पटेल अपने काफिले के साथ यहां आए और कोलखास रेस्टहाउस में ठहर गए. उस वक्त रामू पटेल ने आसपास के खास लोगों को बुलाकर इतना भर कहा था कि सरकार शेरों को बचाना चाहती है इसलिए यहां शेर के चमड़ा बराबर जगह दे दो.´´ लेकिन यह चमड़ा चौड़ा होते-होते अब पूरे मेलघाट को ही ढ़कने लगा है. ऐसी स्थिति में `चाईल्ड राईटस एण्ड यू´ और `प्रेम´ संस्थाएं कोरकू जनजाति के साथ कदम से कदम मिलाकर संघर्ष कर रही हैं. `चाईल्ड राईटस एण्ड यू´ के महाप्रंबधक कुमार नीलेन्दु के मुताबिक- ``सरकार जनता के हितों के लिए काम करती है. मगर यहां तो स्थिति एकदम उल्टी है. कभी संरक्षण तो कभी विकास के नाम पर जनजातियों का ही विनाश जारी है. ऐसी योजना में न तो लोगों को शामिल किया जाता है और न ही खुली नीति को अपनाया जाता है. इसलिए व्यवस्था में घुल-मिल गई कई खामियां अब पकड़ से दूर होती जा रही हैं. सरकार हल ढ़ूढ़ने की बजाय हमेशा नई उलझनों में डाल देती है.´´

इस दिशा में पहला काम 1974 को बाघों की संख्या खोजने के लिए सर्वे से शुरू हुआ. 6 सालों तक तमाम कागजी कार्यवाहियों का दौर चलता रहा जिसमें सारी औपचारिकताएं पूरी कर ली गई. 1980 से `वन्य जीव संरक्षण कानून´ व्यवहारिक अगड़ाईयां लेने लगा. पसतलई गांव के तुकाराम सनवारे कहते हैं- ``जब बाबू लोग फाइलों को लेकर इधर-उधर टहलते तब हमने नहीं जाना था कि वह एक दिन जंगलों को इस तरह बांट देंगे. वह जीपों में सवार होकर आते और हर बस्ती की हदबंधी करके चले जाते. साथ ही हमसे खेती के लिए जमीन देने की बातें कहते. हमें अचरज होता कि जो जमीन हमारी ही है उसे क्या लेना. उनकी यह कागजी लिखा-पढ़ी 6 महीने से ज्यादा नहीं चली.´´ सेतुकर डांडेकर ने बताया- इतने कम वक्त में उन्होंने कई परिवारों को खेती के लिए पट्टे बांट देने की बात कर डाली. लेकिन उस वक्त कई परिवार पंजीयन से छूट गए. ऐसा लोगों के पलायन करने और सर्वे में गड़बड़ियों के चलते हुआ. इस तरह उन्होंने हमारी बहुत सारी जमीन को अपनी बताया. हमने भी जमीनों को छोड़ दिया. वन-विभाग ने ऐसी जमीनों पर पेड़ लगाकर उन्हें अपने कब्जे में ले लिया. हमारी सुनवाई एक बार भी नहीं हुई.´´ इस तरह किसानों की एक बड़ी आबादी को मजदूरों में बदल डाला. रोजगार गांरटी योजना के तहत अब तक 45780 मजदूरों के नाम जोड़े जा चुके हैं.

1980 के खत्म होते ही जंगल और आदिवासी के आपसी रिश्तों पर होने वाला असर साफ-साफ दिखने लगा. एक-एक करके उन्हें जंगली चीजों के इस्तेमाल से पूरी तरह बेदखल कर दिया गया. उन्हें भी लगने लगा जंगल हमारा नहीं, पराया है. इस पराएपन के एहसास के बीच उन पर जंगल खाली करने का दबाव डाला गया. `मेलघाट टाइगर रिजर्व´ से सबसे पहले तीन गांव कोहा, कुण्ड और बोरी के 1200 घरों को विस्थापित होना पड़ा था. पुनर्वास के तौर पर उन्हें यहां से करीब 120 किलोमीटर दूर अकोला जिले के अकोठ तहसील भेज दिया गया. कुण्ड पुनर्वास स्थल में मानु डाण्डेकर ने बताया कि- ``सर्वे में तब जो गड़बड़ियां हुई थी उन्हें हम अब भुगत रहे हैं. जैसे 6 परिवारों को यहां आकर मालूम चला कि उन्हें खेती के लिए दी गई जमीन तो तालाब के नीचे पड़ती है. अब आप ही बताए पानी में कौन-सी फसल उगाए? जो जानवर हमारी गुजर-बसर का आसरा हुआ करते थे इधर आते ही उन्हें बेचना पड़ा. क्योंकि चराने के लिए यहां जमीन नहीं थी इसलिए सड़क के किनारे-किनारे चराते. इस पर आसपास के लोग झगड़ा करते और कहते कि हमारे जानवर कहां चरेंगे ? हम आदमी के मरने पर उसे जमीन के नीचे दफनाते हैं. लेकिन यहां कहां दफनाए ?´´

पुनर्वास-नीति के कागजों में दर्ज हर सुंदर कल्पना यहां आकर दम तोड़ देती है. इन पुनर्वास की जगहों पर दौरा करने के बाद मूलभूत सुविधाओं का अकाल नजर आया. तीनों गांवों के बीचोबीच जो स्कूल खोला गया उसकी दूरी हर गांव से 2 किलोमीटर दूर पड़ती हैं. इस तरह गांव की बसाहट एक-दूसरे से बहुत दूर-दूर हो गई है. आंगनबाड़ी यहां से 5 किलोमीटर दूर अस्तापुर में हैं. प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के लिए 10 किलामीटर दूर रूईखेड़ा जाना होता है. इन्हें जिन इलाकों में जगह मिली है वह आदिवासी आरक्षित क्षेत्र से बाहर है इसलिए यह सरकार की विशेष सुविधाओं से भी बाहर हो गए हैं. जैसे पहले इन्हें राशन की दुकान पर अन्तोदय योजना से 3 रूपए किलो में 15 किलो चावल और 2 रूपए किलो में 20 किलो गेहूं मिल जाता था. वह अब नहीं मिलता. और तो और यहां बीपीएल में केवल 3 परिवारों के नाम ही जुड़ सके हैं. लगता है बाकी के हजारों परिवार इस सूची से भी विस्थापित हो गए हैं. 2002 में शासन ने बिजली, पानी और निकास के इंतजाम का वादा किया गया था. बीते 6 सालों में यह वादा एक सपने में तब्दील हो गया.

यहां से 4 किलोमीटर दूर कुण्ड गांव से विस्थापित नत्थू बेलसरे की सुनिए- ``6 साल पहले खेती के लिए मिली जमीन कागज पर तो दिखती है मगर यहां ढ़ूढ़ने पर भी नहीं मिलती. इसके लिए अमरावती से लेकर नागपुर तक कई कार्यालयों के चक्कर लगाए लेकिन जमीन का कोई अता-पता नहीं. इस पर बाबू लोग हैरान और हम परेशान हैं.´´ यहां से 4 किलोमीटर दूर कोहा पुनर्वास स्थल में हरिजंड बेलसरे और हीरा मावस्कर ने खेती के लिए जमीन नहीं मिलने की बात बताई. कुण्ड पुनर्वास स्थल पर तो 11 परिवारों को घर के लिए न तो पैसा मिला और न ही जमीन. लोगों ने कहा कि वह आज भी इधर-उधर गुजर-बसर कर रहे हैं. लेकिन कहां हैं, यह कोई नहीं जानता.

बोरी पुनर्वास स्थल में सुखदेव एवले ने बताया कि- ``हमारी पुश्तैनी बस्तियों को हटाए जाने के पहले इसकी कोई कागजी खबर और तारीख देना भी मुनासिब नहीं समझा गया। अफसर आते और कह जाते बस अब इतने दिन और बचे, फिर तुम्हें जाना होगा। उनका बस्ती हटाने का तरीका भी अजीब है. जिस बस्ती के इर्द-गिर्द 8-15 दिन पहले से ट्रक के ट्रक घूमने लगे, समझो घर-गृहस्थी बांधने का समय आ गया. कर्मचारियों के झुण्ड के झुण्ड चाय-पान की दुकानों पर जमा होकर तोड़ने-फोड़ने की बातें करते हैं. कहते हैं दिल्ली से चला आर्डर तीर की तरह होता है, आज तक वापिस नहीं लौटा. अगर समय रहते हट गए तो कुछ मिल भी जाएगा. नहीं तो घर की एक लकड़ी ले जाना मुश्किल हो जाएगा. ऐसी बातों से घबराकर जब कुछ लोग अपने घर की लकड़ियां और घपड़े उतारने लगते हैं तो वह बस्ती को तुड़वाने में हमारी मदद करते हैं. हमारे लड़को को शाबाशी देते हैं. देखते ही देखते पूरी बस्ती के घर टूट जाते हैं.´´

इसी तरह वैराट, पसतलई और चुरनी जैसे गांवों के घर भी टूटने वाले हैं. पुनर्वास के लिए शासन को 1 करोड़ 9 लाख रूपए दिये गए हैं. अधिकारियों को यह रकम बहुत कम लगी इसलिए उन्होंने और 2 करोड़ रूपए की मांग की है. ऐसे अधिकारी जंगल और जमीन के बदले नकद मुआवजों पर जोर देते हैं. जानकारों की राय में नकद मुआवजा बांटने से भष्ट्राचार की आशंकाएं पनपती हैं. जैसे सरदार सरोवर डूब प्रभावितों को नकद मुआवजा बांटने की आड़ में भष्ट्राचार का बांध खड़ा हो गया. जिसमें अब कई अधिकारी और दलालों के नाम उजागर हो रहे हैं. यहां भी कोरकू जनजाति का रिश्ता जिन कुदरती चीजों से जुड़ा है उसे रूपए-पैसों में तौला जा रहा हैं. लेकिन जनजातियों को रूपए-पैसों के इस्तेमाल की आदत नहीं होती. इसके पहले भी विस्थापित हुए लोगों के पास न तो जंगल ही रहा और न ही नकद. आखिरी में उसकी पीठ पर बस मुसीबतों का पहाड़ रह जाता है. वैराट गांव की मनकी सनवारे कहती है-``यहां से गए लोगों की हालत देखकर हम अपना जंगल नहीं छोड़ना चाहते. सरकार के लोग बस निकलने की बात करते हैं लेकिन अगले ठिकानों के बारे में कोई नहीं बोलता.´´

`प्रेम´ संस्था के संजय इंग्ले मानते हैं- ``शासन के पास दर्जनों गांवों को विस्थापित करने के बाद उन्हें एक जगह बसाने की व्यवस्था नहीं हैं. जिस अनुपात में विस्थापन हो रहा है उसी अनुपात में राहत मुहैया कराना बेहद मुश्किल होगा. पुराने तजुर्बों से भी ऐसा जाहिर होता है इसलिए अब और विस्थापन सहन नहीं होगा´´ उनके साथ वैराट, पसतलई और चुरनी गांवों से तुकाराम सनवारे, तेजुजी सनवारे, फकीरजी हेकड़े, किशनजी हेकड़े, शांता सनवारे, सुले खड़के, फुलाबाई खड़के और गोदाबाई सनवारे जैसी हजारो आवाजों ने विस्थापन के विरोध में एक आवाज बुलंद की है. क्या उनकी यह गूंज जंगल से बाहर भी सुनी जाएगी ?

हाल ही में इस डिवीजन के वनाधिकारी रवीन्द्र बानखेड़े ने सरकार को टाइगर रिजर्व की सीमा 444.14 वर्ग किलोमीटर बढ़ाने के लिए प्रस्ताव भेजा है. जब तक यह रिर्पोट प्रकाशित होगी तब तक हो सकता है उसे मंजूरी मिल जाए. फिलहाल एक और विस्थापन की इबारत लिखकर भेजी जा चुकी है. इसका मतलब दर्जनों गांवों के हजारों लोगों को उनकी दुनिया से बेदखल कर दिया जाएगा. इंसान और जानवर सालों से साथ रहते आये हैं इस सरकारी संरक्षण (उत्पीड़न) के बाद जानवर और इंसान सालों तक नहीं समझ पायेंगे कि उनके साथ क्या किया गया और क्यों?

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