शिरीष खरे
उस्मानाबाद/महाराष्ट्र. तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली ललिता, सीमा और वैशाली स्कूल लगने के एक घंटे पहले ही पहुंच गई हैं. स्कूल की सीढ़ी पर खड़ी ललिता आज का जो पाठ पढ़ा रही है उसे नीचे बैठी सीमा और वैशाली लिख रही हैं. तीनों अपने-अपने काम में इतनी तल्लीन हैं कि उन्हें अपने आसपास का भी ध्यान नहीं है. लेकिन आसपास खड़े लोगों के लिए यह दृश्य साधारण नहीं है.
असल में हम जिस स्कूल की बात कर रहे हैं वह है पारधी स्कूल. पारधी यानी मिथ, इतिहास, सामाजिक परंपरा और कानून के मकड़जाल में फंसी एक ऐसी जनजाति जिसके लिए ऐसा दृश्य दुर्लभ है. इसलिए कम से कम स्थानीय लोगों के लिए यह स्कूल किसी आश्चर्य से कम नहीं लगता.अंग्रेजों ने पारधी जनजाति को अपराधिक जनजाति अधिनियम,1871 के तहत सूचीबद्ध किया था. अंग्रेज चले गए मगर धारणा छोड़ गए. इसलिए आज भी पारधी बस्तियां गांव से कोसों दूर जंगलों में होती हैं. कोई रास्ता इन बस्तियों को नहीं जाता. न ही सरकार की कोई योजना यहां आती है और न बिजली, न पानी, न राशन और न ही स्वास्थ्य की कोई सुविधा. इसलिए यहां के लोग कहते हैं कि आजादी के 64 सालों में सरकार ने हमें एक ही चीज दी है और वह है– महादेव बस्ती का यह स्कूल.
महाराष्ट्र के उस्मानाबाद से तकरीबन 125 किमी दूर, एक जंगली पहाड़ी के नीचे यहां गिनती के 60 पारधी घरों में 279 बाशिंदे रहते हैं. इनके दिलों से शासन की दहशत कुछ कम तो हुई है लेकिन पूरी तरह से गई नहीं. तभी तो थोड़ी देर पहले हमारी गाड़ी देखते ही ज्यादातर लोग अदृश्य हो गए थे. उन्हें लगा था कि आसपास कोई वारदात हुई होगी जिसकी छानबीन के लिए पुलिस आई है. लेकिन कुछ देर बाद ‘अपनेवाले हैं’, ऐसा कहकर ये एक जगह जमा होने लगे. और अब जिस जगह हम हैं, वह है बस्ती की एकमात्र पक्की बिल्डिंग यानी महादेव बस्ती का यह स्कूल. बोर्ड पर स्कूल बनने का साल (1998), बच्चों की कुल संख्या (27), बालक (10) और बालिका (17) लिखा है. एक बड़े हॉल से होकर 2 कमरे खुलते हैं जिसमें चौंथी तक की कक्षाएं लगती हैं. यों तो स्कूल का कार्यालय और उसके पीछे बाथरूम भी है लेकिन 30 गुणा 60 फीट वाले इस स्कूल की पूरी तस्वीर तब बनती है जब लोगों से मालूम होता है कि चार सालों से यहां का परीक्षाफल शत प्रतिशत है. साथ ही यह उस्मानाबाद जिले का आदर्श स्कूल घोषित है.
गांव के सुबराराव शिंदे ने याद करते हुए बताते हैं, 'पहले तो पुलिस के छापे ही लगते थे. कोई शिक्षक आने की हिम्मत नहीं करता था. तब स्कूल की दीवारें थीं, पर पढ़ाई नहीं. यदि शिक्षक आते भी तो बच्चे नहीं होते. वे इधर उधर खेलते रहते और शिक्षकों को 'ओ मास्टर' कहकर चिढ़ाते. हमें लगता कि इस स्कूल के बहाने पुलिस बस्ती पर निगाह रखती है.' फिर कोई आठ साल पहले पहल की एक स्थानीय दलित संगठन ने. दलित संगठन ने जब यहां कदम रखा तो कई मुश्किलों का सामना किया. संगठन के कर्ताधर्ता बजरंग टाटे बताते हैं, 'ये हमें पुलिस की ही दोस्त समझते. पूछने पह अपना नाम सलमान या शाहरुख बताते और फोटो तो बिल्कुल नहीं खिंचवाते. हमारा चार साल का समय बच्चों को स्कूल बुलाने में ही चला गया. गांव के कल्याण काले के मुताबिक संगठन के लोगों ने पहले गांव वालों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताया. इससे गांव वालों के अंदर का डर दूर होने लगा. बातों ही बातों में गांव के लोगों ने जाना कि पढ़ाई कितनी जरूरी है. तब पढ़ाई में आने वाली अड़चनों पर घंटों बातें होतीं. टाटे ने बताया कि 2007 को 60 परिवारों के सभी महिला और मर्दों को लेकर एक सर्वे किया. तब समाज ने शाला का मॉडल बनाया. इसलिए शाला का नाम पड़ा- समाजशाला.
समाजशाला के बारे में शिक्षिका प्रतिभा दीक्षित बताती हैं कि इस स्कूल का पाठ्यक्रम सरकारी ही है. बकौल प्रतिभा, 'पहले पहल बच्चों के साथ खास दिक्कत यह रही कि इन्हें पारधी ही बोलनी आती थी, जो हमें नहीं आती थी. तब एक दूसरे को समझने के लिए खेल, गाने, चित्रों और कई चीजों का इस्तेमाल किया गया. धीरे-धीरे बच्चे मराठी, हिंदी और अंग्रेजी के पाठ भी सीखने लगे.' महादेव बस्ती की महिला सुनिधि शिंदे से पता चला कि स्कूल की ताकत उसकी समिति है. इसे बस्ती की औरतें संभालती हैं. यही बच्चों की हाजिरी, उनकी पढ़ाई-लिखाई और दोपहर के खाने का ध्यान रखती हैं. यहां औरतों का अलग से एक समूह है जिसमें सभी हर महिने दस-दस रुपए जमा करती हैं. यह रकम सिर्फ बच्चों पर खर्च होती है. समाजशाला से समन्वयक विठ्ठल खंडागले ने बताया कि स्कूल में बिजली, शौचालय, मैदान और मैदान पर बने ब्लैकबोर्ड को युवा टोली की मेहनत का नतीजा है. टोली में अठारह से तीस साल के पारधी युवा 26 जनवरी को एक मेला लगाकर अफसरों के अलावा नेताओं को भी बुलाते हैं. इस साल जिला परिषद अध्यक्ष गोदावरे केंद्रे ने बस्ती में पक्की सड़क बनाने का वादा किया है. इसी तरह बीते साल उपविभागीय पुलिस अधीक्षक विजय महाले ने पारधियों के दिलों में पुलिस के डर को दूर करने के लिए कार्यशाला रखी थी.
चार साल पहले महादेव बस्ती ने अपनी पंचायत में जो फैसला लिया उस पर मराठवाड़ा के कई लोगों को आज भी यकीन नहीं होता. उस दिन पूरी बस्ती इस बात पर एकमत हुई कि अगर हमारा बच्चा यदि हमारी गलती से स्कूल नहीं जाता तो हम आर्थिक जुर्माना देंगे. जो बस्ती शिक्षा के दीपक से दूर रही थी उसी बस्ती ने पढ़ाई-लिखाई का यह मतलब जाना था. तब से स्कूल में बच्चों की शत प्रतिशत उपस्थिति दर्ज होने लगी और एक भी बच्चा ड्रापआउट नहीं हुआ. प्रधानाध्यापक राम डाहवे ने खुशी जाहिर करते हुए बताते हैं, 'स्कूल की तारीफ तो कलेक्टर भी करते हैं. समय के साथ पढ़ाई भी बदल रही है. अब हर काम कम्प्यटूर पर होने लगा है. इस इलाके के कई स्कूलों में कम्प्यटूर नहीं पहुचें लेकिन इस साल यहां दो कम्पयूटर दिए हैं.' समाजशाला अब देश भर को यह संदेश दे रही है कि अगर पारधी बस्ती के भीतर एक स्कूल इतना बदलाव ला सकता है तो दूसरी बस्तियों के सरकारी स्कूल क्यों नही.
देखा जाए तो सिर्फ स्कूल बनाने की कोशिशें ही काफी नहीं हैं. इस बस्ती के लोग गांव से बाहर होने के कारण मतदातासूची से छूटे हुए हैं. फुलादेवी (बदला नाम) बताती हैं, 'पुलिस की ज्यादतियां रूकी नही हैं. आसपास कोई चोरी हुई नहीं कि वह यहां आ धमकती है. लेकिन बच्चे समय के पहले स्कूल पहुचंते ही हैं.' जाते समय हमने उनसे इतना ही कहा 'बदलाव की यह आदत रहनी चाहिए.' लेकिन कक्षा 4 के बाद यह आदत रह पाएगी या नहीं कोई नहीं जानता, क्योंकि आगे की पढ़ाई के लिए यहां से बाहर जाना होगा. और इस बस्ती से दूर जाने से बच्चे तो क्या बड़े भी डरते हैं.
शाम ढल चुकी है लेकिन पारधी गानों की धुन पर बच्चों का थिरकना जारी है. बिछड़ते समय पहली के कुछ बच्चो ने घेर लिया. उनमें से दीपक शिंदे ने कहा, 'अरे हमारी एक कविता तो सुनते जाओ.'
हमने कहा, 'कौन-सी?'
वह बोला, 'सूरज को तोड़ने जाना है.'
हमने कहा, 'अगली बार तोड़ कर सुनाना.'
उस्मानाबाद/महाराष्ट्र. तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली ललिता, सीमा और वैशाली स्कूल लगने के एक घंटे पहले ही पहुंच गई हैं. स्कूल की सीढ़ी पर खड़ी ललिता आज का जो पाठ पढ़ा रही है उसे नीचे बैठी सीमा और वैशाली लिख रही हैं. तीनों अपने-अपने काम में इतनी तल्लीन हैं कि उन्हें अपने आसपास का भी ध्यान नहीं है. लेकिन आसपास खड़े लोगों के लिए यह दृश्य साधारण नहीं है.
असल में हम जिस स्कूल की बात कर रहे हैं वह है पारधी स्कूल. पारधी यानी मिथ, इतिहास, सामाजिक परंपरा और कानून के मकड़जाल में फंसी एक ऐसी जनजाति जिसके लिए ऐसा दृश्य दुर्लभ है. इसलिए कम से कम स्थानीय लोगों के लिए यह स्कूल किसी आश्चर्य से कम नहीं लगता.अंग्रेजों ने पारधी जनजाति को अपराधिक जनजाति अधिनियम,1871 के तहत सूचीबद्ध किया था. अंग्रेज चले गए मगर धारणा छोड़ गए. इसलिए आज भी पारधी बस्तियां गांव से कोसों दूर जंगलों में होती हैं. कोई रास्ता इन बस्तियों को नहीं जाता. न ही सरकार की कोई योजना यहां आती है और न बिजली, न पानी, न राशन और न ही स्वास्थ्य की कोई सुविधा. इसलिए यहां के लोग कहते हैं कि आजादी के 64 सालों में सरकार ने हमें एक ही चीज दी है और वह है– महादेव बस्ती का यह स्कूल.
महाराष्ट्र के उस्मानाबाद से तकरीबन 125 किमी दूर, एक जंगली पहाड़ी के नीचे यहां गिनती के 60 पारधी घरों में 279 बाशिंदे रहते हैं. इनके दिलों से शासन की दहशत कुछ कम तो हुई है लेकिन पूरी तरह से गई नहीं. तभी तो थोड़ी देर पहले हमारी गाड़ी देखते ही ज्यादातर लोग अदृश्य हो गए थे. उन्हें लगा था कि आसपास कोई वारदात हुई होगी जिसकी छानबीन के लिए पुलिस आई है. लेकिन कुछ देर बाद ‘अपनेवाले हैं’, ऐसा कहकर ये एक जगह जमा होने लगे. और अब जिस जगह हम हैं, वह है बस्ती की एकमात्र पक्की बिल्डिंग यानी महादेव बस्ती का यह स्कूल. बोर्ड पर स्कूल बनने का साल (1998), बच्चों की कुल संख्या (27), बालक (10) और बालिका (17) लिखा है. एक बड़े हॉल से होकर 2 कमरे खुलते हैं जिसमें चौंथी तक की कक्षाएं लगती हैं. यों तो स्कूल का कार्यालय और उसके पीछे बाथरूम भी है लेकिन 30 गुणा 60 फीट वाले इस स्कूल की पूरी तस्वीर तब बनती है जब लोगों से मालूम होता है कि चार सालों से यहां का परीक्षाफल शत प्रतिशत है. साथ ही यह उस्मानाबाद जिले का आदर्श स्कूल घोषित है.
गांव के सुबराराव शिंदे ने याद करते हुए बताते हैं, 'पहले तो पुलिस के छापे ही लगते थे. कोई शिक्षक आने की हिम्मत नहीं करता था. तब स्कूल की दीवारें थीं, पर पढ़ाई नहीं. यदि शिक्षक आते भी तो बच्चे नहीं होते. वे इधर उधर खेलते रहते और शिक्षकों को 'ओ मास्टर' कहकर चिढ़ाते. हमें लगता कि इस स्कूल के बहाने पुलिस बस्ती पर निगाह रखती है.' फिर कोई आठ साल पहले पहल की एक स्थानीय दलित संगठन ने. दलित संगठन ने जब यहां कदम रखा तो कई मुश्किलों का सामना किया. संगठन के कर्ताधर्ता बजरंग टाटे बताते हैं, 'ये हमें पुलिस की ही दोस्त समझते. पूछने पह अपना नाम सलमान या शाहरुख बताते और फोटो तो बिल्कुल नहीं खिंचवाते. हमारा चार साल का समय बच्चों को स्कूल बुलाने में ही चला गया. गांव के कल्याण काले के मुताबिक संगठन के लोगों ने पहले गांव वालों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताया. इससे गांव वालों के अंदर का डर दूर होने लगा. बातों ही बातों में गांव के लोगों ने जाना कि पढ़ाई कितनी जरूरी है. तब पढ़ाई में आने वाली अड़चनों पर घंटों बातें होतीं. टाटे ने बताया कि 2007 को 60 परिवारों के सभी महिला और मर्दों को लेकर एक सर्वे किया. तब समाज ने शाला का मॉडल बनाया. इसलिए शाला का नाम पड़ा- समाजशाला.
समाजशाला के बारे में शिक्षिका प्रतिभा दीक्षित बताती हैं कि इस स्कूल का पाठ्यक्रम सरकारी ही है. बकौल प्रतिभा, 'पहले पहल बच्चों के साथ खास दिक्कत यह रही कि इन्हें पारधी ही बोलनी आती थी, जो हमें नहीं आती थी. तब एक दूसरे को समझने के लिए खेल, गाने, चित्रों और कई चीजों का इस्तेमाल किया गया. धीरे-धीरे बच्चे मराठी, हिंदी और अंग्रेजी के पाठ भी सीखने लगे.' महादेव बस्ती की महिला सुनिधि शिंदे से पता चला कि स्कूल की ताकत उसकी समिति है. इसे बस्ती की औरतें संभालती हैं. यही बच्चों की हाजिरी, उनकी पढ़ाई-लिखाई और दोपहर के खाने का ध्यान रखती हैं. यहां औरतों का अलग से एक समूह है जिसमें सभी हर महिने दस-दस रुपए जमा करती हैं. यह रकम सिर्फ बच्चों पर खर्च होती है. समाजशाला से समन्वयक विठ्ठल खंडागले ने बताया कि स्कूल में बिजली, शौचालय, मैदान और मैदान पर बने ब्लैकबोर्ड को युवा टोली की मेहनत का नतीजा है. टोली में अठारह से तीस साल के पारधी युवा 26 जनवरी को एक मेला लगाकर अफसरों के अलावा नेताओं को भी बुलाते हैं. इस साल जिला परिषद अध्यक्ष गोदावरे केंद्रे ने बस्ती में पक्की सड़क बनाने का वादा किया है. इसी तरह बीते साल उपविभागीय पुलिस अधीक्षक विजय महाले ने पारधियों के दिलों में पुलिस के डर को दूर करने के लिए कार्यशाला रखी थी.
चार साल पहले महादेव बस्ती ने अपनी पंचायत में जो फैसला लिया उस पर मराठवाड़ा के कई लोगों को आज भी यकीन नहीं होता. उस दिन पूरी बस्ती इस बात पर एकमत हुई कि अगर हमारा बच्चा यदि हमारी गलती से स्कूल नहीं जाता तो हम आर्थिक जुर्माना देंगे. जो बस्ती शिक्षा के दीपक से दूर रही थी उसी बस्ती ने पढ़ाई-लिखाई का यह मतलब जाना था. तब से स्कूल में बच्चों की शत प्रतिशत उपस्थिति दर्ज होने लगी और एक भी बच्चा ड्रापआउट नहीं हुआ. प्रधानाध्यापक राम डाहवे ने खुशी जाहिर करते हुए बताते हैं, 'स्कूल की तारीफ तो कलेक्टर भी करते हैं. समय के साथ पढ़ाई भी बदल रही है. अब हर काम कम्प्यटूर पर होने लगा है. इस इलाके के कई स्कूलों में कम्प्यटूर नहीं पहुचें लेकिन इस साल यहां दो कम्पयूटर दिए हैं.' समाजशाला अब देश भर को यह संदेश दे रही है कि अगर पारधी बस्ती के भीतर एक स्कूल इतना बदलाव ला सकता है तो दूसरी बस्तियों के सरकारी स्कूल क्यों नही.
देखा जाए तो सिर्फ स्कूल बनाने की कोशिशें ही काफी नहीं हैं. इस बस्ती के लोग गांव से बाहर होने के कारण मतदातासूची से छूटे हुए हैं. फुलादेवी (बदला नाम) बताती हैं, 'पुलिस की ज्यादतियां रूकी नही हैं. आसपास कोई चोरी हुई नहीं कि वह यहां आ धमकती है. लेकिन बच्चे समय के पहले स्कूल पहुचंते ही हैं.' जाते समय हमने उनसे इतना ही कहा 'बदलाव की यह आदत रहनी चाहिए.' लेकिन कक्षा 4 के बाद यह आदत रह पाएगी या नहीं कोई नहीं जानता, क्योंकि आगे की पढ़ाई के लिए यहां से बाहर जाना होगा. और इस बस्ती से दूर जाने से बच्चे तो क्या बड़े भी डरते हैं.
शाम ढल चुकी है लेकिन पारधी गानों की धुन पर बच्चों का थिरकना जारी है. बिछड़ते समय पहली के कुछ बच्चो ने घेर लिया. उनमें से दीपक शिंदे ने कहा, 'अरे हमारी एक कविता तो सुनते जाओ.'
हमने कहा, 'कौन-सी?'
वह बोला, 'सूरज को तोड़ने जाना है.'
हमने कहा, 'अगली बार तोड़ कर सुनाना.'